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श्रमण-सूत्र एवमाइएहि = इत्यादि।
यानी प्रकट रूप में अागारे ि= श्रागारों से, अपवादों
'नमो अरि
ताणं बोल कर मे= मेरा
न पारेमि = कायोत्सर्ग न पारू काउस्सगो = कायोत्सर्ग ताव= तब तक (मैं) अभग्गो-अभग्न
ठाणेणं =एक स्थान पर स्थिर अविराहियो-विराधित, अखंडित हुज्ज-होवे
मोणेसं = मौन रह कर [कायोत्सर्ग कब तक झाणेणं = ध्यानस्थ रह कर जाव: जब तक
अप्पाण = अपने अरिहंताणं = अरिहंत
कायं= शरीर को भगवंताणं -भगवानों को वोसिरामि= बोसराता हूँ.. नमुक्कारेणं = नमस्कार करके,
त्यागता हूँ
भावार्थ: - कायोत्सर्ग में काय-व्यापारों का परित्याग करता हूँ, निश्चल होता हूँ, परन्तु जो शारीरिक क्रियाएँ अशक्य परिहार होने के कारण स्वभावत: हरकत में आ जाती हैं, उनको छोड़कर ।
उच्छ वास: ऊँचा श्वास, निःश्वास - नीचा श्वास, कासित% खांसी, छिक्का = छींक, उबासी, डकार, अपान वायु, चक्कर, पित्तविकारजन्य मूर्छा; सूक्ष्म रूप से अंगों का हिलना, सूक्ष्म रूप से कक का निकलना, सूक्ष्म रूप से नेत्रों का हरकत में आ जाना, इत्यादि प्रागारों से मेरा कायोत्सर्ग अभग्न एवं अपिराधित हो ।
१- आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने श्रावश्यक नियुक्ति में आदि शब्द का निर्वचन करते हुए लिखा है कि यदि अग्नि का उपद्रव हो, पञ्चेन्द्रिय प्राणी का छेदन-भेदन हो, सर्प श्रादि अपने को अथवा किसी दूसरे को काट खाए तो अात्म रक्षा के लिए एवं दूसरों की सहायता करने के लिए, ध्यान खोला जा सकता है।
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