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बोल संग्रह
४१५ (६) आपृच्छना-किसी कार्य में प्रवृत्ति करनी हो तो पहले गुरुदेव से पूछना चाहिए कि-'क्या मैं यह कार्य कर लूँ ?' यह प्रापृच्छना है।
(७) प्रतिपृच्छना-गुरुदेव ने पहले जिस काम का निषेध कर दिया हो, यदि आवश्यकतावश वही कार्य करना हो तो गुरुदेव से पुनः पूछना चाहिए कि “भगवन् ! आपने पहले इस कार्य का निषेध कर दिया था, परन्तु यह अतीव अावश्यक कार्य है; अतः आप अाज्ञा दें तो यह कार्य कर लूँ ?” इस प्रकार पुनः पूछना, प्रतिपृच्छन है ।
(८) छन्दना-स्वयं लाए हुए आहार के लिए साधुओं को आमंत्रण देना कि 'यह श्राहार लाया हूँ, यदि आप भी इसमें से कुछ ग्रहण करें तो मैं धन्य होऊँगा ।'
(६) निमंत्रणा-याहार लाने के लिए जाते हुए दूसरे साधुओं को निमंत्रण देना, अथवा यह पूछना कि क्या आपके लिए भी श्राहार लेता पाऊँ ?
(१०) उपसंपदा-ज्ञान आदि प्राप्त करने के लिए अपना गच्छ छोड़कर किसी विशेष ज्ञान वाले गुरु का श्राश्रय लेना, उपसंपदा है । गच्छ-मोह में पड़े रह कर ज्ञानादि उपार्जन करने के लिए दूसरे योग्य गच्छ का ग्राश्रय न लेना, उचित नहीं है।
( भगवती, शत० २५., ३ ७)
(११) साधु के योग्य चौदह प्रकार का दान (१) अशन-खाए जाने वाले पदार्थ रोटी आदि । (२) पान-पीने योग्य पदार्थ, जल आदि ।
माया . (३) खादिम--मिष्टान्न, मेवा श्रादि सुस्वादु पदार्थ । (४) स्वादिम–मुख की स्वच्छता के लिए, लौंग सुपारी श्रादि ।
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