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।। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ॥चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक:१
आराधना
वीर जैन
श्री महावी
कोबा.
अमृतं
अमृत
तु विद्या
तु
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355
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श्रागम साहित्य-रत्न-माला का द्वितीय रत्न
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श्रमण-सत्र - [आवश्यक दिग्दर्शन, मूल, अर्थ, विवेचन सहित]
लेखक
श्रद्धेय जैनाचार्य पूज्य श्री पृथ्वीचन्द्रजी महाराज के सुशिष्य उपाध्याय मुनि श्री अमरचन्द्रजी महाराज
तिज्ञानर
आगरा
स म ति ज्ञान - पी ठ, आगरा
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प्रकाशकसन्मति ज्ञान पीठ
लोहामण्डी; अागर
प्रथम प्रवेश
सं• २००७ मूल्य साढे पाँच रुपये
मुद्रकजगदीशप्रसाद अग्रवाल
एम० ए० बी० कॉम., दी एज्यूकेशनल प्रेस, आगरा
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स म प ण जो तप और त्याग के उज्ज्वल प्रतीक थे, जिनके मन, वचन, कर्म से सदा विवेक का प्रकाश जगमगाता था, जिनका संयम माया की छाया से परे था, जिनकी साधना, श्रादर्श साधना थी, उन महास्थविर, पवित्रात्मा, दिवंगत क्षमा भमण श्री नाथूलालजी महाराज की सेवा
में सादर सभक्ति समर्पित
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स्नेह-स्मृति प्राचार्य मोतिरामस्य,
श्रीमतः स्वर्गवासिनः स्मृतौ तत्स्नेह-पात्रेण,
कृतिरेषा प्रकाशिता॥
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धन्यवाद
श्रीयुत हेमचन्द्रजी जैन सदर बाजार देहली के हम कृतज्ञ हैं कि उन्होंने बड़े ही स्नेह भाव से श्रमण सूत्र के प्रकाशन के लिए ७३०) रु. का सुन्दर कागज संस्था को अर्पण किया, जिसके फलस्वरूप श्रमण स्त्र मुद्रित रूप में इतना शीघ्र जनता तक पहुँच सका।
श्री हेमचन्द्र जी हमारे जैन समाज के उत्साही युवक हैं, सुन्दर विचारक हैं और देहली नगरपालिका सभा ( म्युनिसिपल कमेटी) के माननीय सदस्य हैं । जैन संसार श्रापसे भविष्य में बड़ी आशाएँ रखता है । हम आपके महान् भविष्य के लिए मंगल कामना करते हैं।
-मन्त्री, सन्मति ज्ञानपीठ
आगरा
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प्रकाशकीय निवेदन
साहित्य समाज का दर्पण होता है । दर्पण का कार्य वस्तु का वास्तविक रूप में दर्शन कराना है । मनुष्य जैसा होगा, उसका प्रतिबिम्ब भी दर्पण में वैसा ही होगा । साहित्य रूपी दर्पण में समाज अपना यथार्थं दर्शन पा लेता है । वह जान सकता है कि मैं क्या हूँ ? मैंने अभी तक क्या प्रगति की है ? मेरा रूप सुरूप है या कुरूप ?
साहित्य की महत्ता और विशालता पर ही समाज की उपयोगिता आधारित रहती है | साहित्य समाज, धर्म और संस्कृति का प्राणाधार है | साहित्य की उपेक्षा करके समाज, धर्म और संस्कृति जीवित नहीं रह सकती । विना प्राण के शरीर जैसे शव कहलाता है, उसी प्रकार साहित्य शून्य समाज की भी स्थिति है । सत्साहित्य समाज के जीवित होने का चिह्न है ।
इसी शुभ लक्ष्य की पूर्ति के लिए ज्ञान पीठ ने मौलिक साहित्य प्रकाशित करने का दृढ़ संकल्प किया है । स्वल्प काल में ही उसने अपनी उपयोगिता सिद्ध करने में सफलता प्राप्त की है और समाज को ठोस साहित्य प्रदान करके जनता की चौद्धिक चेतना को स्फूर्ति एवं जागृति प्रदान की है । ज्ञानपीठ के प्रकाशनों की सर्वप्रियता का अनुमान पाठकगण मासिक, पाक्षिक और साप्ताहिक पत्रों की समालोचनाओं पर से लगा सकते हैं ।
उन्हीं प्रकाशनों की श्रृङ्खला में आज हम श्रद्वेष उपाध्यायजी का श्रमण सूत्र लेकर उपस्थित हो रहे हैं । श्रमण सूत्र क्या है, उसका क्या महत्त्व है, और उस महत्त्व के प्रकटीकरण में उपाध्यायश्रीजी ने क्या कुछ
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लिखा है, ये सब श्राप पुस्तक पढ़कर जान सकेंगे । हम स्वयं अपनी श्रोर से इस सम्बन्ध में क्या लिखें ? उपाध्याय श्रीजी ने हमारे समाज को नई भाषा में नया चिन्तन देने का जो महान् उपक्रम किया है, उसे भविष्य की परम्परा कभी भूल न सकेगी। उपाध्याय श्रीजी के विराट अध्ययन की छाया; उनके ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है ।
सन्मति ज्ञान- पीठ लोहामण्डी, श्रागरा
श्रमण सूत्र के मुद्रण का कार्य बड़ी शीघ्रता में हुआ है । इधर मुद्रण चल रहा था और उधर साथ-साथ लेखन भी चलता था । इधर दो महीने से उपाध्याय श्रीजी का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहा है । इस विचित्र स्थिति में सम्भव है मुद्रण एवं संशोधन सम्बन्धी कुछ भूलें रही हों, पाठक उनके लिए हमें क्षमा करेंगे ।
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विनीत
रतनलाल जन
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आमानवंदन
'श्रमण सूत्र' 'श्रमण धर्म की साधना का मूल प्राण है । जैन श्रमण का जो कुछ भी श्राचार व्यवहार है, जीवन प्रवाह है, उसका संक्षिप्त स्वरूप दर्शन श्रमण सूत्र के द्वारा हो सकता है । यही कारण है कि प्रति दिन प्रातः और सायंकाल प्रस्तुत सूत्र का दो बार नियमेन पाठ, प्रत्येकसाधु और साध्वी के लिए आवश्यक है । यह जीवन शुद्धि और दोष प्रमार्जन का महा सूत्र है । श्रमण साधक कितना ही अभ्यासी हो, परन्तु यदि उसे श्रमण सूत्र का ज्ञान नहीं है तो समझना चाहिए कि वह कुछ नहीं जानता । श्रमण सूत्र का ज्ञान, एक प्रकार से साधक के लिए अपनी आत्मा का ज्ञान है। ____जो सूत्र इतना महान् एवं इतना उच्च है, दुर्भाग्य से उस पर अच्छी तरह लक्ष्य नहीं दिया गया । सूत्र पाट केवल रट लिए जाते हैं, न पाठ शुद्धि ही होती है और न अर्थ ज्ञान । अोषसंज्ञा के प्रवाह में पड़कर श्रमण सूत्र का रूप इतना विकृत कर दिया गया है कि देखकर हृदय में महती पीड़ा होती है । ___ मैं बहुत दिनों से इस ओर कुछ लिखने का विचार करता रहा हूँ। सामायिक सूत्र लिखने के बाद तो मुझे साधुवर्ग की ओर से भी प्रेरणा मिली कि ऐसा ही कुछ साधु प्रतिक्रमण पर भी लिखा जाय । मैंने कुछ लिखा भी । और मेरा जब यह लेख व्याख्यान वाचस्पति श्रद्धेय श्री
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[ २
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मदन मुनिजी ने देखा तो आप बड़े ही प्रभावित हुए । उनकी ओर का आग्रह हुआ कि इसे शीघ्र से शीघ्र पूरा कर दिया जाय । परन्तु श्राप जानते हैं जैन भिक्षु की 'जीवनचर्या' कहीं एक जगह जमकर बैठने की नहीं है । यहाँ चतुर्मास में ही थोड़ा बहुत लिखने का कार्य हो सकता है । फिर सब जगह प्राचीन और नवीन पुस्तक सामग्री भी तो नहीं मिल पाती है । विना प्रामाणिक आधार लिए केवल कल्पना के भरोसे कलम को आगे बढ़ाना, आजकल मुझे पसन्द नहीं रहा है । यही कारण है कि श्रमण सूत्र के लेखन का कार्य यथाशीघ्र प्रगति नहीं कर सका ।
अबकी बार आगरा में कुछ दिन ठहरना हुआ तो विचार श्राया कि वह कार्य पूरा कर दूँ । यहाँ साधन सामग्री भी उपलब्ध थी । कुछ दिन तो कार्य ठीक चलता रहा । परन्तु इधर दो महीने से मैं बराबर स्वस्थ रहा। सिरदर्द ने इतना तंग किया है कि अधिक क्या लिखूँ ? ये पंक्तियाँ भी सिरदर्द की दु:स्थिति में ही लिखी जा रही हैं। हाँ, तो कुछ दिन लेखन कार्य बन्द भी रक्खा, पर कुछ विशेष स्वास्थ्य लाभ न हुश्रा । और इसी बीच व्यावर संघ का अत्याग्रह होने से वहाँ के चातुर्मास के लिए स्वीकृति दे दी । अब प्रश्न यह आया कि जैसे भी हो कार्य पूर्ण किया जाय, अन्यथा अधूरा ही छोड़कर विहार करना होगा ।
हाँ, तो सिर दर्द होते हुए भी लिखने में जुटना पड़ा । इधर लिखता था और उधर मुद्रण बड़ी तीव्र गति से चल रहा था । इस वार बड़ी विकट स्थिति में मुके गुजरना पड़ा है। अतः मैं जैसा चाहता था, अथवा मेरे साथी मुझसे जैसा चाहते थे, वैसा तो मैं नहीं लिख सका हूँ । प्रारम्भ में ही अपनी दुर्बलता के लिए क्षमा याचना कर लेता हूँ । फिर भी कुछ लिखा गया है । केवल 'न' से कुछ 'हाँ' अच्छी ही होती है । हाँ, तो मैं लिख गया हूँ । अब क्या है, कैसा है, यह सब विचार करना, पाठकों का काम है । सम्भव है कहीं इधर-उधर लिखा गया हो, मूल की भावनाएँ स्पष्ट न हो पाई हों, विपर्यास भी हुआ हो, उन सबके लिए मुझे आशा है ग्रात्मीयता की पवित्र भावना से सूचनाएँ मिलेंगी और
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३]
新 शुद्ध हृदय से उन पर विचार करूँगा एवं भूल को भूल मानूँगा । भूल स्वीकार करने में न मुझे कभी संकोच रहा है और न ब है । हाँ, भूल यदि वस्तुतः भूल हो तो !
आवश्यक दिग्दर्शन मैं अच्छी तरह लिखना चाहता था । इस और मैंने प्रारम्भ से ही विस्तार की भूमिका भी अपनाई थी । परन्तु दुर्भाग्य से स्वास्थ्य ने साथ अच्छा नहीं दिया, फलतः मुझे मन मारकर भी सिमटना पड़ा । श्रावश्यक पर मैं खुलकर चर्चा करना चाहता था, वह इच्छा पूर्ण न हो सकी। खैर, कोई बात नहीं । मैं भविष्य के प्रति सदा ही आशावादी रहा हूँ। कभी समय मिला तो मैं इस विषय पर बहुत च्छी सामग्री लेकर उपस्थित होऊँगा । इतने समय तक चिन्तन को और अधिक काश मिल सकेगा, फलतः अध्ययन अपनी स्थिति को और अधिक सुदृढ़ बना सकेगा ।
प्रस्तुत श्रमण सूत्र के सम्पादन में मेरा क्या है ? मेरा तो केवल श्रम है इधर-उधर से बटोरने का और उसे व्यवस्थित रूप देने का । प्राचीन आगम साहित्य और जैनाचार्यों का विचार प्रकाश ही मेरे लिए पथ प्रदर्शक बना है । श्राचार्य भद्रबाहु स्वामी, श्राचार्य हरिभद्र और आचार्य जिनदास आदि का तो मुझ पर बहुत ही अधिक ऋण है । और इधर जैनजगत के ख्यातनामा महान् दार्शनिक पण्डित सुखलालजी का पञ्च प्रतिक्रमण एवं स्थानक वासी जैन समाज के सुप्रसिद्ध ज्ञानाचार के साधक साहित्यप्रेमी श्रीभैरुदानजी सेठिया बीकानेर का बोलसंग्रह भी यत्र-तत्र पथ प्रदर्शक रहा है । उक्त ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का खासा अच्छा ऋण मेरी स्मृति में है । प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी रूप में किसी की किसी भी कृति से किसी भी प्रकार का सहयोग मिला हो तो मैं उन सब महानुभावों का कृतज्ञ हूँ ।
भूमिका ही तो है, अधिक लिखने से क्या लाभ ? फिर भी पाठक क्षमा करेंगे, मैं अपने कुछ स्नेही सहयोगियों को स्मृति में ले आना चाहता हूँ | श्रद्धेय जैनाचार्य गुरुदेव पूज्य श्री पृथ्वीचन्द्रजी महाराज का
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आगरा
चैत्र पूर्णिना सं० २००७
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आशीर्वाद, व्याख्यानवाचस्पति श्रद्धेय श्री मदन मुनि जी एवं योगनिष्ठ श्रीरामजीलालजी म० की उत्साह पूर्ण मधुर प्रेरणा, श्री बलवन्त मुनि जी का विलम्ब होते रहने के लिए समय समय पर उलहना, मेरे चिर स्नेही गुरु भ्राता श्री अमोलकचन्दजी का पद-पद पर सहयोग एवं परामर्श, मेरे प्रिय शिष्ययुगल श्री विजय मुनि और सुरेश मुनिजी का सहकार ही मुझे प्रस्तुत विशाल - लेखन कार्य की पूर्ति पर पहुँचा सका है । ओर जैन सिद्धान्त सभा के संस्थापक श्री नगीनदास गिरधरलाल सेठ श्री दयालचन्द्र जी चोरडिया रोशन मुहल्ला आगरा की ओर से मिलने वाली साहित्य सामग्री आदि का सहयोग भी प्रस्तुत कार्य के साथ स्मृति में रहेगा । सन्मतिज्ञान पीठ के महामन्त्री सेठ रतनलाल जी की सेवा तो अपनी निजी बात है, वह भुलाई ही कैसे जा सकती है ? प्रिय आत्म-बन्धुत्रो ! तुम सब का सहयोग भविष्य के लिए भी यथावसर प्रस्तुत रहे, यही मङ्गल कामना |
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- अमर मुनि
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विषया
पृष्ठांक
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विषय श्रावश्यक दिग्दर्शन
१ मानव-जीवन का महत्त्व २ मानव-जीवन का ध्येय ३ सच्चे सुख की शोध ४ श्रावक-धर्म ५ श्रमण-धर्म
'श्रमण' शब्द का निर्वचन ७ श्रावश्यक का स्वरूप ८ आवश्यक का निर्वचन ६ श्रावश्यक के पर्याय १. द्रव्य और भाव अावश्यक ११ आवश्यक के छः प्रकार १२ सामायिक अावश्यक १३ चतुर्विशति स्तव अावश्यक १४ वन्दन आवश्यक १५ प्रतिक्रमण श्रावश्यक १६ कायोत्सर्ग आवश्यक १७ प्रत्याख्यान अावश्यक १८ अावश्यकों का क्रम १६ अावश्यक से लौकिक जीवन की शुद्धि
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२०१
[ २ ] २० आवश्यक का आध्यात्मिक फल २१ प्रतिक्रमण जीवन की एक रूपता २२ प्रतिक्रमण : जीवन की डायरी ..." २३ प्रतिक्रमणः श्रात्मपरीक्षण ..." २४ प्रतिक्रमणः तीसरी औषध २५ प्रतिक्रमणः मिच्छामि दुक्कडं .... २६ मुद्रा २७ प्रतिक्रमण पर जन-चिन्तन ...
२८ प्रश्नोत्तरी श्रमण-सूत्र
१ नमस्कार-सूत्र २ सामायिक-सूत्र ३ मंगल-सूत्र ४ उत्तम-सूत्र ५ शरण-सूत्र ६ संक्षिप्त प्रतिक्रमण-सूत्र ७ ऐर्यापथिक-सूत्र ८ शय्या-सूत्र ६ गोचरचर्या-सूत्र १. काल-प्रतिलेखना-सूत्र ११ असंयम-सूत्र
१२ बन्धन-सूत्र · १३ दण्ड-सूत्र
१४ गुप्ति-सूत्र १५ शल्य-सूत्र १६ गौरव-सूत्र १७ बिराधना-सूत्र
१०७ ११० ११४
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१८
कषाय-सूत्र
१६. संज्ञा-सूत्र
२०
विकथा-सूत्र
२१
ध्यान -सूत्र
२२ क्रिया-सूत्र
२३ काम-गुण-सूत्र
२४ महाव्रत- सूत्र
२५ समिति-सूत्र
२६ जीवनिकाय सूत्र
२७ लेश्या सूत्र
२८ भयादि-सूत्र २६ प्रतिज्ञा सूत्र
३० क्षामणा -सूत्र
३१ उपसंहार सूत्र
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[
परिशिष्ट
१ द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२ प्रत्याख्यान-सूत्र
एकाशन- सूत्र
५ एकस्थान- सूत्र
६
७
८
१ नमस्कार सहित -सूत्र
२ पौरुषी-सूत्र
३ पूर्वार्ध-सूत्र
४
श्राचा म्ल-सूत्र
श्रभक्तार्थ - उपवास-सूत्र
दिवस - चरिम-सूत्र
अभिग्रह-सूत्र
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GOVE
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३३५
..१० निर्विकृतिक-सूत्र
११ प्रत्याख्यान-पारणा सूत्र ३ संस्तार-पौरुषी-सूत्र ४ शेप-सूत्र
१ सम्यक्त्व-सूप २ गुरु-गुण-स्मरण-सूत्र ३ गुरु-वन्दन-सूत्र ४ अालोचना-सून ५ उत्तरीकरण-सूत्र ६ श्रागार-सूत्र ७ चतुर्विशतिस्तव-सूत्र ८ प्रणिपात-सूत्र
३५०-३६७
३५० ३५१ ३५२
....
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३५६
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४०५ ४०१-४४०
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५ संस्कृतच्छायाऽनुवाद ६ अतिचार-आलोचना ७ परमेष्ठि-वन्दन ८ बोल-संग्रह
१ प्रतिलेखना की विधि २ अप्रमाद-प्रतिलेखना ३ प्रमाद-प्रतिलेखना ४ श्राहार करने के छः कारण ५ श्राहार त्यागने के छः कारण "" ६ शिक्षाभिलाषी के पाठ गुण .... ७ उपदेश देने योग्य पाठ बातें.... ८ भिक्षा की नौ कोटियाँ १ रोग की उत्पत्ति के नौ कारण १. समाचारी के दश प्रकार
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४१८ ૪૨૨ ४२६ ४२६ ४३१ ४३५
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११ साधु के योग्य चौदह प्रकार का दान १२ कायोत्सर्ग के उन्नीस दोष १३ साधु की ३१ उपमाएँ १४ बत्तीस अस्वाध्याय १५ वन्दना के बत्तीस दोष
तेतीस पाशातनाएँ १७ गोचरी के ४७ दोष १८ चरण-सप्तति १६ करण-सप्तति २० चौरासी लाख जीव योनि ... २१ पाँच व्यवहार
२२ अठारह हजार शीलाङ्ग रथ "" १ विवेचनादि में प्रयुक्त ग्रन्थों की सूची
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आवश्यक-दिग्दर्शन
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मानव-जीवन का महत्त्व जब हम अपनी आँखें खोलते हैं और इधर-उधर देखने का प्रयत्न करते हैं तो हमारे चारों ओर एक विराट संसार फैला दिखलाई पड़ता है । बड़े-बड़े नगर बसे हुए हैं और उनमें खासा अच्छा तूफान जीवनसंघर्ष के नाम पर चलता रहता है । दूर-दूर तक विशाल जंगल और मैदान हैं, जिनमें हज़ारों लाखों वन्य पशु पक्षी अपने क्षुद्र जीवन की मोह-माया में उलझे रहते हैं । ऊँचे-ऊँचे पहाड़ हैं, नदी नाले हैं, झील हैं, समुद्र हैं, सर्वत्र असंख्य जीव-जन्तु अपनी जीवन यात्रा की दौड़ लगा रहे हैं । ऊपर आकाश की ओर देखते हैं तो वहाँ भी सूर्य, चन्द्र नक्षत्र और तारों का उज्ज्वल चमकता हुआ संसार दिन-रात अविराम गति से उदय-अस्त की परिक्रमा देने में लगा हुआ है।
यह संसार इतना ही नहीं है, जितना कि हम आँखों से देख रहे हैं या इधर-उधर कानों से सुन रहे हैं। हमारे आँख, कान, नाक, जीभ
और चमड़े की जानकारी सीमित है, अत्यन्त सीमित है। आखिर हमारी इन्द्रियाँ क्या कुछ जान सकती हैं ? जब हम शास्त्रों को उठाकर देखते हैं तो आश्चर्य में रह जाते हैं । असंख्य द्वीप समुद्र, असंख्य नारक
और असंख्य देवी देवताओं का संसार हम कहाँ आँखों से देख पाते हैं ? उनका पता तो शास्त्र द्वारा ही लगता है। अहो कितनी बड़ी है यह दुनिया !
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यावश्यक दिग्दर्शन हमारे कोटि-कोटि बार अभिवन्दनीय देवाधिदेव भगवान् महावीर स्वामी ने, देखिए, विश्व की विराटता का कितना सुन्दर चित्र उपस्थित किया है ?
गौतम पूछते हैं-"भन्ते ! यह लोक कितना विशाल है ?"
भगवान् उत्तर देते हैं-"गौतम ! असंख्यात कोड़ा-कोड़ी योजन पूर्व दिशा में, असंख्यात कोड़ा-कोड़ी योजन पश्चिम दिशा में, हसी प्रकार असंख्यात कोड़ा-कोड़ी योजन दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व और अधोदिशा में लोक का विस्तार 'है ।" -भगवती १२, ७, सू० ४५.७ ।
गौतम प्रश्न करते हैं-"भंते ! यह लोक कितना बड़ा है ?"
भगवान् समाधान करते हैं ---"गौतम ! लोक की विशालता को समझने के लिए कल्पना करो कि एक लाख योजन के ऊँचे मेरु पर्वत के शिखर पर छः महान् शक्तिशाली ऋद्धिसंपन्न देवता बॅठे हुए हैं और नीचे भूतल पर चार दिशाकुमारिकाएँ हाथों में बलिपिंड लिए चार दिशात्रों में खड़ी हुई हैं, जिनकी पीठ मेरु की ओर है एवं मुख दिशाओं की ओर " .
-"उक्त चारों दिशाकुमारिकाएँ इधर अपने बलिपिंडों को अपनीअपनी दिशाओं में एक साथ फेंकती हैं और उधर उन मेरुशिखरस्थ छः देवताओं में से एक देवता तत्काल दौड़ लगाकर चारों ही बलिपिंडों को भूमि पर गिरने से पहले ही पकड़ लेता है। इस प्रकार शीघ्रगति वाले वे छहों देवता हैं, एक ही नहीं ।” __-"उपर्युक्त शीघ्र गति वाले छहों देवता एक दिन लोक का अन्त मालूम करने के लिये क्रमशः छहों दिशाओं में चल पड़े । एक पूर्व की ओर तो एक पश्चिम की ओर, एक दक्षिण की ओर तो एक उत्तर की ओर, एक ऊपर की ओर तो एक नीचे की ओर । अपनी पूरी गति से एक पल का भी विश्राम लिए बिना दिन-रात चलते रहे, चलते क्या उड़ते रहे।"
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मानव जीवन का महत्त्व
- " जिस क्षण देवता मेरुशिखर से उड़े, कल्पना करो, उसी क्षण किसी गृहस्थ के यहाँ एक हजार वर्ष की आयु वाला पुत्र उत्पन्न हुआ | कुछ वर्ष पश्चात् माता-पिता परलोकवासी हुए । पुत्र बड़ा हुआ और उसका विवाह होगया । वृद्धावस्था में उसके भी पुत्र हुआ और बूढ़ा हजार वर्ष की आयु पूरी करके चल बसा । "
गौतम स्वामी ने बीच में ही तर्क किया - "भन्ते ! वे देवता, जो यथाकथित शीघ्र गति से लोक का अन्त लेने के लिए निरन्तर दौड़ लगा रहे थे, हजार वर्ष में क्या लोक के छोर तक पहुँच गए ?"
भगवान् महावीर ने वस्तुस्थिति की गम्भीरता पर बल देते हुए कहा -- " गौतम, अभी कहाँ पहुँचे हैं ? इसके बाद तो उसका पुत्र, फिर उसका पुत्र, फिर उसका भी पुत्र, इस प्रकार एक के बाद एकएक हजार वर्ष की आयु वाली सात पीढ़ी गुजर जायँ, इतना ही नहीं, उनके नाम गोत्र भी विस्मृति के गर्भ में विलीन हो जायँ, तब तक वे देवता चलते रहें, फिर भी लोक का अन्त नहीं प्राप्त कर सकते । इतना महान् और विराट है यह संसार " - भगवती १९, २०, सू० ४२१ । जैन साहित्य में विश्व की विराटता के लिए चौदह राजु की भी एक मान्यता है । मूल चौदहराज और वर्ग कल्पना के अनुसार तीन सौ से कुछ अधिक राजु का यह संसार माना जाता है । एक व्याख्याकार राजु का परिमाण बताते हुए कहते हैं कि कोटिमण लोहे का गोला यदि ऊँचे प्रकाश से छोड़ा जाय और वह दिन रात अविराम गति से नीचे गिरता - गिरता छह मास में जितना लम्बा मार्ग तय करे, वह एक राजु की विशालता का परिमाण है ।
विश्व की विराटता का अब तक जो वर्णन आपने पढ़ा है, सम्भव है, आपकी कल्पना शक्ति को स्पर्श न कर सके और आप यह कह कर अपनी बुद्धि को सन्तोष देना चाहें कि यह सब पुरानी गाथा है, किंवदन्ती है । इसके पीछे वैज्ञानिक विचार धारा का कोई आधार नहीं
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अावश्यक दिग्दर्शन है ।' श्राज का युग-विज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है, फलतः ऐसा सोचना और कहना, अपने आप में कोई बुरी बात भी नहीं है। ___अच्छा तो आइए, जरा विज्ञान की पोथियों के भी कुछ पन्ने उलट लें । सुप्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक डॉ० गोरखनाथ का सौरपरिवार नामक भीमकाय ग्रन्थ लेखक के सामने है । पुस्तक का पाँचवाँ अध्याय खुला हुआ है और उसमें सूर्य की दूरी के सम्बन्ध में जो ज्ञानवर्द्धक एवं साथ ही मनोरंजक वर्णन है, वह अापके सामने है, ज़रा धैर्य के साथ पढ़ने का कष्ट उठाएँ।
-~-"पता चला है कि सूर्य हमसे लगभग सवा नौ करोड़ मील की विकट दूरी पर है । सवा नौ करोड़ ! अंक गणित मी क्या ही विचित्र है कि इतनी बड़ी संख्या को आठ ही अंकों में लिख डालता है और इस प्रकार हमारी कल्पना शक्ति को भ्रम में डाल देता है। [अंक गणित का इतना विकाश न होता तो श्राप एक, दो, तीन, चार, आदि के रूप में गिनकर इस तथ्य को समझते । परन्तु विचार कीजिए कि सवा नौ करोड़ तक गिनने में श्रापका कितना समय लगता ?-लेखक ] यदि श्राप बहुत शीघ्र गिनें तो शायद एक मिनट में २०० तक गिन डालें, परन्तु इसी गति से लगातार, विना एक क्षण भोजन या सोने के लिये रुके हुए गिनते रहने पर भी आप को सवा नौ करोड़ तक गिनने में ११ महीना लग जायगा।" - [हाँ तो आइए, ज़रा डाक्टर साहब की इधर-उधर की बातों में न जाकर सीधा सूर्य की दूरी का परिमाण मालूम करें--लेखक ] "यदि हम रेलगाड़ी से सूर्य तक जाना चाहें और यह गाड़ी बिना रुके हुए बराबर डाकगाड़ी की तरह ६० मील प्रति घन्टे के हिसाब से चलती जाय तो हमें वहाँ तक पहुँचने में १७५ वर्ष से कम नहीं लगेगा । १३ पाई प्रति मील के हिसाब से तीसरे दरजे के श्राने जाने का खर्च सव सात लाख रुपया हो जायगा।.."अावाज हवा में प्रति सेकिण्ड १, १०० फुट चलती है। यदि यह शून्य में भी उसी गति से चलती तो
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मानव जीवन का महत्त्व
सूर्ये पर घोर शब्द होने से पृथ्वी पर वह चौदह वर्ष बाद सुनाई पड़ता ।"
-सौर परिवार, १ वाँ अध्याय अकेले सूर्य के सम्बन्ध में ही यह बात नहीं है। वैज्ञानिक और भी बहुत से दिव्य लोक स्वीकार करते हैं और उन सबकी दूरी की कल्पना चक्कर में डाल देने वाली है । वैज्ञानिक प्रकाश की गति प्रति सेकिण्डमिनट भी नहीं-१,८६००० मील मानते हैं । हाँ, तो वैज्ञानिकों के कुछ दिव्य लोक इतनी दूरी पर हैं कि वहाँ से प्रकाश जैसे शीघ्र-गामी दूत को भी पृथ्वी तक उतरने में हजारों वर्ष लग जाते हैं । अब मैं इस सम्बन्ध में अधिक कुछ न कहूँगा । जिस सम्बन्ध में मुझे कुछ कहना है, उसकी काफी लम्बी चौड़ी भूमिका बँध चुकी है। आइए, इस महाविश्व में अब मनुष्य की खोज करें। .. यह विराट् संसार जीवों से ठसाठस भरा हुआ है । जहाँ देखते हैं, वहाँ जीव ही जीव दृष्टिगोचर होते हैं । भूमण्डल पर कीड़े-मकोड़े, बिच्छूमाँप, गधे-घोड़े प्रादि विभिन्न आकृति एवं रंग रूपों में कितने कोटि प्राशी चक्कर काट रहे हैं । समुद्रों में कच्छ मच्छ, मगर, घड़ियाल आदि कितने जलचर जीव अपनी संहार लीला में लगे हुए हैं। श्राकाश में भी कितने कोटि रंग-विरंगे पक्षीगण उड़ाने भर रहे हैं । इनके अतिरिक्त वे असं त्य सून्म जीव भी हैं, जो वैज्ञानिक भाषा में कीटाणु के नाम से जाने गए हैं, जिनको हमारी ये स्थूल आँखें स्वतन्त्र रूप में देख भी 'नहीं सकतीं। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु में असंख्य जीवों का एक विराट संसार सोपा पड़ा है। पानी की एक नन्ही-सी बूद असंख्य जलकाय जीवों का विश्राम स्थल है। पृथ्वी का एक छोटा-सा रजकण असंख्य पृथ्वीकायिक जीवों का पिंड है।. अग्नि और वायु के सूक्ष्म से सूक्ष्म कण भी इसी प्रकार असंख्य जीवराशि से समाविष्ट हैं । वनसंति काय के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है ? वहाँ तो पनक (काई) श्रादि निगोद में अनन्त जीवों का संसार मनुष्य के एक श्वास लेने जैसे तुद्रकाल में कुछ अधिक सत्तरह बार जन्म, अरा और मरण का खेल
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आवश्यक दिग्दर्शन
खेलता रहता है । और वे अनन्त जीव एक ही शरीर में रहते हैं, फलतः उनका आहार और श्वास एक साथ ही होता है ! हान्त कितनी दयनीय है जीवन की विडंबना ! भगवान महावीर ने इसी विराट जीव राशि को ध्यान में रखकर अपने पावापुर के प्रवचन में कहा है कि - सूक्ष्म पाँच स्थावरों से यह असंख्य योजनात्मक विराट संसार ( काजल की कुप्पी के समान ) ठसाठस भरा हुआ है, कहीं पर मात्र भी ऐसा स्थान नहीं हैं, जहाँ कोई सूक्ष्म जीव न हो । सम्पूर्ण लोकाकाश सूक्ष्म जीवों से परिव्याप्त है- 'सुहुमा सव्वलोगम्मि ।' -- उत्तराध्ययन सूत्र ३६ वाँ अध्ययन |
हाँ, तो इस महाकाय विराट संसार में मनुष्य का क्या स्थान है ? अनन्तानन्त जीवों के संसार में मनुष्य एक नन्हे से क्षेत्र में अवरुद्ध-सा खड़ा है । जहाँ अन्य जाति के जीव असंख्य तथा अनन्त संख्या में हैं, वहाँ यह मानव जाति अत्यन्त अल्प एवं सीमित है । जैन शास्त्रकार माता के गर्भ से पैदा होने वाली मानवजाति की संख्या को कुछ अंकों तक ही सीमित मानते हैं । एक कवि एवं दार्शनिक की भाषा में कहें तो विश्व की अनन्तानन्त जीवराशि के सामने मनुष्य की गणना में श्रा जाने वाली अल्प संख्या उसी प्रकार है कि जिस प्रकार विश्व के नदी नालों एवं समुद्रों के सामने पानी की एक फुहार और संसार के समस्त पहाड़ों एवं भूपिण्ड के सामने एक ज़रा-सा धूल का करण ! आज संसार के दूर-दूर तक के मैदानों में मानवजाति के जाति, देश या धर्म के नाम पर किए गए कल्पित टुकड़ों में संघर्ष छिड़ा हुआ है कि 'हाय हम अप संख्यक हैं, हमारा क्या हाल होगा ? बहुसंख्यक हमें तो जीवित भी नहीं रहने देंगे । परन्तु ये टुकड़े यह ज़रा भी नहीं विचार पाते कि विश्व की असंख्य जीव जातियों के समक्ष यदि कोई सचमुच अल्प संख्यक जीवजाति है तो वह मानवजाति है । चौदह राजलोक में से उसे केवल सब से क्षुद्र एवं सीमित ढाई द्वीप ही रहने को मिले हैं। क्या समूची मानवजाति अकेले में बैठकर कभी अपनी अल्पसंख्यकता पर विचार करेगी
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मानव जीवन का महत्त्व
संसार में अनन्तकाल से भटकती हुई कोई आत्मा जब क्रमिक विकाश का मार्गाती है तो वह अनन्त पुण्य कर्म का उदय होने पर निगोद से निकल कर प्रत्येक वनस्पति, पृथ्वी, जल आदि की योनियों में जन्म लेती है । और जब यहाँ भी अनन्त शुभकर्म का उदय होता है तो द्वीन्द्रिय केंचुा आदि के रूप में जन्म होता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय चींटी आदि, चतुरिन्द्रिय मक्खी मच्छर आदि, पञ्चेन्द्रिय नारक तिर्यच दि की विभिन्न योनियों को पार करता हुआ, क्रमशः ऊपर उठता हुत्रा जीव, अनन्त पुण्य बल के प्रभाव से कहीं मनुष्य जन्म ग्रहण करता है । भगवान् महावीर कहते हैं कि जब "अशुभ कर्मों का भार दूर होता है, शुद्ध, पवित्र और निर्मल बनता है, तत्र कहीं वह मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ गति को प्राप्त करता है ।"
कम्माणं तु
पहाणाए पुब्बी कयाइ उ । जीवा सोहिमरणुष्पत्ता श्रययंति मगुस्सयं ॥
- ( उत्तराध्ययन ३ । ७ )
विश्व में मनुष्य ही सब से थोड़ी संख्या में है, अतः वही सबसे दुर्लभ भी है, महार्घ भी है । व्यापार के क्षेत्र में यह सर्वं साधारण का परखा हुआ सिद्धान्त है कि जो चीज़ जितनी ही अल्प होगी, वह उतनी ही अधिक मँहगी भी होगी । और फिर मनुष्य तो अल्प भी है और केवल अल्पता के नाते ही नहीं, अपितु गुणों के नाते श्रेष्ठ भी है । भगवान् महावीर ने इसी लिए गौतम को उपदेश देते हुए कहा है"संसारी जीवों को मनुष्य का जन्म चिरकाल तक इधर उधर की अन्य योनियों में भटकने के बाद बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है, वह सहज नहीं है ! दुष्कर्म का फल बड़ा ही भयंकर होता है, अतएव हे गौतम ! क्षण भर के लिए भी प्रमाद मतं कर ।"
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यावश्यक दिग्दर्शन दुल्लहे. खलु माणुसे भवे,
चिर कालेण वि सव्वपाणिणं । गाढा प विधाग कम्मुरणो, ___ समयं गोयम ! मा पमायए ॥
(उत्तराध्ययन १० । ४) जैन संस्कृति में मानव-जन्म को बहुत ही दुर्लभ एवं महान् माना गया है। मनुष्य जन्म पाना, किस प्रकार दुलभ है, इस के लिए जैन संस्कृति के व्याख्याताओं ने दश दृष्टान्तों का निरूपण किया है । सब के सब उदाहरणों के कहने का न यहाँ अवकाश ही है और न औचित्य ही । वस्तु-स्थिति की स्पष्टता के लिए कुछ बातें आपके सामने रक्खी जा रही हैं, आशा है, आप जैसे जिज्ञासु इन्हीं के द्वारा मानवजीवन का महत्त्व समझ सकेंगे। __"कल्पना करो कि भारत वर्ष के जितने भी छोटे बड़े धान्य हो, उन सब को एक देवता किसी स्थान-विशेष पर यदि इकट्ठा करे, पहाड़ जितना ऊँचा गगन चुम्बी ढेर लगा दे । और उस ढेर में एक सेर सरसों मिलादे, खूब अच्छी तरह उथल पुथल कर । सो वर्ष की बुढ़िया, जिसके हाथ काँपते हों, गर्दन काँपती हो, और आँखों से भी कम दीखता हो ! उस को छाज देकर कहा जाय कि 'इस धान्य के ढेर में से सेर भर सरसों निकाल दो।' क्या वह बुढ़िया सरसों का एक एक दाना बीन कर पुनः सेर सर सरसों का अलग ढेर निकाल सकती है ? श्राप को असंभव मालूम होता है । परन्तु यह सब तो किसी तरह देवशक्ति श्रादि के द्वारा संभव भी हो सकता है, परन्तु एक बार मनुष्यजन्म पाकर खो देने के बाद पुनः उसे प्राप्त करना सहज नहीं है।" ____ "एक बहुत लम्बा चौड़ा जलाशय था, जो हजारों वर्षों से शैवाल (काई ) की मोटी तह से आच्छादित रहता प्राया था। एक कछुवा अपने परिवार के साथ जब से जन्मा, तभी से शवाल के नीचे अन्धकार
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मानव जीवन का महत्त्व
में ही जीवन गुजार रहा था। उसे पता ही न था कि कोई और भी दुनिया हो सकती है। एक दिन बहुत भयंकर तेज अंधड़ चला और उस शैवाल में एक जगह ज़रा-सा छेद हो गया । देवयोग से वह कछुश्रा उस समय वहीं छेद के नीचे गर्दन लम्बी कर रहा था तो उसने सहसा देखा कि ऊपर आकाश चाँद, नक्षत्र और अनेक कोटि ताराओं की ज्योति से जगमग-जगमग कर रहा है। कछुवा अानंद-विभोर हो उठा। उसे अपने जीवन में यह दृश्य देखने का पहला ही अवसर मिला था। वह प्रसन्न होकर अपने साथियों के पास दौड़ा गया कि 'प्रायो, मैं तुम्हें एक नई दुनिया का सुन्दर दृश्य दिखाऊँ। वह दुनिया हमसे ऊपर है, रत्नों से जड़ी हुई, जगमग जगमग करती!' सब साथी दौड़ कर पाए, परन्तु इतने में ही वह छेद बन्द हो चुका था और शैवाल का अखण्ड आवरण पुनः अपने पहले के रूप में तन गया था। वह कछुवा बहुत देर तक इधर-उधर टक्कर मारता रहा, परन्तु कुछ भी न दिखा सका! साथी हँसते हुए चले गए कि मालूम होता है, तुमने कोई स्वप्न देख लिया है ! क्या उस कछुवे को पुनः छेद मिल सकता है, ताकि वह चाँद
और तारों से जगमगाता आकाश-लोक अपने साथियों को दिखा सके ? यह सब हो सकता है, परन्तु नर-जन्म खोने के बाद पुनः उसका मिलना सरल नहीं है।" ____ "स्वयंभूरमण समुद्र सबसे बड़ा समुद्र माना गया है, असंख्यात हजार योजन का लंबा-चौड़ा । पूर्व दिशा के किनारे पर एक जूना पानी में छोड़ दिया जाय, और दूसरी तरफ़ पश्चिम के किनारे पर एक कीली । क्या कभी हवा के झोंकों से लहरों पर तैरती हुई कीली जूए के छेद में अपने आप आकर लग सकती है ? संभव है यह अघटित घटना घटित हो जाय ! परन्तु एक बार खोने के बाद मनुष्य जन्म का फिर प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है !" .
"कल्पना करो कि एक देवता पत्थर के स्तम्भ को पीस कर आटे की तरह चूर्ण बना दे और उसे बाँस की नली में डालकर मेरु पर्वत की
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१०
श्रावश्यक दिग्दर्शन
चोटी पर से फूंक मार कर उड़ा दे । वह स्तम्भ परमाणुरूप में होकर विश्व में इधर-उधर फैल जाय ! क्या कभी ऐसा हो सकता है कि कोई देवता उन परमाणुत्रों को फिर इकट्ठा कर ले और उन्हें पुनः उसी स्तम्भ के रूप में बदल दे ? यह असंभव, सम्भव है, संभव हो भी जाय । परन्तु मनुष्य जन्म का पाना बड़ा ही दुर्लभ है, दुष्प्राप्य है ।"
-- ( श्रावश्यक नियुक्ति गाथा ८३२ )
ऊपर के उदाहरण, जैन - संस्कृति के वे उदाहरण हैं, जो मानवजन्म की दुर्लभता का डिंडिमनाद कर रहे हैं । जैन धर्म के अनुसार देव होना उतना दुर्लभ नहीं है, जितना कि मनुष्य होना दुर्लभ है ! जैन साहित्य में श्राप जहाँ भी कहीं किसी को सम्बोधित होते हुए देखेंगे, वहाँ 'देवापिय' शब्द का प्रयोग पायेंगे । भगवान् महावीर भी श्राने वाले मनुष्यों को इसी 'देवापिय' शब्द से सम्बोधित करते थे । ''देवापिय' का अर्थ है - "देवानुप्रिय' । अर्थात् 'देवताओं को भी प्रिय ।' मनुष्य की ष्ठता कितनी ऊँची भूमिका पर पहुँच रही है । दुर्भाग्य से मानव जाति ने इस ओर ध्यान नहीं दिया, और वह अपनी श्रेष्ठता को भूल कर श्रवमानता के दल-दल में फँस गई है । 'मनुष्य ! तू देवताओं से भी ऊँचा है । देवता भी तुझसे प्रेम करते हैं । वे भी मनुष्य बनने के लिए आतुर हैं ।' कितनी विराट प्रेरणा है, सुप्त आत्मा को जगाने के लिए ।
मनुष्य की
जैन संस्कृति का अमर गायक आचार्य अमित गति कहता है कि'जिस प्रकार मानव लोक में चक्रवर्ती, स्वर्गलोक में इन्द्र, पशुत्रों में सिंह, व्रतों में प्रशम भाव, और पर्वतों में स्वर्णगिरि मेरु प्रधान है - श्रेष्ठ है, उसी प्रकार संसार के सब जन्मों में मनुष्य जन्म सर्व श्रेष्ठ है ।'
नरेषु चक्री त्रिदशेषु वत्री, मृगेषु सिंहः प्रशमो व्रतेषु ।
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मानव जीवन का महत्त्व मतो महीभृत्सु सुवर्ण-शैलो, भवेषु मानुष्यभवः प्रधानम् ।।
-(श्रावकाचार १ । १२) महाभारत में व्यास भी कहते हैं कि 'श्राओ, मैं तुम्हें एक रहस्य की बात बताऊँ ! यह अच्छी तरह मन में दृढ़ कर लो कि संसार में मनुष्य से बढ़कर और कोई श्रेष्ठ नहीं है ।'
गुह्य ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि, नहि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि . किंचित् !
--महाभारत वैदिक धर्म ईश्वर को कर्ता मानने वाला संप्रदाय है। शुकदेव ने इसी भावना में, देखिए, कितना सुन्दर वर्णन किया है, मनुष्य की सर्वश्रेष्ठता का। वे कहते हैं कि "ईश्वर ने अपनी आत्म शक्ति से नाना प्रकार की सृष्टि वृक्ष, पशु, सरकने वाले जीव, पक्षी, दंश और मछली को बनाया । किन्तु इनसे वह तृप्त न हो सका, सन्तुष्ट न हो सका। अाखिर मनुष्य को बनाया, और उसे देख अानन्द में मम हो गया ! ईश्वर ने इस बात से सन्तोष माना कि मेरा और मेरी सृष्टि का रहस्य समझने वाला मनुष्य अब तैयार हो गया है।"
सृष्टा पुराणि विविधान्यजयाऽऽत्मशक्त्या, वृक्षान् सरीसृप-पशून् खग-दंश-मत्स्यान् । तैस्तैरतृप्त-हृदयो मनुजं विधाय, ब्रह्मावबोधधिषणं मुदमाप देवः।
. -भागवत महाभारत में एक स्थान पर इन्द्र कह रहा है कि भाग्यशाली है वे, जो दो हाथ वाले मनुष्य हैं । मुझे दो हाथ वाले मनुष्य के प्रति स्पृहा है ।'
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श्रावश्यक दिग्दर्शन 'पाणिमद्भ्यः स्पृहाऽस्माकम् ।' देखिए, एक मस्तराम क्या धुन लगा रहे हैं ? उनका कहना है'मनुष्य दो हाथ घाला ईश्वर है।'
द्विभुजः परमेश्वरः।' महाराष्ट्र के महान् सन्त तुकाराम कहते हैं कि 'स्वर्ग के देवता इच्छा करते हैं- 'हे प्रभु ! हमें मृत्यु लोक में जन्म चाहिये । अर्थात् हमें मनुष्य बनने की चाह है !!
स्वर्गी चे अमर इच्छितातो देवा;
मृत्युलोकी ह्वाचा जन्म आम्हां । सन्त श्रेष्ठ तुलसीदास बोल रहे हैं :
'बड़े भाग मानुष तन पापा,
सुर-दुर्लभ सब ग्रन्थन्हि गावा।' ज़रा उर्दू भाषा के एक मार्मिक कवि की वाणी भी सुन लीजिए । आप भी मनुष्य को देवताओं से बढ़कर बता रहे हैं
'फ़रिश्ते से बढ़कर है इन्सान बनना,
मगर इसमें पड़ती है मेहनत ज़ियादा।' बेशक, इन्सान बनने में बहुत ज़ियादा मेहनत उठानी पड़ती है, बहुत अधिक श्रम करना होता है। जैनशास्त्रकार, मनुष्य बनने की साधना के मार्ग को बड़ा कठोर और दुर्गम मानते हैं । औपपातिक सूत्र में भगवान् महावीर का प्रवचन है कि "जो प्राणी छल, कपट से दूर रहता है-प्रकृति अर्थात् स्वभाव से ही सरल होता है, अहंकार से शून्य होकर विनयशील होता है-सब छोटे-बड़ों का यथोचित आदर सम्मान करता है, दूसरों की किसी भी प्रकार की उन्नति को देखकर डाह नहीं करता है-प्रत्युत हृदय में हर्ष और अानन्द की स्याभाविक अनुभूति करता है, जिसके रग-रग में दया का संचार है--जो किसी भी दुःखित
गर..
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मानव जीवन का महत्त्व
प्राणी को देखकर द्रवित हो उठता है एवं उसकी सहायता के लिए तन, मन, धन सब लुटाने को तैयार हो जाता है, वह मृत्यु के पश्चात् मनुष्य जन्म पाने का अधिकारी होता है।" ___ ऊँचा विचार और ऊँचा आचरण ही मानव जन्म की पृष्ठ भूमि है । यहाँ जो कुछ भी बताया गया है, वह अन्दर के जीवन की पवित्रता का भाव ही बताया गया है। किसी भी प्रकार के साम्प्रदायिक क्रियाकाण्ड और रीति-रिवाज का उल्लेख तक नहीं किया है। भगवान् महावीर का आशय केवल इतना है कि तुम्हें मनुष्य बनने के लिए किसी सम्प्रदाय-विशेष के विधि-विधानों एवं क्रियाकाण्डों की शर्त नहीं पूरी करनी है। तुम्हें तो अपने अन्दर के जीवन में मात्र सरलता, विनयशीलता, अमात्सर्य भाव एवं दयाभाव की सुगन्ध भरनी है। जो भी प्राणी ऐसा कर सकेगा, वह अवश्य ही मनुष्य बन सकेगा। । परन्तु श्राप जानते हैं, यह काम सहज नहीं है , तलवार की धार पर नंगे पैरों नाचने से भी कहीं अधिक दुर्गम है यह मानवता का मार्ग ! जीवन के विकारों से लड़ना, कुछ हसी खेल नहीं है। अपने मन को मार कर ही ऐसा किया जा सकता है। तभी तो हमारा कवि कहता है कि:
"फरिश्ते से बढ़कर है इन्सान बनना; मगर इसमें पड़ती है मेहनत ज़ियादा ।"
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: २: मानव-जीवन का ध्येय मानव, अखिल संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है । परन्तु जरा विचार कीजिए, यह सर्व श्रेष्ठता किस बात की है ? मनुष्य के पास ऐसा क्या है, जिसके बल पर वह स्वयं भी अपनी सर्वश्रेष्ठता का दावा करता है और हजारों शास्त्र भी उसकी सर्वश्रेष्ठता की दुहाई देते हैं। .. क्या मनुष्य के पास शारीरिक शक्ति बहुत बड़ी है ? क्या यह शक्ति ही इसके बड़प्पन की निशानी है ! यदि यह बात है तो मुझे. इन्कार करना पड़ेगा कि यह कोई महत्त्व की चीज नहीं है। संसार के दूसरे प्राणियों के सामने मनुष्य की शक्ति कितना मूल्य रखती है ? वह तुच्छ है, नगण्य है। मनुष्य तो दूसरे विराटकाय प्राणियों के सामने एक नन्हासा-लाचार सा कीड़ा लगता है। जंगल का विशालकाय हाथी कितना अधिक बलशाली होता है ? पचास-सौ मनुष्यों को देख पाए तो सूंड से चीर कर सबके टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दे । वन का राजा सिंह कितना भयानक प्राणी है ? पहाड़ों को गुंजा देने वाली उसकी एक गर्जना ही मनुष्य के जीवन को चुनौती है। आपने वन-मानुषों का वर्णन सुना होगा ? वे आपके समान ही मानव-प्राकृति धारी पशु हैं । इतने बड़े बलवान कि कुछ पूछिए नहीं। वे तेंदुओं को इस प्रकार उठाउठा कर पटकते और मारते हैं, जिस प्रकार साधारण मनुष्य रबड़ की गेंद को ! पूर्वी कांगों में एक मृत वनमानुष को तोला गया तो वह
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मानव जीवन का ध्येय
१५.
दो टन अर्थात् ५४ मन वजन में निकला ! मनुष्य इस भीमकाय प्राणी के सामने क्या अस्तित्व रखता है ? वह तो उस वन मानुष के चाँटे का धन भी नहीं ! और वह शुतुरमुर्गं कितना भयानक पक्षी है ? कभीकभी इतने जोर से लात मारता है कि आदमी चूर-चूर हो जाता है । उसकी लात खाकर जीवित रहना असंभव है । जब वह दौड़ता है तो प्रति घंटा २६ मील की गति से दौड़ सकता है । क्या आप में से कोई ऐसा मनुष्य है, उसके साथ दौड़ लगाने वाला ।
मनुष्य का जीवन तो अत्यन्त क्षुद्र जीवन है । उसका बल अन्य प्राणियों की दृष्टि में परिहास की चीज है । वह रोगों से इतना घिरा हुआ है कि किसी भी समय उसे रोग की ठोकर लग सकती है और वह जीवन से हाथ धोने के लिए मज़बूर हो सकता है ! और तो क्या, साधारण सा मलेरिया का मच्छर भी मनुष्य की मौत का सन्देश लिए घूमता है । एक पहलवान बड़े ही विराट काय एवं बलवान आदमी थे । सारा शरीर गठा हुआ था लोहे जैसा ! अंग-अंग पर रक्त की लालिमा फूटी पड़ती थी । कितनी ही बार लेखक के पास आया-जाया करते थे । दर्शन करते, प्रवचन सुनते और कुछ थोड़ा बहुत अवकाश मिलता तो अपनी विजय की कहानियाँ दुहरा जाते ! बड़े-बड़े पहलवानों को मिनटों में पछाड़ देने की घटनाएँ जब वे सुनाते तो मैं देखता, उनकी छाती हंकार से फूल उठती थी। बीच में दो तीन दिन नहीं आए । एक दिन श्राए तो बिल्कुल निढाल, बेदम ! शरीर लड़खड़ा-सा रहा था ! मैंने पूछा - ' पहलवान साहब क्या हुआ ?' 'महाराज ! हुआ क्या ? आपके दर्शन भाग्य में बचा हूँ ! मेरा तो मलेरिया ने दम तोड़ दिया ।' मैं हँस पड़ा । मैंने कहा – 'पहलवान साहब ! आप जैसे बलवान पहलवान को एक नन्हे से मच्छर ने पछाड़ दिया । और वह भी इस बुरी तरह से !' पहलवान हँसकर चुप हो गया । यह अमर सत्य है मनुष्य के बल का ! यहाँ उत्तर ही क्या सकता है ? क्या मनुष्य इसी बल के भरोसे बड़े होने का
पहलवान जी बोले
बदे थे सो मरता मरता
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१६
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आवश्यक दिग्दर्शन
स्वप्न ले रहा हैं ? मनुष्य के शरीर का वास्तविक रूप क्या है ? इसके लिए एक कवि की कुछ पंक्तियाँ पढ़लें तो ठीक रहेगा ।
आदमी का जिस्म क्या है जिसपै शैदा है जहाँ; एक मिट्टी की इमारत, एक मिट्टी का मकाँ । खून का गारा है इसमें और ईंटे हडिडयाँ; चंद साँसों पर खड़ा है, यह खयाली आसमाँ ! मौत की पुरजोर आँधी इससे जब टकरायगी ; देख लेना यह इमारत टूट कर गिर जायगी ! यदि बल नहीं तो क्या रूप से मनुष्य महान् नहीं बन सकता ? रूप क्या है ? मिट्टी की मूरत पर ज़रा चमकदार रंग रोगन ! इस को धुलते और साफ होते कुछ देर लगती है ? संसार के बड़े-बड़े सुन्दर तरुण और तरुणियाँ कुछ दिन ही अपने रूप और यौवन की बहार दिखा सके । फूल खिलने भी नहीं पाता है कि मुरझाना शुरू हो जाता है ! किसी रोग अथवा चोट का आक्रमण होता है कि रूप कुरूप हो जाता है, और सुन्दर अंग भग्न एवं जर्जर ! सनत्कुमार चक्रवर्ती को रूप का अहंकार करते कुछ क्षण ही गुजरने पाये थे कि कोढ़ ने श्रा घेरा । सोने-सा निखरा हुआ शरीर सड़ने लगा । दुर्गन्ध सह्य हो गई । मथुरा की जनपदकल्याणी वासवदत्ता कितनी रूपगर्विता थी । रात्रि के सघन अन्धकार में भी दीपशिखा के समान जगमग जगमग होती रहती थी ! परन्तु बौद्ध इतिहास कहता है कि एक दिन चेचक का श्राक्रमण हुआ । सारा शरीर क्षत विक्षत हो गया, सड़ने लगा, जगह-जगह से मवाद बंह. निकला । राजा, जो उसके रूप का खरीदा हुआ गुलाम था, वासवदत्ता को नगर के बाहर गंदे कूड़े के ढेर पर मरने को फिकवा देता हैं । यह है मनुष्य के रूप की इति क्या चमड़े का रंग और हड्डियों का गठन भी कुछ महत्व रखता है ? चमड़े के हलके से परदे के नीचे क्या कुछ भरा हुआ है ? स्मरण मात्र से घृणा होने लगती हैं !
के
।
जो कुछ
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मानव जीवन का ध्येय
अन्दर है, वह यदि बाहर ना जाय तो गीध, कौवे और कुत्ते उसे नोच खाएँ ! कहीं भी बाहर आना-जाना कठिन हो जाय । और यह मनुष्य का रूप दूसरे पशु पक्षियों की तुलना में है भी क्या चीज ? मयूर कितना सुन्दर पक्षी है ! गर्दन और पंखों का सौन्दर्य मोह लेने वाला है । शुतुरमुर्ग के शानदार छोटे से छोटे पंख का मूल्य, कहते हैं-चालीस से पचास रुपयों तक होता है। मनुष्य की वाणी का माधुर्य कोयल से उपमित होता है । गति की उपमा हंस की गति से और नाक की उपमा तोते की चोंच से दी जाती है । किं बहुना, प्रत्येक अंग का सौन्दर्य विभिन्न पशु पक्षियों के अवयवों से तुलना पाकर ही कवि की वाणी पर चढ़ता है । इसका अर्थ तो यह हुआ कि मनुष्य का रूप पशु-पक्षियों के सामने तुच्छ है, नगण्य है ! अतएव रूप की दृष्टि से मनुष्य की महत्ता औरत का कुछ भी मूल्य नहीं है ।
पोते
रहा, परिवार का बड़प्पन ! क्या मनुष्य के दस-बीस बेटे, और नाती हो जाने से उसका कुछ महत्त्व बढ़ बड़ा परिवार हो, कितनी ही अधिक सन्तति हो,
जाता है ? कितना ही मनुष्य का महत्त्व इनसे
मात्र भी बढ़ने वाला नहीं है । रावण का इतना बड़ा परिवार था, खिर वह क्या काम श्राया ? छप्पन कोटि यादव, जो एक दिन भारतवर्ष के करोड़ों लोगों के भाग्य विधाता बन बैठे थे, अन्त में कहाँ विलीन हो गए ? श्री कृष्ण को यादव जाति के द्वारा क्या सुख मिला ? मथुरा के राजा उग्रसेन के यहाँ कंस का जन्म हुआ। बड़ा भाग्यशाली पुत्र था जो भारत के प्रतिवासुदेव जरासन्ध का प्यारा दामाद बना ! परन्तु उग्रसेन को क्या मिला ? जेलखाना मिला और मिली प्रतिदिन पीठ पर पाँचौ कोड़ों की सह्य मार ! और राजा श्रेणिक को भी तो वह जातशत्रु कोणिक पुत्र के रूप में प्राप्त हुआ था, जिसके वैभव के वर्णन से पपातिक सूत्र की प्रस्तावना अटी पड़ी है । परन्तु राजा श्रेणिक से पूछते तो पता चलता कि पुत्र और परिवार का क्या आनन्द होता है ? यह पुत्र का ही काम था कि राजा श्रेणिक को अपने बुढ़ापे की घड़ियाँ
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श्रावश्यक दिग्दर्शन
काठ के पिंजरे में बंद पशु की तरह गुजारनी पड़ीं। न ममय पर भोजन का पता था और न पानी का ! और अन्त में जहर खाकर मृत्यु का स्वागत करना पड़ा। क्या यही है पुत्रों और पौत्रों की गौरवशालिनी परंपरा ? क्या यह सब मनुष्य के लिए अभिमान की वस्तु है ? मैं नहीं समझता, पदि परिवार की एक लम्बी चौड़ी सेना इकट्ठी भी हो जाती है तो इससे मनुष्य को कौनसे चार चाँद लग जाते हैं ? वैज्ञानिक क्षेत्र में एक ऐसा कीटाणु परिचय में आया है, जो एक मिनट में दश करोड़ अरब सन्तान पैदा कर देता है। क्या इसमें कीटाणु का कोई गौरव है, महत्त्व है ? वह मनुष्य ही क्या, जो कीटाणुओं की तरह सन्तति प्रजनन में ही अपना रिकार्ड कायम कर रहा है। प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर से सम्राट विक्रमादित्य ने यह पूछा कि "आप जैन भिक्षु अपने नमस्कार करने वाले भक्त को धर्म वृद्धि के रूप में प्रतिवचन देते हैं, अन्य साधुत्रों की तरह पुत्रादि प्राप्ति का अाशीर्वाद क्यों नहीं देते ?” प्राचार्य श्री ने उत्तर में कहा कि “राजन् ! मानव जीवन के उत्थान के लिए एक धर्म को ही हम महत्त्वपूर्ण साधन समझते हैं, अतः उसी की वृद्धि के लिए प्रेरणा देते हैं । पुत्रादि कौनसी महत्त्वपूर्ण वस्तु है ? वे तो मुर्गे, कुत्ते और सूअरों को भी बड़ी संख्या में प्राप्त हो जाते हैं । क्या वे पुत्रहीन मनुष्य से अधिक भाग्यशाली हैं ? मनुष्य जीवन का महत्त्व बच्चे-बच्चियों के पैदा करने में नहीं है, जिसके लिए हम भिन्तु भी प्राशी. र्वाद देते फिरें ।" 'सन्तानाय च पुत्रवान् भव पुनस्तरकुक्कुटानामपि ।' __ मनुष्य जाति का एक बहुत बड़ा वर्ग धन को ही बहुत अधिक महत्त्व देता है। उसका सोचना-समझना, बोलना-चालना, लिखनापढ़ना सब कुछ धन के लिए ही होता है । वह दिन-रात सोते-जागते धन का ही स्वप्न देखता है । न्याय हो, अन्याय हो, धर्म हो, पाप हो, कुछ भी हो, उसे इन सब से कुछ मतलब नहीं। उसे मतलब है एकमात्र धन से। धन मिलना चाहिए, फिर भले ही वह छल-कपट से मिले, चोरी से मिले, विश्वासघात से मिले, देश-द्रोह से मिले या भाई
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मानव जीवन का ध्येय
का गला काट कर मिले । ग़रीब जनता के गर्म खून से सना हुआ पैसा भी उसके लिए पूज्य परमेश्वर है, उपास्य देव है। उसका सिद्धान्त सूत्र अनादि काल से यही चला आ रहा है कि 'सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति ।' 'भाना अंशकला प्रोक्रा रूप्योऽसौ भगवान् स्वयम् ।' परन्तु क्या मानव जीवन का यही ध्येय है कि धन के पीछे पागल बनकर घूमता रहे ? क्या धन अपने आप में इतना महत्वपूर्ण है ? क्या तेली के बैल की तरह रात दिन धन की चिन्ती में घुल-घुल कर ही जीवन की अन्तिम घड़ियों के द्वार पर पहुँचा जोय ? यदि दुनिया भर की बेईमानी करके कुछ लाख का धन एकत्रित कर भी लिया तो क्या बन जायगा ? रावण के पास कितना धन था ? सारी लंका नगरी ही सोने की थी। लंका के नागरिक सोने की सुरक्षा के लिए आजकल की तरह तिजोरी तो न रखते होंगे ? जिनके यहाँ घर की दीवार, छत और फर्श भी सोने के हों, भला वहाँ सोने के लिए तिजौरी रखने का क्या अर्थ ? और भारत की द्वारिका नगरी भी तो सोने की थी ! क्या हुआ इन सोने की नगरियों का ? दोनों का ही अस्तित्व खाक में मिल गया । सोने की लंका ने रावण को राक्षस बना दिया तो सोने की द्वारिका मे यादवों को नर-पशु | लंका और द्वारिका के धनी मनुष्यत्व से हाथ धो बैठे थे, दुराचारों में फँस गए थे। धन के अतिरेक ने उन्हें अंधा बना दिया था । आज कुछ गौरव है, उन धनी मानी नरेशों का ? मैं दिल्ली और
आगरा में विखरे हुए मुगल सम्राटों के वैभव को देख रहा हूँ। क्या लाल किला और ताज इसीलिए बनाए गए थे कि उन पर चाँद सितारे के मुस्लिम झंडे के स्थान पर अँग्रेजों का यूनियन जैक फहराए । अाज कहाँ हैं, मुग़ल सम्राटों के उत्तराधिकारी ? कितने अत्याचार किए, कितने निरीह जनसमूह कतल किए ? परन्तु वे सिंहासन, जिनके पाये पाताले में गाड़ कर मजबूत किए जा रहे थे, उखड़े विना न रहे । और वह यूनियन जैक भी कहाँ है, जो समुद्रों पार से तूफान की तरह बढ़ता, हाहाकार मचाता भारत में आया था ? क्या वह वापस लौटने के इरादे
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२०
श्रावश्यक दिग्दर्शन से आया था ? परन्तु गान्धी की आँधी के झटकों को वह रोक न सका और उड़ गया ! धन अनित्य है, ण भंगुर है ! इसका गर्व क्या, इसका घमंड क्या ? भारत के ग्रामीण लोगों का विश्वास है कि 'जहाँ कोई बड़ा साँप रहता है, वहाँ अवश्य कोई धन का बड़ा खजाना होता है।' यह विश्वास कहाँ तक सत्य है, यह जाने दीजिए । परन्तु इस पर से यह तो पता लगता है कि धन से चिपटे रहने वाले मनुष्य साँप ही होते हैं, मनुष्य नहीं । मानव जीवन का ध्येय चाँदी-सोने की रंगीन दुनिया में नहीं है। विश्व का सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानव, क्या कभी रुपये पैसे के गोल चक्र में अपना महत्त्व पा सकता है ? कभी नहीं। ___ मनुष्य विश्व का एक महान् बुद्धिशाली प्राणी है । वह अपनी बुद्धि के श्रागे किसी को कुछ समझता ही नहीं है । वह प्रकृति का विजेता है, और यह विजय मिली है उसे अपने बुद्धि-वैभव के बल पर । वह अपनी बुद्धि की यात्रा में कहाँ से कहाँ पहुँच गया है । भूमण्डल पर दुर्गम पहाड़ों पर से रेल और मोटरें दौड़ रही हैं । महासमुद्रों के विराट वक्ष पर से जलयानों की गर्जना सुनाई दे रही है। आज मनुष्य हवा में पक्षियों की तरह उड़ रहा है, वायुयान के द्वारा संसार का कोना-कोना छान रहा है। मनुष्य की बुद्धि ने कान इतने बड़े प्रभावशाली बना दिए हैं कि यहाँ बैठे हजारों मीलों की बात सुन सकते हैं । और आँख भी इतनी बड़ी होगई है कि भारत में बैठकर इङ्गलैंड और अमेरिका में खड़े अादमी को देख सकते हैं । अरे यह परमाणु शक्ति ! कुछ न पूछो, हिरोसिमा का संहार क्या कभी भुलाया जा सकेगा ? रबड़ की छोटी-सी गेंद के बराबर परमाणु बम से आज दुनिया के इन्सानों की जिन्दगी काँप रही है । अभी-अभी स्विटजरलैण्ड के एक वैज्ञानिक ने कहा है कि तीन छटाँक विज्ञानगवेषित विषाक्त पदार्थ विशेष से अरबों मनुष्यों का जीवन कुछ ही मिनटों में समाप्त किया जा सकता है । और देखिए, अमेरिका में वह हाइड्रोजन बम का धूपकेतु सर उठा रहा है, जिसकी चर्चा-मात्र से मानव जाति त्रस्त हो उठी है। यह सब है मनुष्य
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मानव जीवन का ध्येय
२१ की बुद्धि-लीला ! वह अपने बुद्धि कौशल से स्वर्ग बनाने चला था और कुछ बनाया भी था; परन्तु अब बन क्या गया है ? साक्षात् घोर नरक ! क्या यह बुद्धि मनुष्य के लिए गर्व करने की वस्तु है ? जिस बुद्धि के पीछे विवेक नहीं है. धर्म की पिपासा नहीं है, वह बुद्धि मनुष्य को मनुष्य न रहने देकर राक्षस बना देती है। अपनी स्वार्थपूर्ति कर ली, जो मनचाहा काम बना लिया, क्या इस बुद्धि को ही मनुष्य-जीवन की सर्वश्रेष्ठता का गौरव दिया जाय ! खाना, पीना और ऐश आराम तो अपनीअपनी समझ के द्वारा पशुपक्षी भी कर लेते हैं । पारिवारिक व्यवस्था और कमानेखाने की बुद्धि उनमें भी बहुतों की बड़ी शानदार होती है । उदाहरण के लिए आप फाकलण्ड के द्वीप-समूह में पाई जाने वाली नमाजी चिड़ियाओं को ले सकते हैं । ये तीस से चालीस हजार तक की संख्या के विशाल मुण्डों में रहती हैं। ये फौजी सिपाहियों की तरह कतार बाँध कर खड़ी होती हैं । और आश्चर्य की बात तो यह है कि बच्चों को अलग विभक्त कर के खड़ा करती हैं, नर पक्षियों को अलग तो मादा पक्षियों को अलग। इतना ही नहीं, यह और वर्गीकरण करती हैं कि साफ और तगड़े पक्षियों को अलग तथा पर झाड़ने वाले, गन्दे
और कमजोर पक्षियों को अलग ! कितने गज़ब की है सनिक पद्धति से वर्गीकरण करने की कल्पना शक्ति ! और ये मधुमक्खियाँ भी कितनी विलक्षण हैं ? मधुमक्खियों के छत्ते में, विशेषज्ञों के मतानुसार, लगभग तीसहजार से साठ हजार तक मक्खियाँ होती हैं। उनमें बहुत अच्छा सुदृढ़ संगठन होता है । सब का कार्य उचित पद्धति से बटा हुअा होता है, फलतः हरएक मक्खी को मालूम रहता है कि उसे क्या काम करना है ? इसलिए वहाँ कभी कोई काम बाकी नहीं रह पाता, नित्य का काम नित्य समाप्त हो जाता है। छत्ते के अन्दर सब तरह का काम होता हैआहार का प्रबन्ध, छत्ता बनाने के लिए सामान का प्रबन्ध, गोदाम का प्रबन्ध, सफाई का प्रबन्ध, मकान का प्रबन्ध और चौकी पहरे का प्रबन्ध ! कुछ को छत्ते के अन्दर गर्मी, हवा और सफाई का प्रबन्ध देखना होता
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२२
आवश्यक दिग्दर्शन है। कुछ को बच्चों की देखभाल करनी पड़ती है। इस पर भी कड़ी नज़र रखी जाती है कि कोई किसी प्रकार की दुष्टता या काम चोरी न करने पाए ! और उन श्रास्ट्रलिया की नदियों में पाई जाने वाली निशानेबाज मछलियों की कहानी भी कुछ कम विचित्र नहीं है । यह मछली अपने शिकार की ताक में रहती है। जब यह देखती है कि नदी के किनारे उगे हुए पौधों की पत्तियों पर कोई मकवी या मकोड़ा बैठा है तो चुपचाप उसके पास जाती है और मुँह में पानी भर कर कुल्ले का ठीक निशाना ऐसे ज़ोर से मारती है कि वह मकोड़ा तुरन्त पानी में गिर पड़ता है और मछली का श्राहार बन कर काल के गाल में पहुँच जाता है । इस मछली का निशाना शायद ही कभी चूकता है ! वैज्ञानिकों ने इसका नाम टॉक्सेप्टेस रक्खा है, जिसका अर्थ है धनुषधारी ! एटलाण्टिक महासागर में उड़ने वाली मछलियाँ भी होती हैं । काफी लम्बा लिख चुका हूँ । अब अधिक उदाहरणों की अपेक्षा नहीं है । न मालूम कितने कोटि पशु-पक्षी ऐसे हैं, जो मनुष्य के समान ही छलछंद रचते हैं, अकल लड़ाते हैं, जाल फैलाते हैं और अपना पेट भरते हैं । अस्तु खाने कमाने की, मौज शौक उड़ाने की, यदि मनुष्य ने कुछ चतुरता पाई है तो क्या यह उसकी अपनी कोई श्रेष्ठता है ? क्या इस चातुर्य पर गर्व किया जाय ? नहीं, यह मनुष्य की कोई विशेषता नहीं हैं ! ___ मानव जीवन का ध्येय न धन है, न रूप है, न बल है और न सांसारिक बुद्धि ही है। यों ही कहीं से घूमता-फिरता भटकता अात्मा मानव शरीर में पाया, कुछ दिन रहा, खाया-पीया, लड़ा झगड़ा, हँसा रोया और एक दिन मर कर काल प्रवाह में आगे के लिए बह गया, भला यह भी कोई जीवन है ? जीवन का उद्देश्य मरण नहीं है, किन्तु मरण पर विजय है। आजतक हम लोगों ने किया ही क्या है ? कहीं पर जन्म लिया है, कुछ दिन जिन्दा रहे है और फिर पाँव पसार कर सदा के लिये लेट गए हैं। इस विराट् संसार में कोई भी भी जाति, कुल, वर्ण और स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ हमने
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मानव जीवन का ध्येय अनन्त-अनन्त बार जन्ममरण न किया हो ? भगवती सूत्र में हमारे जन्ममरण की दुःख भरी कहानी का स्पष्टीकरण करने वाली एक महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तरी है !
गौतम गणधर पूछते हैं:
"भंते ! असंख्यात कोड़ी कोड़ा योजन-परिमाण इस विस्तृत विराट लोक में क्या कहीं ऐसा भी स्थान है, जहाँ कि इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो?"
भगवान् महावीर उत्तर देते हैं:
"गौतम ! अधिक तो क्या, एक परमाणु पुद्गल जितना भी ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो ।” - "नधि केइ परमाणुपोग्गलमत्त विपएसे जत्थ णं अयं जीवे न जाए चा, न मए वा।" -[भग १२, ७, सू० ४५७ ]
भगवान् महावीर के शब्दों में यह है हमारी जन्म-मरण की कड़ियों का लम्बा इ िहास ! बड़ी दुखभरी है हमारी कहानी ! अब हम इस कहानी को कब तक दुहराते जायँगे ? क्या मानव जीवन का ध्येय एकमात्र जन्म लेना और मर जाना ही है। क्या हम यों ही उतरते चढ़ते, गिरते-पड़ते इस महाकाल के प्रवाह में तिनके की तरह बेबस लाचार बहते ही चले जायँगे ? क्या कहीं किनारा पाना, हमारे भाग्य में नहीं बदा है ? नहीं, हम मनुष्य हैं, विश्व के सर्वश्रेष्ठ प्राणी हैं । हम अपने जीवन के लक्ष्य को अवश्य प्राप्त करेंगे ! यदि हमने मानव-जीवन का लक्ष्य नहीं प्राप्त किया तो फिर हम में और दूसरे पशु पक्षियों में अन्तर ही क्या रह जायगा ? हमारे जीवन का ध्येय, अधर्म नहीं, धर्म हैअन्याय नहीं, न्याय है-दुराचार नहीं, सदाचार है-भोग नहीं, त्याग है । धर्म, त्याग और सदाचार ही हमें पशुत्व से अलग करता है | अन्यथा हम में और पशु में कोई अन्तर नहीं है, कोई भेद नहीं है । इस सम्बन्ध में एक प्राचार्य कहते भी हैं कि आहार, निद्रा, भय और कामवासना जैसी पशु में हैं वैसी ही मनुष्य में भी हैं, अतः इनको ले कर, भोग को
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२४
आवश्यक दिग्दर्शन महत्त्व देकर मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं किया जा सकता ! एक धर्म ही मनुष्य के पास ऐसा है, जो उसकी अपनी विशेषता है, महत्ता है । अतः जो मनुष्य धर्म से शून्य हैं, वे पशु के समान ही हैं । ''आहार-निद्रा-भय-मैथुनं च
सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् । धर्मो हि तेषामधिको विशेषो,
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥" मनुष्य अमर होना चाहता है। इसके लिए वह कितनी औषधियाँ खाता है, कितने देवी देवता मनाता है, कितने अन्याय और अत्याचार के जाल बिछाता है ! परन्तु क्या यह अमर होने का मार्ग है ? अमर होने के लिए मनुष्य को धर्म की शरण लेनी होगी, त्याग का आश्रय लेना होगा। भगवान् महावीर कहते हैं :
"वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमंमि लोए अदुवा परत्था"
-उत्तराध्ययन सूत्र -प्रमत्त मनुष्य की धन के द्वारा रक्षा नहीं हो सकेगी; न इस लोक में और न परलोक में । कठोपनिषत् कार कहते हैं :
"न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः।" ---मनुष्य कभी धन से तृप्त नहीं हो सकता । "श्रयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्
तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः। भयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते,
प्रेयो मन्दो योगक्षमाद् वृणीत॥"
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मानव जीवन का ध्येय
२५
—श्रय और प्रेय- ये दोनों ही मनुष्य के सामने आते हैं, परन्तु ज्ञानी पुरुष दोनों का भली भाँति विचार करके प्रेय की अपेक्षा श्रय को श्रेष्ठ समझ कर ग्रहण करता है, और इसके विपरीत मन्द बुद्धि वाला मनुष्य लौकिक योग-क्षेम के फेर में पड़ कर त्याग की अपेक्षा भोग को श्रच्छा समझता है - उसे अपना लेता है ।
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते,
कामr asta हृदि श्रिताः । अथ मर्त्योऽमृतो भवति,
ब्रह्म समश्नुते ।। "
-साधक के हृदय में रही हुई कामनाएँ जब सबकी सब समूल नष्ट हो जाती हैं, तत्र मरणधर्मा मनुष्य अमर हो जाता है, ब्रह्मत्व भाव को प्राप्त कर लेता है ।
एक हिन्दी कवि भी धर्म और सदाचार के महत्त्व पर, देखिए, कितनी सुन्दर बोली बोल रहा है :
"धन, धान्य गयो, कछु नाहिं गयो,
आरोग्य गयो, कछु खो दीन्हो । चारित्र गयो, सर्वस्व गयो,
जग जन्म अकारथ ही लीन्हो || "
भगवान् महावीर ने या दूसरे महापुरुषों ने मनुष्य की श्रेष्ठता के जो गीत गाए हैं, वे धर्मं चोर सदाचार के रंग में गहरे रंगे हुए मनुष्यों के ही गाए हैं। मनुष्य के से हाथ पैर पा लेने से कोई मनुष्य नहीं बन जाता । मनुष्य बनता है, मनुष्य की आत्मा पाने से । और वह श्रात्मा मिलती है, धर्म के चरण से । यों तो मनुष्य रावण भी था ? परन्तु कैसा था ? ग्यारह लाख वर्ष से प्रति वर्ष उसे मारते आ रहे हैं, गालियाँ देते आ रहे हैं, जलाते आ रहे हैं । यह सब क्यों ? इसलिए कि उसने
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२६
श्रावश्यक दिग्दर्शन
मनुष्य बनकर मनुष्य का जैसा काम नहीं किया, फलतः यह मनुष्य होकर भी राक्षस कहलाया । भोग, निरा भोग मनुष्य को राक्षस बनाता है । एक मात्र त्यागभावना ही है जो मनुष्य को मनुष्य बनाने की क्षमता रखती है । भोगविलास की दल दल में फँसे रहने वाले रावणों के लिए हमारे दार्शनिकों ने 'द्विभुजः परमेश्वरः' नहीं कहा है ।
यूनान का एक दार्शनिक दिन के बारह बजे लालटेन जला कर एथेंस नगरी के बाज़ारों में कई घंटे घूमता रहा । जनता के लिए, आश्चर्य की बात थी कि दिन में प्रकाश के लिए लालटेन लेकर घूमना !
दार्शनिक ने कहाआदमी दूँढ़ रहा हूँ ।"
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एक जगह कुछ हजार आदमी इकट्ठे होगए और पूछने लगे कि "यह सब क्या हो रहा है ?"
- " मैं लालटेन की रोशनी में इतने घन्टों से
सब लोग खिल खिला कर हँस पड़े और कहने लगे कि "हम हजारों आदमी आपके सामने हैं । इन्हें लालटेन लेकर देखने की क्या बात है ?"
दार्शनिक ने गर्ज कर कहा - "अरे क्या तुम भी अपने आपको मनुष्य समझे हुए हो ? यदि तुम भी मनुष्य हो तो फिर पशु और राक्षस कौन होंगे ? तुम दुनिया भर के अत्याचार करते हो, छल छंद रचते हो, भाइयों का गला काटते हो, कामवासना की पूर्ति के लिए कुत्तों की तरह मारे-मारे फिरते हो, और फिर भी मनुष्य हो ! मुझे मनुष्य चाहिए, वन मानुष नहीं !"
दार्शनिक की यह कठोर, किन्तु सत्य उक्ति, प्रत्येक मनुष्य के लिए, चिन्तन की चीज़ है ।
एक और दार्शनिक ने कहा है कि "संसार में एक जिन्स ऐसी है, जो बहुत अधिक परिमाण में मिलती है, परन्तु मनमुताबिक नहीं मिलती ।" वह जिन्स और कोई नहीं, इन्सान है। जो होने को तो त्र
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मानव-जीवन का ध्येय
की संख्या में हैं, परन्तु वे कितने हैं, जो इन्सानियत की तराजू पर गुणों की तौल में पूरे उतरते हों ! सच्चा मनुष्य वही है, जिसकी आत्मा धर्म और सदाचार की सुगन्ध से निशदिन महकती रहती हो ।
भारत के प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने २६ जनवरी १६४८ के दिल्ली-प्रवचन में मनुष्यता के सम्बन्ध में बोलते हुए कहा था--"भारतवर्ष ने हमेशा रूहानियत की, आत्मशक्ति की ही कद्र की है, अधिकार और पैसे की नहीं। देश की असली दौलत, इन्सानी दौलत है। देश में योग्य और नैतिक दृष्टि से बुलन्द जितने इन्सान होंगे, उतना ही वह आगे बढ़ता है।"
प्रधानमंत्री, भारत को लेकर जो बात कह रहे हैं, वह सम्पूर्ण मानव-विश्व के लिए है । मनुष्यता ही सबसे बड़ी सम्पति है । जिस के पास वह है, वह मनुष्य है, और जिस के पास वह नहीं है, वह पशु है, साक्षात् राक्षस है । और वह मनुष्यता स्वयं क्या चीज़ है ? वह है मनुष्य का व्यक्तिगत भोगविलास की मनोवृत्ति से अलग रहना, त्याग मार्ग अपनाना, धर्म और सदाचार के रंग में अपने को रँगना, जन्ममरण के बन्धनों को तोड़कर अजर अमर पद पाने का प्रयत्न करना । संसार की अंधेरी गलियों में भटकना, मानव-जीवन का ध्येय नहीं है । मानव-जीवन का ध्येय है अजर अमर मनुष्यता का पूर्ण प्रकाश पाना । बह प्रकाश, जिससे बढ़कर कोई प्रकाश, नहीं । वह ध्येय, जिससे बढ़कर कोई ध्येय नहीं।
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सच्चे सुख की शोध
आज से नहीं, लाखों करोड़ों असंख्य वर्षों से संसार के कोने-कोने में एक प्रश्न पूछा जा रहा है कि यह प्रवृत्ति, यह संघर्ष, यह दौड़ धूप किस लिए है ? प्रत्येक प्राणी के अन्तहृदय से एक ही उत्तर दिया जा रहा है-सुख के लिए, आनन्द के लिए, शान्ति के लिए। हर कोई जीव सुख चाहता है, दुःख से भागता है । संसार का प्रत्येक प्राणी सुख के लिए प्रयत्नशील है । चींटी से लेकर हाथी तक, रंक तक, नारक से लेकर देवता तक क्षुद्र से क्षुद्र और महान् से महान् प्रत्येक संसारी प्राणी सुख को ध्रुवतारा बनाए दौड़ा जारहा है ! अनन्त अनन्त काल से प्रत्येक जीवन इसी सुख के चारों ओर चक्कर काटता रहा है । - सुख कौन नहीं चाहता ? शान्ति किसे अभीष्ट नहीं ? सब को सुख चाहिए | सब को शान्ति चाहिए
से लेकर राजा
सुख प्राप्ति की धुन में ही मनुष्य ने नगर बसाए, परिवार बनाए । बड़े-बड़े साम्राज्यों की नींव डाली, सोने के सिंहासन खड़े किए । सुख के लिए ही मनुष्य ने मनुष्य से प्यार किया, और द्वेष भी किया ! आज तक के इतिहास में हजारों खून की नदियाँ बही हैं, वे सब सुख के लिए
ही हैं, अपनी तृप्ति के लिए बही हैं। सुख की खोज में भटक कर मानव, मानव नहीं रहा, साक्षात् पशु बन गया है, राक्षस होगया है । यह क्यों हुआ ? भारतीय शास्त्रकारों ने सुख को दो भागों में विभक्त किया है । एक सुख आन्तरिक है तो दूसरा बाह्य । एक आत्मनिष्ठ है.
