Book Title: Shraman Sutra
Author(s): Amarchand Maharaj
Publisher: Sanmati Gyanpith

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Page 740
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir बोल-संग्रह ४३६ कृमा पूर्वक उचित प्रायश्चित्त विधान की शिक्षा दे देते हैं। और वह शिष्य यथावसर कालान्तर में अपनी उक्त धारणा के अनुसार प्रायश्चित श्रादि का विधान करता है, यह धारणा व्यवहार है । ५. जीत व्यवहार-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, व्यक्ति विशेष, प्रतिसेवना, संहनन एवं धैर्य आदि की क्षीणता का विचार कर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह जीत व्यवहार है । ___ अथवा किसी गच्छ में कारण-विशेष से सूत्र से न्यूनाधिक प्रायश्चित्त की प्रवृत्ति हुई हो और दूसरों ने उसका अनुसरण कर लिया हो तो वह प्रायश्चित जीत व्यवहार कहा जाता है। अर्थात् अपने-अपने गच्छ की परंपरा के अनुसार प्रायश्चित्त आदि का विधान करना, जीत व्यवहार है। अथवा अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा प्रचारित की हुई मर्यादा का प्रतिदिन करने वाला ग्रन्थ जीत कहलाता है और उसके द्वारा प्रवर्तित व्यवहार जीत व्यवहार है। ___ उक्त पाँच व्यवहारों में यदि व्यवहर्ता के पास अागम हो तो उसे श्रागम से व्यवहार करना चाहिए। श्रागम में भी केवल ज्ञान, मनः पर्याय आदि अनेक भेद हैं। इनमें पहले केवल ज्ञान आदि के होते हुए उन्हीं से व्यवहार चलाया जाना चाहिए, दूसरों से नहीं। आगम के अभाव में श्रुत से, श्रु त के अभाव में प्राज्ञा से, आज्ञा के अभाव में धारणा से, और धारणा के अभाव में जीत व्यवहार से प्रवृत्ति निवृत्तिरूप व्यवहार का प्रयोग करना चाहिए । देश, काल के अनुसार उपयुक्त पद्धति से सम्यक् रूपेण पक्षपातरहित व्यवहारों का प्रयोग करता हुआ साधक भगवान् की आज्ञा का अाराधक होता है। [स्थानांग सूत्र ५। २ । ४२१] - - For Private And Personal

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