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प्रतिज्ञा सूत्र
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प्रश्न है कि जिनका प्रतिक्रमण करता हूँ, फिर भी उनका प्रतिक्रमण करता हूँ-इसका क्या अर्थ ? प्रतिक्रमण का भी प्रतिक्रमण करना कुछ समझ में नहीं पाता ?
प्राचार्य जिनदास ऊपर की शंका का बहुत सुन्दर समाधान करते हैं । ग्राम पडिकमामि का अर्थ परिहामि करते हैं और कहते हैं - 'शारीरिक दुर्बलता अादि किसी विशेष परिस्थितिवश यदि मैंने करने योग्य सत्कार्य छोड़ दिया हो-न किया हो, और न करने योग्य कार्य किया हो तो उम सब अति चार का प्रतिक्रमण करता हूँ।' देखिए यावश्यक चूर्णि "संघयणादि दौर्बल्यादिना जं पडिक्कम मि -परिहरामि करणिज्ज, जं च न पडिकमामि अकरणिज्जं ।” आत्म-समुत्कीर्तन
'समणोऽहं संजय-विरय......"माया मोसविवजिनो' यह सूत्रांश यात्म-समुत्कीर्तनपरक है । "मैं श्रमण हूँ, सयत-विरत-प्रतिहतप्रत्याख्यात पापकर्मा हूँ, अनिदान हूँ, दृष्टिमम्पन्न हूँ, और मायामृपाविवर्जित हूँ"-~यह कितना उदात्त, योजस्वी अन्तर्नाद है ! अपने सदाचार के प्रति कितनी स्वाभिमान पूर्ण गम्भीर वाणी है । सम्भव है किसी को इसमें अहंकार की गन्ध याए ! परन्तु यह अहंकार अप्रशस्त नहीं, प्रशस्त है । अात्मिक दुर्बलता का निराकरण करने के लिए साधक को ऐमा स्वाभिमान सदा सर्वदा ग्राह्य है, अादरणीय है । इतनी उच्च संकल्प भूमि पर पहुँचा हुअा साधक ही यह विचार कर सकता है कि ' 'मैं इतना ऊँचा एवं महान् साधक हूँ, फिर भला अकुशल पापकर्म का आचरण कैसे कर सकता हूँ?' यह है वह यात्माभिमान, जो साधक को पापाचरण से बचाता है, अवश्य बचा है ! यह है वह अात्मसमुत्कीर्तन, जो
1 'एरिसो य हों तो कहं पुण अकुपजमायरिस्सं ?' प्राचार्य जिनदास
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