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सच्चे सुख की शोध
२६
तो दूसरा वस्तुनिष्ठ । एक आध्यात्मिक है तो दूसरा भौतिक । एक अजर अमर है तो दूसरा क्षणिक, क्षण भंगुर । एक दुःख की कालिमा से सर्वथा रहित है तो दूसरा विषमिश्रित मोदक |
बाह्य सुख में सब प्रकार के भौतिक तथा पौद्गलिक सुखों का समावेश हो जाता है । यह सुख वस्तुनिष्ठ है, अतः वस्तु है तो सुख है, अन्यथा दुःख ! एक बच्चा रो रहा है । आपने खिलौना दिया तो श्रानन्द में उछल पड़ा, नाचने लगा । परन्तु कितनी देर ? देखिए, खिलोना टूट गया है, और वह बच्चा अब पहले से भी अधिक रो रहा है । कहाँ गया, वह श्रानन्द-नृत्य ? खिलौने के साथ साथ वह भी टूट गया; क्योंकि वह वस्तुनिष्ठ था । यही सुख, वह सुख है, जिसके पीछे संसारी प्राणी पागल की तरह भटकता रहा है, अपने समय और शक्तियों का अपव्यय करता आ रहा है। इस सुख का केन्द्र धन है, विषय वासना है, भोग लिप्सा है, वस्तु संग्रह है, सन्तान की इच्छा है, स्वजन परिजन याद हैं | परन्तु यह सब सुख, सुख नहीं, सुखाभास है । भोगवासना की तृप्ति में कल्पित सुख की अपेक्षा वास्तविक दुःख ही अधिक है । अधिक क्या, अनन्त है | 'खण मित्तसुक्खा, बहुकाल दुक्खा ।'
बै
क्या धन में सुख है ? धनप्राप्ति के लिए कितना दम्भ रचा जाता है ? कितनी घृणा ? कितना द्वेष ? कितना अत्याचार ? भाई भाई का गला काट रहा है, धन के लिए । विश्व व्यापी युद्धों में प्रजा के खून की नदियाँ बह रही हैं, धन के लिए । मनुष्य धन के लिए पहाड़ों पर चढ़ता है, रेगिस्तानों में भटकता है, समुद्रों में डूबता है, फिर भी भाग्य का द्वार नहीं खुल पाता । साधारण मजदूर कहता है कि हाय धन मिले तो आराम से जिन्दगी कटे, संसार में और कुछ दुर्लभ नहीं, दुर्लभ है – एक मात्र धन !
परन्तु सेठिया कहता है कि अरे धन की क्या बात है ? मैंने लाखों कमाये हैं, और लाखों कमा सकता हूँ। मैंने सब तरफ धन के ढेर लगा दिए हैं, सोने के महल खड़े कर दिए हैं । परन्तु इस धन
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आवश्यक दिग्दर्शन
का होगा क्या ? कोई पुत्र नहीं, जो इस धन का उत्तराधिकारी हो । एक भी पुत्र होता तो मैं सुखी हो जाता, मेरा जीवन सफल हो जाता । श्राज विना पुत्र के घर सूना-सूना है, मरघट-सा लगता है । पुत्र ! हा पुत्र ! घर का दीपक !
।
परन्तु श्राइए, यह राजा उग्रसेन है और यह राजा श्रेणिक ! पुत्र सुख के सम्बन्ध में इनसे पूछिए, क्या कहते हैं ? दोनों ही नरेश कहते हैं कि "बाबा, ऐसे पुत्रों से तो बिना पुत्र ही अच्छे । भूल में हैं वे लोग, जो पुत्रैषणा में पागल हो रहे हैं हमें हमारे पुत्रों ने कैद में डाला, काठ के पिंजड़े में बन्द किया । न समय पर रोटी मिली, न कपड़ा और न पानी ही ! पशु की भाँति दुःख के हाहाकार में जिन्दगी के दिन गुजारे हैं । पुत्र और परिवार का सुख एक कल्पना है, विशुद्ध भ्रान्ति है ।"
सच्चा सुख है आत्मा में सुख का भरना अन्यत्र कहीं नहीं, अपने अन्दर ही वह रहा है । जब श्रात्मा बाहर भटकता है, परपरिणति में जाता है तो दुःख का शिमर होता है । और जब वह लौट कर अपने अन्दर में ही आता है, वैराग्य रसका आस्वादन करता है, संयम के मृत प्रवाह में अवगाहन करता है, तो सुख, शान्ति और आनन्द का ठाठें मारता हुआ क्षीर सागर अपने अन्दर ही मिल जाता है । जब तक मनुष्य वस्तुनों के पीछे भागता है, धन, पुत्र, परिवार एवं भोग-वासना आदि की दल-दल में फँसता है, तब तक शान्ति नहीं मिल सकती। यह वह आग है, जितना ईंधन डालोगे, उतना ही बढ़ेगी, बुगी नहीं। वह मूर्ख है, जो आग में घी डालकर उसकी भूख बुझाना चाहता है । जब भोग का त्याग करेगा, तभी सच्चा श्रानन्द मिलेगा । सच्चा सुख भोग में नहीं, त्याग में है; वस्तु में नहीं, आत्मा में है । रुणिकोपनिषद् में कथा ग्राती है कि प्रज्ञापति के पुत्र आणि ऋषि कहीं जारहे थे । क्या देखा कि एक कुत्ता मांस से सनी हुई हड्डी मुख में लिए कहीं जा रहा था । हड्डी को देख कर कई कुत्तों के मुख में पानी
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सच्चे सुख की शोध भर आया और उन्होंने अाकर कुत्ते को घेर लिया एवं सब के सब दांत पंजे आदि से उसको मारने लगे। यह देखकर बेचारे कुत्ते ने मुख से हड्डी छोड़ दी। हड्डी छोड़ते ही सब कुत्ते उसे छोड़कर हड्डी के पीछे पड़ गए और वह कुत्ता जान बचाकर भाग गया । उन कुत्तों में हड्डी के पीछे बहुत देर तक लड़ाई होती रही और वे सब के सब घायल होगए । यह तमाशा देखकर आरुणि ऋषि विचार करने लगे कि "अहो, जितना दुःख है, ग्रहण में ही है, त्याग में दु ख कुछ नहीं है, प्रत्युत सुख ही है । जब तक कुत्ते ने हड्डी न छोड़ी, तब तक पिटता और घायल होता रहा
और जब हड्डी छोड़ दी, तो सुखी होगया। इससे सिद्ध होता है कि त्याग ही सुख रूप है, ग्रहण में दुःख है । हाथ से ग्रहण करने में दुःख हो, इसका तो कहना ही क्या है, मन से विषय का ध्यान करने में भी दुःख ही होता है। सच कहा है कि विषयों का ध्यान करने से उनमें संग होता है, संग होने से उनकी प्राप्ति की कामना होती है, कामना में प्रतिबन्ध पड़ने से क्रोध होता है। कामना पूरी होने पर लोभ होता है, लोभ से मोह होता है, मोह से स्मृति नष्ट होती है--सद्गुरु का उपदेश याद नहीं रहता, स्मृति नष्ट होने से विवेक बुद्धि नष्ट हो जाती है,
और विवेक बुद्धि नष्ट होने से जीव नरक में जाता है; इसलिए विषयाशक्ति ही सब अनर्थ का मूल कारण है ! 'खाणी अणस्थाण उ कामभोगा' जब विषयों का त्याग होता है, वैराग्य होता है, तभी सच्चे सुख का
झरना अन्तरात्मा में बहता है और जन्म जन्मान्तरों से आने वाले वषयिक सुख दुःख के मैल को बहाकर साफ कर डालता है ।
बाह्य दृष्टि से धन वैभव, भोग विलास कितने ही रमणीय एवं चित्ताकर्षक प्रतीत होते है, परन्तु विवेकी मनुष्य तो इन में सुख की गन्ध भी नहीं देखता । विषयासक्त होकर आज तक किसी ने कुछ भी सुख नहीं पाया । विषयासक्त मनुष्य, अपने आप में कितना ही क्यों न बड़ा हो, एक दिन शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों से सदा के लिए हाथ धो बैठता है । क्या कभी विषय-तृष्णा भोग से शान्त
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हो सकती है ? कभी नहीं । वह तो जितना भोग भोगेंगे, उतनी प्रति पल बढ़ती ही जायगी। मनुष्य की एक इच्छा पूरी नहीं होती कि दूसरी उठ खड़ी होती है । वह पूरी नहीं हो पाती कि तीसरी आ धमकती है । इच्छात्रों का यह सिलसिला टूट ही नहीं पाता । मनुष्य का मन परस्परविरोधी इच्छात्रों का वैसा ही केन्द्र है, जैसा कि हजारों-लाखों उठती- गिरती लहरों का केन्द्र समुद्र ! एक दरिद्र मनुष्य कहता है कि यदि कहीं से पचास रुपए माहवारी मिल जाएं तो मैं सुखी हो जाऊँ ! जिसको पचास मिल रहे हैं, वह सौ के लिए छटपटा रहा है और सौ वाला हजार के लिए । इस प्रकार लाखों, करोड़ों और अरबों पर दौड़ लग रही है । परन्तु आप विचार करें कि यदि पचास में सुख है तो पचास वाला सौ सौ वाला हजार, और हजार वाला लाख, और लाख वाला करोड़ क्यों चाहता है ? इसका अर्थ है कि वैषयिक सुख, सुख नहीं है । वह वस्तुतः दुःख ही है । भगवान् महावीर ने वैषयिक सुख के लिए शहद से लिप्त तलवार की धार का उदाहरण दिया है । यदि शहद पुती तलवार की धार को चाटें तो किसनी देर का सुख ? और चाटते समय धार से जीभ कटते ही कितना लम्बा दुःख ? इसीलिए भगवान् महावीर ने अन्यत्र भी कहा है कि 'सब वैषयिक गान विलाप हैं, सब नाच रंग विडंबना है, सत्र अलंकार शरीर पर बोझ हैं, किं बहुना ? जो भी काम भोग हैं, सत्र दुःख के देने वाले हैं । '
"
सव्वं विलवियं गीयं,
सव्वं नटं विडंबियं । सव्वे आभरणा भारा,
सव्वे कामा दुहायहा ||
( उत्तराध्ययन सूत्र १३ | १६)
सच्चा सुख त्याग में है । जिसने विषयाशा छोड़ी उसी ने सच्चा सुख पाया । उससे बढ़कर संसार में और कौन सुखी हो सकता है ? जैन
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सच्चे सुख की शोध
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संस्कृति के एक अमर गायक ने कहा है कि देवलोक के देवता भी सुखी नहीं हैं । सेठ और सेनापति तो सुखी होंगे ही कहाँ से ? भूमण्डल पर शासन करने वाला चक्रवर्ती राजा भी सुखी नहीं है, वह भी विषयाशा के अन्धकार में भटक रहा है । अस्तु, संसार में सुखी कोई नहीं । सुखी है, एक मात्र वीतराग भाव की साधना करने वाला त्यागी साधक ! न चि सुही देवया देवलोए,
नव ही सेट्ठि सेावई य ।
न वि सुही पुढविपई राया, एगंत-सुही साहू
भगवती सूत्र में भगवान् महावीर ने त्यागजन्य श्रात्मनिष्ठ सुख की महत्ता और भोगजन्य वस्तुनिष्ठ वैषयिक सुख की हीनता बताते हुए कहा है कि बारह मास तक वीतराग भाव की साधना करने वाले श्रमण निग्रन्थ का श्रात्मनिष्ठ सुख, सर्वार्थ सिद्धि के सर्वोत्कृष्ट देवों के सुख से कहीं बढ़कर है ! संयम के सुख के सामने भला बेचारा वैषयिक सुख क्या अस्तित्व रखता है ?
साहू वीयरागी ॥
वैदिक धर्म के महान् योगी भर्तृहरि भी इसी स्वर में कहते हैं कि भोग में रोग का भय है, कुल में किसी की मृत्यु का भय है, धन में राजा या चोर का भय है, युद्ध में पराजय का भय है । किं बहुना, संसार की प्रत्येक ऊँची से ऊँची और सुन्दर से सुन्दर वस्तु भय से युक्त हैं । एक मात्र वैराग्य भाव ही ऐसा है, जो पूर्ण रूप से अभय है, निराकुल है ।
'सर्व वस्तु भवान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ।' -वैराग्य शतक
यह उद्गार उस महाराजाधिराज भर्तृहरि का है, जिस के द्वार पर संसार की लक्ष्मी खरीदी हुई दासी की भाँति नृत्य किया करती थी, बड़ेचढे राजा महाराजा क्षुद्र सेवक की भाँति श्राज्ञापालन के लिए नंगे पैरों
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आवश्यक दिग्दर्शन
दौड़ते थे । एक से एक अप्सरा सी सुन्दर रानियाँ अन्तःपुर में दीपशिखा की भाँति अन्धकार में प्रकाश रेखा सी नित्यनवीन श्रृंगार साधना में व्यस्त रहती थीं । यह सब होते हुए भी भर्तृहरि को वैभव में श्रानन्द नहीं मिला, उसकी आत्मा की प्यास नहीं बुझी । संसार के सुख भोगते रहे, भोगते रहे, बढ़-चढ़ कर भोगते रहे; परन्तु अन्त में यही निष्कर्ष निकला कि संसार के सब भोग क्षणभंगुर हैं, विनाशी हैं, कष्टप्रद हैं, इह लोक में पश्चात्ताप और परलोक में नरक के देने वाले हैं । जब कि संसार के इस प्रकार धनी मानी राजाओं की यह दशा है तो फिर तुच्छ श्रभावग्रस्त संसारी जीव किस गणना में हैं ?
जहाँ भोग तहँ रोग हैं, जहाँ रोग तह सोग, जहाँ योग तहँ भोग नहिं, जहाँ योग, नहिं भोग
! बात ज़रा लंबी होगई है, अतः समेट लूँ तो अच्छा रहेगा | सच्चा सुख क्या है, यह बात आपके ध्यान में गई होगी। विषय सुख की निःसारता का स्पष्ट चित्र आपके सामने रख छोड़ा है । विषय सुख क्षणभंगुर है, क्योंकि विषय स्वयं जो क्षणभंगुर है । वस्तु विनाशी है तो वस्तुनिष्ठ सुख भी विनाशी है। जैसा कारण होगा, वैसा ही कार्य होगा । मिट्टी के बने पदार्थ मिट्टी के ही होंगे । नीम के वृक्ष पर आम कैसे लग सकते हैं ? श्रतः क्षणभंगुर वस्तु से सुख भी क्षणभंगुर ही होगा, अन्यथा नहीं | अब रहा आत्मनिष्ठ सुख । श्रात्मा अजर अमर हैं, अविनाशी है, अतः तन्निष्ठ सुख भी अजर अमर अविनाशी ही होगा । हिंसा, सत्य, संयम, शील, त्याग, वैराग्य, दया, करुणा श्रादि सब आत्मधर्म हैं । अतः इनकी साधना से होने वाला आध्यात्मिक सुख श्रात्मा से होने वाला सुख है; और वह अविनाशी सुख है, कभी भी नष्ट न होने वाला ! छान्दोग्य उपनिषद् में सुख की परिभाषा करते हुए कहा है कि 'जो अल्प है, विनाशी है, वह सुख नहीं है । और जो भूमा है, महान् है, अनन्त है, अविनाशी है, वस्तुतः वही सच्चा सुख है ।'
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सच्चे सुख की सोध यो वै सूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति ।
(छान्दोग्य ७ । २३ । १) हाँ, तो क्या साधक सच्चा सुख पाना चाहता है ? और चाहता है सच्चे मन से, अन्दर के दिल से ? यदि हाँ तो आइए मन की भोगाकांक्षा को धूल की तरह अलग फैक कर त्याग के मार्ग पर, वैराग्य के पथ पर ! ममता के क्षद्र घेरे को तोड़ने के बाद ही साधक भूमा होता है, महान् होता है, अजर अमर अनन्त होता है। और वह सच्चा सुख भी पूर्ण रूपेण यहीं इसी दशा में प्राप्त होता है ! भूले साथियो ! अविनाशी सुख चाहते हो तो अविनाशी आत्मा की शरण में प्रायो। यही सच्चा सुख मिलेगा । वह आत्मनिष्ठ है, अन्यत्र कहीं नहीं।
damad
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: ४ :
श्रावक-धर्म
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एक बार एक पुराने अनुभवी संत धर्म-प्रवचन कर रहे थे । प्रवचन करते करते तरंग में श्रा गए और अपने श्रोताओं से प्रश्न पूछने लगे, "बताओ, दिल्ली से लाहौर जाने के कितने मार्ग हैं ?”
श्रोता विचार में पड़ गए। संत के प्रश्न करने की शैली इतनी प्रभावपूर्ण थी कि श्रोता उत्तर देने में हतप्रतिभ से हो गए। कहीं मेरा उत्तर गलत न हो जाय, इस प्रकार प्रतिष्ठाहानिरूप कुशंका उत्तर तो क्या, उत्तर के रूप में कुछ भी बोलने ही नहीं दे रही थी ।
उत्तर की थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद अन्ततोगत्वा सन्त ने ही कहा, "लो, मैं ही बताऊँ। दिल्ली से लाहौर जाने के दो मार्ग हैं ।" श्रोता अब भी उलझन में थे । अतः सन्त ने आगे कुछ विश्लेषण करते हुए कहा -- " एक मार्ग है स्थल का, जो श्राप मोटर से, रेल से या पैदल, किसी भी तरह तय करते हैं । और दूसरा मार्ग है आकाश से होकर जिसे आप वायुयान के द्वारा तय कर पाते हैं। पहला सरल मार्ग है, परन्तु देर का है । और दूसरा कठिन मार्ग है, खतरे से भरा है, परन्तु है शीघ्रता का । "
उपयुक्त रूपक को अपने धार्मिक विचार का वाहन बनाते हुए सन्त ने कहा - " कुछ समझे ? मोक्ष के भी इसी प्रकार दो मार्ग हैं | एक गृहस्थ धर्म तो दूसरा साधु धर्मं । दोनों ही मार्ग हैं, श्रमार्ग कोई
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श्रावक-धर्म नहीं । परन्तु पहला सरल होते हुए भी ज़रा देर का है । और दूसरा कठिन होते हुए भी बड़ी शोघ्रता का है। बतायो, तुम कौन से मार्ग से मोक्ष जाना चाहते हो?
सन्त की बात को लम्बी करने का यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है । यहाँ प्रयोजन है एक मात्र पिछले अध्यायों की संगति लगाने का और जीवन की राह ढूँढने का । मानव जीवन का लक्ष्य है सच्चा सुख । और वह सच्चा सुख है त्याग में, धर्म के प्राचरण में । धर्माचरण और त्याग से हीन मनुष्य, मनुष्य नहीं, पशु है । मिट्टी को मनुष्य का आकार मिल जाने में ही कोई विशेषता नहीं है। यह प्राकार तो हमें अनन्त अनन्त बार मिला है, परन्तु उस से परिणाम क्या निकला? रावण मनुष्य था और राम भी, परन्तु दोनों में कितना अन्तर था ? पहला शरीर के आकार से मनुष्य था तो दूसरा प्रात्मा की दिव्य विभूति के द्वारा मनुष्य था । जब तक मनुष्य की आत्मा में मनुष्यता का प्रवेश न हो, तब तक न उस मानव व्यक्ति का कल्याण है और न उसके आसपास के मानव समाज का ही । मानव का विश्लेषण करता हुअा, देखिए, लोकोक्ति का यह सूत्र, क्या कह रहा है--"आदमी आदमी में अन्तर, कोई हीरा कोई कंकर।"
कौन हीरा है और कौन कंकर ? इस प्रश्न के उत्तर में पहले भी कह आए हैं और अब भी कह रहे हैं कि जो धर्म का श्राचरण करता है, गृहस्थ का अथवा साधु का किसी भी प्रकार का त्याग-मार्ग अपनाता है, वह मनुष्य प्रकाशमान हीरा है । और धर्माचरण से शून्य, भोग-विलास के अन्धकर में श्रात्म-स्वरूप से भटका हुआ मनुष्य, भले ही दुनियादारी की दृष्टि से कितना ही क्यों न बड़ा हो, परन्तु वस्तुतः मिट्टी का कंकर है। सच्चा और खरा मनुष्य वही है, जो अपने बन्धन खोलने का प्रयत्न करता है और अपने को मोक्ष का अधिकारी बनाता है।
जैन संस्कृति के अनुसार मोक्ष का एकमात्र मार्ग धर्म है, और
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आवश्यक दिग्दर्शन उसके दो भेद है--सागार धर्म और अनगार धर्म। सागार वर्म गृहस्थ धर्म को कहते हैं, और अनगार धर्म साधु धर्म को । भगवान् महावीर ने इसी सम्बन्ध में कहा है:--
चरित्त - धम्मे दुविहे. पएणत्ते, तंजहाअगार चरित्त धम्मे चेव अणगारचरित्त धम्मे चेव
[स्थानांग सूत्र ] सागार धर्म एक सीमित मार्ग है । वह जीवन की सरल किन्तु छोटी पगडंडी है। वह धर्म, जीवन का राज मार्ग नहीं है। गृहस्थ संसार में रहता है, अतः उस पर परिवार, समाज और राष्ट्र का उत्तर दायित्व है। यही कारण है कि वह पूर्ण रूपेण अहिंसा और सत्य के राज-मार्ग पर नहीं चल सकता। उसे अपने विरोधी प्रतिद्वन्द्वी लोगों से संघर्ष करना पड़ता है, जीवनयात्रा के लिए कुछ-न-कुछ शोषण का मार्ग अपनाना होता है, परिग्रह का जाल बुनना होता है न्याय मार्ग पर चलते हुए भी अपने व्यक्तिगत या सामाजिक स्वार्थों के लिए कहीं न कहीं किसी से टकराना पड़ जाता है, अतः वह पूर्णतया निरपेक्ष स्वात्मपरिणति रूप अखण्ड अहिंसा सत्य के अनुयायी साधुधर्म का दावेदार नहीं हो सकता।
गृहस्थ का धर्म अणु है, छोटा है, परन्तु वह हीन एवं निन्दनीय नहीं है। कुछ पक्षान्ध लोगों ने गृहस्थ को जहर का भरा हुआ कटोरा बताया है । वे कहते हैं कि जहर के प्याले को किसी भी ओर से पीजिए, जहर ही पीने में आयगा, वहाँ अमृत कैसा ? गृहस्थ का जीवन जिधर भी देखो उधर ही पाप से भरा हुआ है, उसका प्रत्येक आचरण पावमय है, विकारमय है, उसमें धर्म कहाँ ? परन्तु ऐसा कहने वाले लोग सत्य की गहराई तक नहीं पहुँच पाए हैं, भगवान् महावीर की वाणी का मर्म नहीं समझ पाए हैं। यदि सदाचारी से सदाचारी गृहस्थ जीवन भी ज़हर का प्याला ही होता, उनकी अपनी भाषा में कुपात्र ही होता, तो जैन-संस्कृति के प्राण प्रतिष्ठापक भगवान् महावीर धर्म के दो भेदों में क्यों गृहथ धर्म की
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श्रावक धर्म
गणना करते ? क्यों उच्च सदाचारी गृहस्थों को श्रमण के समान उपमा देते हुए 'समणभूए' कहते ? क्यों उत्तराध्ययन सूत्र के पंचम अध्ययन की वाणी में यह कहा जाता कि कुछ भिन्तुषों की अपेक्षा संयम की दृष्टि से गृहस्थ श्रेष्ठ है और गृहस्थ दशा में रहते हुए भी साधक सुव्रत हो जाता है। 'संति एगेहिं भिक्खूहि गारस्था संजमुत्तरा।' 'एवं सिक्खासमावन्ने गिहिवासे वि सुव्वए।' यह ठीक है कि गृहस्थ का धर्म-जीवन दुद्र है, साधु का जैसा महान् नहीं है । परन्तु यह तुद्रता साधु के महान् जीवन की अपेक्षा से है। दूसरे साधारण भोगासक्ति की दलदल में फंसे संसारी मनुष्यों की अपेक्षा तो एक धर्माचारी सद्गृहस्थ का जीवन महान् ही है, क्षुद्र नहीं।
प्रवचन सारोद्धार ग्रन्थ में श्रावक के सामान्य गुणों का निरूपण करते हुए कहा गया है कि "श्रावक प्रकृति से गंभीर एवं सौम्य होता है । दान, शील, सरल व्यवहार के द्वारा जनता का प्रेम प्राप्त करता है। पापों से डरने वाला, दयालु, गुणानुरागी, पक्षपात रहित = मध्यस्थ, बड़ों का आदर सत्कार करने वाला, कृतज्ञ = किए उपकार को मानने चाला, परोपकारी एवं हिताहित मार्ग का ज्ञाता दीर्घदर्शी होता है ।” ___ धर्म संग्रह में भी कहा है कि "श्रावक इन्द्रियों का गुलाम नहीं होता, उन्हें वश में रखता है। स्त्री-मोह में पड़कर वह अपना अनासक्त मार्ग नहीं भूलता । महारंभ और महापरिग्रह से दूर रहता है । भयंकर से भयंकर संकटों के आने पर भी सम्यक्त्व से भ्रष्ट नहीं होता । लोकरूढ़ि का सहारा लेकर वह भेड़ चाल नहीं अपनाता, अपितु सत्य के प्रकाश में हिताहित का निरीक्षण करता है। श्रेष्ठ एवं दोष-रहित धर्माचरण की साधना में किसी प्रकार की भी लजा एवं हिचकिचाहट नहीं करता । अपने पक्ष का मिथ्या आग्रह कभी नहीं करता । परिवार आदि का पालन पोषण करता हुआ भी अन्तहदय से अपने को अलग रखता है, पानी में कमल बनकर रहता है।"
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Yo
श्रावश्यक दिग्दर्शन
क्या ऊपर के सद्गुणों को देखते हुए कोई भी विचारशील सज्जन
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गृहस्थ को कुपात्र कह सकता है, उसे ज़हर का लबालब भरा हुआ प्याला बता सकता है ? जैन धर्म में श्रावक को वीतरागदेव श्री तीर्थंकरों का छोटा पुत्र कहा है । क्या भगवान् का छोटा पुत्र होने का महान् गौरव प्राप्त करने बाद भी वह कुपात्र ही रहता है ? क्या आनन्द, कामदेव जैसे देवताओं से भी पथ भ्रष्ट न होने वाले श्रमणोपासक गृहस्थ ज़हर के प्याले थे ? यह भ्रान्त धारणा है । गृहस्थ का जीवन भी धर्ममय हो सकता है, वह भी मोक्ष की ओर प्रगति कर सकता है, कर्म बन्धनों को तोड़ सकता है । सद्गृहस्थ संसार में रहता हैं, परन्तु अनासक्त भाव की ज्योति का प्रकाश अंदर में जगमगाता रहता है । वह कभी-कभी ऐसी दशा में होता है कि कर्म करता हुआ भो कर्मबन्ध नहीं करता है ।
महिमा सम्यग् ज्ञान की
अरु विराग क्रिया करत फल भुंजतें
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बल जोइ ।
कर्म बन्ध नहिं होइ ॥
- समयसार नाटक, निर्जराद्वार
सूत्रकृतांग सूत्र का दूसरा श्रुतस्कन्ध हमारे सामने है । अविरत, विरत और विरताविरत का कितना सुन्दर विश्लेषण किया गया है। विरताविरत श्रावक की भूमिका है, इसके सम्बन्ध में प्रभु महावीर कहते हैं'सभी पापाचरणों से कुछ निवृत्ति और कुछ अनिवृत्ति होना ही विरतिअविरति है । परन्तु यह प्रारम्भ नोआरम्भ का स्थान भी तथा सब दुःखों का नाश करने वाला मोक्षमार्ग है। यह जीवन भी एकान्त सम्यक् एवं साधु है ।'
है
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G
- 'तत्थणं जा सा सव्वतो विरयाविरई, एस ठाणे आरम्भ नो
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. श्रावक धर्म
भारम्भट्ठाणे । एस ठाणे पारिए जाव . सव्वदुक्ख-प्पहीणमग्गे एगंतसम्म साहू !'
[सूत्रकृतांग २ । २ । ३६] यह है अनन्तज्ञानी परम वीतराग भगवान् महावीर का निर्णय ! क्या इससे बढ़कर कोई और भी निर्णय प्राप्त करना है ? यदि श्रद्धा का कुछ भी अंश प्राप्त है तो फिर किसी अन्य निर्णय की आवश्यकता नहीं है । यह निर्णय अन्तिम निर्णय है। अब हम व्यर्थ ही चर्चा को लम्बी नहीं करना चाहते। ___ आइए, अब कुछ इस बात पर विचार करें कि गृहस्थ दशा में रहते हुए भी इतनी ऊँची भूमिका कैसे प्राप्त की जा सकती है ?
यह आत्म-देवता अनन्त काल से मिथ्यात्व की अंधकारपूर्ण काल रात्रि में भटकता-भटकता, असत्य की उपासना करता-करता, जब कभी सत्य की विश्वासभूमिका में आता है तो वह उसके लिए स्वर्णप्रभात का सुअवसर होता है । संसाराभिमुख अात्मा जब मोक्षाभिमुख होती है, बहिमुख से अन्तर्मुख होती है, अर्थात् विषयाभिमुख से अात्माभिमुख होती है, तब सर्वप्रथम सम्यक्त्वरूप धर्म की दिव्य ज्योति का प्रकाश प्राप्त होता है। __ सच्ची श्रद्धा का नाम सम्यक्त्व है । यह श्रद्धा अन्ध श्रद्धा नहीं है । अपितु वह प्रकाशमान जीवित श्रद्धा है, जिसके प्रकाश में जड़ को जड़ और चैतन्य को चैतन्य समझा जाता है, संसार को संसार और मोक्ष को मोक्ष समझा जाता है और समझा जाता है. धर्म को धर्म और अधर्म को अधर्म! निश्चय दृष्टि में विवेक बुद्धि का जागृत होना ही सम्यक्त्व है, तत्त्वार्थ-श्रद्धान है। अनन्त काल से हम यात्रा तो करते चले आ रहे थे, परन्तु उस का गन्तव्य लक्ष्य स्थिर नहीं हुआ था। यह लक्ष्य का स्थिरीकरण सम्यक्त्व के द्वारा होता है। सम्यक्त्व के अभाव में कितना ही उग्र क्रिया काण्डी क्यों न हो, वह अन्धा है, सर्व
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श्रमण-सूत्र
नहीं है, यह तो पारस है ।' गरीब को कैसे विश्वास होता ? परन्तु ज्यों ही फकीर ने दरिद्र के तवा, करछी, चिमटा श्रादि लोहे की चीजों को पारस से छूया तो सब सोने के बन गए। अब क्या था, एक क्षण में ही उस ग़रीब की सारी दरिद्रता मिट गई, आँखें खुल गई ! ठीक यही दशा हमारी है। पारस रूप श्रात्मा से विण्यभोग की चटनी पीस रहे हैं । परन्तु ज्यों ही मगल-चतुष्टय के उज्ज्वल प्रकाश से आँखे खुलती हैं तो एक ही क्षण में जीवन का नकशा बदल जाता है। प्रभु-शक्ति हमारे अन्दर ही है, वह माँगी हुई बाहर से नहीं मिलती। जैन धर्म का श्रादर्श बाहर से कुछ पाने का नहीं है । और न किसी से कुछ लेने का ही है । मंगल चतुष्टय की शरण हमें कुछ देती नहीं है। प्रत्युत हमें अपना भान कराती है, सुत ज्ञान-चेतना को जागृत करती है । 'याशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादशी'-न्याय के अनुसार, जो जैसा स्मरण करता है वह वैसा बन जाता है । ध्यान की महिमा अपरंपार है ।
एक प्रश्न है, उस पर विचार कर ले। अाजकल लोग इतना नाम लेते हैं, प्रभु का स्मरण करते हैं; किन्तु उद्धार नहीं होता, यह क्या बात ? ठीक है, हमारा उद्धार इसलिए नहीं हो रहा है कि जिस प्रकार नाम लेना चाहिए वैसे नहीं लेते। केवल बला टालने के लिए, लोकदिखावे के लिए, संख्या-पूर्ति करने के लिए भगवान का नाम लिया जाता है । यदि भागध्य देव के प्रति हृदय में यथार्थं श्रद्धा हो, आकर्षण
और प्रेम हो, श्रादर-बुद्धि हो, निष्काम भाव हो तो अवश्य ही ज्ञान की चिनगारी प्रज्वलित होगी । श्रद्धा का बल असीम होता है । . प्रतिक्रमण श्रावश्यक के प्रारंभ में यह मंगल, उत्तम, एवं शरण सूत्र इसलिए पढ़ा जाता है कि साधक शान्त भाव से अपने मन को दृढ़, निश्चल, सरस एवं श्रद्धालु बना सके। प्रतिक्रमण के लिए
आध्यात्मिक भूमिका तैयार करने के लिए ही यह त्रिसूत्री यहाँ स्थान पाए हुए है । 'दसण सुद्धि-निमित्त' श्रावश्यक चूणि ।
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संक्षिप्त प्रतिक्रमण-सूत्र इच्छामि पडिक्कमि जो मे देवसियो अइयारो करो, काइओ, वाइनो, माणसिनोउस्सुत्तो, उम्मग्गो, अकप्पो, अकरणिज्जो दुज्झाओ, दुन्विचिंतित्रो, अणायारो, अणिच्छियव्यो, असमण-पाउग्गो नाणे तह दसणे चरित्ते सुए सामाइए; तिएहं गुत्तीणं, चउण्हं कसायाणं, पंचएहं महव्वयाणं, छएहं जीवनिकायाणं, सत्तएहं पिंडेसणाणं, अठपहं पवयण-माऊणं,
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४४
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पडिक्कमिउं = प्रतिक्रमण
इच्छामि = चाहता हूँ मे = मैंने
जो = जो
देवसि = दिवससम्बन्धी
इयारो = श्रतिचार
श्रमण-सूत्र
नवरहं वंभचेरगुत्तीणं, दसव समधमे समणाणं जोगाणं, जं खंडियं जं विराहियं
तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
शब्दार्थ
करना
को = किया हो
[ कैसा प्रतिचार ? ] काइनो = काय-सम्बन्धी वाइयो = वचन - सम्बन्धी माणसिश्रो = मन- सम्बन्धी [तीनों का विशदीकरण ]
उस्सुत्तो = सूत्र- विरुद्ध उम्मग्गो = मार्ग-विरुद्ध
कप्पो = श्राचारविरुद्ध करणिज्जो = न करने योग्य
दुज्झात्रो = दुर्ध्यानरूप दुब्विचिति = दुश्चिन्तर्नरूप
अरणायारो = आचरने योग्यं
警
अणिच्छियन्वी = न चाहने योग्य
समणपाउरंगो= साधू का अनुचित
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[ ये प्रतिचार किंविषयक होते हैं ? ]
नाणे = ज्ञान में
तह = तथा.
द'सणे = दर्शन में, चरिते = चारित्र में
[ तीनों के भेद ]
**
सुए = श्रुत ज्ञान में
सामाइए = सामायिक चारित्र में
उपसंहार ]
तिरहं = तीन
गुत्तीण = गुतियों की
चउरह चार
कसायाण = कषायों के निषेधोंकी
पंचरहं = पाँच
महल्वाण - महावतों की
爱
छरहं = छह
tail कायारण जीवनिकायों की सत्तरहं = सात
विसरणारा = पिण्डेषणाओं की अठरह = श्राठ
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संक्षिप्त प्रतिक्रमण-सूत्र
का
पवयणमाऊण =प्रवचन माताओं जं-जो
खंडियं = खगडना की हो नवण्हं =नी
जं जो बंभचेरगुत्तीण = ब्रह्मचर्य गुप्तियोंकी विराहियं = विराधना की हो दसविहे = दश-विध तस्स = उसका समणधम्मे = श्रमणधर्म में के दुक्कडं = पाप समणाण= श्रमण सम्बन्धी मे= मेरे लिए जोगाण= कर्तव्यों की मिच्छा = मिथ्या हो
भावार्थ मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ । ज्ञान, दर्शन, चारित्र में अर्थात् श्रुतधर्म और सामायिक धर्म के विषय में, मैंने दिन में जो कायिक, वाचिक तथा मानसिक अतिचार = अपराध किया हो; उसका पाप मेरे लिए निष्फल हो।
वह अतिचार सूत्र से विरुद्ध है, मार्ग = परंपरा से विरुद्ध है, कल्प = आचार से विरुद्ध है, नहीं करने योग्य है, दुर्ध्यान · प्रातभ्यान रूप है, दुविचिन्तित = ध्यान रूप है, नहीं प्राचरने योग्य है, नहीं चाहने योग्य है, संक्षेपमें साधु-वृत्ति के सर्वथा विपरीत है-साधु को नहीं करने योग्य है। - तीन गुप्ति, चार कषायों की निवृत्ति, पाँच महावत, छह पृथिवी, जन प्रादि जीवनिकायों की रक्षा, सात पिएषणा, पाठ प्रवचन माता, नौ ब्रह्मचर्य गुप्ति, दशविध श्रमण धर्म के श्रमणसम्बन्धी कर्तव्य, यदि खण्डित हुए हों अथवा विराधित हुए हों तो वह सब पाप. मेरे लिए निष्फल हो।
विवेचन मनुष्य देव भी है और राक्षस भी। देव, यों कि यदि वह सदाचार के मार्ग पर चले तो अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है, आसपास के देश, जाति और समाज का कल्याण कर सकता है, यदि और
"..
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श्रमण सूत्र
श्रागे बढ़े तो विश्व का कल्याण कर सकता है। नरक के समान दुःखाकुल संसार को स्वर्ग में परिणत कर देना उसके बाएँ हाथ का खेल है। ___राक्षस, यों कि यदि वह दुराचार के कुमार्ग पर चले तो अपनी
भी शान्ति खोता है, दूसरों की भी शान्ति खोता है, और संसार में सत्र ओर त्राहि-त्राहि मचा देता है। स्वर्ग के समान सुखी संसार को रौरव नरक की घोर यन्त्रणाओं में पटक देना, उसका साधारण-सा हँसी खेल है।
मनुष्य के पास उसे देव और गक्षस बनाने के लिए तीन महान् शक्तियाँ हैं-मन, वचन, और शरीर । इनके बल पर वह भला बुरा जो चाहे कर सकता है। उक्त तीनों शक्तियों को विश्व के कल्याण में लगाया जाय तो उधर वारा न्यारा है; और यदि अत्याचार में लगा दिया जाय तो उधर सफाचट मैदान है। मनुष्य का भविष्य इन्हीं के अच्छे बुरेपन पर बना बिगड़ा करता है। अतएव धर्म शास्त्रकारों ने जगह-जगह इन पर अधिक से अधिक नियंत्रण रखने का जोर दिया है। ____ साधु मुनिराज स्वपरोद्धारक के रूप में संसार के रंग मंच पर अवतीर्ण होते हैं; अतः उन्हें तो पद-पद पर मन, वचन और शरीर की शुभाशुभ चेटाबों का ध्यान रखना ही चाहिए । इस सम्बन्ध में जरा सी भी लापरवाही भयंकर पतन के लिए हो सकती है। अस्तु, प्रस्तुत पाठ में इन्हीं तीनों शक्तियों से दिन रात में होने वाली भूलों का परिमार्जन किया जाता है और भविष्य में अधिक सावधान रहने की सुदृढ़ धारणा बनाई जाती है।
यह प्रतिक्रमण का प्रारंभिक सामान्य सूत्र है। इसमें सक्षेत्र से श्राचार-विचार-सम्बन्धी भूलों का प्रतिक्रमण किया जाता है। अगले पाठों में जो विस्तृत प्रतिक्रमण-क्रिया होने वाली हैं, उसकी यहाँ मात्र आधारशिला रखी गई है।
सम्प्रति, सूत्र में आए हुए कुछ विशेष शब्दों का स्पीकरण किया
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संक्षिप्त प्रतिक्रमण-सूत्र जाता है। क्योंकि पारिभाषिक शब्दों का केवल शब्दार्थ के द्वारा निर्णय नहीं किया जा सकता। उत्सूत्र
उत्सूत्र का अर्थ सूत्र-विरुद्ध आचरण है। सूत्र-मूल आगम को कहते हैं । वह अर्थों की सूचना करता है, अतः सूत्र कहलाता है। 'अर्थ-सूचनात्सूत्रम्'–बृहत्कल्प प्रथम उद्देश की मलयगिरि टीका | अथवा 'उस्सुत्तो' का संस्कृत रूप उत्सूक्त भी बनाया जाता है। सूक्त का निर्वचन है-अच्छीतरह कहा हुअा शास्त्र--सुप्छु उक्तमिति । सूक्त विरुद्ध उत्सूक्त होता है। उन्मार्ग - उन्मार्ग का अर्थ है मार्ग के विरुद्ध आचरण करना । हरिभद्र आदि प्राचीन टीकाकार क्षायोपशमिक भाव को मार्ग कहते हैं, और क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भाव में संक्रमण करना उन्मार्ग है। चारित्रावरण कम का जब क्षयोपशम होता है, तब चारित्र का आविर्भाव होता है । और जब चारित्रावरण कम का उदय होता है तब चारित्र का घात होता है । अतः साधक को प्रतिक्षण उदयभाव से क्षायोपशमिक भाव में सचरण करते रहना चाहिए । ____ उन्मार्ग का अर्थ, परंपरा के विरुद्ध श्राचरण करना भी किया जाता है । मार्ग का अर्थ परम्परा है। पूर्व-कालीन त्यागी पुरुषों द्वारा चला अाने वाला पवित्र कर्तव्य-प्रवाह मार्ग है । 'मग्गो भागमणीई, अहवा संविग्ग-बहुजणाइगणं'-धम रत्न-प्रकरण । अकल्प ___ चरण और करण रूप धर्म व्यापार का नाम कल्प है-आचार है। जो चरण करण के विरुद्ध आचरण किया जाता है, वह अकल्प है। चरण सप्तति और करण सप्तति का निरूपण परिशिष्ट में किया गया है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र
यहाँ ज्ञान से सम्पग ज्ञान का ग्रहण है, और दर्शन तथा चारित्र से
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श्रमण-सूत्र
सम्यग दर्शन एवं सम्यक् चारेत्र का। यह जैन धर्म का रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग है । 'सम्यग दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः ।' श्री उमास्वाति रचित तत्त्वार्थसूत्र १ । १ । ____ मूल में सम्यग शब्द का उल्लेख नहीं है । परन्तु केवल, ज्ञान शब्द भी कुज्ञान का विरोधी होने से अपने अंदर सम्यक्त्व लिए हुए है। इसी प्रकार दर्शन, कुदर्शन की व्यावृत्ति करता है और चारित्र, कुचारित्र की । - मूल पाठ है 'नाणे तह दसणे चरित? । परन्तु प्राचार्य हरिभद्र ने यहाँ तह शब्द का उल्लेख नहीं किया है । श्रुत ___ श्रुत का अर्थ श्रुतज्ञान है। वीतराग तीर्थंकर देव के श्रीमुख से सुना हुना होने से आगम साहित्य को श्रुत कहा जाता है। श्रुत, यह अन्य ज्ञानों का उपलक्षण है, अतः वह भी ग्राह्य हैं। श्रुत का अतिचार है-विपरीत श्रद्धा और विपरीत प्ररूपणा । सामायिक
सामायिक का अर्थ समभाव है । यह दो प्रकार से माना जाता है.सम्यक्त्व रूप और चारित्र रूप । चारित्र पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति आदि है। और सम्यक्त्व जिन:प्ररूपित सत्य-मार्ग पर श्रद्धा है । इसके दो भेद हैं-निसर्गज और अधिगमज । सामायिक में सम्यक्त्व
और चारित्र दोनों का अन्तर्भाव होने से यह आक्षेप दूर हो जाता है कि-यहाँ ज्ञान और चारित्र के साथ सम्यग दर्शन का उल्लेख क्यों नहीं किया गया ? चार कषाय
चार कषाय का वर्णन अागे कषाय-सूत्र में आने वाला है। यहाँ केवल इतना ही. वक्तव्य है कि-मूल-पाठ 'च उरह कसायाणं' है। जिसका 'जं खंडियं में विराहियं के साथ योग होने पर अर्थ होता हैयदि चार कषायों का खण्डन किया हो तो मिच्छामि दुक्कडं ! श्राप
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संक्षिप्त प्रतिक्रमण-सूत्र
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विचार में होंगे, यह क्या उलटा अर्थ है ! कषायों का खण्डन तो इष्ट ही होता है, फिर अतिचार कैसा ? शंका सर्वथा उचित है । अतएव यहाँ 'कषाय' शब्द लक्षणा के द्वारा कषाय-निवृत्ति रूप माना जाता है। अतएव कषाय-मिवृत्ति में यदि कहीं दुर्बलता की हो तो उस अतिचार की शुद्धि की जाती है। इसी प्रकार षड्जीवनिकाय की भी षड्जीवनिकाय के रक्षण में लक्षणा है। सात पिण्डेषणा
दोष-रहित शुद्ध प्रासुक अन्न जल ग्रहण करना 'एषणा' है। इसके दो भेद हैं--विण्डैषणा और पानैषणा | आहार ग्रहण करने को पिण्डैषणा कहते हैं, और पानी ग्रहण करने को पानपणा । पिण्डषणा के सात प्रकार हैं:
(१) असंसट्टा = प्रसंसृष्टा-देय भोजन से विना सने हुए हाथ तथा पात्र से आहार लेना।
(२) संसट्ठा - संसृष्टा-देय भोजन से सने हुए हाथ तथा पात्र से आहार लेना।
(३) उद्धा उद्ध ता-बटलोई से थाली श्रादि में गृहस्थ ने अपने लिए जो भोजन निकाल रखा हो, वह लेना ।
(४) अप्पलेवा=अल्पलेपा-जिसमें चिकनाहट न हो, अतएव लेप न लग सके, इस प्रकार के भुने हुए चणे श्रादि ग्रहण करना ।
५) अवग्गहीश्रा = अवगृहीता-भोजनकाल के समय भोजनकर्ता ने भोजनार्थं थाली आदि में जो भोजन परोस रक्खा हो, किन्तु अभी भोजन शुरू न किया हो वह आहार लेना।
(६) पग्गहीश्रा = प्रगृहीता-थाली आदि में परोसने के लिए चम्मच श्रादि से निकाला हुआ, किन्तु थाली में न डाला हुआ, बीच में ही ग्रहण कर लेना । अथवा थाली में भोजन कर्ता के द्वारा हाथ आदि से प्रथम बार तो प्रगृहीत हो चुका हो, पर दूसरी बार पास लेने के कारण झूठा न हुआ हो, वह आहार लेना।
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श्रमण-सूत्र
(७) उझियधम्मा % उज्झितधर्मा-जो आहार अधिक होने से अथवा अन्य किसी कारण से फेकने योग्य समझ कर डाला जा रहा हो, वह ग्रहण करना ।
आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध पिण्डैपणा अध्ययन में तथा स्थानांगसूत्र में पिण्डै षणा का वर्णन आता है। यह उत्कृष्ट त्याग अवस्था की भिक्षा-सम्बन्धी भूमिकाएँ हैं । ___श्राचार्य हरिभद्र पाठान्तर के रूप में 'सतरहं पिंडेसणाणं' की जगह 'सतण्हं पाणेसणाण' का उल्लेख भी करते हैं । ये सात पानेषणा पिण्डैषणा के समान ही हैं । 'सप्तानां पानैषणानाम् केचित् पठन्ति । ता अपि चैवंभूता एव ।' आचार्य हरिभद्र ।
आठ प्रवचन-माता ___ प्रवचन-माता. पाँच समिति और तीन गुप्ति का नाम है। प्रवचन माता इसलिए कहते हैं कि द्वादशांग वाणी का जन्म इन्हीं से हुआ है । अर्थात् सपूर्ण जैन वाङमय की आधार-भूमि पाँच समिति और तीन गुप्ति ही हैं । माता के समान साधक का हित करने के कारण भी इनको माता कहा जाता है । इनका विशद वर्णन आगे यथास्थान किया जाने वाला है। दशविध श्रमण धर्म में श्रामण योग ___ श्रमण, साधू को कहते हैं । उसका शान्ति, मुक्ति श्रादि दशविध धम'--जिसका वर्णन आगे किया जाने वाला है-श्रमणधर्म कहलाता है । दशविध श्रमणधम में श्रामण योग क्या है ? इसके लिए यह बात है कि श्रमण सम्बन्धी योग = कर्तव्य को श्रामण योग कहते हैं । दशविध श्रमण धर्म में श्रमण का क्या कर्तव्य है ? कर्तव्य यह है कि क्षमा आदि दश विध श्रमण धर्म का सम्यक् रूप से आचरण करना चाहिए, सम्यक् श्रद्धान% विश्वास रखना चाहिए और यथावसर सम्यक प्ररूपण = प्रतिपादन भी करना चाहिए। आचार्य हरिभद्र कहते हैं-'श्रामणयोगानाम् = सम्यक प्रतिसेवन-श्रदान-प्ररूपणाला णानां यत्खण्डितम् ।।
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सक्षिप्त प्रतिक्रमण-सूत्र
खण्डित, विराधित _ 'जं खंडियं जं विराहिथं' में जो खण्डित और विराधित शब्द आए हैं, उनका कुछ विद्वान यह अर्थ करते हैं कि-'एकदेशेन खण्डना' होती है
और 'सर्व देशेन विराधना' । परन्तु यह विराधना वाला अर्थ संगत प्रतीत नहीं होता । यदि व्रत का पूर्ण रूपेण सर्वदेशेन नाश ही हो गया तो फिर प्रतिक्रमण के द्वारा शुद्धि किसकी की जाती है ? जब वस्त्र नष्ट ही हो गया तो फिर उसके धोने का क्या प्रयत्न ? वास्तविक अर्थ यह है कि-अल्पशिन खण्डना होती है और अधिकांशेन विराधना । अधिकांश का अर्थ अधिक मात्रा में नाश होना है, सींश में पूर्णतया नाश नहीं। अधिकांश में नाश होने पर भी व्रत की सत्ता बनी रहती है, एकान्ततः अभाव नहीं होता, जहाँ कि-'मूलं नास्ति कुतः शाखा' वाला न्याय लग सके। प्राचार्य हरिभद्र भी इसी विचार से सहमत हैं'विराधितं सुतरां भग्नं, न पुनरेकान्ततोऽभावापादितम् ।
प्रस्तुत सूत्र में 'जं खंडियं जं बिराहियं तस्स तक अतिचारों का क्रियाकाल बतलाया गया है; क्योंकि यहाँ अतिचार किस प्रकार किन व्रतों में हुए-यही बतलाया है, अभी तक उनकी शुद्धि का विधान नहीं किया । आगे चलकर 'मिच्छामि दुक्कडं' में अतिचारों का निष्ठाकाल है। निष्ठा का अर्थ है यहाँ समाप्ति, नाश, अ-त । हृदय के अन्तस्तल से जब अतिचारों के प्रति पश्चात्ताप कर लिया तो उनका नाश हो जाता है । यह रहस्य ध्यान में रखने योग्य है। __ जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री श्रात्मारामजी महाराज अपने साधु-प्रतिक्रमण में 'तस्स मिच्छामि दुक्कडे' से पहले 'जो मे देवसित्रो अइयारो कत्रो' यह अंश और जोड़ते हैं; परन्तु यह अर्थ-संगति में ठीक नहीं बैठता । सूत्र के प्रारंभ में जब 'जो मे देवसिङ्गो अइयारो कत्रो' एक बार आ चुका है, तब व्यर्थ ही दूसरी बार पुनरुक्ति क्यों ? प्राचार्य हरिभद्र आदि भी यह अंश स्वीकार नहीं करते।
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पूर
श्रमण-सूत्र
___यह अतिचार-सूत्र प्रथम आवश्यक में सामायिक सूत्र के बाद अतिचार स्मरण के लिए श्राता है, प्रस्तुत स्थान में प्रतिक्रमण के लिए, है, एवं आगे कायोत्सर्ग से पहले अतिचार-शुद्धि को पुनः विमल करने के लिए है। प्रथम और अन्तिम में 'इच्छामि ठाइडं काउस्सग्ग' बोला जाता है, जिसका अर्थ है कायोत्सर्ग करना चाहता हूँ। ठाइउं का संस्कृत रूप स्थातुम् है। धातु अनेकार्थक हैं अतः वहाँ स्था धातु करने अर्थ में है।
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ऐर्यापथिक-सूत्र इच्छामि पडिकमि इरियावहियाए विराहणार गमणागमणे पाणक्कमणे बीय-क्कमणे, हरिय-क्कमणे, ओसा-उत्तिंग-पणग-दगमट्टी-मक्कडा-संताणा-संकमणे, जे मे जीवा विराहिया, एगिदिया, बेई दिया, तेइंदिया, श्वउरिदिया, पंचिंदिया अभिहया, वत्तिया लेसिया, संघाइया संघट्टिया, परियाविया, किलामिया
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५४
श्रमण-सूत्र
उद्दविया, ठाणाश्रो ठाणं संकामिया, जोवियानो ववरोविया, तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
शब्दार्थ इच्छामि = चाहता हूँ। मक्कडा सताणा=मकड़ी के जालों पडिक्कमिउं = प्रतिक्रमण करना,
निवृत्त होना संकमणे = कुचलने से, मसलने से (किस से ?)
जे : जो भी इरियावहियाए-ऐर्यापथिकसम्बन्धी मे=मैंने विराहणाए=विराधना से हिंसा से जीवा=जीव ( विराधना किस तरह होती है ? ) विराहिया = विराधित किए हों गमणागमणे = मार्ग में जाते,प्राते
गत (कौन जीव विराधित किए हों ?) पाणक्कमणे = प्राणियों को कुचलने से
एगिदिया = एकेन्द्रिय वीयकमणे = बीजों को कुचलने से
बेह दिया = द्वीन्द्रिय हरियकमणे -हरित वनस्पति को
तेइ दिया ब्रीन्द्रिय
चरिंदिया = चतुरिन्द्रिय कुचलने से
पंचिंदिया = पंचेन्द्रिय श्रोसा = प्रोस को उत्तिंग = कीढ़ीनाल या कीड़ी
(विराधना के प्रकार) आदि के बलको अभिहया = सम्मुख पाते हुए पणग= सेवाल, काई को
रोके हों दग= सचित्त जल को वत्तिया = धूलि आदि से ढाँपे हों मट्टी सचित्त पृथ्वी को लेसिया = भूमि आदि पर मसले हों
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ऐर्यापथिक-सूत्र
संघाइया = इकट्ठे कर पीड़ित किए संकामिया = संक्रामित किए हों
हों संघट्टिया = छू कर पीड़ित किए हों परिताविया = परितापित किए हों किलामिया = अधमरे से किए हों उद्दवियाग्रस्त किए हों
जीविया = जीवन से ही ववरोविया = रहित किए हों, मार डाले हों
तस्स = तत्सम्बन्धी जो दुक्कडं = दुष्कृत, पाप मि=मेरे को लगा हो,
ठाणाश्रो = एक स्थान से ठाण = दूसरे स्थान पर
मिच्छा = ( वह सब ) मिथ्या हो
कुछ भी
५५
भावाथे
प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ, मार्ग में चलते हुए अथवा संयम धर्म का पालन करते हुए यदि असावधानता से किसी भी जीव की और किसी भी प्रकार की विराधना = हिंसा हुई हो तो मैं उस पाप से निवृत्त होना चाहता हूँ ।
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(किन क्रियाओं से और किन जीवों की विराधना होती है ? ) मार्ग में कहीं गमनागमन करते हुए प्राणियों को पैरों के नीचे या और किसी तरह कुचला हो, सचित जौ, गेहूँ या और किसी भी तरह के बीजों को कुचला हो, दबाया हो । घास, अंकुर आदि हरित वनस्पति को मसला हो, दबाया हो । आकाश से रात्रि में गिरनेवाली ओस, चीटियों के बिल या नाल, पाँचों ही रंग की सेवाल - काई, सचित्त जल, सचित्त पृथ्वी और मकड़ी के सचित्त जालों को दबाया हो, मसला हो ।
किं बहुना ? एक स्पर्शन इन्द्रिय वाले ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ) एकेन्द्रिय जीव, स्पर्शन और रसन दो इन्द्रिय वाले ( कृमि, शंख, मिडोना आदि ) द्वीन्द्रिय जीव; स्पर्शन, रसन. घ्राण तीन इन्द्रिय वाले ( चींटी, मकौदा, कुंथुना, खटमल आदि ) श्रीन्द्रिय जीव; स्पर्शन, रसन, प्राण, चतु चार इन्द्रिय वाले ( मक्खी, मच्छर
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५६
श्रमण-सूत्र
डाँस, विच्छू, चाँचड़, टीड, पतंग आदि) चतुरिन्द्रिय जीव; स्पर्शन, रसन, घ्राण, चहु और श्रोत्र उक पाँच इन्द्रिय वाले ( मछली, मेंढक
आदि सम्मूछन तथा गर्भज तियंच मनुष्य प्रादि) पन्चेन्द्रिय जोव; इस प्रकार किसी भी प्राणी की मैंने विराधना की हो। - [किस तरह की विराथना की हो ? ] सामने आते हुओं को रोक कर स्वतंत्र गति में बाधा डाली हो, धूल श्रादि से ढंके हों, भूमि
आदि पर मसले हों, समूह रूप में इकट्ठ कर एक दूसरे को आपस में टकराया हो, छूकर पीड़ित किए हों, परितापित-दुःखित किए हों, मरणतुल्य अधमरे से किए हों, त्रस्त = भयभीत किए हों, एक स्थान से दूसरे स्थान पर उठाकर रखे हों-बदले हों, किंबहुना, प्राण से रहित भी किए हों, तो मेरा वह सब अतिचारजन्य पाप मिथ्या हो, निष्फल हो!
विवेचन मानव-जीवन में गमनागमन का बहुत बड़ा महत्त्व है। यह वह क्रिया है, जो प्रायः सब क्रियाओं से पहले होती है, और सर्वत्र होती है। विहार करना हो, गोचरी जाना हो, शौच जाना हो, लघुशंका करनी हो, थूकना हो, अर्थात् कुछ भी इधर-उधर का काम करना हो तो पहले गमनागमन की ही क्रिया होती है। शरीर की जो भी स्पन्दन या कम्पन रूप क्रिया है, वह सब गमनागमन में सम्मिलित हो जाती है। अतएव प्रतिक्रमण-साधना में सर्वप्रथम गमनागमन के प्रतिक्रमण का ही विधान किया गया है।
जब तक यह शरीर चैतन्य-सत्ता से युक्त है, तब तक शरीर को मांस पिंड बनाकर एक कोने में तो नहीं डाला जा सकता है यदि कुछ दिन के लिए ध्यान लगाकर बैठे, योगसाधना की समाधि लगाले, तब भी कितने दिन के लिए ? भगवान् महावीर छह-छह मास का कायोत्सर्ग करके पत्थर की चट्टान की तरह निःस्पन्द खड़े हो जाते थे; परन्तु आखिर
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ऐयापथिक-सूत्र वे भीतर के बादं भिक्षा के लिए जाते थे और इधर उधर विहार करते थे । साधक के लिए यह असभव है कि वह सारा जीवन निराहार रहकर एक स्थान में निस्पन्द पड़ा हुआ प्रतिपल मृत्यु की प्रतीक्षा करता रहे । और इस प्रकार का निष्क्रिय एवं निर्माल्य-जीवन यापन करना, स्वयं अपने आप में कोई साधना भी तो नहीं है । तीर्थकर अरिहन्त
आध्यात्मिक साधना के ऊँचे से ऊँचे शिखर पर पहुँचे हुए भी, केवल ज्ञान केवल दर्शन पाकर कृतकृत्य होते हुए भी, जनकल्याण के लिए कितना भ्रमण करते हैं ? गाँव-गाँव और नगर-नगर घूम-घूम कर किस प्रकार सत्य की दुन्दुभि बजाते हैं ? श्री राहुल सांकृत्यायन भगवान महावीर को भारतवर्ष का सर्वश्रेष्ठ घुमक्कड़राज कहते हैं। घुमक्कड़राज, अर्थात् धुमक्कड़ों का, घूमने वालों का राजा । बहुत दूर न जाकर संक्षेप में कहूँ कि जब तक जीवन है, गमनागमन के विना कैसे रहा जा सकता है ? गृहस्थ हो, साधु हो, तीर्थकर हो, सबको गमनागमन करना ही होता है । गृहस्थ तो घर बाँधकर बैठा है, वह तो एक गाँव में बँधकर बैठा भी रहे । परन्तु साधु के लिए तो चार मास वर्षा वास को छोड़कर शेष आठ महीने का काल विहार-काल ही माना गया है । कुछ विशेष कारण हो जाय तो बात दूसरी है, अन्यथा सशक्त साधु के लिए शेष काल में विहार करते रहना आवश्यक है। यदि प्रमादयश विहार न करे तो प्रायश्चित का भागी होता है। जैन धर्म में साधु के लिए मठ बाँधकर बैठ जाना, सर्वथा निषिद्ध है। उसके लिए तो घुमक्कड़ी भी साधना का एक अंग है, अनासक्त जीवन की एक कसौटी है। वह साधु ही क्या जो घुमक्कड़ न हो | धुमक्कड़ साधु का जीवन निमल रहता है, विकारों में नहीं उलझता है। उसे गंगा की धार की तरह बहते ही रहना चाहिए । बहती धार ही निर्मल रह सकती है । कहा है-'साधू तो रमता भला, पड़ा गधीला होय ।'
अब प्रश्न यह है कि गमनागमन की क्रिया में तो पाप लगता है, अतः साधु के लिए गमनागमन, विहारचर्या कैसे विहित हो सकती
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श्रमण-सूत्र
है ? जिस क्रिया में पाप लगता हो, वह तो साधु को नहीं करनी चाहिए ? ___ उत्तर में निवेदन है कि जैनधर्म उपयोग का धर्म है, यतना का धर्म है। यहाँ गमनागमन, भोजन, भाषण आदि के रूप में जो भी क्रियाएँ हैं, उन सब में पाप बताया है। परन्तु वह, प्रमाद अवस्था में होता है । अप्रमत्त दशा में रहते हुए कोई पाप नहीं है । साधक यदि असावधान है, विवेकहीन है, राग-द्वेष की परिणति में फँसा है, यतना का कुछ भी विचार नहीं रखता है, तो वह पाप-कर्म का बन्ध करता है । वह कोई क्रिया करे या न करे, उसको पाप लगता ही रहता है । कर्तव्य के प्रति उपेक्षा, अविवेक और प्रमाद अपने आप में स्वयं एक पाप है । और यह पाप ही है, जो क्रियाओं को पाप के रंग से रँगता है । यदि साधक अप्रमत्त है, विवेकशील है, यतना का विचार रखता है, संयम की साधना में सतत जागृत रहता है, वह यदि कोई प्रवृत्ति करता भी है तो वह जागृत रहकर करता है, अतः उसे किसी प्रकार का पाप नहीं लगता है। पाप या दोष क्रियाओं में नहीं, क्रियाओं की पृष्ठ भूमि में रहने वाले काषायिक भाव में है, प्रमाद-भाव में है । इसके लिए मैं कुछ प्राचीन उद्धरण आपके सामने रख रहा हूँ। .. भगवान् महावीर कहते हैं'पमायं कम्ममाहंसु
अप्पमायं तहावरं ।'
(सूत्रकृतांग-सूत्र ८ । ३) -~-प्रमाद कम है और अप्रमाद अकम है, कर्म का अभाव है। 'जयं चरे जयं चिडे,
जयमासे जयं सए ।
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ऐयापथिक-सूत्र
५६ जयं भुजंतो भासंतो, पाव-कम्मं न बंधइ ॥
(दशवै० ४।८) -जो साधक यतना से चलता है, यतना से खड़ा होता है, यतना से बैठता है, यतना से सोता है, यतना से भोजन करता है और बोलता है, वह पापकर्म का बन्ध नहीं करता है ।
श्राचार्य शीलांक कहते हैं:'अथोपयुक्तो याति ततोऽ प्रमत्तत्वाद् अबन्धक एव ।'
. ( सूत्रकृतांगटीका १ । १।२ । २६) -जब साधक उपयोगपूर्वक चलता है, तब वह चलता हुआ भी अप्रमत्त भाव में है, अतः अबन्धक होता है।
जैन सस्कृति में साधु के गमनागमन के लिए ईर्यासमिति शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है गमनागमन में सम्यक् प्रवृत्ति । यह समिति सवर है, पापाश्रव को रोकने वाली है, कर्मों की निर्जरा का कारण है, अपने आप में धर्म है। यहाँ निवृत्तिमूलक प्रवृत्ति होती है, अतः असक्रिया का त्याग और सत् क्रिया का स्वीकार ही जैनधर्म की प्रवृत्ति का प्राण है । ___जैन-धर्म के प्राचार्यों का हजार-हजार वर्षों से सुनाया जानेवाला यह अमर स्वर क्या कभी मिथ्या ठहराया जा सकता है ? और क्या इसके रहते हुए जैन धर्म को अव्यवहार्य और उपहासास्पद बताया जा सकता है ? क्या अब भी विवेकानन्दजी का यह कहना सत्य है कि 'जैन धर्म के लोग प्रवृत्ति से इतना घबराते हैं, कि लंबे-लंबे उपवासों के द्वारा अपना शरीर त्याग देते हैं ?' यदि ये सब लोग जैन धर्म की यतना को समझते होते, अप्रमत्त भाव के विचार पर लक्ष्य देते होते तो क्या उपयुक्त भ्रान्त-भावना व्यक्त करते ? जैन-धर्म का हृदय यतना है ।
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श्रमण-सूत्र
यदि यतना है तो धर्म है, धर्म की रक्षा है, तप है, सब प्रकार का सुख तथा आनन्द है। यतना पूर्वक उचित प्रवृत्ति के क्षेत्र में पाप का प्रवेश नहीं है । एक जैनाचार्य कहता है:
जयणेह धम्म-जणणी,
जयणा धम्मस्स पालिणी चेव । तव - बुढिकरी जयणा,
एगंत - सुहावहा जयणा ॥ -~-यतना धर्म की जननी है, और यतना ही धर्म का रक्षण करने वाली है। यतना से तप की अभिवृद्धि होती है और वह एकान्त रूप में सुखावह = सुख देने वाली है ।
अत्र प्रश्न यह है कि जब साधु गमन करता है, तब अप्रमत्त भाव के कारण उसे पाप तो लगता नहीं है, फिर वह ईर्यापथिक क्रिया का प्रतिक्रममा क्यों करता है ? प्रस्तुत ऐपिथिक प्रतिक्रमण-पाट की क्या अावश्यकता है?
समाधान है कि साधारण मनुष्य प्राखिर मनुष्य है, भूल का पुतला है । यह कितनी ही क्यों न सावधानी रक्खे, आखिर कभी न कभी लक्ष्यच्युत हो ही जाता है। जबतक मनुष्य पूर्ण सर्वज्ञ-पद का अधिकारी नहीं हो जाता, तबतक वह आध्यात्मिक उत्थान के पथ पर अग्रसर होता हुआ, पूरी-पूरी सावधानी से कदम रखता हुआ भी, कभी छोटी-मोटी स्खलनाएँ कर ही बैठता है। छमस्थ अवस्था में 'मैं पूर्ण शुद्ध हूँ' यह दावा करना सर्वथा अज्ञानता पूर्ण है, धृष्टता का सूचक है । __ अतएव जानते या अजानते जो भी दूषण लगे, उन सबका प्रतिक्रमण करना और भविष्य में अधिकाधिक सावधानी से रहकर पापों से बचे रहने का दृढ़ सकल्प रखना, प्रत्येक संयमी मुमुक्षु का श्रावश्यक कर्तव्य है। दोषों को स्वीकार कर लेना, अपने से पीड़ा पाए जीवों से
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ऐपिथिक-सूत्र
क्षमा माँग लेना, पाप कार्य के प्रति अन्तर्हृदय से घुणा व्यक्त करना, और उचित प्रायश्चित्त ले लेना ही आत्म-विशुद्धि का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।
प्रस्तुत पाठ के द्वारा यही उपयुक्त प्रात्म-विशुद्धि का मार्ग बताया गया है। जिस प्रकार वस्त्र में लगा हुआ दाग क्षार तथा साबुन से धोकर साफ किया जाता है, वस्त्र को स्वच्छ तथा श्वेत कर लिया जाता है, उसी प्रकार गमनागमनादि क्रियाएँ करते समय अशुभयोग, मन की चंचलता, अज्ञानता, या अविवेक आदि के कारण से पवित्र संयम-धर्म में किसी भी तरह का कुछ भी पापमल लगा हो, किसी भी जीव को किसी भी तरह का कष्ट पहुँचाया हो, तो वह सब पाप इस पाठ के पश्चात्तापमूलक चिन्तन द्वारा साफ किया जाता है, अर्थात् ऐयापथिक अालोचना के द्वारा अपने संयम-धर्म को पुनः स्वच्छ कर लिया जाता है।
श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में 'पंच प्रतिक्रमण के भाष्यकार श्रीयुत प्रभुदासजी ने लिखा है कि ऐयोपथिक क्रिया तेरहवें गुणस्थान में अरिहन्त केवलज्ञानियों को भी लगती है, अतः वे भी ऐपिथिक क्रिया से लगे कर्म को दूर करने के लिए प्रतिक्रमण करते हैं।
परन्तु बहुत कुछ विचार-विमर्श करने के बाद भी यह सिद्धान्त मैं नहीं समझ सका । यह ठीक है कि तेरहवें गुणस्थान में भी ऐपिथिक क्रिया लगती है और उससे केवल सातावेदनीय कम का बन्ध होता है। वह बन्ध केवल योग-परिस्पन्दन के कारण होता है, कषाय एवं प्रमाद तो वहाँ है ही नहीं। कर्म का स्थितिबन्ध तो कषाय एवं प्रमाद के द्वारा ही होता है । अतः कषाय रहित अप्रमत्त दशा में योग-परिस्पन्द रूप ऐपिथिक क्रिया से, पहले समय में कम बँधता है, दूसरे समय में उसका वेदन होता है और तीसरे समय में उसकी निर्जरा हो जाती है । इसके बाद वह कर्मः अकम हो जाता है 18 अब विचार कीजिए कि जो कम समयमात्र
* इसके लिए देखिए, 'सूत्र कृतांग २-१८-१६'
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६२
ही वेदनकाल में रहा है, उसका प्रतिक्रमण कैसे होगा ? पाठादि के शब्द व्यवहार में तो असख्य समय लग जाते हैं, तब तक तो वह कर्म', कर्म ही हो गया, आत्मा पर लगा ही न रहा । अतः वीतराग
त केवलज्ञान दशा में, अशुभ योग से शुभ योग में लौटने रूप ऐर्याथिक प्रतिक्रमण, कैसे हो सकता है ? हाँ, व्यवहार रक्षा के लिए कहा जाय तो बात दूसरी है । इस पर भी विद्वानों को विचार करने की पेक्षा है, क्योंकि वे कनातीत अवस्था में हैं। अतः व्यर्थ के व्यवहार से बँधे हुए नहीं हैं ।
यह तो हुआ ऐक आलोचना का निदर्शन । व कुछ मूल पाठ पर विवेचन करना है । पहला प्रश्न नाम का ही है कि प्रस्तुत पाठ को ऐधिक क्यों कहते हैं ? आचार्य नाभि का समाधान है कि ईरां = ईर्ष्या, गमनमित्यर्थः । तत्प्रधानः पन्था ईर्यापथः, तत्रभवा ऐर्यापथिकी !' अर्थात् ईर्ष्या का अर्थ गमन है, गमन-प्रधान जो पथ = मार्ग, वह कहलाता है ! और ईर्यापथ में होने वाली क्रिया ऐर्यापथिकी क्रिया होती है । मार्ग में इधर-उधर श्राते-जाते जो क्रिया होती है, वह ऐर्या की कहलाती है । श्राचार्य हेमचन्द्र अपने योगशास्त्र की स्वोपज्ञवृत्ति में ईयपथ का अर्थ श्रेष्ठ आचार करते हैं, और उसमें गमनागमनादि के कारण असावधानता से जो दूषणरूप क्रिया हो जाती है, उसे ऐर्याधिकी कहते हैं - 'ईर्यापथः साध्वाचारः तत्रभवा ऐर्यापथिकी ।' अस्तु, उक्त ऐर्यापथिकी क्रिया की शुद्धि के लिए जो प्रायश्चित्तरूप-सूत्र बोला जाता है, वह भी ऐर्यानिक सूत्र कहलाता है ।
I
प्रस्तुत सूत्र एक गम्भीर विचार हमारे समक्ष रखता है । वह यह कि किसी जीव को मार देना ही, प्राणरहित कर देना ही, हिंसा नहीं है । प्रत्युत सूक्ष्म या स्थूल जीव को किसी भी सूक्ष्म या स्थूल चेष्टा के माध्यम से, किसी भी प्रकार की सूक्ष्म या स्थूल पीड़ा पहुँचाना भी हिंसा है । आपस में टकराना, ऊपर तले इकट्ठे कर देना, धूल आदि डालना, भूमि पर मसलना, ठोकर लगाना, स्वतन्त्रगति में रुकावट
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ऐयोपथिक-सूत्र
डालना, एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर बदलना, भयभीत करना, और तो क्या छूना भी हिंसा है। जैनधर्म का अहिंसा-दर्शन कितना सूक्ष्म है ! वह हिंसा और अहिंसा का विचार करते समय केवल ऊपर-ऊपर ही नहीं तैरता, अपितु गहराई में उतरता है। ___ जीव हिंसा का आगमों में, वैसे तो बहुत बड़े विस्तार के साथ वर्णन है । परन्तु इतने विस्तार में जाने का यहाँ प्रसंग नहीं है। संक्षेप में ही अहिंसा के मूल-रूप कितने होते हैं ? केवल यह बता देना ही श्रावश्यक है।
सर्वप्रथम जीव-हिंसा के तीन रूप होते हैं-सरंभ, समारंभ, और प्रारंभ ।
सरंभ-जीवों की हिंसा का संकल्प करना । समारंभ-जीवों की हिंसा के लिए साधन जुटाना, प्रयत्न करना ।
प्रारंभ-जीवों को किसी भी तरह का आघात पहुँचाना, घात कर डालना। __ उक्त तीनों को क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार कषायों से गुणित करने पर ४ ४ ३% १२ होते हैं । इन बारह भेदों को मन, वचन, काय रूप तीन योगों से गुणन करने पर ३६ भेद होते हैं । इन ३६ भेदों को कृत = करना, कारित = कराना, अनुमोदना = समर्थन करते हुए को अच्छा समझना, इन तीन से गुणन करने पर जीवाधिकरणी हिंसा के १०८ भेद बन जाते हैं । अहिंसा-महाव्रत के साधकों को पूर्ण अहिंसा के लिए इन सब हिंसा के भेदों से बचकर रहने की आवश्यकता है।
मूल पाठ में हिंसा के भेद बताते हुए कहा है कि जीवों को छूना भी हिंसा है, जीवों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर बदलना भी हिंसा है। इस सम्बन्ध में प्रश्न है कि कोई दुर्बल अपंग पीड़ित जीव कहीं धूप या सरदी में पड़ा छटपटा रहा है, मृत्यु के मुख में पहुंच रहा है तो क्या उसे छूना और दुःखप्रद स्थान से सुख प्रद स्थान में
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श्रमण-सूत्र
बदलना भी हिंमा ही है ? यदि यह भी हिंसा ही है तो फिर दया और उपकार के लिए स्थान ही कहाँ रहेगा ?
