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प्रतिज्ञा-सूत्र
२२६ यहाँ उद्ध त कर सकें, इतना हमें न अवकाश है और न वह लेख सामग्री ही पास है। केवलियं
मूल में 'केवलियं' शब्द है, जिसके सस्कृत रूपान्तर दो किए जा सकते हैं केवल और कैवलिक । केवल का अर्थ अद्वितीय है । सम्यग दर्शन आदि तत्त्व अद्वितीय हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं । कौन है वह सिद्धान्त, जो इनके समक्ष खड़ा हो सके ? मानवजाति का हित एकमात्र इन्हीं सिद्धान्तों पर चलने में है। पवित्र विचार और पवित्र अाचार ही
आध्यात्मिक सुख समृद्धि एवं शान्ति का मूल मन्त्र है। ___कैवलिक का अर्थ है-'केवल ज्ञानियों द्वारा प्ररूपित अर्थात् प्रतिपादित । छद्मस्थ मनुष्य भूल कर सकता है। अतः उसके बताए हुए सिद्धान्तों पर पूर्ण विश्वास नहीं किया जा सकता। परन्तु जो केवल ज्ञानी हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वद्रष्टा है,-त्रिकालदर्शी है; उनका कथन किसी प्रकार भी असत्य नहीं हो सकता । इसी लिए मंगल सूत्र में कहा गया है कि'केवलि-पन्नत्तो धम्मो मंगलं ।' सम्यग् दर्शन आदि धर्म तत्त्व का निरूपण केवल ज्ञानियों द्वारा हुआ है; अतः वह पूर्ण सत्य है, त्रिकालाबाधित है।
उक्त दोनों ही अर्थों के लिए प्राचार्य जिनदास-कृत आवश्यक चूणि का प्रामाणिक प्राधार है-"केवलियं-केवलं अद्वितीयं एतदेवकहितं, नान्यद् द्वितीयं प्रवचन मस्ति । केवलिणा वा पगणतं केवलिया” प्रतिपूर्ण
जैनधर्म एक प्रतिपूर्ण धर्म है। सम्यग्दर्शन, सम्यग ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही तो जैनधर्म है । और वह अपने आप में सब अोर से पतिपूर्ण है, किसी प्रकार भी खण्डित नहीं है।
प्राचार्य हरिभद्र प्रतिपूर्ण का अर्थ करते हैं—मोक्ष को प्राप्त कराने वाले सद्गुणों से पूर्ण, भरा हुआ । 'अपवर्ग-प्रापकैगुणैभृतमिति ।'
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