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श्रमण-सूत्र
भावार्थ
[ पाप स्थान का त्याग ] हिंसा, सत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, श्रभ्याख्यान = मिथ्या दोषारोपण, पैशुन्य = चुगली, रतिश्ररति पर परिवाद, मायामृषावाद, मिथ्यात्वशल्य |
,
ये अट्ठारह पाप स्थान मोक्ष के मार्ग में विघ्नरूप हैं, बाधक हैं । इतना ही नहीं, दुर्गति के कारण भी हैं । श्रतए सभी पापस्थानों का मन, बचन और शरीर से त्याग करता हूँ ।
एगोहं नत्थि मे कोई, नाहमन्नस्स
एवं दीरमरणसो,
एगो मे सास अप्पा,
पाणमसास ॥११॥
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सेसा मे बाहिरा भावा,
नारदंसण-संजु |
संजोगमूला जीवेण,
पत्ता
कस्सइ ।
सव्वे संजोगलक्खणा ||१२||
तम्हा संजोग --संबंध,
दुक्ख - परंपरा |
सव्यं तिविहेण वोसिरिश्रं ॥ १३॥
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