उत्तर में निवेदन है कि मूल पाठ के स्थूल शब्दों पर दृष्टि न अटका कर भाव के गांभीर्य में उतरिए और शब्दों के पीछे रही हुई भाव की पृष्ठभूमि टटोलिए। हिंसा के भाव से, कमय के भाव से, निर्दयता के भाव से यदि किसी जीव को छा जाय अथवा बदला जाय, तब तो हिंसा होती है। परन्तु यदि दया के भाव से. रक्षा के भाव से किसी को छूना और अन्यत्र बदलना हो तो वह हिंसा नहीं है, अपितु संवर और निर्जरा रूप धर्म है। क्रिया के पीछे भाव को देखना श्रावश्यक है। अन्यथा विवेकहीनता और जड़ता का राज्य स्थापित हो जायगा । साधक कहीं का भी न रहेगा । यदि कोई चींटी आदि जीव साधु के पात्र में गिर जाय तो क्या उसे छूएँ नहीं ? और अन्यत्र सुरक्षित स्थान में बदले नहीं ? यदि ऐसा करें तो क्या हिंसा होगी ? आप उत्तर देंगे, नहीं होगी? क्यों नहीं ? तो श्राप फिर उत्तर देगे- क्योंकि कष्ट पहुँचाने का दुःसकल्प नहीं है, अपितु रक्षा करने का पवित्र संकल्प है। अस्तु इसी प्रकार जीव-दया के नाते जीवों को छूने और बदलने में रहे हुए अहिंसारहस्य को भी समझ लेना चाहिए । - प्रस्तुत सूत्र के मुख्य रूप से तीन भाग हैं । 'इच्छामि पडिक्कमिडं इरियावहियाए विराहणाए' यह प्रारंभ का सूत्र अाज्ञा सूत्र है। इसमें गुरुदेव से ऐपिथिक प्रतिक्रमण की श्राज्ञा ली जाती है। 'इच्छामि' शब्द से ध्वनित होता है कि साधक पर बाहर का कोई दबाव नहीं है, वह अपने आप ही आत्म-शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण करना चाहता है
और इसके लिए गुरुदेव से आज्ञा माँग रहा है। प्रायश्चित्त और दण्ड में यही तो भेद है। प्रायश्चित में अपराधी की इच्छा स्वयं ही अपराध को स्वीकार करने और उसकी शुद्धि के लिए उचित प्रायश्चित लेने की होती है । दण्ड में इच्छा के लिए कोई स्थान नहीं है। वह तो बलात् लेना ही होगा। दण्ड में दबाव मुख्य है । अतः प्रायश्चित्त जहाँ अपराधी
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ऐर्यापथिक-सूत्र
६५
की आत्मा को ऊँचा उठाता है, वहाँ दण्ड उसे नीचे गिराता है । सामाजिक व्यवस्था में दण्ड से भले ही कुछ लाभ हो । परन्तु श्राध्यात्मिक क्षेत्र में तो उसका कुछ भी मूल्य नहीं है । यहाँ तो इच्छापूर्वक प्रसन्नता के साथ गुरुदेव के समक्ष पहले पापों की आलोचना करना और फिर उसका प्रतिक्रमण करना, जीवन की पवित्रता का मार्ग है ।
हाँ, जिन दूसरे पाठों में 'इच्छामि पडिक्कमिङ' न होकर केवल 'पडिक्कमामि' है, वहाँ पर भी 'पडिक्कमामि' क्रिया के गर्भ में 'इच्छामि' अवश्य रहा हुआ है । पडिक्कमामि का भावार्थ यही है कि 'मैं प्रतिक्रमण करता हूँ, अर्थात् मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ, अतएव गुरुदेव ! आज्ञा दीजिए ।'
'गमागमणे' से लेकर 'जीवियाओ ववरोविया' तक का अंश आलोचना -सूत्र है । श्रालोचना का अर्थ है - गुरुदेव के समक्ष स्पष्ट हृदय सेव्यौरेवार अपराध का प्रकटीकरण, अर्थात् प्रकट करना । यह अंश भी कितना महत्त्वपूर्ण है ! अपने आप अपनी भूल को स्वीकार करना, साधारण बात नहीं है । साहसी वीर पुरुष ही ऐसा कर सकते हैं । जब लज्जा और अहंकार के दुर्भाव को छोड़ा जाता है, प्रतिष्ठा के भय को भी. दूर हटा दिया जाता है, आत्मशुद्धि का पवित्र भाव हृदय के करण करण में उभर आता है, तब कहीं आलोचना होती है । आलोचना का साधना के क्षेत्र में बहुत बड़ा महत्त्व है ।
इसके आगे 'तस्स मिच्छामि दुक्कड' का अन्तिम अंश श्राता है । यह अंश प्रतिक्रमण सूत्र कहलाता है । प्रतिक्रमण का अर्थ है'मिच्छामि दुक्कड' देना, अपराध के लिए क्षमा माँग लेना । जैनधर्म में आलोचना और प्रतिक्रमण, दश प्रायश्चित्त में से प्रथम के दो नायश्चित्त माने गए हैं ।
इसीप्रकार अन्य प्रतिक्रमण के पाठों में भी उक्त तीन अंशों का परिज्ञान कर लेना चाहिए ।
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श्रमण-सूत्र
___ मूल-सूत्र में 'उसिंग' शब्द आया है, उसका अर्थ चींटियों का नाल या चींटियों का बिल किया है । प्राचार्य हरिभद्र 'गर्दभ की श्राकृति के जीव विशेष अर्थ भी करते हैं । 'उत्तिंगा गर्दभाकृतयो जीवा, कीटिकानगराणि वा ।' प्राचार्य जिनदास महत्तर के उल्लेख से मालूम होता है कि यह भूमि में गडदा करने वाला जीव है, अतः सम्भव है, यह अाज की भाषा में 'घुग्गू' हो । 'उत्तिंगा नाम गदभाकिती जीवा, भूमीए खड्डयं करेंति'-श्रावश्यक चूर्णि । ____ 'दग-मट्टी' का अर्थ जल और पृथ्वी किया है। प्राचार्य हरिभद्र भी उक्त-सूत्र के दोनों शब्दों को भिन्न-भिन्न मान कर जल और पृथ्वी अर्थ करते हैं । परन्तु वे 'दग-मट्टि' शब्द को एक शब्द भी मानते हैं और उसका अर्थ करते हैं---'चिखल अर्थात् कीचड़ ।' 'दकमृत्तिका चिक्खलं, अथवा दकग्रहणादपकायः, मृत्तिकाग्रहणात्पृथ्वीकायः ।।
आचार्य हरिभद्र ने अभिहया का अर्थ किया है.---' अभिमुखागता हता चरणेन घट्टिताः, उत्क्षिप्य तिता वा।' इसका भाव है-'पैर से ठोकर लगाना, या उठाकर फेक देना।
'वत्तिया' का अर्थ-पुञ्ज बनाना भी किया है। 'वर्तिताः पुजी कृताः, धूल्या वा स्थगिताः' प्राचार्य हरिभद्र ।
सङ्घहिता का अर्थ छूना किया है, जिसके लिए प्राचार्य हरिभद्र का आधार है । 'सङ्घट्टिता मनाक-स्पृष्टाः।' __ ऊपर के शब्दों के सम्बन्ध में प्राचार्य हरिभद्र के जिस मत का उल्लेख किया गया है, ठीक वैसा ही प्राचार्य जिनदास महत्तर का भी मत है । इसके लिए आवश्यक चूणि द्रष्टव्य है ।
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शय्या-सूत्रं इच्छामि पडिकमिपगामसिज्जाए, निगामसिज्जाए, उब्वट्टणाए, परिवणाए, आउंटणाए, पसारणाए,' छप्पइय-संघट्टणाए, कूइए, ककराइए, छीए, जंभाइए, आमोसे, ससरक्खामोसे, आउलमाउलाए, सोअणवत्तियाए, इत्थीविपरियासियाए, दिविविपरियासियाए, मण-विपरियासियाए, पाणभोयण-विपरियासियाए,
जो मे देवसियो अइयारो करो, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।
शब्दार्थ पडिक्कमिउ = प्रतिक्रमण करना [किं विषयक ?] इच्छामि = चाहता हूँ पगामसिजाए-चिरकाल तक सोने से
१-'पाउंटण-पसारणाए' इत्यपि पाठः ।
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श्रमण-सूत्र
निगामसिजाए - बार-बार चिर- स सरक्खामोसे-सचित्त रज से युक्र काल तक सोने से
वस्तु को छूते हुए उव्वट्टणाए = करवट बदलने से पाउलमाउलाए, आकुल व्यापरिवट्टणाए = बार-बार करवट
कुलता से बदलने से सोश्रणवत्तियाए = स्वप्न के निमित्त श्राउटणाए - हाथ पैर श्रादि को
संकुचित करने से इत्थी विप्परियासियाए-स्त्री संबंधी पसारणाए - हाथ पैर आदि को
___विपर्यास से फैलाने से दिदि विप्परियासियाए = दृष्टि के छप्पइय = षटपदी यूका आदि
विपर्यास से
मणविप्परियासियाए = मन के सघट्टणाए = स्पर्श करने से
विपास से कूइए - खांसते हुए
पाणभोयण - पानी और भोजन के कक्कराइए = शय्या के दोष कहते विप्परियासियाए = विपर्यास से
जो यदि कोई छीए - छींकते हुए
मे मैंने जंभाइए = उबासी लेते हुए देवसिश्रो = दिवस सम्बन्धी अामोसे विना पूँजे स्पर्श करते अइयारो : अतिचार
कत्रो = किया हो तो
व विपर्यास का अर्थ विपर्यय है। स्वप्न में स्त्री के द्वारा ब्रह्मचर्य की भावना में विपर्यय हो जाना, स्त्री विपर्यास है। जिनदास महत्तर कहते हैं-'विपर्यासो अबभचेरं । परन्तु केवल अब्रह्मचर्य ही नहीं, किसी भी प्रकार की सयमविरुद्ध वृत्ति या प्रवृत्ति विपर्यास है। आगे मनोविपर्यास और पानभोजनविपर्यास आदि में यही अर्थ ठीक बैठता है ।
स्त्री साधक 'इत्थी विप्परियासियाए' के स्थान में 'पुरिसवियरियासियाए,' पढ़े। उनके लिए, पुरुष ही विपर्यास का निमित्त है।
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शय्या-सूत्र
६६
तस्स% उसका
मि = मेरे लिए दुक्कडं = पाप
मिच्छा = मिथ्या हो
भावार्थ शयन सम्बन्धी प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ। शयनकाल में यदि बहुत देर तक सोता रहा हूँ, अथवा बार बार बहुत देर तक सोता रहा हूँ, भयतना के साथ एक वार करवट ली हो, अथवा बार बार करवट ली हो, हाथ पैर आदि अंग अयतना से समेटे हों अथवा पसारे हों, यूका-जू आदि शुद्र जीवों को कठोर स्पर्श के द्वारा पीड़ा पहुँचाई हो
बिना यतना के अथवा ज़ोर से खाँसी ली हो, अथवा शब्द किया हो, यह शय्या बढ़ी विषम तथा कठोर है-इत्यादि शय्या के दोष कहे हों; बिना यतना किए छींक एवं जंभाई ली हो, बिना प्रमार्जन किए शरीर को खुजलाया हो अथवा अन्य किसी वस्तु को छूना हो, सचित्त रज वाली वस्तु का स्पर्श किया हो
[उपर शयनकालीन जागते समय के अतिचार बतलाए हैं। अब सोते समय के अतिचार कहे जाते हैं। ] स्वप्न में विवाह युद्धादि के अवलोकन से प्राकुल व्याकुलता रही हो-स्वप्न में मन भ्रान्त हुआ हो, स्वप्न में स्त्री संग किया हो, स्वप्न में स्त्री को अनुराग भरी दृष्टि से देखा हो, स्वम में मन में विकार पाया हो, स्वम दशा में रात्रि में भोजन-पान की इच्छा की हो या भोजन पान किया हो___ अर्थात् मैंने दिन में जो भी शयन-सम्बन्धी अतिचार किया हो, वह सब पाप मेरा मिथ्या = निष्फल हो।
विवेचन जैन आचार शास्त्र बहुत ही सूक्ष्मतात्रों में उतरनेवाला है । साधकजीवन की सूक्ष्म से सूक्ष्म चेष्टाओं, भावनाओं एवं विकल्पों पर सावधानी तथा नियंत्रण रखना, यह महान उद्देश्य, इन सूक्ष्म चर्चाओं के पीछे रहा हुआ है । अाज का उड़ाऊ चंचल मन भले ही इनको उपहास की
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श्रमण-सूत्र
चीज समझे तथाच लक्ष्य न दे, किन्तु जिसको साधना की चिन्ता है, भूलों का पश्चात्ताप है, वह कभी भी इस अोर से उदासीन नहीं रह सकता। ____एक करोड़पति सेठ है । रात के बारह बज गए हैं, तथापि बहीखाते
की जाँच-पड़ताल हो रही है। एक पाई गुम है, उसका मीजान नहीं मिल रहा है । आप कहेंगे-~~-यह भी क्या ? पाई ही तो गुम हुई है, उसके लिए इतनी सिरदर्दी ? परन्तु श्राप अर्थशास्त्र पर ध्यान दीजिए । एक पाई का मूल्य भी कुछ कम नहीं है । 'जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः' की उक्ति के अनुसार बूंद-बूंद से घट भर जाता है और पाईपाई जोड़ते हुए तिजोरी भर जाती है। ___ धर्म साधना के लिए भी ठीक यही बात है । साधारण साधक भी छोटी से छोटी साधनाओं पर लक्ष्य देते हुए एक दिन ऊँचा साधक बन जाता है। इसके विपरीत साधारण सी भूलों की उपेक्षा करते रहने से ऊँचे-से-ऊँचा साधक भी पतन के पथ पर फिसल पड़ता है। यही कारण है --जैनाचारशास्त्र सूक्ष्म-से-सूक्ष्म भूलों पर भी ध्यान रखने का आदेश देता हैं।
प्रस्तुत सूत्र शयन सम्बन्धी अतिचारों का प्रतिक्रमण करने के लिए है । सोते समय जो भी शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक भूल हुई हो, संयम की सीमा से बाहर अतिक्रमण हुआ हो, किसी भी तरह का विपर्यास हुआ हो, उन सबके लिए पश्चात्ताप करने का, 'मिच्छा दुक्कडं' देने का विधान प्रस्तुत सूत्र में किया गया है। ..
अाज की जनता, जब कि प्रत्यक्ष जागृत अवस्था में किए गए पापों का भी उत्तरदायित्व लेने के लिए तैयार नहीं है, तब जैनमुनि स्वप्न अवस्था की भूलों का उत्तरदायित्व भी अपने ऊपर लिए हुए है । शयन तो एक प्रकार से क्षणिक मृतदशा मानी जाती है । वहाँ का मन मनुष्य के अपने वश में नहीं होता । अतः साधारण मनुष्य कह सकता है कि सोते समय मैं क्या कर सकता था ? मैं तो लाचार था। मन ही भ्रान्त रहा,
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शय्या सूत्र
मैंने तो कुछ नहीं किया ?' परन्तु संयम पथ का श्रेष्ठ साधक ऐसा नहीं कह सकता । वह तो ज्ञात-अज्ञात सभी भूलों के प्रति अपना उत्तरदायित्व ढ़ता से निभाता है । वह अपने साधना - जीवन के प्रति किसी भी अवस्था में बेखबर नहीं रह सकता ।
यदि सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो स्वप्न जगत हमारे जागृत जगत का ही प्रतिविम्ब है । प्रायः जैसा जागृत होता है, वैसा ही स्वप्न होता है । यदि हम स्वप्न में भ्रान्त रहते हैं, संयम सीमा से बाहर भटक कर कुछ विपर्यास करते हैं तो इसका अर्थ है अभी हमारा जागृत भी सुदृढ़ नहीं है । स्वप्न की भूले हमारी आध्यात्मिक दुर्बलताओं का संकेत करती है । यदि साधक अपने स्वप्न जगत पर बराबर लक्ष्य देता रहे तो वह अवश्य ही अपने जागृत को महान बना सकता है । जीवन के किस क्षेत्र में अधिक दुर्बलता है ? संयम का कौन-सा अंग अपरिपुष्ट है ? - इसकी सूचना स्वप्न से हमें मिलती रहेगी और हम जागृत दशा में उसी पर अधिक चिन्तन मनन का भार देकर उसे सबल एवं सशक्त बनाते रहेंगे | आदर्श के प्रति जागरूकता संसार की एक बहुत बड़ी शक्ति है । यदि साधक चाहे तो क्या जागृत और क्या स्वप्न प्रत्येक दशा में अपने आप को सदाचारी, संयमी एवं प्रतिज्ञात व्रत पर सुदृढ़ बनाए रख सकता है ।
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७१
प्रस्तुत सूत्र के प्रारंभ में सोते समय के कुछ प्रारंभिक दोष बतलाए, हैं । बारबार करवटें बदलते रहना, बारबार हाथ पैर आदि को सिकोड़ते और फैलाते रहना - मन की व्याक्षिप्त एवं अशान्त दशा की सूचना है । जिन लोगों का मन श्रधिक चंचल एवं इधर-उधर की बातों में अधिक उलझा रहता है, वह शय्या पर घंटों इधर-उधर करवटें बदलते रहते हैं, हाथ पैर आदि को बारबार सिकोड़ते - पसारते रहते हैं; बारबार
खे बन्द कर सोने का उपक्रम करते हैं, फिर भी अच्छी तरह सो नहीं पाते । साधक जीवन के लिए मन की यह भूमिका अच्छी नहीं मानी जाती । साधक का कर्तव्य है कि सोने से पहले मन को सौंकल्प-विकल्पों
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श्रमण-सूत्र
से खाली कर ले; ताकि सुषुप्ति दशा में उचित निद्रा पाए, फलतः शरीर भलीभाँति निश्चेष्ट रह कर अपनी श्रान्ति मिटा सके एवं सयम क्षेत्र से बाहर शरीर और मन का विपर्यास भी न हो सके । सोने के लिए बड़ी सावधानी की आवश्यकता है; यदि अधिक चिन्तन के साथ कहें तो जागृत अवस्था की अपेक्षा भी स्वप्नावस्था में जागरूक रहने का अधिक महत्त्व है। प्रकामशय्या
'शय्या' शब्द शयनवाचक है और 'प्रकाम' अत्यन्त का सूचक है ; अतः प्रकाम शय्या का अर्थ होता है-अत्यन्त सोना, मर्यादा से अधिक सोना, चिरकाल तक सोना । यह, शब्दार्थ और भावार्थ में हम प्रकट कर पाए हैं। इसके अतिरिक्त 'प्रकाम शय्या' का एक अर्थ और भी है । उसमें 'शेरतेऽस्यामिति शय्या'-इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'शप्या' शब्द संथारे का, बिछोने का वाचक है, और 'प्रकाम' उत्कट अर्थ का वाचक है। इसका अर्थ होता है-'प्रमाण से बाहर बड़ी एवं गद्देदार कोमल गुदगुदी शय्या ।' यह शय्या साधु के कठोर एवं कर्मठ जीवन के लिए वर्जित है । साधु अाराम लेने के लिए नहीं सोता । प्रतिपल के विकट जीवन संग्राम में उसे कहाँ अाराम की फुर्सत है ? अतः अशक्य परिहार के नाते ही निद्रा लेनी होती है, आराम के लिए नहीं । यदि इस प्रकार की कोमल शय्या का उपभोग करेगा तो अधिक देर तक अालस्य में पड़ा रहेगा, ठीक समय पर जाग न सकेगा; फलतः स्वाध्याय
आदि धर्म क्रियाओं का भली-भाँति पालन न हो सकेगा। निकाम शय्या
प्रकाम शय्या का ही बार-बार सेवन करना, अथवा बार-बार अधिक काल तक सोते रहना. निकाम शय्या है। प्राचार्य हरिभद्र और नमि प्रकाम शय्या और निकाम शय्या के दोनों ही अर्थों का उल्लेख करते हैं । प्राचार्य जिनदास महत्तर का भी यही अभिमत है।
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शय्या-सूत्र
उद्वर्तना और परिवर्तना __ उद्वर्तना का अर्थ है एक बार करवट बदलना, और परिवर्तना का अर्थ है बार-बार करवट बदलना। प्राचार्य जिनदास महत्तर अावश्यक चूणि में उद्वर्तन का अर्थ करते हैं—'एक करवट से दूसरी करवट बदलना, बायीं करवट से दाहिनी करवट या दाहिनी से बायीं करवट बदलना।' और परिवर्तना का अर्थ करते हैं-'पुनः वही पहले वाली करवट ले लेना ।' 'वामपासेण निवनो संतो जं पल्लत्थति, एतं उठवत्तणं । जं पुणो वामपासेण एव परियत्तणं ।' प्राचार्य हरिभद्र भी ऐसा ही कहते हैं | परिवर्तना का प्राकृत मूलरूप परियट्टणा' भी मिलता है। ___ 'उबट्टणाए! से पहले संथारा शब्द का प्रयोग भी बहुत-सी प्रतियों में मिलता है । उसका अर्थ किया जाता है 'सथारे पर करवट बदलना।' परन्तु जिनदास महत्तर और हरिभद्र आदि प्राचीन श्राचार्य उसका उल्लेख नहीं करते । अतः हमने भी मूल पाठ में इसको स्थान नहीं दिया है । वैसे भी कुछ महत्त्वपूर्ण नहीं है । शय्या सूत्र यह स्वयं ही है । अतः करवट शय्या पर ही ली जायगी। उसके लिए शय्या पर करवट बदलना, यह कथन कुछ गम्भीर अर्थ नहीं रखता। कर्करायित
'कर्करायित' शब्द का अर्थ 'कुड़कुड़ाना' है । शव्या यदि विषम हो, कठोर हो तो साधू को शान्ति के साथ सब कष्ट सहन करना चाहिए । साधू का जीवन ही तितिक्षामय है | अतः उसे शय्या के दोष कहते हुए कुड़कुड़ाना नहीं चाहिए । स्वप्न-प्रत्यया
प्रस्तुत-सूत्र में 'श्राउलमाउलाए' के ग्रागे 'सोअणवत्तियार' पाठांश पाता है। उसका अर्थ है-स्वप्नप्रत्यया, अर्थात् स्वप्न के प्रत्यय = निमित्त से होने वाली सयमविरुद्ध मानसिक क्रिया । प्राचार्य हरिभद्र ने इसका सम्बन्ध 'बाउलमाउलाए' से जोड़ा है। प्रकरण की दृष्टि से ग्रागे के शब्दों के साथ भी इसका सम्बन्ध है ।
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७४
श्रमण-सूत्र
एक प्रश्न
सूत्रों में दिवाशयन अर्थात् दिन में सोने का निषेध किया गया है । जब दिन में सोना ही नहीं है; तब साधू को इस सम्बन्ध में दैवसिक अतिचार कैसे लग सकता है ? प्रश्न ठीक है । अब जरा उत्तर पर भी विचार कीजिए । जैनधर्म स्याद्वादमय धर्म है। यहाँ एकान्त निषेध अथवा एकान्त विधान, किसी सिद्धान्त का नहीं है । उत्सर्ग
और अपवाद का चक्र बराबर चलता रहता है । अस्तु, दिवाशयन का निषध श्रौत्सर्गिक है और कारणवश उसका विधान प्रापवादिक है । विहारयात्रा की थकावट से तथा अन्य किसी कारण से अपवाद के रूप में यदि कभी दिन में सोना पड़े तो अल्प ही सोना चाहिए । यह नहीं कि अपवाद का आश्रय लेकर सर्वथा ही सयम-सीमा का अतिक्रमण कर दिया जाय ! इसी दृष्टि को लक्ष्य में रखकर सूत्रकार ने प्रस्तुत शयनातिचार-प्रतिक्रमण-सूत्र का दैवसिक प्रतिक्रमण में भी विधान किया है । वस्तुतः उत्सर्गदृष्टि से यह सूत्र, रात्रि प्रतिक्रमण का माना जाता है।
प्रस्तुत शय्या सूत्रका, जब भी साधक सोकर उठे, अवश्य पढ़ने का विधान है। और शय्या-सूत्र पढ़ने के बाद किसी सम्प्रदाय में एक लोगस्स का तो किसी में चार लोगस्स पढ़ने की परम्परा है ।
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गोचरचर्या-सूत्र पडिकमामि गोयरचरियाए, भिक्खायरियाए उग्घाड-कवाड-उग्घाडणाए, साणा-वच्छा-दारासंघट्टणाए, मंडी-पाहुडियाए, बलि-पाहुडियाए, ठवणापाहुडियाए,संकिए, 'सहसागारे, अणेसणाए, पाणभोयणाए, बीयभोयणार, हरियभोयणाए, पच्छाकम्मियाए, पुरेकम्मियाए, अदिट्ठहडाए, दग-संसट्ठ-हडाए, रय-संसह-हडाए, पारिसाडणियाए, पारिद्वावणियाए, ओहासण-भिक्खाए
जं उग्गमेणं, उप्पायणेसणाएअपरिसुद्धं, परिग्गहियं, परिभुत्तं वा जं न परिदृवियं,
तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ! -सहसागारिए ऐसा भी कुछ प्रतियों में पाठ है। परन्तु जिनदास महत्तर और हरिभद्र आदि प्राचीन श्राचार्यों ने 'सह सागारे' पाठ का ही उल्लेख किया है।
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श्रमण-सूत्र
शब्दार्थ
पडिकमामि = प्रतिक्रमण करता हूँ साणा = कुत्तो गोयरचरियाए = गोचर-चर्या में वच्छा = बछड़े भिक्खायरियाए %3D भिक्षा-चर्या में ____दाग% बच्चों का
[ दोष कैसे लगे ?] संघट्टणाए = संघट्टा करने से उग्घाड = अधखुले
मडी= अग्रपिण्ड की कवाड - किवाड़ों को
पाहुडियाए = भिक्षा से उग्घाडणाए खोलने से बलि = बलिकर्म की
-'उग्घाडं नाम किंचि थगित' इति जिनदास महत्तराः । २-'मडीपाहुडिया नाम जाहे साधू श्रागतो ताए, म डीए अण्ण मि वा भायणे अग्ग-पिंड उक्कहिताण सेसाश्रो देति ।' इति जिनदास महत्तराः।
३-'बलि-पाहुडिया नाम अग्गिमि छुभति. चउद्दिसि वा अञ्चणितं करेति, ताहे साहुस्स देति ।' इति जिनदास महत्तराः ।
[ मण्डी प्राभृतिका और बलिप्राभृतिका के न लेने का यह अभिप्राय है-'प्राचीन काल में और बहुत से स्थानों में आजकल भी लोकमान्यता है कि जब तक तैयार किये हुए भोजन में से बलि के रूप में भोजन का कुछ अंश अलग निकाल कर नहीं रख दिया जाता, या दिशाओं में नहीं डाल दिया जाता या अग्नि में आहुत नहीं कर दिया जाता, तब तक वह भोजन श्रछता रहता है, फलतः उसे उपयोग में नहीं लाया जाता । बलि निकाल कर अलग न रक्खी हो और इतने में साधु पहुँच जाए तो गृहस्थ पहले दूसरे पात्र में बलि निकाल कर रख लेता है और फिर साधु को भोजन देना चाहता है। परन्तु यह भिक्षा प्रारम्भ का निमित्त होने से ग्राह्य नहीं है। दूसरीबात यह है कि जब तक बलि निकाली न थी, तब तक भोजन का उपयोग नहीं हो रहा था । अब साधु के निमित्त से बलि निकाल ली तो दूसरे लोगों के
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गोचरचर्या-सूत्र
७७
.
लन स
पाहुडियाए = भिक्षा से
पारिट्ठावणियाए = पारिष्ठापनिका ठवणा = स्थापना की पाहुडियाए भिक्षा से
श्रोहासण = उत्तम वस्तु माँग कर संकिए =शंकित पाहार लेने से ।
भिक्खाए - भिक्षा लेने से सहसागारे शीघ्रता में लेने से
जं (और) जो श्रणेसणाए -विना एषणा के
उग्गमेण = श्राधाकर्मादि उद्गम लेने से
दोषों से पाणभोयणाए = प्राणी वाले भोजन
उपायण = उत्पादन दोषों से
एसणाए = एषणा के दोषों से घीयभोयणाए = बीज वाले भोजन
श्रमरिसुद्ध-अशुद्ध आहार
परिग्गहियं = ग्रहण किया हो हरियभोयणाए = हरित वाले
बा = तथा भोजन से
परिभुत्त =भोगा हो पच्छाकम्मियाए = पश्चात्कर्म से
जं = (और) जो भूल से लिया पुरेकम्मियाए = पुरःकर्म से
| জুম্মা ক্ষয় अदिछ - अदृष्ट वस्तु के
न-नहीं हडाए - लेने से
परिठवियं = परठा हो तो दग ससट्ठ जल से संसृष्ट
तस्स = उसका हडाए लेने से
दुकडं पाप रय संसठ्ठ २ रज से संसृष्ट
मि= मेरे लिए हडाए = लेने से
मिच्छा - मिथ्या हो पारिसाडणियाए = पारिशाटनिकासे
भोजन के लिए भी छूट हो गई। यह प्रवृत्ति दोष भी साधु के निमित्त से ही होता है। अतः अहिंसा की सूक्ष्म विचारणा के कारण इस प्रकार की भिक्षा जैन मुनि के लिए अग्राह्य है। ]
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७८
গদ্য-শূর
भावार्थ गोचरचर्या रूप भिक्षाचर्या में, यदि ज्ञात अथवा अज्ञात किसी भी रूप में जो भी अतिचार = दोष लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ = उस अतिचार से वापस लौटता हूँ। . [कौन से अतिचार ?] अधखुले किंवाड़ों को खोलना; कुत्त, बछड़े और बच्चों का संघटा स्पर्श करना; मण्डी प्राभृतिका अग्रपिण्ड लेना; बलिप्राभृतिका बलि कर्मार्थ तैयार किया हुआ भोजन लेना अथवा साधु के आने पर बलिकर्म करके दिया हुश्रा भोजन लेना । स्थापनाप्राभृतिका भित्तुओं को देने के उद्देश्य से अलग रक्खा हुआ भोजन लेना । शङ्कित= श्राधाकर्मादि दोषों की शंका वाला भोजन लेनाः सहसाकार शीघ्रता में पाहार लेना; विना एषणा-छानबीन किए लेना; प्राण भोजन-जिसमें कोई जीव पड़ाहो ऐसा भोजन लेना, बीज-भोजन-बीजों वाला भोजन लेना; हरितभोजन-सचित्त वनस्पति वाला भोजन लेना पश्चात्कर्म-साधु को श्राहार देने के बाद तदर्थ सचित्त जल से हाथ या पात्रों को धोने के कारण लगने वाला दोषः पुरःकर्म-साधु को श्राहार देने से पहले सचित्त जल से हाथ या पात्र के धोने से लगने वाला दोष, अदृष्टाहृत-बिना देखा भोजन लेना; उदक संमृष्टाहत-सचित्त जल के साथ स्पर्श वाली वस्तु लेना; रजःसंसृष्टाहत सचित्त रज से स्पृष्ट वस्तु लेना; पारिशाटनिका-देते समय मार्ग में गिरता-बिखरता हुआ पाने वाला भोजन लेना; पारिष्ठापनिका= ' आहार देने के पात्र में पहले से रहे हुए
१-कुछ अनुवादक पारिष्ठापनिका का 'परटने योग्य कालातीत अयोग्य वस्तु ग्रहण करना ।' अथवा 'साधु को बहराने के बाद उसी पात्र में रहे हुए शेष भोजन को जहाँ दाता द्वारा फेक देने की प्रथा हो, वहाँ अय. तना की सम्भावना होते हुए भी आहार ले लेना।' ऐसा अर्थ भी करते हैं।
परन्तु हमने जो अर्थ किया है, उस के लिए प्राचार्य जिनदास महत्तर का प्राचीन आधार है-'पारिठवणियाए तत्थ भायण असण किचि अासी, ताहे तं परिठवेतूण अण्ण देति ।' श्रावश्यक चूर्णि ।
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गोचरचर्या सूत्र
__७६ किसी भोजन को डाल कर, दिया जाने वाला अन्य भोजन लेना; अवभाषण भिक्षा=विशिष्ट भोजन का माँगना अवभाषण है, सो अवभाषण के द्वारा भिक्षा लेना; उद्गम-आधा कर्म आदि १६ उद्गम दोषों से सहित भोजन लेना; उत्पादन-धात्री आदि १६ साधु की तर्फ से लगने वाले दोषों से सहित भोजन लेना। एषणा-ग्रहणैषणा के शंका श्रादि १० दोषों से सहित भोजन लेना। ____ उपयुक्र दोषों वाला अशुद्ध-साधुमर्यादा की दृष्टि से अयुक्र श्रोहर पानी ग्रहण किया हों, ग्रहण किया हुआ भोग लिया हो; किन्तु दूषित जानकर भी परठा न हो तो तजन्य समस्त पाप मिथ्या हो।
विवेचन जीवनयात्रा के लिए मनुष्य को भोजन की आवश्यकता है। यदि मनुष्य भोजन न करे, सर्वदा और सर्वथा निराहार ही रहे तो मनुष्य का कोमल जीवन टिक नहीं सकता । और जीवन की अहिंसा, सत्य श्रादि उच्च साधनाओं के लिए, कर्तव्य पूर्ति के लिए मनुष्य को जीवित रहना आवश्यक है । जीवन का महत्त्व संसार में किसी भी प्रकार से कम नहीं आँका जा सकता; परन्तु शर्त है कि वह शुभ उद्देश्य के लिए हो, स्वपर के कल्याण के लिए हो; दुराचार या अत्याचार के लिए न हो। जैन धर्म जैसा कठोर निवृत्तिप्रधान धर्म भी जीवन के प्रति उपेक्षित रहने को नहीं कहता । अात्मघाती के लिए वह महापापी शब्द का प्रयोग करता है।
भोजन श्रावश्यक है, इसके लिए कोई दूसरा विकल्प हो ही नहीं सकता । परन्तु भोजन कैसा श्रोर किसलिए करना चाहिए ? यह एक विचारणीय प्रश्न है । साधारण लोगों का खयाल है कि भोजन स्वादिष्ट होना चाहिए, फिर भले वह कैसा ही हो ? ये लोग जीवन की महत्ता को नहीं जानते। इनका जीवन-क्षेत्र केवल जिला के चार अंगुल के टुकड़े पर ही केन्द्रित है । अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट चटनी, आचार, मुरब्बे,
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श्रमण-सूत्र
मिष्टान्न आदि खाना और मस्त रहना, यही इनके जीवन का श्रादर्श रहता है। स्वादु भोजन के फेर में ये लोग धामिक मर्यादा का तो क्या खयाल रक्खेंगे ?; अपने स्वास्थ्य की भी चिन्ता नहीं करते और . अंट-सट खा-पीकर एक दिन अपने अमूल्य मानव-जीवन को मिट्टी में -मिला देते हैं । इनका अादर्श है.---'भोजन के लिए जीवन'; जबकि होना चाहिए-'जीवन के लिए भोजन ।'
दूसरी श्रेणी में वे लोग आते हैं, जो स्वादु भोजन के फेर में तो नहीं पड़ते । परन्तु पुष्टिकर एवं शक्तिप्रद भोजन का मोह वे भी नहीं छोड़ सके हैं। शरीर को मजबूत बनाएँ, बलिष्ठ पहलवान बने, और मनचाही ऐश करें, यही आदर्श इन लोगों के जीवन का है। इसके श्रागे का कोई भी उज्ज्वल चित्र इनकी आँखों के समक्ष नहीं रहता। धर्म की मर्यादा से इनका भी कोई सम्बन्ध नहीं होता। भोजन पुष्टिकर होना चाहिए, फिर भले वह कैसा ही हो और किसी भी तरह मिला हो ।
तीसरी श्रेणी श्रात्मतत्व के पारखी साधक पुरुषों की है। ये लोग 'जीवन के लिए भोजन' का आदर्श रख कर कार्यक्षेत्र में उतरते हैं । स्वादु भोजन तथा पुष्टिकर भोजन से इन्हें कुछ मतलब नहीं; इन्हें तो शरीर यात्रा के लिए जैसा भी रूखा-सूखा पार जितना भी भोजन मिले, वही पर्याप्त है । साधक को अपने आहार पर पूरा-पूरा काबू रखना चाहिए। वह जो कुछ भी खाए, वह केवल औषधि के रूप में शरीर रक्षा के लिए ही खाए, स्वाद के लिए कदापि नहीं।
__ साधक के भोजन का आदर्श है--हित, मित, पथ्य । भोजन ऐसा होना चाहिए, जो अल्म हो, स्वास्थ्यवर्धक हो और धर्म की दृष्टि से भी उपयुक्त हो । मांस, मद्य अथवा अन्य धर्म-विरुद्ध अभक्ष्य भोजन, वह कदापि नहीं करता। एतदर्थं वह जीवन से हाथ धोने के लिए तैयार रहता है, किन्तु अपवित्र मादक पदार्थों का सेवन किसी भी प्रकार नहीं कर सकता। भोजन का मन के साथ घनिष्ट सम्बन्ध है। मनुष्य जैसा अन्न खाता है, मन वैसा ही बन जाता है । सात्विक भोजन करने वाले क
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गोचरचर्या सूत्र मन सात्त्विक होता है, और तामसिक भोजन करने वाले का मन तामसिक । जो साधक अहिंसा एवं सत्य मार्ग का पथिक है; उसे विकारवर्द्धक उत्तेजक पदार्थों से सर्वथा अलग रहना चाहिए। यह भोजन की द्रव्य-शुद्धि है।
दूसरी ओर भोजन का न्याय प्राप्त होना भी आवश्यक है। किसी को पीड़ा पहुँचा कर अथवा असत्य आदि का प्रयोग करके प्राप्त हुश्रा भोजन, आत्मा को तेजस्वी नहीं बना सकता। तेजस्वी बनाना तो दूर, प्रत्युत आत्मा का पतन करता है और कभी-कभी तो मनुष्यता तक से शून्य बना देता है।
जैन संस्कृति में भोजन के ये दो ही प्रकार हैं, एक वह सात्त्विक होना चाहिए और दूसरे न्याय प्राप्त । एक तीसरा और विशेषण भी है, जो स्पृश्यास्पृश्य व्यवस्था के मानने वालों की ओर से लगाया जाता है । वह विशेषण है-भोजन, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि उच्च कुल का होना चाहिए; शूद्र और अन्त्यज आदि का नहीं। जैन धर्म के तीर्थकर उक्त तीसरे विशेषण में कोई सार नहीं देखते । मानव-मात्र की एक जाति है, उसमें ऊँच-नीच के भेद सर्वथा काल्पनिक हैं । केवल व्यापार-भेद, राष्ट्रभेद अथवा रंग-भेद से मानव जाति में भेदबुद्धि पैदा करना और उसके बल पर आपस में घृणा और द्वष की आग भड़काए रखना, संसार का सबसे भयंकर अपराध है । जैन-सूत्रों का श्राघोष है-'न दीसइ जाइविसेस कोइ'--'जन्म से जाति की कोई विशेषता नहीं देखी जातीउत्तराध्ययन । हम देखते हैं कि गौतम जैसे प्रतिष्ठित मुनि भी उत्तम, मध्यमऔर अधम तीनों कुलों में भिक्षा के लिए भ्रमण करते हैं । यद्यपि पश्चात्कालीन टीकाकारों ने स्पृश्यास्पृश्यता के व्यामोह में पड़कर उत्तम मध्यमादि कुलों की व्याख्या, धनी और निधन के भेद पर की है, किन्तु यह व्याख्या स्पष्टतः मूल भावों का अनुसरण नहीं करती। मानवता के नाते केवल भोजन की स्वयं शुद्धता और न्याय प्राप्तता ही अपेक्षित है, फिर भले ही वह भोजन किसी का भी हो-ब्राण का हो अथवा शद्र का हो ।
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श्रमण-सूत्र साधु का जीवन, त्याग वैराग्य का जीवन है। वह स्वयं सांसारिक कार्यों से सर्वथा अलग है । अतः वह स्वयं भोजन न बना कर भिक्षा पर ही जीवनयात्रा का निर्वाह करता है । साधु की भिन्ना, साधारण भिक्षुओं जैसी नहीं होती। उसने भिक्षा पर भी इतने बन्धन डाले हैं कि, इसका एक पृथक साहित्य ही बन गया है । जैन आगम साहित्य का अधिकांश भाग, जैन मुनि की गोचरचर्या के नियमोपनियमों से ही परिपूर्ण है। किसी को किसी भी प्रकार की पीड़ा पहुँचाए बिना पूर्ण शुद्ध, सात्त्विक; उदर समाता भोजन लेना ही जैन भिक्षा का आदर्श है।
जैन भिक्षु के लिए नवकोटि परिशुद्ध आहार ग्रहण करने का विधान है । नव कोटि इस प्रकार है-न स्वयं पकाना, न अपने लिए दूसरों से कहकर पकवाना, न पकाते हुए का अनुमोदन करना; न खुद बना बनाया खरीदना, न अपने लिए खरीदवाना और न खरीदने वाले का अनुमोदन करना; न स्वयं किसी को पीड़ा देना, न दूसरे से पीड़ा दिलवाना, और न पीड़ा देने वाले का अनुमोदन करना । उक्त नवकोटि के लिए, देखिए स्थानांग सूत्र का नवम स्थान । ___ आप देख सकते हैं-कितनी अधिक सूक्ष्म अहिंसा की मर्यादा का ध्यान रक्खा गया है। भिक्षा के लिए न स्वयं किसी तरह की पीड़ा देना, न दूसरे से दिलवाना, और यदि कोई स्वयं ही साधु को भिक्षा दिलाने के उद्देश्य से किसी को पीड़ा देने लगे तो उसका भी अनुमोदन न करना। हृदय की विशाल कोमलता के लिए, एवं भिक्षा की पवित्रता के लिए केवल इतना सा ही अंश पर्याप्त है। ___ भगवती सूत्र के सातवें शतक के प्रथम उद्देश में भिक्षा के चार दोष बतलाए हैं—क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त ।
१-क्षेत्रातिकान्त दोष यह है कि सूर्योदय से पहले ही आहार ग्रहण कर लेना और सूर्योदय होते ही खालेना । साधु के लिए नियम है
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गोचरचर्या-सूत्र
कि न रात में आहार ग्रहण करना और न रात में खाना । सूर्योदय होने के बाद जब तक आवश्यक स्वाध्याय न कर ले तब तक आहार नहीं ग्रहण किया जा सकता। यह नियम भोजन के सयम के लिए कितना यावश्यक है ? .
२-कालातिक्रान्त दोष यह है कि- प्रथम प्रहर में लिया हुआ भोजन चतुर्थं प्रहर में खाना । भगवान महावीर ने मर्यादा बाँधी है कि साधु अपने पास तीन प्रहर से अधिक काल तक भोजन नहीं रख सकता। पहले प्रहर का लिया हुआ तीसरे प्रहर तक खा सकता है, यदि चतुर्थं प्रहर में खाए तो प्रायश्चित्त लेना होता है। यह नियम संग्रह वृत्ति को रोकने के लिए है। यदि संग्रह वृत्ति को न रोका जाय तो भिक्षा का पवित्र आदर्श ही नष्ट हो जाता है । अधिक से अधिक माँगना और अधिक से अधिक काल तक संग्रह किए रखना, भगवान महावीर को सर्वथा अनभीष्ट है । जैन साधु का भिक्षा संग्रह अधिक से अधिक तीन पहर तक है, कितना आदर्श त्याग है ?
३--मार्गातिकान्त दोष यह है कि अर्धयोजन से अधिक दूर तक अाहार ले जाना । साधु के लिए नियम है कि वह अावश्यकता पड़ने पर अधिक से अधिक अर्धयोजन अर्थात् दो कोस तक भोजन ले जा सकता है, इसके आगे नहीं। यह नियम भी अधिक संग्रह की वृत्ति को रोकने
और भोजन की तृष्णा को घटाने के लिए है। अन्यथा भोजन-गृद्ध साधु विहार यात्रा में भोजन से ही लदा हुआ फिरेगा, संयम का आदर्श कैसे पालेगा?
४-प्रमाणातिक्रान्त दोष यह है कि- प्रमाण से अधिक भोजन करना । जैन मुनि, यदि भोजन अधिक काल तक रख नहीं सकता तो अधिक खा भी नहीं सकता। भोजन, शरीर निर्वाह के लिए है और वह बत्तीस ग्रासों के द्वारा हो सकता है। अतः ३२ ग्रासों से अधिक साहार करना, मुनि के लिए सर्वथा निषिद्ध है। यह नियम भी भिक्षा
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श्रमण-सूत्र
के समय अधिक माँगने की प्रवृत्ति को रोकने और रस गुद्धता के भाक को कम करने के लिए है ।
आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कन्ध के द्वितीय अध्ययन नवम उद्दे शक में वर्णन आता है कि साधु को रूखा सूखा जैसा भी भोजन मिले वैसा खाना चाहिए। यह नहीं कि अच्छा अच्छा खा लिया और रूखा सूखा डाल दिया । यदि ऐसा किया जाय तो उसके लिए निशीथ सूत्र में दण्ड का विधान है । यह नियम भी भिक्षा की शुद्धि के लिए परमावश्यक है । अन्यथा ऐसा होता है कि विशिष्ट भोजन की तलाश मैं मनुष्य इधर-उधर देर तक माँगता रहता है और फिर अधिक संग्रह करने के बाद अच्छा अच्छा खाकर बुरा-बुरा फेक देता है ।
यह भी विधान है कि भिक्षा के लिए ताकि स्वादु भोजन मिले। मार्ग में बिना किसी अमीर गरीब के अनुसार जैसा भी सुन्दर अथवा
दशवैकालिक आदि सूत्रों में धनिक घरों की ही खोज में न रहे, चलते हुए जो भी घर आ जायँ सभी में भेद के जाना चाहिए और अपनी विधि के सुन्दर, किन्तु प्रकृति के अनुकूल भोजन मिले, ग्रहण करना चाहिए । भोजन के सम्बन्ध में स्वास्थ्य का ध्यान रखना तो श्रावश्यक है, किन्तु स्वाद का ध्यान कतई नहीं रखना चाहिए। भगवान महावीर ने प्रत्येक नियम, मानव जीवन की दुर्बलताओं को लक्ष्य में रखते हुए ऐसा बनाया है, जिससे भिक्षा में किसी भी प्रकार की दुर्बलता प्रवेश न कर सकें और भिक्षा का आदर्श कलंकित न हो सके ।
बृहत्कल्पभाग्य प्रथम उद्दे शक में भिक्षा के लिए जाने से पहले कायोत्सर्ग करने का विधान है । इस कायोत्सर्ग = ध्यान में विचारा जाता है कि आज मैंने कौन सा श्राचामल अथवा निर्विकृति का व्रत ले रक्खा है और उसके लिए कितना और कैसा भोजन आवश्यक है ? यह कायोत्सर्ग अपनी भूख की अन्तर्ध्वनि सुनने के लिए है, ताकि मर्यादित एवं आवश्यक भोजन ही लाया जाय, अमर्यादित तथा अनावश्यक नहीं |
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८५
गोचरचर्या सूत्र भोजन लाने के बाद जब तक गुरुचरणों में अथवा भगवान् की साक्षी से गोचरचर्या का पालोचन अथ च प्रतिक्रमण नहीं कर लिया जाता, तब तक भोजन नहीं खाया जा सकता । यह नियम गुरुदेव के समक्ष गोचरचर्या की रिपोर्ट देने के लिए है कि-किसके यहाँ से, किस तरह से, कितना, और कैसा भोजन लिया गया है ? यदि कहीं गोचरी में भूल मालूम पड़े तो उसके प्रतिकारस्वरूप प्रायश्चित्त ग्रहण करना होता है।
उपर्युक्त लम्बा विवेचन लिखने का मेरा उद्देश्य यह है कि जैनसाधु की भिक्षावृत्ति, भीख माँगना नहीं है। यहाँ भिक्षावृत्ति में जीवन के महान श्रादर्शों को भुलाया नहीं जाता; प्रत्युत उन्हें और अधिक दृढ़ किया जाता है। भिक्षा महान् आदर्श है-यदि उससे वास्तविक लाभ उठाया जाय तो । कौन घर कैसा है ? उसका प्राचार विचार क्या है ? जीवन की उच्च संस्कृति का उत्थान हो रहा है अथवा पतन ? कौन व्यसन कहाँ किस रूप में घुसा हुअा है ? इत्यादि सब प्रश्नों का उत्तर साधु को भिक्षा के द्वारा मिल सकता है और यदि वह समर्थ हो तो तदनुसार उपदेश देकर जनता का कल्याण भी कर सकता है। जैनधर्म में भिक्षाचर्या स्वयं एक तपस्या है। वह जीवन की पवित्रता का महान मार्ग है।
अाजकल भिक्षा के विरुद्ध जो अान्दोलन चल रहा है, उसके साथ यह भी विचार करना आवश्यक है कि-कौन किस तरह मिक्षा माँग रहा है ? सबको एक लाठी से नहीं हाँका जा सकता। यद्यपि यह ठीक है कि आज राष्ट्र में बेकार भिखमगों का दल ज़ोर पकड़ गया है। हजारों लाखों साधुनामधारी आज देश के लिए अभिशाप सिद्ध हो रहे हैं । प्राचार्य हरिभद्र ऐसे मनुष्यों की भिक्षा को पौरुषत्री बतलाते हैं, वह अवश्य ही निषिद्ध भिक्षा है। भिक्षाष्टक में प्राचार्य ने तीन प्रकार की भिक्षा बतलाई है-सर्व समत्करी, पौरुषघ्नी और वृत्तिभिक्षा । सर्व सम्बरकरी भिक्षा त्यागी विसगाला साधु मुनिराजों की होती है।
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८६
श्रमण-सूत्र
यह भिक्षा स्वयं साधक की आत्मा में, राष्ट्र में तथा समाज में सदाचार का प्रचण्ड तेज सञ्चार करने वाली है। दूसरी पौरुषनी भिक्षा है। जो मनुष्य आलस्यवश स्वयं पुरुषार्थं न करके साधुवेप पहन कर भिक्षा द्वारा प्राजीविका चलाता है, वह पौरुषघ्नी भिक्षा है । हट्टा-कट्टा मज़बूत आदमी, यदि केवल साधुता की माया रचकर मौज उड़ाता है तो वह अपने पौरुष को नष्ट करने के अ.ि रिक्त और क्या करता है ? यह भिक्षा अवश्य ही राष्ट्र के लिए घातक है । वाचक यशोविजय इसी सम्बन्ध में कहते हैं:-- दीक्षा-विरोधिनी भिक्षा,
पौरुषत्री प्रकीर्तिता; धर्मलाघवमेव स्यात्, तया पानस्य जीवतः ॥११॥
-द्वात्रि०६ तीसरी वृत्तिभिक्षा वह है, जो दीन अन्धं आदि असहाय मनुष्य स्वयं कुछ कार्य नहीं कर सकने के कारण भिक्षा माँगते हैं । जब तक राष्ट्र इन लोगों के लिए कोई विशेष प्रबन्ध नहीं कर देता, तब तक मानवता के नाते इन लोगों को भी भिक्षा माँगने का अधिकार है। ___ उपयुक्त वक्तव्य से स्पष्ट हो गया है कि जैनमुनि की भिक्षा का क्या स्वरूप है ? वह अन्य भिक्षात्रों से किस प्रकार पृथक् है ? वह राष्ट्र के लिए अथवा साधक के लिए घातक नहीं; प्रत्युत उपकारक है ? अब कुछ प्रस्तुत पाठान्तर्गत विशेष शब्दों का स्पष्टीकरण कर लेना भी आवश्यक है : गोचर चों
कितना ऊँचा भाव भरा शब्द है ? "गोवरणं गोचरः चरणं चर्या,
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गोचरचर्या सूत्र
गोचर इव चर्यागोचर चर्या' - यह व्युत्पत्ति आचार्य हरिभद्र के द्वारा कथित है । इसका भावार्थ है- जिस प्रकार गाय वन में एक-एक घास का तिनका जड़ से न उखाड़ कर ऊपर से ही खाती हुई घूमती है, अपनी क्षुधा निवृत्ति कर लेती है और गोचर भूमि एवं वन की हरियाली को भी नष्ट नहीं करती है; उसी प्रकार मुनि भी किसी गृहस्थ को पीड़ा न देता हुआ थोड़ा थोड़ा भोजन ग्रहण करके अपनी क्षुधा निवृत्ति करता है । दशवैकालिक सूत्र में इसके लिए मधुकर = भ्रमर की उपमा दी है । भ्रमर भी फूलों को कुछ भी हानि पहुँचाए बिना थोड़ा-थोड़ा रस ग्रहण करता है एवं उसी पर से ग्रात्म तृप्ति कर लेता है । भिक्षा चर्या
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८७
भिक्षाचर्या का मूलार्थं भिक्षा के लिए चर्या होता है । अर्थात् भिक्षा के लिए भ्रमण करना । श्रावश्यक के टीकाकार श्री हरिभद्र तथा स्थानांग सूत्र के टीकाकार श्री अभयदेव ऐसा ही अर्थ करते हैं । परन्तु प्रतिक्रमण के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य तिलक यहाँ भिन्न अर्थ करते हैं और वह हृदय को लगता भी है। उनका कहना है- 'प्रथम गोचर चर्या में चर्या शब्दभ्रमणार्थक है और यहाँ भिक्षाचर्या में चर्या शब्द भुक्ति = भक्षण का वाचक है ।' अर्थ होगा- ' उपलब्ध भिक्षा का खाना' । भिक्षान्न खाते समय भोजन की निन्दा एवं एक भोजन को दूसरे भोजन में मिलाकर स्वादिष्ट बनाने से जो संयोजन आदि दोषों के प्रतिचार होते हैं, उनकी शुद्धि से तात्पर्य है । "श्राद्यचर्या शब्दो भ्रमणार्थः द्वितीयः पुनः भक्षणार्थः । भिक्षायाः चर्या = भुतिरित्यर्थः " - तिलकाचार्य । कपाटोद्घाटन
साधारण रूप से भी यदि घर के द्वार के किवाड़ बंद हों तो उन्हें खोल कर भोजन लेना दोष है; क्योंकि इससे बिना प्रमार्जन किए उद्घाटन के द्वारा जीव विराधना दोष की सम्भावना रहती है। तथा इस प्रकार आहार लेने से सभ्यता भी प्रतीत होती है । संभव है गृहस्थ घर के अंदर किसी विशेष व्यापार में संलग्न हो और साधु अचानक किवाड़
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श्रमण-सूत्र खोलकर अंदर जाय तो अनुचित मालूम दे । यह उत्सर्ग मार्ग है। यदि किसी विशेष कारण के लिए आवश्यक वस्तु लेनी हो और तदर्थ किवाड़ खोलने हों तो यतना के साथ स्वयं खोले अथवा खुलवाये जा सकते हैं, यह अपवादमार्ग है। इस पर से जो लोग यह अर्थ निकालते हैं कि'साधु को किवाड़ खोलने और बंद नहीं करने चाहिएँ वे गलती पर हैं। इसके लिए दशवैकालिक सूत्र के पंचम अध्ययन की १८ वीं गाथा देखनी चाहिए, वहाँ गृहस्थ की प्राज्ञा लेकर किवाड़ खोलने का विधान स्पष्टतया उल्लिखित है। श्वानादि संघट्टन
साधु को बहुत शान्ति और विवेक के साथ आहार ग्रहण करना चाहिए । मार्ग में रहे हुए कुत्तों, बछडों और बच्चों के ऊपर पड़ते हुए भिक्षा लेना, लोकसभ्यता और अागम दोनों ही दृष्टियों से वर्जित है। जीव विराधना का दोष, इस प्रवृत्ति के द्वारा लगता है । मूल में दाग शब्द आता है, जिसका अर्थ स्त्री और बालक दोनों होते हैं, यह ध्यान में रहे । परन्तु टीकाकार बालक ही अर्थ ग्रहण करते हैं । मण्डी प्राभृतिका ___ मण्डी हक्कन को तथा उपलक्षण से अन्य पात्र को कहते हैं । उसमें तैयार किए हुए भोजन के कुछ श्रग्र अंश को पुण्यार्थं निकालकर, जो रख दिया जाता है, वह अग्रपिण्ड कहलाता है । लोक रूढ़ि के कारण श्राधेय अग्रपिण्ड भी आधार अर्थात् मण्डीपद वाच्य ही है। मण्डी की प्राभृतिका = भिक्षा, मण्डी प्राभृतिका कहलाती है। यह पुण्यार्थं होने से साधु के लिए निषिद्ध है । अथवा साधु के आने पर पहले अग्रभोजन दूसरे पात्र में निकाल ले और फिर शेष में से दे तो वह भी मण्डी प्राभृतिका दोष है; क्योंकि इससे प्रवृत्ति दोष लगता है। प्राचार्य श्री
आत्माराम जी महाराज उक्त पद का अभिपिण्ड अर्थ करते हैं, इसका रहस्य क्या है, यह अभी अज्ञात है | हाँ प्राचीन परम्परा में कहीं भी यह अर्थ नहीं देखा गया ।
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गोचरचर्या सूत्र
८६ बलि प्राभृतिका
देवता आदि के लिए पूजाथं तैयार किया हुआ भोजन बलि कहलाता है । वह भिक्षा में नहीं ग्रहण करना चाहिए। यदि ग्रहण करले तो दोष होता है। अथवा साधू को दान देने से पहले दाता द्वारा सर्वप्रथम आवश्यक बलिकम करने के लिए बलि को चारों दिशाओं में फेककर अथवा अग्नि में डाल कर पश्चात् जो भिक्षा दी जाती है, वह बलि प्रामृतिका है। ऐसा करने से साधु के निमित्त से अग्नि आदि जीवों की विराधना का दोष होता है। स्थापना प्राभृतिका
साधु के उद्देश्य से पहले से रक्खा हुअा भोजन लेना, स्थापना प्राभृतिका दोष है। अथवा अन्य भित्तुओं के लिए अलग निकालकर रक्खे हुए भोजन में से भिक्षा लेना, स्थापना प्राभृतिका दोष होता है । ऐसा करने से अन्तराय दोष लगता है । शङ्कित
आहार लेते समय यदि भोजन के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार के श्राधाकर्मादि दोत्र की आशंका हो तो वह अाहार कदापि न लेना चाहिए। भले ही दोष का एकान्ततः निश्चय न हो, केवल दोष की संभावना ही हो, तब भी अाहार लेना शास्त्र में वर्जित है। साधना मार्ग में जरा-सी आशंका की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती । दोष की आशंका रहते हुए भी त्राहार ग्रहण कर लेना, बहुत बड़ी मानसिक दुर्बलता एवं श्रासक्ति का सूचक है। सहसाकार
प्रत्येक कार्य विवेक और विचार पूर्वक होना चाहिए | शीघ्रता में कार्य करना, क्या लौकिक और क्या लोकोत्तर, दोनों ही दृष्टियों से अहितकर है । शीघ्रता करने से कार्य के गुण-दोष की ओर कुछ भी लक्ष्य नहीं रहता ! शीघ्रता मनुष्य हृदय के हलकेपन एवं छिछलेपन को प्रकट करती
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६०
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श्रमण सूत्र
है । तएव शास्त्रकार कहते हैं कि यदि साधु शीघ्रता से श्राहार लेता है और तत्कालीन परिस्थिति पर कुछ भी गंभीरतापूर्वक विचार नहीं करता है, तो वह सहसाकार दोष माना जाता है ।
पाणेसणाए
बहुत-सी याधुनिक प्रतियों में असणाए के श्रागे पासणाए पाठ भी लिखा मिलता है । किन्तु किसी भी प्राचीन प्रति में इसका उल्लेख देखने में नहीं आया । न हरिभद्र आदि प्राचीन आचार्य ही आवश्यक सूत्र पर कीनी टीकाओं में इस सम्बन्ध में कुछ कहते हैं । वैसे भी यह व्यर्थ सा ही प्रतीत होता है । प्रस्तुत सूत्र में केवल गोचरचर्या सम्बन्धी दोषों की चर्चा है, यहाँ अन्न अथवा पानी की एषणा के सम्बन्ध में कोई पृथक संकेत नहीं हैं। जो भी दोत्र हैं, सत्र अन्न और जल दोनों पर सामान्यरूप से लगते हैं । पाणेसणाए का अर्थ होता है, पानी की एषणा से । मैं नहीं समझता, पूज्य श्री श्रात्मारामजी महाराज, किस आधार पर इस पद का यह अर्थ करते हैं कि- 'पानी की एषणा पूर्ण रीति से न की हो ।' 'पासणाए' में कहीं भी तो 'न' का प्रयोग नहीं है । एक और बात है – पूज्य श्रीजी मूल पाठ में इस शब्द का उल्लेख नहीं करते, किन्तु व्याख्या करते हुए इसे मूल पाठ मान कर अर्थ करते हैं । पता नहीं, मूल पाठ में न होते हुए भी यह शब्द व्याख्या में किस आधार पर मूल मान लिया गया ?
.
कुछ आधुनिक शुद्ध प्रतियों में 'पासणाए' भी है और उसके आगे 'भोया' पाठ भी है । परन्तु वह पाठ भी अर्थहीन है । संभव है, कुछ लोगों ने 'पासणाए' से पानी और 'भोयाए' से अन्नभोजन समझा हो ।
प्राणभोजना
मूल शब्द 'पाणभोयणा' है । इसका संस्कृत रूप 'पानभोजना' बना कर कुछ विद्वान पानी और भोजन अर्थ करते हैं । परन्तु परंपरा के नाते और संगति के नाते यह अर्थ ठीक नहीं लगता । हरिभद्र
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"
गोचरचर्या सूत्र
६१
यदि श्राचार्यों की परंपरा के अनुसार यहाँ वही अर्थ उचित है, जो हमने शब्दार्थ तथा भावार्थ में प्रकट किया है । विकृत दधि तथा श्रोदन श्रादि भोजन में जो यदा-कदा रसज प्राणी उत्पन्न हो जाते हैं, उनकी विराधना जिस भिक्षा में होती है, वह भिक्षा प्राणभोजना कहलाती है । एक साधारण-सा प्रश्न यहाँ उठ सकता है । वह यह कि मूल शब्द में प्राणी नहीं, प्राण शब्द है, उसका अर्थ प्राणी किस प्रकार किया जा सकता है ? उत्तर में कहना है कि अर्शाद्यच् प्रत्यय के द्वारा 'प्राणा अस्थ सन्तीति प्राण:' इस प्रकार प्राणों वाला प्राणी भी प्राण शब्द वाच्य हो जाता है | पथक आलोचना सूत्र में 'पाणक्कमणे' का अर्थ मी उक्त रीति से प्राणियों पर आक्रमण करना होता है । द्वादशावर्तं वन्दन सूत्र इच्छामि खमासमणों में 'कोहाए' आदि चार शब्द भी अर्शाद्यच् के द्वारा ही सिद्ध होते हैं । 'कोहाए' = 'क्रोधया' का अर्थ होता है'arastr स्तीति क्रोधा, तथा क्रोधवत्या क्रोधानुगतया ।' जो आशातना क्रोध से युक्त हो वह क्रोवा कहलाती है । श्रागम में इस भाँति शव प्रत्यय का प्रयोग विपुल परिमाण में हुआ है । अतएव पाणभोणा में भी पारण = प्राण शब्द प्राणी का वाचक ही माना जाता है।
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अदृष्टाहृता
गृहस्थ के घर पर पहुँच कर, साधू को जो भी वस्तु लेनी हो, वह स्वयं जहाँ रक्खी हो, अपनी आँखों से देखकर
लेनी चाहिए । यदि
कोठे श्रादि में रक्खी हुई वस्तु, विना देखे ही हुई ले ली जाती है तो वह ग्राहृत दोष से ग्राह्य होती है । इस दोषोल्लेख के अन्तर में वस्तु न मालूम किस सचित्त वस्तु पर रक्खी हुई हो ? अतः उसके लेने में जीवविराधना दोष लगता है ।
पारिष्ठापनिका
परिष्ठापन से होने वाली भिक्षा, परिष्ठापनिका कहलाती है। पूज्यश्री
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गृहस्थ के
दूषित होने
यह भाव है
द्वारा लाई
के कारण
कि — देय
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६२
श्रमण सूत्र
अात्मारामजी महाराज इसका अर्थ करते हैं-'विना कारण श्राहार को परिष्ठापन करना = गेर देना ।' मालूम होता है-पूज्यश्री जी यहाँ परिष्ठापना समिति के भ्रम में हैं । परन्तु यह अर्थ उचित नहीं प्रतीत होता । यहाँ ये सब शब्द तृतीयान्त तथा सप्तम्यन्त हैं और इनका सम्बन्ध 'अपरिसुद्ध परिगहियं' से है । अतएव उक्त समग्र वाक्य समूह का अर्थ होता है-कपाटोद्घाटन पारिष्ठापनिका श्रादि दोषसहित भिक्षा के द्वारा जो अशुद्ध श्राहार ग्रहण किया हो तो वह पाप मिथ्या हो । अब आप देख सकते हैं कि परिठापना समिति का यहाँ 'परिगृहीतं' के साथ कैसे श्रन्वय हो सकता है ? परिठापना समिति का काल तो परिगृहीतं = ग्रहण करने के बाद भुक्त शेष को डालते समय होता है ? अतएव प्राचार्य नमि यहाँ पारिठापनिका शब्द का वही अर्थ करते हैं जो हमने शब्दार्थ और भावार्थ में किया है-'प्रदानभाजनगत द्रव्यान्तरोज्नर्लक्षणं परिठापनम्, तेन निवृत्ता पारिष्ठापनिका तया ।' अवभाषण भिक्षा
गृहस्थ के घर पहुँच कर साधू को केवल भोजन और पानरूप साधारण भिक्षा ही माँगनी चाहिए। यदि वहाँ किसी विशिष्ट वस्तु की माँग करता है तो वह दोष माना जाता है । साधू को केवल उदर-पूर्त्यर्थ ही भोजन लेना है, फिर वह भले ही साधारण हो या असाधारण । इस महान आदर्श को भूल कर यदि साधू सुन्दर पाहार की प्रवंचना में घरों में अच्छा भोजन माँगता फिरता है तो वह साधुत्व से भी गिरता है साथ ही धर्म की एवं श्रमण संघ की अवहेलना भी करता है। हाँ • अपवाद रूप में किसी विशेष कारण पर यदि कोई विशिष्ट वस्तु किसी परिचित घर से माँगी जाय तो फिर कोई दोष नहीं होता। उद्गम, उत्पादन, एषणा
गोचरचर्या में उपर्युक्त तीन शब्द बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं । जबतक साधु उक्त तीनों शब्दों का वास्तविक परिचय न प्राप्त कर ले, तबतक गोचरचर्या की पूर्ण शुद्धि नहीं की जा सकती। एषणा समिति के तीन
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गोचरचर्या सूत्र
६. ३
भेद हैं- गवेषणैपणा, ग्रहणैपणा, परिभोषणा | गवेषणा की शुद्धि के लिए १६ उद्गम दोष और १६ उत्पादन दोषों का परिहार करना चाहिए | उद्गम दोष गृहस्थ की ओर से लगते हैं और उत्पादन दोष साधु की ओर से । ग्रहणपणा के साधू तथा गृहस्थ दोनों के संयोग से उत्पन्न होने वाले शंकित श्रादि १० दोष हैं। ये ४२ दोष हैं, जिनके कारण गृहीत आहार शुद्ध माना जाता है । परिभोगणा के पाँच भेद हैं, जो माण्डले के दोषरूप में प्रसिद्ध हैं । ये दोष भोजन करते हुए लगते हैं । इन सबका वर्णन परिशिष्ट में देखिए ।
यह गोचरचर्या का पाठ गोचरी लाने और करने के बाद भी अवश्य पठनीय है।
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काल-प्रतिलेखना-सूत्र पडिक्कमामि चाउक्कालं सज्झायस्स अकरणयार उभोकालं भंडोवगरणस्स अप्पडिलेहणाए, दुप्पडिलेहणाए, अप्पमज्जणाए, दुप्पमज्जणाए, अइक्कमे, वइक्कमे, अइयारे, अणायारे,
जो मे देवसिमो अइयारो को तस्स मिच्छा मि दुक्कई ।
शब्दार्थ पडिक्कमामि प्रतिक्रमण करता हूँ भंडोवगरणस्स = भाण्ड तथा उपचाउक्कालं =चार काल में
करण की सज्झायस्म-स्वाध्याय के अप्पडिलेहणाए-अप्रतिलेखना से अकरणयाए = न करने से दुप्पडिलेहणाए-दुष्प्रतिलेखना से उभयोकाल = दोनों काल में अप्पमज्जणाए अप्रमार्जना से
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काल-प्रतिलेखना-सूत्र
६५
दुष्पमज्जणाए = दुष्प्रमार्जना से देवसिओ= दिवस सम्बन्धी अदक्कमे = अतिक्रम में अहयारोअतिचार-दोष वहक्कमे = व्यतिक्रम में कत्रो = किया हो अहयारे = अतिचार में
तस्स = उसका श्रणायारे -अनाचार में दुक्कड = पाप जो-जो
मि मेरे लिए मे- मैंने
मिच्छा = मिथ्या हो
भावार्थ स्वाध्याय तथा प्रतिलेखना सम्बन्धी प्रतिक्रमण करता हूँ । यदि प्रमादवश दिन और रात्रि के प्रथम तथा अन्तिम प्रहर-रूप चार' काल में स्वाध्याय न की हो, प्रातः तथा सन्ध्या दोनों काल में वस्त्र-पात्र श्रादि भाण्डोपकरण की प्रतिलेखना न की हो, अच्छी तरह प्रतिलेखना न की हो, प्रमार्जना न को हो, अच्छी तरह प्रमार्जना न की हो; फलस्वरूप अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार सम्बन्धी जो भी देवसिक अतिचार = दोष किया हो तो वह सब पाप मेरे लिए मिथ्या = निष्फल हो।
विवेचन संसार में काल की बड़ी महिमा है । जो मनुष्य, जो समाज, जो राष्ट्र समय का आदर करते हैं, उचित समय से लाभ उठाते हैं, वे अभ्युदय के गौरव-शिखर पर पहुँच कर संसार को चमत्कृत कर देते हैं । इस के विपरीत जो बालस्यवश समयानुकूल प्रवृत्ति न कर सकने के
१--'दिया पढमचरिमासु, रतिपि पढमचरिमासु च पोरसीसु सज्झायो अवस्स कातव्यो ।' इति जिनदासमहत्तराः ।
'चतुष्कालं-दिवसरजनी-प्रथम-चरमप्रहरेषु इत्यर्थः । इति प्राचार्य हरिभद्राः।
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श्रमरण-सूत्र
कारण समय का लाभ नहीं उठा पाते, वे प्रगति की दौड़ में सर्वथा पीछे रह जाते हैं, उनके भाग्य में पश्चात्ताप के अतिरिक्त ओर कुछ नहीं रहता। ___मनुष्य का कर्तव्य है कि वह योजना के अनुसार, प्रोग्राम के मुताबिक प्रगति करे । जिस कार्य के लिए जो समय निश्चित किया हो, उस कार्य को उसी समय करने के लिए प्रस्तुत रहना चाहिए । मनुष्य वह है, जो ठीक घड़ी की सुई की तरह पूर्ण नियमित ढंग से कार्य करता है । स्वीकृत योजना का परित्याग कर जरा भी इधर-उधर हेर-फेर से किया जाने वाला कार्य रस प्रद एवं शक्ति प्रद नहीं होता | दूर क्यों जाएँ, पास ही देखिए । जब मनुष्य को कड़ाके की भूख लगी हो और उस समय ठंडा पानी पीने के लिए लाया जाय तो कैसा रहेगा ? और जब बहुत उग्र प्यास लगी हो तब सुन्दर मिष्ट भोजन उपस्थित किया जाय तो क्या
आनन्द आएगा? प्रत्येक कार्य अपने समय पर ही ठीक होता है । समयविरुद्ध अच्छे से अच्छा कार्य भी अभद्र एवं अरुचिकर हो जाता है । मानव जीवन के लिए यह अनमोल समय मिला है। इसे व्यर्थ ही प्रमादवश बर्बाद न करो। भगवान महावीर के उपदेशानुसार प्रत्येक सत्कार्य को, उसके निश्चित समय पर ही करने के लिए तैयार रहो। कितनी ही झझट हो, गड़बड़ हो; किन्तु अपने निश्चित कर्तव्य से न चूको । 'काले कालं समायरे'-उत्तराध्ययन सूत्र ।
लोकदृष्टि की भाँति लोकोत्तर दृष्टि में भी कालोचित क्रिया का बड़ा महत्त्व है । साधु का जीवन सर्वथा नियमित रूप से गति करता है । युद्ध में चढ़े हुए सेनापति के लिए जिस प्रकार प्रत्येक क्षण अमूल्य होता है, उसी प्रकार कम शत्रु ओं से युद्ध में संलग्न साधक भी जीवन का प्रत्येक क्षण अमूल्य समझता है । कर्तव्य के प्रति जरा-सी भी उपेक्षा समस्त योजनाओं को धूल में मिला देती है । योजना के अनुसार प्रगति न करने से, मनुष्य, जीवन क्षेत्र में पिछड़ जाता है । जीवन की प्रगति के प्रत्येक अंग को पालोकित रखने के लिए काल की प्रतिलेखना करना, अतीव
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काल-प्रतिलेखना सूत्र
श्रावश्यक है । जत्तराध्ययन सूत्र के २६ वें अध्ययन में काल-प्रतिलेखना के सम्बन्ध में एक बहुत ही सुन्दर प्रश्नोत्तर है :कालपडिलेहणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? कालपडिलेहणयाए णं नाणावरणिज्जं कम्म. खवेइ । "भगवन् ! काल की प्रतिलेखना से क्या फल होता है ?" "काल की प्रतिलेखना से ज्ञानावरण कम का क्षय होता है ।" :
उपयुक्त सूत्र कालप्रतिलेखना का है। सूत्रकार ने अपनी गंभीर भाषा में कालोचित क्रिया का महत्त्व बहुत ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया है । अागम में कथन है कि दिन के पूर्वाह्न तथा अपराह्न में तथैव रात्रि के पूर्व भाग तथा अपर भाग में इस प्रकार दिन और रात्रि के चारों कालों में, नियमित स्वाध्याय करनी चाहिए । इसी प्रकार प्रातःकाल
और सायं काल दिन के दोनों कालों में नियमित रूप से वस्त्र पात्र आदि की प्रतिलेखना भी आवश्यक है। यदि आलस्यवश उक्त दोनों आवश्यक कर्तव्यों में भूल हो जाय तो उसकी शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण करने का विधान है। स्वाध्याय .. भारतीय संस्कृति में स्वाध्याय का स्थान बहुत ऊँचा एवं पवित्र माना गया है। हमारे पूर्वजों ने जो भी ज्ञानराशि एकत्रित की है और जिसे देखकर आज समस्त संसार चमत्कृत है, वह स्वाध्याय के द्वारा ही प्राप्त हुई थी। भारत जब तक स्वाध्याय की ओर से उदासीन न हुआ सब तक वह ज्ञान के दिव्य प्रकाश से जगमगाता रहा । - पूर्वकाल में जब भारतीय विद्यार्थी गुरुकुल से शिक्षा समाप्त कर विदा होता था तो उस समय पाशीर्वाद के रूप में प्राचार्य की ओर से यही महावाक्य मिलता था कि-'स्वाध्यायान्मा प्रमदः।' इसका अर्थ है-'वत्स ! भूलकर भी स्वाध्याय करने में प्रमाद न करना ।' कितना सुन्दर उपदेश है ? स्वाध्याय के द्वारा ही हित और अहित का ज्ञान होता
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हद
श्रमण-सूत्र
है, पाप पुण्य का पता चलता है, कर्तव्य कर्तव्य का ज्ञान होता है । स्वाध्याय हमारे अन्धकारपूर्ण जीवन पथ के लिए दीपक के समान है। जिस प्रकार दीपक के द्वारा हमें मार्ग के अच्छे और बुरे पन का पता चलता है और तदनुसार खराब ऊबड़-खाबड़ मार्ग को छोड़ कर अच्छे साफ़ सुथरे पथ पर चलते हैं, ठीक उसी प्रकार स्वाध्याय के द्वारा हम का पता लगा लेते हैं और ज़रा विवेक का श्राश्रय ले तो धर्म को छोड़कर धर्म के पथ पर चलकर जीवन यात्रा को प्रशस्त बना सकते हैं ।
शास्त्रकारों ने स्वाध्याय को नन्दन वन की उपमा दी है। जिस प्रकार नन्दन वन में प्रत्येक दिशा की ओर भव्य से भव्य दृश्य, मन को श्रानन्दित करने के लिए होते हैं, वहाँ जाकर मनुष्य सत्र प्रकार की दुःख क्लेश सम्बन्धी टे भूल जाता हैं, उसी प्रकार स्वाध्यायरूप नन्दन वन में भी एक से एक सुन्दर एवं शिक्षा-प्रद दृश्य देखने को मिलते हैं, तथा मन दुनियावी झटों से मुक्त होकर एक अलौकिक आनन्द लोक में विचरण करने लगता है । स्वाध्याय करते समय कभी महापुरुषों के जीवन की पवित्र एवं दिव्य झाँकी आँखों के सामने श्राती है, कभी स्वर्गं और नरक के दृश्य धर्म तथा धर्म का परिणाम दिखलाने लगते हैं । कभी महापुरुषों की अमृतवाणी की पुनीत धारा बहती हुई मिलती है, कभी तर्क-वितर्क की हवाई उड़ान बुद्धि को बहुत ऊँचे अनन्त विचाराकाश में उठा ले जाती है । और कभी कभी श्रद्धा, भक्ति एवं सदाचार के ज्योतिमय श्रादर्श हृदय को गद्गद् कर देते हैं। शास्त्रवाचन हमारे लिए 'यत् पिण्डे तद् ब्रह्माडे' का आदर्श उपस्थित करता है । जब कभी आपका हृदय बुझा हुग्रा हो, मुरझाया हुआ हो, तुम्हें चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार घिरा नजर श्राता हो, कदम-कदम पर विघ्नबाधाओं के जाल बिछे हुए हों तो आप किसी उच्चकोटि के पवित्र अध्यात्मिक ग्रन्थ का स्वाध्याय कीजिए | श्राप का हृदय ज्योतिर्मय हो जायगा, चारों श्रोर प्रकाश ही प्रकाश बिखरा नजर ग्रायगा, विन्नबाधाएँ चूर-चूर होती
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काल-प्रतिलेखना-सूत्र
६६ मालूम होंगी, एक महान् दिव्य अलौकिक स्फूर्ति, तुम्हें प्रगति के पथ पर अग्रसर करती हुई प्राप्त होगी।
योगदर्शन के भाष्यकार महर्षि व्यास भी स्वाध्याय के आदर्श पुजारी हैं। आप परमात्म-ज्योति के दर्शन पाने का साधन एकमात्र स्वाध्याय ही बतलाते हैं:स्वाध्यायाद् योगमासीत,
योगात्स्वाध्यायमामनेत् । स्वाध्याय-योगसंपत्त्या,
परमात्मा प्रकाशते. ॥
(योग० १ । २८-व्यासभाष्य ) __~'स्वाध्याय से ध्यान और ध्यान से स्वाध्याय की साधना होती है । जो साधक स्वाध्यायमूलक योग का अच्छी तरह अभ्यास कर लेता है, उसके सामने परमात्मा प्रकट हो जाता है ।
भगवान् महावीर तो स्वाध्याय के कट्टर पक्षपाती हैं । बारह प्रकार की तपः साधना में स्वाध्याय का स्थान भी रक्खा गया है और स्वाध्याय तप को बहुत ऊँचा अन्तरंग तप माना गया है । अपने अन्तिम प्रवचनस्वरूप वर्णन किए गए उत्तराध्ययन-सूत्र में आप बतलाते हैं कि-'समारणं नाणावरणिज्ज कम्म खवेह ।' 'स्वाध्याय करने से ज्ञानावरण कर्म का क्षय होता है, ज्ञान का अलौकिक प्रकाश जगमगा उठता है।' श्राप देखते हैं --जीवन में जो भी दुःख है, अज्ञान-जन्य ही है । जितने भी पाप, जितनी भी बुराइयाँ हो रही हैं, सबके मूल में अज्ञान ही छुपा बैठा है । अस्तु, यदि अज्ञान का नाश हो जाय तो फिर किस चीज़ की कमी रह जाती है ! मनुष्य ने जहाँ ज्ञान, विवेक, विचार की शक्ति का प्रकाश पाया, वहाँ उसने संसार का समस्त ऐश्वर्य भर पाया।
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श्रमण-सूत्र
नं अन्नाणी कम्म,
खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहि । तं नाणो तिहिं गुत्तो, खवई उसासमित्तेण ॥ ११३ ।।
-संथारपइन्ना -'अज्ञानी साधक करोड़ों वर्षों की कठोर तपः साधना के द्वारा जितने कम नष्ट करता है; ज्ञानी साधक मन, वचन और शरीर को वश में करता हुआ उतने ही कर्म एक श्वास-भर में क्षय कर डालता है।'
स्वाध्याय वाणी की तपस्या है | इसके द्वारा हृदय का मल धुलकर साफ़ हो जाता है । स्वाध्याय अन्तः प्रेक्षण है। इसी के अभ्यास से बहुत से पुरुष श्रात्मोन्नति करते हुए महात्मा, परमात्मा हो गए हैं । अन्तर का ज्ञानदीपक विना स्वाध्याय के प्रज्ज्यलित हो ही नहीं सकता। __ यथाग्नि रुमध्यस्थो,
नोत्तिष्ठेन्मथनं विना। विना चाभ्यासयोगेन,
ज्ञानदीपस्तथा न हि ॥
. योग शिखोपनिषद् -'जैसे लकड़ी में रही हुई अग्नि मन्थन के विना प्रकट नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञानदीपक, जो हमारे भीतर ही विद्यमान है, स्वाध्याय के अभ्यास के विना प्रदीप्त नहीं हो सकता।'
अब यह विचार करना है कि स्वाध्याय क्या वस्तु है ? स्वाध्याय शब्द के अनेक अर्थ हैं :
'अध्ययन अध्यायः, शोभनोऽध्यायः स्वाध्याय:-श्राव. ४ अ.। सु + अध्याय अर्थात् सुष्टु अध्याय - अध्ययन का नाम स्वाध्याय है।
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काल-प्रतिलेखना-सूत्र
निष्कर्ष यह है कि-श्रात्मकल्याणकारी श्रेष्ठ पठन-पाठनरूप अध्ययन का नाम ही स्वाध्याय है।
स्थानांग-सूत्र के टीकाकार अभयदेव सूरि स्वाध्याय का अर्थ करते हैं-सुष्टु = भलीभाँति श्रा=मर्यादा के साथ अध्ययन करने का नाम स्वाध्याय है । 'सुष्टु पा = मर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः'-स्था० २ ठा० २३० । __ वैदिक विद्वान् स्वाध्याय का अर्थ करते हैं—'स्वयमध्ययनम्'-किसी अन्य की सहायता के बिना स्वयं ही अध्ययन करना, अध्ययन किये हुए का मनन और निदिध्यासन करना। दूसरा अर्थ है-'स्वस्यात्मनोऽध्ययनम्'-अपने पापका अध्ययन करना और देखभाल करते रहना कि अपना जीवन ऊँचा उठ रहा है या नहीं ?
जैन शास्त्रकारों ने स्वाध्याय के पाँच भेद बतलाए हैं-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धमकथा ।
गुरुमुख से सूत्र पाठ लेकर, सूत्र जैसा हो वैसा ही उच्चारण करना, वाचना है । वाचना के द्वारा सूत्र के शब्द-शरीर की पूर्ण रूप से रक्षा की जाती है। अतएव हीनाक्षर, अत्यक्षर, पदहीन, घोष हीन आदि दोषों से बचने की सावधानी रखनी चाहिए ।
स्वाध्याय का दूसरा भेद पृच्छना है--सूत्र पर जितना भी अपने से हो सके तर्क-वितर्क, चिन्तन, मनन करना चाहिए और ऐसा करते हुए जहाँ भी शंका हो गुरुदेव से समाधान के लिए पूछना चाहिए । हृदय में उत्पन्न हुई शंका को शंका के रूप में ही रखना ठीक नहीं होता। .
सूत्रवाचना विस्मृत न हो जाय, एतदर्थं सूत्र की बार-बार गुणनिका = परिवर्तना करना, परिवर्तना है !
सूत्रवाचना के सम्बन्ध में तात्त्विक चिन्तन करना, अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षा, स्वाध्याय का महत्त्वपूर्ण अंग है। विना अनुप्रेक्षा के ज्ञान चमक ही नहीं सकता।
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श्रमण-सूत्र
जब कि सूत्र - वाचना, पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रक्षा के बाद तत्त्व का वास्तविक रूप सुदृढ़ हो जाय, तत्र जन कल्याण के लिए धर्मोपदेश करना धर्म कथा है ।
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भगवान् महावीर ने कितना अधिक सुन्दर वैज्ञानिक क्रम, स्वाध्याय का रक्खा है ? शास्त्रों के शब्द और अर्थ दोनों शरीरों की रक्षा के लिए कितनी सुन्दर योजना है ? यदि उपर्युक्त पद्धति से शास्त्रों का स्वाध्याय = अध्ययन किया जाय तो साधक अवश्य ही ज्ञान के क्षेत्र में अद्वितीय प्रकाश पा सकता है। कुछ भी अध्ययन न करके धर्म कथा के मञ्च पर पहुँचने वाले कथक्कड़ जरा इस और लक्ष्य दें कि धर्म कथा का नम्बर कौनसा है ?
