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श्रमण-सूत्र
पण्डित प्रवर सुखलालजी ने अपने पञ्चप्रतिक्रमण' सूत्र में पारिष्ठापनिकागार के विषय में लिखा है-'चउठिवहाहार उपवास में पानी, तिविहाहार उपवास में अन्न और पानी, तथा आयंबिल में विगइ, अन्न एवं पानी लिया जा सकता है।' . तिविहाहार अर्थात् त्रिविधाहार उपवास में पानी लिया जाता है । अतः जल सम्बन्धी छः अागार मूल पाठ में 'सव्वसमाहिवत्तियागारेणं' के आगे इस प्रकार बढ़ा कर बोलने चाहिएँ--'पाणस्स लेवाडेण वा, अलेवाडेण वा, अच्छेण वा, बहलेण वा, ससित्थेग्ण वा, असित्येण वा वोसिरामि ।' ___ उक्त छः अागारों का उल्लेख जिनदास महत्तर, हरिभद्र और सिद्धसेन आदि प्रायः सभी प्राचीन प्राचार्यों ने किया है । केवल उपवास में ही नहीं अन्य प्रत्याख्यानों में भी जहाँ त्रिविधाहार करना हो, सर्वत्र उपयुक्त पाठ बोलने का विधान है । यद्यपि प्राचार्य जिनदास प्रादि ने इस का उल्लेख अभक्तार्थ के प्रसंग पर ही किया है।
उक्त जल सम्बन्धी प्रागारों का भावार्थ इस प्रकार है:
(१) लेपकृत-दाल आदि का माँड तथा इमली, खजूर, द्राक्षा आदि का पानी । वह सब पानी जो पात्र में उपले कारक हो, लेपकृत कहलाता है। त्रिविधाहार में इस प्रकार का पानी ग्रहण किया जा सकता है।
(२) अलेपकृत-छाछ आदि का निथरा हुया और काँजी आदि का पानी अलेपकृत कहलाता है । अलेपकृत पानी से वह धोवन लेना चाहिए, जिसका पात्र में लेप न लगता हो ।
(३) अच्छ-अच्छ का अर्थ स्वच्छ है । गर्म किया हुआ स्वच्छ पानी ही अच्छ शब्द से ग्राह्य है। हाँ, प्रवचन सारोद्धार की वृत्ति के रचयिता प्राचार्य सिद्धसेन उष्णोदकादि कथन करते हैं। 'अपिच्छलात् उष्णोदकादेः । परन्तु प्राचार्यश्री ने स्पष्टीकरण नहीं किया कि श्रादि से उष्णजल के अतिरिक्त और कौन सा जल ग्राह्य है ? संभव है फल
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