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श्रमण-सूत्र
वंदामि रिट्ठनेमि,
पासं तह वद्धमाणं च ॥४।। एवं मए अभिथुआ,
विहुय-रयमला, पहीणजरमरणा। चउवीसं पि जिणवरा,
तित्थयरा मे पसीयंतु ॥॥ कित्तिय-वंदिय-महिया,
जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । आरुग्गबोहिलाभ,
समाहिवरमुत्तमं दितु ॥६॥ चंदेसु निम्मलयरा,
आइच्चेसु अहिंयं पयासयरा । सागर-वर-गंभीरा,
सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥७॥
शब्दार्थ लोगस्स - लोक में ... चउवीसंपिचौबीसों ही उज्जोयगरे = ज्ञान का प्रकाश केवली = केवल ज्ञानियों का करने वाले
कित्तइस्संकीत न करूंगा धम्मतित्थयरे = धर्मतीर्थ की उसमें = ऋषभदेव को
स्थापना करने वाले च% और जिणे = रागद्वेष के विजेता अजियं = अजितनाथ को अरिहंते=अरिहत भगवान् वंदे = वन्दना करता हूँ
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