-
आजकल स्वाध्याय के नाम पर बिल्कुल अर्थहीन परंपरा चल रही है । ग्राज के स्वाध्यायी लोग, स्वाध्याय का अभिप्राय यही समझते हैं कि किसी धर्म पुस्तक का नित्य कुछ पाठ कर लेना, और बस ! न शुद्ध उच्चारण की ओर ध्यान दिया जाता है और न अर्थ का ही कुछ चिन्तन मनन होता है। स्वाध्याय के लिए केवल शास्त्र के शब्द-शरीर को स्पर्श कर लेने से ही काम नहीं चल सकता । यद्यपि शुद्ध उच्चारण मात्र से भी कुछ लाभ अवश्य होता है। क्योंकि शब्दों के उच्चारण से भी भावों का सन्दन तरंगित होता है और उसका जीवन पर प्रभाव पड़ता है । परन्तु हम पूरा लाभ तभी उठा सकेंगे, जब कि पाठ करते समय पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रक्षा का भी ध्यान रक्खे' ।
"
स्वाध्याय में बल पैदा करने के लिए वर्तमान युग की भाषा में भी कुछ नियम ऐसे हैं, जिन पर विचार करने की आवश्यकता है । यदि अच्छी तरह से निम्नोक्त नियमों पर ध्यान दिया जाय तो स्वाध्याय का अपूर्व आनन्द प्राप्त हो सकता है ।
(१) एकाग्रता जब हम स्वाध्याय कर रहे हों तो हमारा ध्यान चारों ओर से हटकर पुस्तक के शब्दों और अर्थों की ओर ही होना चाहिए । इसके लिए आवश्यक है कि जो कुछ हम मुख से पाठ करें,
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काल-प्रतिलेखना-सूत्र उसे अपने कानों से भी ध्यान पूर्वक सुनते जायें। जिह्वा और श्रोत्र दो इन्द्रियों के एक साथ काम करने से मन अवश्य एकाग्र हो जाता है। अच्छा हो, यदि पाठ करते समय प्रत्येक पंक्ति को ठहर-ठहर कर दो तीन बार पढ़ा जाय।
(२) नैरन्तय- स्वाध्याय में जहाँ तक हो सके अन्तर (विक्षेप) नहीं होना चाहिए । थोड़ा-बहुत स्वाध्याय नित्य नियमपूर्वक करते ही रहना चाहिये । परंपरा की कड़ी टूटते ही स्वाध्याय की वही हालत होती है जैसी कि साँकल की कड़ी टूटने पर साँकल की होती है।
(३) विषयोपति-स्वाध्याय के लिए ग्रन्थों का चुनाव करते समय यह ध्यान में रखना चाहिए कि हमारा उद्देश्य सांसारिक विषयवासनाओं के जीवन से ऊपर उठना है। अतः रागद्वष, घृणा शृंगार आदि की पुस्तके न पढ़ कर सदाचार, भक्ति और कर्तव्यसम्बन्धी पुस्तके ही पढ़नी चाहिएँ।
(४) प्रकाश की उत्कण्ठा-स्वाध्याय करते समय मन में यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि पाठ के द्वारा हमारी अन्तःस्थ आत्मा में प्रकाश फैल रहा है। संकल्प का बल महान होता है, अतः स्वाध्याय के समय का शुद्ध संकल्प अवश्य ही अन्तज्योति प्रदान करेगा।
(१) स्वाध्याय का स्थान-स्वाध्याय के लिए पवित्र एवं शुद्ध चातावरण से सम्पन्न स्थान होना चाहिए । जो स्थान कोलाहल एवं गंदे दृश्यों वाला हो, वह स्वाध्याय के लिए सर्वथा अनुपयुक्त होता है। प्रतिलेखना ___ साधु के पास जो भी वस्त्र पात्र आदि उपधि हो, उसकी दिन में दो बार-प्रातः और सायं-प्रतिलेखना करनी होती है। उपधि को विना देखे-भाले उपयोग में लाने से हिंसा का दोष लगता है । उपधि में सूक्ष्म जीवों के उत्पन्न हो जाने की अथवा बाहर के जीवों के आश्रय लेने की संभावना रहती है; अतः प्रत्येक वस्तु का सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए जीवों को देखना माहिए, और यदि कोई जीव दृष्टिगत हो तो उसे
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श्रमण-सूत्र
प्रमार्जन के द्वारा किसी भी प्रकार की पीड़ा पहुँचाए विना एकान्त स्थान में धीरे से छोड़ देना चाहिए । प्रथम अहिंसाव्रत की कितनी अधिक सूक्ष्म साधना है ? धर्म के प्रति कितनी अधिक जागरूकता है ? भगवान महावीर, अपने शिष्यों को, कर्तव्य क्षेत्र में, कहीं भी उपेक्षित नहीं होने देते।
वस्त्रपात्र श्रादि को अच्छी तरह खोलकर चारों ओर से देखना, प्रतिलेखना है और रजोहरण तथा पूँ जणी के द्वारा अच्छी तरह साफ करना, प्रमार्जना है । पात्रादि को बिल्कुल ही न देखना, अप्रतिलेखना है। और इसी प्रकार बिल्कुल प्रमार्जन न करना, अपमार्जन है । आलस्यवश शीघ्रता में अविधि से देखना, दुष्प्रतिलेखना है। और इसी प्रकार शीघ्रता में विना विधि से उपयोग-हीन दशा में प्रमार्जन करना, दुष्प्रमार्जन है । प्रतिलेखना के सम्बन्ध में जानकरी की इच्छा रखने वाले सजन उत्तराध्ययन सूत्र का समाचारी अध्ययन अवलोकन करें। चार प्रकार के दोष
प्रत्येक व्रत में लगने वाले जितने भी दोष होते हैं, उनके चार प्रकार हैं-(१) अतिक्रम, (२) व्यतिक्रम, (३) अतिचार (४) अनाचार ।
(१) अतिक्रम-ग्रहण किए हुए व्रत अथवा प्रतिज्ञा को भंग करने का संकल्प करना ।
(२) व्यतिक्रम-व्रत भंग करने के लिए उद्यत होना ।।
(३) अतिचार-व्रत भंग करने के लिए साधन जुटा लेना तथा एक देश से व्रत किंवा प्रतिज्ञा को खण्डित करना ।
(४) अनाचार-व्रत को सर्वथा भंग करना।
उदाहरण के लिए प्राधाकर्मी अाहार का उदाहरण अधिक स्पष्ट है । इस पर से दोषों की कल्पना टीक तरह समझ में आ सकती है।
-कोई अनुरागी भक्त प्राधाकर्मी अाहार तैयार कर साधु को नमन्त्रण दे और माधु जानते हुए भी उस निमन्त्रण को स्वीकार करले,
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काल-प्रतिलेखना-सूत्र
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आधाकर्मी अाहार लेने की इच्छा करे और पात्र लेकर उठ खड़ा हो, तो यहाँ तक अतिक्रम दोष होता है। प्राधाकर्मी अाहार लेने के लिए
आश्रय से बाहर पैर रखने से लेकर घर में प्रवेश करने, झोली खोलकर फैलाने तक व्यतिक्रम दोप है । अाधाकर्मी अाहार ग्रहण करने से लेकर उपाश्रय में आकर खाने की तैयारी करने तथा ग्रास हाथ में उठाने तक अतिचार दोष है । और ग्रास मुख में डालने तथा खा लेने पर अनाचार दोष लगता है । इन चारों ही दोषों में उत्तरोत्तर दोष की अधिकता है । ___ अतिक्रमादि के लिए, कार अाधाकम दूषित आहार के ग्रहण का जो उदाहरण दिया है, उसके लिए जिनदास महत्तर-कृत श्रावश्यक चूणि देखनी चाहिये । वहाँ विस्तार से अतिक्रमादि के स्वरूप का निरूपण किया गया है।
आचार्य हरिभद्र ने भी जिनदास महत्तर के उल्लेखानुसार ही अतिक्रमादि का विवेचन किया है। उन्होंने इस सम्बन्ध में एक प्राचीन प्राकृत-गाथा उद्धृत की है, जो सक्षेपरुचि जिज्ञासु के लिए बड़ी महत्त्वपूर्ण है। लेखक भी उसको उद्धृत करने का भाव सवरण नहीं कर सकता। "प्राधाकम्म-निमंतण,
पडिसुणमाणे अइक्कमो होइ । पय-भेयाइ बइक्कम,
गहिए तइर यरो गलिए ॥" [प्राधाकर्म-निमन्त्रणे,
प्रतिशृण्वति अतिक्रमो भवति । पद-भेदादि व्यतिक्रमो,
गृहीते तृतीय इतरो गिलिते ॥]
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भ्रमण-सूत्र
अहिंसा, सत्य श्रादि महावत रूप मूल गुणों में अतिक्रम, व्यतिक्रम तथा अतिचार के कारण मलिनता पाती है, अर्थात् चारित्र का मूल रूप दूषित हो जाता है परन्तु सर्वथा नष्ट नहीं होता, अतः उसकी शुद्धि
आलोचना एवं प्रतिक्रमण के द्वारा करने का विधान है। परन्तु यदि मूल गुणों में जान-बूझ कर अनाचार का दोष लग जाए तो चारित्र का मूल रूप ही नष्ट हो जाता है। अतः उक्त दोष की शुद्धि के लिए केवल अालोचना एवं प्रतिक्रमण ही काफी नहीं है, प्रत्युत कठोर प्रायश्चित्त लेने का अथवा कुछ विशेष दुःप्रसंगों पर नए सिरे से व्रत ग्रहण करने का विधान है। .. परन्तु उत्तर गुणों के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। उत्तर गुणों में तो अतिक्रमादि चारों ही दोषों से चारित्र में मलिनता आती है, परन्तु पूर्णतः चारित्र-भंग नहीं होता । स्वाध्याय और प्रतिलेखना उत्तर गुण हैं । अतः प्रस्तुत काल प्रतिलेखना-सूत्र के द्वारा चारों ही दोषों का प्रतिक्रमण किया जाता है। - शास्त्रोक्त समय पर स्वाध्याय या प्रतिलेखना न करना, शास्त्र-निषिद्ध समय पर करना, स्वाध्याय एवं प्रतिलेखना पर श्रद्धा न करना, तथा इस सम्बन्ध में मिथ्या प्ररूपणा करना या उचित विधि से न करना, इत्यादि रूप में स्वाध्याय और प्रतिलेखना सम्बन्धी अतिचार दोष होते हैं।
यह काल-प्रतिलेखना सूत्र, स्वाध्याय तथा प्रतिलेखना करने के बाद भी पढ़ा जाता है।
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असंयम-सूत्र पडिक्कमामि एगविहे असंजमे
शब्दार्थ पडिकमामिप्रतिक्रमण करता हूँ, एगविहे = एक प्रकार के निवृत्त होता हूँ अस'जमे= असंयम से
भावार्थ अविरतिरूप एक-विध असंयम का आचरण करने से जो भी अतिचार-दोष लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ।
विवेचन मनुष्य क्या है ? इसका उत्तर कविता की भाषा में है-'कामनाओं का समुद्र ।' ससारी मनुष्य की कामनाएँ अनन्त हैं। कौन क्या प्राप्त नहीं करना चाहता ? जिस प्रकार समुद्र में हजारों, लाखों, करोड़ों तरंगे
१-'संजमो सम्म उवरमो।' इति जिनदास महत्तराः ।
'असंयमे अविरतलक्षणे सति प्रतिषिद्धकरणादिना यो मया दैवसिकोऽतिचारः कृत इति गम्यते' इत्याचार्य हरिभद्राः ।
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श्रमण-सूत्र
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उच्चावच-भाव से इधर-उधर सतत दोलायमान रहती है; उसी
प्रकार
मनुष्य के मन में भी कामनाओं की अनन्त तरंगे तूफान मचाए रहती हैं। किसी बंबई कलकत्ते जैसे विशाल शहर के चौराहे पर खड़े हो जाइए, कामना-समुद्र का प्रत्यन्न हो जायगा। हजारों नरमुण्ड पूर्व से पश्चिम, पश्चिम से पूर्व, दक्षिण से उत्तर, उत्तर से दक्षिण आ जा रहे हैं। सबकी अपनी-अपनी एक धुन है, अपनी-अपनी एक कल्पना है। कौन इस नर मुण्डों के समुद्र को इधर से उधर, उधर से इधर प्रवाहित कर रहा है ? उत्तर है - 'कामना' । ये रेले' इतनी तेज रोज क्यों दौड़ाई जा रही हैं ? ये भीमकाय जलयान समुद्र का वक्षःस्थल चीरते हुए क्यों चीखे मार रहे हैं ? ये वायुयान क्यों इतनी शीघ्रता से आकाश में दौड़ाये जा रहे हैं ? कहना पड़ेगा, 'कामना के लिए कामनाओं के कारण आज, आज क्या अनादि से संसार में भयंकर उथल-पुथल मच रही है । 'इच्छाहु श्रागा ससमा प्रांतिया ।' 'कामानां हृदये वासः, संसार इति कीर्तितः ।'
परन्तु प्रश्न है - मनुष्य को कामनाओं से क्या मिला ? सुख ? सुख नहीं, दुःख ही मिला है । आज तक कोई भी मनुष्य, अपनी कामनात्रों के अनुसार सुख नहीं पा सका । रंक को भी देखा है, राजा को भी, सभी इच्छापूर्ति के अभाव में व्याकुल हैं। मनुष्य नाम धारी जीव, अपनी शानों की अवधि का पार पाले, यह सर्वथा असम्भव है । और जब तक कामनाओं की पूर्ति न हो जाय, तच तक शान्ति कहाँ ? सुख कहाँ ? श्रतएव हमारे वीतराग महापुरुषों ने कामनाओं की पूर्ति में नहीं, कामनाओं के नियंत्रण में ही, सन्तोष में ही सुख माना है। कामनात्रों के सम्बन्ध में किसी न किसी मर्यादा का आश्रय लिए बिना काम चल ही नहीं सकता । शास्त्रीय परिभाषा में इसी का नाम संयम है । 'स' + यम अर्थात् सावधानी के साथ भली भाँति इच्छात्रों का नियमन करना । संयम मनुष्यता की कसौटी है । जिसमें जितना अधिक संयम, उसमें उतनी ही अधिक मनुष्यता ।
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असयम सूत्र
___ सयम का विरोधी असयम है । यही समस्त सांसारिक दुःखों का मूल है । चारित्र मोहनीय कम के उदय से होने वाले रागद्वेष रूप कषाय भाव का नाम असयम है । असयम के होने पर आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप में परिणति नहीं करता. सदाचार में प्रवृत्ति नहीं करता। असयमी की दृष्टि बहिर्मुखी होती है, अतः वह पुद्गल-वासना को ही श्रेय समझने लगता है। अतएव प्रस्तुत सूत्र में असंयम के प्रतिक्रमण का यह भाव है कि-सयम-पथ पर चलते हुए यदि कहीं भी प्रमादवश असयम हो गया हो, अन्तहदय साधना पथ से भटक गया हो, तो वहाँ से हटाकर पुनः उसे आत्म-स्वरूप में केन्द्रित करता हूँ।
संग्रहनय की दृष्टि से सब प्रकार के असंयमों का सामान्यतः एक असयम पद से ग्रहण कर लिया है। आगे आने वाले सूत्रों में विशेष रूप से असयमों का नामोल्लेख किया गया है। __ प्राचीन प्रतियों में एक विध असंयम से लेकर अन्तिम 'मिच्छामि दुकडं' तक एक ही पाठ माना है। यह मानना है भी ठीक अतएव यहाँ से लेकर, सत्र सूत्रों का सम्बन्ध अन्तिम 'मिच्छामि दुक्कडं' से किया जाता है। यहाँ पृथक्-पृथक् सूत्रों का विभाग, केवल विषयावबोध की रष्टि से किया गया है। सूत्र का क्रम भंग करना अपना उद्देश्य नहीं है।
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बन्धन-सूत्र पडिकमामि दोहिं बंधणेहि
राग-बंधणेणं दोस-बंधणेणं।
शब्दार्थ पडिकमामिप्रति क्रमण करता हूँ रागबन्धणेणराग के बन्धन से दोहि = दोनों
दोसबन्धणेण=ष के बन्धन बन्धणेहिं - बन्धनों से
भावार्थ
दो प्रकार के बन्धनों से लगे दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ, अर्थात् उनसे पीछे हटता हूँ । ( कौन से बन्धनों से ? ) राग के बन्धन से, द्वष के बन्धन से।
विवेचन जन्म-मरण रूप ससार विष वृक्ष के दो ही बीज हैं--राग और द्वेष | राग आसक्ति को कहते हैं और द्वप अप्रीति को । मनुष्य ने शरीर और इन्द्रियों को ही सब कुछ माना हुआ है, इन्हीं की परिचर्या में सर्वस्व
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बन्धन -सूत्र
१११
निछावर किया हुआ है । अतएव जब शरीर और इन्द्रियों को अच्छी लगने वाली कोई इ श्रवस्था होती है तो उससे राग करता है और जब शरीर और इन्द्रियों को अच्छी न लगने वाली कोई विपरीत अनिष्ट अवस्था होती है तो उससे द्व ेष करता है । इस प्रकार कहीं राग तो कहीं द्वेषइन्हीं दुर्विकल्पों में मानव जीवन की अमूल्य घड़ियाँ बर्बाद होरही हैं । जब तक राग-द्व ेष की मलिनता है, तब तक चारित्र की शुद्धता किसी भी तरह महीं हो सकती । चारित्र की शुद्धता की क्या बात ? कभी-कभी राग-द्वेष का आधिक्य तो चरित्र को मूल से ही नष्ट कर डालता है । राग-द्व ेष की प्रवृत्ति चारित्र मोह के उदय से होती है, और चारित्र मोह संयमजीवन का दूध एवं घातक माना गया है ।
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यदि अन्तदृष्टि से देखा जाय तो राग-द्व ेष हमारे दुर्बल मन की ही कल्पनाएँ हैं । किसी वस्तु के साथ इसका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । " वस्तु अपने स्वरूप में न कोई अच्छी है और न कोई बुरी । मनुष्य की कल्पना ही उन्हें अच्छी-बुरी माने हुए है । उदाहरण के लिए निशानाथ चन्द्र को ही लीजिए । श्राकाशमण्डल में चन्द्रमा के उदय होते ही चकोर हर्षोन्मत्त हो जाता है तो चकवा चकवी शोक से व्याकुल हो उठते हैं । चन्द्रमा का उदय देखकर चोर दुःखित होता है तो साहूकार
१. 'न काम - भोगा समयं उवेन्ति,
न यावि भोगा विगहूं उवेन्ति । जे तप्पनोसी य परिग्गहीय सो तेसु मोहा विगई
उबेइ ॥
- उत्तराध्ययन सूत्र ३२ । १०१
-काम भोग अर्थात् सांसारिक पदार्थ अपने आप न तो किसी मनुष्य में समभाव पैदा करते हैं और न किसी में राग-द्व ेष रूप विकृति ही पैश करते हैं । परन्तु मनुष्य स्वयं ही उनके प्रति राग-द्वेष के नाना विकल्प बनाकर मोह से विकारग्रस्त हो जाता है ।
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११२
श्रमण सूत्र
हर्षित । अब बताइए, चन्द्रमा दुःखरूप है अथवा सुखरूप ? आप कहेंगे, दोनों में से एक भी नहीं । यदि वह दुःख रूप होता तो प्रत्येक कों दुःख ही देता । और सुखरूप ही होता तो प्रत्येक को सुख ही देता। परन्तु ऐसा है कहाँ ? वह तो एक ही समय में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न रूप में सुख-दुःख का जनक होता है। अतएव पं० ठोडरमल्ल जी राग-द्वोष करने को मिथ्या भाव बतलाते हैं। किसी वस्तु में उस वस्तु से विपरीत भावना करना ही तो मिथ्या भाव है और यहाँ पर द्रव्य में इष्टता तथा अनिष्टता कुछ भी नहीं है, परन्तु रागद्वेष के द्वारा उसमें वह की जाती है ! अतएव राग द्वष, मिथ्या नहीं तो क्या है ? ।
जैन धर्म का सम्पूर्ण साहित्य, राग द्वेष के विरोध में ही सन्नद्ध किया गया है । जैन धर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है, फलतः उसने राग-द्वीप की निवृत्ति पर अत्यधिक बल दिया है। राग-द्वेष को घटाए विना तपश्चरण का, साधना का कुछ अर्थ नहीं रहता। प्राचार्य मुनिचन्द्र का एक श्लोक है-"रागद्वषो यदि स्यातां तपसा किं प्रयोजनम् ?" . प्रस्तुतसूत्र में रागद्वेष को बन्धन कहा है। रागद्वेष के द्वारा अष्टविध कर्मों का बन्धन होता है, अतः वे बन्धन पदवाच्य हैं। "बद्धंयतेऽष्टविधेन कर्मणा येन हेतुभूतेन तद् बन्धनम् --आचार्य नमि ।
प्राचार्य जिनदास महत्तर-कृत राग-द्वेष की व्याख्या का भाव यह है-जिसके द्वारा आत्मा कम से रँगा जाता है, वह मोह की परिणति राग है और जिस मोह की परिणति से किसी से शत्रु ता, घृणा, क्रोध, अहंकार आदि किया जाता है. वह द्वष है । 'रंजन रज्यते वाऽनेन जीव इति रागः, राग एवं बन्धनम् । द्वषणं द्विषत्यनेन इति वा द्वषः, द्वष एव बन्धनम् ।' अावश्यक चूणि ।
प्राचार्य हरिभद्र, अपनी श्रावश्यक टीका में, एक श्लोक उद्धृत करते हैं, जो राग-द्वप से होने वाले कर्मबन्ध पर अच्छा प्रकाश डालता है:
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बन्धन-सूत्र
'स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य,
रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम् । राग-द्वषाक्लिन्नस्य,
कर्म - बन्धो भवत्येवम् ॥ -अर्थात् जिस मनुष्य ने शरीर पर तेल चुपड़ रक्खा हो, उसका शरीर उड़ने वाली धूल से जैसे सन जाता है, वैसे ही राग-द्वेष के भाव से प्राक्लिन्न हुए आत्मा पर कम-रज का बन्ध हो जाता है ।
-
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: १३ :
दण्ड-सूत्र पडिकमामि तिहिं दंडेहिं
मणदंडेणं वयदंडेणं, कायदंडेणं ।
शब्दार्थ पडिकमामि = प्रति क्रमण करता हूँ मणदंडेण = मनदण्ड से तिहिं = तीनों
वयदंडेण = वचन दण्ड से दंडेहिं == दण्डों से
कायदंडेण = कायदण्ड से
भावार्थ तीन प्रकार के दण्डों से लगे दोषों का प्रति क्रमण करता हूँ। ( कौन से दण्डों से ? ) मनोदण्ड से, वचन-दण्ड से, कायदण्ड से।
विवेचन दुष्प्रयुक्त मन, वाणी और शरीर को आध्यात्मिक-भाषा में दण्ड कहते हैं । जिसके द्वारा दण्डित हो, ऐश्वर्य का अपहार-नाश हो, वह दण्ड कहलाता है। लौकिक द्रव्य दण्ड लाठी श्रादि हैं, उनके द्वारा शरीर दण्डित होता है। और उपयुक्त दुष्प्रयुक्त मन आदि भाव दण्डत्रय से
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दण्ड-सून
चारित्ररूप प्राध्यात्मिक ऐश्वर्य का विनाश होने के कारण यात्मा दण्डितधर्म भ्रष्ट होता है । 'दण्ड्यते चारित्रैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डाः द्रव्यभावभेदभिन्नाः । भावदंडैरिहाधिकारः"" मनः-प्रभृतिभिश्च दुष्प्रयुक्तै दण्डयते अात्मेति ।' आचार्य हरिभद्र ।
आगमकार उक्त दण्डों से बचने के लिए साधक को सर्वथा सावधान करते हैं । इस सम्बन्ध में जरा सी भूल भी प्रात्मा का पतन करने वाली है। ____ मन, वचन, शरीर की अशुभ प्रवृत्ति दण्ड है । इस अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा ही अपने आप को तथा दूसरे प्राणियों को दुःख पहुँचता है। किस दण्ड से किस प्रकार दुःख पहुंचता है ? किस प्रकार श्रेष्ठ प्राचार मलिन होता है ? इसके लिए नीचे की तालिका पर दृष्टिपात कीजिएमनो-दण्ड
(१) विपाद करना, (२) निर्दय विचार करना, (३) व्यर्थ कल्पनाएँ करना, (४) मन को वश में न करके इधर-उधर भटकने देना, (५) दूषित और अपवित्र विचार रखना, (६) किसी के प्रति घृणा, द्वेष, अनिष्ट चिन्तन करना आदि-आदि। वचन-दण्ड
(१) असत्य = मिथ्या भाषण करना, (२) किसी की निन्दा व चुगली करना, (३) कड़वा बोलना, गाली एवं शार देना, (४) अपनी बड़ाई हाँकना । ५) व्यर्थं की बाते करना, (६) शास्त्रों के सम्बन्ध में मिथ्या प्ररूपणा करना, आदि । काय-दण्ड
(१ ) किसी को पीड़ा पहुँचाना, मार पीट करना, (२) व्यभिचार करना, (३) किसी की चीज़ चुराना, (४) अकड़ कर चलना, (५) व्यर्थ की चेटाएँ करना, (६) असावधानी से चलना, किसी चीज़ के उठाने रखने में अयतना करना, आदि ।
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गुप्ति-सूत्र
पडिक्कमामि तिहिं गुत्तीहिं
मणगुत्तीए, वयगुत्तीए कायगुत्तीए ।
शब्दार्थ पडिक्कमामि = प्रतिक्रमण करता हूँ मणगुत्तीए = मनोगुप्ति से तिहिं तीनों
वयगुत्तीए= वचनगुप्ति से गुत्तीहिं == गुप्तियों से . कायगुत्तीए - कायगुप्ति से
भावार्थ तीन प्रकार की गुप्तियों से = अर्थात् उनका श्राचरण करते हुए प्रमोदवश जो भी तरसम्बन्धी विपरीताचरणरूप दोष लगे हों, उनका प्रतिक्रमण करता हूँ। (किन गुप्तियों से ? ) मनोगुप्ति से, क्चनगुप्ति से, कायगुप्ति से।
विवेचन गुप्ति का अर्थ, रक्षा होता है-'गोपनं गुप्तिः। अतएव मनोगुक्ति
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गुप्ति-सूत्र
११७
मन की रक्षा-वचनगुप्ति, वचन की रक्षा, कायगुप्ति-काय की रक्षा है । रक्षा का अर्थ नियंत्रण है प्राचार्य हरिभद्र के उल्लेखानुसार गुप्ति प्रवीचार
और अप्रवीचार उभय-रूपा होती है ; अतः अशुभयोग से निवृत्त होकर शुभयोग में प्रवृत्ति' करना, गुप्ति का स्पष्ट अर्थ है । अपने विशुद्ध आत्मतत्त्व की रक्षा के लिए अशुभ योगों को रोकना, गुप्ति का स्पष्टतर अर्थ है। श्रात्ममन्दिर में आने वाले कमरज को रोकना, गुप्ति का स्पष्टतम अर्थ है । मनोगुप्ति
अार्त तथा रौद्र ध्यान-विषयक मन से सरंभ, समारंभ तथा प्रारंभ सम्बन्धी संकल्प-विकल्प न करना; लोक-परलोक हितकारी धर्म ध्यान सम्बन्धी चिन्तन करना; मध्यस्थ-भाव रखना; मनोगुप्ति है। चचन-गुप्ति
वचन के सरंभ, समारंभ, प्रारंभ सम्बन्धी व्यापार को रोकना, विकथा न करना; झूठ न बोलना; निन्दा चुगली आदि न करना; मौन रहना; वचन गुप्ति है।
१-जबकि गुप्ति में भी अशुभ योग का निग्रह और शुभ योग का संग्रह, अर्थात् अशुभयोग से निवृत्ति और शुभ योग में प्रवृत्ति होती है
और इसी प्रकार समिति में भी अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति होती है; फिर दोनों में भेद क्या रहा ? उत्तर है कि गुप्ति में असस्क्रिया का निषेध मुख्य है और समिति में सक्रिया का प्रवर्तन मुख्य है। गुप्ति अन्ततोगत्वा प्रवृत्ति रहित भी हो सकती है। परन्तु समिति कभी प्रवृत्ति-रहित नहीं हो सकती । वह प्रवीचार-प्रधान ही होती है । आवश्यक सूत्र की टीका में प्राचार्य हरिभद्र ने इसी सम्बन्ध में एक प्राचीन गाथा उद्धृत की है'समिश्रो नियमा गुत्तो,
गुत्तो समियत्तणमि भइयव्वो। कुसल-वइमुदीरितो,
जं वयगुत्तो वि समिश्रो वि ॥,
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श्रमण सून काय-गुप्ति
.. शारीरिक क्रिया सम्बन्धी सरंभ, समारंभ, प्रारंभ में प्रवृत्ति न करना; उठने बैठने-हलने-चलने-सोने आदि में संयम रखना; अशुभ व्यापारों का परित्याग कर यतना पूर्वक सत्प्रवृत्ति करना; काय-गुप्ति है। संरंभ, समारंभ, आरंभ
हिंसा आदि कार्यों के लिए प्रयत्न करने का संकल्प करना सरंभ है । उसी सकल्प एवं कार्य की पूर्ति के लिए साधन जुटाना समारंभ है
और अन्त में उस सकल्प को कार्य रूप में परिणत कर देना प्रारंभ है । हिंसा आदि कार्य की, संकल्पात्मक सूक्ष्म अवस्था से लेकर उसको प्रकट रूप में पूरा कर देने तक, जो तीन अवस्थाएँ होती हैं, उन्हें ही अनुक्रम से सरंभ, समारंभ, प्रारंभ कहते हैं ।
तत्त्वार्थ सूत्रकार उमास्वातिजी ने 'सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥४इस सूत्र के द्वारा मन, वचन और शरीर के योगों का जो प्रशस्त निग्रह किया जाता है, उसे गुप्ति कहा है। प्रशस्तनिग्रह का अर्थ है--विवेक
और श्रद्धा पूर्वक मन, वचन एवं शरीर को उन्मार्ग से रोकना ओर सन्मार्ग में लगाना । इस पर से फलित होता है कि-हठयोग आदि की प्रक्रियाओं द्वारा किया जाने वाला योगनिग्रह गुप्ति में सम्मिलित नहीं होता। .. एक बात और । यहाँ सूत्र में गुप्तियों से प्रतिक्रमण नहीं किया है, प्रत्युत गुप्तियों से होने वाले दोषों से प्रतिक्रमण किया है। यही कारण है कि 'गुत्तीहिं' में पंचमी न करके . हेत्वर्थ तृतीया विभक्ति की है, जिसका सम्बन्ध गुप्तिहेतुक अति चारों से है। गुति से अतिचार कैसे होते हैं ? गुप्ति का ठीक अाचरण न करना, उसकी श्रद्धा न करना, अथवा गुप्ति के सम्बन्ध में विपरीत प्ररूपणा करना, गुप्तिहेतुक अतिचार होते हैं ।
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पडिक्कमामि तिर्हि सल्लेहि
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: १५ :
शल्य-सूत्र
माया - सल्ले,
नियाण- सल्लेणं,
मिच्छादंसण- सल्लेगं
शब्दार्थ
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पडिक्कमामि = प्रतिक्रमण करता हूँ नियागसल्लेण = निदान के तिहिं = तीनों
सल्लेहिं = शल्यों से
माया सल्लेण = माया के शल्य से
शल्य से मिच्छा दंसण = मिथ्या दर्शन के सल्लेग = शल्य से
भावार्थ
तीन प्रकार के शल्यों से होने वाले दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ । ( किन शल्यों से ? ) मायाशल्य से, निदानशल्य से, और मिथ्यादर्शन शल्य से ।
विवेचन
अहिंसा, सत्य आदि व्रतों के लेने मात्र से कोई सच्चा व्रती नहीं बन
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श्रमण-सूत्र
सकता । सुवती होने के लिये सबसे पहली एवं मुख्य शर्त यह है किउसे शल्य-रहित होना चाहिए। इसी आदर्श को ध्यान में रख कर प्राचार्य उमास्वातिजी तत्वार्थ सूत्र में कहते हैं--'निःशल्यो व्रती'-७॥१३॥ ___ माया, निदान और मिथ्यादर्शन, उक्त तीनों दोप श्रागम की भाषा में शल्य कहलाते हैं । इनके कारण आत्मा स्वस्थ नहीं बन सकता, स्वीकृत व्रतों के पालन में एकाग्र नहीं हो सकता । __ शल्य का अर्थ होता है--जिसके द्वारा अन्तर में पीड़ा सालती रहती हो, कसकती रहती हो वह तीर, भाला, काँटा श्रादि । द्रव्य और भाव दोनों शल्यों पर घटने वाली प्राचार्य हरिभद्र की शल्य-व्युत्पत्ति यह है:'शल्यतेऽनेनेति शल्यम् ।' श्राध्यात्मिक क्षेत्र में माया, निदान और मिथ्यादर्शन को लक्षणा वृत्ति के द्वारा शल्य इसलिए कहा है कि जिस प्रकार शरीर के किसी भाग में काँटा, कील तथा तीर आदि तीक्ष्ण वस्तु घुस जाय तो जैसे वह मनुष्य को नुब्ध किए रहती है, चैन नहीं लेने देती है; उसी प्रकार सूत्रोक्त शल्यत्रय भी अन्तर में रहे हुए साधक की अन्तरात्मा को शान्ति नहीं लेने देते हैं, सर्वदा व्याकुल एवं बेचैन किए रहते हैं। तीनों ही शल्य, तीव्र कम बन्ध के हेतु हैं, अतः दुःखोलादक होने के कारण शल्य हैं। माया-शल्य ___ माया का अर्थ कपट होता है। अतएव छल करना, टोग रचना, ठगने की वृत्ति रखना, दोष लगा कर गुरुदेव के समक्ष माया के कारण अालोचना न करना, अन्य रूप से मिथ्या पालोचना करना, तथा किसी पर झूठा आरोप लगाना; इत्यादि माया-शल्य है । 'निदान-शल्य __धर्माचरण के द्वारा सांसारिक फल की कामना करना, भोगों की लालसा रखना, निदान शल्य होता है। उदाहरण के लिए देखिए । किसी राजा अथवा देवता आदि का वैभव देख कर किंवा सुन कर मनमें
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शल्य-सूत्र
१२१
यह संकल्प करना कि-ब्रह्मचर्य, तप आदि मेरे धर्म के फलस्वरूप मुझे भी ऐसा ही वैभव, समृद्धि प्राप्त हो; यह निदान-शल्य है । मिथ्या दर्शन शल्य ___सत्य पर श्रद्धा न लाना एवं असत्य का कदाग्रह रखना, मिथ्यादर्शन शल्य होता है । यह शल्य बहुत ही भयंवर है । इसके कारण कभी भी सत्य के प्रति अभिरुचि नहीं होती। यह शल्य सम्यग्दर्शन का विरोधी है, दर्शन मोहनीय कर्म का फल है ।
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: १६ :
गौरव - सूत्र
पडिक्कमामि तिहिं गारवेहिंइड्ढी - गारवे,
रस- गारवे सायागारवेणं
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शब्दार्थ
पडिक्कमामि= प्रतिक्रमण करता हूँ हट्टीगारवेणं = ऋद्धि गौरव से तिहिं = तीनों रसगारवेणं = रस गौरव से सायागारवेणं = साता गौरब से
गारवेहिं = गौरवों से
भावार्थ
तीन प्रकार के गौरव = अशुभ भावनारूप भार से लगने वाले दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ । [ किन गौरवों से ?] ऋद्धि के गौरव से, रस के गौरव से, और साता = सुख के गौरव से ।
विवेचन
गौरव का अर्थ गुरुत्व है । यह गौरव, द्रव्य और भाव से दो प्रकार का होता है । पत्थर आदि की गुरुता, द्रव्य गौरव है और अभिमान एवं
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गौरव-सूत्र
१२३
लोभ के कारण होने वाला श्रात्मा का अशुभ भाव, भाव गौरव है । प्रस्तुत सूत्र में भाव गौरव की चर्चा है । भाव गौरव अात्मा को ससार सागर में डुबाये रखता है, ऊपर उभरने नहीं देता । ___ भाव गौरव के तीन भेद हैं-ऋद्धि-गौरव, रस-गौव और सातागौरव । इनके स्पष्टीकरण के लिए नीचे देखिए । ऋद्धि-गौरव
राजा आदि के द्वारा प्राप्त होने वाला उँचा पद एवं सत्कार सम्मान पाकर अभिमान करना, और प्राप्त न होने पर उसकी लालसा रखना, ऋद्धि गौरव है । संक्षेप-भाषा में सत्कार-सम्मान, वन्दन, उग्र व्रत, विद्या आदि का अभिमान करना, ऋद्धि गौरव कहलाता है । रस-गौरव ___ दूध, दही, घृत श्रादि मधुर एवं स्वादिष्ट रसों की इच्छानुसार प्राप्ति होने पर अभिमान करना, और प्राप्ति न होने पर उनकी लालसा रखना, रस गौरव है । आचार्य जिनदास महत्तर रस-गौरव के लिए जिह्वा-दण्ड शब्द का बहुत सुन्दर प्रयोग करते हैं । 'रसगारवे जिब्भादंडो।' साता-गौरव
साता का अर्थ-आरोग्य एवं शारीरिक सुख है । अतएव आरोग्य, शारीरिक सुख तथा वस्त्र, पात्र, शयनासन आदि सुख के साधनों के मिलने पर अभिमान करना, और न मिलने पर उसकी लालसा = इच्छा करना, साता गौरव है।
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विराधना-सूत्र पडिक्कमामि तिहिं विराहणाहिं
नाण-विराहणाए. दंसण-विराहणाए, चरित्त-विराहणाए।
शब्दार्थ पडिक्कमामि- प्रतिक्रमण करता हूँ दंसण - दर्शन की तिहिं = तीनों
विराहणाए =विराधना से विराहणाहिं = विराधनाओं से चरित्त = चारित्र की नाण = ज्ञान की
विराहणाए- विराधना से विराहणाए विराधना से
भावार्थ तीन प्रकार की विराधनाओं से होने वाले दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ। [कौनसी विराधनाओं से ? ] ज्ञान की विराधना से, दर्शन की विराधना से, और चारित्र की विराधना से ।
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विराधना-सूत्र
१२५
विवेचन किसी भी प्रकार का दोष न लगाते हुए चारित्र का विशुद्ध रूप से पालन करना अाराधना होती है। और इसके विपरीत ज्ञानादि प्राचार का सम्यक् रूप से अाराधन न करना, उनका खण्डन करना, उनमें दोष लगाना, विराधना है । 'विगता भाराहणा विराहणा। जिनदास महत्तर । 'कस्यचिद् वस्तुनः खण्डनं विराधनं, तदेव विराधना। प्राचार्य हरिभद्र । ज्ञान विराधना ___ ज्ञान की तथा ज्ञानी की निन्दा करना, गुरु श्रादि का अपलाप करना, श्राशातना करना, ज्ञानार्जन में श्रालस्य करना, दूसरे के अध्ययन में अन्तराय डालना, अकाल स्वाध्याय करना, इत्यादि ज्ञान विराधना है ।
दर्शन विराधना
दर्शन से अभिप्राय सम्यग् दर्शन से है । सम्यग्दर्शन का अर्थ--- 'सम्यक्त्व' है । अतः सम्यक्त्व एवं सम्यक्त्व धारी साधक की निन्दा करना, मिथ्यात्व एवं मिथ्यात्वी की प्रशंसा करना, पाखण्ड मत का प्राडंबर देखकर डगमगा जाना, दर्शन विराधना है। चारित्र विराधना ___ चारित्र का अर्थ---'सच्चरण है। अहिंसा, सत्य श्रादि चारित्र का भली भाँति पालन न करना, उसमें दोष लगाना, उसका खण्डन करना, चारित्र विराधना है।
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कषाय-सूत्र पडिक्कमामि चउहिं कसाएहिं
कोह कसाएणं, माणकसाएणं, मायाकसाएणं, लोभकसाएणं ।
शब्दार्थ
पडिकमामि = प्रतिक्रमण करता हूँ माणकसाएणमानकषाय से चउहिं = चारों
मायाकसाएण=मायाकषाय से कसाएहिं = कषायों से
लोभकसाएण = लोभ कषाय से कोहकसाएण = क्रोधकषाय से
भावार्थ क्रोध कषाय, मान कषोय, माया कषाय और लोभ कषाय-इन चारों कषायों के द्वारा होने वाले अतिचारों का प्रतिक्रमण करता हूँ = अर्थात् उनसे पीछे हटता हूँ।
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कपाय- सूत्र
बिबेचन
'काय' शब्द दो शब्दों से मिलकर बना हैं। दो शब्द हैं - 'कष' और 'चाय' । कप का अर्थ संसार होता है, क्योंकि इसमें प्राणी विविध दुःखों के द्वारा कष्ट पाते हैं, पीड़ित होते हैं। देखिए-नमि-कृत व्युत्पत्ति'कथ्यते प्राणी विविधदुः खैरस्मिन्निति कषः संसारः । दूसरा शब्द 'आय' है जिसका अर्थ लाभ = प्राप्ति होता है । बहुव्रीहि समास के द्वारा दोनों शब्दों का सम्मिलित अर्थ होता है - जिनके द्वारा कप = संसार की प्राय = प्राप्ति हो, वे क्रोधादि चार कषाय-पदवाच्य हैं । 'कषः संसारस्तस्य आयो लाभो येभ्यस्ते कषायाः ।"
१२७
कषायों का वेग वस्तुतः बहुत प्रबल है | जन्म-मरणरूप यह संसारवृक्ष कषायों के द्वारा ही हराभरा रहता है । यदि कषाय न हों तो जन्ममरण की परम्परा का विषवृक्ष स्वयं ही सूखकर नष्ट हो जाय । दशवैकालिक-सूत्र में श्राचार्य शय्यंभव ठीक ही कहते हैं कि 'अनिगृहीत कषाय पुनर्भव के मूल को सींचते रहते हैं, उसे शुष्क नहीं होने देते । ' 'सिचंति मूलाइ' पुशब्भवस्स ।'
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सूत्रकृतांग-सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पष्ठ अध्ययन में कषायों को अध्यात्म-दोष बतलाया है । कपाय प्रकट और अप्रकट दोनों ही तरह से आत्मा के ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप शुद्धस्वरूप को मलिन करते हैं, कर्म रंग से आत्मा को रँग देते हैं और चिरकाल के लिए श्रात्मा की सुख-शान्ति को छिन्न-भिन्न कर देते हैं । जो साधक इनकायों पर विजय प्राप्त कर लेता है, वही सच्चा साधक है । कपायविजयी साधक न स्वयं पाप कर्म करता है, न दूसरों से करवाता है, और न करने वालों का अनुमोदन ही करता है अतएव वह दुःखों से सदा के लिए छुटकारा प्राप्त कर लेता है । कारण के अभाव में कार्य कैसे हो सकता हे ? कषाय ही तो कमों के उत्पादक हैं, और कर्मों से ही दुःख होता है। जब कषाय नहीं रहे तो कर्म नहीं, कर्म नहीं रहे तो दुःख नहीं रहा । कपायों की कमौत्पादकता के सम्बन्ध में श्राचार्य वीरसेन के
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श्रमण-सूत्र
धवला-ग्रन्थ में, देखिए क्या लिखा है ? 'दुःखशस्यं कर्मक्षेत्र कृषन्ति फल बरकुर्वन्ति इति कषाया: ' - 'जो दुःखरूप धान्य को पैदा करने वाले कर्म रूपी खेत को कण करते हैं श्रर्थात् फलवाले करते हैं वे क्रोध मान आदि कषाय कहलाते हैं -- ।'
कोहो पीई पणासेइ, माणो विण्य-नासो; माया मित्ताणि नासेर, लोहो सन्त्र विणासो | उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्द्वया जिणे, मायमज्जव-भावेणं, लोभं
संतोसो जिणे ।
दशवै० ८ । ३८-३६
'क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सभी सद्गुणों का नाश करता है । '
'शान्ति से क्रोध को मृदुता से मान को सरलता से माया को, और सन्तोष से लोभ को जीतना चाहिए ।'
प्रत्येक साधक को दशवैकालिक-सूत्र की यह अमर वाणी, हृदयपट पर सदा अंकित रखनी चाहिए। श्राचार्य शय्यंभव के ये अमर वाक्य, अवश्य ही कषाय - विजय में हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ पथ-प्रदर्शक हैं ।
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: १६:
संज्ञा-सूत्र पडिकमामि चठहिं सन्नाहिं
आहार-सनाए भय-सत्राए मेहुण-सन्नाए परिग्गह-सन्नाए
शब्दार्थ पडिक्कमामि % प्रतिक्रमण करता हूँ भयसन्नाए=भय संज्ञा से चउहि चारों
मेहुणसन्नाए = मैथुम संज्ञा से सन्नाहि = संज्ञाओं से
परिग्गह - परिग्रह की अाहारसन्नाए = प्रहार संज्ञा से सन्नाए संज्ञा से
भावार्थ आहार संज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा-इन चार प्रकार की संज्ञाओं के द्वारा जो भी अतिचार = दोष लगा हो उसका प्रतिक्रमण करता हूँ।
विवेचन संज्ञा का अर्थ 'चेतना' होता है, 'संज्ञानं संज्ञा।' किन्तु यहाँ यह
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१३०
श्रमण-सूत्र अर्थ अभीष्ट नहीं है । जैनागमों में संज्ञा शब्द एक विशेष अर्थ के लिए भी रूढ है । मोहनीय और असाता वेदनीय कर्म के उदय से जब चेतना शक्ति विकारयुक्त हो जाती है, तब वह 'सज्ञा' पदवाच्य होती है । लोक भाषा में यदि आप सज्ञा का सीधा-सादा स्पष्ट अर्थ करना चाहें तो यह कर सकते हैं कि = 'कर्मोदय के प्राबल्य से होनेवाली अभिलाषा = इच्छा ।'
यह शब्द कहने के लिए तो बहुत साधारण है। साधारण संसारी जीव इच्छा को कोई महत्त्व नहीं देते । उन लोगों का कहना है कि'केवल इच्छा ही तो की है, और कुछ तो नहीं किया ? खाली इच्छा से क्या पाप होता है ?' परन्तु उन्हें याद रखना चाहिए कि संसार में इच्छा का मूल्य बहुत है। संकल्पों के ऊपर मनुष्य के उत्थान और पतन दोनों मार्गों का निर्माण होता है । सांसारिक भोगों की इच्छा करते रहने से अवश्य ही प्रात्मा का पतन होगा। मन का चित्र यदि गन्दा है तो उसका प्रतिबिम्ब अात्मा को दूषित किए. विना किसी भी हालत में नहीं रहेगा। साधक को मन के समुद्र में उठने वाली प्रत्येक वासनातरंगों को ध्यान में रखना चाहिए और उन्हें शान्त करने सम्बन्धी शास्त्रप्रतिपादित विधानों की जरा भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । आहार-संज्ञा
क्षुधावेदनीय कर्म के उदय से आहार की आवश्यकता होती है। यह समान्यतः श्राहार संज्ञा है । क्षुधा की पूर्ति के लिए भोजन करना पाप नहीं है । परन्तु मनुष्य की मानसिक धारा जब पेट पर ही केन्द्रित हो जाती है, तव आहार सज्ञा अपनी मर्यादा को लाँघने लगती है और साधक के लिए घातक होने लगती है । मोह का आश्रय पाकर यह संज्ञा जब अधिक बल पकड़ लेती है, तब अधिक से अधिक सुन्दर स्वादु भोजन खाकर भी मनुष्य सन्तुष्ट नहीं होता । अग्नि के समान आहार के लिए, उसका हृदय धधकता ही रहता है । निरन्तर आहार का स्मरण करने एवं आहार कथा सुनने से श्राहार संझा एज्ज्वलित होती है ।
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संज्ञा-सूत्र
१३१
भय संज्ञा
भय मोहनीय के उदय से आत्मा में त्रास का भाव पैदा होता है, वह भय सज्ञा है। भय आत्म-शक्ति का नाश करने वाला है। भयाकुल मनुष्य और तो क्या अपने सम्यग्दर्शन को भी सुरक्षित नहीं रख सकता । भय की बात सुनने, भयानक दृश्य देखने तथा भय के कारणों की बार-बार उद्भावना-चिन्तना करने से भयसंज्ञा उत्पन्न होती है। मैथुन संज्ञा
वेदमोहोदय सवेदन यानी मैथुन की इच्छा, मैथुनसंज्ञा कहलाती है । कामवासना सभी पापों की जड़ है। काम से क्रोध, संमोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश और अन्त में मृत्यु के चक्र में मानव फँस जाता है । कामकथा के श्रवण से, सदेव मैथुन के संकल्प रखने आदि से मैथुन संज्ञा प्रबल होती है। परिग्रह संज्ञा
लोभमोहनीय के उदय से मनुष्य की सग्रहवृत्ति जागृत होती है। परिग्रहसज्ञा के फेर में पड़कर मनुष्य इधर-उधर जो भी चीज़ देखता है, उसी पर मुग्ध हो जाता है, उसे स'गृहीत करने की इच्छा करता है, सदैव सतृष्गा रहता है । परिग्रह की बात सुनने, सुन्दर वस्तु देखने और बराबर संग्रह वृत्ति के चिन्तन प्रादि से परिग्रह सज्ञा बलवती होती है ।
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: २० :
विकथा-सूत्र
पडिक्कमामि चउहि विकहाहिइत्थी-कहाए भत्त-कहाए देस-कहाए राय-कहाए
शब्दार्थ पडिक्कमामि = प्रतिक्रमण करता हूँ, कहाए-कथा से चउहि = चारों
देस- देश की विकहाहिं = विकथानों से कहाए- कथा से इत्थी%खी की
राय-राजा की कहाए कथा से
कहाए कथा से भत्त= भोजन की
भावार्थ स्त्री-कथा, भक्त-कथा, देश-कथा, और राजकथा-इन चारों विकथानों के द्वारा जो भी अतिचार लगा हो, उस का प्रतिक्रमण करता हूँ।
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२३३
चिकया सूत्र
विवेचन - आध्यात्मिक अर्थात् सयम-जीवन को दूषित करने वाली विरुद्ध एवं भ्रष्ट कथा को विकथा कहते हैं । 'विरुद्धा विनष्टा वा कथा विकथा' अाचार्य हरिभद्र । साधक को विकथाओं से उसी प्रकार दूर रहना चाहिए जिस प्रकार काल-सर्पिणी से दूर रहा जाता है। आगमों में विक्रथाओं को लेकर बड़ी लम्बी चर्चा की गयी है और इन्हें संयम को नष्ट करने वाली बताया गया है। ___ मानव जीवन की यह बहुत बड़ी दुर्बलता है कि वह व्यर्थ की चर्चाओं में अधिक रस लेता है । हजारों लोग इसी तरह गप्पों के फेर में पड़कर अपने महान् व्यक्तित्व के निर्माण में पश्चात्पद रह जाते हैं, और फिर सदा के लिए पछताया करते हैं । साधना के उच्च जीवन की बात छोड़िए, साधारण गृहस्थ की जिन्दगी पर भी विकथाओं का बड़ा घातक प्रभाव पड़ता है । विकथा के रस में पड़ कर मानवता न इस लोक में यशस्विनी होती है और न परलोक में। व्यर्थ ही रागद्वेष की गंदगी से अन्तहृदय दूषित होकर उभयतो भ्रष्ट हो जाता है। .. आजकल चारों ओर से बेकारी की पुकार आ रही है। मनुष्य की कीमत पशुओं से भी नीचे गिर गयी है। हर जगह ठाली बैठा हुआ मानव, अपने अभ्युत्थान के सम्बन्ध में कुछ भी न सोच कर विकथा के द्वारा जीवन नष्ट कर रहा है। अाज जापान के इतने जहाज नष्ट हो गए, श्राज अमरीका का बेड़ा डूब गया, आज इतने हजार सैनिक खेत रहे. आज सिनेमा संसार में रेणुका का नम्बर पहला है, वह बहुत मधुर गाने वाली एवं श्रेष्ठ नाचने वाली है, अाज अमुक के यहाँ दावत खूब ही अच्छी हुई, इत्यादि बे सिर-पैर की अर्थहीन बातों में हमारे जनसमाज का अमूल्य समय बर्बाद हो रहा है। क्या गृहस्थ, क्या साधु, दोनों ही वर्गों को इस विकथा की महामारी से बचने की आवश्यकता है। स्त्री कथा
अमुक देश और अमुक जाति की अमुक स्त्री सुन्दर है अथवा कुरूप
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१२४
श्रमण-सूत्र
है । वह बहुत सुन्दर वस्त्र पहनती है । ग्रमुक का गाना कोयल के समान है । इत्यादि विचार अथवा वार्तालाप करना स्त्री कथा है । भक्त कथा
Crudente
भक्त का अर्थ भोजन है । अतः भोजन सम्बन्धी कथा, भक्त कथा कहलाती है । अमुक भोजन कहाँ, कब, कैसा बनाया जाता है ? लड्डू बढ़िया होते हैं या जलेबियाँ ? घी अधिक पुष्टिकर है या दूध ? इत्यादि भोजन की चर्चा में ही व्यस्त रहना, विकथा नहीं तो और क्या है ? देशकथा
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Co
देशों की विविध वेश भूषा, शृंगार-रचना, भोजन-पद्धति, गृहनिर्माण कला, रीति रिवाज आदि की प्रशंसा या निन्दा करना, देशकथा है ।
राजकथा
राजाओं की सेना, रानियाँ, युद्धकला, भोगविलास, वीरता श्रादि वर्णन करना, राजकथा कहलाती है । राजकथा हिंसा और भोगवासना के भावों को उत्तेजित करने वाली है, अतः सर्वथा हेय है ।
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ध्यान-सत्र पडिक्कमामि चउहि झाणेहि
अट्टणं झाणेणं रुदेणं झाणेणं धम्मेणं झाणेणं सुक्केणं झाणेणं ।
शब्दार्थ पडिकमामि-प्रतिक्रमण करता हूँ रुद्दण रौद्र चउहि =चारों
झाणेण= ध्यान से झाणेहि = ध्यानों से
धम्मेणधर्म श्रणात
माणेण ज्यान से झाणेण = ध्यान से
सुक्केण = शुक्र
झाणेण= ध्यान से
भावार्थे पातं ध्यान, रौद्र भ्यान, धर्म ध्यान और शुक्र-ध्यान-इन चारों ध्यानों से अर्थात् भात, रौद्र ध्यान के करने से तथा धर्म, शुक्र ध्यान के न करने से जो भी अतिचार नगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ।
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१३६
श्रमण-सूत्र
विवेचन निर्वात स्थान में स्थिर दीपशिखा के समान निश्चल और अन्य विषयों के संकल्प से रहित केवल एक ही विषय का धारावाही चिन्तन, ध्यान कहलाता है । अर्थात् अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थिर अध्यवसान एवं मन की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं । -
जीवस्स एगग्ग-जोगाभिणिवेसो झाणं । अंतोमुहुत्त तीव्रयोगपरिणामस्य अवस्थानमित्यर्थः ।'
___--प्राचार्य जिनदास गणी ध्यान, प्रशस्त और अप्रशस्त रूप से दो प्रकार का होता है। आर्त तथा रौद्र अप्रशस्त ध्यान हैं, अतः हेय त्याज्य हैं। धर्म तथा शुक्ल प्रशस्त ध्यान हैं, अतः उपादेय - आदरणीय हैं । अप्रशस्त ध्यान करना और प्रशस्त ध्यान न करना दोष है, इसी का प्रतिक्रमण प्रस्तुतसूत्र में किया गया है। आर्त ध्यान
अार्ति का अर्थ दुःख, कष्ट एवं पीड़ा होता है । श्राति के निमित्त से जो ध्यान होता है, वह आर्त ध्यान कहलाता है। अनिष्ट वस्तु के संयोग से, इष्ट वस्तु के वियोग से, रोग श्रादि के कारण से तथैव भोगों की लालसा से जो मन में एक प्रकार की विकलता-सी अर्थात् सतत कसकसी होती है, वह बात ध्यान है । रौद्र ध्यान
हिंसा आदि क र विचार रखने वाला व्यक्ति रुद्र कहलाता है। रुद्र व्यक्ति के मनोभावों को गैद्र ध्यान कहा जाता है। हिंसा करने, झूठ बोलने, चोरी करने और प्राप्त विषयभोगों की सरक्षण वृत्ति से ही करता का उद्भव होता है । अतएव हिंसा, असत्य -श्रादि का अर्थात् छेदनभेदन, मारण-ताड़न एवं मिथ्या भाषण, कर्कश भाषण श्रादि कठोर प्रवृत्तियों का सतत चिन्तन करना, रौद्र ध्यान कहलाता है
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ध्यान-सूत्र
१३७
धर्म ध्यान
श्रुत एवं चारित्र की साधना को धर्म कहते हैं । अस्तु, जो चिन्तन, मनन धर्म के सम्बन्ध में किया जाता है वह धम' ध्यान कहलाता है ।
और भी अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो सूत्रार्थ की साधना करना, महाव्रतों को धारण करना, बन्ध और मोक्ष के हेतुत्रों का विचार करना, पाँच इन्द्रियों के विषय से निवृत्त होना, प्राणिमात्र के प्रति दयाभाव रखना; इत्यादि शुभ लक्ष्यों पर मन का एकाग्र होना धर्म ध्यान होता है । शुक्ल ध्यान
कम मल को शोधन करने वाला तथा शुच - शोक को दूर करने वाला ध्यान, शुक्ल ध्यान होता है । 'शोधयत्यष्ट प्रकारकर्ममनं शुचं वा क्लमयतीति शुक्रम्'-प्राचार्य नमि । धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान का साधक है । शुक्ल ध्यान में पहुँच कर मन पूर्ण एकाग्र, स्थिर, निश्चल एवं निस्पन्द हो जाता है । साधक के सामने कितने ही क्यों न सुन्दर प्रलोभन हों, शरीर को तिल-तिल करने वाले कैसे ही क्यों न छेदन-भेदन हों, शुक्ल ध्यान के द्वारा स्थिर हुया अचंचल चित्त लेशमात्र भी चलायमान नहीं होता । शुक्ल ध्यान की उत्कृष्टता, केवलज्ञान उत्पन्न करने वाली है और केवल ज्ञान की प्राप्ति सदा के लिए जन्म-मरण के बन्धन से छुड़ाने वाली है।
श्रात ग्रादि चारों ही ध्यानों का स्वरूप संक्षेप-भाषा में स्मृतिस्थ रह सके, इसके लिए, हम यहाँ एक प्राचीन गाथा उद्धृत करते हैं । यह गाथा प्राचार्य जिनदास महत्तर ने आवश्यक चूणि के प्रतिक्रमणाध्ययन में इसी प्रसंग पर 'उक्तच' के रूप में उद्धृत की है । गाथा प्राकृत और संस्कृत भाषा में सम्मिश्रित है और बड़ी ही सुन्दर है। 'हिंसाणुरंजितं रौद्र,
अट्ट कामाणुरंजितं ।
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श्रमण-सूत्र
धम्माणुरंजियं धम्म,
सुक्कं झाणं निरंजणं॥ -हिंसा से अनुरञ्जित = रँगा हुआ ध्यान रौद्र और काम से अनुरञ्जित ध्यान आर्त कहलाता है । धर्म से अनुरञ्जित ध्यान धर्म ध्यान है
और शुक्ल ध्यान पूर्ण निरञ्जन होता है । ___ ध्यान का वर्णन बहुत विस्तृत है। यहाँ सक्षेपरुचि के कारण अधिक चर्चा में नहीं उतर सके हैं। इस सम्बन्ध में अधिक जिज्ञासा वाले सजन प्रवचन सारोद्धार, ध्यान शतक, तत्वार्थ-सूत्र, स्थानांग-सूत्र आदि का अवलोकन करने का कष्ट करें।
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काइआए
: २२ :
क्रिया-सूत्र
पडिक्कमामि पंचहि किरियाहि
हिरणियार
पाउसियाए पारितावणियार
पाणावाय किरिया
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शब्दार्थ
पडिक्कमामि = प्रतिक्रमण करता हूँ पाउसियाए
पंचहिं = पाँचों
किरियाहिं = क्रियाओं से
काइए = कायिकी से
अहिगरणियाए = श्राधिकरणिकी से
प्राद्वेषिकी से पारितावणियाए = पारितापनिकी से पाणाइवायकिरिया ए = प्राणातिपात
क्रिया से
भावार्थ
कायिकी, अधिकरणिकी, प्रादूषिकी, पारितापनिकी और प्राणाति
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१४०
श्रमण-सूत्र
पात-क्रिया-इन पाँचों क्रियाओं के द्वारा जो भी अतिचार लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ।
विवेचन कमबन्ध करने वाली चेष्टा, यहाँ क्रिया शब्द का.वाच्य श्रर्थ है । स्पष्ट भाषा में-'हिंसाप्रधान दुष्ट व्यापार-विशेष' को क्रिया कहते हैं । श्रागमसाहित्य में क्रियाओं का बहुत विस्तृत वर्णन है । विस्तार-पद्धति में क्रिया के २५ भेद माने गए हैं। परन्तु अन्य समस्त क्रियाओं का सूत्रोक्त पाँच क्रियाओं में ही अन्तर्भाव हो जाता है, अतः मूल क्रियाएँ पाँच ही मानी जाती हैं। कायिकी
काय के द्वारा होने वाली क्रिया, कायिकी कहलाती है । इसके तीन भेद माने गए हैं-मिथ्या दृष्टि और अविरत सम्यग-दृष्टि की क्रिया अविरत कायिकी होती है, प्रमत्त संयमी मुनि की क्रिया दुष्प्रणिहित कायिकी होती है, और अप्रमत संयमी की क्रिया सावद्ययोग से उपरत होने के कारण उपरत कायिकी होती है । प्राधिकरणिकी
जिसके द्वारा प्रात्मा नरक आदि दुर्गति का अधिकारी होता है, वह दुमंत्रादि का अनुठान-विशेष अथवा घातक शस्त्र प्रादि, अधिकरण कहलाता है । अधिकरण से निष्पन्न होने वाली क्रिया, प्राधिकरणिकी होती है। प्राद्वषिको ... प्रद्वष का अर्थ 'मत्सर, डाह, ईर्षा' होता है । यह अकुशल परिणाम कम-बन्ध का प्रबल कारण माना जाता है। अस्तु, जीव तथा अजीव किसी भी पदार्थ के प्रति द्वेषभाव रखना प्राषिकी क्रिया होती है। पारितापनिकी
ताडन श्रादि के द्वास दिया जाने वाला दुःख, परितापन कहलाता
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क्रिया सूत्र
१४१
है। परितापन से निष्पन्न होने वाली क्रिया, पारितापनिकी क्रिया कहलाती है। परितापन, अपने तथा दूसरे के शरीर पर किया जाता है, अतः स्व तथा पर के भेद से पारितापनिकी क्रिया दो प्रकार की होती है। प्राणातिपातिकी
प्राणों का अतिपात - विनाश, प्राणातिपात कहलाता है । प्राणातिपात से होने वाली क्रिया, प्राणातिपातिकी कहलाती है। इसके दो भेद हैं--क्रोधादि कषायवश होकर अपनी हिंसा करना, स्वप्राणातिपातिकी क्रिया है, और इसी प्रकार कषायवश दूसरे की हिंसा करना, पर-प्राणातिपातिकी है।
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काम-गुण-सत्र पडिक्कमामि पंचहि कामगुणेहिं
सदेणं
रूवणं
गंधेणं
रसेणं
फासेणं
शब्दार्थ पडिकमामि- प्रतिक्रमण करता हूँ रूवेणं = रूप से पंचहिं = पाँचों
गंधेणं = गन्ध से कामगुणेहिं = काम गुणों से रमेण - रस से सहेणं - शब्द से
फासे - स्पर्श से
भावार्थे शब्द, रूप, गन्ध, रस, और स्पर्श-इन पाँचों कामगुणों के द्वारा जो भी अतिचार लगा हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ।
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काम-गुण-सूत्र विवेचन
रस
काम का अर्थ है - ' विषयभोग' । काम के साधनों को रूप, आदि को –— कामगुण कहते हैं । कामगुण में गुण शब्द श्रेष्ठता का वाचक होकर केवल बन्धन हेतु वाचक है। काम के साधन शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श हैं, अतः ये सब काम गुणशब्दवाच्य हैं ।
१४३
'कामगुण' शब्द के पीछे रहे हुए भाव की स्पष्टता के लिए ज़रा इस पर और विचार करलें । श्राचार्य हरिभद्र आवश्यक सूत्र पर की ruit fशष्यहिता टीका में कहते हैं कि संसारी जीवों के द्वारा शब्द, रूप आदि की कामना की जाती है, अतः वे काम कहलाते है और गुण का अर्थ है रस्सी । अस्तु, शब्दादि काम ही गुण रूप = बन्धन रूप होने से गुण हैं । शब्दादि कामों से बढ़कर संसारी जीव के लिए और कौन-सा बन्धन होगा ? सब जीव इसी बन्धन में बँधे पड़े हैं । 'काम्यन्त इति कामाः शब्दादयस्त एव स्व-स्वरूपगुणबन्धहेतुत्वाद् गुणा इति ।'
आचार्य हरिभद्र की भावना को स्पष्ट करते हुए मलधारगच्छीय श्राचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि 'तेषां शब्दादिकामानां स्वकीयं यत्स्वरूपं तदेव गुण इव गुणो - दवरकस्तेन यः प्राणिनां बन्धः--२ -सङ्गस्तद् हेतुत्वाद् गुणाः उच्यन्ते प्राणिनां बन्धहेतुत्वेन रज्जव इति यावत् । ' - हरिभद्रीयावश्यक वृत्ति टीप्पणक मानव जीवन में चारों ओर बन्धन का जाल बिछा हुआ है । कोई विरला सावधान साधक ही इस जाल को पार करके अपने लक्ष्य स्थान पर पहुँच सकता है । कहीं मनोहर सुरीले शब्दों का जाल है तो कहीं कर्कश कठोर उत्तेजक शब्दों का जाल है । कहीं नयन- विमोहक सुन्दर रूप का जाल बिछा है तो कहीं वभित्स भयानक कुरूप का जाल तना हुआ है । कहीं अगर, तगर, चन्दन, केशर कस्तूरी आदि की दिल खुश करने वाली सुगन्ध का जाल लगा हुआ है तो कहीं गंदी मोरी, कीचड़, सड़ते हुए तालाब आदि की वमन करा देने वाली दुर्गन्ध का जाल फँसाने को तैयार खड़ा है । कहीं सुन्दर सुगन्धित मधुर मिष्ठान्न
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१४४
श्रमण-सूत्र
रस का जाल ललचा रहा है तो कहीं कटु, तिक्त, खट्टा, बकबका कुरस का जाल बेचैन किए हुए है। कहीं मृदुल सुकोमल स्पर्श का जाल शरीर में गुदगुदी पैदा कर रहा है तो कहीं कर्कश कठोर स्पर्श का जाल शरीर में कँपकँपी पैदा कर रहा है। किंबहुना, मनुष्य जिधर भी दृष्टि डालता है उधर ही कोई न कोई राग या द्वष का जाल आत्मा को फँसाने के लिए विद्यमान है।
आप विचार करते होंगे-"फिर तो मुक्ति का कोई मार्ग ही नहीं ?" क्यों नहीं, अवश्य है। सावधान रहने वाले साधक के लिए संसार में कोई भी जाल नहीं। कुछ भी सुन्दर असुन्दर कामगुण पाए, श्राप उस पर राग अथवा द्वष न कीजिए, तटस्थ रहिए। फिर कोई बन्धन नहीं, कोई जाल नहीं। वस्तु स्वयं बन्धक नहीं है। बन्धक है, मनुष्य का रागद्वेषाकुल मन । जब रागद्वेष करोगे ही नहीं, सर्वथा तटस्थ ही रहोगे, फिर बन्धन कैसा ? जाल कैसा ? । __प्रस्तुत सूत्र में यही उल्लेख है कि यदि सयम यात्रा करते हुए कहीं शब्दादि में मन भटक गया हो, तटस्थता को छोड़ कर रागद्वप युक्त हो गया हो, जाल में फँस गया हो तो उसे वहाँ से हटाकर पुनः सयम पथ पर अग्रसर करना चाहिए । यही काम गुण से आत्मा का प्रतिक्रमण है।
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: २४ :
महाव्रत-सन्न पडिकमामि पंचहिं महन्यएहि
सव्वाश्रो' पाणाइवायाश्रो वेरमणं, सव्यात्री मुसावायाओ बेरमणं सव्वाश्रो अदिन्नादाणाम्रो वेरमणं, सव्यानो मेहुणाम्रो वेरमणं, सव्याओ परिग्गहारो वेरमणं ।
शब्दार्थ पडिक्कमामि = प्रतिक्रमण करता हूँ सव्वाश्रो सब प्रकार के पंचहि = पाँचों
पाणा इवायाश्रो प्राणातिपात से महब्बएहि = महावतों से वेरमण - विरमण, निवृत्ति
१ श्राचार्य जिनदास महत्तर और हरिभद्र ने 'सव्वाओ' का उल्लेख नहीं किया है। परन्तु दशवकालिक श्रादि के महाव्रताधिकार में प्रायः सर्वत्र 'सव्वाश्रो' का उल्लेख मिलता है। स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिए सव्वाश्रो का प्रयोग औचित्यपूर्ण है। वैसे प्राणातिपातविरमण में भी अन्तर्जल्पाकार रूप में सर्व का भाव है ही।
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श्रमण-सूत्र सव्यायो सब प्रकार के सव्वायो - सब प्रकार के मुसावायायो= मृषावाद से मेहुणायो= मैथुन से वेरमण = विरमण
वेरमण = विरमण .. सव्वाअो = सब प्रकार के सव्वायो= सब प्रकार के अदिन्नादाणाश्रो= अदत्ता दान से परिग्गहायो = परिग्रह से वेरमण = विरमण
वेरमण = विरमण
भावार्थ सर्व प्राणातिपात विरमण = अहिंसा, सर्व-मृषावाद विरमण = सत्य, सर्व-अदत्ता दान विरमण = अस्तेय, सर्व-मैथुन विरमण = ब्रह्म चर्य, सर्व-परिग्रह विरमण = अपरिग्रह-इन पाँचों महावतों से अर्थात् पाँचों महाव्रतों को सम्यक रूप से पालन न करने से जो भी अतिचार लगा हो उसका प्रतिक्रमण करता हूँ।
विवेचन अहिंसा, सत्य, अस्तेय = चोरी का त्याग, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहये जब मर्यादित = सीमित रूप में ग्रहण किए जाते हैं, तब अणुव्रत कहलाते हैं । अणुव्रत का अधिकारी गृहस्थ होता है; क्योंकि गृहस्थ-अवस्था में रहने के कारण साधक, अहिंसा आदि की साधना के पथ पर पूर्णतया नहीं चल सकता, हिंसा आदि का सर्वथा त्याग नहीं कर सकता । सातः वह अहिंसा आदि व्रतों की उपासना अपनी सक्षिप्त सीमा के अन्दर रहकर ही करता है। किन्तु साधु का जीवन गृहस्थ के उत्तरदायित्व से सर्वथा मुक्त होता है, अतः वह पूर्ण आत्मबल के द्वारा सयम-पथ पर अग्रसर होता है और अहिंसा आदि व्रतों की नवकोटि से सदा सर्वथा पूर्ण साधना करता है, फलतः साधु के अहिंसा आदि व्रत महाव्रत कहलाते हैं । ___ योगदर्शनकार वैदिक ऋषि पतञ्जलि ने भी महाव्रत की व्याख्या सुन्दर ढंग से की है। बोगदर्शन के दूसरे पाद का ३१ वाँ सूत्र हैजाति देशकालसमयाऽनवच्छिन्नाः सार्वभौमा महानतम् ।' सूत्र का
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महावन-सूत्र
श्रासय यह है कि -- 1 जाति, देश, काल और समय = प्राचार अर्थात् कुलोचित कर्तव्य के बन्धन से रहित सार्वभौम = सर्व विषयक महाव्रत होते हैं । मल्य हिंसा के सिवा अन्य हिंसा न करना, मच्छी मार की जात्यवच्छिन्ना अहिंसा है। अमुक तीर्थ यादि पर हिंसा नहीं करना देशावच्छिन्ना अहिंसा है। पूर्णमासी आदि पर्व के दिन हिंसा न करना कालावच्छिन्ना अहिंसा है । क्षत्रियों की युद्ध के सिवा अन्य हिंसा न करने की प्रतिज्ञा समयावच्छिन्ना अहिंसा है । अहिंसा के समान ही सत्य आदि के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए। जो अहिंसा प्रादि व्रत उपयुक्त जाति, देश काल, और समय की सीमा से सर्वथा मुक्त, असीम,निरवच्छिन्न तथा सर्वरूपेण हों वे महाव्रत पदवाच्य होते हैं ।
महाव्रत, तीन करा और तीन योग से ग्रहण किए जाते हैं । किसी भी प्रकार की हिंसा न स्वयं करना, न दूसरे से कसना, न करने वालों का अनुमोदन करना, मन से, वचन से और काय से—यह अहिंसा महाव्र । है । इसी प्रकार अंमत्य, स्लेव = चोरी, मैथुन = व्यभिचार, परिग्रह = धन धान्य आदि के त्याग के सम्बन्ध में भी नवकोटि की प्रतिज्ञा का भाव समझ लेना चाहिए। ___ पाँच महाव्रत साधु के पाँच मूल गुण कहे जाते हैं। इनके अतिरिक्त शेष प्राचार उत्तर गुण कहलाता है। उत्तर गुणों का आदर्श मूल गुणों की रक्षा में ही है, स्वयं स्वतन्त्र उनका कोई प्रयोजन नहीं ।
-जैन-धर्म में जात्यवच्छिन्ना अहिंसा ग्रादि का कोई महत्व नहीं है। जैन गृहस्थ की सीमित अहिंसा भी जाति, देश, तीर्थ अादि के बन्धन से रहित होती है । गृहस्थ की हिंसा विरोधी से आत्मरक्षा या किसी अन्य श्रावश्यक सामाजिक उद्देश्य के लिए ही खुली रहती है । जाति, कुल, तीर्थ यात्रा प्रादि के नाम पर होने वाली हिंसा जैन गृहस्थ के लिए त्याज्य है। गृहस्थ का अणुव्रत भी जाति, देश, कुल, तीर्थयात्रादि से अवच्छिन्न नहीं होता। वह इन सबसे ऊपर होता है ।
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१४८
श्रमण-सूत्र
प्रस्तुत सूत्र में पाँच महाव्रतों से प्रतिक्रमण नहीं किया गया है, प्रतिक्रमण किया गया है महाव्रतों में रागद्वेषादि के औदयिक भाव के कारण प्रमादवश लगे हुए दोषों से । यह ध्यान में रखिए, यहाँ हेत्वर्थक तृतीया है, पंचमी नहीं। हेत्वर्थक तृतीया का सम्बन्ध अतिचारों से किया जाता है और फिर अतिचारों का पडिक्कमामि एवं तस्स मिच्छा मि दुकडं से सम्बन्ध होता है। विशेष ज्ञातव्य
प्रस्तुत महाव्रत-सूत्र के पश्चात् प्रायः सभी प्राप्त प्रतियों और आवश्यक सूत्र के टीका-ग्रन्थों में समिति सूत्र का उल्लेख मिलता है। परन्तु श्राचार्य जिनदास महत्तर ने 'एस्थ के वि एणं पि पठन्ति' अर्थात् यहाँ कुछ श्राचार्य दूसरे पाठ भी पढ़ते हैं- इस प्रकार प्रकारान्तर के रूप में पाँच श्राश्रव द्वार, पाँच अनाव= संवर द्वार, और पाँच निर्जरा स्थान के प्रतिक्रमण का भी उल्लेख किया है। पाठकों की जानकारी के लिए हम उन सब पाठों को यहाँ उद्धृत कर रहे हैं___ "पडिकमामि पंचहिं पासवदारेहि, मिच्छत्त अविरति पमाद कसाय जोगेहिं ।
पंचहिँ श्रणासवदारेहि, सम्मत्त विरति अपमाद अकसायित्त अजोगित्तहिं।
पंचहिं निजर-ठाणेहि, नाण दंसण चरित्त तब संजमेहिं ।"
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समिति-सूत्र पडिकमामि पंचहि ममिईहिं
इरियासमिईए भासासमिईए एसणासमिईए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिईए उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाण-परिद्वावणियासमिईए।
शब्दार्थ पडिकमामि = प्रतिक्रमण करता हूँ समिईए-समिति से पंचहिं = पाँचों
एसणा = एषणा समिईहिं समितियों से समिईए समिति से इरिया ईर्या
श्रायाण - अादान समिईए = समिति से
भंडमत्त-भाण्डमात्र भासा-भाषा
निक्खेवणा = निक्षपणा
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१५०
श्रमग सूत्र
समिईए = समिति से
जन = जल्ल, शरीर का मल उच्चार = उच्चार, पुरीष
सिंघाण = नाक का मल पासवण = प्रस्रवण, मूत्र परिटटावणिया = इनको परखने की खेल :- श्लप्म, कफ
समिईए - समिति से
भावाथ ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, श्रादान-भाण्डमात्रनिह पणा समिति, उच्चार-प्रस्रवण-लम-जल्ल-सिंघाण-पारिष्टापनिका समिति-उक्र पाँचों समितियों से अर्थात् समितियों का सम्यक पालन न करने से जो भी अतिचार लगा हो उसका प्रतिक्रमण करता हूँ।
विवेचन विवेक युक्त होकर प्रवृत्ति करना, समिति है। 'सम्-एकीभावेन इतिः प्रवृत्तिः समितिः, शोभनैकाग्रपरिणामचेष्टेत्यर्थः ।' प्राचार्य नमि की उपयुक्त समिति की व्युत्पत्ति ही समिति के वास्तविक स्वरूप को प्रकट कर देती है। हिन्दी भाषा में उक्त संस्कृत व्युत्पत्ति का श्राशय यह है कि-प्राणातिपात अादि पापों से निवृत्त रहने के लिए प्रशस्त एकाग्रता-पूर्वक की जाने वाली यागमोक्त सम्यक् प्रवृत्ति, समिति कहलाती है।
समिति और गुप्ति में यह अन्तर है कि गुप्ति, प्रवृत्ति एवं निवृत्ति उभय रूप है। और समिति केवल प्रवृत्ति रूप ही है। अतएव समिति वाला नियमतः गुप्ति वाला होता है, क्योंकि समिति भी सत् प्रवृत्ति रूप अंशतः गुप्ति ही है । परन्तु जो गुप्ति वाला है, वह विकल्पेन समिति बाला होता है, अर्थात् समिति वाला हो भी, नहीं भी हो । क्योंकि सत्प्रवृत्तिरूप गुप्ति के समय समिति पायी जाती है, पर केवल निवृत्ति रूप गुप्ति के समय समिति नहीं पायी जाती । 'प्रवीचाराप्रवीचाररूपा गुप्तयः । समितयः प्रवीचाररूपा एव ।-श्राचार्य हरिभद्र ईया समिति
युग-परिमाण भूमि को एकाग्र चित्त से देखते हुए, जीवों को बचाते
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समिति सूत्र
हुए यतनापूर्वक गमनागमन करना, ईर्या समिति है। ईया का अर्थ गमन होता है, अतः गमन विषयक सत्प्रवृत्ति, ईर्या समिति होती है। ईर्यायां समितिः, ईर्या-समितिस्तया । ईर्याविषये एकीभावेन चेष्टनमित्यर्थः'
-प्राचार्य हरिभद्र । भाषा समिति
श्रावश्यकता होने पर भाषा के दोषों का परिहार करते हुए यतनापूर्वक भाषण में प्रवृत्ति करना, फलतः हित, मित, सत्य, एवं स्पष्ट वचन कहना, भाषा समिति कहलाती है । 'भाषा समिति म हितमितासंदिग्धार्थ भाषणम् ।'-याचार्य हरिभद्र । एषणा समिति
गोचरी के ४२ दोषों से रहित शुद्ध आहार पानी तथा वस्त्र पात्र आदि उपधि ग्रहण करना, एपणा समिति है। आदानभाण्डमात्र निक्षपणा समिति
वस्त्र, पात्र, पुस्तक अादि भाण्डमात्र उपकरणों को उपयोग पूर्वक श्रादान = ग्रहण करना एवं जीवरहित प्रमार्जित भूमि पर निक्षेपण = रखना, अादान भाण्डमात्र निक्षेपणा समिति होती है। 'श्रादानभाण्डमात्र निक्षेपणा समिति म भाण्डमात्रे श्रादान-निक्षेपविषया समितिः सुन्दर चेष्टेत्यर्थः । ---ग्राचार्य हरिभद्र । पारिष्ठापनिका समिति ___मल मूत्र आदि या भुक्तशेष भोजन तथा भग्नपात्र आदि परटने योग्य वस्तु जीवनहित एकान्त स्थण्डिलभूमि में परटना, जीवादि उत्पन्न न हो-एतदर्थं उचित यतना कर देना, पारिष्ठानिका समिति होती है ।
प्राचार्य हरिभद्र, श्रावश्यक सूत्र की शिष्यहिता टीका में पारिष्ठापनिका समिति का निर्वचन करते हुए कहते हैं-'परितः-सर्वैः प्रकारैः स्थापनम्-अपुनर्ग्रहणतया न्यासः, तेन नियुत्ता पारिष्ठापनिकी ।' इसका भावार्थ यह है कि सब प्रकार से वस्तुओं को डाल देना, डाल देने
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१५२
श्रमण-सूत्र
के बाद पुनः ग्रहण न करना, पारिठापनिका समिति है । श्रादान-निक्षेप समिति में भी वस्तु का निक्षेप है और पारिष्ठापनिका में भी स्थापना शब्देन निक्षेप ही है । भेद इतना ही है कि आदान-निक्षेप समिति में सदा के लिए वस्तु का त्याग नहीं किया जाता, केवल उचित स्थान में रखा जाता है । परन्तु पारिष्ठापनिका में सदा के लिए त्याग कर दिया जाता है।
पारिष्ठापनिका समिति के पाठ में जल्ल के आगे मल शब्द का भी कुछ लोग प्रयोग करते हैं, वह अयुक्त है । जल्ल का अर्थ ही मल है, फिर व्यर्थ ही द्विरुक्ति क्यों की जाय ? प्राचार्य हरिभद्र आदि किसी भी प्राचीन प्राचार्य ने मल शब्द का उल्लेख नहीं किया है। पूज्यश्री
आत्मारामजी महाराज ने मूल पाठ में तो मल का प्रयोग नहीं किया है, परन्तु अर्थ में 'जल्ल-मल्ल' पाठ बताकर क्रमशः जल, मल अर्थ किया है । 'मल' के लिए 'मल्ल' शब्द किस भाषा में है ? कम से कम हम तो नहीं समझ सके । मल्ल का अर्थ पहलवान तो होता है। और जल्ल का जल अर्थ भी विचित्र ही है!
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जीवनिकाय-सूत्र पडिक्कमामि छहिं जीवनिकाएहिं
पुढविकाएणं आउकाएणं तेउकाएणं वाउकाएणं वरणस्सइकाएणं तसकाएणं।
शब्दार्थ पडिक्कमामि= प्रतिक्रमण करता हूँ तेउकाएण- तेजः काय से छहिं = छहों
वाउकाएण= वायुकाय से जीवनिकाएहिं जीवनिकायों से । वणस्सइ%घनस्पति पुदवि कारण पृथिवीकाय से काएण= काय से आउकारण = अप काय से तसकाएण=सकान से
भावार्थ पृथिवी, पाप-जल, तेजः = अग्नि, वायु, वेनस्पति, और बस -
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१५४
श्रमण-सूत्र द्वीन्द्रिय श्रादि-इन छहों प्रकार के जीव निकायों से अर्थात् इन जीवों की हिंसा करने से जो भी अतिचार लगा हो, उस का प्रति क्रमण करता हूँ।
विवेचन 'जीवनिकाय' शब्द, जीव और निकाय-इन दो शब्दों से बना है । जीव का अर्थ है-चैतन्य = अात्मा ओर निकाय का अर्थ है-राशि, अर्थात् समूह । जीवों की गशि को जीवनिकाय कहते हैं । पृथिवी, जल तेज, वायु, वनस्पति और त्रस-ये छह जीव निकाय हैं। इन्हें छह काय भी कहते हैं । शरीर नाम कम से होने वाली शरीर-रचना एवं वृद्धि को काय कहते हैं । 'चीयते इति कायः ।।
जिन जीवों का शरीर पृथिवी रूप है, वे पृथिवीकाय कहलाते हैं । जिन जीवों का शरीर जलरूप है, वे अकाय कहलाते हैं । जिन जीवों का शरीर अग्निरूप है, वे तेजस्काय कहलाते हैं । जिन जीवों का शरीर वायुरूप है, वे वायुकाय कहलाते हैं । जिन जीवों का शरीर वनस्पतिरूप है, वे वनस्पतिकाय कहलाते हैं । ये पाँच, स्थावरपद वाच्य हैं । इन को केवल स्पर्शन इन्द्रिय होती है। त्रसनामकम के उदय से गतिशील शरीर को धारण करने वाले द्वीन्द्रिय = कीडे श्रादि, त्रीन्द्रिय = यूका खटमल श्रादि, चतुरिन्द्रिय = मक्खी मच्छर श्रादि, और पंचेन्द्रिय = पशु पक्षी मानव आदि जीव सकाय कहलाते हैं। ____संसार में चारों ओर मत्स्यन्याय चल रहा है। छोटे जीवों की हिंसा, बड़े जीवों के द्वारा की जारही है । कहीं भी जीव का जीवन सुरक्षित नहीं है । नाना प्रकार के दुःस'कल्प में फँसकर प्राणी जीव-हिंसा में लगा हुआ है । प्राचारांग सूत्र के प्रथम श्रुत स्कंध और प्रथम अध्ययन में जीवहिंसा के छह कारण बतलाए हैं (१) जीवन निर्वाह के लिए, (२) लोगों से वीरता प्रादि की प्रशंसा पाने के लिए, (३) सम्मान पाने लिए; (४) अन्नपान आदि का सत्कार पाने के लिए (५। धर्म भ्रान्ति के कारण
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जीवनिकाय सूत्र
१५५
जन्ममरण से मुक्ति पाने के लिए (६) आरोग्य, सुख तथा शान्ति पाने
के लिए ।
जैन मुनि के लिए सर्वथा जीवहिंसा का त्याग होता है । वह किसी जीव को किसी भी कारण से पीड़ा नहीं देता । एक बात और भी है । दूसरे धर्म, हिंसा के केवल स्थूल रूप तक ही पहुँचे हैं, जब कि जैनधर्म का मुनि धर्म हिंसा की सूक्ष्म से सूक्ष्म तह तक पहुँचा है । पृथिवी, जल जैसे सूक्ष्म जीवों के प्रति भी वह उसी प्रकार सदय रहता है, जिस प्रकार संसारी जीव मित्र स्वजनों के प्रति । इस लिए मुनि को छह काय का पीहर कहा जाता है ।
प्रस्तुत सूत्र में लहों प्रकार के जीवसमूह को किसी भी प्रकार की प्रमाद वश पीडा पहुँचायी हो, उसका प्रतिक्रमण किया गया है। हिंसा के प्रति कितनी अधिक जागरूकता है !
