________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
४३२
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
श्रमण-सूत्र
(६) प्राभृतिका - साधु को पास के ग्रामादि में श्राया जान कर विशिष्ट आहार बहराने के लिए जीमणवार आदि का दिन आगे पीछे कर देना ।
(७) प्रादुष्करण - अन्धकारयुक्त स्थान में दीपक आदि का प्रकाश करके भोजन देना ।
(८) क्रीत - साधु के लिए ख़रीद कर लाना ।
(६) प्रामित्य - साधु के लिए उधार लाना ।
(१०) परिवर्तित - साधु के लिए ग्रहा-सहा करके लाना ।
(११) अभिहृत - साधु के लिए दूर से लाकर देना ।
W
(१२) उद् भिन्न - साधु के लिए लिप्त पात्र का मुख खोल कर घृतादि देना ।
(१३) मालापहृत - ऊपर की मञ्जिल से या छींके वगैरह से सीढ़ी आदि से उतार कर देना ।
(१४) आच्छेद्य - दुर्बल से छीन कर देना ।
(१५) अनिसृष्ट - साझे की चीज़ दूसरों की आज्ञा के बिना देना । (१६) अध्यव पूरक - साधु को गाँव में श्राया जान कर अपने लिए बनाये जाने वाले भोजन में और बढ़ा देना |
उद्गम दोषों का निमित्त गृहस्थ होता है ।
गवेषणा के १६ उत्पादन दोष
धाई दूई निमित्ते श्राजीव वणीमगे तिमिच्छा य । कोहे माणे माया लोभे य हवंति दस एए ॥ | १ || पुव्विं पच्छासंथव विज्जा मंते य चुण्या जोगे य । उपायगाइ दोसा सोलसमे मूलकम्मे य ॥२॥ ( १ ) धात्री - धाय की तरह गृहस्थ के बालकों को खिला-पिला कर, हँसा - रमाकर श्राहार लेना ।
(२) दूती - दूत के समान संदेशवाहक बनकर आहार लेना ।
For Private And Personal