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लेश्या -सूत्र पडिक्कमामि छहिं लेसाहिकिएह-लेसाए, नोल-लेसाए, काउलेसाए, तेउलेसाए, पम्हलेसाए, सुक्कलेसाए।
शब्दार्थ
पडिकमामि = प्रतिक्रमण करता हूँ काउलेसाए = कापोत लेश्या से छहिं = छहों
तेउलेसाए - तेजोलेश्या से लेसाहि = लेश्याओं से पम्हलेसाए-पालेश्या से किरहलेसाए = कृष्ण लेश्या से सुक्कलेसाए-शुक्ल लेश्या से नील लेसाए = नील लेश्या से
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लेश्या सूत्र
भावार्थ
-कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, - इन छहों लेश्याओं के द्वारा अर्थात् प्रथम तीन
और शुक्ल लेश्या
-
धर्म - लेश्याओं का श्राचरण करने से और बाद की तीन धर्म- लेश्याओं का श्राचरण न करने से जो भी प्रतिचार लगा हो उसका प्रतिक्रमण करता हूँ |
१५७
विवेचन
लेश्या' का संक्षिप्त अर्थ है - 'मनोवृत्ति या विचार तरंग' । उत्तराध्ययन सूत्र, भगवती सूत्र, कर्म ग्रन्थ आदि में लेश्या के सम्बन्ध में काफी विस्तृत एवं सूक्ष्म रहस्यपूर्ण चर्चा की गई है । परन्तु यहाँ इतनी सूक्ष्मता में उतरने का न तो प्रसंग ही है, और न हमारे पास समय ही । हाँ जानकारी के नाते कुछ पंक्तियाँ अवश्य लिखी जा रही हैं, जो जिज्ञासापूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं तो कुछ उपादेय अवश्य होंगी ।
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१ 'लेश्या' की व्याख्या करते हुए आचार्य जिनदास महत्तर कहते हैं कि आत्मा के जिन शुभाशुभ परिणामों के द्वारा शुभाशुभ कर्म का सश्लेष होता है, वे परिणाम लेश्या कहलाते हैं । मन, वचन और कायरूप योग के परिणाम लेश्या पदवाच्य है ।
'लिश संश्लेषणे' संलिप्यते श्रात्मा तैस्तैः परिणामान्तरैः । यथा लषेण वर्ण सम्बन्धो भवति एवं लेश्याभिरात्मनि कर्माणि संश्लिष्यंते । योग - परिणामो लेश्या | जम्हा अयोगि केवली अलेस्सो ।' श्रावश्यक चूर्णि श्री जिनदास महत्तर के उल्लेखानुसार धर्म लेश्या भी शुभ कर्म का बन्धहेतु है । फिर भी उसे जो उपादेय कहा है, उसका कारणं यह है कि आत्मा की अशुभ, शुभ और शुद्ध तीन परिणतियाँ होती हैं । शुद्ध सर्वोपरि श्रेष्ठ परिणति है । परन्तु जब तक शुद्ध में नहीं पहुँचा जाता है, जब तक पूर्ण रूप से योगों का निरोध नहीं हो पाता है, तब तक साधक के लिए अशुभ योग से हटकर शुभ योग में परिणति करना, ही श्रेयस्कर है ।
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१५८
श्रमण-सूत्र
कृष्ण लेश्या
यह मनोवृत्ति सबसे जघन्य है । कृष्णलेश्या वाले के विचार अतीव तुद्र, कर, कठोर एवं निर्दय होते हैं । अहिंसा, सत्य आदि से इसे घृणा होती है । गुण और दोष का विचार किए बिना ही सहसा कार्य में प्रवृत्त होजाता है । लोक और परलोक दोनों के ही बुरे परिणामों से नहीं डरता । वह सर्वथा अजितेन्द्रिय, भोगविलासी प्राणी होता है। वह अपने सुख से मतलब रखता है । दूसरों के जीवन का कुछ भी होउसे कोई मतलब नहीं। नील लेश्या
यह मनोवृत्ति पहली की अपेक्षा कुछ ठीक है, परन्तु उपादेय यह भी नहीं । यह अात्मा ईपालु, असहिष्णु, मायावी, निर्लज, मदाचारशून्य, रसलोलुप होता है। अपनी सुख-सुविधा में जरा भी कमी नहीं होने देता । परन्तु जिन प्राणियों के द्वारा सुख मिलता है, उनकी भी अजपोषण न्याय के अनुसार कुल मार संभाल कर लेता है । कापोत ले त्या
यह मनोवृत्ति भी दूषित है । यह व्यक्ति विचारने, बोलने और कार्य करने में वक्र होता है। अपने दोनों को ढंकता है । कठोर भाषी होता है । परन्तु अपनी सुन्य सुविधा में सहायक होने वाले प्राणियों के प्रति करुणावश नहीं, किन्तु स्वार्थवश सरक्षण का भाव रखता है । तेजोलेश्या
यह मनोवृत्ति पवित्र है। इसके होने पर मनुष्य नत्र, विचारशील, दयालु एवं धर्म में अभिरुचि रखने वाला होता है। अपनी सुखसुविधाओं को कम महत्त्व देता है और दूसरों के प्रति अधिक उदारभावना रखता है। पद्मलेश्या
झलेश्या वाले मनुष्य का जीवन कमल के समान दूसरों को
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लेश्या- सूत्र
१५६
सुगन्ध देने वाला होता है । इसका मन शान्त, निश्चल एवं अशुभ प्रवृत्तियों को रोकने वाला होता है । पाप से भय खाता है, मोह और शौक पर विजय प्राप्त करता है । क्रोध, मान यादि का अधिकांश में क्षीण एवं शान्त हो जाते हैं। वह मितभाषी, सौम्य, जितेन्द्रिय होता है । शुक्ल लेश्या
यह मनोवृत्ति सबसे अधिक विशुद्ध होने के कारण शुक्त कहलाती है । यह अपने सुखों के प्रति लापरवाह होता है । शरीर निर्वाहमात्र हार ग्रहण करता है । किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देता । श्रासक्तिरहित होकर सतत समभाव रखता है । राग-द्व ेष की परिणति हटाकर वीतराग भाव धारण करता है ।
प्रथम की तीन वृत्तियाँ व्याज्य हैं और बाद की तीन वृत्तियाँ उपादेय हैं । अन्तिम शुक् लेश्या के विना ग्रात्मविकाश की पूर्णता का होना सम्भव है । जीवन-शुद्धि के पथ में धर्म लेश्या का आचरण किया हो और धर्मलेश्याओं का श्राचरण न किया हो तो प्रस्तुत-सूत्र के द्वारा उसका प्रतिक्रमण किया जाता है ।
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: २८ :
भयादि-सूत्र
पडिक्कमामि
सत्तहिं भयट्ठाणेहिं, अहिं मयट्ठारोहिं, नवहिं बंभचेरगुत्तीहिं, दसविहे समणधम्मे,
एक्कारसहिं उवासग-पडिमाहिं, बारसहिं भिक्खु-पडिमाहिं, तेरसहिं किरियाठाणेहिं, चउदसहिं भूयगामेहिं, पन्नरसहिं पर माहम्मिएहिं सोलसहि गाहासोलस एहिं, सत्तरसविहे असंनमे, अट्ठारसविहे बंभे, एगूणवीसाए नायज्झय रोहिं, वीसा समाहि ठाणेहिं,
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इक्कवीसाए सब लेहिं, बावीसाए परीसहहिं, तेवीसाए सूयगडज्मय रोहिं, चउवीसाए देवेहिं, पणवीसाए भावगाहिं, छव्वीसाए दसाकष्पववहाराणं उद्देसणकालेहिं, सत्तावीसाए अणगारगुणेहिं, अट्ठावीसा आयारप्पकप्पेर्हि, एगूण
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भयादि-सूत्र
तीसाए पावसुयप्पसंगेहि, तीसार महामोहणीयठाणेहिं,
एगतीसाए सिद्धाइगुणेहि, बत्तीसाए जोगसंगहहिं, तेत्तीसाए अासायणाहिं,:
(१) अरिहंताणं आसायणाए, (२) सिद्धाणं आसायणाए, (३) आयरियाणं आसायणाए, (४) उवज्झायाणं आसायणाए, (५) साहूणं
आसायणाए, (६) साहुणीणं अासायणाए, (७) सावयाणं आसायणाए, (८) सावियाणं
आसायणाए, (६) देवाणं अासायणाए, (१०) देवीणं अासायणा, (११) इहलोगस्स आसायणाए, (१२) परलोगस्स आसायणाए, (१३) केवलि-पनत्तस्स धम्मस्स आसायणाए, (१४) सदेव-मणुआऽसुरस्स लोगस्स आसायणाए, (१५) सधपाण-भूय-जीव-सत्ताणं आसायणाए, (१६) कालस्स प्रासायणाए, (१७) सुअस्स अासायणाए, (१८) सुअदेवयाए आसायणाए, (१६) वायणायरियस्स अासायणाए,
(२०) जं वाइद्धं, (२१) वच्चामेलियं, (२२) हीणक्खरं (२३) अच्चक्खरं (२४) पयहीणं (२५) विणयहीणं, (२६) जोग-हीणं,
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श्रमण सूत्र
(२७) घोसहीणं, (२८) सुठ्ठ दिन', (२६) दुठ्ठ पडिच्छियं, (३०) अकाले को सज्माओ, (३१) काले न कत्रो समायो, (३२) असज्झाइए. सज्माइयं, (३३) सज्झाइए. न सज्झाइयं,-- तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।
शब्दार्थ पडिकमामि - प्रतिक्रमण करता हूँ किरिया-क्रिया के सत्तहिं = सात
ठाणेहि-स्थानों से भयठाणेहि भय के स्थानों से चउद्दसहि-चौदह श्रहहिं = आठ
भूयगामेहिं-जीव-समूहों से मयहाणेहिं = मद के स्थानों से पन्नरसहि-पन्दरह नवर्हि-नौ
परमाहम्मिएहिं--परमाधार्मिकों से बंभचेर- महाचर्य की
सोलसहिं-सोलह गुत्तीहिं—गुप्तियों से
गाहा सोलसएहिं.--गाथा षोडशकों दसविहे-दश प्रकार के समण--साधु के
सत्तरसविहे-सत्तरह प्रकार के धम्मे----धर्म में (लगे दोषों से) असजमे-असंयम में एक्कारसहिं-ग्यारह
अट्ठारसविहे-अठारह प्रकार के उवासग--श्रावक की
श्रबंभे- अब्रह्मचर्य में पडिमाहिं--प्रतिमाओं से एगूणवीसाए.-उन्नीस बारसहिं-बारह
नायज्झयणेहिं-ज्ञाता सूत्र के भिक्खु-भिन्तु की
अध्ययनों से पडिमाहिं--प्रतिमाओं से वीसाए = बीस तेरसहि-तेरह
असमाहि =असमाधि के
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भयादि-सूत्र
ठाणेहिं स्थानों से इक्कवीसाए - इक्कीस सबलेहि = शबल दोषों से बावीसाए = बाईस 'परीसहेहि = परीषहों से तेवीसाए = तेईस सूयगड = सूत्रकृताङ्ग के ज्झयणेहि = अध्ययनों से चउबीसाए -चौबीस देवेहिं = देवों से पणवीसाए = पच्चीस भावणाहि = भावनाओं से छन्वीसाए = छब्बीस दसा - दशाश्रुतस्कन्ध-सूत्र काप-बृहत्कल्प-सूत्र ववहासण व्यवहार-सूत्र के उद्दसणकालेहि-उद्देशनकालों से सत्तावीसाए = सत्ताईस अणगार = साधु के गुणेहिं = गुणों से अष्टावीसाए = अट्ठाईस प्राचार-पाचार पकापेहि = प्रकल्पों से एगूणतीसाए = उनतीस पावसुय= पाप श्रुत के प्पस गेहि = प्रसंगों से तीसाए = तीस
महामोहणीय महामोहनीय कर्म के ठाणेहिं = स्थानों से एगतीसाए = इकतीस सिद्धाइ सिद्ध के आदि गुणेहिं = गुणों से बत्तीसाए -बत्तीस जोगसंगहेहिं = योग संग्रहों से तेत्तीसाए - तेतीस यासायणाहि = अाशातनाश्रो से अरिहंताण = अरिहंतों की श्रासायणाए- अाशातना से सिद्धाण = सिंहो की यासायणाए -पाशातना से पायरियाण-आचार्यों की ग्रासायणाए-आशातना से उवभायाण उपाध्यायों की अासायणाए-अाशातना से साहूण साधुओं की प्रासायणाए-अाशातना से साहुणीण साध्वियो' की श्रासायणाए-आशातना से सावयाण-श्रावकों की अासायणाए-अाशातना से सावियाण-श्राविकाओं की श्रासायणाए-आशातना से देवाण-देवो की यासायणाए-अाशातना से
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१६४
श्रमण-सूत्र
देवीण = देवियों की श्रासायगाए =अाशातना से इहलोगस्स = इस लोक की श्रासायणाए%ाशातना से परलोगस्स = परलोक की श्रासायणाए = श्राशातना से केवलि =सर्वज्ञ द्वारा पन्नत्तस्स-प्ररूपित धम्मस्स = धर्म की श्रासायणाए = पाशातना से सदेव = देव सहित मणुा -मनुष्य सहित ऽसुरस्स असुर सहित लोगस्स = समग्र लोक की श्रासायणाए = अाशातना से सव्व = सब पाण = प्राणी भूत-भूत जीव-जीव सत्ताण = सत्त्वों की श्रासायणाए-आशातना से कालस्स = काल की श्रासायणाए- श्राशातना से सुयस्स = श्रुत की अासायणाए-आशातना से सुयदेवयाए - श्रुत देवता की श्रासायणाए- अाशातना से
वायणायरियस्स = वाचनाचार्य की श्रासायणाए-अाशातना से
(जो दोष लगा हो) जं और जो (भागम पढ़ते हुए) वाइद्ध-पाठ आगे पीछे बोला हो बच्चामेलियं-शून्य मन से कई बार
बोला हो अथवा अन्य सूत्र का पाठ अन्य
सूत्र में मिला दिया हो हीणक्खरं = अक्षर छोड़ दिए हो' अञ्चक्खरं = अतर बढ़ा दिए हों पयहीण = पद छोड़ दिए हो । विणयहीण = विनय न किया हो जोगहीण= योग से हीन पढ़ा हो घोसहीण= घोष से रहित पढ़ा हो सुटठु = योग्यता से अधिक पाठ दिन्नं%3Dशिष्यों को दिया हो टुट्ठ-बुरे भाव से पडिच्छियं = ग्रहण किया हो श्रकाले= अकाल में सज्झायो स्वाध्याय कयो-किया हो काले = काल में सज्झायो-स्वाध्याय न कयोन किया हो असज्झाइए - अस्वाभ्यायिक में सज्झाइयं-स्वाध्याय की हो
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भयादि-सूत्र सज्झाइए स्वाध्यायिक में
दुक्कडं = पाप न= नहीं
मि= मेरे लिए सज्झाइयं = स्वाध्याय की हो मिच्छा= मिथ्या हो तस्स- उसका
भावार्थ प्रतिक्रमण करता हूँ [ सात भय से लेकर तेतीस अाशातनाओं तक जो अतिचार लगा हो उसका] सात भय के स्थानों = कारणों से, पाठ मद के स्थानों से, नौ ब्रह्मचर्य की गुप्तियों से = उनका सम्यक पालन न करने से, दविध समा आदि श्रमण-धर्म की विराधना से
ग्यारह उपासक = श्रावक की प्रतिमा प्रतिज्ञापोंसे अर्थात् उनकी अश्रद्धा तथा विपरीत प्ररूपणा से, बारह भिन्तु की प्रतिमानों से उनकी श्रद्धा प्ररूपणा तथा प्रासेवना अच्छी तरह न करने से, तेरह क्रिया के स्थानों से अर्थात् क्रियाओं के करने से, चौदह जीवों के समूह से अर्थात् उनकी हिंसा से, पंद्रह परमाधार्मिकों से अर्थात् उन जैसा भाव या पाचरण करने से, सूत्रकृताङ्ग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के गाथा अध्ययन सहित सोलह अध्ययनों से अर्थात् तदनुसार श्राचरण न करने से, सत्तरह प्रकार के असंयम में रहने से, अट्ठारह प्रकार के अब्रह्मचर्य में वर्तने से, ज्ञातासूत्र के उन्नीस अध्ययनों से अर्थात् तदनुसार संयम में न रहने से, बीस असमाधि के स्थानों से,--
इक्कीस शवलों से, बाईस परीषहों से अर्थात् उनको सहन न करने से, सूत्र कृताङ्ग सूत्र के तेईस अध्ययनों से अर्थात् तदनुसार श्राचरण न करने से, चौबीस देवों से अर्थात् उनकी अवहेलना करने से, पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं से अर्थात् उनका आचरण न करने से, दशा श्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार-उक्त सूत्रत्रयी के छब्बीस उद्देशनकालों से अर्थात् तदनुकूल आचरण न करने से, सत्ताईस साधु के गुणों से अर्थात् उनको पूर्णतः धारण न करने से, प्राचार प्रकल्पाचा
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१५६
श्रमण-सूत्र
रांग तथा निशीथ सूत्र के अट्ठाईस अध्ययनों से अर्थात् तदनुसार आचरण न करने से, उनतीस पाप श्रुत के प्रसंगों से अर्थात मंत्र श्रादि पापश्रुतो का प्रयोग करने से, महामोहनीय कर्म के तीस स्थानों से
सिद्धों के इकत्तीस श्रादि गुणों से अर्थात उनकी उचित श्रद्धा तथा प्ररूपणा न करने से, बत्तीस योग सग्रहों से अर्थात् उनका प्राचरण न करने से, तेतीस पाशातनाओं से [जो कोई अतिचार लगा हो उससे प्रतिक्रमण करता हूँ-उसका मिच्छामि दुक्कडं देता हूँ]
[ कौन-सी तेतीस पाशातनाओं से ? ] अरिहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, देव, देवी, इहलोक, परलोक, केवलि-प्ररूपित धर्म, देव मनुष्य-असुरो सहित समग्र लोक, समस्त प्राण - विकल त्रय, भूत = वनस्पति, जीव = पञ्चेन्द्रिय, सत्य% पृथिवी काय अादि चार स्थावर, तथैव काल, श्रुत = शास्त्र, श्रुतदेवता, वाचनाचार्य-इन सबकी श्राशातना से---- __ तथा आगमों का अभ्यास करते एवं कराते हुए व्याविद्ध - सूत्र के पाठों को या सूत्र के अक्षरों को उजट-पुलट भागे पीछे किया हो, व्यत्याम्रोडित = शून्य मन से कई बार पढ़ता ही रहा हो, अथवा अन्य सूत्रों के एकार्थक, किन्तु मूलतः भिन्न-भिन्न पाठ अन्य सूत्रों में मिला दिए हों, हीनाक्षर = अक्षर छोड़ दिए हों, प्रत्यक्षर = अक्षर बढ़ा दिए हों, पद हीन = अक्षर समूहात्मक पद छोड़ दिए हों, विनय हीन = शास्त्र एवं शास्त्राध्यापक का समुचित विनय न किया हो, घोष हीन - उदात्तादि स्वरों से रहित पढ़ा हो, योगहीन - उपधानादि तपोविशेष के विना अथवा उपयोग के विना पढ़ा हो, सुष्णुदत्त = अधिक ग्रहण करने की योग्यता न रखने वाले शिष्य को भी अधिक पाठ दिया हो, दुष्टु प्रतीच्छित- वाचनाचार्य के द्वारा दिए हुए आगम पाठ को दुष्ट भाव से ग्रहण किया हो, अकाले स्वाध्याय = कालिक उत्कालिक सूत्रों को उनके निषिद्ध काल में पढ़ा हो, कालेऽस्वाध्याय - विहित काल में सूत्रों को न पड़ा हो, अस्वाध्यायिके स्वाध्यायित = अस्था
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भयादि-सूत्र
=
ध्याय की स्थिति में स्वाध्याय किया हो; स्वाध्यायिकेऽस्वाध्यायित: स्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय न किया हो - उक्त प्रकार से श्रुत ज्ञान की चौदह शातनाओं से, सब मिला कर तेतीस श्राशातनाओं से जो भी प्रतिचार लगा हो उसका दुष्कृत = पाप मेरे लिए मिथ्या हो । विवेचन
१६७
प्रस्तुत -सूत्र बहुत ही संक्षिप्त भाषा में, गंभीर अर्थों की सूचना देता है । भय से लेकर श्राशातना तक के बोल कुछ उपादेय हैं, कुछ ज्ञेय हैं, कुछ हेय हैं | यदि इसी प्रकार हेय, ज्ञेय, उपादेय पर दृष्टि रखकर जीवन को साधना पथ पर प्रगतिशील बनाया जाय तो श्रवश्य ही उत्तराध्ययन सूत्र के अमर शब्दों में वह संसार के बन्धन में नहीं रह सकता | 'से न अच्छइ मंडले ।'
इसके विपरीत आचरण करने से अर्थात् हेय को उपादेय, उपादेय को हेय और ज्ञेय को ज्ञेय रूप समझने से एवं तदनुकूल प्रवृत्ति करने से अवश्य ही श्रात्मा कर्म बन्धनों में बँध जाता है । ऊँचे से ऊँचा साधक भी राग-द्वेष की मलिनता के चक्कर में आकर पतित हुए बिना नहीं रह सकता । प्रस्तुत सूत्र में इसी विपरीत श्रद्धा, प्ररूपणा तथा आचरण की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करने का विधान है ।
सात भयस्थान
इहलोक -
( १ ) इहलोकभय अपनी ही जाति के प्राणी से डरना, भय है । जैसे मनुष्य का मनुष्य से, तिर्यचका तिर्यच से डरना | ( २ ) परलोकभय - दूसरी जाति वाले प्राणी से डरना, परलोक भय है | जैसे मनुष्य का देव से या तिर्येच आदि से डरना ।
(३) आदानभय - अपनी वस्तु की रक्षा के लिए चोर आदि से
डरना ।
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( ४ ) अकस्मादुभय - किसी बाह्य निमित्त के विना अपने आप ही सशंक होकर रात्रि आदि में अचानक डरने लगना ।
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१६८
श्रमण-सूत्र
(१) आजीवभय-दुर्भिक्ष अादि में जीवन-यात्रा के लिए भोजन आदि की अप्राप्ति के दुविकल्प से डरना । . ( ६ ) मरणाभय-मृत्यु से डरना । (७) अश्लोकभय-अपयश की आशंका से डरना । उक्त सात भय समवायांग-सूत्र के अनुसार हैं।
भय मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले श्रात्मा के उद्वेगरूप परिणाम विशेष को भय कहते हैं। उसके उपर्युक्त सात स्थान-कारण हैं । साधु को किसी भी भय के. अागे अपने आपको नहीं झुकाना चाहिए । निर्भय होने का अर्थ है--'न स्वयं भयभीत होना और न किसी दूसरे को भयभीत करना ।' भय के द्वारा संयम-जीवन दूषित होता है, तदर्थं भय का प्रतिक्रमण किया जाता है । आठ मद स्थान'
(१) जातिमद-ऊँची और श्रेष्ठ जाति का अभिमान ! ... (२) कुलमद-ऊँचे कुल का अभिमान ।
(३) बलमद-अपने बल का घमण्ड करना । १ 'स्थान' शब्द का अर्थ हेतु अर्थात् कारण किया है। अतः जाति, कुल आदि जो बाट मद के कारण हैं, मैं उनका प्रतिक्रमण करता हूँ। अभयदेव समवायांग-सूत्र की टीका में स्थान शब्द का अर्थ अाश्रय अर्थात् अाधार-कारण करते हैं । 'मदस्य-अभिमानस्य स्थानानि = श्राश्रयाः मदस्थानानि जात्यादीनि ।'—समवायांग वृत्ति ।
श्राचार्य जिनदास स्थान का अर्थ 'पर्याय अर्थात् भेद' करते हैं । "मदो नाम मानोदयादात्मोकर्षपरिणामः । स्थानानि-तस्यैव पर्याया भेदाः। "तानि च अष्टौ-जातिमद, कुलमद, बलमद""
-आवश्यक-चूणि श्राचार्य जिनदास के उक्त अभि गाय को हरिभद्र पार अभयदेव भी स्वीकार करते हैं।
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भयादि-सूत्र
१६६ ( ४ ) रूपमद-अपने रूप, सौन्दर्य का गर्व करना । (५) तपमद-उग्र तपस्वी होने का अभिमान । (६) श्रुतमद-शास्त्राभ्यास का अर्थात् पण्डित होने का अभिमान ।
(७) लाभमद-अभीट वस्तु के मिल जाने पर अपने लाभ का अहंकार । (८) ऐश्वर्यमद-अपने ऐश्वर्य अर्थात् प्रभुत्व का अहंकार ।
ये अाठमद समवायांग-सूत्र के उल्लेखानुसार हैं।
मान मोहनीय कर्म के उदय से जन्य ये आठों ही मद सर्वथा त्याज्य हैं । यदि कभी प्रमादवश पाठों मदों में से किसी भी मद का श्रासेवन कर लिया गया हो तो तदर्थ हार्दिक प्रतिक्रमण करना उचित है। नौ ब्रह्मचर्य-गुप्ति
(१) विविक्र-वसति-सेवन-स्त्री, पशु और नपुसकों से युक्त स्थान में न ठहरे।
(२) स्त्री कथा परिहार-स्त्रियों की कथा वार्ता, सौन्दर्य अादि की चर्चा न करे।
(३) निषद्यानुपक्शन-स्त्री के साथ एक ग्रासन पर न बैठे, उसके उठ जाने पर भी एक मुहूतं तक उस श्रासन पर न बैठे।
(४) स्त्री-अंगोपांगादर्शन-स्त्रियों के मनोहर अंग उपांग न देखे । यदि कभी अकस्मात् दृष्टि पड़ जाय तो महसा हटा ले, फिर उसका ध्यान न करे ।
(५) कुझ्यान्तर-शब्दश्रवणादि-वर्जन-दीवार आदि की आड़ से स्त्री के शब्द, गीत, रूप आदि न सुने और न देखे ।
(६) पूर्व भोगाऽस्मरण-पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण न करे। . (७) प्रणीत भोजन-त्याग-विकारोवादक गरिष्ठ भोजन न करे ।
(८) अतिमात्रभोजन-त्याग-रूखा-सूवा भोजन भी अधिक न
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श्रमण-सूत्र
करे । आधा पेट अन्न से भरे, प्राधे में से दो भाग पानी के लिए और एक भाग हवा के लिए छोड़ दे ।
(६) विभूषा-परिवर्जन-अपने शरीर की विभूपा = सजावट न करे।" - ब्रह्म का अर्थ 'परमात्मा' है। श्रात्मा को परमात्मा बनाने के लिए जो चर्या = गमन किया जाता है, उसका नान ब्रह्मचर्य है । शारीरिक
और आध्यात्मिक सभी शक्तियों का प्राधार ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए नौ बाते श्रावश्यक हैं, वे नौ ही गुप्तिपद वाच्य हैं। स्त्रियों को ब्रहाचर्य की रक्षा के लिए उपयुक्त वर्णन में स्त्री के स्थान में पुरुष समझना चाहिए।
यदि साधना करते हुए कहीं भी प्रमादवश नौ गुप्तियों का अतिक्रमण किया हो, अर्थात् प्रतिषिद्ध कार्यो का अाचरण किया हो तो उसका प्रस्तुत सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण किया जाता है।
१ यह गुप्तियों का वर्णन, उत्तराध्ययन-सूत्र के १६ वें अध्ययन के अनुसार किया गया है। परन्तु समवायांग सूत्र में गुप्तियों का उल्लेख अन्य रूप में किया है । कहाँ क्या भेद है, यहाँ सक्षेप में बताया जाता हैं।
समवायांग सूत्र में तीसरी गुप्ति, स्त्रियों के समुदाय के साथ निकट सम्पर्क रखना है । 'नो इत्थीण गणाई सेवित्ता भवइ, ३ ।'
समवायांग सूत्र में प्रणीतरस भोजन त्याग और अति भोजन त्याग गुप्ति की सख्या क्रमशः पाँचवीं तथा छठी है। पूर्वभोग-स्मरण का त्याग तथा शब्द-रूपानुपातिता श्रादि का त्याग सातवे और आठवे नंबर पर है।
समवायांग सूत्र में, नौवीं गुप्ति का स्वरूप, सांसारिक सुखोपभोग की पासक्ति का त्याग है । यह विभूषानुवादिता से अधिक व्यापक है। किसी भी प्रकार के सुखोपभोग की कामना अब्रह्मचर्य है। 'नो साया-सोक्खपडिबद्धे या वि भवइ ४ । ३ ।' समवायांग सूत्र नवम समवाय ।
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भयादि-सूत्र
१७१
दश श्रमण धर्म
(१) शान्ति - क्रोध न करना ।
(२) मार्दव - मृदु भाव रखना, जाति कुल आदि का अहंकार न करना।
(३) श्राव = ऋजुभाव-सरलता रखना, माया न करना। (४) मुकि = निर्लोभता रखना, लोभ न करना । (५) तप=अनशन श्रादि बारह प्रकार का तपश्चरण करना। (६) संयम - हिंसा आदि श्राश्रवों का निरोध करना । (७) सत्य - सत्य भाषण करना, झूट न बोलना ।
(८) शौच =सयम में दूपण न लगाना, संयम के प्रति निरुपले पतापवित्रता रखना।
(६) अकिंचन्य - परिग्रह न रखना। (१०) ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्य का पालन करना ।
यह दशविध श्रमण धर्म, श्राचार्य हरिभद्र के द्वारा उद्धृत चीन संग्रहणी गाथा के अनुसार हैखंती य मद्दवज्जव,
मुत्ती तव संजमे य बोद्धव्वे । सच्चं सोयं आकिंचणं च,
बंभं च जइ - धम्मो ॥ समवायांग सूत्र का उल्लेख इस प्रकार है-खंती, मुत्ती, अजवे, नहवे, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, बंभचेरवासे । स्थानांग सूत्र में भी ऐसा ही मूल पाट है ।
प्राचार्य हरिभद्र ने 'अन्ये त्वेव वदन्ति' कहकर दशविध श्रमण-धर्म के लिए एक और प्राचीन गाथा मतान्तर के रूप में उद्धृत की है
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१७२
श्रमण-सूत्र
खंती मुत्ती अज्जव,
मच तह लाघवे तवे चेव संजम चियागऽकिंचण,
बोद्धव्वे बंभचेरे य । प्राचार्य हरिभद्र लाघव का अप्रतिबद्धता-अनासक्तता और त्याग का संयमी साधकों को वस्त्रादि का दान, ऐसा अर्थ करते हैं । 'लाधव-अप्रतिबद्धता, त्यागः-संयतेभ्यो वस्त्रादिदानम् ।' अावश्यकशिष्यहिता टीका।
प्राचार्य अभयदेव, समवायांग सूत्र की टीका में लाघव का अर्थ द्रव्य से अल्ल उपधि रखना और भाव से गौरव का त्याग करना, करते हैं---'लाघव द्रव्यतोऽल्पोंपधिता, भावतो गौरव-त्यागः ।'
श्री अभयदेव ने 'चियाए'-'त्याग' का अर्थ सब प्रकार के पास गों का त्याग अथवा साधुओं को दान करना, किया है । 'त्यागः सर्वसङ्गाना, संविग्न मनोज्ञसाधुदानं वा ।' ___ स्थानांग सूत्र के दशम स्थान में दशविध श्रमण-धर्म की व्याख्या करते हुए श्री अभयदेव ने 'चियाए' का केवल सामान्यतः दान अर्थ ही किया है 'चियाएत्ति त्यागो दानधर्म इति ।'
प्राचार्य जिनदास, अावश्यक चूणि में श्रमण धर्म का उल्लेख इस प्रकार करते हैं-'उत्तमा खमा, मदव, अजव, मुत्ती, सोयं, सच्चों, संजमो, तवो, अकिंचणतणं, बंभचेमिति ।' प्राचार्य ने क्षमा से पूर्व उत्तम शब्द का प्रयोग बहुत सुन्दर किया है। उसका सम्बन्ध प्रत्येक धम से है, जैसे उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम प्रार्जव आदि । क्षमा श्रादि धर्म तभी हो सकते हैं, जब कि वे उत्तम हों, शुद्धभाव से किए गए हों, उनमें किसी प्रकार से प्रवंचना का भाव न हो । प्राचार्य श्री उमास्वाति भी तत्त्वार्थ सूत्र में क्षमा आदि से पूर्व उत्तम विशेषण का उल्ले ख करते हैं ।
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भयादि-सूत्र
१७३
प्राचार्य जिनदास. शौच का अर्थ “धर्मोपकरण में भी अनासक्त भावना' करते हैं । 'सोयं अलुद्धा धम्मोवगरणेसु वि ।' अकिंचनत्व का अर्थं, अपने देहादि में भी निःसगता रखना, किया है । 'नस्थि जस्स किंचण' सो अकिंचणो, तस्स भावो आकिंचणियं।"सदेहादिसु वि निस्संगेण भवितव्य ।' आवश्यक चूणि
दशविध श्रमण धर्म में मूल और उत्तर दोनों ही श्रमण-गुणों का समावेश हो जाता है। संयम = प्राणातिपात विरति, सत्य =मृषावाद विरति, अकिंचनत्व = अदत्तादान और परिग्रह से विरति, ब्रह्मचर्यमैथुन से विरति । ये पंचमहाव्रत रूप मूल गुण हैं। क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, और तप-ये सब उत्तर गुण हैं |
आध्यात्मिक साधना में अहर्निश श्रम करने वाले सर्ववित साधक को श्रमण कहते हैं । श्रमण के धर्म श्रमण-धर्म कहलाते हैं । उक्त दश विध मुनिधर्मों की उचित श्रद्धा, प्ररूपणा तथा आसेवना न की हो तो तजन्य दोपों का प्रतिक्रमण किया जाता है । ग्यारह उपासक प्रतिमा ___ (१) दर्शन प्रतिमा--किसी भी प्रकार का राजाभियोग प्रादि श्रागार न रखकर शुद्ध, निरतिचार, विधिपूर्वक सम्यग्दर्शन का पालन करना । यह प्रतिमा व्रतरहित दर्शन श्रावक की होती है । इसमें मिथ्यात्व रूप कदाग्रह का त्याग मुख्य है । 'सम्यगदरीनस्य शङ्कादिशल्यरहित स्य अणुव्रतादिगुण विकलस्य योऽभ्युपगमः । सा प्रतिमा प्रथमेति ।' अभयदेव, समवायांग वृति । इस प्रतिमा का अाराधन एक मास तक किया जाता है। .
(२) व्रत प्रतिमा-व्रती श्रावक सम्यक्त्व लाभ के बाद व्रतों की साधना करता है । पाँच अणुव्रत आदि व्रतों की प्रतिज्ञाओं को अच्छी तरह निभाता है, किन्तु सामायिक का यथासमय सम्यक् पालन नहीं कर पाता । यह प्रतिमा दो मास की होती है ।
(३) सामायिक प्रतिमा-इस प्रतिमा में प्रातः और सायंकाल
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श्रमण-सूत्र
सामायिक व्रत की साधना निरतिचार पालन करने लगता है, समभाव. दृढ़ हो जाता है। किन्तु पर्वदिनों में पौषधव्रत का सम्यक् पालन नहीं कर पाता । यह प्रतिमा तीन मास की होती है ।
(४) पौषध प्रतिमा-अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा श्रादि पर्व दिनों में आहार, शरीर सस्कार, अब्रहाचर्य, और व्यापार को त्याग इस प्रकार चतुर्विध त्यागरूप प्रति पूर्ण पौषध व्रत का पालन करना, पौषध प्रतिमा है । यह प्रतिमा चार मास की होती है ।
(२) नियम प्रतिमा-उपयुक्त सभी व्रतों का भली भाँति पालन करते हुए प्रस्तुत प्रतिमा में निम्नोक्त बाते विशेष रूप से धारण करनी होती हैं-वह स्नान नहीं करता, रात्रि में चारों श्राहार का त्याग करता है । दिन में भी प्रकाशभोजो होता है । धोती की लाँग नहीं देता, दिन में ब्रह्मचारी रहता है, रात्रि में मैथुन की मर्यादा करता है। पौषध होने पर रात्रि-मैथुन का त्याग और रात्रि में कायोत्सर्ग करना होता है। यह प्रतिमा कम से कम एक दिन, दो दिन श्रादि और अधिक से अधिक पाँच मास तक होती है। ___(६) ब्रह्मचर्य प्रतिमा--- ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना । इस प्रतिमा की काल मर्यादा जघन्य एक रात्रि की और उत्कृष्ट छह मास की है। ___ (७) सचित्त त्याग प्रतिमा-सचित्त आहार का सर्वथा त्याग करना । यह प्रतिमा जघन्य एक रात्रि की और उत्कृष्ट काल मान से सात मास की होती है।
(८) प्रारम्भ त्याग प्रतिमा-इस प्रतिमा में स्वयं प्रारम्भ नहीं करता, छः काय के जीवों की दया पालता है। इसकी काल मर्यादा जघन्य एक, दो, तीन दिन और उत्कृष्ट पाठ मास होती है ।
(६) प्रेष्य त्याग प्रतिमा-इस प्रतिमा में दूसरों के द्वारा प्रारम्भ कराने का भी त्याग होता है । वह स्वयं प्रारम्भ नहीं करता, न दूसरों से करवाता है, किन्तु अनुमोदन का उसे त्याग नहीं होता । इस प्रतिमा का जघन्य काल एक, दो, तीन दिन है । और उत्कृष्ट काल नौ मास है।
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भयादि-सूत्र
१७५
- (१०) उद्दिष्ट भक्त त्याग प्रतिमा-इस प्रतिमा में उद्दिष्ट भक्त का भी त्याग होता है । अर्थात् अपने निमित्त बनाया गया भोजन भी ग्रहण नहीं किया जाता । उस्तरे से सर्वथा शिरो मुण्डन करना होता है, या शिखामात्र रखनी होती है। किसी गृह-सम्बन्धी विषयों के पूछे जाने पर यदि जानता है तो जानता हूँ और यदि नहीं जानता है तो नहीं जानता हूँ--इतना मात्र कहे । यह प्रतिमा जघन्य एक रात्रि की, उत्कृष्ट दश मास की होती है।
(११) श्रमणभूत प्रतिमा-इस प्रतिमा में श्रावक श्रमण तो नहीं किन्तु श्रमण भूत = मुनिसदृश हो जाता है । साधु के समान वेष बनाकर
और साधु के योग्य ही भाण्डोपकरण धारण करके विचरता है । शक्ति हो तो लुञ्चन करता है, अन्यथा उस्तरे से शिरोमुण्डन करता है । साधु के समान ही निर्दोष गोचरी करके भिक्षावृत्ति से जीवन यात्रा चलाता है । इसका कालमान जघन्य एक रात्रि अर्थात् एक दिन रात और उत्कृष्ट ग्यारह मास होता है।
प्रतिमानों के कालमान के सम्बन्ध में कुछ मतभेद हैं । आगमों के टीकाकार कुछ प्राचार्य कहते हैं कि सब प्रतिमाओं का जघन्यकाल एक, दो, तीन श्रादि का होता है और उत्कृष्ट काल क्रमशः एक मास, दो मास यावत् ग्यारहवीं प्रतिमा का ग्यारह मास होता है। उत्तराध्ययन सूत्र की टीका में भावविजयजी लिखते हैं-इह या प्रतिमा यावत् संख्या स्यात सा उत्कर्षतस्तावन्मासमाना यावदेकादशी एकादशमास प्रमाणा। जघन्यतस्तु सर्वा अपि एकाहादिमानाः स्युः ।' उत्तराध्ययन ३१ । ११ ।
दशाश्रु त स्कन्ध सूत्र में ग्यारह प्रतिमाओं का विस्तार से वर्णन है। परन्तु वहाँ पहली चार प्रतिमाओं के काल का उल्लेख नहीं है । हाँ पाँचवीं से ग्यारहवीं प्रतिमा तक के काल का उल्लेख वही है, जो हमने ऊपर लिखा है। अर्थात् जघन्य एक, दो, तीन दिन आदि और उत्कृष्ट क्रमशः पाँच, छह, सात यावत् ग्यारह मास । परन्तु प्राचार्य श्री आत्मारामजी महाराज अपनी दशाश्रु त स्कन्ध की टीका में वही उल्लेख
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१७६
श्रमण-सूत्र
करते हैं, जो हमने प्रतिमाओं के वर्णन में कालमान के सम्बन्ध में लिखा है। अर्थात् एक मास से लेकर यावत् ग्यारहवीं प्रतिमा के ग्यारह मास । परन्तु इस मास-वृद्धि में वे पूर्व की प्रतिमाओं के काल को मिलाने का उल्लेख करते हैं। वैसे वे प्रत्येक प्रतिमा का काल एक मास ही मानते हैं। उनके कथनानुसार, जैसा कि वे दूसरी प्रतिमा के वर्णन में लिखते हैं,-'इस प्रतिमा के लिए दो मास समय अर्थात एक मास पहली प्रतिमा का और एक मास इस प्रतिमा का निर्धारित किया है।' सब प्रतिमाओं का काल ग्यारह मास ही होना चाहिए । परन्तु प्राचार्य श्री उपसंहार में सब प्रतिमानों का पूर्णकाल साढे पाँच वर्ष लिखते हैं । यह जोड़ में भूल कैसे हुई ? पूर्वापर का विरोध संगति चाहता है।
प्रतिमाधारक श्रावक, प्रतिमा की पूर्ति के बाद सयम ग्रहण कर लेता है। यदि इसी बीच में मृत्यु हो जाय तो स्वर्गारोही बनता है। 'तत्प्रतिपत्त रनन्तरमेकादिभिर्दिनैः संयम प्रतिपल्या जीविततयाद् वा।' भावविजय, उत्तराध्ययन वृत्ति २१ । ११ ।
परन्तु यह नियमेन सयम ग्रहण करने का मत कुछ प्राचार्यों को अभीट नहीं है। कार्तिक सेठ ने सौ वार प्रतिमा ग्रहण की थी, ऐसा उल्लेख भी मिलता है।
पूर्व-पूर्व प्रतिमाओं की चर्या उत्तरोत्तर अर्थात् आगे की प्रतिमाओं में भी चालू रहती है। देखिए, भावविजय जी क्या लिखते हैं ? "प्रथमोक्तं च अनुष्ठानमग्रेतनायां सर्व कार्य यावदेकादश्यां पूर्व प्रतिमादशोकमपि ।' उत्तराध्ययन ३१ । ११
उपासक का अर्थ श्रावक होता है। और प्रतिमा का अर्थ--- प्रतिज्ञा = अभिग्रह है। उपासक की प्रतिमा, उपासक प्रतिमा कहलाती है ।
ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं का साधु के लिए अतिचार यह है कि इन पर श्रद्धा न करना, अथवा इनकी विपरीत प्ररूपणा करना । इसी अश्रद्धा एवं विपरीत प्ररूपणा का यहाँ प्रतिक्रमण है ।
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भयादि-सूत्र
१७७
बारह भिक्षु-प्रतिमा
(१) प्रथम प्रतिमाधारी भिक्षु को एक दत्ति अन्न की और एक दत्ति पानी की लेना कल्पता है । साधु के पात्र में दाता द्वारा दिए जाने वाले अन्न और जल की धारा जब तक अखण्ड बनी रहे, उसका नाम दत्ति है। धारा खण्डित होने पर दत्ति की समाप्ति हो जाती है। जहाँ एक व्यक्ति के लिए भोजन बना हो वहीं से लेना चाहिए. किन्तु जहाँ दो तीन आदि अधिक व्यक्ति पों के लिए भोजन बना हो, वहाँ से नहीं लेना। इसका समय एक महीना है ।
(२-७) दूसरी प्रतिमा भी एक मास की है। दो दत्ति आहार की, दो दत्ति पानी की लेनी । इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठी और सातवीं प्रतिमाओं में क्रमशः तीन, चार, पाँच, छह और सात दत्ति अन्न की और उतनी ही पानी की ग्रहण की जाती हैं । प्रत्येक प्रतिमा का समय एक-एक मास है। केवल दत्तियों की वृद्धि के कारण ही ये क्रमशः द्विमासिकी. त्रिमासकी, चतुर्मासिकी, पञ्चमासकी, परमासिकी, और सप्तमासिकी कहलाती हैं।
(८) यह अाठवीं प्रतिमा सप्तरः त्रि = सात दिन रात की होती है । इसमें एकान्तर चौविहार उपवास करना होता है। गाँव के बाहर उत्तानासन (अाकाश की ओर मुँह करके सीधा लेटना), पाश्र्वासन ( एक करवट से लेटना) अथवा निपद्यासन (पैरों को बराबर करके बैठना) से ध्यान लगाना चाहिए। उपसर्ग पाए तो शान्त चित्त से सहन करना चाहिए।
(६) यह प्रतिमा भी सप्तरात्रि की होती है। इसमें चौविहार बेलेबेले पारणा किया जाता है । गाँव के बाहर एकान्त स्थान में दण्डासन, लगुडासन अथवा उत्कटुकासन से ध्यान किया जाता है।
(१०) यह भी सप्तरात्रि की होती है। इसमें चौविहार तेले-तेले पारणा किया जाता है। गाँव के बाहर गोदोहनासन, वीरासन अथवा श्राम्रकुब्जासन से ध्यान किया जाता है ।
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श्रमण-सूत्र
( ११ ) यह प्रतिमा अहोरात्र की होती है । एक दिन और एक रात अर्थात् ठ प्रहर तक इसकी साधना की जाती है । चौविहार बेले के द्वारा इसकी आराधना होती है । नगर के बाहर दोनों हाथों को घुटनों की और लम्बा करके दण्डायमान रूप में खड़े होकर कायोत्सर्ग किया जाता है।
( १२ ) यह प्रतिमा एक रात्रि की है । अर्थात् इसका समय केवल एक रात है । इसका आराधन बेले को बढ़ाकर चौविहार तेला करके किया जाता है । गाँव के बाहर खड़े होकर, मस्तक को थोड़ा-सा झुकाकर एक पुद्गल पर दृधिरखकर, निर्निमेष नेत्रों से निश्चलतापूर्वक कायोत्सर्ग किया जाता है । उपसर्गों के आने पर उन्हें समभाव से सहन किया जाता है ।
भिक्षु प्रतिमाओं के सम्बन्ध में कुछ मान्यताएँ भिन्न-भिन्न धारा पर चल रही हैं । प्रथम से लेकर सात तक प्रतिमाओं का काल, कुछ विद्वान क्रमशः एक-एक मास बढ़ाते हुए सात मास तक मानते हैं । उनकी मान्यता द्विमासिकी आदि यथाश्रुत शब्द के आधार पर है। आठवीं, नौवीं, दशवीं में कुछ आचार्य केवल निर्जल चौविहार उपवास ही एकान्तर रूप से मानते हैं । दशाश्रुत स्कन्ध सूत्र, अभयदेवकृत समवायांग — टीका, हरिभद्रकृत यावश्यक टीका में भी उक्त तीनों प्रतिमाओं में चौविहार उपवास का ही उल्लेख है । और भी कुछ अन्तर हैं. किन्तु समयाभाव से तथा साधनाभाव से यहाँ अधिक विस्तार में न जाकर साधारण-सा परिचय मात्र दिया है । कहीं प्रसंग आया तो इस पर विशद स्पष्टीकरण करने की इच्छा है । दशा श्रुत स्कन्ध, भगवती-सूत्र, हरिभद्र सूरि का पंचाशक यदि इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य हैं ।
बारह भिक्षु प्रतिमानों का यथाशक्ति याचरण न करना, श्रद्धा न करना तथा विपरीत प्ररूपणा करना, अतिचार है । तेरह क्रिया-स्थान
( १ ) अर्थक्रिया अपने किसी अर्थ प्रयोजन के लिए त्रस स्थावर जीवों की हिंसा करना, कराना तथा अनुमोदन करना । 'अर्थाय क्रिया अर्थ क्रिया ।'
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भयादि-सूत्र
१७६
(२) अनर्थ किया-बिना किसी प्रयोजन के किया जानेवाला पाप कम अनर्थ क्रिया कहलाता है । व्यर्थ ही किसी को सताना, पीड़ा देना ।
(३) हिंसा क्रिया--अमुक व्यक्ति मुझे अथवा मेरे स्नेहियों को कष्ट देता है, देगा, अथवा दिया है--यह सोच कर किसी प्राणी की हिंसा करना, हिंसा क्रिया है।
(४) अकस्मात क्रियाशीघ्रतावश विना जाने हो जाने वाला पाप, अकस्मात् क्रिया कहलाता है। बाणादि से अन्य की हत्या करते हुए अचानक ही अन्य किसी की हत्या हो जाना।
(५)दृष्टि विपर्यास क्रिया-मति-भ्रम से होने वाला पाप । चौरादि के भ्रम में साधारण अनपराधी पुरुष को दण्ड दे देना।
(६) मृषा क्रिया--झूठ बोलना । (७) अदत्तादान क्रिया-चोरी करना ।
(८) अध्यात्म क्रिया-बाह्य निमित्त के बिना मन में होने चाला शोक अादि का दुर्भाव ।
(६) मान क्रिया अपनी प्रशंसा करना, घमण्ड करना । (१०) मित्र क्रिया-प्रियजनों को कठोर दण्ड देना। (११) माया क्रिया-दम्भ करना । (१२) लोभ क्रिया-लोभ करना ।
(१३) ईर्यापथिकी क्रिया-अप्रमत्त विवेकी संयमी को गमनागमन से लगने वाली किया । चौदह भूतग्राम = जीवसमूह
सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असशी पञ्चन्द्रिय और सजी पञ्चन्द्रिय । इन सातों के पर्याप्त और अपर्याप्त--कुल चौदह भेद होते हैं। इनकी विराधना करना, किसी भी प्रकार की पीड़ा देना, अतिचार है ।
कुछ प्राचार्य भूतग्राम से चौदह गुण स्थानवी जीव समूहों का उल्लेख करते हैं। देखिए-यावश्यक बूण तथा हरिभद्र कृत श्रावश्यक टीका ।
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१८०
श्रमण-सूत्र
पंदरह परमाधार्मिक
(१) अम्ब (२) अम्बरीप (३) श्याम (४) शबल (५) रौद्र (६) उपरौद्र (७) काल (८) महाकाल (६) असिपत्र (१०) धनुः (११) कुम्भ (२२) वालुक (१३) वैतरणि (१४) खरस्वर (१५) महाघोष । ये परम अधार्मिक, पापाचारी, कर एवं निर्दय असुर जाति के देव हैं । नारकीय जीवों को व्यर्थ ही, केवल मनोविनोद के लिए यातना देते हैं । जिन संक्लिष्ट रूप परिणामों से परमाधामिकत्व होता है, उनमें प्रवृत्ति करना अतिचार है। उन अतिचारों का प्रतिक्रमण यहाँ अभीट है। 'एत्थ जेहिं परमाधम्मियत्तण भवति तेसु ठाणेसु जं वट्टितं ।'
--जिनदास मह्त्तर । गाथा षोडशक
(१) स्वसमय पर समय (२) वैतालीय (३) उपसर्ग परिज्ञा (४) स्त्री परिज्ञा (५) नरक विभक्ति (६) वीर स्तुति (७) कुशील
१-गाथा घोडशक का अभिप्राय यह है कि 'गाथा नामक सोलहवाँ अध्ययन है जिनका, वे सूत्रकृतांग-सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययन ।' प्राचार्य अभयदेव समवायांग सूत्र की टीका में उक्त शब्द पर विवेचन करते हुए लिखते हैं ---'गाथाभिधान मध्ययनं षोडशं येषां तानि गाथाषोडशकानि ।' श्री भावविजयजी भी उत्तराध्ययनान्तर्गत चरण विधि अध्ययन की व्याख्या में ऐसा ही अर्थ करते हैं । श्री जिनदास महत्तर भी अावश्यक चूणि' में लिखते हैं -'गाहाए सह सोलस अन्झयणा तेसु, सुत्तगडपढमसुतक्खंध अज्झयण सु इत्यर्थः । ।
परन्तु प्राचार्य श्री आत्मारामजी उत्तराध्ययन-सूत्र में उक्त शब्द का भावार्थं लिखते हैं कि 'गाथा नामक सोलवें अध्ययनमें ।'--उत्तराध्ययन ३१ । १३ । मालूम होता है प्राचार्यजी ने शब्दगत बहुवचन पर ध्यान नहीं दिया है, फलतः उन्हें बहुव्रीहि समास का ध्यान नहीं रहा।
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भयादि-सूत्र
१८१
परिभाषा (८) वीर्य (६) धर्म (१०) समाधि (११) मार्ग (१२) समवसरण (१३) याथातथ्य (१४) ग्रन्थ (१५) आदानीय (१६) गाथा ।
ये सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के गाथा षोडशक = सोलह अध्ययन हैं । अध्ययनोक्त श्राचार-विचार का भलीभाँति पालन न करना, अतिचार है। सतरह असंयम
(१-६) पृथिवीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, और वनस्पतिकाय तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चन्द्रिय जीवों की हिंसा करना, कराना, अनुमोदन करना ।
(१०) अजीव असंयम = अजीव होने पर भी जिन वस्तुओं के द्वारा असयम होता है, उन बहुमूल्य वस्त्रपात्र आदि का ग्रहण करना अजीव असयम है।
(११) प्रक्षा असंयम = जीव-सहित स्थान में उठना, बैठना, सोना श्रादि ।
(१२) उपेक्षा असंयम = गृहस्थ के पाप कर्मों का अनुमोदन करना ।
(१३)अपहृत्य असंयम-अविधि से परठना। इसे परिठापना असयम भी कहते हैं।
(१४) प्रमार्जना असंयम = वस्त्रपात्र आदि का प्रमार्जन न करना । (१५) मनः असंयम-मन में दुर्भाव रखना । (१६) वचन असंयम = कुवचन बोलना । (१७) काय असंयम = गमनागमनादि में असावधान रहना । ये सतरह असयम समवायांग सूत्र में कहे गए हैं ।
असयम के अन्य भी सत्तरह प्रकार हैं-हिंसा, असत्य, अस्तेय, अब्रह्मचर्य, परिग्रह, पाँचों इन्द्रियों की उच्छङ्खल प्रवृत्ति, चार कषाय और तीन योगों की अशुभ प्रवृत्ति ।
प्राचार्य हरिभद्र ने आवश्यक में 'असं जमे' के स्थान में
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१८२
श्रमण-सूत्र
'स' जमे' का उल्लेख किया है । 'स'जमे' का अर्थ संयम है । संयम के भी पृथ्वी काय स यम यदि सतरह भेद हैं ।
अठारह अब्रह्मचर्य
देव-सम्बन्धी भोगों का मन, वचन और काय से स्वयं सेवन करना, दूसरों से कराना, तथा करते हुए को भला जानना - इस प्रकार नो भेद वैक्रिय शरीर सम्बन्धी होते हैं । मनुष्य तथा तिर्यञ्च सम्बन्धी दारिक भोगों के भी इसी तरह नौ भेद समझ लेने चाहिएँ । कुल मिलाकर अठारह भेद होते हैं ।
[ समवायांग ]
ज्ञाता धर्म कथा के १६ अध्ययन
( १ ) उत्क्षिप्त अर्थात् मेघकुमार ( २ ) संघाट ( ३ ) अण्ड ( ४ ) कुर्मी ( ५ ) शैलक ( ६ ) तुम्ब ( ७ ) रोहिणी ( ८ ) मल्ली ( ६ ) माकन्दी ( १० ) चन्द्रमा ( ११ ) दाब ( १२ ) उदक ( १३ ) मण्डूक ( १४ ) तेतलि ( १५ ) नन्दी फल ( १६ ) वरकंका ( १७ ) ग्राफीक ( १८ ) मुसुमादारिका ( १६ ) पुण्डरीक | उक्त उन्नीस उदाहरणों के भावानुसार साधुधर्म की साधना न करना,
तिचार है ।
बीस
समाधि
( १ ) द्रुत द्रुत चारित्व = जल्दी जल्दी चलना |
( २ ) प्रमृज्य चारित्व = विना पूँजे रात्रि यादि में चलना ।
( ३ ) दुप्रसृज्य चारित्व = विना उपयोग के प्रमार्जन करना |
( ४ ) अतिरिक्त शय्य:सनिकत्व = अमर्यादित शय्या और आसन
रखना ।
( २ ) रात्निक पराभव = गुरुजनों का अपमान करना ।
( ६ ) स्थविरोपघात = स्थविरों का उपहनन= श्रवहेलना करना |
( ७ ) भूतोपधात = भूत-जीवों का उपहनन ( हिंसा ) करना । ( ८ ) संज्वलन प्रतिक्षण यानी बारबार क्रुद्ध होना ।
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१८३
भयादि-सूत्र ( 8 ) दोध कोप = चिरकाल तक क्रोध रखना । (१०) पृष्ठ मासिकत्व पीठ पीछे निन्दा करना । (११) अभितणावभाषण = सशंक होने पर भी निश्चित भाषा
बोलना। (१२) नवाधिकरण करण = नित्य नए कलह करना । ( १३ ) उपशान्तकलहोदीरण = शान्त कलह को पुनः उत्तेजित
करना। (१४) अकालस्वाध्याय = अकाल में स्वाध्याय करना । (१५) सरजस्कपाणि-भिक्षाग्रहण = सचित्तरज सहित हाथ आदि से
भिक्षा लेना। (१६) शब्दकरण = पहर रात बीते विकाल में जोर से बोलना । (१७ ) झंझाकरण = गण-भेदकारी अर्थात् सघ में फूट डालने
वाले वचन बोलना । ( १८ कलह करण = अाक्रोश यादि रूप कलह करना । (१६) सूर्यप्रमाण भोजित्व = दिन भर कुछ न कुछ खाते-पीते रहना ।
। २०) एवणाऽसमितत्व = एषणा समिति का उचित ध्यान न रखना।
जिस सत्कार्य के करने से चित्त में शान्ति हो, अात्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप मोक्षमार्ग में अवस्थित रहे, उसे समाधि कहते हैं । और जिस कार्य से चित्त में अप्रशस्त एवं अशान्त भाव हो, ज्ञानादि मोक्षमार्ग से ग्रात्मा भ्रष्ट हो उसे असमाधि कहते हैं। उपर्युक्त बीस कार्यों के आचरण से अपने और दूसरे जीवों को असमाधि भाव उत्पन्न होता है, साधक की आत्मा दूषित होती है, और उसका चारित्र मलिन होता है, अतः इन्हें असमाधि कहा जाता है।
'समाधानं समाविः-चेतसः स्वास्थ्य, मोक्षमार्गेऽ वस्थितिरित्यर्थः । न समाधिरसमाधिस्तस्य स्थानानि-आश्रया भेदाः पर्याया असमाधिस्थानानि ।' प्राचार्य हरिभद्र
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श्रमण-सूत्र
असमाधि स्थानों के सेवन से जहाँ कहीं अात्मा सयम-भ्रष्ट हुआ हो, उसका प्रतिक्रमण प्रस्तुत पाट के द्वारा किया जाता है। इकोस शबल दोप
(१) हस्तकर्म = हस्त-मैथुन करना। ( २ ) मैथुन = स्त्री स्पर्श आदि मैथुन करना । (३ ) रात्रिभोजन = रात्रि में भोजन लेना और करना । (४) श्राधाकर्म = साधु के निमित्त से बनाया गया भोजन लेना ।
५) सागारिकपिण्ड = शय्यातर अर्थात् स्थानदाता का आहार लेना।
(६) औदेशिक-साधु के या याचकों के निमित्त बनाया गया, क्रीतखरीदा हुया आहार, ग्राहृत = स्थान पर लाकर दिया हुअा, शामित्य = उधार लाया हुअा, प्राच्छिन्नछीन कर लाया हया आहार लेना।
(७) प्रत्यास्यान भंग = बार-बार प्रत्याख्यान भंग करना । (८) गणपरिवर्तन = छह माम में गण से गणान्तर में जाना ।
(६) उदक लेप = एक मास में तीन बार नाभि या जंघा प्रमाण जल में प्रवेश कर नदी आदि पार करना ।
(१० ) मातृ स्थान = एक मास में तीन बार माया स्थान सेवन करना । अर्थात् कृत अपराध छुपा लेना।
(११) राजपिण्ड = राजपिण्ड ग्रहण करना । (१२) अाकुट्या हिंसा = जानबूझ कर हिंसा करना । (१३ ) श्राकुट्टया मृषा = जानबूझ कर झूठ बोलना । (१४ ) श्राकुट्टया अदालादान-जानबूझ कर चोरी करना ।
( १५) सचिर पृथिवी स्पर्श= जानबूझ कर सचित्त पृथिवी पर बैठना, सोना, खड़े होना।
(१६) इसी प्रकार सचित्त जल से सस्निग्ध और सचित्त रज वाली पृथिवी, सचित्त शिला अथवा धुणों वाली लकड़ी आदि पर बैठना, सोना, कायोत्सर्ग आदि करना शबल दोप है ।
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भयादि सूत्र
(१७) जीवों वाले स्थान पर तथा प्राणी, बीज, हरित, कीड़ीनगरा, लीलनफूलन, पानी, कीचड़, और मकड़ी के जालों वाले स्थान पर बैठना, सोना, कायोत्सर्ग श्रादि करना शबल दोप है ।
(१८) जानबूझ कर कन्द, मूल, छाल, प्रवाल, पुष्प, फूल, बीज, तथा हरितकाय का भोजन करना ।
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(१६) वर्ष के अन्दर दस बार उदक लेप = नदी पार करना । (२०) वर्ष में दस माया स्थानों का सेवन करना ।
(२१) जानबूझ कर सचित्त जल वाले हाथ से तथा सचित्त जल सहित कड़छी आदि से दिया जानेवाला आहार ग्रहण करना ।
उपर्युक्त शचल दोष साधु के लिए सर्वथा त्याज्य हैं । जिन कार्यों के करने से चारित्र की निर्मलता नष्ट हो जाती है, चारित्र मलक्लिन्न होने के कारण कर्बुर हो जाता है, उन्हें शबल दक्षेत्र कहते हैं । उक्त दोषों के सेवन करने वाले साधु भी शक्ल कहलाते हैं । 'शबलं - कबुरं चारित्रं यैः क्रियाविशेष भवति ते शबलास्तद्योगात्साधवोऽपि ।
=
१८५
- अभयदेव समवा • टीका । उत्तरगुणों में अतिक्रमादि चारों दोषों का एवं मूल गुणों में अनाचार के सिवा तीन दोषों का सेवन करने से चारित्र शबल होता है । बाईस परीषह
( १ ) क्षुधा = भूख ( २ ) पिसा = प्यास ( ३ ) शीत = टंड (४) उष्ण - गर्मी (५) दंशमशक ( ६ ) अचेल = वस्त्राभाव का क ( ७ ) अरति : कठिनाइयों से घबरा कर संयम के प्रति होने वाली उदासीनता (८) स्त्रीपरीषद ( ६ ) चर्या = विहार यात्रा में होने वाला गमनादि कट (१०) नैप धिकी = स्वाध्याय भूमि श्रादि में होने वाले उपद्रव (११) शय्या = निवास स्थान की प्रतिकूलता ( १२ ) आक्रोश : दुर्वचन (१३) वध = लकड़ी आदि की मार सहना (१४) याचना (१५) अलाभ (१६) रोग (१७) तृण स्पर्श (१८) जल्ल = मल का परीषद् (१६) सत्कार पुरस्कार = पूजा प्रतिष्ठा (२०) प्रज्ञा = बुद्धि का गर्व (२१)
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श्रमण सूत्र
अज्ञान = बुद्धिहीनता का दुःख (२२) दर्शन परीवह = सम्यक्त्व भ्रष्ट करने वाले मिथ्या मतों का मोहक वातावरण ।
- हरिभद्र ग्रादि कितने ही प्राचार्य नैपोधिकी के स्थान में निपद्या परीवह मानते हैं और उसका अर्थ वसति = स्थान करते हैं । इस स्थिति में उनके द्वारा अग्रिम शय्या परीपद का अर्थ-~-सस्तारक अर्थात् सौंथारा, बिछौना अर्थ किया गया है । स्त्री साधक के लिए पुरुष परीषद है ।
तुवा ग्रादि किसी भी कारण के द्वारा अापत्ति पाने पर संयम में स्थिर रहने के लिए तथा कर्मों की निर्जरा के लिए जो शारीरिक तथा मानसिक कष्ट, साधु को सहन करने चाहिएँ, उन्हें परीषह कहते हैं। 'परीसहिज्जंते इति परीसहा अहियासिज्जंतितिं वुशं भवति ।'--जिनदास महत्तर । परीषहों को भली भाँति शुद्ध भाव से सहन न करना, परीषड्सम्बन्धी अतिचार होता है, उसका प्रतिक्रमण प्रस्तुत सूत्र में किया गया है। सूत्रकृताङ्ग सूत्र के २३ अध्ययन
प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययन सोलहवे बोल में बतला पाए हैं। द्वितीय श्रु तस्कन्ध के अध्ययन ये हैं--(१७) पौण्डरीक (१८) क्रिया स्थान (१६) थाहार परिज्ञा (२०) प्रत्याख्यान क्रिया (२१) प्राचारश्रुत (२२) श्राद्रकीय २३) नालन्दीय । उक्त तेईस अध्ययनों के कथनानुसार संयमी जीवन न होना, अतिचार है । चौबीस देव
असुरकुमार आदि. दश भवनपति, भूत यक्ष प्रादि ग्राट व्यन्तर, सूर्य चन्द्र अादि पाँच ज्योतिष्क, और वैमानिक देव---इस प्रकार कुल चौबीस जाति के देव हैं। संसार में भोगजीवन के ये सब से बड़े प्रतिनिधि हैं । इनकी प्रशंसा करना भोगजीवन की प्रशंसा करना है और निन्दा करना द्वष भाव है, अतः मुमुक्षु को तटस्थ भाव ही रखना चाहिए । यदि कभी तटस्थता का भंग किया हो तो अतिचार है।
उत्तराध्ययन सूत्र के सुप्रसिद्ध टीकाकार प्राचार्य शान्तिसूरि यहाँ
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भयादि-सूत्र
१८७ देव शब्द से चौबीस तीर्थक्कर देवों का भी ग्रहण करते हैं । इस अर्थ के मानने पर अतिचार यह होगा कि--उनके प्रति अादर, श्रद्धाभाव न रखना; उनकी याज्ञानुसार न चलना, श्रादि आदि । पाँच महाव्रतों की २५ भावनाएँ ____महाव्रतों का शुद्ध पालन करने के लिए, शास्त्रों में प्रत्येक महाव्रत की पाँच भावना बतलाई गयी हैं । भावनाओं का स्वरूप बहुत ही हृदयग्राही एवं जीवनस्पर्शी है । श्रमण-धर्म शुद्ध पालन करने के लिए भावनाओं पर अवश्य ही लक्ष्य देना चाहिए । प्रथम अहिंसा महाव्रत की ५ भावना
(१ ) ईयर्यासमिति - उपयोग पूर्वक गमनागमन करे ( २ ) अालोकित पान भोजन = देख भाल कर प्रकाशयुक्त स्थान में आहार करे (३) अादान निक्षेप समिति = विवेक पूर्वक पात्रादि उठाए तथा रक्खे (४ ' मनोगुप्ति = मन का सौंयम (५) वचनगुति = वाणी का सयम । द्वितीय सत्य महाव्रत की भावना
(१) अनुविचिन्त्य भाषणता = विचार पूर्वक बोलना ( २ ) क्रोधविवेक = क्रोध का त्याग ( ३ ) लोभ-विवेक =लोभ का त्याग (४) भय-विवेक = भय का त्याग (५) हास्य-विवेक = हँसी मजाक का त्याग । तृतीय अस्तेय महाव्रत की ५ भावना
(१) अवबहानुज्ञापना = अवग्रह अर्थात् वसति लेते समय उसके स्वामी को अच्छी तरह जानकर याज्ञा माँगना (२) अवग्रह सीमापरिज्ञानता=अवग्रह के स्थान की सीमा का ज्ञान करना ( ३ ) अवग्रहानुग्रहणता= स्वयं अवग्रह की याचना करना अर्थात् वसतिस्थ तृण, पट
आदि अवग्रह-स्वामी की प्राज्ञा लेकर ग्रहण करना ( ४ ) गुरुजनों तथा अन्य साधमिकों की आज्ञा लेकर ही सबके सयुक्त भोजन में से भोजन करना (५) उपाश्रय में रहे हुए पूर्व साधमिकों की आज्ञा लेकर ही वहाँ रह्ना तथा अन्य प्रवृत्ति करना ।
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१८८
चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत की १ भावना
( १ ) ती स्निग्ध पौष्टिक आहार नहीं करना ( २ ) पूर्व भुक्त भोगों का स्मरण नहीं करना अथवा शरीर की विभूषा नहीं करना ( ३ ) स्त्रियों के अंग उपांग नहीं देखना ( ४ ) स्त्री, पशु और नपुंसक वाले स्थान में नहीं ठहरना ( ५ ) स्त्रीविषयक चर्चा नहीं करना |
श्रमण-सूत्र
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पंचम अपरिग्रह महाव्रत की ५ भावना
( १-५ ) पाँचों इन्द्रियों के विषय शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श के इन्द्रियगोचर होने पर मनोज्ञ पर रागभाव तथा श्रमनोज़ पर द्वेषभाव न लाकर उदासीन भाव रखना । [ समवायांग ] महाव्रतों की भावनाओं पर विशेष लक्ष्य देने की आवश्यकता है महाव्रतों की रक्षा उक्त भावनाओं के बिना हो ही नहीं सकती । यदि संयम यात्रा में कहीं भावनाओं के प्रति उपेक्षा भाव रक्खा हो तो अतिचार होता है, तदर्थं यहाँ प्रतिक्रमण का उल्लेख है । दशाश्रत आदि सूत्रत्रयी के २६ उद्देशनकाल
दशाश्रुत स्कन्ध सूत्र के दश उद्देश, बृहत्कल्प के छह उद्देश, और व्यवहार सूत्र के दश उद्देश - इस प्रकार सूत्रत्रयी के छब्बीस उद्देश होते हैं । जिस श्र तस्कन्ध या अध्ययन के जितने उद्देश होते हैं उतने ही वहाँ उद्दे शनकाल - अर्थात् श्रतोपचार रूप उद्दे शावसर होते हैं। उक्त सूत्रत्रयी में साधुजीवन सम्बन्धी आचार की चर्चा है । अतः तद्नुसार श्राचरण न करना अतिचार होता है । सप्ताईस अनगार के गुण
( १-५ ) हिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच महाव्रतों का सम्यक् पालन करना । ( ६ ) रात्रि भोजन का त्याग करना । ( ७-११ ) पाँचों इन्द्रियों को वश में रखना ( १२ ) भावसत्य = अन्तःकरण की शुद्धि ( १३ ) करणसत्य = वस्त्र पात्र आदि की भली भाँति प्रतिलेखना करना ( १४ ) क्षमा ( १५ ) विरागता : - लोभ निग्रह
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भयादि-सूत्र
१८६
(१६) मन की शुभ प्रवृत्ति ( १७ ) बचन की शुभ प्रवृत्ति (१८) काय की शुभ प्रवृत्ति ( १६-२४ ) छह काय के जीवों की रक्षा ( २५) संयमयोग-युक्तता (२६ } वेदनाऽभिसहना = तितिक्षा अर्थात् शीतादिकट सहिष्णुता ( २७ ) मारणान्तिक उपसर्ग को भी समभाव से सहना ।
उपर्युक्त सत्ताईस गुण, प्राचार्य हरिभद्र ने अपनी आवश्यक सूत्र की शिष्यहिता टीका में, सग्रहणीकार की एक प्राचीन गाथा के अनुसार वणन किए हैं । परन्तु समवायांग-सूत्र में मुनि के सत्ताईस गुण कुछ भिन्न रूप में अंकित हैं-पाँच महाव्रत, पाँच इन्द्रियों का निरोध, चार कषायों का त्याग, भाव सत्य, करण सत्य, योग सत्य, क्षमा, विरागता, मनः समाहरणता, वचन समाहरणता, काय समाहरणता, ज्ञान सम्पन्नता, दर्शन सम्पन्नता, चारित्र सम्पन्नता, वेदनातिसहनता, मारणान्तिकातिसहनता। __ प्राचार्य हरिभद्र ने यहाँ 'सत्तावीसविहे अणगारचरित, पाठ का उल्लेख किया है। इसका भावार्थ है-सत्ताईस प्रकार का अनगारसम्बन्धी चारित्र । परन्तु आचार्य जिनदास आदि ‘सत्तावीसाए अणगार गुणेहिं पाठ का ही उल्लेख करते हैं। समवायांग-सूत्र में भी अणगारगुण ही है।
उक्त सत्ताईस अनगार गुणों अर्थात् मुनिगुणों का शास्त्रानुसार भली भाँति पालन न करना, अतिचार है । उसकी शुद्धि के लिए मुनि गुणों का प्रतिक्रमण है, अर्थात् अतिचारों से वापस लौटकर मुनि गुणों में ग्राना। अट्ठाईस आचार-प्रकल्प
प्राचार-प्रकल्प की व्याख्या के सम्बन्ध में बहुत सी विभिन्न मान्यताएँ हैं । प्राचार्य हरिभद्र कहते हैं-याचार ही प्राचार-प्रकल्प कहलाता है "प्राचार एव प्राचारप्रकल्पः ।'
प्राचार्य अभयदेव समवायांग-सूत्र की टीका में कहते हैं कि
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१६०
श्रमण-सूत्र
आचार का अर्थ प्रथम अंग सूत्र है । उसका प्रकल्प अर्थात् अध्ययनविशेष निशीथ सूत्र याचार प्रकल्प कहलाता है । अथवा ज्ञानादि साधुआचार का प्रकल्प अर्थात् व्यवस्थापन आचार-प्रकल्प कहा जाता है । 'श्राचारः प्रथमाङ्ग' तस्य प्रकल्पः अध्ययन विशेषो निशीथमित्यपराभिधानम् । श्राचारस्य वा साध्वाचारस्य ज्ञानादिविषयस्य प्रकल्पो व्यवस्थापनमिति श्राचार प्रकल्पः ।
उत्तराध्ययन सूत्र के चरण विधि अध्ययन में केवल प्रकल्प शब्द ही आया है | अतः उक्त सूत्र के टीकाकार आचार्य शान्तिसूरि प्रकल्प का अर्थ करते हैं कि 'प्रकृष्ट = उत्कृष्ट कल्प - मुनि जीवन का श्राचार वर्णित है जिस शास्त्र में वह श्राचारांग सूत्र प्रकल्प कहा जाता है ।'
श्राचारांग सूत्र के शस्त्र परिज्ञा श्रादि २५ अध्ययन हैं । और निशीथ सूत्र भी आचारांग सूत्र की चूलिकास्वरूप माना जाता है, अतः उसके तीन अध्ययन मिलकर श्राचागंग-सूत्र के सब अट्ठाईस अध्ययन होते हैं---
( १ ) शस्त्र परिक्षा ( २ ) लोक विजय ३ ) शीतोष्णीय ( ४ ) सम्यक्त्व ( ५ ) लोकसार ( ६ ) धूताध्ययन (७) महापरिज्ञा (८) विमोक्ष (६) उपधानश्रुत ( १० ) पिण्डेपणा ( ११ ) शय्या ( १२ ) ईर्ष्या (१३) भाषा ( १४ ) वस्त्रपणा ( १५ ) पापा ( १६ ) श्रवग्रहप्रतिमा ( १६ + 3 = २३ ) स्थानादि सप्तैकका ( २४ ) भावना (२५) विमुक्ति ( २६ ) उद्यात ( २७ ) अनुद्घात ( २८ ) और श्रारोपण 1
समवायांग सूत्र में आचार प्रकल्प के अट्ठाईस भेद अन्यरूप में हैं । पूज्य श्री श्रात्मारामजी महाराज, उत्तराध्ययन सूत्र हिंदी पृष्ठ १४०१ पर इस सम्बन्ध में लिखते हैं
" समवायांग सूत्र में २८ कार का याचारप्रकल्प इस प्रकार से वर्णन किया है । यथा
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भयादि-सूत्र
१६ १
( १ ) एक मास का प्रायश्चित ( २ ) एक मास पाँच दिन का प्रायश्चित ( ३ ) एक मास दश दिन का प्रायश्चित्त । इसी प्रकार पाँच दिन बढ़ाते हुए पाँच मास तक कहना चाहिए । इस प्रकार २५ हुए । (२६ उपघातक (२७) रोपण और (२८) कृत्स्न सम्पूर्ण',
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अकृत्स्न-ग्रस ंपूर्ण' ।”
पूज्यश्रीजी के उपर्युक्त लेख की समवायांग सूत्र के मूल पाठ से संगति नहीं बैठती । वहाँ मासिक श्रारोपण के छह भेद किए हैं । इसी प्रकार द्विमासिकी, त्रिमासिकी एवं चतुर्मासिकी श्रारोपणा के भी क्रमशः छः छः भेद होते हैं । सब मिलकर रोपण के अवतक २४ भेद हुए, हैं, जिन्हें पूज्यश्रीजी २५ लिखते हैं । अब शेष चार भेद भी समवायांग सूत्र के मूल पाठ में ही देख लीजिए 'उवघाइया आरोवणा, अणुत्र घाइया श्रावणा, कसिणा श्रारोवणा, अकसिया आरोवणा । 'उक्त मूल सूत्र के प्राकृत नामों का संस्कृत रूपान्तर है - उपघातिक आारोपणा, अनुपघातिकारोपण कृत्स्न श्रारोपण और कृत्स्न श्रावणा ।
जो कुछ हमने ऊपर लिखा है, इसका समर्थन, समवायांग के मूल पाठ और अभयदेव - कृत वृत्ति से स्पष्टतः हो जाता है । अस्तु, हम विचार में हैं कि आचार्य श्री जी ने प्रथम के २४ भेदों को २५ कैसे गिन लिया ? और बाद के चार भेदों के तीन ही भेद बना लिए । प्रथम के दो भेदों को मिलाकर एक भेद कर लिया । और आरोपणा, जो कि स्वयं कोई भेद नहीं है, प्रत्युत सब के साथ विशेष्य रूप से व्यवहृत हुआ है, उसको सत्ताईसवें भेद के रूप में स्वतन्त्र भेद मान लिया है । और अन्तिम दो भेदों का फिर अट्ठाईसवें भेद के रूप में एकीकरण कर दिया गया है। इस सम्बन्ध में अधिक न लिखकर सं क्षेत्र में केवल विचार सामग्री उपस्थित की है, ताकि सत्यार्थ के निर्णय के लिए तत्त्वजिज्ञासु कुछ विचार-विमर्श कर सकें ।
याचार प्रकल्प के २८ अध्ययनों में वर्णित साध्वाचार का सम्यक रूप से आचरण न करना, अतिचार है ।
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१६२
श्रमण-सूत्र
पापश्रुत के २६ भेद
(१) भौम = भूमिकंध आदि का फल बताने वाला शास्त्र ।
(२) उत्पात = रुधिर वृष्टि, दिशाओं का लाल होना इत्यादि का शुभाशुभ फल बताने वाला निमित्त शास्त्र ।
( ३ ) स्वप्न-शास्त्र ।
( ४ ) अन्तरिक्ष = आकाश में होने वाले ग्रहबेध ग्रादि का वर्णन करने वाला शास्त्र ।
(५ . अंगशास्त्र = शरीर के स्पन्दन श्रादि का फल कहने वाला शास्त्र ।
(६) स्वर शास्त्र ।
( ७ ) व्यञ्जन शास्त्र = तिल, मष ग्रादि का वर्णन करने वाला शास्त्र ।
(८) लक्षण शास्त्र - स्त्री पुरुषों के लवणों का शुभाशुभ फल बताने वाला शास्त्र ।
ये आठों ही सूत्र, वृत्ति, और वार्तिक के भेद से चौबीस शास्त्र हो जाते हैं ।
(२५) विकथानुयोग - अर्थ और काम के उपायों को बताने वाले शास्त्र, जैसे वाल्यायनकृत काम सूत्र आदि ।
(२६) विद्यानुयोग = रोहिणी आदि विद्यायों की सिद्धि के उपाय बताने वाले शास्त्र ।
( २७ ) मन्त्रानुयोग = मन्त्र आदि के द्वारा कार्यसिद्धि बताने वाले शास्त्र ।
(२८) योगानु योग : वशीकरण प्रादि योग बताने वाले शास्त्र ।
( २६ ) अन्यतीथिकानुयोग = अन्यतीर्थिकों द्वारा प्रवर्तित एवं अभिमत हिंसा प्रधान श्राचार-शास्त्र ।
[ समवायांग ]
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भयादि-सूत्र
१६३
महामोहनीय के ३० स्थान
(१) स जीवों को पानी में डुबा कर मारना । (२) त्रस जीवों को श्वास आदि रोक कर मारना । (३) त्रस जीवों को मकान आदि में बंद कर के धुएँ से घोट
कर मारना। (४) त्रस जीवों को मस्तक पर दण्ड आदि का घातक प्रहार
करके मारना। (५) त्रस जीवों को मस्तक पर गीला चमड़ा आदि बाँध
कर मारना। (६) पथिकों को धोखा देकर लूटना । (७) गुप्तरीति से अनाचार का सेवन करना ।
८) दूसरे पर मिथ्या कलंक लगाना । (६) सभा में जान-बूझ कर मिश्रभाषा= सत्य जैसा प्रतीत होने
वाला झूठ बोलना । (१०) राजा के राज्य का ध्वंस करना। (११) बाल ब्रह्मचारी न होते हुए भी बाल ब्रह्मचारी कहलाना । (१२) ब्रह्मचारी न होते हुए भी ब्रह्मचारी होने का दौंग रचना । (१३) आश्रयदाता का धन चुराना । (१४) कृत उपकार को न मान कर कृतघ्नता करना । । १५) गृहपति अथवा संघपति आदि की हत्या करना । (१६ ) राष्ट्रनेता की हत्या करना । ( १७) समाज के आधारभूत विशिष्ट परोपकारी पुरुष की हत्या
करना। (१८) दीक्षित साधु को सौंयम से भ्रष्ट करना । ( १६ ) केवल ज्ञानी की निन्दा करना । (२०) अहिंसा आदि मोक्षमार्ग की बुराई करना । (२१) प्राचार्य तथा उपाध्याय की निन्दा करना ।
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श्रमण-सूत्र
( २२ ) श्राचार्य तथा उपाध्याय की सेवा न करना :
( २३ ) बहुश्रुत न होते हुए भी बहुश्रुत = पण्डित कहलाना । ( २४ ) तपस्वी न होते हुए भी अपने को तपस्वी कहना |
( २५ ) शक्ति होते हुए भी अपने श्राश्रित वृद्ध, रोगी आदि की सेवा न करना ।
(२६) हिंसा तथा कामोसादक विकथाद्यों का बार-बार प्रयोग करना । (२७) जादू टोना आदि करना ।
( २८ ) कामभोग में अत्यधिक लिप्त रहना, ग्रासक्त रहना ।
( २६ ) देवताओं की निन्दा करना ।
( ३० ) देवदर्शन न होते हुए भी प्रतिष्ठा के मोह से देवदर्शन की बात कहना ।
[ दशाश्रुत स्कन्ध ] जैन धर्म में आत्मा को श्रावृत करने वाले आठ कर्म माने गए हैं । सामान्यतः आठों ही कर्मों को मोहनीय कर्म कहा जाता है । परन्तु विशेषतः चतुर्थ कर्म के लिए मोहनीय संज्ञा रूढ़ है । प्रस्तुत सूत्र में इसी से ताल है । श्राचार्य हरिभद्र आवश्यक वृत्ति में लिखते हैं"सामान्येन एकप्रकृति कर्म मोहनीयमुच्यते । उक्तं च श्रट्ठविहंपिय कम्मं, भणियं मोहों त्ति जं समासेयमित्यादि । विशेषेण चतुर्थी प्रकृतिमहनीयमुच्यते तस्य स्थानानि -- निमित्तानि भेदाः पर्याया मोहनीयस्थानानि ।”
मोहनीय कर्मबन्ध के कारणों की कुछ इयत्ता नहीं है । तथापि शास्त्रकारों ने विशेष रूप से मोहनीय कर्मबन्ध के हेतु-भूत कारणों के तीस भेदों का उल्लेख किया है । उल्लिखित कारणों में दुरध्यवसाय की तीव्रता एवं क्रूरता इतनी अधिक होती है कि कभी-कभी महामोहनीय कर्म का बन्ध हो जाता है, जिससे अज्ञानी आत्मा सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागर तक स ंसार में परिभ्रमण करता है, दुःख उठाता है ।
प्रस्तुत सूत्र के मूल पाठ में प्रचलित महामोहनीय शब्द का प्रयोग किया है | परन्तु आचार्य हरिभद्र और जिनदास महत्तर केवल मोहनीय शब्द
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सानावरण
भयादि-सूत्र
१६५ का ही प्रयोग करते हैं । उत्तराध्ययन सूत्र, समवायांग सूत्र और दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में भी केवल मोहनीय स्थान कहा है । परन्तु भेदों का उल्लेख करते हुए अवश्य महामोह शब्द का प्रयोग हुअा है। 'महामोहं पकुव्वइ ।' सिद्धों के ३१ गुण
(१) क्षीण-मतिज्ञानावरण (२) क्षीणश्रु तज्ञानावरण (३) क्षीण अवधिज्ञानावरण (४) क्षीण मनःपर्ययज्ञानावरण (५) क्षीण केवल ज्ञानावरण ।
(६ } क्षीण चतुर्दर्शनावरण (७) क्षीण चतुर्दर्शनावरण (८) क्षीण अवधिदर्शनावरण (६) क्षीणकेवलदर्शनावरण (१०) क्षीणनिद्रा (११) क्षीण निद्रानिद्रा (१२) क्षीणप्रचला (१३) क्षीणप्रचला प्रचला (१४) क्षीणस्त्यानगृद्धि ।
(१५) क्षीण सातावेदनीय (१६) क्षीण असातावेदनीय । (१७) क्षीण दर्शन मोहनीय (१८) क्षीण चारित्र मोहनीय ।
(१६) क्षीण नैरयिकायु २० क्षीण तिर्यञ्चायु (२१) क्षीण मनुष्यायु (२२) क्षीण देवायु ।
(२३) जीण उच्च गोत्र (२४) क्षीण नीच गोत्र । (२५। क्षीण शुभ नाम (२६) क्षीण अशुभनाम ।
(२७) क्षीण दानान्तराय (२८ क्षीण लाभान्तराय । (२६ क्षीण भोगान्तमय (३० ' क्षीण उपभोगान्तराय (३१ क्षीण वीर्यान्तराय ।
[समवायांग] सिद्धों के गुणों का एक प्रकार और भी है। पाँच स स्थान, पाँच वण, दो गन्ध, पाँच रस, श्राठ स्पर्श, तीन वेद, शरीर, श्रासक्ति और पुनर्जन्म-इन सब इकत्तीस दोपों के क्षय से भी इकत्तीस गुण होते हैं।
[आचासंग] आदि गुण का अर्थ है---ये गुण सिद्धों में प्रारम्भ से ही होते हैं, यह नहीं कि कालान्तर में होते हों। क्योंकि सिद्धों की भूमिका क्रमिक विकास की नहीं है। प्राचार्य श्री शान्तिसूरि 'सिद्धाइगुण' का अर्थ
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श्रमण सूत्र
'सिद्धाऽतिगुण' करते हैं । प्रतिगुण का भाव है - 'उत्कुष्ट, असा
धारण गुण बत्तीस योग-संग्रह
( १ ) गुरुजनों के पास दोनों की आलोचना करना २) किसी के दोषों की आलोचना सुनकर और के पास न कहना ( ३ ) संकट पड़ने पर भी धर्म में दृढ़ रहना ( ४ ) श्रासक्ति रहित तप करना ( ५ ) सूत्रार्थं ग्रहणरूप ग्रहण - शिक्षा एवं प्रतिलेखना आदि रूप श्रासेवना आचार-शिक्षा का अभ्यास करना ( ६ ) शोभा श्रृंगार नहीं करना ( ७ ) पूजा प्रतिष्ठा का मोह त्याग कर अज्ञात तप करना ८ ) लोभ का त्याग ( ६ ) तितिक्षा | १० ) जंव = सरलता ( ११ ) शुचि = संयम एवं सत्य की पवित्रता ( १२ ) सम्यक्त्व शुद्धि ( १३. सम्माधि = प्रसन्न चित्तता ( १४ ) चार पालन में माया न करना ( १५ ) विनय ( १६ ) धैर्यं ( १७ ) संवेग = सांसारिक भोगों से भय अथवा मोक्षा भिलाषा (१८) माया न करना ( १६ ) सदनुष्ठान ( २० ) सौंवर : पाश्र्व को रोकना ( २१ ) दोषों की शुद्धि करना ( २२ ) काम भोग से विरक्ति ( २३ ) मूलगुणों का शुद्ध पालन ( २४ ) उत्तरगुणों का शुद्ध पालन २५) व्युत्सर्म करना (२६) प्रमाद न करना ( २७ ) प्रतिक्षण संयम यात्रा में सावधानी रखना ( २८ ) शुभ ध्यान ( २६ ) मारणान्तिक वेदना होने पर भी अधीर न होना ( ३० ) संग का परित्याग करना ( ३१ ) प्रायश्चित्त ग्रहण करना ( ३२ ) ग्रन्तः समयः में संलेखना करके आराधक बनना । [ समवायांग ]
"
आचार्य जिनदास बत्तीस योग-संग्रह का एक दूसरा प्रकार भी लिखते हैं। उनके उल्लेखानुसार धर्म ध्यान के सोलह भेद और इसी प्रकार शुक्ल ध्यान के सोलह भेद, सब मिल कर बत्तीस योगसंग्रह के भेद हो जाते हैं । 'धम्मो सोलसविधं एवं सुक्कंपि ।
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मन, वचन और काय के व्यापार को योग कहते हैं । शुभ और अशुभ भेद से योग के दो प्रकार हैं। अशुभ योग से निवृत्ति और शुभ योग में
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भयादि-सूत्र
१६७
प्रवृत्ति ही संयम है । प्रस्तुत सूत्र में शुभ प्रवृत्ति रूप योग ही ग्राह्य है । उसी का संग्रह संयमी जीवन की पवित्रता को अक्षुण्ण बनाए रख सकता है।
- युज्यन्ते इति योगाः मनोवाक्कायव्यापाराः, ते चेह प्रशस्ता एव विवक्षिताः । श्राचार्य श्रभयदेव, समवायांग टीका |
प्रश्न है, बालोचनादि को संग्रह क्यों कहा गया है ? ये तो संग्रह के निमित्त हो सकते हैं, स्वयं संग्रह नहीं । आप ठीक कहते हैं । यहाँ संग्रह शब्द की संग्रह निमित्त में ही लक्षणा है । 'प्रशस्तयोग संग्रहनिमित्तत्वादालोचनादय एव तथोच्यन्ते । श्रभयदेव, समवायांग टीका । योग संग्रह की साधना में जहाँ कहीं भूल हुई हो, उसका प्रतिक्रमण यहाँ भी है ।
तेतीस आशातना अरिहन्त की शातना से लेकर चौदह ज्ञान की आशा तना तक तेतीम श्राशातना, मूल सूत्र में वर्णन की गई हैं । कुछ टीकाकार यहाँ पर भी श्राशातना से गुरुदेव की ही तेतीस श्राशातना लेते हैं । गुरुदेव की तेतीस प्राशातनाओं का वर्णन परिशिष्ट में दिया गया है ।
जैनाचार्यों ने शातना शब्द की निरुक्ति बड़ी ही सुन्दर की है । सम्यग्दर्शन आदि आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति को प्राय कहते हैं और शातना का अर्थ - खण्डन करना है । गुरुदेव आदि पूज्य पुरुषों का अपमान करने से सम्यग्दर्शन आदि सद्गुणों की शातना = खण्डना होती है । 'प्रायः सम्यग्दर्शनाथ वाप्तिलक्षणस्तस्य शातना - खण्डनं निरुक्रादाशातना । ' -- आचार्य श्रभयदेव, समवायांग टीका । 'आसातणा णामं नाणादि आयस्स सातणा । यकारलोपं कृत्वा श्राशातना भवति ।' - आचार्य जिनदास, श्रावश्यकचूर्णि ।
अरिहन्तों की आशातना
सूत्रोक्त तेतीस श्राशातनात्रों में पहली श्राशातना अरिहन्तों की है । जैन शासन के केन्द्र अरिहन्त ही हैं, अतः सर्व प्रथम उनका ही उल्लेख
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१६८
श्रमण-सूत्र
याता है । वे जगजीवों के लिए धर्म का उपदेश करते हैं, सन्मार्ग का निरूपण करते हैं और अनन्तकाल से अन्धकार में भटकते हुए जीवों को सत्य का प्रकाश दिखलाते हैं । ग्रतः उपकारी होने से सर्व प्रथम उनकी ही महिमा का उल्लेख है ।
आजकल हमारे यहाँ भारतवर्ष में अरिहन्त विद्यमान नहीं हैं, ग्रतः उनकी शातना कैसे हो सकती है ? समाधान है कि अरिहन्तों की कभी कोई सत्ता ही नहीं रही है, उन्होंने निर्दय होकर सर्वथा अव्यवहार्यं कठोर निवृत्ति प्रधान धर्म का उपदेश दिया है, वीतराग होते हुए भी स्वर्णसिंहासन आदि का उपयोग क्यों करते हैं ? इत्यादि दुर्विकल्प करना अरिहंतों की श्राशातना है ।
सिद्धों की प्रशातना
सिद्ध हैं ही नहीं । जब शरीर ही नहीं है तो फिर उनको सुन किस बात का ? संसार से सर्वथा अलग निश्चे पड़े रहने में क्या आदर्श है ? इत्यादि रूप में अवज्ञा करना, सिद्धों की ग्राशातना है । साध्वियों को अशातना
स्त्री होने के कारण साध्वियों को नीच बताना | उनको कलह श्रौर संघर्ष की जड़ कहना । साधुनों के लिए साध्वियाँ उपद्रव रूप हैं | ऋतुकाल में कितनी मलिनता होती होगी ? इत्यादि रूप से अवहेलना करना, साध्वियों की आशातना है ।
श्राविकाओं की आशातना
जैन धर्म ती उदार और विराट धर्म है । यहाँ केवल अरिहन्त श्रादि महान् श्रात्मानों का ही गौरव नहीं है । ग्रपितु साधारण गृहस्थ होते हुए भी जो स्त्री-पुरुष श्रावक-धर्म का पालन करते हैं, उनका भी यहाँ गौरवपूर्ण स्थान है | श्रावक और श्राविकाओं की अवज्ञा करना भी एक पाप है । प्रत्येक आचार्य, आध्याय और साधु को भी, प्रति दिन प्रातः और सायंकाल प्रतिक्रमण के समय, श्रावक एवं श्राविकाओं के
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भयादि-सूत्र
१६६
प्रति ज्ञात या अज्ञात रूप से की जाने वाली अवज्ञा के लिए, पश्चाताप करना होता है-मिच्छामि दुक्कडं देना होता है।
अन्य धर्मों में प्रायः स्त्री का स्थान बहुत नीचा माना गया है। कुछ धर्मों में तो स्त्री साध्वी भी नहीं बन सकती। वह मोक्ष भी नहीं प्राप्त कर सकती। उसे स्वतन्त्र रूप से यज्ञ, पूजा आदि के अनुष्ठान का भी अधिकार नहीं है । कुछ लोग उसे शूद्र, और कुछ शूद्र से भी निंद्य समझते हैं। उन्हें वेदादि पढ़ने का भी अधिकार नहीं है । परन्तु जैनधर्म में स्त्री को पुरुष के बराबर ही धर्म कार्य का अधिकार है, मोक्ष पाने का अधिकार है। जैन-धर्म किसी विशेष वेष-भेद और स्त्री पुरुष
आदि के लिंग-भेद के कारण किसी को ऊँचा नीचा नहीं समझता, किसी की स्तुति-निंदा नहीं करता। जैन धर्म गुण पूजा का धर्म है । गुण हैं तो स्त्री भी पूज्य है, अन्यथा पुरुष भी नहीं। अतएव गृहस्थ-स्थिति में रहती हुई स्त्री, यदि धर्माराधन करती है-श्रावक-धर्म का पालन - करती है, तो वह स्तुति योग्य है, निन्दनीय नहीं ।
यही कारण है कि प्रस्तुत सूत्र में श्राविका की अवहेलना करने का भी प्रतिक्रमण है । श्राविका गृह कार्य में लगी रहती हैं, प्रारम्भ में ही जीवन गुज़ारती हैं, बाल-बच्चों के मोह में फँसी रहती हैं, उनकी सद्गति कैसे होगी? 'श्रारंभताणं कतो सोग्गती ?' इत्यादि श्राविकाओं की अवहेलना है, जो त्याज्य है। साधक को 'दोष दृष्टिपरं मनः' नहीं होना चाहिए । देव और देवियों को आशातना
देवताओं की अाशातना से यह अभिप्राय है कि देवताओं को कामगर्दभ कहना, उन्हें आलसी और अकिंचित्कर कहना । देवता मांस खाते हैं, मद्य पीते हैं इत्यादि निन्दास्पद सिद्धान्तों का प्रचार करना । __ साधु और श्रावकों के लिए देव-जगत के सम्बन्ध में तटस्थ मनोवृत्ति रखना ही श्रेयस्कर है । देवताओं का अपलाप एवं अवर्णवाद करने से साधारण जनता को, जो उनकी मानने वाली होती है, व्यर्थ ही कष्ट • पहुँचता है, बुद्धि भेद होता है, और साम्प्रदायिक संघर्ष भी बढ़ता है ।
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श्रमण-सूत्र इहलोक और परलोक की आशातना
इहलोक और परलोक का अभिप्राय समझ लेना आवश्यक है । मनुष्य के लिए मनुष्य इह लोक है और नारक, तिथंच तथा देव परलोक हैं । स्वजाति का प्राणी-वर्ग इह लोक कहा जाता है और विजातीय प्राणी-वर्ग परलोक । इहलोक और परलोक की असत्य प्ररूपणा करना, पुनर्जन्म अादि न मानना, नरकादि चार गतियों के सिद्धान्त पर विश्वास न रखना, इत्यादि इहलोक और परलोक की पाशातना है । लोक की अशातना ___ लोक, संसार को कहते हैं । उसकी अशातना क्या ? लोक की पाशातना से यह अभिप्राय है कि देवादि-सहित लोक के सम्बन्ध में मिथ्या प्ररूपणा करना, उसे ईश्वर आदि के द्वारा बना हुअा मानना, लोकसम्बन्धी पौराणिक कल्पनाओं पर विश्वास करना; लोक की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय-सम्बन्धी भ्रान्त धारणाओं का प्रचार करना । प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों की आशातना
प्राण, भूत आदि शब्दों को एकार्थक माना गया है। सब का अर्थ जीव है । आचार्य जिनदास कहते हैं-'एगट्ठिता वा एते ।' परन्तु श्राचार्य जिनदास महत्तर और हरिभद्र आदि ने उक शब्दों के कुछ विशेष अर्थ भी स्वीकार किए हैं । द्वीन्द्रिय अादि जीवों को प्राण ओर पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों को भून कहा जाता है । समस्त मसारी प्राणियों के लिये जीव और ससारी तथा मुक सब अन्तानन्त जीवों के लिए सत्त्व-शब्द का व्यवहार होता है। "प्राणिनः द्वीन्द्रियादयः। भूतानि पृथिव्यादय""। जीवन्ति जीवा-श्रायुः कर्मानुभवयुकाः सर्व एव"। सत्वाः-सांसारिकसंसारातीतमेदाः।"
-श्रावश्यक शिष्य-हिता टीका । प्राण, भूत आदि शब्दों की व्याख्या का एक ओर प्रकार भी है, जो प्रायः आज भी सर्वमान्य रूप में प्रचलित है और आगम साहित्य के प्राचीन टीकाकारों को भी मान्य है। द्वीन्द्रिय अादि तीन विकलेन्द्रिय
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भयादि सूत्र
२०१ जीवों को प्राण कहते हैं । वृक्षों को भूत, पञ्चन्द्रिय प्राणियों को जीव तथा शेष सत्र जीवों को सत्त्व कहा गया है। "प्राणा द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिया, भूताश्च तरवो, जीवाश्च पञ्चन्द्रियाः, सत्वाश्च शेषजीवाः ।"
---भाव विजय कृत उत्तराध्ययन सूत्र टीका २६।१६। विश्व के समस्त अनन्तानन्त जीवों की अाशातना का यह सूत्र बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है । जैन धर्म की करुणा का अनन्त प्रवाह केवल परिचित
और स्नेही जीवों तक ही सीमित नहीं है । अपितु समस्त जीवराशि से क्षमा माँगने का महान् अादर्श है। प्राणी निकट हों या दूर हों स्थूल हों या सूक्ष्म हों, ज्ञात हों या अज्ञात हों, शत्रु हों या मित्र हों किसी भी रूप में हों, उनकी अशातना एवं अवहेलना करना साधक के लिए सर्वथा निषिद्ध है। __यहाँ अाशातना का प्रकार यह है कि अात्मा की सत्ता ही स्वीकार न करना, पृथ्वी ग्रादि दो जड़ मानना, अात्मतत्त्व को क्षणिक कहना, एकेन्द्रिय तथा द्वीन्द्रिय आदि जीवों के जीवन को तुच्छ समझाना, फलतः उन्हें पीड़ा पहुँचाना। काल की आशातना
साधक को समय की गति का अवश्य ध्यान रखना चाहिए। वात्र कैसा काल है ? क्या परिस्थिति है ? इस समय कौन-सा कार्य कतव्य है और कोनसा अकर्तव्य ? एक बार गया हुअा समय फिर लोट कर नहीं आता । समय की क्षति सबसे बड़ी क्षति है | इत्यादि विचार साधक जीवन के लिए बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं । जो लोग आलसी हैं, समय का महत्व नहीं समझते, 'काले कालं समायरे' के स्वर्ण सिद्धान्त पर नहीं चलते, वे साधना-पथ से भ्रष्ट हुए विना नहीं रह सकते।।
इसी भावना को ध्यान में रखकर काल की पाशातना न करने का विधान किया है । काल की अवहेलना बहुत बड़ा पाप है। संयम जीवन की अनियमितता ही काल की अाशातना है ।
प्राचार्य जिनदास पर हरिभद्र आदि का कहना है कि काल है ही
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श्रमण-सूत्र
नहीं, काल ही विश्व का कर्ता हर्ता है, काल देव या ईश्वर है, प्रतिलेखना आदि के अमुक निश्चित काल क्यों माने गए हैं ? इत्यादि विचार काल की अाशातना है। श्रत को आशातना ____ जैन-धर्म में श्रुत ज्ञान को भी धर्म कहा है। विना श्रुत-ज्ञान के चारित्र कैसा ? श्रुत तो साधक के लिए तीसरा नेत्र है, जिमके विना शिव बना ही नहीं जा सकता। इसीलिए प्राचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं 'श्रागम-चक्खू साहू।'
श्रुत की अाशातना साधक के लिए अतीव भयावह है। जो श्रुत की अवहेलना करता है, वह साधना की अवहेलना करता है--धर्म की अवहेलना करता है । श्रुत के लिए अत्यन्त श्रद्धा रखनी चाहिए। उसके लिए किसी प्रकार की भी अवहेलना का भाव रखना घातक है।
प्राचार्य हरिभद्र श्रुत आशातना के सम्बन्ध में कहते हैं कि "जैन श्रुत साधारण भाग प्राकृत में है, पता नहीं, उसका कोन निर्माता है ? वह केवल कठोर चारित्र धर्म पर ही बल देता है। अत के अध्ययन के लिए काल मर्यादा का बन्धन क्यों है ? इत्यादि विपरीत विचार और वर्तन श्रुत की अाशातना है।" श्रुत-देवता की आशातना
श्रुत-देवता कौन है ? और उसका क्या स्वरूप है ? यह प्रश्न बड़ा ही विवादास्पद है। स्थानकवामी परंपरा में श्रुत देवता का अर्थ किया जाता है----'श्रुतनिर्माता तीर्थकर तथा गणधर ।' वह श्रुत का मूल अधिष्ठाता है, रचयिता है, अतः वह उसका देवता है। प्राचार्य श्रीआत्मारामजी, भीयाणी हरिलाल जीवराज भाई गुजराती, जीवणलाल छगनलाल संघवी आदि प्रायः सभी लेखक ऐसा ही अर्थ करते हैं । ___परन्तु श्वेताम्बर मूर्ति-पूजक परंपरा में 'श्रुत देवता' एक देवी मानी जाती है, जो श्रुत की अधिष्ठात्री के रूप में उनके यहाँ प्रसिद्ध है। यह मान्यता भी काफी पुरानी है। प्राचार्य जिनदाम भी इसका उल्लेग्य
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भयादि-सूत्र
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करते हैं-'जीए सुतमधिष्ठितं, तीए प्रासातणा। नस्थि सा, अकिंचिक्करी वा एवमादि ।' अावश्यक चूणि । वाचनाचार्य की आशातना
प्राचार्य और उपाध्याय की अाशातना का उल्लेख पहले पा चुका है । फिर यह वाचनाचार्य कौन है ? श्राचार्य श्री आत्माराम जी महाराज
आदि अव्यापक तथा उपाध्याय अर्थ करते हैं। परन्तु वह ठीक नहीं मालूम होता । सूत्रकार व्यर्थ ही पुनरुक्ति नहीं कर सकते ।
हाँ तो ग्राइए, जरा विचार करें कि यह वाचनाचार्य कौन है ? किंस्वरूप है ? वाचनाचार्य, उपाध्याय के नीचे श्रुतोष्टा के रूप में एक छोटा पद है । उपाध्यायश्री की प्राज्ञा से यह पढ़नेवाले शिष्यों को पाठरूप में केवल श्रु त का उद्देश अादि करता है। प्राचार्य जिनदास और हरिभद्र यही अर्थ करते हैं । 'वायणायरियो नाम जो उवज्झाय-संदिट्ठो उद्देसादि करेति ।' यावश्यक चूगि । व्यत्यानंडित
'वच्चामेलियं' का सस्कृत रूप 'व्यत्यानंडित' होता है । इसका अर्थ हमने शब्दार्थ में, दो-तीन बार बोलना किया है । शून्यचित्त होकर अनवधानता से शास्त्र-पाटों को दुहराते रहना, शास्त्र की अवहेलना है । कुछ प्राचार्य, व्यत्याम्रोडित का अर्थ भिन्न रूप से भी करते हैं। वह अर्थ भी महत्त्वपूर्ण है। 'भिन्न-भिन्न सूत्रों में तथा स्थानों पर आए हुए एक जैसे समानार्थक पदों को एक साथ मिलाकर बोलना' भी व्यत्याम्रोडित है। योग-हीन
योग-हीन का अर्थ मन, वचन और काय योग की चंचलता है। अथवा विना उपयोग के पढ़ना भी योग हीनता है ।
श्री हरिभद्र आदि कुछ प्राचीन प्राचार्य, योग का अर्थ उपधान-तप भी करते हैं । सूत्रों को पढ़ते हुए किया जानेवाला एक विशेष तपश्चरण
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श्रमण-सूत्र
उपधान कहलाता है। उसे योग भी कहते हैं। अतः योगोद्वहन के, विना सूत्र पढ़ना भी योग हीनता है । विनय हान
विनय हीन का अर्थ है, सूत्रों का अध्ययन करते समय वाचनाचार्य अादि की तथा स्वयं सूत्र के प्रति अनादर बुद्धि रखना, उचित विनय न. करना । ज्ञान विनय से ही प्राप्त होता है। विनय जिनशासन का मूल है । जहाँ विनय नहीं, वहाँ कैसा ज्ञान और कैसा चारित्र ?
यहाँ कुछ पाठ में व्यत्यय है। किन्हीं प्रतियों में 'विणय-हीणं, 'घोसहीणं' यह क्रम है। अाजकल प्रचलित पाट भी यही है । परन्तु हरिभद्र का क्रम इससे भिन्न है । वह 'विणय हीणं, घोसहीणं, जोगहीणं' ऐसा क्रम सूचित करते हैं । अत्र रहे अावश्यक चूणि कार जिनदास महत्तर । उन्होंने क्रम रक्खा है-'पग्रहीणं, घोसहीणं, जोगहीणं, विणयहीणं ।' हमें श्री जिनदास महत्तर का क्रम अधिक मगत प्रतीत होता है । पद-हीनता ओर घोष हीनता तो उच्चारण सम्बन्धी भूले हैं। योग हीनता
और विनय हीनता श्रु त के प्रति अावश्यक रूप में करने योग्य कर्तव्य की भूले हैं । अतः इन सबका पृथक पृथक् रूप में उल्लेग्य करना ही अच्छा रहता है । पदहीनता के बाद विनय हीनता और योगहीनता, तथा उसके पश्चात् अन्त में बोर हीनता का होना, विद्वानों के लिए विचारणीय विषय है। हमारी अल बुद्धि में तो यह क्रमभंग ही प्रतीत होता है । क्यों न हम श्राचार्य जिनदास के क्रम को अपनाने का प्रयत्न करें। घोष-हीन
शास्त्र के दो शरीर माने जाते हैं शब्द शरीर और अर्थ शरीर । शास्त्र का पढ़ने वाला जिज्ञासु सर्वप्रथम शब्द-शरीर को ही स्पर्श करता है । अतः उसे उच्चारण के प्रति अधिक लक्ष्य देना चाहिए। स्वर के उतार चढ़ाव के साथ मनोयोगपूर्वक सूत्र पाठ पढ़ने से शीघ्र ही अर्थपतति होती है और पास-पास के वातावरण में मधुर ध्वनि गूंजने
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भयादि सूत्र
२०५
लगती है । अतः उदात्त ( ऊँचा स्वर ', अनुदात्त (नीचा स्वर ), और स्वरित ( मध्यम स्वर ) का ध्यान न रखते हुए स्वर हीन शास्त्र-पाठ करना, घोषहीन दोष माना गया है ।
सुष्ठुदत्त
'सुष्ठुदत्त' के सम्बन्ध में बहुत-सी विवादास्पद व्याख्याएँ हैं । कुछ विद्वान् 'सुदिन्न बुडु पडिच्छिय' को एक अतिचार मान कर ऐसा अर्थ करते हैं कि 'गुरुदेव ने अच्छी तरह अध्ययन कराया हो परन्तु मैंने दुर्विनीत भाव से बुरी तरह ग्रहण किया हो तो ।' यह अर्थ संगत नहीं है । ऐसा मानने से ज्ञानातिचार के चौदह भेद न रह कर तेरह भेद ही रह जायेंगे, जो कि प्राचीन परंपरा से सर्वथा विरुद्ध है । श्राशातना भी तेतीस से घट कर बत्तीस ही रह जायँगी, जो स्वयं आवश्यक के मूल पाठ से ही विरुद्ध है । अतः दोनों पद, दो भिन्न प्रतिचारों के सूचक हैं, एक के नहीं ।
पूज्य श्री श्रात्मारामजी महाराज आदि ऐसा अर्थ करते हैं कि 'मूर्ख, प्रविनीत तथा कुपात्र शिष्य को अच्छा ज्ञान दिया हो तो ।" इस अर्थ में भी तर्क है कि मूर्ख तथा प्रविनीत शिष्य को अच्छा ज्ञान नहीं देना तो क्या बुरा ज्ञान देना ? ज्ञान को अच्छा विशेषण लगाने की क्या आवश्यकता है ? विनीत तथा कुपात्र तो ज्ञान दान का अधिकारी पात्र ही नहीं है । रहा मूर्ख, सो उसे धीरे-धीरे ज्ञानदान के द्वारा ज्ञानी घनाना, गुरु का परम कर्तव्य है । अस्तु, यह अर्थ भी कुछ सांगत प्रतीत नहीं होता ।
गमोद्धारक पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी महाराज का अर्थ तो बहुत ही भ्रान्ति पूर्ण है । थापने लिखा है- 'विनीत को ज्ञान दे ।' यह वाक्य क्या अभिप्राय रखता है, हम नहीं समझ सके । विनीत को ज्ञान देना, कोई दोष तो नहीं है ? कहीं भूल से 'न' तो नहीं छुट गया है ? पडियं का अर्थ विनीत को ज्ञान देना किया है । यह भी ठीक नहीं; क्योंकि पडिच्छियं का अर्थ लेना है, देना नहीं ।
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श्रमण सूत्र कितने ही विद्वानों का एक और अर्थ भी है । वह बहुत विलक्षण है। वे 'सुटछु दिन्नं' में 'सुठुऽदिन्न' इस प्रकार दिन्नं से पहले अकार का प्रश्लेप मानते हैं और अर्थ करते हैं कि ग्रालस्यवश या अन्य किसी ईर्ष्यादि के कारण से योग्य शिष्य को अच्छी तरह ज्ञानदान न दिया हो ।' यह अर्थ बहुत सुन्दर मालूम देता है। ___ अब अन्त में एक महत्वपूर्ण अर्थ की चर्चा की जा रही है। इस अर्थ के पीछे एक प्राचीन और विद्वान् प्राचार्यों की परंपरा है । श्राचार्य हरिभद्र कहते हैं-'सुष्टु दत्त गुरुणा दुष्ठु प्रतीच्छितं कलुपान्तर' त्मनेति ।' इस सक्षेमोक्ति में दोनों पदों को मिलाकर एक अतिचार मानने का भ्रम होता है। इस भ्रान्ति को दूर करते हुए मलधार गच्छीय श्राचार्यहेमचन्द्र, अपने हरिभद्रीय अावश्यक टिप्पणक में लिखते हैं 'सुष्टु दत्तं' में सुष्टु शब्द शोभन वाचक नहीं है, जिसका अर्थ अच्छा किया जाता है। क्योंकि अच्छी तरह ज्ञान देने में कोई अतिचार नहीं है । अतः यहाँ सुष्टु शब्द अतिरेकवाचक समझना चाहिए । अल्प श्रत के योग्य अल्पबुद्धि शिष्य को अधिक अध्ययन करा देना, उसकी योग्यता का विचार न करना, ज्ञानातिचार है ।
--"ननु तथाप्येतानि चतुर्दश पदानि तथा पूर्यन्ते यदा सुष्टु दत्त दुष्ठु प्रतीच्छित मिति पदद्वयं पृथगाशातना-स्त्ररूपतया गण्यते । नचैतद् युज्यते, सुष्ठु दत्तस्य तद्रूपताऽयोगात् । नहि शोभनविधिना दत्त काचिदाशातना संभवति ?
सत्यं, स्यादेतद् यदि शोभनस्ववाचकोऽत्र सुष्टु शब्दः स्यात् । तच नास्ति, अतिरेक वाचित्वेन इहास्य विवक्षितत्वाद् । एतदत्र हृदयम्सुष्टु = अतिरेकेण विवक्षिताऽल्पश्रुतयोग्यस्य पात्रस्याऽऽधिक्येन यत् श्रुतं दत्तं तस्य मिथ्यादुष्कृतमिति विवक्षितस्वान किञ्चिदसङ्गतमिति ।"
प्रत्येक कार्य में योग्यता का ध्यान रखना आवश्यक है। साधारण अल्पबुद्धि शिष्य को मोह या आग्रह के कारण शास्त्रों की विशाल वाचना दे दी जाय तो वह सँ भाल नहीं सकता । फलतः ज्ञान के प्रति अरुचि
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'भयादि-सूत्र
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होने के कारण वह थोड़ा सा अपने योग्य ज्ञानाभ्यास भी नहीं कर सकेगा । यतः गुरु का कर्तव्य है कि यथायोग्य थोड़ा-थोड़ा अध्ययन कराए, ताकि धीरे-धीरे शिष्य की ज्ञान के प्रति अभिरुचि एवं जिज्ञासा बलवती होती चली जाय । अकाल में स्वाध्याय
कालिक और उत्कालिक रूप से शास्त्रों के दो विभाग किए हैं । कालिक श्रुत वे हैं जो प्रथम अन्तिम पहर में ही पढ़े जाते हैं, बीच के पहरों में नहीं । उत्कालिक वे हैं, जो चारों ही प्रहरों में पढ़ें जा सकते हैं । वस्तु, जिस शास्त्र का जो काल नहीं है उसमें उस शास्त्र का स्वाध्याय 'करना ज्ञानातिचार है । इसी प्रकार नियत काल में स्वाध्याय न करना भी अतिचार है ।
ज्ञानाभ्यास के लिए काल का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है । बेमौके की रागिनी अच्छी नहीं होती । यदि शास्त्राध्ययन करता हुआ कालादि का ध्यान न रक्खेगा तो कब तो प्रतिलेखना करेगा ? कब गोत्र - चर्या के लिए जायगा ? कब गुरुजनों की सेवा का लाभ लेगा ? कालातीत अध्ययन कुछ दिन ही चलेगा, फिर अन्त में वहाँ भी उत्साह ठंडा पड़ जायगा । शक्ति से अधिक प्रयत्न करना भी दोष है । इसी प्रकार शक्ति के अनुकूल प्रयत्न न करना भी दोष है । स्वाध्याय का समय होते हुए भी आलस्यवश या किसी अन्य अनावश्यक कार्य में लगा रहकर जो साधक स्वाध्याय नहीं करता है, वह ज्ञान का अनादर करता है - अपमान करता है । वह दिव्य ज्ञान-प्रकाश के लिए द्वार बन्द कर ज्ञानान्धकार को निमन्त्रण देता है ।
अस्वाध्यायिक में स्वाध्यायित
शीर्षक के शब्द कुछ नवीन से प्रतीत होते हैं । परन्तु नवीनता कुछ नहीं है | स्वाध्याय को ही स्वाध्यायिक कहते हैं और स्वाध्याय को स्वाध्यायिक | कारण में कार्य का उपचार हो जाता हैं । श्रतः Faraara ar arध्याय के कारणों को भी क्रमशः स्वाध्यायिक तथा
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श्रमण-सूत्र
श्रस्वाध्यायिक कह सकते हैं। जिस प्रकार 'पानी जीवन है-इस वाक्य में पानी जीवन रूप कार्य का कारण है स्वयं जीवन नहीं है, फिर भी उसे कारण में का योपचार की दृष्टि से जीवन कहा हैं |
हाँ, तो रक्त, मांस, अस्थि तथा मृत कलेवर श्रादि श्रासपास में हों तो वहाँ स्वाध्याय करना वर्जित है। अतः जहाँ रुधिर श्रादि अस्वाध्यायिक हों अर्थात् अस्वाध्या । के कारण विद्यमान हों, फिर भी वहाँ स्वाध्याय करना, ज्ञानातिचार है। इसी प्रकार स्वाध्यायिक में अर्थात् अस्वाध्याय के कारण न हों, फलतः स्वाध्याय के कारण हो, फिर भी स्वाध्याय न करना ; यह भी ज्ञानातिचार है । श्रस्वाध्यायिक शब्द की उक्त व्याख्या के लिए आचार्य हरिभद्र-कृत आवश्यक सूत्र की शिष्यहिता वृत्ति द्रष्टव्य है । "पा अध्ययनमाध्ययनमाध्यायः । शोभन श्राध्यायः स्वाध्यायः । स्वाध्याय एव स्वाध्यायिकम् । न स्वाध्यायिकमस्वाभ्यायिकं, तत्कारणमपि च रुधिरादि कारणे कार्योपचारात् प्रास्वाध्यायिकमुच्यते।"
श्रास्वाध्यायिक के मूल में दो भेद हैं-यात्म-समुत्थ और परसमुत्थ । अपने व्रण से होने वाले रुधिरादि अात्म-समुत्थ कहलाते हैं । और पर अर्थात् दूसरों से होने वाले पर समुत्थ कहे जाते हैं। आवश्यक नियुक्ति में इन सत्र का बड़े विस्तार से वर्णन किया गया है। आचार्य जिनदास
और हरिभद्रजी ने भी अपनी अपनी व्याख्यानों में इस सम्बन्ध में काफी लम्बी चर्चा की है। अस्वाध्यायों का वर्णन विस्तार से तो नहीं, हाँ, संक्षेप से हमने भी परिशिष्ट में कर दिया है । जिज्ञासु वहाँ देखकर जानकारी प्राप्त कर सकते हैं । प्रतिक्रमण का विराट रूप
पडिकमामि 'एगविहे असंजमे' से लेकर 'तेत्तीसाए श्रासायणाहिं' तक के सूत्र में एक-विध असयम का ही विराट रूप बतलाया गया है । यह सब अतिचार समूह मूलतः असयम का ही पर्याय-समूह है।
१ अस्वाध्याय के कारणों का न होना ही स्वाध्याय का कारण है।
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भयादि-सूत्र
२०६
'पकिमाम एगविहे असंजमे' यह संयम का समास प्रतिक्रमण है । और यही प्रतिक्रमण श्रागे 'दोहिं बंधणेहिं' आदि से लेकर तेत्तीसाए श्रामायणाहि' तक क्रमशः विराट होता गया है ।
क्या यह प्रतिक्रमण तेतीस बोल तक का ही है ? क्या प्रतिक्रमण का इतना ही विराटरूप है ? नहीं, यह बात नहीं है । यह तो केवल सूचनामात्र है, उपलक्षण मात्र है । मलधार - गच्छीय श्राचार्य हेमचन्द्र के शब्दों में' 'दिङ मात्र प्रदर्शनाय' है ।
हाँ, तो प्रतिक्रमण के तीन रूप हैं जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट | 'usकमा विहे असंजमे' यह अत्यन्त संक्षिप्त रूप होने से जघन्य प्रतिक्रमण है । दो से लेकर तीन, चार, दशशत" सहस्र लक्ष" कोटि बुद्ध" किंबहुना, संख्यात तथा असंख्यात तक मध्यम प्रतिक्रमण है | और पूर्ण अनन्त की स्थिति में उत्कृष्ट प्रतिक्रमण होता है । इस प्रकार प्रतिक्रमण के संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त स्थान हैं ।
यह लोकालोक प्रमाण अनन्त विराट संसार है । इसमें अनन्त ही संयमरू हिंसा, असत्य, आदि हेय स्थान हैं, अनन्त ही संयम रूप अहिंसा, सत्य यादि उपादेय स्थान हैं, तथा अनन्त ही जीव, पुद्गल यदि ज्ञेय स्थान हैं । साधक को इन सबका प्रतिक्रमण करना होता है । अनन्त संयम स्थानों में से किसी भी सयम स्थान का श्राचरण न किया हो, तो उसका प्रतिक्रमण है । अनन्त संयम स्थानों में से किसी भी असंथम स्थान का श्राचरण किया हो, तो उसका प्रतिक्रमण है | अनन्त ज्ञेय स्थानों में से किसी भी ज्ञेय स्थान की सम्यक् श्रद्धा तथा प्ररूपणा न की हो, तो उसका प्रतिक्रमण है । सूत्रकार ने एक से लेकर तेतीस तक के बोल सूत्रतः गिना दिए हैं। आखिर एक-एक बोल गिनकर कहाँ तक गिनाते ? कोटि-कोटि वर्षों का जीवन समाप्त हो जाय, तब भी इन सब की गणना नहीं की जा सकती । अतः तेतीस के समान
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श्रमण-सूत्र ही अन्य अनन्त बोल भी अर्थतः सकल्प में रखने चाहिएं, भले ही वे ज्ञात हो या अज्ञात हों। साधक को केवल ज्ञात का ही प्रतिक्रमण नहीं करना है, अपितु अज्ञात का भी प्रतिक्रमण करना है | तभी तो आगे के अन्तिम पाठ में कहा है 'जे संभरामि, जं च न संभरामि ।' अर्थात् जो दोष स्मृति में पा रहे हैं उनका प्रतिक्रमण करता हूँ। और जो दोष इस समय स्मृति में नहीं पा रहे हैं, परन्तु हुए हैं, उन सब का भी प्रतिक्रमण करता हूँ।
यह है प्रतिक्रमण का विराट रूप । यहाँ विन्दु में सिन्धु समाना होता है, पिण्ड में ब्रह्माण्ड का दर्शन करना होता है। एक सचित्त रजकरण पर पैर अा गया, असख्य जीवों की हिंसा हो गई । एक सचित्त जलबिन्दु का उपघात हो गया, असंख्य जीवों की हिंसा हो गई। कहीं भी निगोद का स्पर्श हुअा तो अनन्त जीवों की विराधना हो गई । इस प्रकार असयम स्थान अनन्त रूप ले लेते हैं। एक रजकण का भी यथार्थ श्रद्धान न हुआ तो तद्गत अनन्त परमाणुयों के कारण श्रश्रद्धा ने अनन्त रूप ले लिया। लोकालोक रूप अनन्त विश्व के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की मिथ्या प्ररूपणा हुई तो विपरीत प्ररूपणा अनन्त रूप ग्रहण कर लेती है । जब साधक इन सब विपरीत श्रद्धा, विपरीत प्ररूणा एवं विपरीत प्रासेवना रूप अनन्त असंयम स्थानों से हटकर सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् प्ररूपणा एवं सम्यक् प्रासेवना रूप अनन्त सयम स्थानों में वापस लौट कर पाता है, तब क्या प्रतिक्रमण अनन्त रूप नहीं हो जाता है ? अवश्य हो जाता है । तभी तो मलधारगच्छीय प्राचार्य हेमचन्द्र, यावश्यक टीप्पणक में प्रस्तुत प्रसग को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-"अपरस्यापि चतुरिंशदादेरनंतपर्यवसानस्थ प्रतिक्रमण- स्थानस्यार्थतोऽत्र सूचितत्वात् ।"
प्राचार्य जिनदास महत्तर भी अावश्यक चूणि में लिखते हैं-"एवं ता सुत्तनिबंध, अत्थतो तेत्तीसाश्रो चोत्तीसा भवंतीत्ति, चोत्तीसाए बुद्धवयणातिसे सेहिं, पणतीसाए सञ्चवयणातिसे सेहि, छातीसाए उत्तरम
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भयादि-सूत्र
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यहिं, एवं जहा समवाए जाव सतभिसयानक्खते सतगतारे पण्णत्ते । एवं संखेज्जेहिं, असखेज्जेहिं, असंतेहिं य असंजमट्ठाणेहि य संजमट्ठाणेहि य जं पडिसिद्ध करणादिना अतियरितं तस्य मिच्छामि दुक्कडं । roat विय एसो दुगादीओ श्रतियारगणो एकविहस्स असंजमस्स पजायसमूहो इति । एवं संवेगाद्यर्थं श्रोगधा दुक्कडगरिहा कता ।
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१२८८
प्रतिज्ञा-सूत्र
नमो चवीसाए तित्थगराणं उसभादि - महावीर पज्जवसागाणं । इमे निम्गंथं पावय गं,
सच्च, अणुत्तरं, केवलियं, पडिपुराणं, नेउयं, संसुद्ध, सल्लगत्तणं, सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं, निज्जाणमग्गं, निव्वाणमगं, अवितहमविसंधि, सव्यदुक्खप्यहीणमग्गं । इत्थं ठिया जीवा, सिज्यंति बुज्कंति, मुच्चंति, परिनिव्वायंति सच्चदुक्खाणमंतं करेंति ।
तं धम्मं सदहामि पत्तिभि, रोएभि, फासेमि, पालेमि, पामि ।
तं धम्मं सदहंतो, पत्तितो, अंतो, फासतो, पालंतो' अणुपालतो ।
१ आचार्य जिनदास महत्तर और आचार्य हरिभद्र ने 'पालेमि' और 'पालन्ती' का उल्लेख नहीं किया है ।
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प्रतिज्ञा-सूत्र
तस्स धम्मस्स अब्भुट्टिोमि आराहणाए विरोमि विराहणाए। असंजमं परित्राणामि संजमं उवसंपज्जामि, अभं परित्राणामि बंभ उवसंपज्जामि, अकप्पं परित्राणामि कपं उपसंपज्जामि, अन्नाणं परित्राणामि नाणं उपसंपज्जामि, अकिरियं' परियाणामि किरियं उपसंपज्जामि, मिच्छत्तं परित्राणामि सम्मत्तं उपसंपज्जामिरे अबोहिं परित्राणामि बोहि उवसंपज्जामि, अमग्गं परित्राणामि, मग्गं उवसंपज्जामि । जं. संभरामि, जं च न संभरामि, जं पडिक्कमामि, जं च न पडिक्कमामि, तस्स सव्वस्स देवसियस्स अइयारस्स पडिक्कमामि ।
१-प्राचार्य जिनदास महत्तर पहले 'मिच्छत्त परिश्राणामि सम्मत्त उपस पजामि' कहते हैं, और बाद में 'अकिरियं परियाणामि किरियं उवस पजामि ।'
२-प्राचार्य जिनदास की अावश्यक चूणि में 'अबोहिं परित्राणामि, बोहिं उबसपजामि । अमग्यं परियाणामि मग्गं उवस पजामि' यह अंश नहीं है।
३-~-श्रावश्यक चूर्णि में 'जं पडिक्कमामि जं च न पडिक्कमामि' पहले है और बाद में 'जं सभरामि जं च न संभरामि' है।
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२१४
समणोऽहं संजय - विरय-पडिय-पच्चक्खाय-पावकम्मो, अनियाणो, दिट्टिसंपन्नो, माया - मोस - विवज्जियो ।
=
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श्रमण-सूत्र
चड्ढाइज्जेसु दीद
( १ )
जावंत के वि साहू,
समुदे पनरससु कम्मभूमी ।
पावयण == प्रवचन सच्चं = सत्य है
पंचमहव्यय-धारा
= नमस्कार हो
नमो चवीसाए = चौबीस तित्थगराण = तीर्थंकरों को उसभादि = ऋषभ आदि
महावीर = महावीर पज्जवसारणाण = पर्यन्तों को
रयहरण- गुच्छ - पडिग्गह-धारा ।। ( २ )
इणमेव = यह ही निग्गंथ: निर्ग्रन्थों का
अक्खयायारचरिता,
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अड्ढार - सहस्स - सीलंगवारा ।
ते सच्चे सिरसा मासा मत्थरण वंदामि ||
शब्दार्थ
श्रणुत्तरं = सर्वोत्तम है
केवलियं = सर्वज्ञ-प्ररूपित अथवा
श्रद्वितीय है
परिपुगण = प्रतिपूर्ण है
नेप्राउयं = न्यायावाधित है, मोक्ष
ले जाने वाला है
मसुद्ध = पूर्ण शुद्ध है
मल्ल = शल्यों को गत्तण = काटने वाला है
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प्रतिज्ञा-सूत्र
मिद्धि मगं - सिद्धि का मार्ग है सदहामि = श्रद्धा करता हूँ मुत्ति मग्गं = मुक्रि का मार्ग है पत्तियामि = प्रतीति करता हूँ निजाणमग्गं = संसार से निकलने रोएमि = रुचि करता हूँ
___ का मार्ग है, मोक्ष फासेमि = स्पर्शना करता हूँ
स्थान का मार्ग है पालेमि=पालना करता हूँ निव्वाण मग्गं = निर्वाण का मार्ग अणु = विशेष रूप से
है, परम शान्ति पालेमि = पालना करता हूँ
का कारण है तं = उस अवितहं = तथ्य है, यथार्थ है धम्म = धर्म की अविसधि = अव्यवच्छिन्न है, सदा सदहंतो= श्रद्धा करता हुश्रा
शाश्वत है पत्तियतो = प्रतीति करता हुआ सब-सब
रोतो= रुचि करता हुआ दुक्ख = दुःखों के
फासतो = स्पर्शना करता हुआ पहीण - क्षय का
पालंता : पालना करता हुश्रा मग्गं = माग है
अणु-विशेष रूप से इत्थं = इसमें
पालंतो-पालना करता हुश्रा ठिया -- स्थित हुए
तस्स = उस जीवा जीव
धम्मस्स = धर्म की सिझति = सिद्ध होते हैं
याराहणाए = अाराधना में बुज्झति = बुद्ध होते हैं अब्भुठ्ठिोमि-उपस्थित हुअा हूँ मुच्चंति = मुक्र होते हैं विराहणाए = विराधना से परिनिव्वायंति-निर्वाण को प्राप्त होते हैं विरोमि = निवृत्त हुश्रा हूँ सम्बदुक्खाण = सब दुःखों का असजम = असंयम को अन्तं - अन्त, क्षय
परिश्राणामि =जानता हूँ एवं करेन्ति = करते हैं
त्यागता हूँ तं - उस
सजम = संयम को बम्न = धर्म की
उस पजामि = स्वीकार करता हूँ
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२१६
श्रमं = श्रब्रह्मचर्य को परित्राणामि = जानता हूँ और त्यागता हूँ
श्रमण-सूत्र
बंभ = ब्रह्मचर्यं को
उबस पजामि = स्वीकार करता हूँ क = अकल्प = कृत्य को परिश्राणामि = जानता हूँ, त्यागता
हूँ
कम्प
= कल्प = कृत्य को
उक्स पजामि = स्वीकार करता हूँ अन्नाण अज्ञान को
परित्राणामि = जानता हूँ और
त्यागता हूँ
नां = ज्ञान को
उपस ंपजामि = स्वीकार करता हूँ अकिरियं = अक्रिया को
परित्राणामि = जानता हूँ एव'
त्यागता हूँ
किरिय
= किया को
उवस 'पजामि = स्वीकार करता हूँ मिच्छत्त = मिथ्यात्व को
परित्राणामि = जानता हूँ तथा
त्यागता हूँ
सम्मत्तं = सम्यक्त्व को
उवस 'पजामि = स्वीकार करता हूँ बोहिं = बोधि को
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परिश्राणामि = जानता हूँ और त्यागता हूँ
बोदि = बोधि को
उवस पजामि = = स्वीकार करता हूँ अमगं = श्रमार्ग को परियाणामि= जानता हूँ, त्यागता हूँ मग्गं = मार्ग को
उवम पजामि
= स्वीकार करता हूँ
जं - जो
समरामि =
च = और
जं = जो
| = स्मरण करता हूँ
न = नहीं
समरामि
जं = जिसका
पडिक्कमामि
च = और
जं जिसका
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= स्मरण करता
न = नहीं
परिक्रमामि = प्रतिक्रमण करता हूँ
तस्स = उस
*
प्रतिक्रमण करता हूँ
सव्वत्स = सब
देवसिस्स = दिवस सम्बन्धी ग्रइयारस्स = श्रतिचार का पडिक मामि = प्रतिक्रमण करता हूँ
समणोहं = मैं श्रमण हूँ
संजय
संयमी हूँ
·
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२१७ विरय = विरत हूँ
गुच्छ = गोच्छक पडिहय = नाश करने वाला हूँ। पडिग्गह = पात्र के पच्चस्वाय त्याग करने वाला हूँ धारा- धारक हैं पावकम्मो = पापकर्मों का पंच : पाँच अनियाणो= निदान रहित महव्यय = महावत के दिष्टि = सम्यग दृष्टि से
धारा - धारक हैं संपन्नो = युक्र हूँ
अड्तार = अट्ठारह माया = माया सहित
सहस्म = हजार मो१= मृषावाद से
सीलंग =शीलाङ्ग के विवजियो = सर्व था रहित हूँ धारा = धारक हैं अढाइब्जेसु = अढाई
अवय = अक्षत-परिपूर्ण दीव =द्वीप
अायार = प्राचार रूप समुह सुसमुद्रों में
चरित्ता चारित्र के धारक हैं पन्नरससु = पन्दरह
ते = उन कम्मभूमीसु - कर्म भूमियों में मव्वे - सबको जावंत = जितने भी
मिरसा = शिर से केवि = कोई
मणसा-मन से साहू = साधु हैं
मत्थएण-मस्तक से स्यहरण = रजोहरण
वंदामि = वन्दना करता हूँ
भावार्थ भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर देवों को नमस्कार करता हूँ। ____ यह निर्ग्रन्थ प्रवचन अथवा प्रावचन ही सत्य है, अनुत्तर :- सर्वोत्तम है, केवल अद्वितीय है अथवा कैवलिक = केवल ज्ञानियों से प्ररूपित है, प्रतिपूर्ण = मोक्षप्रापक गुणों से परिपूर्ण है, नैयायिक-मोन पहुँचाने वाला है अथवा न्याय से अबाधित है, पूर्ण शुद्ध अर्थात् सर्वथा निष्कलंक है, शल्यकर्तन = माया श्रादि शल्यों को नष्ट करने वाला है, सिद्धि
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श्रमण-सूत्र
मार्ग=पूर्ण हितार्थ रूप सिद्धि की प्राप्ति का उपाय है, मुक्रि-मार्ग=अहित कर्म - बन्धन से मुक्र का साधन है, निर्याण मार्ग=मोक्ष स्थान का मार्ग है, निर्वाण - मार्ग = पूर्ण शान्ति रूप निर्वाण का मार्ग है । अवितथ= मिथ्यात्व रहित है, श्रविसन्धि विच्छेद रहित अर्थात् सनातन नित्य है तथा पूर्वा पर विरोध रहित है, सब दुःखों का पूर्णतया क्षय करने का मार्ग है ।
इस निर्ग्रन्थ प्रावचन में स्थित रहने वाले अर्थात् तद्नुसार श्राचरण करने वाले भव्य जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध = सर्वज्ञ होते हैं, मुक्र होते हैं, परिनिर्वाण = पूर्ण आत्म शान्ति को प्राप्ति करते हैं, समस्त दुःखों का सदा काल के लिए अन्त करते हैं ।
मैं निर्मन्थ प्रावचनस्वरूप धर्म की श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ = सभक्ति स्वीकार करता हूँ, रुचि करता हूँ, स्पर्शना करता हूँ, पालना अर्थात् रक्षा करता हूँ, विशेष रूप से पालना करता हूँ
मैं प्रस्तुत जिन धर्म की श्रद्धा करता हुआ, प्रतीति करता हुआ, रुचि करता हुआ, स्पर्शना = आचरण करता हुआ, पालना = रक्षण करता हुआ, विशेषरूपेण पुनः पुनः पालना करता हुआ:
धर्म की आराधना करने में पूर्ण रूप से अभ्युत्थित अर्थात् सन्नद्ध हूँ, और धर्म की बिना = खण्डना से पूर्ण तया निवृत्त होता हूँ:
संयम को जानता और त्यागता हूँ, सत्यम को स्वीकार करता हूँ, ब्रह्मचर्य को जानता और त्यागता हूँ, ब्रह्मचर्य को स्वीकार करता हूँ; प्रकल्प = अकृत्य को जानता और त्यागता हूँ, कल्प = कृत्य को स्वीकार करता हूँ, अज्ञान को जानता और त्यागता हूँ, ज्ञान को स्वीकार करता हूँ, प्रक्रिया = नास्तिवाद को जानता तथा त्यागता हूँ, क्रिया=सम्यग्वाद को स्वीकार करता हूँ, मिथ्यात्व = सदाग्रह को जानता तथा त्यागता हूँ, सम्यक्त्व = सदाग्रह को स्वीकार करता हूँ; प्रबोधि= मिथ्यात्वकाय को जानता हूँ, एवं त्यागता हूँ, बोधि सम्यक्त्व कार्य को
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प्रतिज्ञा-सूत्र स्वीकार करता हूँ, अमाग = हिंसा अादि अमार्ग को जानता तथा त्यागता हूँ, मार्ग = अहिंसा ग्रादि मार्ग को स्वीकार करता हूँ:
[ दोष-शुद्धि] जो दोष स्मृतिस्थ हैं-याद हैं और जो स्मृतिस्थ नहीं हैं, जिनका प्रतिक्रमण कर चुका हूँ और जिन का प्रतिक्रमण नहीं कर पाया हूँ, उन सब दिवस-सम्बन्धी अतिचारों = दोषों का प्रतिक्रमण करता हूँ - ____ मैं श्रम ग है, संयत-संयमी हूँ, विरत = साद्य व्यापारों से एवं संसार से निवृत्त हूँ, पाप कर्मों को प्रतिहत करने वाला हूँ एवं पाप कर्मों का प्रत्याख्यान-त्याग करने वाला हूँ, निदान रहित शल्य से रहित अर्थात् श्रासक्रि से रहित हूँ, दृष्टि सम्पन्न - सम्यग्दर्शन से युक्त हूँ, माया सहित मृयावाद - असत्य का परिहार करने वाला हूँ
ढाई द्वीप और दो समुद्र के परिमाण वाले मानव क्षेत्र में अर्थात् दरह कर्म भूमियों में जो भी रजोहरण, गुच्छक एवं पात्र के धारण करने वाले
तथा पाँच महाव्रत, अठारह हजार शील = सदाचार के अंगों के धारण करने वाले एवं अक्षत श्राचार के पालक त्यागी साधु हैं, उन सबको शिर से, मन से, मस्तक से वन्दना करता हूँ।
विवेचन यह अन्तिम प्रतिज्ञा का सूत्र है । प्रतिक्रमण अावश्यक के उपसंहार में साधक बड़ी ही उदात्त, गंभीर एवं भावनापूर्ण प्रतिज्ञा करता है। प्रतिज्ञा का एक-एक शब्द साधना को स्फूर्ति एवं प्रगति की दिव्य ज्योति से बालोकित करने वाला है । असयम को त्यागता हूँ और सौंयम को स्वीकार करता हूँ, अब्रह्मचर्य को त्यागता हूँ और ब्रह्मचर्य को स्वीकार करता हूँ, अज्ञान को त्यागता हूँ और ज्ञान को स्वीकार करता हूँ, कुमार्ग को त्यागता हूँ, और सन्मार्ग को स्वीकार करता हूँ, इत्यादि कितनी मधुर एवं उत्थान के मकस्मों से परिपूर्ण पतिता है ? ..
जैन साधक निर्वृत्ति मार्ग का पथिक है । उसका मुन्व कैवल्य पद
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श्रमण सूत्र
की अोर है एवं पीठ सौंसार की ओर | वासना से उसे घृणा है, अत्यन्त घृणा है । उसका आदर्श एक मात्र उच्च जीवन, उच्च विचार और उच्च श्राचार ही है। वह असयम से सयम की ओर, अब्रह्मचर्य से ब्रह्मचर्य की ओर, अज्ञान से ज्ञान की अोर, मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की अोर अमार्ग से मार्ग की ओर गतिशील रहना चाहता है। यही कारण है कि यदि कभी भूल से कोई दोष हो गया हो, यात्मा सयम से असंयम की ओर भटक गया हो तो उसकी प्रतिक्रमण द्वारा शुद्धि की जाती है, पश्चातार के द्वारा पाप कालिमा साफ की जाती है । अमयम की जरा सी भी रेखा जीवन पर नहीं रहने दी जाती । प्रतिक्रमण के द्वारा आलोचना कर लेना ही अलं नहीं है, परन्तु पुनः कमी भी यह दोष नहीं किया जायगायह दृढ़ संकल्प भी दुहराया जाता है। प्रस्तुत प्रतिज्ञासूत्र में यही शिव सकल्प है। प्रतिक्रमण श्रावश्यक की समाप्ति पर, साधक, फिर असयम पथ पर कदम न रखने की अपनी धर्म घोषणा करता है।
जैन धर्म का प्रतिक्रमण अपने तक ही केन्द्रित है। वह किसी ईश्वर अथवा परमात्मा के आगे पापों के प्रति क्षमा याचना नहीं है । ईश्वर हमारे पापों को क्षमा कर देगा, फल स्वरूप फिर हमें कुछ भी पाप फल नहीं भोगना पड़ेगा, इम सिद्धान्त में जैनों का अणुभर भी विश्वास नहीं है । जो लोग इस सिद्धान्त में विश्वास करते हैं, वे एक
ओर पाप करते हैं एवं दूसरी ओर ईश्वर से प्रतिदिन क्षमा माँगते रहते हैं । उनका लक्ष्य पापों से बचना नहीं है, किन्तु पापों के फल से बचना है। जब कि जैन धर्म मूलतः पापों से बचने का ही श्रादर्श रखता है। अतएव वह कृत पापों के लिए पश्चाताप कर लेना ही पर्याप्त नहीं समझता; प्रत्युत फिर कभी पार न होने पाएँ-इस बात की भी सावधानी रखता है। पूत्र नमस्कार
प्रतिज्ञा करने से पहले सयम पथ के महान् यात्रो श्री ऋषभादि महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकर देवों को नमस्कार किया गया है। यह नियम
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प्रतिज्ञा सूत्र
२२१
है कि जैसी साधना करनी हो उसी साधना के उपासकों का स्मरण किया जाता है। युद्धवीर युद्धवीरों का तो अर्थवीर अर्थवीरों का स्मरण करते हैं । यह धर्म युद्ध है, अतः यहाँ धर्मवीरों का ही स्मरण किया गया है । जैन धर्म के चौबीस तीर्थकर धर्म साधना के लिए अनेकानेक भयंकर परीपह सहते रहे हैं एवं अन्त में साधक से सिद्ध पद पर पहुँच कर अजर अमर परमात्मा हो गए हैं । अतः उनका पवित्र स्मरण हम साधकों के दुर्बल मन में उत्साह्. बल एवं स्वाभिमान की भावना प्रदीप्त करने वाला है। उनकी स्मृति हमारी यात्मशुद्धि को स्थिर करने वाली है। तीर्थंकर हमारे लिए अन्य कार में प्रकाश स्तंभ हैं । भगवान् ऋषभदेव
वर्तमान कालचक्र में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं, उनमें भगव न् ऋषभदेव सर्व प्रथम हैं । अापके द्वारा ही मानव सभ्यता का आविर्भाव हुअा है। अापसे पहले मानव जंगलों में रहता, वन फल खाता ए सामाजिक जीवन से शून्य अकेला घूमा करता था। न उसे धर्म का पता था और न कम का ही। भगवान् ऋषभ के प्रवचन ही उसे सामाजिक प्राणी बनाने वाले हैं, एक दूसरे के सुख दुःख की अनुभूति में सम्मिलित करने वाले हैं। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिए कि उस युग में मानव के पास शरीर तो मानव का था, परन्तु अात्मा मानव की न थी । भानव-यात्मा का स्वरूप-दर्शन, सर्व प्रथम, भगवान ऋषभदेव ने ही कराया।
भगवान् ऋषभदेव जैन धर्म के अादि प्रवर्तक हैं | जो लोग जैन धर्म को सर्वथा अाधुनिक माने बैठे हैं, उन्हें इस अोर लक्ष्य देना चाहिए । भगवान् ऋषभदेव के गुण गान वेदों और पुराणों तक में गाए गए हैं । वे मानव-सस्कृति के प्रादि उद्धारक थे, अतः वे मानः . मात्र के पूज्य रहे हैं । अाजः भले ही वैदिक समाज ने, उनका वह ऋण, भुला दिया हो, परन्तु प्राचीन वैदिक ऋपि उनके .महान् उपकारों को
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श्रमण-सूत्र
नहीं भूले थे; अतएव उन्होंने खुले हृदय से भगवान ऋषभदेव को स्तुति गान किया है।
अनर्वाणं वृषभं मन्द्रजिह्व, बृहस्पतिं वर्धया नव्यमर्के ।
-ऋग्० म० १ सू० १६० म० १ श्रर्थात् मिष्टभाषी, ज्ञानी, स्तुतियोग्य पभ को पूजा-साधक मन्त्रों द्वारा वर्धित करो।
अंहोमुचं वृपमं यज्ञियानां,
विराजन्तं प्रथममध्वराणाम् । अपां न पातमश्विना हुवे धिय, इन्द्रियेण इन्द्रियं दत्तमोजः ॥
-अथर्ववेद कां० १६ । ४२ ३ ४ अर्थात् सम्पूर्ण पापों से मुक्त तथा अहिंसक व्रतियों के प्रथम राजा, श्रादित्यस्वरूप, श्रीऋषभदेव का मैं आवाहन करता हूँ। वे मुझे बुद्धि एवं इन्द्रियों के साथ बल प्रदान करें।
नाभेरसावृषभ पास सुदेवसू नुर्यो वै चचार समदृग् जडयोगचर्याम् । यत्पारहस्यमृषयः पदमामनन्ति, स्वस्थः प्रशान्तकरणः परिमुक्त-संगः ॥
-श्रीमद्भागवत २ । ७ । १० वेद और भागवत क्या, अन्य भी वायु पुराण, पद्म पुराण आदि में भगवान् ऋषभदेव की स्तुति की गई है। इन प्रमाणों से जाना जाता है कि-भगवान् ऋपभदेव समस्त भारतवर्ष के एक मात्र पूज्य
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प्रतिज्ञा सूत्र
२२३
देवता रहें हैं । यह तो वैदिक साहित्य का नमूना है । जैनधर्म का साहित्य तो भगवान् ऋषभदेव के गुणगान से सर्वथा श्रोत- प्रीत है ही । प्रत्येक पाठक इस बात से परिचित है, तः जैन ग्रन्थों से उद्धरण कर व्यर्थ हीं लेख का कलेवर क्यों बढ़ाया जाय ?
भगवान् महावीर
श्राज भगवान् महावीर को कौन नहीं जानता ? श्राज से अढ़ाई हजार वर्ष पहले भारतवर्ष में कितना भयंकर ज्ञान था, कितना तीव्र पाखण्ड था, कितना धर्म के नाम पर अत्याचार था ? इतिहास का प्रत्येक विद्यार्थी उस समय के यज्ञादि में होने वाले भयंकर हिंसा काण्डों से परिचित है । भगवान् महावीर ने ही उस समय अहिंसा धर्म की दुन्दुभि बजाई थी । कितने कर सहे, कितनी आपत्तियाँ झेलीं; किन्तु भारत की काया पलट कर ही दी । श्राध्यात्मिक क्रान्ति का सिंहनाद भारत के कोने-कोने में गूंज उठा ! भगवान् महावीर का ऋण भारतवर्ष' पर अनन्त है, असीम है ! आज हम किसी भी प्रकार से उनका ऋण यदा नहीं कर सकते । प्रभु की सेवा के लिए हमारे पास क्या है ? और वे हम से चाहते भी तो कुछ नहीं । उनके सेवक किंवा अनुयायी होने के नाते हमारा इतना ही कर्तव्य है कि हम उनके बताए हुए सदाचार के पथ पर चलें और श्रद्धा भक्ति के साथ मस्तक झुकाकर उनके श्रीचरणों में वन्दन करें ।
भगवान् महावीर का नाम पूर्णतया अन्वर्थक है । साधक जीवन के लिए आपके नाम से हो बड़ी भारी आध्यात्मिक प्रेरणा मिलती है । एक प्राचीन आचार्य भगवान् के 'वीर' नाम की व्युत्पत्ति करते हुए बड़ी ही भव्य कल्पना करते हैं
विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते ।
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श्रमण-सूत्र
तपोवीर्येण युक्तश्च,
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तस्माद्वीर इति स्मृतः ॥
- जो कमों का विदारण करता है, तपस्तेज के द्वारा विराजित सुशोभित होता है, तप एवं वीर्य से युक्त रहता है, वह वीर कहलाता है ।
भगवान् वीर के नाम में उपर्युक्त गुणों का प्रकाश सब ओर फैला हुआ है। उनका तप, उनका तेज, उनका श्राध्यात्मिक बल, उनका त्याग द्वितीय है । भगवान् के जीवन की प्रत्येक झाँकी हमारे लिए आध्यात्मिक प्रकाश अर्पण करने वाली है ।
जिन शासन की महत्ता
तीर्थंकर देवों को नमस्कार करने के बाद जिन शासन की महिमा का वर्णन किया गया है | अहिंसा प्रधान जिन शासन के लिए ये विशेषण सर्वथा युक्तियुक्त हैं । वह सत्य है, अद्वितीय है, प्रतिपूर्ण है, तर्कस ंगत है, मोक्ष का मार्ग है, दुःखों का नाश करने वाला है । धर्म का मौलिक अर्थ ही यह हैं कि वह साधक को संसार के दुःख और परिताप से निकाल कर उत्तम एवं अविचल सुख में स्थिर करे । जिस धर्म से अनन्त, विनाशी और अक्षय सुख की प्राप्ति न हो वह धर्म ही नहीं | जैनधर्म त्याग, वैराग्य एवं वासना निर्वृत्ति पर ही केन्द्रित है; यतः वह एक दृष्टि से आत्मधर्म है, श्रात्मा का अपना धर्म है । मानव जीवन की चरम सफलता त्याग में ही रही हुई है, और वह त्याग जैनधर्म की साधना के द्वारा भली भाँति प्राप्त किया जा सकता है ।
आइए, अब कुछ मूल शब्द पर विचार कर लें । मूल शब्द है'निग्गंथं पावयण' ।" 'पावयण' विशेष्य है और 'निमगंथ' विशेषण है । जैन साहित्य में 'निग्गंध' शब्द सर्वतोविश्रुत है | 'निग्गंथ' का संस्कृत रूप 'निर्ग्रन्थ' होता है । निर्मन्थ का अर्थ है- धन, धान्य यादि बाह्यग्रन्थ और मिथ्यात्व अविरति तथा काव, मान, माया, आदि आभ्यन्तर
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२२५
अन्य अर्थात् परिग्रह से रहित पूर्ण त्यागी एवं सौंयमी साधु ।' 'बायाभ्यन्तरग्रन्थनिर्गताः साधवः ।
--आचार्य हरिभद्र । प्राचार्य हरिभद्र की उपर्युक्त व्युत्पत्ति के समान ही अन्य जैनाचार्यों ने भो निग्रन्थ की यही व्युत्पत्ति की है । परन्तु जहाँ तक विचार की गति है, यह शब्द साधारण साधुओं के लिए उपचार से प्रयुक्त होता है, क्योंकि मुख्य रूप से वाह्याभ्यन्तर परिग्रह के त्यागी पूर्ण निग्रन्थ तो अरिहन्त भगवान ही होते हैं। साधारण निम्रन्थपदवाच्य साधु तो बाह्य परिग्रह का त्यागी होता है, और अान्तर परिग्रह के कुछ अंश को त्याग देता है एवं शेष अंश को त्यागने के लिए साधना करता है । यदि साधारण साधु भी क्रोधादि याभ्यन्तर परिग्रह का पूर्ण त्यागी हो जाय तो फिर वह साधक कैसा ? पूर्ण न हो जाय, कृतकृत्य न हो जाय ? निन्थत्व की विशुद्ध दशा उपशान्तमोह एवं क्षीण मोह गुण स्थानों पर ही प्राप्त होती है, नीचे नहीं। अतएव जो राग द्वष की गाँठ को सर्वथा अलग कर देता है, तोड़ देता है, वह तत्त्वतः निश्चयनय सिद्ध निग्रन्थ है । और जो अभी अपूर्ण है, किन्तु नैन्थ्य अर्थात् निग्रन्थत्व के प्रति यात्रा कर रहा है, भविष्य में निन्थत्व की पूर्ण स्थिति प्राप्त करना चाहता है, वह व्यवहारतः सम्प्रदाय-सिद्ध निग्रन्थ है । देखिए, तत्त्वार्थभाष्य अध्याय ६, सू० ४८ । ___निर्ग्रन्थों अरिहंतों का प्रवचन, नैन्थ्य प्रावचन है। 'निर्ग्रन्थानामिदं नैर्ग्रन्थ्यं प्रावचनमिति /-आचार्य हरिभद्र । मूल में जो 'निग्गंथं' शब्द है, वह निर्ग्रन्थ-वाचक न होकर नन्थ्य-वाचक है । अत्र रहा 'पावयण' शब्द, उसके दो सस्कृत रूपान्तर हैं प्रवचन और प्रावचन । प्राचार्य जिनदास प्रवचन कहते हैं और हरिभद्र प्रावचन । शब्दभेद होते हुए भी, दोनों प्राचार्य एक ही अर्थ करते हैं--'जिसमें जीवादि पदार्थों का तथा
१-प्राचार्य हरिभद्र भी सामायिकाध्ययन की ७८६ गाथा की टीका में कहते हैं-'निग्रन्थानामिदं नैर्ग्रन्थ्यम्-आर्हतमिति भावना ।'
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२२६
श्रमण-सूत्र
ज्ञानादि रत्नत्रय की साधना का यथार्थ रूप से निरूपण किया गया है, वह सामायिक से लेकर बिन्दुसार पूर्व तक का अागम साहित्य ।' आचार्य जिनभद्र, आवश्यक चूणि में लिखते हैं-'पावय सामाइयादि बिन्दुसारपजवसाणं, जत्थ नाण-दसणचारित्त-साहणवावारा अणेगधा वरिणज्जंति ।' प्राचार्य हरिभद्र लिखते हैं-'प्रकर्षेण अभिविधिना उच्यन्ते जीवादयो यस्मिन् तत्प्रावचनम् ।'
ऊपर के वर्णन से प्रावचन अथवा प्रवचन का अर्थ 'श्रुत रूप शास्त्र' ध्वनित होता है । परन्तु हमने 'जिन शासन' अर्थ किया है, और जिन शासन का फलितार्थं 'जिन धर्म'। इसके लिए एक तो आगे की वर्णन शैली ही प्रमाण है । मोक्ष का मार्ग ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र रूप जैन धम है, केवल शास्त्र तो नहीं। भगवान महावीर ने निरूपण किया हैनाणं च दंसणं चेव,
चरित्तं च तवो तहा। एस मग्गोत्ति पएणत्तो, जिणेहिं वर - दंसिहि ।।
-उत्तराध्ययन २८ ॥१॥ -~-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ही मोन का मार्ग है।
श्राचार्य उमास्वाति भी कहते हैं: ---- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः ।
--तत्त्वार्थ सूत्र १ । १ । एक स्थान पर नहीं, सैकड़ों स्थान पर इसी प्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्र को मोन मार्ग कहा है। प्रस्तुत सूत्र के 'इत्थं ठिा जीवा सिमति, बुझति, मुच्चंति' आदि पाट के द्वारा भी यही सिद्ध होता है। धर्म में स्थित होने पर ही तो जीव सिद्ध बुद्ध, मुक्त होते हैं; अन्यथा नहीं । आगे चल कर 'तं धम्म सद्दहामि, पत्तिश्रामि' में स्पष्टतः ही धर्म
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"
प्रतशि-सूत्र
२२७
का उल्लेख किया है | 'तत्' शब्द भी पूर्व परामर्शक होने के कारण पूर्व उल्लेख की ओर संकेत करता है। अर्थात् पूर्वोक्त- विशेषण - विशिष्ट प्रावन को ही धर्म बताता है । आचार्य हरिभद्र भी यहाँ ऐसा ही उल्लेख करते हैं- 'य एष नैन्थ्य-प्रावचन लक्षणों धर्म उक्तः, तं धर्म श्रदध्महे ।' यापनीय संघ के महान् आचार्य श्री पराजित तो निर्ग्रन्थ का अर्थ ही मिथ्यात्व अज्ञान एवं ग्रविरति रूप ग्रन्थ से निर्गत होने के कारण सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यक् चारित्र आदि धर्म करते हैं । और जिनागम रूप प्रवचन का अभिधेय अर्थात् प्रतिपाद्य विषय होने से धर्म को ही प्रावचन भी कहते हैं । 'प्रावचन' शब्द को देखते हुए, उसका अर्थ, प्रवचन ( शास्त्र ) की अपेक्षा प्रावचन अर्थात् प्रवचनप्रतिपाद्य ही भाषा शास्त्र की दृष्टि से कुछ अधिक संगत प्रतीत होता है । - " ग्रथ्नन्ति रचयन्ति दीर्घौ कुर्वन्ति संसारमिति ग्रन्थाः-मिथ्यादर्शनं, मिथ्याज्ञानं श्रसंयमः, कषायाः, अशुभयोगत्रयं चेत्यमी परिणामाः । मिथ्यादर्शनान्निष्क्रान्तं किम् ? सम्यग दर्शनम् । मिथ्याज्ञानान्निष्क्रान्तं सम्यग ज्ञानं, असंयमात् कषायेभ्योऽशुभयोगत्रयाच्च निष्क्रान्तं सुचारित्रं । तेन तत्त्रयमिह निर्ग्रन्थशब्देन भएयते । प्राचचनं = प्रवचनस्य जिनागमस्य श्रभिधेयम् ।" (सूलाराधना - विजयोदया १-४३ )
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सत्य
धर्म के लिए सबसे पहला विशेषण सत्य है । सत्य ही तो धर्म हो सकता है । जो असत्य है, अविश्वसनीय है, वह धर्म नहीं, अधर्म है | जब भी कोई व्यक्ति किसी से किसी सिद्धान्त के सम्बन्ध में बात करता है तो पूछने वाला सर्व प्रथम यही पूछता है- क्या यह बात सच है ? इस प्रश्न का उत्तर देना ही होगा । तभी कोई सिद्धान्त श्रागे प्रगति कर सकता है । अतएव सूत्रकार ने सर्व प्रथम इसी प्रश्न का उत्तर दिया है और कहा है कि रत्नत्रय रूप जैन धर्म सत्य है ।
आचार्य जिनदास सत्य की व्युत्पत्ति करते हुए कहते हैं-- 'जो
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श्रम ग् सूत्र
भव्यात्माओं के लिए हितकर हो तथा सद्भूत हो, वह सत्य होता है ।" 'सद्द्भ्यो हितं सच्च, सद्भूतं वा सच्चं ।'
जैन धर्म वैज्ञानिक धर्म है । उसका सिद्धान्त पदार्थ विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरता है । जड़ और चैतन्य तत्त्व का निरूपण, जिन शासन में इस प्रकार किया गया है कि जो आज भी विद्वानों के लिए चमत्कार की वस्तु है | अहिंसावाद, अनेकान्तवाद और कर्मवाद आदि इतने ऊँचे और प्रामाणिक सिद्धान्त हैं कि आज तक के इतिहास में कभी भुलाए नहीं जा सके । झुठलाए जाएँ भी कैसे ? जो सिद्धान्त संत्य की सुदृढ़ नींव पर खड़े किए गए हैं, वे त्रिकालाबाधित सत्य होते हैं, तीन काल में भी मिथ्या नहीं हो सकते । देखिए, विदेशी विद्वान् भी जैन धर्म की सत्यता और महत्ता को किस प्रकार आदर को दृष्टि से स्वीकार करते हैं : -
पौर्वात्य दर्शनशास्त्र के सुप्रसिद्ध फ्रांसीसी विद्वान् डाक्टर ए० गिरनाट लिखते हैं- " मनुष्यों की उन्नति के लिए जैन धर्म में चारित्र सम्बन्धी मूल्य बहुत बड़ा है । जैनधर्म एक बहुत प्रामाणिक, स्वतंत्र और नियमरूप धर्म है ।"
पूर्व र पश्चिम के दर्शन शास्त्रों के तुलनात्मक अभ्यासी इटालियन विद्वान् डाक्टर एल० पी० टेसीटरी भी जैनधर्म की श्रेष्ठता स्वीकार करते हैं- "जैन धर्म बहुत ही उच्च कोटि का धर्म है । इसके मुख्य तत्त्व विज्ञान शास्त्र के आधार पर रचे हुए हैं । यह मेरा अनुमान ही नहीं, बल्कि अनुभव मूलक पूर्ण दृढ़ विश्वास है कि ज्यों ज्यों पदार्थ विज्ञान उन्नति करता जायगा, त्यों-त्यों जैन धर्म के सिद्धान्त सत्य सिद्ध होते जायँगे ।"
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, लोकमान्य तिलक, भारत के सर्वप्रथम भारतीय गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य, सरदार पटेल आदि ने भी जैन धर्म की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है और उसके सिद्धांतों की सत्यता के लिए अपनी स्पष्ट सम्मति प्रकट की है। सबके लेखों को
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२२६ यहाँ उद्ध त कर सकें, इतना हमें न अवकाश है और न वह लेख सामग्री ही पास है। केवलियं
मूल में 'केवलियं' शब्द है, जिसके सस्कृत रूपान्तर दो किए जा सकते हैं केवल और कैवलिक । केवल का अर्थ अद्वितीय है । सम्यग दर्शन आदि तत्त्व अद्वितीय हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं । कौन है वह सिद्धान्त, जो इनके समक्ष खड़ा हो सके ? मानवजाति का हित एकमात्र इन्हीं सिद्धान्तों पर चलने में है। पवित्र विचार और पवित्र अाचार ही आध्यात्मिक सुख समृद्धि एवं शान्ति का मूल मन्त्र है।
कैवलिक का अर्थ है-'केवल ज्ञानियों द्वारा प्ररूपित अर्थात् प्रतिपादित । छद्मस्थ मनुष्य भूल कर सकता है। अतः उसके बताए हुए सिद्धान्तों पर पूर्ण विश्वास नहीं किया जा सकता। परन्तु जो केवल ज्ञानी हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वद्रष्टा है,-त्रिकालदर्शी है; उनका कथन किसी प्रकार भी असत्य नहीं हो सकता । इसी लिए मंगल सूत्र में कहा गया है कि'केवलि-पन्नत्तो धम्मो मंगलं ।' सम्यग् दर्शन आदि धर्म तत्त्व का निरूपण केवल ज्ञानियों द्वारा हुआ है; अतः वह पूर्ण सत्य है, त्रिकालाबाधित है।
उक्त दोनों ही अर्थों के लिए प्राचार्य जिनदास-कृत आवश्यक चूणि का प्रामाणिक प्राधार है-"केवलियं-केवलं अद्वितीयं एतदेवकहितं, नान्यद् द्वितीयं प्रवचन मस्ति । केवलिणा वा पगणतं केवलिया” प्रतिपूर्ण
जैनधर्म एक प्रतिपूर्ण धर्म है। सम्यग्दर्शन, सम्यग ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही तो जैनधर्म है । और वह अपने आप में सब अोर से पतिपूर्ण है, किसी प्रकार भी खण्डित नहीं है।
प्राचार्य हरिभद्र प्रतिपूर्ण का अर्थ करते हैं—मोक्ष को प्राप्त कराने वाले सद्गुणों से पूर्ण, भरा हुआ । 'अपवर्ग-प्रापकैगुणैभृतमिति ।'
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२३०
श्रमण-सूत्र
नैयायिक
'नेत्राउयं' का संस्कृत रूप नैयायिक होता है। प्राचार्य हरिभद्र, नैयायिक का अर्थ करते हैं ..-'जो नयनशील है, ले जाने वाला है, वह नैयायिक है ।' सम्यग दर्शन आदि मोक्ष में ले जाने वाले हैं, अतः नैयायिक कहलाते हैं । 'नयनशीलं नैयायिकं मोक्षगमकमित्यर्थः ।।
श्री भावविजयजी न्याय का अर्थ 'मोक्ष' करते हैं। क्योंकि निश्चित आय = लाभ ही न्याय है, और ऐमा न्याय एक-मात्र मोक्ष ही है। साधक के लिए मोक्ष से बढ़कर और कौन सा लाभ है ? यह न्याय = मोक्ष ही प्रयोजन है जिनका, वे सम्यग दर्शन आदि नैयायिक कहलाते हैं । "निश्रित श्रायो लाभो न्यायो मुकिरित्यर्थः, स प्रयोजनमस्येति नैयायिकः ।"..--उत्तराध्ययनवृत्ति, अध्य० ४ । गा० ५। - श्राचार्य जिनदास नैयायिक का अर्थ न्यायाबाधित करते हैं । 'न्यायेन चरति नैयायिक, न्यायाबाधितमित्यर्थः' मम्यग दर्शन
आदि जैनधर्म सर्वथा न्यायसंगत हैं । केवल अागमोक्त होने से ही मान्य हैं, यह बात नहीं । यह पूर्ण तसिद्ध धर्म है । यही कारण है कि जैनधर्म तर्क से डरता नहीं है । अपितु तर्क का स्वागत करता है। शुद्ध-बुद्धि से धमतत्त्वों की परीक्षा करनी चाहिए । परीक्षा की कसौटी पर, यदि धर्म सत्य है, तो वह और अधिक कान्तिमान् होगा. प्रकाशमान होगा। वह सत्य ही क्या, जो परीक्षा की भाग में पड़कर म्लान हो जाय ? 'सत्ये नास्ति भयं क्वचित् ।' सत्य को कहीं भी भय नहीं है । ख ग सोना क्या कभी परीक्षा से घबराता है ? अतएव जैनधर्म की परीक्षा के लिए, उत्तराध्ययन सूत्र के केशी गौतम-सौंवाद में गणधर गौतम ने स्पष्टतः कहा है--पन्ना समिक्खए धम्मं ।' 'तर्कशील बुद्धि ही धर्म की परख करती है।' शल्य-कर्तन श्रागम की भाषा में शल्य का अर्थ है 'माया, निदान और मिथ्यात्व ।'
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२३१ बाहर के शल्य कुछ काल के लिए ही पीड़ा देते हैं, अधिक से अधिक वर्तमान जीवन का संहार कर सकते हैं । परन्तु ये अंदर के शल्य तो बड़े ही भयंकर हैं । अनन्तकाल से अनन्त आत्माएँ, इन शल्यों के द्वारा पीड़ित रही हैं । स्वर्ग में पहुँच कर भी इनसे मुक्ति नहीं मिली। संसार भर का विराट ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि पाकर भी श्रात्मा अन्दर में स्वस्थ नहीं हो सकती, जब तक कि शल्य से मुक्ति न मिले । शल्यों का विस्तृत निरूपण, शल्य सूत्र में कर पाए हैं, अतः पाठक वहाँ देख सकते हैं।
उक्त शल्यों को काटने की शक्ति एकमात्र धर्म में ही है। सम्यग्दर्शन मिथ्यात्व शल्य को काटता है, सरलता माया-शल्य को और निर्लोभता निदान शल्य को । अतएव धर्म को शल्य-कर्तन ठीक ही कहा गया है ---"कृन्तीति कर्तनं शल्यानि-मायादीनि, तेषां कर्तनं भव-निबन्धनमायादि शल्यच्छेदकमित्यर्थः ।"..-प्राचार्य हरिभद्र । सिद्धि मार्ग __ प्राचार्य हरिभद्र सिद्धि का अर्थ 'हितार्थ-प्राप्ति' करते हैं । 'सेधनं सिद्धिः हितार्थ-प्राप्तिः ।' प्राचार्यकल्प पं० आशाधरजी मूलाराधना की टीका में अपने प्रात्म-स्वरूप की उपलब्धि को ही सिद्धि' कहते हैं। 'सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः ।' अात्मस्वरूप की प्राप्ति के अतिरिक्त और कोई सिद्धि नहीं है । यात्मस्वरूपोपलब्धि ही सबसे महान् हितार्थ है। ___ मार्ग का अर्थ उपाय है। अात्मस्वरूपोपलब्धि का मार्ग = उपाय सम्यग दर्शनादि रत्नत्रय है | यदि साधक सिद्धत्व प्राप्त करना चाहता है, अात्मस्वरूप का दर्शन करना चाहता है, कर्मों के आवरण को हटा कर शुद्ध पात्मज्योति का प्रकाश पाना चाहता है, तो इसके लिए शुद्ध भाव से सम्यग दर्शनादि धर्म की साधना ही एकमात्र अमोघ उपाय है। मुक्ति-मार्ग __प्राचार्य जिनदास मुक्ति का अर्थ निमुक्तता अर्थात् निःसगता करते हैं । प्राचार्य हरिभद्र कर्मों की विच्युति को मुक्ति कहते हैं । 'मुक्रिः, अहि
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२३२
श्रमण-सूत्र
तार्थ कर्मविच्युतिः ।' जब श्रात्मा कर्म बन्धन से मुक्र होता है, तभी वह पूर्ण शुद्धात्म स्वरूप की प्राप्ति करता है ।
निर्याण मार्ग
आचार्य हरिभद्र निर्याण का अर्थ मोक्षपद करते हैं। जहाँ जाया जाता है वह यान होता है । निरुपम यान निर्याण कहलाता है । मोद ही ऐसा पद है, जो सर्व श्रेष्ठ यान स्थान है, अतः वह जैन श्रागम साहित्य में निर्याणपदवाच्य भी है । " यान्ति तदिति यानं 'कृत्यलुटो बहुलं' ( पा० २-३-११३ ) इति वचनात्कर्मणि ल्युट् । निरुपमं यानं निर्याण', ईषत्प्राग्भाराज्यं मोतपदमित्यर्थः ।"
श्राचार्य जिनदास निर्माण का अर्थ 'स'सार से निर्गमन' करते हैं | 'निर्याण' संसारात्पलायणं । सम्यग् दर्शनादि धर्म ही अनन्तकाल से भटकते. • हुए भव्य जीवों को संसार से बाहर निकालते हैं । यतः संसार से बाहर निकलने का मार्ग होने से सम्यग दर्शनादि धर्म निर्वाण मार्ग कहलाता है । निर्वाण मागे
सब कर्मों के क्षय होने पर आत्मा को जो कभी नष्ट न होने वाला श्रात्यन्तिक आध्यात्मिक सुख प्राप्त होता है, वह निर्वाण कहलाता है । आचार्य हरिभद्र कहते हैं 'निवृति निर्वाण' - सकल कर्मक्षयजमात्यन्तिकं सुखमित्यर्थः ।"
श्रात्मा
आचार्य जिनदास ग्रात्म-स्वास्थ्य को निर्वाण कहते हैं । कमरोग से मुक्त होकर जब अपने स्वस्वरूप में स्थित होता है, पर परिणति से हटकर सदा के लिए स्वपरिगति में स्थिर होता है, तब वह स्वस्थ कहलाता है | इस श्रात्मिक स्वास्थ्य को ही निर्वाण कहते हैं ।
देखिए, यावश्यक चूर्णि प्रतिक्रमणाध्याय - "निव्वाण निव्वती श्रात्म-स्वास्थ्यमित्यर्थः । "
बौद्ध दर्शन में भी जैन परंपरा के समान ही निर्वाण शब्द का प्रचुर प्रयोग हुआ है । जैन दर्शन की साधना के समान बौद्ध दर्शन की
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२३३
साधना का भी चरम लक्ष्य निर्वाण है । परन्तु जैन धर्म सम्मत निर्वाण और बौद्धाभिमत निर्वाण में आकाश पाताल का अन्तर है । जैन धर्म का निर्वाण उपयुक्त वर्णन के आधार पर भाववाचक है, ग्रात्मा की
त्यन्त शुद्ध पवित्र अवस्था का सूचक है । हमारे यहाँ निर्वाण प्रभाव नहीं, परन्तु निजानन्द की सर्वोत्कृष्ट भूमिका है। निर्वाणपद प्राप्त कर साधक, आचार्य जिनदास के शब्दों में 'परम सुहिणो भवति' अर्थात् परम सुखी हो जाते हैं, सब दुःखों से मुक्त होकर सदा एक रस रहने वाले श्रात्मानन्द में लीन हो जाते हैं । परन्तु बौद्ध दर्शन की यह मान्यता नहीं है । वह निर्वाणको अभाववाचक मानता है । उसके यहाँ निर्वाण का अर्थ है बुझ जाना। जिस प्रकार दीपक जलता जलता बुझ जाए तो वह कहाँ जाता है ? ऊपर ग्राकाश में जाता है या नीचे भूमि में ? पूर्व को जाता है या पश्चिम को ? दक्षिण को जाता है या उत्तर को ? किस दिशा एवं विदिशा में जाता है ? आप कहेंगे वह तो बुझ गया, नष्ट हो गया । कहीं भी नहीं गया । इसी प्रकार बौद्ध दर्शन भी कहता है कि "निर्वाण का अर्थ ग्रात्म-दीपक का बुझ जाना, नष्ट हो जाना है | निर्वाण होने पर श्रात्मा कहीं नहीं जाता । जाता क्या, वह रहता ही नहीं । उसकी सत्ता ही सदा के लिए नष्ट हो गयी ।" उक्त कथन के प्रमाणस्वरूप सुप्रसिद्ध बौद्ध महाकवि की निर्वाण सम्बन्धीव्याख्या देखिए । वह कहता है:
दीपो यथा निवृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् ।
दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काश्चित्, स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥
तथा कृती निरृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् !
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२३४
श्रमण-सूत्र
दिशं नकाश्चिद् विदिशं न काश्चित् , क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम्॥
(सौन्दरानन्द १६, २८-२६) पाठक विचार कर सकते हैं-यह क्या निर्वाण हुया ? क्या अपनी सत्ता को समाप्त करने के लिए ही यह साधना का मार्ग है। क्या अपने संहार के लिए ही इतने विशाल उग्र तपश्चरण किए जाते हैं ? महाकवि अश्वघोप के शब्दों में क्या शान्ति का यही रहस्य है ? बौद्ध धर्म का क्षणिकवाद साधना की मूल भावना को स्पर्श नहीं कर सकता ! साधक के मन का समाधान जैन निर्वाण के द्वारा ही हो सकता है, अन्यत्र नहीं। अवितथ ____ अवितथ का अर्थ सत्य है । वितथ झूट को कहते हैं, जो वितथ न हो वह अस्तिथ अर्थात् सत्य होता है। इसीलिए प्राचार्य हरिभद्र ने सीधा ही अर्थ कर दिया है-'पवितथं = सत्यम् ।'
परन्तु प्रश्न है कि जब अवितथ का अर्थ भी सत्य ही है तो फिर पुनरुक्ति क्यों की गयी ? सत्य का उल्लेख तो पहले भी हो चुका है। प्रश्न प्रस गोचित है। परन्तु जरा गभीरता से मनन करेंगे तो प्रश्न के लिए अवकाश न रहेगा। __ प्रथम सत्य शब्द, सत्य का विधानात्मक उल्लेग्व करता है। जब कि दूसरा वितथ शब्द, निषेधात्मक पद्धति से सत्य की अोर सकेत करता है । सत्य है, इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि संभव है, कुछ अंश सत्य हो । परन्तु जब यह कहते हैं कि वह अवितथ है, असत्य नहीं है तो असत्य का सर्वथा परिहार हो जाता है, पूर्ण यथार्थ सत्य का स्पष्टीकरण हो जाता है । इस स्थिति में दोनों शब्दों का यदि संयुक्त अर्थ करें तो यह होता है कि 'जिन शासन सत्य है, असत्य नहीं है ।' उत्तर अंश के द्वारा पूर्व अंश का समर्थन होता है, दृढत्व होता है ।
हम तो अभी इतना ही समझे हैं। वास्तविक हिस्य क्या है,
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प्रतिज्ञा सूत्र
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यह तो केवलिगम्य है । हाँ, अभी तक और कोई समाधान हमारे देखने
में नहीं आया है । अविसन्धि
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विधि का अर्थ है - सन्धि से रहित । सन्धि, बीच के अन्तर को कहते हैं । अतः फलितार्थ यह हुआ कि जिन शासन अनन्तकाल से निरन्तर व्यवच्छिन्न चला श्रा रहा है । भरतादि क्षेत्र में, किसी काल विशेष में नहीं भी होता है, परन्तु महा विदेह क्षेत्र में तो सदा सर्वदा श्रव्यवच्छिन्न बना रहता है । काल की सीमाएँ जैनधर्म की प्रगति को अवरुद्ध नहीं कर सकतीं। वह धर्म ही क्या, जो काल के घेरे में ग्रा जाय ! जिन धर्म, निज धर्म है - श्रात्मा का धर्म है । अतः वह तीन काल और तीन लोक में कहीं न कहीं सदा सर्वदा मिलेगा ही । जैनधम ने देवलोक में भी सम्यक्त्व का होना स्वीकार किया है और नरक में भी। पशु-पक्षी तथा पृथ्वी, जल आदि में भी मिल जाता है । यतः किसी क्षेत्रविशेष एवं काल
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के न होने का जो उल्लेख किया है, वह चारित्ररूप धर्म का है, सम्यक्त्व
धर्म का नहीं । सम्यक्त्व धर्म' तो प्रायः सर्वत्र ही अव्यवच्छिन्न रहता
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है। हाँ चारित्र धर्म की श्रव्यवच्छिन्नता भी महाविदेह की दृष्टि से सिद्ध हो जाती है ।
सर्व दुःख प्रहीण मार्ग
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धर्म का अन्तिम विशेपण सर्वदुःख प्रहीणमार्ग है । उक्त विशेषण
सम्यग् दर्शन का प्रकाश
विशेष में जैनधर्म
में धर्म की महिमा का विराट सागर छुपा हुआ है । संसार का प्रत्येक प्राणी दुःख से व्याकुल है, क्लेश से स ंतत है । वह अपने लिए सुख चाहता है, ग्रानन्द चाहता है | आनन्द भी वह, जो कभी दुःख से स भिन्न = स्पृष्ट न हो । दुःखास भिन्नत्व ही सुख की विशेषता है । परन्तु संसार का कोई भी ऐसा सुख नहीं है, जो दुःख से असं भिन्न हो । यहाँ सुख से पहले दुःख है, सुख के बाद दुःख है, और सुख की विद्यमानता में भी दुःख है । एक दुःख का अन्त होता नहीं है और
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श्रमण-सूत्र
दूसरा दुःख सामने या उपस्थित होता है। एक इच्छा की पूर्ति होती नहीं है, और दूसरी अनेक इच्छाएं मन में उछल कूद मचाने लगती हैं । सांसारिक सुख इच्छा की पूर्ति में होता है, और सबकी सत्र इच्छाएँ पूण कहाँ होती हैं ? अतः संसार में एक-दो इच्छायों की पूर्ति के सुख की अपेक्षा अनेकानेक इच्छाओं की अपूति का दुःख ही अधिक होता है । दुःखों का सर्वथा अभाव तो तब हो, जब कोई इच्छा ही मन में न हो । अोर यह इच्छाओं का सर्वथा अभाव, फलतः दुःखों का सर्वथा अभाव मोक्ष में ही हो सकता है, अन्यत्र नहीं । और वह मोक्ष, सम्यगदर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म की साधना से ही प्राप्त हो सकता है । इसीलिए श्राचार्य हरिभद्र लिखते हैं—“सर्वदुःख प्रहोणमार्ग-सबदुःख प्रहीणो मोक्षस्त कारणमित्यर्थः ।" सिज्झति
धम की आराधना करने वाले ही सिद्ध होते हैं । सिद्धि है भी क्या वस्तु ? अाराधना अर्थात् साधना की पूर्णाहुति का नाम ही सिद्धि है। जैन धम में श्रात्मा के अनन्त गुणों का पूर्ण विकास हो जाना ही सिद्धत्व माना गया है । 'सिझति-सिद्धा भवन्ति, परिनिष्ठितार्था भवन्ति ।'
-प्राचार्य जिनदास महत्तर । जैन धर्म में मोक्षके लिए सिद्ध शब्द का प्रयोग अत्यन्त युक्तिसंगत किया है । बोद्ध दार्शनिक, जहाँ मोक्षका अर्थ दीन निर्वाण के समान सर्वथा अभावात्मक स्थिति करते हैं, वहाँ जैन धम सिद्ध शब्द के द्वारा अनन्त-अनन्त श्रात्मगुणों की प्राप्ति को मोक्ष कहता है । हमारे यहाँ सिद्ध का अर्थ ही पूर्ण है । अतः अनात्मवादी बौद्ध दर्शन की मुक्ति का यह सिद्ध शब्द परिहार करता है, और उन दार्शनिकों की मुक्ति का भी परिहार करता है, जो अपूर्ण दशा में ही मोक्ष होना स्वीकार करते हैं । ईश्वर या अन्य किसी महा शक्ति के द्वारा अपूर्ण व्यक्तियों को मोक्ष देने की कथाएँ वैदिक पुराणों में बाहुल्येन वर्णित हैं । परन्तु जैन धम इन बातों पर विश्वास नहीं करता । वह तो अपूर्ण अवस्था को ससार ही कहता है,
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प्रतिज्ञा सूत्र
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मोक्ष नहीं । जब तक ज्ञान अनन्त न हो, दर्शन अनन्त न हो, चारित्र अनन्त न हो, वीर्य अनन्त न हो, सत्य अनन्त न हो, करुणा अनन्त न हो, किं बहुना, प्रत्येक गुण अनन्त न हो, तब तक मोक्ष होना स्वीकार नहीं करता । अनन्त श्रात्म-गुणों के विकास की पूर्ति अनन्तता में ही है, पहले नहीं। और यह पूरी ता अपनी साधना के द्वारा ही प्राप्त होती है । किसी की कृपा से नहीं। अतः 'इत्थं ठिा जीवा सिमंति' सर्वथा युक्त ही कहा है। बुज्झति
सिझति' के बाद 'बुज्झति' कहा है । बुज्झति का अर्थ बुद्ध होता है, पूर्ण ज्ञानी होता है। प्रश्न है कि बुद्धत्व तो सिद्ध होने से पहले ही प्राप्त हो जाता है। श्राध्यात्मिक विकास क्रमस्वरूप चौदह गुण स्थानों में; अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन श्रादि गुण तेरहवे गुण स्थान में ही प्राप्त हो जाते हैं, और मोक्ष, चौदहवें गुण स्थान के बाद होती है। अतः 'सिझति' के बाद 'बुज्झति' कहने का क्या अर्थ है ? विकासक्रम के श्रनुसार तो बुज्झति का प्रयोग सिज्मति से पहले होना चाहिए था।
यह सत्य है कि केवल ज्ञान तेरहवे गुणस्थान में प्रात हो जाता है, श्रतः विकास क्रम के अनुसार बुद्ध त्व का नम्बर पहला है। और सिद्धत्व का दूसरा । परन्तु यहाँ सिद्धत्व के बाद जो बुद्धत्व कहा है उसका अभिप्रायः यह है कि सिद्ध हो जाने के बाद भी बुद्धत्व बना रहता है, नष्ट नहीं होता है।
वैशेषिक दर्शन की मान्यता है कि मोन में श्रात्मा का अस्तित्व तो रहता है, किन्तु ज्ञान का सर्वथा अभाव हो जाता है। ज्ञान प्रात्मा का एक विशेष गुण है । और मुक्त अवस्था में कोई भी विशेष गुण रहता नहीं है, नष्ट हो जाता है। अतः मोक्ष में जब अात्मा चैतन्य भी नहीं रहता तब उसके अनन्त ज्ञानी बुद्ध होने का तो कुछ प्रश्न ही नहीं ।
यह सिद्धान्त है वैशेषिक दर्शनकार महर्षि कणाद का । जैनदर्शन इसका सर्वथा विरोधी दर्शन है। जैनधर्म कहता है-“यह भी क्या
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२३८
श्रमण- सूत्र
मन ? यह तो आत्मा का सर्वाबद हो जाना हुया ! सर्वथा ज्ञानहीन जड़ पत्थर के रूप में हो जाना, कौन से महत्त्व की बात है ? इससे तो संसार ही अच्छा, जहाँ थोड़ा बहुत भान तो बना रहता है । अस्तु, आत्मा अनन्त ज्ञानी होने पर ही निजानन्द की अनुभूति कर सकता है । बुद्धत्व के चिना सिद्धत्व का कुछ मूल्य ही नहीं रहता । अतः सिद्ध हो जाने के बाद भी बुद्धत्व का रहना अत्यन्त आवश्यक है । ज्ञान, श्रात्मा का निजगुण है, भला वह नष्ट कैसे हो सकता है ? ज्ञानस्वरूप ही तो श्रात्मा है, अतः जब ज्ञान नहीं तो ग्रात्मा का ही क्या अस्तित्व ? हाँ, मोत्र में भी सिद्ध भगवान् सदाकाल अपने अनन्त ज्ञान प्रकाश से जगमगाते रहते हैं, वहाँ एक क्षण के लिए भी कभी ज्ञान अन्धकार प्रवेश नहीं पा सकता ।
उस प्रश्न का समाधान हो जाता है कि सिद्धत्व से पहले होने वाले बुद्धत्व को पहले न कहकर बाद में क्यों कहा ? बुद्धत्व को बाद में इसलिए कहा कि कहीं वैशेषिकदर्शन की धारणा के अनुसार जिज्ञासुत्रों को यह भ्रम न हो जाय कि 'सिद्ध होने से पहले तो बुद्धत्व भले हो, परन्तु सिद्ध होने के बाद बुद्धत्व रहता है या नहीं ?" व पहले सिद्ध और बाद में बुद्ध कहने से यह स्पष्ट हो जाता है कि सिद्ध होने के बाद भी श्रात्मा पहले के समान ही बुद्ध बना रहता है, सिद्धत्व की प्राप्ति होने पर बुद्धत्व नष्ट नहीं होता ।
मुच्चंति
६
'मुच्चति' का अर्थ कमों से मुक्त होना है । जब तक एक भी कम परमाणु श्रात्मा से सम्बन्धित रहता है, तब तक मोक्ष नहीं हो सकती । जैनदर्शन में ' कृत्स्नकर्मदयो मोतः ही मोत्र का स्वरूप है । मोक्ष में राग-द्वेष आदि ।
ज्ञानावरणादिकर्म रहते हैं और न कर्म के कारण
अर्थात् किसी भी प्रकार का श्रदयिक भाव मोढ़ में
नहीं रहता । या प्रश्न करेंगे कि सय कमों का क्षय होने पर ही तो सिद्धत्व भाव
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२३६ प्राप्त होता है. मोक्ष होती है। फिर यह 'मुच्चंति के रूप में कर्मों से मुक्ति होने का स्वतंत्र उल्लेख क्यों किया गया ? ___समाधान है कि कुछ दार्शनिक मोक्ष अवस्था में भी कम की सत्ता मानते हैं । उनके विचार में मोक्ष का अर्थ कर्मों से मुक्ति नहीं, अपितु कृत कर्मों के फल को भोगना मुक्ति है । जब तक शुभ कर्मों का सुख रूप फल का भोग पूर्ण नहीं होता, तबतक अात्मा मोक्ष में रहता है । और ज्यों ही फल-भोग पूर्ण हुअा त्यों ही फिर संसार में लौट आता है।।
जैन दर्शन का कहना है कि यह तो ससारस्थ स्वर्ग का रूपक है, मोक्ष का नहीं । मोक्ष का अर्थ छूट जाना है। यदि मोक्ष में भी कम श्रार कम फल रहे तो फिर छूटा क्या ? मुक्त क्या हुश्मा ? संसार और मोक्ष में कुछ अन्तर ही न रहा ? मोक्ष भी कहना और वहाँ कर्म भी मानवा, यह तो वदतोव्याघात है । जिस प्रकार मैं गूंगा हूँ, बोलूँ कैसे ?' यह कहना अपने ग्राप में असत्य है, उसी प्रकार मोक्ष में भी कर्म बन्धन रहता है, यह कथन भी अपने आप में भ्रान्त एवं असत्य है । मोक्ष में यदि शुभ कमों का अस्तित्व माना जाय तो वह कमजन्य सुख दुःखास भिन्न नहीं हो सकेगा। और यदि मोक्ष में सुख के साथ दुःख भी रहा तो फिर वह मोन ही क्या और मोक्ष का सुख ही क्या ? कम होंगे तो कर्मों से होने वाले जन्म, जरा, मरण भी होंगे ? इस प्रकार एक क्या, अनेकानेक दुःखों की परम्परा चल पड़ती है। अतः जैन धर्म का यह सिद्धान्त सर्वथा सत्य है कि सिद्ध होने पर प्रात्मा सब प्रकार के शुभाशुभ कर्मों से सदा के लिए मुक्त हो जाता है । सिद्धत्व का अर्थ ही मुक्तत्व है। परिनिव्वायंति
यह पहले कहा जा चुका है कि जैन दर्शन का निर्वाण बौद्ध निर्वाण के समान अभावात्मक नहीं है। यहाँ आत्मा की सत्ता के नष्ट होने पर दुःखों का नाश नहीं माना है । बौद्ध दर्शन रोगी का अस्तित्व समाप्त होने पर कहता है कि देखो, रोग नहीं रहा । परन्तु जैन दर्शन रोगी का रोग
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श्रमण-सूत्र
नष्ट करता है, स्वयं रोगी को नहीं । रोग के साथ यदि रोगी भी समाप्त हो गया तो रोगी के लिए क्या अानन्द ? कर्म एक रोग है, अतः उसे नष्ट करना चाहिए । स्वयं प्रात्मा का नष्ट होना मानना, कहाँ का दर्शन है ?
वैशेषिक दर्शन अात्मा का अस्तित्व तो स्वीकार करता है, परन्तु वह मोक्ष में सुख का होना नहीं मानता। वैशेषिक दर्शन कहता है कि 'मोक्ष होने पर आत्मा में न ज्ञान होता है, न सुख होता है, न दुःख होता है । 'नवानामात्म-विशेषगुणानामुच्छेदो मोक्षः ।
जैन दर्शन मोक्ष में दुःखाभाव तो मानता है, परन्तु सुखाभाव नहीं मानता । सुख तो मोक्ष में ससीम से असीम हो जाता है--अनन्त हो जाता है । हाँ पुद्गल सम्बन्धी कमजन्य सांसारिक सुख वहाँ नहीं होता; परन्तु श्रात्मसापेक्ष अनन्त श्राध्यात्मिक सुख का अभाव तो किसी प्रकार भी घटित नहीं होता । वह तो मोक्ष का वैशिष्टय है, महत्त्व है । 'परिनिव्वायंति' के द्वारा यही स्पष्टीकरण किया गया है कि जैन धर्म का निर्वाण न अात्मा का बुझ जाना है और न केवल दुःखाभाव का होना है । वह तो अनन्त सुख स्वरूप है । और वह सुख भी, वह सुख है, जो कभी दुःख से सपृक्त नहीं होता। प्राचार्य जिनदास परिनिध्वायंति की व्याख्या करते हुए कहते हैं 'परिनिव्वुया भवन्ति, परमसुहिणो भवतीत्यर्थः ।'
सम्वदुक्खाणमंतं करेंति ___मोक्ष की विशेषताओं को बताते हुए सबके अन्त में कहा गया है कि 'धर्माराधक साधक मोक्ष प्राप्त कर शारीरिक तथा मानसिक सब प्रकार के दुःखों का अन्त कर देता है। प्राचार्य जिनदास कहते हैं, 'सत्वेसिं सारीर-माणसाणं दुक्खाणं अंतकरा भवन्ति, वोच्छिण्ण-सव्वदुक्खा भवन्ति । __प्रस्तुत विशेषण का सारांश पहले के विशेषणों में भी या चुका है। यहाँ स्वतंत्र रूप में इसका उल्लेख, सामान्यतः मोक्षस्वरूप का दिग्दर्शन कराने के लिए है। दर्शन शास्त्र में मोक्ष का स्वरूप सामान्यतः सब दुःखों का प्रहाण अर्थात् प्रात्यन्तिक नाश ही बताया गया है।
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२४१
प्रकृति को नहीं ।
यदि
कर्म और
संसार की
उक्त विशेषण का एक ओर भी अभिप्राय हो सकता है । वह यह कि सांख्य दर्शन यदि कुछ दर्शन श्रात्मा को सर्वथा बन्धनरहित होना मानते हैं । उनके यहाँ न कभी आत्मा को कर्म बन्ध होता है और न तत्फलस्वरूप दुःख यदि ही । दुःख आदि सब प्रकृति के धर्म हैं, पुरुष अर्थात् आत्मा के नहीं । जैन दर्शन इस मान्यता का विरोध करता है । वह कहता है कि कर्मबन्ध श्रात्मा को होता है, प्रकृति तो जड़ है, उसको बन्ध क्या और मोक्ष क्या ? तजन्य दुःख यादि श्रात्मा को लगते ही नहीं हैं तो फिर यह स्थिति किस बात पर है ? आत्माएँ दुःख से हैरान क्यों हैं ? अतः कर्म और उसका फल जब तक श्रात्मा से लगा रहता है, तब तक संसार हैं । और ज्यों ही कर्म तथा तज्जन्य दुःखादि का अन्त हुआ, आत्मा मोक्ष प्राप्त कर लेती है, मुक्त हो जाती है। जैन साहित्य में दुःख शब्द स्वयं दुःख के लिए भी आता है, और शुभाशुभ कर्मों के लिए भी । इसके लिए भगवती सून देखना चाहिए। अतः 'सव्व दुक्खाणमंत करेंति' का जहाँ यह अर्थ होता है कि 'सब दुःखों का अन्त करता है', वहाँ यह अर्थ भी होता है कि 'सब शुभाशुभ कर्मों का अन्त करता है ।' जब कर्म ही न रहे तो फिर सांसारिक सुख, दुःख, जन्म, मरण आदि का द्वन्द्व कैसे रह सकता है ? जब बीज ही नहीं तो वृक्ष कैसा ? जब मूल ही नहीं तो शाखा शाखा कैसी ? मोक्ष, आत्मा की वह निद्वन्द्व अवस्था है, जिसकी उपमा विश्व की किसी वस्तु से नहीं दी जा सकती । प्रीति और रुचि
धर्म के लिए अपनी हार्दिक श्रद्धा कहा है कि 'मैं धर्म की श्रद्धा करता हूँ, करता हूँ ।" यहाँ प्रीति और रुचि में क्या समाधान चाहता है ।
अभिव्यक्त करते हुए साधक ने प्रीति करता हूँ, और रुचि अन्तर है ? यह प्रश्न अपना
समाधान यह है कि कार से कोई अन्तर नहीं मालूम देता, परन्तु अन्तरंग में विशेष अन्तर है । प्रीति का अर्थ प्रेम भरा आकर्षण
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२४२
श्रमण-सूत्र
है और रुचि का अर्थ है अभिरुचि अर्थात् उत्सुकता। प्राचार्य जिनदास के शब्दों में कहें तो रुचि के लिए 'अभिलाषातिरेकेण प्रासेवनाभिमुखता' कह सकते हैं।
एक मनुष्य को दधि आदि वस्तु प्रिय तो होती है, परन्तु कमी किसी विशेष ज्वरादि स्थिति में रुचिकर नहीं होती । अतः सामान्य प्रेमाकर्षण को प्रीति कहते हैं, और विशेष प्रेमाकर्षण को अभिरुचि । अस्तु, साधक कहता है 'मैं धम की श्रद्धा करता हूँ ।' श्रद्धा ऊपर मन से भी की जा सकती है अतः कहता है कि 'मैं धम की प्रीति करता हूँ।' प्रीति होते हुए भी कभी विशेष स्थिति में रुचि नहीं रहती, अतः कहता है कि 'मैं धर्म के प्रति सदाकाल रुचि रखता हूँ।' कितने ही संकट हों, आपत्तियाँ हों, परन्तु सच्चे साधक की धम के प्रति कभी-भी अरुचि नहीं होती। वह जितना ही धर्माराधन करता है, उतनी ही उस योर रुचि बढ़ती जाती है । धर्माराधन के मार्ग में न सुख बाधक बन सकता है और न दुःख ! दिन रात अविराम गति से हृदय में श्रद्धा, प्रीति और रुचि की ज्योति प्रदीत करता हुआ, साधक, अपने धर्म पथ पर अग्रसर होता रहता है । बीच मञ्जिल में कहीं ठहरना, उसका काम नहीं है । उसकी आँखे यात्रा के अन्तिम लक्ष्य पर लगी रहती हैं । वह वहाँ पहुँच कर ही विश्राम लेगा, पहले नहीं। यह है साधक के मन की अमर श्रद्धाज्योति, जो कभी बुझती नहीं । फासेमि, पालेमि, अरापालेमि
जैनधर्म केवल श्रद्धा, प्रीति और रुचि घर ही शान्त नहीं होता। उसका वास्तविक लीलाक्षेत्र कर्तव्य-भूमि है । वह कहनी के साथ करनी की रागनी भी गाता है । विश्वास के साथ तदनुकूल आचरण भी होना चाहिए । मन, वाणी और शरीर की एकता ही साधना का प्राण है।
१-"प्रीती रुचिश्च भिन्ने एव, यतः क्वचिद् दम्यादी प्रीतिसद्भावेऽपि न सर्वदा रुचिः। ----श्राचार्य हरिभद्र ।
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२४३
यही कारण है कि साधक श्रद्धा, प्रीति और रुचि से आगे बढ़कर कहता है-"मैं धर्म का स्पर्श करता हूँ, उसे अाचरण के रूप में स्वीकार करता हूँ।" "केवल स्पर्श ही नहीं, मैं प्रत्येक स्थिति में धर्म का पालन करता हूँ-स्वीकृत प्राचार की रक्षा करता हूँ।" "एक-दो बार ही पालन करता हूँ, यह बात नहीं । में धर्म का नित्य निरन्तर पालन करता हूँ, बार-बार पालन करता हूँ, जीवन के हर क्षण में पालन करता हूँ "
प्राचार्य जिनदास 'अणुपालेमि' का एक और अर्थ भी करते हैं कि “पूर्वकाल के सत्पुरुषों द्वारा पालित धर्म का मैं भी उसी प्रकार अनुपालन करता हूँ।" इस अर्थ में परम्परा के अनुसार चलने के लिए पूर्ण दृढ़ता अभिव्यक्त होती है। 'अहवा पुठ्य पुरिसेहिं पालितं अहं पि अणुपालेमित्ति ।'-आवश्यक चूर्णि अन्मुट्टिोमि' ___यह उपर्युक्त शब्द कितना महत्वपूर्ण है ! साधक प्रतिज्ञा करता है कि "मैं धर्म की श्रद्धा, प्रीति, स्पर्शना, पालना तथा अनुपालना करता हुआ धर्म की आराधना में पूर्ण रूप से अभ्युत्थित होता हूँ और धर्म की विराधना से निवृत्त होता हूँ ।” वाणी में कितना गंभीर, अटल, अचल स्वर गूंज रहा है ! एक-एक अक्षर में धर्माराधन के लिए अखंड सत्साहस की ज्वालाएँ जग रही हैं ! 'प्रभ्युत्थिोऽस्मि, सन्नद्धोऽस्मि' यह कितना साहस भरा प्रण है !
क्या आप धर्म के प्रति श्रद्धा रखते हैं ? क्या आपकी धर्म के प्रति अभिरुचि है ? क्या याप धर्म का पालन करना चाहते हैं ? यदि हाँ, तो फिर निष्क्रिय क्यों बैठते हैं ? कर्तव्य के क्षेत्र में चुप बैठना, ग्रालसी बन कर पड़े रहना, पाप है । कोई भी साधक निष्क्रिय रह कर जीवन का
१ प्रस्तुत पाठ को 'अब्भुडिअोमि' से खड़े होकर पढ़ने की परम्परा
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२४४
श्रमण-सूत्र
उत्थान नहीं कर सकता । अतः प्रत्येक साधक को यह अमर घोषणा करनी ही होगी कि 'अभुडियोमि'.---'मैं धर्माराधन के क्षेत्र में दृढ़ता के साथ खड़ा होता हूँ ।' ___जैनागमरत्नाकर पूज्य श्रीअात्मारामजी महाराज अपने आवश्यक सूत्र में 'सदहतो, पत्तिअंतो, रोअंतो' आदि की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि "उस धर्म की अन्य को श्रद्धा करवाता हूँ, प्रीति करवाता हूँ, रुचि करवाता हूँ............निरन्तर पालन करवाता हूँ।" कोई भी विचारक देख सकता है कि क्या यह अर्थ ठाक है ? यहाँ दूसरों को धर्म की श्रद्धा श्रादि कराने का प्रसंग ही क्या है ? किसी भी प्राचीन ग्राचार्य ने यह अर्थ नहीं लिखा है। मालूम होता है यहाँ प्राचार्य जी को प्रेरणार्थक ण्यन्त प्रयोग की भ्रान्ति हो गई है ! परन्तु वह है नहीं । यहाँ तो स्वयं श्रद्धा आदि करते रहने से तात्पर्य है, दूसरों को कराने से नहीं। ज्ञ-परिज्ञा और प्रत्याख्यान-परिज्ञा
ग्रागम-साहित्य में दो प्रकार की परिज्ञायां का उल्लेख पाता है - एक ज्ञ-परिज्ञा तो दूसरी प्रत्याख्यान परिज्ञा । ज्ञ-परिज्ञा का अर्थ, हेय पाचरणा को स्वरूपतः जानना है और प्रत्याख्यान-परिज्ञा का अर्थ, उसका प्रत्याख्यान करना है-उसको छोड़ना है ! असयम-प्राणातिपात आदि, अब्रह्मचर्य = मैथुन वृत्ति, अकल्प-अकृत्य, अज्ञान = मिथ्याज्ञान, प्रक्रिया = असक्रिया, मिथ्यात्व = अतत्त्वार्थ श्रद्धान इत्यादि अात्म-विरोधी प्रतिकूल प्राचरण को त्याग कर संयम, ब्रहाचर्य, कृत्य, सम्यगज्ञान, सक्रिया, सम्यगदर्शन प्रादि को स्वीकार करते हुए, यह आवश्यक है कि पहले असयम ग्रादि का स्वरूप-परिज्ञान किया जाय । जब तक यह ही नहीं पता चलेगा कि अयम अादि क्या हैं ? उनका क्या स्वरूप है ? उनके होने से साधक की क्या हानि है ? उन्हें त्यागने में क्या लाभ है ? तब तक उन्हें त्यागा कैसे जायगा ? विवेकपूर्वक किया हुया प्रत्याख्यान ही सुप्रत्यार पान होता है। केवल अन्धपरम्परा से शून्यभावेन त्या यान कर लेने की तो शास्त्रकार कुप्रत्या
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२४५
स्यान कहते हैं । ग्रतः प्रत्याख्यान- परिजा से पहले ज्ञ परिज्ञा अत्यन्त श्रावश्यक है | अज्ञानी साधक कुछ भी हिताहित नहीं जान सकता । 'अन्नाणी किं काही ? किंवा नाही सेयपावगं ।
श्रतएव 'असंजम परिश्राणामि संजमं उब संपजामि' इत्यादि सूत्रपाठ में जो 'परिश्रागामि' क्रिया है, उसका अर्थ न केवल जानना है और न केवल छोड़ना । प्रत्युत सम्मिलित अर्थ है, 'जानकर छोड़ना ।' इसी विचार को ध्यान में रख हमने भावार्थ में लिखा है कि 'संयम को जानता हूँ और त्यागता हूँ' इत्यादि । श्राचार्य जिनदास भी यही कहते हैं- 'परियाणामिति ज्ञपरिण्णया जाणामि, पञ्चक्खाणपरिणया 'पञ्चवखामि । श्राचार्य हरिभद्र भी 'पडिजाणामि' पाठ स्वीकार करके 'प्रतिजानामि' संस्कृत रूप बनाते हैं और उसका अर्थ करते हैं- 'ज्ञ-परिज्ञया विज्ञाय प्रत्याख्यान- परिज्ञया प्रत्या ज्यामीत्यर्थः ।' श्रद्धय पूज्यश्री आत्मारामजी महाराज ने भी दोनों ही परिज्ञायों का उल्लेख किया है, जो परम्परासिद्ध एवं तर्कसंगत है । परन्तु श्रद्ध ेय पूज्यश्री अमोलक ऋषिजी केवल 'त्याग' ग्रंथ का ही उल्लेख करते हैं । संभव है, आपका ज्ञपरिज्ञा से परिचय न हो !
serer और कल्प
कल्प का अर्थ ग्राचार है । ग्रतः चरण-करण रूप आचार-व्यवहार को आगम की भाषा में कल्प कहा जाता है । इसके विपरीत अकल्प होता है । साधक प्रतिज्ञा करता है कि 'मैं प्रकल्प = कृत्य को जानता तथा त्यागता हूँ, और कल्प = कृत्य को स्वीकार करता हूँ ।"
पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी महाराज 'प्रकणं परिश्राणामि क 'उवसंपजामि' का अर्थ करते हैं - 'अकल्पनीक वस्तु का त्याग करता हूँ, कल्पनीक वस्तु को अंगीकार करता हूँ ।' पूज्य श्री के अर्थ से कोई भी
१ 'प्रकल्पोऽकृत्यमाख्यायते, कल्पस्तु कृत्यमिति । - श्राचार्य हरिभद्र |
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२४६
श्रमण सूत्र
विचारक सहमत नहीं हो सकता। यहाँ प्रतिक्रमण किया जा रहा है. अयोग्य याचरण की प्रालोचना के बाद सयम पालन के लिए प्रण किया जा रहा है, फलतः कहा जा रहा है कि मैं असयम आदि की परपरिणति से हट कर संगम आदि की स्वपरिगति में पाता हूँ, औदयिक भाव का त्याग कर क्षायोपशमिक आदि प्रात्मभाव अपनाता हूँ। भला यहाँ अकल्पनीक वस्तु को छोड़ता हूँ और कल्पनीक वस्तु को ग्रहण करता हूँ-इस प्रतिज्ञा की क्या संगति ?
प्राचार्य जिनदास सामान्यतः कहे हुए एक विध असयम के ही विशेष विवक्षाभेद से दो भेद करते हैं 'मूल गुण असयन और उत्तर गुण अस यम ।' और फिर अब्रह्म शब्द से मूल गुण असयम का तथा अकल्प शब्द से उत्तर गुण असयम का ग्रहण करते हैं। प्राचार्य श्री के कथनानुसार प्रतिज्ञा का रूप यह होता है-"मैं मूल गुण असयम का विवेक पूर्वक परित्याग करता हूँ और मूल गुण संयम को स्वीकार करता हूँ। इसी प्रकार उत्तर गुण असंयम को त्यागता हूँ और उत्तर गुण सयम को स्वीकार करता हूँ।" "सो य असंजमो विसेसतो दुविहोमूलगुण असंजमो उत्तरतुणप्रसजमो य । अतो सामण्णण भणिऊण संवेगाद्यर्थ विसेसतो चेव भणति-प्रबंभं० अयंभग्गहणेण मूलगुणा भरणंति त्ति एवं कप्पगहणेण उत्तरगुणत्ति ।"~ावश्यक चूणि । श्रक्रिया और क्रिया
प्राचार्य हरिभद्र, अक्रिया को अज्ञान का ही विशेष भेद मानते हैं अोर क्रिया को सम्यग् ज्ञान का। अतः अपनी दार्शनिक भाषा में श्राप अक्रिया को नास्तिवाद कहते हैं और क्रिया को सम्यगवाद | "प्रक्रिया नास्तिवादः क्रिया सम्यग्वादः ।" नास्तिवाद का अर्थ लोक, परलोक, धर्म, अधम आदि पर विश्वास न रखने वाला नास्तिकवाद है। और सम्यगवाद का अर्थ उक्त सब बातों पर विश्वास रखने वाला अास्तिकवाद है।
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२४७
प्राचार्य जिनदास प्रशस्त = अयोग्य क्रिया को क्रिया कहते हैं और प्रशस्त = योग्य क्रिया को किया । "अप्पसत्था किरिया अकिरिया, इतरा किरिया इति । "
अबोधि और बोधि
———
जैन साहित्य में धि और बोधि शब्द बड़े ही गंभीर एवं महत्त्वपूर्ण हैं | बोधि और बोध का उपरितन शब्दस्पर्शी अर्थ होता है'अज्ञान और ज्ञान । परन्तु यहाँ यह अर्थ भी नहीं है । यहाँ अधि से तात्पर्य है मिथ्यात्व का कार्य, और बोधि से तात्पर्य है सम्यक्त्व का कार्य | आचार्य हरिभद्र, अवधि एवं बोधि को क्रमशः मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व का अंग मानते हुए कहते हैं - "अबोधिः - मिथ्यात्वकार्य, बोधस्तु सम्यक्त्वस्येति ।"
----
असत्य का दुराग्रह रखना, संसार के कामभोगों में आसक्ति रखना, धर्म की निन्दा करना, प्राणियों के प्रति निर्दय भाव रखना, वीतराग अरिहन्त भगवान् का ग्रवर्णवाद बोलना, इत्यादि मिध्यात्व के कार्य हैं । सत्य का श्राग्रह रखना, संसार के काम भोगों में उदासीन रहना, धर्म के प्रति दृढ़ आस्था रखना, प्राणिमात्र पर प्रेम तथा करुणा का भाव रखना, वीतराग देव के प्रति शुद्ध निष्कपट भक्ति रखना, इत्यादि सम्यक्त्व के कार्य हैं | बोध को जानना, त्यागना और बोधि को स्वीकार करना, साधक के लिए परमावश्यक है ।
आगमरत्नाकर पूज्य श्री श्रात्माराम जी महाराज बोधि का अर्थ सुमार्ग करते हैं । पूज्य श्री अमोलक ऋषि जी महाराज अवधि का अर्थ 'तत्त्वज्ञता' करते हैं और बोधि का अर्थ 'बोधिबीज' ।
अमार्ग और मागे
प्रथम संयम के रूप में सामान्यतः विपरीत आचरण का उल्लेख किया गया था । पश्चात् श्रब्रह्म आदि में उसी का विशेष रूप से निरूपण होता रहा है । ग्रत्र अन्त में पुनः सामान्य - रूपेण कहा जा रहा है
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२४८
श्रमण-सूत्र
}
कि "मैं मिथ्याल, अविरति प्रमाद और कपयभाव यदि ग्रमार्ग को विवेक पूर्वक त्यागता हूँ और सम्यक्ल, विरति श्रप्रमाद और कवाय भाव यदि मार्ग को ग्रहण करता हूँ ।" जं संभरामि, जं च न संभरामि
भयादि सूत्र की दिग्दर्शन कराया है ।
१
व्याख्या में हमने प्रतिक्रमण के विराट रूप का उसका आशय यह है कि यह मानव जीवन चारों र से दोषाच्छन्न है । सावधानी से चलता हुआ साधक भी कहीं न कहीं भ्रान्त हो ही जाता है । जब तक साधक छेदस्थ हैं, 'घातिकमदय से युक्र है, तब तक नाभोगता किसी न किसी रूप में बनी ही रहती है । यतः एक, दो आदि के रूप में दोषों की क्या गणना ? असंख्य तथा अनन्त असंयम स्थानों में से, पता नहीं, कब कौन सा श्रमयम का दोष लग जाय ? कभी उन दोषों की स्मृति रहती है, कभी नहीं भी रहती है । जिन दोषों की स्मृति रहती है, उनका तो नामोल्लेख पूर्वक प्रतिक्रमण किया जाता है । परन्तु जिनकी स्मृति नहीं है उनका भी प्रतिक्रमण कर्तव्य है । इन्हीं भावनाओं को ध्यान में रखकर प्रतिक्रमण सूत्र की समाप्ति पर श्रमण साधक कहता है कि “जिन दोषों की मुझे स्मृति है, उनका प्रतिक्रमण करता हूँ, और जिन दोषों की स्मृति नहीं भी रही है, उनका भी प्रतिक्रमण करता हूँ ।"
जं पडिक्कमामि, जं च न पडिक्कमामि
'जं संभरामि' श्रादि से लेकर 'जं च न पडिक्कमामि' तक के सूत्रांश का सम्बन्ध 'तस्स सव्वरस देवसियत्स अइयारस्स पडिक्कमामि' से है । तः सबका मिलकर अर्थ होता है जिनका स्मरण करता हूँ, जिनका स्मरण नहीं करता हूँ. जिनका प्रतिक्रमण करता हूँ, जिनका प्रतिक्रमण नहीं करता हूँ, उन सब दैवसिक अतिचारोंका प्रतिक्रमण करता हूँ ।
१ 'घातिककर्मोदयतः खलितमासेवितं पडिक्कमामि मिच्छा दुक्कडादिया । ' - आवश्यक चूर्णि
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प्रतिज्ञा सूत्र
२४६
प्रश्न है कि जिनका प्रतिक्रमण करता हूँ, फिर भी उनका प्रतिक्रमण करता हूँ-इसका क्या अर्थ ? प्रतिक्रमण का भी प्रतिक्रमण करना कुछ समझ में नहीं पाता ?
प्राचार्य जिनदास ऊपर की शंका का बहुत सुन्दर समाधान करते हैं । ग्राम पडिकमामि का अर्थ परिहामि करते हैं और कहते हैं - 'शारीरिक दुर्बलता अादि किसी विशेष परिस्थितिवश यदि मैंने करने योग्य सत्कार्य छोड़ दिया हो-न किया हो, और न करने योग्य कार्य किया हो तो उम सब अति चार का प्रतिक्रमण करता हूँ।' देखिए यावश्यक चूर्णि "संघयणादि दौर्बल्यादिना जं पडिक्कम मि -परिहरामि करणिज्ज, जं च न पडिकमामि अकरणिज्जं ।” आत्म-समुत्कीर्तन
'समणोऽहं संजय-विरय....."माया मोसविक जनो' यह सूत्रांश यात्म-समुत्कीर्तनपरक है । "मैं श्रमण हूँ, सयत-विरत-प्रतिहतप्रत्याख्यात पापकर्मा हूँ, अनिदान हूँ, दृष्टिमम्पन्न हूँ, और मायामृपाविवर्जित हूँ"-~यह कितना उदात्त, योजस्वी अन्तर्नाद है ! अपने सदाचार के प्रति कितनी स्वाभिमान पूर्ण गम्भीर वाणी है । सम्भव है किसी को इसमें अहंकार की गन्ध याए ! परन्तु यह अहंकार अप्रशस्त नहीं, प्रशस्त है । अात्मिक दुर्बलता का निराकरण करने के लिए साधक को ऐसा स्वाभिमान सदा सर्वदा ग्राह्य है, अादरणीय है । इतनी उच्च संकल्प भूमि पर पहुँचा हुअा साधक ही यह विचार कर सकता है कि ' 'मैं इतना ऊँचा एवं महान् साधक हूँ, फिर भला अकुशल पापकर्म का आचरण कैसे कर सकता हूँ?' यह है वह यात्माभिमान, जो साधक को पापाचरण से बचाता है, अवश्य बचा है ! यह है वह अात्मसमुत्कीर्तन, जो
1 'एरिसो य हों तो कहं पुण अकुपजमायरिस्सं ?' प्राचार्य जिनदास
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२५०
श्रमण-सूत्र
साधक को धर्माचरण के लिए प्रखर स्फूर्ति देता है, और देता है अच चल ज्ञान चेतना ।
आइए, अब कुछ विशेष शब्दों पर विचार कर ले । 'श्रमण' शब्द में साधना के प्रति निरन्तर जागरूकता, सावधानता एवं प्रयत्नशीलता का भाव रहा हुआ है । 'मैं श्रमण हूँ' अर्थात् साधना के लिए कठोर श्रम करने वाला हूँ। मुझे जो कुछ पाना है, अपने श्रम अर्थात् पुरुषार्थ के द्वारा ही पाना है। अतः मैं सबम के लिए अतीत में प्रतिक्षण श्रम करता रहा हूँ। वर्तमान में श्रम कर रहा हूँ और भविष्य में भी श्रम करता रहूँगा। यह है वह विराट अाध्यात्मिक श्रम-भावना, जो श्रमण शब्द से ध्वनित होती है । ___ संयत का अर्थ है-'सयम में सम्यक् यतन करने वाला ।' अहिंसा, सत्य यादि कर्तव्यों में साधक को सदैव सम्यक प्रयत्न करते रहना चाहिए । यह सयम की साधना का भावात्मक रूप है । "संजतोसम्म जतो, करणीयेसु जोगेषु सम्यक प्रयत्नपर इत्यर्थः ।"-यावश्यक चूर्णि
विरत का अर्थ है-'सब प्रकार के सावद्य योगों से विरति= निवृत्ति करने वाला ।' जो संबम की साधना करना चाहता है, उसे असदाचरण रूप समस्त सावध प्रयत्नों से निवृत्त होना ही चाहिए । यह नहीं हो सकता कि एक ओर सयम की साधना करते रहें और दूसरी योर सांसारिक सावध पाप कर्मों में भी संलग्न रहें। स यम और असंयम में परस्पर विरोध है । इतना विरोध है कि दोनों तीन काल में भी कभी एकत्र नहीं रह सकते । यह साधना का निषेधात्मक रूप है : 'एगो विरई कुजा, एगो य पवत्तण'-उत्तराध्ययन सूत्र के उक्त कथन के अनुसार अस. यम में निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करने से ही साधना का वास्तविक रूप स्पष्ट होता है।
प्रतिहत-प्रत्याख्यात पापकर्मा का अर्थ है-'भूतकाल में किए गए पाप कर्मों को निन्दा एवं गीं के द्वारा प्रतिहत करने वाला और वर्तमान
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२५१
तथा भविष्य में होने वाले पाप कर्मों को अकरणतारूप प्रत्याख्यान के द्वारा प्रत्याख्यात करने वाला ।' यह विशेषण साधक की कालिक जीवन शुद्धि का प्रतीक है । सञ्चा साधक वही साधक है, जो अपने जीवन के तीनों कालों में से अर्थात् भूत, भविष्यत्, वर्तमान में से, पाप कालिमा को धोकर साफ कर देता है । वह न वर्तमान में पाप करता है, न भविष्यत में करेगा और न भूतकाल के पायों को ही जीवन के किसी अंग में लगा रहने देगा । उसे पार कमों से लड़ना है। केवल वर्तमान में ही नहीं, अपितु भूत और भविष्यत् में भी लड़ना है। साधना का अर्थ ही पाप कर्मों पर त्रिकालविजयी होना है ।
तिहत-प्रत्याच्यातपापकर्मा की व्युत्पत्ति करते हुए प्राचार्य जिनदास लिखते हैं--'पडिहतं अतीतं णि दण-गरहणादीहिं, पञ्चक्खातं सेसं प्रकरणतया पावकम्मं पावाचारं येण स तथा।'
अनिदान का अर्थ होता है--निदान से रहित अर्थात् निदान का परिहार करने वाला। निदान का अर्थ ग्रामक्ति है। साधना के लिए किसी प्रकार की भी भोगासक्ति जहरीला कीड़ा है। कितनी ही बड़ी ऊँची साधना हो, यदि भोगासक्ति है तो वह उसे अन्दर ही अन्दर खोखला कर देती है सड़ा-गला देती है। अतः साधक घोषणा करता है कि "मैं श्रमण हूँ, अनिदान हूँ । न मुझे इस लोक की आसक्ति है, और न परलोक की । न मुझे देवताओं का वैभव ललचा सकता है और न किसी चक्रवर्ती सम्राट का विशाल साम्राज्य ही। इस विराट संसार में मेरी कहीं भी कामना नहीं है । न मुझे दुःख से भय है और न सुख से मोह । अतः मेरा मन न काँटों में उलझ सकता है और न फूलों में। मैं साधक हूँ। अस्तु, मेरा एकमात्र लक्ष्य मेरी अपनी साधना है, अन्य कुछ नहीं । मेरा ध्येय बन्धन नहीं, प्रत्युत बन्धन से मुक्ति है।"
जैन सस्कृति का यह आदर्श कितना महत्त्वपूर्ण है ! अनिदान शब्द के द्वारा जैन साधना का ध्येय स्पष्ट हो जाता है। जो साधक अपने लिए कोई सांसारिक निदान सम्बन्धी ध्येय निश्चित करते हैं, वे पथ भ्रष्ट हुए
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રપૂર
श्रमगा-सूत्र
विना नहीं रह सकते। अनिदान साधक ही पथ भ्रष्ट होने से बचते हैं
और स्वीकृत साधना पर दृढ़ रहकर कम बन्धनों से अपने को मुक्त करते हैं।
दृष्टिसम्पन्न का अर्थ है-'सम्यगदर्शन रूप शुद्ध दृष्टि बाला ।' साधक के लिए शुद्ध दृष्टि होना आवश्यक है। यदि भम्यग दर्शन न हो, शुद्ध दृष्टि न हो, तो हिताहित का विवेक कैसे होगा ? धर्माधम का स्वरूप-दशन कैसे होगा ? सम्यग दर्शन ही कर निमल दृष्टि है, जिसके द्वारा संसार को ससार के रूप में, मोन को मोक्ष के रूप में, सौंसार के कारणों को सौंमार के कारणों के रूप में, मोन के कारणों को मोक्ष के कारणों के रूप में, अर्थात् धर्म को धम के रू: में और अधर्म को अधम के रूप में देखा जा सकता है। प्राचार्य जिनदास इसी लिए 'दिहि सम्पन्नो' का अर्थ 'सवगुण मूल भूत गुणयुक्रत्व' करते हैं। 'सम्यग्दर्शन' वस्तुतः सब गुणों का मूलभूत
जब तक सम्घा दर्शन का प्रकाश विद्यमान है, तब तक साधक को इधर-उधर भटकने एवं पथ भ्रष्ट होने का कोई भय नहीं है । मिथ्यादर्शन ही साधक को नीचे गिराता है, इधर-उधर के प्रलोभनों में उलझाता है। सम्यग्दर्शन का लक्ष्य जहाँ बन्धन से मुक्ति है, वहाँ मिथ्यादशन का लक्ष्य स्वयं बन्धन है | भोगासक्ति है, ससार है। अतएव श्रमण जब यह कहता है कि मैं दृष्टिसम्पन्न हूँ, तब उसका अभिप्राय यह होता है कि "मैं मिथ्यादृष्टि नहीं हूँ, सम्यग् दृष्टि हूँ। मैं सत्य को सत्य और सत्य को असत्य समझता हूँ मेरे समक्ष ससार एवं मोक्ष का रूप लेकर नहीं आ सकता, बन्धन मोक्ष नहीं हो सकता । मेरी विवेक दृष्टि इतनी पैनी है कि मुझे असयम, सयम का बाना पहन कर, अधर्म, धर्म का रूप बनाकर, धोखा नहीं दे सकता । मैं प्रकाश में विचरण करने के लिए हूँ। में अन्धकार में क्यों भटकूँ और दीवारों से क्यों टकराऊँ ? क्या मेरे आँख नहीं है ? अनंत काल से भटकते हुए इस अंधे ने ग्राँग्ख पा ली है । अतः
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२५३ अब यह नहीं भटकेगा। स्वयं तो क्या भटकेगा, दूसरे अधों को भी भटकने से बचाएगा । सम्यग्दर्शन का प्रकाश ही ऐसा है।"
माया-मृा-विवर्जित का अर्थ है-- मायामृग से रहित ।' मायामृषा साधक के लिए बड़ा ही भयंकर पाप है। जैन धर्म में इसे शल्प कहा है । यह साधक के जीवन में यदि एक बार भी प्रवेश कर लेता है तो फिर वह कहीं का नहीं रहता। भूल को छुपाने की वृत्ति पिछले पापों को भी साफ नहीं होने देती और ग्रागे के लिए अधिकाधिक पापों को निमत्रण देती है । जो साधक झूठ बोल सकता है, झूठ भी वह, जिसके गर्भ में माया रही हुई हो, भला वह क्या साधना करेगा ? माया मृवावादी, साधक नहीं होता, ठग होता है । वह धर्म के नाम पर अधर्म करता है, धर्म का ढोंग रचता है ।
यह प्रतिक्रमण-सूत्र है। अतः प्रतिक्रमणकर्ता साधक कहता है कि "में श्रमण हूँ। मैंने माया यार मृपावाद का मार्ग छोड़ दिया है। मेरे मन में छुपाने जैसी कोई बात नहीं है। मेरी जीवन-पुस्तक का हरएक पृट खुला है, कोई भी उसे पढ़ सकता है। मैंने साधना पथ पर चलते हुए जो भूले की हैं, गलतियाँ की हैं, मैंने उनको छुपाया नहीं है । जो कुछ दोष थे, साफ-साफ कह दिए हैं । भविष्य में भी में ऐसा ही रहूँगा। पाप छुपना चाहता है, में उसे छुपने नहीं दूं गा । पाप सत्य से चुंधियाता है, अतः असत्य का अाश्रय लेता है, माया के अन्धकार में छुपता है । परन्तु मैं इस सम्बन्ध में बड़ा कठोर हूँ, निर्दय हूँ । न मैं पिछले पायों को छुपने दूंगा, ओर न भविष्य के पानी को । पार पाते हैं माया के द्वार से, मृपावाद के द्वार से । श्रार मैंने इन द्वारों को बंद कर दिया है । अब भविष्य में पाप पाएँ तो किधर से पाएँ ? पिछले पाप भी मायामृषा के प्राश्रय में ही रहते हैं । अस्तु ज्यों ही में भगवान् सत्य के आगे खड़ा होकर पापों की अालोचना करता हूँ, त्यों ही बस पापों में भगदड़ मचजाती है। क्या मजाल, जो एक भी खड़ा रह जाय !" यह है वह उदात्त भावना, जो मायामृपा-विवर्जित की पृष्ट भूमि में रही हुई है ।
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२५४
श्रमण सूत्र
सहयात्रियों को नमस्कार
प्रस्तुत प्रतिज्ञा सूत्र के प्रारंभ में मोक्षमार्ग के उपदेष्टा धर्म तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया था। उस नमस्कार में गुणों के प्रति बहुमान था, कृतज्ञता की अभिव्यक्ति थी, परिणामविशुद्धि का स्थिरीकरणत्व था, और था सम्यग्दर्शन की शुद्धि का भाव, नवोन अाध्यात्मिक स्फूर्ति एवं चेतना का भाव । अब प्रस्तुत नमस्कार में, उन सहयात्रियों को नमस्कार किया गया है, जो साधु और साध्वी के रूप में साधनापथ पर चल रहे हैं, सयम की नाराधना कर रहे हैं, एवं बन्धनमुक्ति के लिए प्रयत्नशील हैं । यह नमस्कार सुकृतानुमोदन-रूप है, साथियों के प्रति बहुमान का प्रदर्शन है । पूर्व नमस्कार साधक से सिद्ध पर पहुंचे हुओं को था, अतः वह सहज भाव से किया जा सकता है। परन्तु अपने जैसे ही साथी यात्रियों को नमस्कार करना सहज नहीं है । यहाँ अभिमान से मुक्ति प्राप्त हुए. विना नमस्कार नहीं हो सकता ।
जैन धर्म विनय का धर्म है, गुण पक्षपाती धर्म है। यहाँ और कुछ नहीं पूछा जाता, केवल गुण पूछा जाता है । सिद्ध हों अथवा साधक हो, कोई भी हो, गुणों के सामने झुक जायो, बहुमान करो यह है हमारा चिरन्तन आदर्श ! सयमक्षेत्र के सभी छोटे-बड़े साधक, फिर वे भले ही पुरुष हों-स्त्री हों, सब नमस्करणीय हैं. अादरणीय हैं,यह भाव है प्रस्तुत नमस्कार का । अपने महधर्मियों के प्रति कितना अधिक विनम्र रहना चाहिए, यह अाज के संप्रदायवादी साधुओं को सीखने जैसी चीज है ! आज की साधुता अपने संप्रदाय में है, अपनी बाड़ाबंदी में है । अतः साधुता को किया जाने वाला विराट नमस्कार भी संप्रदायवाद के क्षुद्र घेरे में अवरुद्ध हो जाता है। समस्त मानवक्षेत्र के साधकों को नमस्कार का विधान करने वाला विराट धम, इतना खुद हृदय भी बन सकता है ? आश्चर्य है !
जम्बू द्वीप, धातकी खण्ड और अर्ध पुष्कर द्वीप तथा लवण एवं कालोदधि समुद्र---यह अढाई द्वीपसमुद्र-परिमित मानव क्षेत्र है। श्रमण
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२५५
धर्म की साधना का यही क्षेत्र माना जाता है । अागे के क्षेत्रों में न मनुष्य हैं और न श्रमणधम की साधना है। अस्तु, अन्तिम दो गाथाओं में अधाई द्वीप के मानव क्षेत्र में जो भी साधु-साध्वी हैं, सबको मस्तक झुकाकर वन्दन किया गया है ।
प्रथम गाथा में रजोहरण, गोच्छक एवं प्रतिग्रह = पात्र अादि द्रव्य साधु के चिह्न बताए हैं। और यागे की गाथा में पाँच महाव्रत श्रादि भाव साधु के गुण कहे गए हैं । जो द्रव्य और भाव दोनों दृष्टियों से साधुता की मर्यादा से युक्त हों, वे सब वन्दनीय मुनि हैं । द्रव्य के बाद भाव का उल्लेख, भाव साधुता का महत्त्व बताने के लिए है । द्रव्य साधुता न हो और केवल भावसाधुता हो, तब भी वह वन्दनीय है; परन्तु भाव के बिना केवल द्रव्य-साधुता कथमपि वन्दनीय नहीं हो सकती । अठारह ह्नार शील अंगों की व्याख्या के लिए अवतरणिका उठाते हुए प्राचार्य हरिभद्र यही सूचना करते हैं कि-"एकाङ्ग विकलप्रत्येक बुद्धादिसंग्रहाय अष्टादशशील सहस्रधारिणः, तथाहि केचिद् मगवन्तो रजोहरणादिधारिणो न भवन्त्यपि ।" अट्ठारह हजार-शोल
'शील' का अर्थ 'याचार' है । भेदानुभेद की दृष्टि से याचार के अठारह हजार प्रकार होते हैं। क्षमा, निर्लोभता, सरलता, मृदुता, लाधव, सत्य, सयम, तप, त्याग और ब्रहाचर्य-~~यह दश प्रकार का श्रमण-धर्म है। दशविध श्रमण धर्म के धर्ता मुनि, पाँच स्थावर, चार त्रस और एक अजीव---इस प्रकार दश की विराधना नहीं करते ।
अस्तु, दशविध श्रमण धर्म को पृथ्वी काय आदि दश की अविराधना से गुणन करने पर १०० भेद हो जाते हैं। पांच इन्द्रियों के वश में पड़कर ही मानव पृथिवी काय आदि दश की विराधना करता है; अतः सौ को पाँच इन्द्रियों के विजय से गुणन करने पर ५०० भेद होते हैं । पुनः आहार, भय, मैथुन और परिग्रह-उक्त चार सज्ञानों के निरोध से पूर्वोक्त पांच सौ भेों को गुण न करने से दो हजार भेद होते हैं। दो हजार
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२५६
श्रमण-सूत्र
को ' मन, वचन और काय उक्त तीन दण्डों के निरोध से तीन गुणा करने पर छह हजार भेद होते हैं । पुनः छह हजार को करना, कराना
और अनुमोदन उक्त तीनों से गुणन होने पर कुल अठारह हजार शील के भेद होते हैं । प्राचार्य हरिभद्र इस सम्बन्ध में एक प्राचीन गाथा उद्धृत करते हैं
जो ए करणे सन्ना,
इंदिय भोमाइ समण धम्म य । सीलंग-सहस्साणं,
अड्ढार सगरस निष्फत्ती॥ शिरसा, मनसा, मस्तकेन
प्रस्तुत सूत्र में सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि' पाट याता है, इसका अर्थ है 'शिर से, मन से और मस्तक से वन्दना करता हूँ।' प्रश्न होता है कि शिर ओर मस्तक तो एक ही हैं, फिर यह पुनरुक्ति क्यों ? उत्तर में निवेदन है कि-शिर, समस्त शरीर में मुख्य है। अतः शिर से वन्दन करने का अभिप्राय है-शरीर से वन्दन करना । मन अन्तः करण है, अतः यह मानसिक वन्दना का द्योतक है। 'मत्थाएण' वंदामि का अर्थ है-'मस्तक झुकाकर वन्दना करता हूँ, यह वाचिक वन्दना का रूप है। अस्तु मानसिक वाचिक और कायिक त्रिविध वन्दना का स्वरूप निर्देश होने से पुनरुक्ति दोष नहीं है । __ प्रस्तुत पाठ के उक्त ग्रंश की अर्थात् 'तेसव्वे सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि' की व्याख्या करते हुए प्राचार्य जिनदास भी यही स्पष्टीकरण करते हैं-"ते इति साधवः, सव्वेत्ति गच्छनिग्गत गच्छवासी
१-श्राचार्य हरिभद्र कृत, कारितादि करण से पहले गुणन करते हैं, और मन वचन आदि योग से बाद में ।
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प्रतिज्ञा-सूत्र
૨૫૭ पत्तेय बुद्धादयो। सिरसा इति कायजोगेण, मत्थएा वंदामित्ति एस एव वइजोगो।" पाठान्तर
प्रस्तुत पाठ का अन्तिम अंश 'अड्ढाइजेसु' श्रादि को कुछ प्राचार्य गाथा के रूप में लिखते हैं और कुछ गद्यरूप में । कुछ जावन्त कहते हैं और कुछ जावन्ति । 'पडिग्गहं धारा' श्रादि में प्राचार्य जिनदास सर्वत्र 'धरा' का प्रयोग करते हैं और प्राचार्य हरिभद्र आदि 'धारा' का । प्राचार्य हरिभद्र 'अड्ढार सहस्स सीलंग धारा' लिखते हैं
और प्राचार्य जिनदास 'अट्ठारस सीलंग-संहस्सधरा ।' कुछ प्रतियों में रथवाचक रह शब्द बढ़ाकर 'ड्ढार सहस्स सीलंग रह धारा' भी लिखा मिलता है। प्राचार्य जिनदास ने आवश्यक-चूणि' में अपने समय के कुछ और भी पाठान्तरों का उल्लेख किया है-"केइ पुण समुद्दपदं गोच्छ पडिग्गहपदं च न पढंति, अण्णे पुण अड्ढाइज सु दोसु दीवसमुद्देसु पढंति, एत्थ विभासा कातव्वा । ।
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क्षामणा-सूत्र
आयरिय - उवज्झाए,
सीसे साहम्मिए. कुलगणे अ। जे मे केइ कसाया,
सव्वे तिविहण खाममि ॥
सव्यस्त समणसंघस्स,
भगवो अंजलि करिब सीसे। सव्यं खमावइत्ता,
खमामि सव्यस्स अहयं पि॥
खामेमि सव्वजीवे,
सव्वे जीवा खमंतु मे। मेत्ती मे सधभूएसु,'
वरं मझ न केणइ ॥ १ सव्व जीवेसु, इति जिनदास महत्तराः ।
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क्षामणा-सूत्र
२५६ शब्दार्थ ( १ )
सव्वं = सब अपराध को पायरिय = श्राचार्य पर
खमावइत्ता-क्षमा कराकर उवज्झाए = उपाध्याय पर अयपि = मैं भी सीसे-शिष्य पर
सव्वस्स = (उनके) सब अपराध को साहम्मिए = साधर्मिक पर खमामि = क्षमा करता हूँ। कुल-कुल पर गणे - गण पर
सव्व सब मे = मैंने
जीवे जीवों को जे-जो
खामेमि = क्षमा करता हूँ केह- कोई
सव्वे सब कसाया = कषाय किए हों
जीवा=जीव सव्वे-उन सबको तिविहेण = त्रिविध रूप से
खमतु-तमा करें खामेमि= खिमाता हूँ।
सव्वभूएसु-सब जीवों पर सीसे =शिर पर
मे-मेरी अंजलिं = अञ्जलि
मेत्ती= मित्रता है करिश्र करके
केणइकिसी के साथ भगवनो-पूज्य
मझ= मेरा सव्वस्स = सब
वेर-वैरभाव समण सघस्स =श्रमण संघ से न% नहीं है।
(अपने)
भावार्थ श्राचार्य, उपाध्याय. शिष्य, साधर्मिक कुल और गण, इनके ऊपर मैंने जो कुछ भी कषाय भाव किए हों, उन सब दुराचरणों की मैं मन, वचन और काय से क्षमा चाहता हूँ॥१॥
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२६०.
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श्रमण-सूत्र
अञ्जलिबद्ध दोनों हाथ जोड़कर समस्त पूज्य मुनिसंघ से मैं अपने सब अपराधों की क्षमा चाहता हूँ और मैं भी उनके प्रति क्षमाभाव करता हूँ || २ ||
मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ और वे सब जीव भी मुझे क्षमा करें । मेरी सब जीवों के साथ पूर्ण मैत्री = मित्रता है; किसी के साथ भी मेरा वैर-विरोध नहीं है ॥ ३ ॥
विवेचन
क्षमा, मनुष्य की सब से बड़ी शक्ति है । मनुष्य की मनुष्यता के पूर्ण दर्शन भगवती क्षमा में ही होते हैं । वह मनुष्य क्या, जो जरा-जरासी बात पर उचल पड़ता हो, लड़ाई-झगड़ा ठानता हो, वैर-विरोध करता हो ? उसमें और पशु में एक आकृति के सिवा और कौन-सा अन्तर रह जाता है ? वैर-विरोध की, क्रोध-द्वेष की वह भयंकर अग्नि है, जो अपने और दूसरों के सभी सद्गुणों को भस्म कर डालती है । क्षमाहीन मनुष्य का शरीर एड़ी से चोटी तक प्रचण्ड क्रोधाग्नि से जल उठता है, नेत्र आग्नेय बन जाते हैं, रक्त गर्म पानी की तरह खौलने लगता है ।
C
क्षमा का अर्थ है- - 'सहनशीलता रखना । किसी के किए अपराध को अन्तहृदय से भी भूल जाना, दूसरों के अनुचित व्यवहार की ओर कुछ भी लक्ष्य न देना; प्रत्युत अपराधी पर अनुराग और प्रेम का मधुर भाव रखना, क्षमा धर्म की उत्कृष्ट विशेषता है । क्षमा के विना. मानवता नप ही नहीं सकती ।
हिंसा मूर्ति क्षमावीर न स्वयं किसी का शत्रु है और न कोई उसका शत्रु है; न उससे किसी को भय है और न उसको किसी से भय है " यस्मान्नोद्विजते लोको लोकानोद्विजते च यः ।" वह जहाँ कहीं भी रहेगा, प्रेम और स्नेह की साक्षात् मूर्ति बन कर रहेगा । उसके मधुर हास्य में विलक्षण शक्ति का आभास मिलेगा । श्रीयुत शिवव्रतलाल वर्मन के. शब्दों में---" जैसे सूर्य मण्डल से चारों ओर शुभ्र ज्योति की वर्षा होती रहती
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क्षामणा-सूत्र
२६१
है, वैसे ही उससे, उसके स्वरूप से, उसकी छाया से और उसकी साँस -साँस से दशों दिशाओं में आनन्द, मंगल और सुख शान्ति की अमृत धाराएँ हर समय प्रवाहित होती रहती हैं एवं संसार को, स्वर्ग-सदृश बनाती रहती हैं ।"
जैन-धर्म, आज के धार्मिक जगत में क्षमा का सबसे बड़ा पक्षपाती है । जैन-धर्म को यदि क्षमा-धर्म कहा जाय तो यह सत्य का अधिक स्पीकर होगा | जैनों का प्रत्येक पर्व = उत्सव क्षमा धर्म से श्रोत प्रोत है । जैन धर्म का कहना है कि तुम अपने विरोधी के प्रति भी उदार, सहृदय, शान्त बनो । भूल हो जाना मनुष्य का प्रमाद-जन्य स्वभाव है; अतः किसी के अपराध को गाँठ बाँध कर हृदय में रखना, धार्मिक मनोवृत्ति, नहीं है । जैन धर्म की साधना में अहोरात्र में दो चार सायंकाल और प्रातः काल - प्रत्येक प्राणी से क्षमा माँगनी होती है । चाहे किसी ने तुम्हारा अपराध किया हो, अथवा तुमने किसी का अपराध किया हो; विशुद्ध हृदय से स्वयं क्षमा करो और दूसरों से क्षमा करा । न तुम्हारे हृदय में द्व ेष की ज्वाला रहे और न दूसरे के हृदय में, यह कितना सुन्दर स्नेह पूर्ण जीवन होगा !
क्षमा के विना कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती । उग्र से उग्र क्रिया काण्ड, दीर्घ से दीर्घ तपश्चरण, क्षमा के प्रभाव में केवल देहदण्ड ही होता है; उससे ग्रात्मकल्याण तनिक भी नहीं हो सकता । ईसामसीह ने भी एक बार कहा था - " तुम अपनी आहुति चढ़ाने देव मन्दिर में जाते हो और वहाँ द्वार पर पहुँच कर यदि तुम्हें याद ना जाय कि तुम्हारा श्रमुक पड़ौसी से मनमुटाव है तो तुम आहुति वहीं देवमन्दिर के द्वार पर छोड़ो और वापस जाकर अपने पड़ौसी से क्षमा माँगो । पड़ौसी से मैत्री करने के बाद ही देवता को भेंट चढ़ानी चाहिए ।" कितना ऊँचा एवं भव्य आदर्श है ? जब तक हृदय क्षमा-भाव से कोमल न हो जाय, तब तक उसमें धर्म कल्पतरु का मृदु अंकुर किस प्रकार अंकुरित हो सकता है ?
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श्रमण-सूत्र
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प्रतिक्रमण की समाप्ति पर प्रस्तुत दामणासूत्र पढ़ते समय जब साधक दोनों हाथ जोड़कर क्षमा याचना करने के लिए खड़ा होता है, तत्र कितना सुन्दर शान्ति का दृश्य होता है ? अपने चारों ओर अवस्थित संसार के समस्त छोटे-बड़े प्राणियों से गद्गद् होकर क्षमा माँगता हुद्या साधक, वस्तुतः मानवता की सर्वोत्कृष्ट भूमिका पर पहुँच जाता है । कितनी नम्रता है ? गुरुजनों से तो क्षमा माँगता ही है, किन्तु अपने से छोटे शिष्य आदि से भी क्षमायाचना करता है । उस समय उसके हृदय से छोटे-बड़े का भेद विलुप्त हो जाता है और अखिल विश्व मित्र के रूप में आँखों के सामने उपस्थित हो जाता है । इस प्रकार क्षमायाचना की साधना से अपराधों के संस्कार जाते रहते हैं, और मन पापों के भार से सहसा हलका हो जाता है | क्षमा से हमारे ग्रह भाव का नाश होता है और हृदय में उदार भावना का आध्यात्मिक पुत्र खिल उठता है । अपने हृदय को निर्वैर बना लेना ही क्षमापना का उद्देश्य है । हमारी क्षमा में विश्वमैत्री का आदर्श रहा हुआ है । और यह विश्व मैत्री हा जैन-धर्म का प्राण है ।
हृदय को किसी भी
किसी भी प्रकार की
हृदय में की ओर
से
करुणामूर्ति भगवान् महावीर, क्षमा पर अत्यधिक बल देते हैं । भगवान् की क्षमा का आदर्श है कि तुमने दूसरे के प्रकार की चोट पहुँचाई हो, दूसरे के कलुषता उत्पन्न की हो, अथवा दूसरे अपने हृदय में वैरविरोध एवं कलुपता के भाव पैदा किए हों, तो उक्त वैरविरोध तथा कलुबता को क्षमा के श्रादान प्रदान द्वारा तुरन्त धोकर साफ कर दो। वैरविरोध की कालिमा को जरा-सी देर के लिए भी हृदय में न रहने दो । बृहत्कल्पसूत्र में भगवान महावीर का श्रमण संघ के प्रति गंभीर एवं म सन्देश है कि - "यदि श्रमणसंघ में किसी से किसी प्रकार का कलह हो जाय तो जब तक परस्पर क्षमा न माँग लें तब तक आहार पानी लेने नहीं जा सकते, शौच नहीं जा सकते, स्वाध्याय भी नहीं कर सकते ।” क्षमा के लिए कितना कठोर अनुशासन है । आज के कलह-प्रिय साधु,
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क्षामरणा-सूत्र
२६३
जरा इस ओर लक्ष्य दें तो श्रमण-संघ का कितना अधिक अभ्युदय एवं
श्रात्म-कल्याण हो ।
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क्षमा प्रार्थना करते समय अपने आपको इस प्रकार उदात्त एवं
मधुर भावना में रखना चाहिए कि - हे विश्व के समस्त त्रस स्थावर जीवो ! हम तुम सब श्रात्म-दृष्टि से एक ही हैं, समान ही हैं । यह जो कुछ भी बाह्य विरोधता है, विषमता है, वह सब कर्म जन्य है, स्वरूपतः नहीं । बाह्य भेदों को लेकर क्यों हम परस्पर एक दूसरे के प्रति द्व ेष, घृणा, अपमान तथा वैर-विरोध करें | हम सब को तो सदा सर्वदा भ्रातृभाव एवं स्नेहभाव ही रखना चाहिए । अनादिकाल से परिभ्रमण करते हुए मैं तुम्हारे सौंसर्ग में अनन्त बार आया हूँ और उस सौंसर्ग में स्वार्थ से, क्रोध से, विचार से, अहंकार से, द्वष से, किसी भी प्रकार से किसी भी प्रकार की मानसिक, वाचिक तथा कायिक पीड़ा पहुँचाई हो तो उसके लिए अन्तःकरण से क्षमायाचना करता हूँ। मेरी हृदय से यही भावना है-
शिवमस्तु सर्व जगतः,
पर-हित-निरता भवन्तु भूतगणाः ।
दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवतु
लोकः ||
प्रश्न है कि 'सवे जीवा खमंतु' क्यों कहा जाता है ? सब जीव मुझे क्षमा करें, इसका क्या अभिप्राय है ? वे क्षमा करें या न करें, हमें इससे क्या ? हमें तो अपनी ओर से क्षमा माँग लेनी चाहिए ।
समाधान है कि प्रस्तुत पाठ में करुणा का अपार सागर तरंगित हो रहा है। कौन जी कहाँ है ? कौन क्षमा कर रहा है कौन नहीं ? कुछ पता नहीं । फिर भी अपने हृदय की करुणा भावना है कि मुझे सब जीव क्षमा करदे | क्षमा करदें तो उनकी आत्मा भी क्रोधनिमित्तक कर्मबन्ध से
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श्रमण-सूत्र
मुक्त हो जाय ! 'मा तेषामपि. अशान्तिप्रत्ययः कमबन्धो भवतु, इति करुणयेदमाह'-प्राचार्य हरिभद्र ।
प्राचार्य जिनदास और हरिभद्र ने क्षामणा-सूत्र में केवल एक ही 'खामेमि सव्वजीवे' की गाथा का उल्लेख किया है। परन्तु कुछ हस्तलिखित प्रतियों में प्रारम्भ की दो गाथाएँ अधिक मिलती हैं | गाथाएँ अतीव सुन्दर हैं, अतः हम उन्हें मूल पाठ के रूप में देने का लोभ सवरण नहीं कर सके।
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उपसंहार-सूत्र एवमहं आलोइस,
_निंदिय गरहिअ दुगुछिउ सम्म । तिविहण पडिक्कतो, वंदामि जिणे चउब्धीसं ॥
शब्दार्थ एवं इस प्रकार
तिविहेण = तीन प्रकार से अहं = मैं
पडिक्कतो=पाप कर्म से निवृत्त सम्म = अच्छी तरह बालोइअालोचना करके चउव्वीस = चौबीस निंदिय=निन्दा करके
जिणे = जिन देवों को गरहिअ = गर्दा करके
वंदामि= वन्दना करता हूँ दुगुछिउं= जुगुप्सा करके
भावार्थ इस प्रकार मैं सम्यक आलोचना, निन्दा, गर्हा और जुगुप्सा के द्वार। तीन प्रकार से अर्थात् मन, वचन और काय से प्रतिक्रमण कर = पापों से निवृत्त होकर चौबीस तीर्थंकर देवों को वन्दन करता हूँ।
होकर
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२६६
श्रमण सूत्र
विवेचन यह उपस हार-सूत्र है । प्रतिक्रमण के द्वारा जीवन-शुद्धि का माग प्रशस्त हो जाने से प्रात्मा प्राध्यात्मिक अभ्युदय के शिखर पर श्रारूढ़ हो जाता है । जब तक हम अपने जीवन का सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण नहीं करेंगे, अपनी भूलों के प्रति पाश्चात्ताप नहीं करेंगे, भविष्य के लिए सदाचार के प्रति अचल संकल्प नहीं करेंगे; तब तक हम मानव जीवन में कदापि आध्यात्मिक उत्थान नहीं कर सकेगे । हमारे पतन के बीज, भूलों के प्रति उपेक्षाभाव रखने में रहे हुए हैं।
भूलों के प्रति पश्चात्ताप का नाम जैन परिभाषा में प्रतिक्रमण है । यह प्रतिक्रमण मन, वचन और शरीर तीनों के द्वारा किया जाता है । मानव के पास तीन ही शक्तियाँ ऐसी हैं जो उसे बन्धन में डालती हैं और बन्धन से मुक्त भी करती हैं। मन, वचन और शरीर से बाँधे गए पार मन, वचन और शरीर के द्वारा ही क्षीण एवं नट भी होते हैं । राग-द्वेष से दूषित मन, वचन और शरीर बन्धन के लिए होते हैं, और ये ही वीतराग परिणति के द्वारा कर्म बन्धनों से सदा के लिए मुक्ति भी प्रदान करते हैं।
अालोचना का भाव अतीव गंभीर है। निशीथ चूर्णिकार जिनदास गणि कहते हैं कि- "जिस प्रकार अपनी भूलों को, अपनी बुराइयों को तुम स्वयं स्पष्टता के साथ जानते हो, उसी प्रकार सष्टतापूर्वक कुछ भी न छुगाते हुए गुरुदेव के समक्ष ज्यों-का त्यों प्रकट कर देना बालोचना है।" यह आलोचना करना, मानापमान की दुनिया में घूमने वाले साधारण मानव का काम नहीं है । जो साधक दृढ़ होगा, अात्मार्थी होगा, जीवन शुद्धि की ही चिन्ता रखता होगा, वही आलोचना के इस दुर्गम पथ पर अग्रसर हो सकता है ।
निन्दा का अर्थ है-प्रात्म साक्षी से अपने मन में अपने पापों की निन्दा करना । गर्दा का अर्थ है-घर की साक्षी से अपने पापों की बुराई करना । जुगु-सा का अर्थ है-~यापों के प्रति पूर्ण घृणा भाव व्यक्त करना ।
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उपस हार-सूत्र
२६७
जब तक पापाचार के प्रति घृणा न हो, तब तक मनुष्य उससे बच नहीं सकता । पापाचार के प्रति उत्कट घृणा रखना ही पापों से बचने का एक मात्र अस्खलित मार्ग है । अतः अालोचना, निन्दा, गर्हा और जुगुप्सा के द्वारा किया जाने वाला प्रतिक्रमण ही सच्चा प्रतिक्रमण है।
प्राचार्य जिनदास प्रस्तुत उपस हार सूत्र में एवं के बाद 'अहं' का उल्लेख नहीं करते । ओर अालोइय, निन्दिय आदि में क्त्वा प्रत्यय भी नहीं मानते, जिसका अर्थ 'करके' किया जाता है । जैसे आलोचना करके, निन्दा करके इत्यादि । प्राचार्य श्री इन सब पदों को निष्ठान्त मानते हैं, फलतः उनके उल्लेखानुसार अर्थ होता है-मैंने आलोचना की है, निन्दा की है, गर्दा की है इत्यादि । दुगुछा का अर्थ भी स्वतंत्र नहीं करते । अपितु बालोचना, निन्दा और गर्दा को ही दुगुछा कहते हैं । देखिए अावश्यक चूर्णि प्रतिक्रमणाधिकार :___"एवमित्ति अनेन प्रकारेण पालोइयं पयासितूणं गुरूणं कहितं, निन्दियं मणेण पच्छातावो । गरहितं वइजोगेण । एवं आलोइयनिंदियगरहियमेव दुगुछितं । एवं तिवहेण जोगेण पडिक्यतो वंदामि चउव्वीसं ति ।"
अन में चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार मंगलार्थक है । प्रतिक्रमण के द्वारा शुद हुअा साधक अन्त में अपने को तीर्थंकरों की शरण में अर्पण करता है और अनर्जला के रूम में मानो कहता है कि-"भगवन् ! मैंने आपकी आज्ञानुसार प्रतिक्रमण कर लिया है । आपकी सादी से विना कुछ छुपाए पूर्ण निष्कपट भाव से पालोचना, निन्दा, गर्दा कर के शुद्ध हो गया हूँ । अब मैं आपके पवित्र चरणों में वन्दन करने का अधिकारी हूँ। श्राप अन्तर्यामी हैं । घट-घट की जानते हैं । आपसे मेरा कुछ छुपा हुया नहीं है । अब मैं अापकी देख-रेख में भविष्य के लिए पवित्र सयम पथ पर चलने का दृढ़ प्रयत्न करूंगा।'
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A
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परिशिष्ट
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र इच्छामि खमासमणो ! वंदिउ, जावणिज्जाए निसीहियाए । अणुजाणह मे मिउग्गहं । निसीहि, अहोकायं काय-संफासं । खमणिज्जो भे किलामो। अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कतो ? जत्ता भे? जवणिज्जं च भे? खामेमि खमासमणो ! देवसियं वइक्कम । आवस्सिार पडिक्कमामिखमासमणाणं देवसियाए आसायणार तित्तीसन्नयराए, जं किंचि मिच्छाए, मणदुक्कडाए, वयदुक्कडाए, कायदुक्कडाए,
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२७१ कोहाए, माणाए, मायाए, लोभाए, सव्वकालियाए, सव्वमिच्छोक्याराए, सव्वधम्माइक्कमणाए, अासायणाएजो मे अइयारो करो, तस्स खमासमणो ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि !
शब्दार्थ [वन्दना की आज्ञा ] अहोकायं = (आपके) चरणों का खमासमणो= हे क्षमाश्रमण ! । कायसं फास = अपनी काय से जावणिजाए = यथा शक्रियुक्त
मस्तक से या हाथ निसीहियाए = पाप क्रिया से निवृत्त
से स्पर्श करता हूँ] हुए शरीर से भे= मेरे छूने से) श्रापको वंदिउं= (श्रापको) वन्दना करना किलामो= जो बाधा हुई, वह इच्छामि = चाहता हूँ
खमणिजो-चन्तव्य-क्षमा के योग्य है [अवग्रह प्रवेश की आज्ञा ] [कायिक कुशल की पृच्छा ] मे- (अतः) मुझको
अप्पकिलंताणं = अल्प ग्लान वाले मिउग्गह = परिमित अवग्रह की, भे-आपश्री का
अर्थात् अवग्रह में कुछ बहुसुभेण = बहुत श्रानन्द से
सीमा तक प्रवेश करने की दिवसो = श्राज का दिन अणुजाणह = आज्ञा दीजिए वइक्कतो = बीता? [गुरु की ओर से आज्ञा होने पर [सयमयात्रा की पृच्छा ] गुरु के समीप बैठकर
भे= श्रापकी निसीहि = अशुभ क्रिया को रोककर जत्ता = संयमयात्रा (निर्बाध है ?)
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२७२
श्रमण-सूत्र
[यापनीय की पृच्छा ] मण दुक्कडाए = दुष्ट मन से की हुई च = और
वयदुक्कडाए - दुष्ट वचन से की हुई भे= श्रापका शरीर
कायदुक्कडाए = शरीर की दुश्चेष्टाओं जवणिज्ज =मन तथा इन्द्रियों
से की हुई की पीड़ा से रहित है? कोहाए = क्रोध से की हुई [ गुरु की ओर से एवं कहने पर माणाए =मान से की हुई स्वापराधों की क्षमायाचना] मायाए =माया से की हुई खमासमणो = हे क्षमाश्रमण ! लोभाए = लोभ से की हुई देवसियं=( मैं ) दिवस सम्बन्धी सव्यकालियाए = सब काल में की वइक्कम = अपने अपराध को खामेमि = खिमाता हूँ
सव्वमिच्छोक्याराए-सब प्रकार के आवस्सियाए. = चरण-करण रूप
मिथ्या भावोंसे पूर्ण आवश्यक क्रिया सव्वधम्माइक्कमणाए = सब धर्मों करने में जो भी विप. क्लो उल्लंघन करने वाली रीत अनुष्ठान हुआ पासायणाए = पाशातना से
हो उससे जे-जो भी पडिकमामि = निवृत्त होता हूँ मे= मैंने
[विशेष स्पष्टीकरण] अइयारो= अतिचार खमासमाणा- श्राप क्षमा श्रमण कयो= किया हो
तस्स = उसका देवसियाए = दिवस सम्बन्धिनी पडिकमामि= प्रतिक्रमण करता हूँ तित्तीसन्नयराए-तेतीस में से किसी निन्दामि = उसकी निन्दा करता हूँ भी
गरिहामि= विशेष निन्दा करता हूँ आसायणाए - अाशातना के द्वारा अप्पाणं-बाशातनाकारी अतीत [अाशातना के प्रकार ]
श्रात्मा का जं किंचि = जिस किसी भी वोसिरामि= पूर्ण रूप से परित्याग मिच्छाए = मिथ्या भाव से की हुई
करता हूँ
ci
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शरीरमाश्रमण सब इच्छा कि
द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
भावार्थ
[२. इच्छा निवेदन स्थान] हे क्षमाश्रमण गुरुदेव ! मैं पाप प्रवृत्ति से अलग हटाए हुए अपने शरीर के द्वारा यथाशक्ति आपको वन्दन करना चाहता हूँ।
[२. अनुज्ञापना स्थान ] अतएव मुझको अवग्रह में = आपके चारों ओर के शरीर-प्रमाण क्षेत्र में कुछ परिमित सीमा तक प्रवेश करने की आज्ञा दीजिए।
मैं अशुभ व्यापारों को हटाकर अपने मस्तक तथा हाथ से आपके चरण कमलों का सम्यग रूप से स्पर्श करता हूँ।
चरण स्पर्श करते समय मेरे द्वारा प्रापको जो कुछ भी बाधा = पीड़ा हुई हो, उसके लिए क्षमा कोजिए।
[३. शरीरयात्रा पृच्छा स्थान] क्या ग्लानि रहित श्रापका आज का दिन बहुत मानन्द से व्यतीत हुआ ?
[४. संयमयात्रा पृच्छर स्थान] ... क्या आपकी तप एवं संयम रूप यात्रा निर्बाध है ?
[५. संयम मार्ग में यापनीयता=मन,वचन, काय के सामर्थ्य की पृच्छा का स्थान]
क्या आपका शरीर मन तथा इन्द्रियों की बाधा से रहित सकुशल एवं स्वस्थ है ?
[६. अपराध-क्षमापना स्थान] हे क्षमाश्रमण गुरुदेव ! मुझसे दिन में जो ठअतिक्रम-अपराध हुआ हो, उसके लिए क्षमा करने की कृपा करें ।
भगवन् ! आवश्यक क्रिया करते समय मुझसे जो भो विपरीत आचरण हुश्रा हो, उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।
हे क्षमाश्रमण गुरुदेव ! जिस किसी भी मिथ्याभाव से, द्वष से,
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श्रमण-सूत्र
दुर्भाषण से, शरीर की दुष्ट चेष्टाओं से, क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, सार्वकालिकी =सर्वकाल से सम्बन्धित, सब प्रकार के मिथ्या अर्थात् मायिक व्यवहारों वाली, सब प्रकार के धमों को अतिक्रमण करनेवाली तेतीस आशातनाओं में से दिवस-सम्बन्धी किसी भी अाशातना के द्वारा मैंने जो भी अतिचार = दोष किया हो; उसका प्रतिक्रमण करता हूँ, मन से उसकी निन्दा करता हूँ, आपके समक्ष वचन से उसकी गर्दा करता हूँ; और पाप कर्म करने वाली बहिरात्मभावरूप अतीत श्रात्मा का परित्याग करता हूँ, अर्थात् इस प्रकार के पाप-व्यापारों से प्रात्मा को अलग हटाता हूँ।
- विवेचन श्रावश्यक क्रिया में तीसरे वन्दन आवश्यक का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हितोपदेशी गुरुदेव को विनम्र हृदय से अभिवन्दन करना और उनकी दिन तथा रात्रि सम्बन्धी सुखशान्ति पूछना, शिष्य का परम कर्तव्य है । भारतीय संस्कृति में, विशेषतः जैन सस्कृति में अध्यात्मवाद की महती महिमा है; और आध्यात्मिकता के जीवित चित्र गुरुदेव की महिमा के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या ? अन्धकार में भटकते हुए, ठोकरें खाते हुए मनुष्य के लिए दीपक की जो स्थिति है, ठीक वही स्थिति अज्ञानान्धकार में भटकते हुए शिष्य के प्रति गुरुदेव की है । अतएक जैन संस्कृति में कृतज्ञता प्रदर्शन के नाते पद-पद पर गुरुदेव को वन्दन करने की परंपरा प्रचलित है । अरिहन्तों के नीचे गुरुदेव ही प्राध्यात्मिकसाम्राज्य के अधिपति हैं । उनको वन्दन करना भगवान् को वन्दन करना है । अस्तु, इस महिमाशाली गुरुवन्दन के उद्देश्य को एवं इसकी सुन्दर पद्धति को प्रस्तुत पाठ में बड़े ही मामि क ढंग से प्रदर्शित किया गया है।
अाज का मानय धर्म-परंपराओं से शून्य होता जा रहा है, चारों अोर स्वच्छन्दता की प्रवृत्ति बढ़ रही है, विनय और नम्रता के स्थान में अहंकार जागृत हो रहा है। आज वह पुरानी अादर्श पद्धति कहाँ है कि गुरुदेव के आते ही खड़ा हो जाना, सामने जाना, ग्रासन अर्पण करना
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२७५ और कुशल क्षेम पूछना । गुरुदेव की प्राज्ञा में रहकर अपने जीवन का निर्माण करना, आज के युग में बड़ा कष्टप्रद प्रतीत होता है । वन्दन करते हुए अाज के शिष्य की गर्दन में पीड़ा होती है । वह नहीं जानता कि भारतीय शिष्य का जीवन ही वन्दनमय है । गुरु चरणों का स्पर्श मस्तक पर लगाने से ही भारतीय शिष्यों को ज्ञान की विभूति मिली है। गुरुदेव के प्रति बिनय, भक्ति ही हमारी कल्याण-परंपरायों का मूल स्रोत है । श्राचार्य उमास्वाति की वाणी सुनिए, वह क्या कहते हैं :
विनयफलं शुश्रूषा, गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् ; ज्ञानस्य फलं विरति विरतिफलं चाश्रयनिरोधः । संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जराफलं दृष्टम् ; तस्मात् क्रियानिवृत्तिः, क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् । योगनिरोधाद् भवसंततिक्षयः संततिक्षयान्मोक्षः ; तस्मात्कल्याणानां, सवषां भाजनं विनयः।
--'गुरुदेव के प्रति विनय का भाव रखने से सेवाभाव की जागृति होती है, गुरुदेव की सेवा से शास्त्रों के गम्भीर ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान का फल पानाचार से निवृत्ति है, और पापाचार की निवृत्ति का फल ग्राश्रवनिरोध है ।'
-'याश्रवनिरोध - सवर का फल तपश्चरण है, तपश्चरण से कममल की निर्जरा होती है; निर्जरा के द्वारा क्रिया की निवृत्ति और क्रियानिवृित्त से मन वचन तथा काययोग पर विजय प्राप्त होती है।"
-'मन, वचन और शरीर पर विजय पा लेने से जन्ममरण की लम्बी परंपरा का क्षय होता है, जन्ममरण की परम्परा के क्षय से आत्मा को मोक्षपद की प्राप्ति होती है। यह कार्यकारणभाव की निश्चित शृंखला हमें सूचित करती है कि समग्र कल्याणों का एकमात्र मूल कारण विनय है ।
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२७६
श्रमण सूत्र
प्राचीन भारत में प्रस्तुत विनय के सिद्धान्त पर अत्यधिक बल दिया गया है । आपके समक्ष गुरुवन्दन का पाठ है, देखिए, कितना भावुकतापूर्ण है ? "विणयो जिणसासणमूलं' की भावना का कितना सुन्दर प्रतिबिम्ब है ? शिष्य के मुख से एक-एक शब्द प्रेम और श्रद्धा के अमृतरस में डूबा निकल रहा है !
वन्दना करने के लिए पास में आने की भी क्षमा माँगना, चरण छूने से पहले अपने सम्बन्ध में 'निसीहियाए' पद के द्वारा सदाचार सं पवित्र रहने का गुरुदेव को विश्वास दिलाना, चरण छूने तक के कष्ट की भी क्षमा याचना करना, सार्यकाल में दिन सम्बन्धी ओर प्रातःकाल में रात्रि सम्बन्धी कुशलक्षेम पूछना, संयम यात्रा की अस्खलना भी पूछना, अपने से आवश्यक क्रिया करते हुए जो कुछ भी अाशातना हुई हो तदर्थ क्षमा माँगना, पापाचारमय पूर्वजीवन का परित्याग कर भविष्य में नये सिरे से संयम जीवन के ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करना, कितना भावभरा एवं हृदय के अन्तरतम भाग को छूने वाला बन्दना का क्रम है ! स्थान-स्थान पर गुरुदेव के लिए 'चमाश्रमण' सम्बोधन का प्रयोग, क्षमा के लिए, शिष्य की कितनी अधिक आतुरता प्रकट करता है; तथाच गुरुदेव को किस ऊँचे दर्जे का क्षमामूर्ति सत प्रमाणित करता है।
- अब आइए, मूल-सूत्र के कुछ विशेष शब्दों पर विचार करले। यद्यपि शब्दार्थ और भावार्थ में काफी स्पष्टीकरण हो चुका है, फिर भी गहराई में उतरे विना पूर्ण स्पष्टता नहीं हो सकती। इच्छामि
जैनधर्म इच्छापघान धम है। यहाँ किसी आतंक या दवाव से कोई काम करना और मन में स्वयं किसी प्रकार का उल्लास न रखना, 'अभिमत श्रथच अभिहित नहीं है । विना प्रसन्न मनोभावना के की जाने 'वाली धम क्रिया, कितनी ही क्यों न महनीय हो, अन्ततः वह मृत है, निष्प्राण है। इस प्रकार भय के भार से लदी हुई मृत धम क्रियाएँ
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द्वादशावत गुरुवन्दन-सूत्र
२७७ तो साधक के जीवन को कुचल देती हैं, हीन बना देती हैं। विकासोन्मुख धर्म साधना स्वतन्त्र इच्छा चाहती है, मन की स्वयं कार्य के प्रति होने चाली अभिरुचि चाहती है । यही कारण है कि जैन धर्म की साधना में सर्वत्र 'इच्छामि पडिकामामि, इच्छामि खमासमयो' अगदि के रूप में सर्वप्रथम 'इच्छामि' का प्रयोग होता है । 'इच्छामि' का अर्थ है. मैं स्वयं चाहता हूँ, अर्थात् यह मेरी स्वयं अपने हृदय की स्वतन्त्र भावना है। ___ 'इच्छामि' का एक और भी अभिप्राय है । शिष्य गुरुदेव के चरणों में विनम्र भाव से प्रार्थना करता है कि 'भगवन् ! मैं आपको वन्दन करने की इच्छा रखता हूँ । अतः श्राप उचित समझे तो आज्ञा दीजिए। श्रापकी याज्ञा का आशीर्वाद पाकर मैं धन्य धन्य हो जाऊँगा।'
ऊपर की वाक्यावली में शिष्य वन्दन के लिए केवल अपनी अोर से इच्छा निवेदन करता है, सदाग्रह करता है, दुराग्रह नहीं । नमस्कार भी नमस्करमीय की इच्छा के अनुसार होना चाहिए, यह है जैन संस्कृति के शिष्टाचार का अन्तहृदय | यहाँ नमस्कार में भी इच्छा मुख्य हैं, उद्दण्डतापूर्ण बलाभियोग एवं दुराग्रह नहीं । श्राचार्य जिनदास कहते हैं---'एस्थ वंदितुमित्यावेदनेन अप्पच्छंदता परिहरिताः ।' क्षमाश्रमण
'श्रमु' धातु तप और खेद अर्थ में व्यवहृत होती हैं । अतः जो तपश्चरण करता है, एवं संसार से सर्वथा निर्विण्ण रहता है, वह श्रमण कहलाता है। क्षमाप्रधान श्रमण क्षमाश्रमण होता है । क्षमाश्रमण में क्षमा से 'मार्दव आदि दशविधः श्रमण धर्म का ग्रहण हो जाता है । अस्तु, जो श्रमण क्षमा, मार्दच आदि महान् आत्मगुणों से सम्पन्न हैं, अपने धर्म-पथ पर दृढ़ता के साथ अग्रसर हैं, वे ही वन्दनीय हैं। यह क्षमाश्रमण शब्द, किसको बन्दन करना चाहिए-इस पर बहुत सुन्दर प्रकाश डालता है।
, 'खमागहणे य मद्दवादयो सूइता'- प्राचार्य जिनदास ।
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श्रमण-सूत्र
__शिष्य, गुरुदेव को वन्दन करने एवं अपने अपराधों की क्षमा याचना करने के लिए पाता है, अतः क्षमाश्रमण सम्बोधन के द्वारा प्रथम ही क्षमादान प्राप्त करने की भावना अभिव्यक्त करता है। प्राशय यह है कि 'हे गुरुदेव ! श्राप क्षमाश्रमण हैं, क्षमामूर्ति हैं । अस्तु, मुझ पर कृयाभाव रखिए । मुझसे जो भी भूले हुई हो, उन सब के लिए, क्षमा प्रदान कीजिए।'
यापनीया _ 'या' प्रापणे धातु से ण्यन्त में कर्तरि अनीयच प्रत्यय होने से यापनीया शब्द बनता है। प्राचार्य हरिभद्र कहते हैं-'यापयतीति यापनी या तया ।' यापनीया का भावार्थ हरिभद्रजी यथाशक्तियुक्त तनु अर्थात् शरीर करते हैं। प्राचार्य जिनदास भी कार्यसमर्थ शरीर को यापनीय
कार्यसमर्थ शरीर को यापनीय कहते हैं और असमर्थ शरीर को अयापनीय | 'यावणीया नाम जा केणति पयोगेण कजसमत्था, जा पुण पयोगेण वि न समत्था सा अजावेणीया। .
'यापनीय' कहने का अभिप्राय यह है कि 'मैं अपने पवित्र भाव से वन्दन करता हूँ। मेरा शरीर वन्दन करने की सामर्थ्य रखता है, अतः किसी दबाव से लाचार होकर गिरी पड़ी हालत में वन्दन करने नहीं अाया हूँ, अपितु वन्दना की भावना से उत्फुल्ल एवं रोमाञ्चित हुए सशक्त शरीर से वन्दना के लिए तैयार हुआ हूँ।'
सशक्त एवं समर्थ शरीर ही विधिपूर्वक धर्म क्रिया का अाराधन कर सकता है ! दुर्बल शरीर प्रथम तो धमक्रिया कर नहीं सकता। और यदि किसी के भय से या स्वयं हठाग्रह से करता भी है तो वह अविधि से करता है, जो लाभ की अपेक्षा हानिप्रद अधिक है। धर्म साधना का रंग स्वस्थ एवं सबल शरीर होने पर ही जमता है । यापनीय शब्द की यही ध्वनि है, यदि कोई सुन और समझ सके तो ? 'जावणिजाए निसीहिदाए त्ति अणेण शक्रत्व विधी य दरिसिता ।-प्राचार्य जिनदास ।
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन सूत्र
२७६ नषेधिकी।
. मूल शब्द 'निसीहिया' है । इसका संस्कृत रूप 'नषेधिकी' होता है। प्राणातिपातादि पापों से निवृत्त हुए शरीर को नैघोधिकी कहते हैं । देखिए, अाचार्य हरिभद्र क्या कहते हैं ? 'निषेधनं निषेधः, निषेधेन निवृत्ता नषेधिकी, प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाद् वा नैवेषिकेत्युच्यते । .."नषेधिक्या-प्राणातिपातादिनिवृत्तया तन्वा शरीरेणेत्यर्थः ।' __ प्राचार्य जिनदास नैपोधिकी के शरीर, वसति = स्थान और स्थण्डिल भूमि-इस प्रकार तीन अर्थ करते हैं । मूलतः नैषधिकी शब्द अालय = स्थान का वाचक है। शरीर भी जीव का ग्रालय है, अतः वह भी नैघोधिको कहलाता है। इतना ही नहीं, निषिद्ध आचरण से निवृत्त शरीर की क्रिया भी नैपधिकी कहलाती है।
जैन धर्म की पवित्रता स्नान आदि में नहीं है । वह है पापाचार से निवृत्ति में, हिंसादि से विरति में । अतः शिष्य गुरुदेव से कहता है कि "भगवन् ! मैं अपवित्र नहीं हूँ, जो श्रापको वन्दन न कर सकूँ। मैंने हिंसा, असत्य ग्रादि पापों का त्याग किया हुआ है, अहिंसा एवं सत्य
१ निषेध का अर्थ त्याग है। मानव शरीर त्याग के लिए ही है, यह जैन धर्म का अन्तहृदय है और इसीलिए वह शरीर को भी नैधिकी कहता है। नैपोधिकी का अर्थ है जीवहिंसादि पापाचरणों का निषेध अर्थात् निवृत्ति करना ही प्रयोजन है जिसका वह शरीर । - नैपोधिकी का जो धापनीया विशेषण है, उसका अर्थ है जिससे कालक्षेप किया जाय, समय बिताया जाय, वह शारीरिक शक्ति यापनीया कहलाती है।
दोनों का मिल कर अर्थ होता है कि "मैं अपनी शक्ति से सहित त्याग प्रधान नैषधिकी शरीर से वन्दन करना चाहता हूँ !"
नैषधिकी और यापनीया का कुछ प्राचार्यों द्वारा किया जाने वाला यह विश्लेषण भी ध्यान में रखना चाहिए । .
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२८०
श्रमण सूत्र का भली भाँति आचरण किया है; अतः विश्वास रखिए, मैं पवित्र हूँ, और पवित्र होने के नाते अापके पवित्र चरण कमलों को स्पर्श करने का अधिकारी हूँ।"
-"निसीहि नाम सरीरगं वसही थंडिलं च भएणति । जतो निसीहिता नाम श्रालयो वसही थंडिलं च । सरीरं जीवस्स प्रालयोत्ति। तथा पडिसिद्धनिसेवणनियत्तस्स किरिया निसीहिया ताए । ....."विसक्रया तन्वा, कहं ? विपडिसिद्धनिसेहकिरियाए य, अप्परोंगे मम सरीरं, पडिसिद्धपावकम्मो य होतो तुमं वंदितु इच्छामित्ति यावत् ।"
-प्राचार्य जिनदास कृत अावश्यक चूणि अवग्रह
जहाँ गुरुदेव विराजमान होते हैं, वहाँ गुरुदेव के चारों ओर चारों दिशाओं में आत्म-प्रमाण अर्थात् 'शरीर-प्रमाण साढ़े तीन हाथ का क्षेत्रावग्रह होता है । इस अवग्रह में गुरुदेव की प्राज्ञा लिए विना प्रवेश करना निषिद्ध है । गुरुदेव की गौरव-मर्यादा के लिए शिष्य को गुरुदेव से साढ़े तीन हाथ दूर अवग्रह से बाहर खड़ा रहना चाहिए । यदि कभी वन्दना एवं वाचना श्रादि आवश्यक कार्य के लिए गुरुदेव के समीप तक जाना हो तो प्रथम अाज्ञा लेकर पुनः अवग्रह में प्रवेश करना चाहिए।
अवग्रह की व्याख्या करते हुए श्राचार्य हरिभद्र आवश्यक वृत्ति में . लिखते हैं-'चतुर्दिशमिहाचार्यस्य प्रात्म-प्रमाणं क्षेत्रमवग्रहः । तमनुज्ञां विहाय प्रवेष्टुं न कल्पते ।। __ प्रवचनसारोद्धार के वन्दनक द्वार में प्राचार्य नेमिचन्द्र भी यही कहते हैं :
१ साढ़े तीन हाथ परिमाण अवग्रह इसलिए है कि गुरुदेव अपनी इच्छानुसार उठ-बैठ सके, स्वाध्याय ध्यान कर सके, आवश्यकता हो तो शयन भी कर सके।
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२८१ आय-प्पमाणमित्तो,
चउदिसि होइ उग्गहो गुरुणो । अणणुन्नीयस्स संया,
न कप्पए तत्थ पविसे ॥१२६।। प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति में अवग्रह के छः भेद कहे गए हैं :नामावग्रह = नाम का ग्रहण, स्थापनावग्रह = स्थापना के रूपमें किसी वस्तु का अवग्रह कर लेना, द्रव्यावग्रह = वस्त्र पात्र आदि किसी वस्तु विशेष का ग्रहण, क्षेत्रावग्रह = अपने आस-पास के क्षेत्र विशेष एवं स्थान का ग्रहण, कालावग्रह - वर्षा काल में चार मास का अवग्रह और शेष काल में एक मास आदि का, भावावग्रह = ज्ञानादि प्रशस्त और क्रोधादि अप्रशस्त भाव का ग्रहण | .
वृत्तिकार ने वंदन प्रसंग में आये अवग्रह के लिये क्षेत्रावग्रह और प्रशस्त भावावग्रह माना है।
भगवती सूत्र आदि श्रागमों में देवेन्द्रावग्रह, राजावग्रह, गृहपतिअवग्रह, सागारी (शय्यादाता) का अवग्रह, और साधर्मिक का अवग्रहइस प्रकार जो श्राज्ञा ग्रहण करने रूप पाँच अवग्रह कहे गए हैं, वे प्रस्तुत प्रसंग में ग्राह्य नहीं हैं । अंहोकायं काय-संफासं ___'होकाय' का सस्कृत रूपान्तर अधःकाय है, जिसका अर्थ 'चरण' होता है । अधःकाय का मूलार्थ है काय अर्थात् शरीर का सबसे नीचे का भाग । शरीर का सबसे नीचे का भाग चरण' ही है, अतः अधाकाय का भावार्थ चरण होता है। 'अधकायः पादलक्षणस्तमधः कार्य प्रति ।'
प्राचार्य हरिभद्र । 'काय संफॉस' का संस्कृत रूपान्तर कायसंस्पर्श होता है । - इसका अर्थ है 'काय से सम्यक्त्या स्पर्श करना ।' यहाँ काय से
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२८२ .
श्रमण-सूत्र क्या अभिप्राय है ? यह विचारणीय है ! प्राचार्य जिनदास काय से हाथ ग्रहण करते हैं । 'अप्पणो काएण हत्थेहि फुसिस्सामि ।' प्राचार्य श्री का अभिप्राय यह है कि आवर्तन करते समय शिष्य अपने हाथ से गुरु के चरणकमलों को स्पर्श करता है, अतः यहाँ काय से हाथ ही अभीष्ट है। कुछ प्राचार्य काय से मस्तक लेते हैं । वंदन करते समय शिष्य गुरुदेव के चरणकमलों में अपना मस्तक लगाकर वंदना करता है, अतः उनकी दृष्टि में काय संस्पर्श से मस्तकसस्पर्श ग्राह्य है। प्राचार्य हरिभद्र काय का अर्थ सामान्यतः निज देह ही करते हैं-'कायेन निजदेहेन संस्पर्शः कायसंस्पर्शस्तं करोमि ।'
परन्तु शरीर से स्पर्श करने का क्या अभिप्राय हो सकता है ? यह विचारणीय है । सम्पूर्ण शरीर से तो स्पर्श हो नहीं सकता, वह होगा मात्र हस्त-द्वारेण या मस्तक द्वारेण । अतः प्रश्न है कि सूत्रकार ने विशेषोल्लेख के रूप में हाथ या मस्तक न कह कर सामान्यतः शरीर ही क्यों कहा ? जहाँ तक विचार की गति है, इसका यह समाधान है कि शिष्य गुरुदेव के चरणों में अपना सर्वस्व अर्पण करना चाहता है, सर्वस्व के रूप में शरीर के कण-कण से चरणकमलों का स्पर्श करके धन्य-धन्य होना चाहता है। प्रत्यक्ष में हाथ या मस्तक का स्पर्श भले हो, परन्तु उसके पीछे शरीर के कण कण से स्पर्श करने की भावना है। अतः सामान्यतः काय-सस्पर्श कहने में श्रद्धा के विराट रूा को अभिव्यक्ति रही हुई है ! जब शिष्य गुरुदेव के चरणकमलों में मस्तक झुकाता है, तो उसका अर्थ होता है गुरु चरणों में अपने मस्तक की भेंट अर्पण करना । शरीर में मस्तक ही तो मुख्य है । अतः जब मस्तक अर्पण कर दिया गया तो उसका अर्थ है अपना समस्त शरीर ही गुरुदेव के चरणकमलों में अर्पण कर देना । समस्त शरीर को गुरुदेव के चरणकमलों में अर्पण करने का भाव यह है कि अब मैं अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ आपकी प्राज्ञा में चलूँगा, अापके चरणों का अनुसरण करूँगा । शिष्य का अपना कुछ नहीं है। जो कुछ भी है, सब गुरुदेव
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२२३ का है। अतः काय के उपलक्षण से मन और वचन का अर्पण भी समझ लेना चाहिए। अल्पक्लान्त
प्रस्तुत सूत्र में 'अप्पकिलंता बहुसुभेण....' अंशगत जो अल्पक्लान्त शब्द है । आचार्य हरिभद्र और नमि ने इसका अर्थ 'अल्पं - स्तोक क्लान्तं = क्रमो येषां ते अल्प क्लान्ताः' कहकर 'अल्प पीड़ा वाला' किया है। वर्तमान कालीन कुछ विद्वान् भी इसी पथ के अनुयायी हैं । परन्तु मुझे यह अर्थ ठीक नहीं अँचता। यहाँ अल्प पीड़ा का, थोड़ी-सी तकलीफ का क्या भाव है ? क्या गुरुदेव को थोड़ी-सी पीड़ा का रहना श्रावश्यक है ? नहीं, यह अर्थ उचित नहीं मालूम होता। अल्म शब्द स्तोक वाचक ही नहीं, अभाव वाचक भी है। उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम विनयाध्ययन में एक गाथा आती है.--'अप्पपाणऽप्पबीयम्मि'.... ६५ । इसका अर्थ है-अल्पप्राण और अल्पबीज वाले स्थान में साधु को भोजन करना चाहिए। क्या आप यहाँ भी अल्प-प्राण और अल्पबीज का अर्थ थोड़े प्राणी और थोड़े बीज वाले स्थान में भोजन करना ही करेंगे ? तब तो अर्थ का अनर्थ ही होगा ? अतः यहाँ अल्म का अभाव अर्थ मान कर यह अर्थ किया जाता है कि साधु को प्राणी और बीजों से रहित स्थान में भोजन करना चाहिए । तभी वास्तविक अर्थ-संगति हो सकती है, अन्यथा नहीं। अस्तु, प्रस्तुत पाठ में भी अप्पकिलंता' का 'ग्लानि रहित'-'बाधारहित' अर्थ ही सगत प्रतीत होता है । बहुशुभेन
मूल में 'अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कतो' पाठ है । इसका अर्थ है-'भगवन् ! आपका यह दिन विघ्न-बाधाओं से रहित प्रभूत सुख में अर्थात् अत्यन्त अानन्द में व्यतीत हुया ?' यह सर्व प्रथम शरीर सम्बन्धी कुशल प्रश्न है ? जैन धर्म के सम्बन्ध में यह व्यर्थ ही
१ 'अल्प इति अभावे, स्तोके च'-अावश्यक चूणि ।
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२८४
श्रमण-सूत्र
भ्रान्त धारणा है कि वह कठोर संयम-धर्म का अनुयायी है, अतः शरीर के प्रति लापरवाह होकर शीघ्र ही मृत्यु का आह्वान करता है। यह ठीक है कि वह उग्र सयम का आग्रही है। परन्तु सौंयम के अाग्रह में वह शरीर के प्रति व्यर्थ ही उपेक्षा नहीं रखता है। आप यहाँ देख सकते हैं कि पहले शरीर सम्बन्धी कुशल पूछा गया है और बाद में सयम यात्रा सम्बन्धी ! 'अव्वाबाहपुच्छा गता, एवं ता शरीरं पुच्छितं, इदाणि तवसंजम नियम जोगेसु पुच्छति ।-अावश्यक चूणि । यात्रा
शिष्य, गुरुदेव से यात्रा के सम्बन्ध में कुशल क्षेम पूछता है । श्राप यात्रा शब्द देखकर चौंकिए नहीं। जैन संस्कृति में यात्रा के लिए स्थूल कल्पना न होकर एक मधुर आध्यात्मिक सत्य है। यात्रा क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए श्राइए, प्रभु महावीर के चरणों में चले। सोमिल ब्राह्मण भगवान् से प्रश्न करता है कि-'भगवन् ! क्या आप यात्रा भी करते हैं ?? भगवान् ने उत्तर दिया-'हाँ, सोमिल ! मैं यात्रा करता हूँ। सोमिल ने तुरन्त पूछा-'कौनसी यात्रा ?' सोमिल बाह्य जगस में विचर रहा था, भगवान अन्तर्जगत में विचरण कर रहे थे । भगवान् ने उत्तर दिया'सोमिल ! जो मेरी अपने तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान और श्रावश्यक श्रादि योग की साधना में यतना हैप्रवृत्ति है, वही मेरी यात्रा है।' कितनी सुन्दर यात्रा है ? इस यात्रा के द्वारा जीवन निहाल हो सकता है ?
-"सोमिला ! जं मे तव-नियम-संजम-सज्झाय-ज्माणावसग्गमादिएसु जोएसु जयणा सेतं जत्ती " -भगवती सूत्र १८ । १० ।
यह जैन-धर्म की यात्रा है, श्रात्म-यात्रा। जैन धर्म की यात्रा का पथ जीवन के अंदर में से है, बाहर नहीं। अनन्त-अनन्त साधक इसी
१ 'यात्रा तपोनियमादिलक्षणा क्षायिकमिश्रौपशमिकभावलक्षणा वा।'-प्राचार्य हरिभद्र, अावश्यक वृत्ति ।
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
.२८५ यात्रा के द्वारा मोक्ष में पहुँचे हैं और पहुंचेगे। सयमी साधक के लिए जीवन की प्रत्येक शुभ प्रवृत्ति यात्रा है, मोक्ष का मार्ग है। यापनोय
'यात्रा' के समान 'यापनीय' शब्द भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। यापनीय का अर्थ है मन और इन्द्रिय -श्रादि पर अधिकार रखना, अर्थात् उनको अपने वश में नियंत्रण में रखना । मन और इन्द्रियों का अनुपशान्त रहना, अनियंत्रित रहना अकुशलता है, अयापनीयता है ।
और इनका उपशान्त हो जाना, नियंत्रित हो जाना ही कुशलता है, यापनीयता है। ___ कुछ हिन्दी टीकाकारों ने, जिनमें पं० सुखलालजी भी हैं, 'जवणिज्ज च भे? की व्याख्या करते हुए लिखा है कि 'आपका शरीर मन तथा इन्द्रियों की पीड़ा से रहित है ।' हमने भी यही अर्थ लिखा है । प्राचार्य हरिभद्र ने भी इस सम्बन्ध में कहा है--'यापनीयं चेन्द्रियतोइनिद्वयोपशम्मादिना प्रकारेण भवतां ? शरीरमिति यम्यते ।' यहाँ इन्द्रिय से इन्द्रिय और नोइन्द्रिय से मन समझा गया है और ऊपर के अर्थ की कल्पना की गई है।
परन्तु भगवती सूत्र में यापनीय का निरूपण करते हुए कहा है कि-यापनीय के दो प्रकार हैं इन्द्रिय .यापनीय और नोइन्द्रिय यापनीय । पाँचौं इन्द्रियों का निरूपहत रूप से अपने वश में होना, - इन्द्रिय-यापनीयता है । और क्रोधादि कषायों का उच्छिन्न होना, उदय न होना, उपशान्त हो जाना, नोइन्द्रिय यापनीयता है !
-जवणिज्जे दुविहे पत्ते, तंजहा-इंदियजवणिज्जे य नोइरिदयजवणिजे य।
से किं तं इंदियजवणिज्जे ? जं मे सोइंदिय-चविखदियघाणिदिय-जिभिदिय-फासिंदियाई निरुवहयाई वसे पति, सेत्त' इंदियजवणिज्ज।
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श्रमण-सूत्र . से किं तं नोइ दियजवणिज्जे ? जं मे कोहमाणमायालोमा वोच्छिन्न। नो उदीरेंति सेत्त नो इंदिय जवणिज्जे ।
-भगवती सूत्र १८ । १०।। प्राचार्य अभयदेव, भगवती सूत्र के उपयुक्त पाठ का विवरण करते हुए लिखते हैं-"यापनीयं = मोक्षाध्वनि गच्छतां प्रयोजक इन्द्रियादिवश्यतारूपो धर्मः । "इन्द्रियविषयं यापनीयं = वश्यत्वमिन्द्रिययापनीयं, एवं नो इन्द्रिययापनीयं, नवरं नो शब्दस्य मिश्रवचनत्वादिन्द्रियैमिश्राः सहार्थत्वाद् वा इन्द्रियाणां सहचरिता नोइन्द्रियाः कषायाः।"
भगवती सूत्र में नोइन्द्रिय से मन नहीं, किन्तु कषाय का ग्रहण किया गया है | कषाय चूँ कि इन्द्रिय सहचरित होते हैं, अतः नो इन्द्रिय कहे जाते हैं।
आचार्य जिनदास भी भगवती सूत्र का ही अनुसरण करते हैं'इन्दियजवणिज निरुवहताणि वसे य मे वटुंति इंदियाणि, नो खलु कजस्स बाधाए वतीत्यर्थः । एवं नोइन्दियजवणिज, कोधादीए वि णो भे बाहेति ।-अावश्यक चूर्णि ।
उपयुक्त विचारों के अनुसार यापनीय प्रश्न का यह भावार्थ है कि 'भगवन् ! अापकी इन्द्रिय-विजय की साधना ठीक-ठीक चल रही है ? इन्द्रियाँ अापकी धर्म साधना में बाधक तो नहीं होती ? अनुकूल ही रहती हैं न? और नोइन्द्रिय विजय भी टीक-ठीक चल रही है न ? क्रोधादि कषाय शान्त हैं ? आपकी धर्म यात्रा में कभी बाधा तो नहीं पहुँचाते ??
प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति में प्राचार्य सिद्धसेन यात्रा और यापना के द्रव्य तथा भाव के रूप में दो-दो भेद करते हैं । मिथ्यादृष्टि तापस आदि की अपनी क्रिया में प्रवृत्ति द्रव्ययात्रा है, और श्रेष्ठ साधुओं की अपना महाप्रतादि रूप साधना में प्रवृत्ति भाव यात्रा है। इसी प्रकार द्राक्षारस
आदि से शरीर को समाहित करना, द्रव्य यापना है, और इन्द्रिय तथा नो इन्द्रिय की उपशान्ति से शरीर का समाहित होना भावयापना है।
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२८७ --'यात्रा द्विविधा द्रव्यतो भावत। द्रव्यतस्तापसादीनां मिथ्यादृशां स्वक्रियोत्सपणं, भावतः साधूनामिति ।.... यापनापि द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । द्रव्यतः शर्कराद्राक्षादिसदोषधैः कायस्य समाहितत्वं, भावतस्तु इन्द्रियनोइन्द्रियोपशान्तत्वेन शरीरस्य समाहितत्वम् ।'
-प्रवचनसारोद्धार वंदनक द्वार । श्रावश्यिकी __ अवश्य करने योग्य चरण-करणरूप श्रमण योग 'आवश्यक' कहे जाते हैं । आवश्यक क्रिया करते समय प्रमादवश जो रत्नत्रय की विराधना हो जाती है वह श्रावश्यिकी कहलाती है । अतः 'श्रावस्सियाए' का अभिप्राय यह है कि 'मुझसे अावश्यक योग की साधना करते समय जो भूल हो गई हो, उस आवश्यिकी भूल का प्रतिक्रमण करता हूँ ।'
'आवस्सियाए' कहते हुए जो अवग्रह से बाहर निकला जाता है, वह इसलिए कि गुरुदेव के चरणों में से कहीं अन्यत्र आवश्यक कार्य के लिए जाना होता है तो गुरु देव को सूचना देने के लिए 'श्रावस्सिया' कहा जाता है, यह आवश्यिकी समाचारी है । अतः यहाँ भी 'श्रावस्तियाए' को श्रावश्यिकी का प्रतीक मानकर शिष्य श्रवग्रह से बाहर होता है । यही कारण है कि दूसरे खमासमणो में 'श्रावस्सियाए' नहीं कहा जाता और न अवग्रह से बाहर ही पाया जाता है । श्राशातना
- 'पाशातना' शब्द जैन श्रागम-साहित्य का एक प्राचीन पारिभाषिक शब्द है । जैन .म अनुशासन-प्रधान धर्म है। अतः यहाँ पद-पद पर अरिहन्त, सिद्ध, आचाय, उपाध्याय, साधु, और गुरुदेव का, किंबहुना, ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप धर्म साधना तक का भी सम्मान रक्खा जाता
१ अवश्यकर्तव्यश्वरण-करणयोगैर्निवृत्तिा आवश्यकी तया ऽऽसेवनाद्वारेण हेतुभूतया यदसाध्वनुष्ठितं तस्य प्रतिक्रामामि विनिवर्तयामीत्यर्थः ।'-प्राचार्य हरिभद्र ।
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श्रमण-सूत्र
है । सदाचारी गुरुदेव और अपने सदाचार के प्रति किसी भी प्रकार की अवज्ञा एवं अवहेलना, जैनधर्म में स्वयं एक बहुत बड़ा पाप माना गया है, अनुशासन जैनधर्म का प्राण है ।
आइए, अब आशातना के व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ पर विचार करलें । 'ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही वास्तविक आय = लाभ है, उसकी शातना = खण्डना, आशातना है ।' गुरुदेव आदि का विनय ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र रूप श्रात्मगुणों के लाभ का नाश करने वाला है । देखिए, प्रतिक्रमण सूत्र के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य तिलक का अभिमत | 'आयस्य ज्ञानादिरूपस्य शातना = खण्डना श्राशातना । निरुक्त्या यलोपः ।'
आशातना के भेदों की कोई इयत्ता नहीं है । शातना के स्वरूपपरिचय के लिए दशाश्रु तस्कन्ध-सूत्र में तेतीस श्राशातनाएँ वर्णन की गई हैं । परिशिष्ट में उन सब का उल्लेख किया गया है, यहाँ संक्षेप में द्रव्यादि चार शातनाओं का निरूपण किया जाता है, श्राचार्य हरिभद्र के उल्लेखानुसार जिनमें तेतीस का ही समावेश हो जाता है । 'तित्तीसं पि चउसु व्वाइसु समोयरंति'
द्रव्य शातना का अर्थ है - गुरु आदि रानिक के साथ भोजन करते समय स्वयं अच्छा अच्छा ग्रहण कर लेना और बुरा-बुरा रात्रिक को देना । यही बात वस्त्र, पात्र आदि के सम्बन्ध में भी है ।
क्षेत्र शातना का अर्थ है - अड़कर चलना, अड़कर बैठना इत्यादि ।
काल
के द्वारा बोलने पर भी उत्तर न देना, चुप रहना ।
भाव आशातना का अर्थ है- आचार्य आदि रात्रिकों को 'तू' करके बोलना, उनके प्रति दुर्भाव रखना, इत्यादि ।
मनोदुष्कृता
मनोदुष्कृत का अर्थ है ! मन से दुष्कृत | मन में किसी प्रकार का
शातना का अर्थ है --रात्रि या विकाल के समय रात्रिकों
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन सूत्र
२८६
द्वेष, दुर्भाव, घृणा तथा अवज्ञा का होना, मनोदुष्कृता श्राशातना है । इसी प्रकार अभद्र वचन आदि से वाग्दुष्कृता तथा आसन्न गमनादि के निमित्त से कायदुष्कृता शातना होती है ।
क्रोधा
मूल में 'कोहा' शब्द है, जिसका तृतीया विभक्ति के रूप में 'कोहाए' प्रयोग किया गया है । 'कोहा' का संस्कृत रूपान्तर 'कोधा' होता है । क्रोधा का अर्थ क्रोध नहीं, अपितु क्रोधानुगता अर्थात् क्रोधती शातना से है । क्रोध के निमित्त से होने वाली आशातना क्रोधा अर्थात् क्रोधवती कहलाती है ।
'क्रोधा' का 'कोती' अर्थ कैसे होता है ? समाधान है कि अर्शादिगण प्राकृति गण माना जाता है, अतः क्रोधादि को अर्शादि गण में मान कर श्रच् प्रत्यय होने से क्रोधयुक्त का भी क्रोध रूप ही रहता है । श्राशातना स्त्रीलिंग शब्द है, अतः 'क्रोधा रूप का प्रयोग किया गया है ।
- 'क्रोधयेति क्रोधवयेति प्राप्ते अर्शादेराकृतिगणत्वात् अच् प्रत्थ'यान्तत्वात् 'क्रोधया' क्रोधानुगतया । श्राचार्य हरिभद्र | मायया और लोभया का मर्म भी च् प्रत्यय है, अतः मानवत्या,
'कोया' के समान ही मानया, समझ लेना चाहिए | सब में अर्शादि मायावत्या और लोभवस्था अर्थ ही ग्राह्य है ।
सार्वकालिकी
आशातना के लिए यह विशेषण बड़ा ही महत्वपूर्ण अर्थ रखता है 1 शिष्य गुरुदेव के चरणों में आशातना का प्रतिक्रमण करता हुआ निवेदन करता है कि 'भगवन् ! मैं दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक श्राशातना के लिए क्षमा चाहता हूँ और उसका प्रतिक्रमण करता हूँ । इतना ही नहीं, अबतक के इस जीवन में जो अपराध हुत्रा हो, उसके लिए भी क्षमा याचना है। प्रस्तुत जीवन ही नहीं, पूर्व जीवन और उससे भी पूर्व जीवन, इस प्रकार अनन्तानन्त
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२६०
श्रमण-सूत्र
अतीत जन्मों में जो भूल हुई हो, अवहेलना का भाव रहा हो, उस सबकी क्षमा याचना करता हूँ।' ____ मूल में 'सव्वकालिया' शब्द है, जिसका अर्थ है सब काल में होने वाली अाशातना । प्राचार्य जिनदास सर्वकाल से समस्त भूतकाल “ग्रहण करते हैं-'सव्वकाले भवा सव्वकालिगी, पक्खिका, चातुम्मासिया, संवत्सरिया, इह भवे अण्णेसु वा अतीतेसु भवग्गहणेसु सव्वमतीतद्धाकाले। ___ आचार्य हरिभद्र ‘सर्वकाल' से अतीत, अनागत और वर्तमान इस प्रकार त्रिकाल का ग्रहण करते हैं-'अधुनेहभवान्यभवगताऽतीतानागतकालसंग्रहार्थमाह, सर्वकालेन अतीतादिना निवृत्ता सार्वकालिकी तया ।'
यह विनय धर्म का कितना महान् विराट रूप है । जैन संस्कृति की प्रत्येक साधना क्षुद्र से महान होती हुई अन्त में अनन्त का रूप ले लेती है। आप देख सकते हैं, गुरुदेव के चरणों में की जानेवाली अपराधक्षामणा भी दैवसिक एवं रात्रिक से महान् होती हुई अन्त में सार्वकालिकी हो जाती है। केवल वर्तमान ही नहीं, किन्तु अनन्त भूत और अनन्त भविष्य काल के लिए भी अपराध-क्षमापना करना, साधक का नित्यप्रति किया जाने वाला आवश्यक कर्तव्य है।
अनागत-अाशातना के सम्बन्ध में प्रश्न है कि भविष्यकाल तो अभी आगे आने वाला है, अतः तत्सम्बन्धी अाशातना कैसे हो सकती है ? समाधान है कि गुरुदेव के लिए एवं गुरुदेव की आज्ञा के लिए भविष्य में किसी प्रकार की भी अवहेलना का भाव रखना, संकल्प करना, अनागत अाशातना है । भूतकाल की भूलों का पश्चात्ताप करो और भविष्य में भूले न होने देने के लिए सदा कृत-सकल्प रहो, यह है साधक जीवन के लिए अमर सन्देश, जो सार्वकालिको पद के द्वारा अभिव्यंजित है।
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२६१
द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र बारह आधर्त - प्रस्तुत पाठ में आवर्त-क्रिया विशेष ध्यान देने योग्य है । जिस प्रकार वैदिक मंत्रों में स्वर तथा हस्त-सञ्चालन का ध्यान रक्खा जाता है, उसी प्रकार इस पाठ में भी आवर्त के रूप में स्वर तथा चरण स्पर्श के लिए होने वाली हस्त-संचालन क्रिया के सम्बन्ध में लक्ष्य दिया गया है। स्वर के द्वारा वाणी में एक विशेष प्रकार का प्रोज एवं माधुर्य पैदा हो जाता है, जो अन्तःकरण पर अपना विशेष प्रभाव डालता है। ___ यावर्त के सम्बन्ध में एक बात और है । जिस प्रकार वर और कन्या अग्नि की प्रदक्षिणा करने के बाद पारस्परिक कर्तव्य-निर्वाह के लिए श्राबद्ध हो जाते हैं, उसी प्रकार आवर्त-क्रिया गुरु और शिष्य को एकदूसरे के प्रति कर्तव्य बन्धन में बाँध देती है । आवर्तन करते समय शिष्य गुरुदेव के चरणकमलों का स्पर्श करने के बाद दोनों अंजलिबद्ध हाथों को अपने मस्तक पर लगाता है; इसका हार्द है कि वह गुरुदेव की आज्ञायों को सदैव मस्तक पर वहन करने के लिए कृतप्रतिज्ञ है।
प्रथम के तीन आवर्त-'अहो'-'कार्य'-'काय'-इस प्रकार दो-दो अक्षरों से पूरे होते हैं। कमलमुद्रा से अंजलिबद्ध दोनों हाथों से गुरुचरणों को स्पर्श करते हुए मन्द स्वर से 'अ' अक्षर कहना, तत्पश्चात् अंजलिबद्ध हाथों को मस्तक पर लगाते हुए उच्च स्वर से 'हो' अक्षर कहना, यह पहला आवर्तन है। इसी प्रकार 'का....यं' और 'का....य' के शेष दो प्रावर्तन भी किए जाते हैं।
अगले तीन आवर्त-'जत्ताभे'-'जवणि'-'जंच भे'-इस प्रकार
१ 'सूत्राभिधानगर्भाः काय-व्यापारविशेषाः'-प्राचार्य हरिभद्र, श्रावश्यक वृत्ति ।
'सूत्र-गर्भा गुरुचरणकमलन्यस्तहस्तशिरः स्थापनरूपाः --प्रवचनसारोद्धार वृत्ति, वन्दनक द्वार ।
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૨૬૨
श्रमण-सूत्र तीन-तीन अक्षरों के होते हैं । कमल-मुद्रा से अंजलि बाँधे हुए दोनों हाथों से गुरु चरणों को स्पर्श करते हुए अनुदात्त= मन्द स्वर से-'ज'अक्षर कहना पुनः हृदय के पास अञ्जलि लाते हुए स्वरित = मध्यम स्वर से- 'त्ता'- अक्षर कहना, पुनः अपने मस्तक को छूते हुएउदात्त स्वर से-'भे'--अक्षर कहना; प्रथम श्रावर्त है । इसी पद्धति से-'ज ....व....णि'-और-ज्ज....च....मे'-ये शेष दो श्रावर्त भी करने चाहिएँ । प्रथम 'खमासमणो' के छह और इसी भाँतिः दूसरे ‘खमासमणो के छह; कुल बारह श्रावर्त होते हैं । वन्दन-विधि ___ वन्दन श्रावश्यक बड़ा ही गंभीर एवं भावपूर्ण है.। अाज परंपरा की अज्ञानता के कारण इस ओर लक्ष्य नहीं दिया जा रहा है और केवल येन-केन प्रकारेण मुख से पाठ का पढ़ लेना ही वन्दन समझ लिया गया है । परन्तु ध्यान में रखना चाहिए कि विना विधि के क्रिया फलवती नहीं होती। अतः पाठकों की जानकारी के लिए स्पष्ट रूप से विधि का वर्णन किया जाता है :
गुरुदेव के श्रात्मप्रमाण क्षेत्र रूप अवग्रह के. बाहर प्राचार्य तिलक ने क्रमशः दो स्थानों की कल्पना की है,-एक 'इच्छा निवेदन स्थान'
और दूसरा 'अवग्रह प्रवेशाज्ञामाचना स्थान ।' प्रथम स्थान में वन्दन करने की इच्छा का निवेदन किया जाता है, फिर जरा आगे अवग्रह के पास जाकर अवग्रह में प्रवेश करने की अाज्ञा माँगी जाती है।
वन्दनकर्ता शिष्य, अवग्रह के बाहर प्रथम इच्छानिवेदन स्थान में यथा जात मुद्रा से दोनों हाथों में रजोहरण लिए हुए अर्धावनत होकर अर्थात् श्राधा शरीर झुका कर नमन करता है और 'इच्छामिःखमासमणों से लेकर मिसीहियाए' तक का पाठ पढ़ कर वन्दन करने की इच्छा निवेदन करता है। शिष्य के इस प्रकार निवेदन करने के पश्चात
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द्वादशावत गुरुवन्दन सूत्र
२६३
गुरुदेव यदि अस्वस्थ या किसी कार्य विशेष में व्याक्षिप्त होते हैं तो' 'तिविहेण'-'त्रिविधेन' ऐसा शब्द कहते हैं, जिसका अर्थ होता है'अक्ग्रह से बाहर रह कर ही सक्षिप्त वन्दन - करना। अतः अवग्रह से बाहर रह कर ही तिवखुत्तो के पाठ के द्वारा संक्षिप्त वंदन कर लेना चाहिए । यदि गुरुदेव स्वस्थ एवं अव्याक्षित होते हैं तो 'छंदेणं''छन्दसा' ऐसा शब्द कहते हैं; जिसका अर्थ होता है-'इच्छानुसार वन्दन करने की सम्मति देना।'
गुरुदेव की अोर से उपयुक्त पद्धति के द्वारा वन्दन करने की आज्ञा मिल जाने पर, शिष्य, आगे बढ़ कर, अक्ग्रह क्षेत्र के बाहर, किन्तु पास ही 'अवग्रह प्रवेशाज्ञा याचना' नामक दूसरे स्थान में पुनः अर्द्धावनत होकर नमन करता है और गुरुदेव से 'अणुजाणह मे मिउग्गह'-इस पाठ के द्वारा अवग्रह में प्रवेश करने की प्राज्ञा माँगता है। अाज्ञा मांगने पर गुरुदेव अपनी ओर से 'अणुजाणामि' पद के द्वारा प्राज्ञा प्रदान करते हैं।
अाज्ञा मिलने के बाद यथाजात मुद्रा जनमते समय बालक की अथवा दीक्षा लेने के समय शिष्य की जैसी मुद्रा होती है वैसी दोनों हाथ अंजलिबद्ध कपाल पर रखने की मुद्रा से 'निसीहि'२ पद कहते हुए
१ 'त्रिविधेन' का अभिप्राय है कि यह समय अवग्रह में प्रवेश कर द्वादशावर्त वन्दन करने का नहीं है । अतः तीन बार तिक्खुत्तो के पाठ के द्वारा, अवग्रह से बाहर रह कर ही संक्षिप्त वन्दन कर लेना चाहिए । 'त्रिविधेन' शब्द मन, वचन, काय योग की एकाग्रता पर भी प्रकाश डालता है । तीन बार वन्दन, अर्थात् मन, वचन एवं काय योग से वन्दन !
२ 'निसीहि' बाहर के कार्यों से निवृत्त होकर गुरु चरणों में उपस्थित होने रूप नैषधिकी समाचारी का प्रतीक है। इसीलिए प्राचार्य हरिभद्र प्रस्तुत प्रसंग पर कहते हैं-'ततः शिष्यो नैवेधिक्या प्रविश्य ।' अर्थात् शिष्य, अवग्रह में 'निसीहि' कहता हुअा प्रवेश करे।
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२६४
श्रमण-सूत्र
अवग्रह में प्रवेश करना चाहिए । बाद में रजोहरण से भूमि प्रमार्जन कर, गुरुदेव के पास गोदोहिका ( उकडू) अासन से बैठकर, प्रथम के तीन श्रावर्त 'अहो, कायं, काय' पूर्वोक्त विधि के अनुसार करके 'संफासं' कहते हुए गुरु चरणों में मस्तक लगाना चाहिए ।
तदनन्तर 'खमणिज्जो मे किलामो' के द्वारा चरण स्पर्श करते समय गुरुदेव को जो बाधा होती है, उसकी क्षमा मांगी जाती है । पश्चात् 'अप्प किलंताणं बहु सुभेण भे दिवसो वइक्कतो' कहकर दिन-सम्बन्धी कुशलक्षेम पूछा जाता है। अनन्तर गुरुदेव भी 'तथा' कह कर अपने कुशल क्षेम की सूचना देते हैं और फिर उचित शब्दों में शिष्य का कुशल क्षेम भी पूछते हैं। .. तदनन्तर शिष्य 'ज त्ता मे 'ज व णि' 'जं च भे'-इन तीन श्रावतों की क्रिया करे एवं संयम यात्रा तथा इन्द्रिय सम्बन्धी और मनः सम्बन्धी शान्ति पूछे। उत्तर में गुरुदेव भी 'तुमं पि वट्टइ' कहकर शिष्य से उसको यात्रा और यापनीय सम्बन्धी सुख शान्ति पूछे ।
तत्पश्चात् मस्तक से गुरु चरणों का स्पर्श करके 'खामेमि खमासमणो देवसियं वइक्कम' कह कर शिष्य विनम्र भाव से दिन सम्बन्धी अपने अपराधों की क्षमा माँगता है। उत्तर में गुरु भी 'अहमपि क्षमयामि' कह कर शिष्य से स्वकृत भूलों की क्षमा माँगते हैं । क्षामणा करते समय शिष्य और गुरु के साम्य प्रधान सम्मेलन में क्षमा के कारण विनम्र हुए दोनों मस्तक कितने भव्य प्रतीत होते हैं ? ज़रा भावुकता को सक्रिय कीजिए । चन्दन प्रक्रिया में प्रस्तुत शिगेनमन आवश्यक का भद्रबाहु श्रुत केवलो बहुत सुन्दर वर्णन करते हैं ।
इसके बाद 'आवस्सियाए' कहते हुए अवग्रह से बाहर आना चाहिए। ... अवग्रह से बाहर लौट कर-पडिकमामि' से लेकर 'अप्पाणं वोसिरानि' तक का सम्पूर्ण पाठ पढ़ कर प्रथम खमासमणो पूर्ण करना चाहिए।
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२६५
दूसरा खमासमणो भी इसी प्रकार पढ़ना चाहिए । केवल इतना अन्तर है कि दूसरी बार 'श्रावस्सियाए' पद नहीं कहा जाता है, और श्रवग्रह से बाहर न आकर वहीं संपूर्ण खमासमणो पढ़ा जाता है । तथा प्रतिचार-चिन्तन एवं श्रमण सूत्र नमो चउवीसाए- पाठान्तर्गत 'तस्स धम्मस्स' तक गुरु चरणों में ही पढ़ने के बाद 'अभुट्टिओमि' कहते हुए, उठ कर बाहर आना चाहिए ।
प्रस्तुत पाठ में जो 'बहुसुमेण मे दिवसो वइक्कतो' के अंश में 'दिवसो वइक्कतो' पाठ है, उसके स्थान में रात्रिक प्रतिक्रमण में 'राई वक्ता' पाक्षिक प्रतिक्रमण में 'पक्खो वइक्कतो' चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में 'चमासी वइक्कता' तथा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में 'संवच्छरो वइक्कतो' ऐसा पाठ पढ़ना चाहिए ।
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वन्दन के २५ आवश्यक
श्री समवायांग सूत्र के १२ वे समवाय में वन्दन स्वरूप का निर्णय देते हुए भगवान् महावीर ने वन्दन के २५ आवश्यक बतलाए हैं :
दुओ यं जहाजायं,
किति कम्मं बारसावगं ।
चउसिरं तिगुतं च,
दुपवेसं एग - निक्खमरणं ॥
- 'दो अवनत, एक यथाजात, बारह श्रावर्त, चार शिर, तीन गुप्ति, दो प्रवेश और एक निष्क्रमण - इस प्रकार कुल पच्चीस आवश्यक हैं ।' स्पष्टीकरण के लिए नीचे देखिए :
दो अवनत
अवग्रह से बाहर रहा हुआ शिष्य सर्वं प्रथम पनच चढ़ाए हुए धनुष के समान अवनत होकर 'इच्छामि खमासमणो व दिउं जाव णिजाए निसीहियाए' कहकर गुरुदेव को वन्दन करने की इच्छा का
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२६ ६
श्रमण-सूत्र
निवेदन करता है । गुरुदेव की ओर से श्राज्ञा मिल जाने के बाद पुनः अवनत काय से 'अणुजाराह मे मिउग्गहं' कह कर अवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा माँगता है । यह प्रथम अवनत आवश्यक है ।
अवग्रह से बाहर आकर प्रथम खमासमणो पूर्ण कर लेने के बाद जब दूसरा खमासमणो पढ़ा जाता है, तत्र पुनः इसी प्रकार विनत होकर वंदन करने के लिए इच्छा निवेदन करना एवं श्रवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा माँगना, यह दूसरा अवनत श्रावश्यक है । दो प्रवेश
.
गुरुदेव की ओर से श्रवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा मिल जाने के बाद मुख से निसीहि कहता हुआ एवं रजोहरण से श्रागे की भूमि को प्रमार्जन करता हुआ जब शिष्य श्रवग्रह में प्रवेश करता है, तब प्रथम प्रवेश आवश्यक होता है ।
इसी प्रकार एक बार अवग्रह से बाहर ग्राकर दूसरा समासमणो पढ़ते समय जब पुनः दूसरी बार अवग्रह में प्रवेश करता है, तब दूसरा प्रवेश आवश्यक होता है ।
बारह आवर्त
गुरुदेव के चरणों के पास उकडू या गोदुह आसन से बैठे, रजोहरण एक चोर बराबर में रख छोड़े । पश्चात् दोनों घुटने टेककर दोनों हाथों को लम्बा करके गुरु चरणों को " हाथ की दशों अंगुलियों से स्पर्श करता हुआ 'अ' अक्षर कहे और फिर दशों अँगुलियों से अपने मस्तक का स्पर्श करता हुआ 'हो' अक्षर कहे, यह प्रथम आवर्त है 'काय' और 'काय' के भी दो आवर्त समझ लेने चाहिएँ ।
।
इसी प्रकार
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इसके बाद कमल मुद्रा में दोनों हाथों को जोड़कर मस्तक पर लगाए और खमणिजो भे से लेकर दिवसों वइक्कतो तक पाठ बोले । अनन्तर दोनों हाथों को लम्बा करके दशों अँगुलियों से गुरुचरणों को
१ कुछ आचार्य कमल - मुद्रा से कहते हैं ।
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२६७ स्पर्श करता हुअा 'ज' अक्षर कहे, फिर हाथों को हटाकर हृदय के पास लाता हुअा 'त्ता' अक्षर कहे, और अन्त में दशों अँगुलियों से अपने मस्तक को स्पर्श करता हुअा 'भे' अक्षर कहे । इस प्रकार चौथा प्रावर्त होता है। इसी प्रकार शेष दो आवर्त भी 'ज व णि' और 'जं च भे' के समझ लेने चाहिएँ। ।
ये छह आवर्त आवश्यक प्रथम खमासण के हैं। इसी प्रकार दूसरे खमासण के भी छह ग्रावत-आवश्यक होते हैं । एक निष्क्रमण
बारह आवर्त करने के बाद प्रथम दोनों हाथों से और पश्चात् मस्तक से गुरु चरणों का स्पर्श करे तथा 'खामेमि खमासमणो देवसियं वइक्कम' का पाठ कहे। इसके अनन्तर खड़े होकर रजोहरण से अपने पीछे की भूमि का प्रमार्जन करता हुआ, गुरुदेव के मुखकमल पर दृष्टि लगाए, मुख से 'पावस्सियाए' कहता हुश्रा, उल्टे पैरों वापस लौट कर अवग्रह से बाहर निकले । यह निष्क्रमण आवश्यक है।
अवग्रह से बाहर गुरुदेव की ओर मुख कर के पैरों से जिन-मुद्रा का और हाथों से योग-मुद्रा का अभिनय कर के खड़ा होना चाहिए । पश्चात् पडिक्कमामि से लेकर सपूर्ण खमासमणो पढ़ना चाहिए । तीन गुप्ति
जब शिष्य वन्दन करने के लिए अवग्रह में प्रवेश करता है, तब 'निसीहि' कहता है। उसका भाव यह है कि अब मैं मन, वचन और काय की अन्य सब प्रवृत्तियों का निषेध करता हूँ एवं तीनों योगों को एक मात्र वन्दन-क्रिया में ही नियुक्त करता हूँ। यह एकाग्र भाव की सूचना है, जो तीन गुप्तियों के आवश्यक का निदर्शन है ।
__ मनोगुप्ति आवश्यक यह है कि मन में से अन्य सब सकल्मों को निकाल कर उसमें एकमात्र वंदना का मधुर भाव ही रहना चाहिए । बिखरे मन से वन्दन करने पर कम निर्जरा नहीं होती।
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श्रमण सूत्र
वचन गुप्ति आवश्यक यह है कि वन्दन करते समय बीच में और कुछ नहीं बोलना । वचन का व्यापार एकमात्र वन्दन क्रिया के पाठ में ही लगा रहना चाहिए | और उच्चारण अस्खलित, स्पष्ट एवं सस्वर होना चाहिए ।
काय गुप्ति आवश्यक यह है कि शरीर को इधर-उधर आगे-पीछे न हिलाकर पूर्ण रूप से नियंत्रित रखना चाहिए। शरीर का व्यापार वन्दन क्रिया के लिए ही हो, अन्य किसी कार्य के लिए नहीं । वन्दन करते समय शरीर से वन्दनातिरिक्त क्रिया करना निषिद्ध है । चार शिर
अवग्रह में प्रवेश कर क्षामणा करते हुए शिष्य एवं गुरु के दो शिर परस्पर एक दूसरे के सम्मुख होते हैं, यह प्रथम खमासमणो के दो शिरः सम्बन्धी आवश्यक हैं । इसी प्रकार दूसरे खमासमणो के दो शिरः सम्बन्धी आवश्यक भी समझ लेने चाहिएँ । इस सम्बन्ध में प्राचार्य हरिभद्र आवश्यक नियुक्ति १२०२ वीं गाथा की व्याख्या में स्पष्ट लिखते हैं— 'प्रथम प्रविष्टस्य क्षामणाकाले शिष्याचार्यशिरोद्वयं पुनरपि निष्क्रम्य प्रविष्टस्य द्वयमेवेति भावना । श्राचार्य अभयदेव भी समवायांग सूत्र की वृत्ति में ऐसा ही उल्लेख करते हैं ।
3
प्रवचन सारोद्धार की टीका में श्री सिद्धसेनजी शिर का शिरोवनमन में लक्षणा मानते हैं और कहते हैं कि जहाँ दामणाकाल में 'खामेति खमासमणो देवसियं वइक्कमं' कहता हुआ शिष्य अपना मस्तक गुरु चरणों में झुकाता है, वहाँ गुरुदेव भी 'अहमवि खामेमि तुमे' कहकर अपना शिरोवनमन करते हैं ।
श्री सिद्धसेनजी एक और मान्यता उद्धृत करते हैं, जो केवल शिष्य के ही चार शिरोवनमन की है। एक शिरोवनमन ' संफास' कहते हुए और दूसरा क्षामणा काल में 'खामेमि खमासमणो' कहते हुए । 'अन्यत्र पुनरेव दृश्यते - संफासनमणे एर्ग, खामणानमणे सीसस्स बीयं । एवं बीयप से विदोनि ।'
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२६६
यथाजात मुद्रा
गुरुदेव के चरणों में वन्दन क्रिया करने के लिए शिष्य को यथाजात मुद्रा का अभिनय करना चाहिए । दोनों ही 'खमासमण सूत्र' यथाजात मुद्रा में पढ़ने का विधान है । यथा जात का अर्थ है यथा जन्म अर्थात् जिस मुद्रा में बालक का जन्म होता है, उस जन्मकालीन मुद्रा के समान मुद्रा ।
जब बालक माता के गर्भ से जन्म लेता है, तब वह नम होता है । उसके दोनों हाथ मस्तक पर लगे हुए होते हैं। संसार का कोई भी बाह्य वासनामय प्रभाव उस पर नहीं पड़ा होता है । वह सरलता, मृदुता, विनम्रता और सहृदयता का जीवित प्रतीक होता है । अस्तु, शिष्य को भी वन्दन के लिए इसी प्रकार सरलता, मृदुता, विनम्रता एवं सहृदयता का जीवित प्रतीक होना चाहिए । बालक अज्ञान में है, अतः वह कोई साधना नहीं है । परन्तु साधक तो ज्ञानी है । वह सरलता आदि गुणों को साधना की दृष्टि से विवेक पूर्वक अपनाता है, जीवन के कण-कण में नम्रता का रस बरसाता है, गुरुदेव के समक्ष एक सद्यः संजात बालक के समान दयापात्र स्थिति में प्रवेश करता है और इस प्रकार अपने को क्षमा भिक्षा का योग्य अधिकारी प्रमाणित करता है ।
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यथाजात मुद्रा में वन्दनार्थी शिष्य सर्वथा नम तो नहीं होता, परन्तु रजोहरण, मुख वस्त्रिका और चोलन के अतिरिक्त और कोई वस्तु अपने पास नहीं रखता है और इस प्रकार बालक के समान नम्रता का रूपक अपनाता है । भयंकर शीतकाल में भी यह नम- मुद्रा अपनाई जाती है । प्राचीनकाल में यह पद्धति रही है । परन्तु आजकल तो कपाल पर दोनों हाथों को लगाकर प्रणाम- मुद्रा कर लेने में ही यथाजात मुद्रा की पूर्ति मान ली जाती है ।
यथाजात का अर्थ 'श्रमण वृत्ति धारण करते समय की मुद्रा' भो किया जाता है । श्रमण होना भी, संसार-गर्भ से निकल कर एक विशुद्ध आध्यात्मिक जन्म ग्रहण करना है । जब साधक श्रमण बनता है, तत्र
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३००
श्रमण-सूत्र
रजोहरण, मुखवस्त्रिका और चोलपट्ट के अतिरिक्त और कुछ भी अपने पास नहीं रखता है एवं दोनों हाथों को मस्तक से लगाकर वन्दन करने की मुद्रा में गुरुदेव के समक्ष खड़ा होता है । तः मुनि दीक्षा ग्रहण करने के काल की मुद्रा भी यथाजात मुद्रा कहलाती है ।
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यथाजात - मुद्रा के उपर्युक्त स्वरूप के लिए, आवश्यक सूत्र की वृत्ति और प्रवचन सारोद्वार की वृत्ति दृव्य है | श्रावश्यक सूत्र की अपनी शिष्यहिता वृत्ति में आचार्य हरिभद्र लिखते हैं- 'यथाजातं श्रमणत्वमाश्रित्य योनिनिष्क्रमणं च तत्र रजोहरण-मुखवस्त्रिका चोलपट्टमात्रया - श्रमशो जातः, रचितकरपुटस्तु योन्या निर्गतः, एवं भूत एव वन्दते ।'
+
यह पच्चीस श्रावश्यकों का वर्णन हरिभद्रीय आवश्यक वृत्ति और प्रवचन सारोद्धार वृत्ति के आधार पर किया गया है । इस सम्बन्ध में जैनजगत के महान् ज्योतिर्धर स्व० जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहरलाल जी महाराज के हस्तलिखित पत्र से भी बहुत कुछ जानकारी प्राप्त की गई है; इसके लिए लेखक श्रद्धय जैनाचार्य पूज्य श्री गणेशीलाल जी महाराज का कृतज्ञ है ।
छः स्थानक
प्रस्तुत 'खमासमणो' सूत्र में छः स्थानक माने जाते हैं । " इच्छामि १ खमासमणो ! २ वं' दिउ ३ जाव(जाए४ निसीहियाए" के द्वारा वन्दन करने की इच्छा निवेदन की जाती है, : यह शिष्य की ओर का पंचपद रूप प्रथम 'इच्छा निवेदन' स्थानक है ।
इच्छानिवेदन के उत्तर में गुरुदेव भी 'त्रिविधेन' अथवा 'छंदसा' कहते हैं, यह गुरुदेव की ओर का उत्तर रूप प्रथम स्थानक है ।
इसके बाद शिष्य 'अणुजाराह१ मे २ मिउभाहं३' कह कर श्रवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा माँगता है, यह शिष्य की ओर का त्रिपदात्मक आज्ञा याचना रूप दूसरा स्थानक है ।
१ प्राचीनकाल में इसी मुद्रा में निदीक्षा दी जाती थी ।
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
३०१
इसके उत्तर में गुरुदेव भी 'श्रणुजाणामि' कह कर आज्ञा देते हैं, यह गुरुदेव की ओर का श्राज्ञाप्रदान- रूप दूसरा स्थानक है ।
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" निसीहि ३ श्रहोर कार्य ३ कायसंफासं४ । खमणिजो५ भे६ किलामो७ । श्रप्पक्लिंताणंद बहुसुभेरा भे१० दिवसो ११ बक्कंतो १२ ?” -यह शिष्य की ओर का द्वादशपद रूप शरीरकुशलपृच्छा नामक तीसरा स्थानक है ।
इसके उत्तर में गुरुदेव 'संथा' कहते हैं । तथा का अर्थ है जैसा तुम कहते हो वैसा ही है, अर्थात् कुशल है । यह गुरुदेव की ओर का तीसरा स्थान है |
इसके अनन्तर " जत्ता १ मे २” कहा जाता है । यह शिष्य की ओर का द्विपदात्मक संयम यात्रा पृच्छा नामक चौथा स्थानक है । उत्तर में गुरुदेव भी 'तुभं पि वह युष्माकमपि बर्तते ?' कहते हैं, जिसका अर्थ है - तुम्हारी संयम यात्रा भी निर्वाध चल रही है ? यह गुरुदेव की र का संयम यात्रा पृच्छा नामक चौथा स्थानक है ।
इसके बाद
66
जवणिजं १ च २ मे३" कहा जाता है । यह शिष्य की त्रिपदात्मक यापनीय पृच्छा नामक पाँचवाँ स्थानक है ।
उत्तर में गुरुदेव भी 'एव' कहते हैं, जिसका अर्थ है इन्द्रिय-विजय रूप यापना ठीक तरह चल रही है । यह गुरुदेव की ओर का पाँचवाँ स्थानक है ।
"3
इसके अनन्तर "खामेमिः खमासमणोर देव सि३ वकमं४ : कहा जाता है । यह शिष्य की ओर का पद ऋतुब्रयात्मक अपराधामणारूप छठा स्थानक है ।
उत्तर में गुरुदेव भी 'क्षमयामि' कहते हैं, जिसका अर्थ है मैं भी सारणा वारणा करते समय जो भूलें हुई हों, उसकी क्षमा चाहता हूँ । यह गुरुदेव की ओर का अपराध क्षामणा रूप छठा स्थानक है ।
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प्रत्याख्यान-सूत्र
(१)
नवस्कार सहित सूत्र उग्गर सूरे' नमोक्कारसहियं पञ्चक्खामि चउव्विहं पि आहारं-असणं, पाणं, खाइम, साइमं । । अन्नत्थ-ऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, वोसिरामि ।
. भावार्थ सूर्य उदय होने पर--दो घड़ी दिन चढ़े तक-नमस्कार सहित प्रत्याख्यान ग्रहण करता हूँ, और अशन, पान, खादिम, स्वादिम चारों हो प्रकार के श्राहार का त्याग करता हूँ। - प्रस्तुत प्रत्याख्यान में दो श्रागार = आकार अर्थात् अपवाद हैं-- अनाभोग=अत्यन्त विस्मृति और सहसाकार=शीघ्रता ( अचानक )। इन दो श्राकारों के सिवा चारों श्राहार बोसिराता हूँ-त्याग करता हूँ।
१ 'सूरे उग्गए'-इति हरिभद्राः। 'नमोक्कारं पञ्चक्खाति सूरे उग्गए'--इति जिनदासाः।
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प्रत्याख्यान-सूत्र
३०३ विवेचन यह 'नमस्कार सहित' प्रत्याख्यान का सूत्र है। नमस्कार सहित का अर्थ है-- 'सूर्योदय से लेकर दो घड़ी दिन चढ़े तक अर्थात् मुहूर्त भर के लिए, विना नमस्कार मंत्र पढ़े श्राहार ग्रहण नहीं करना । इसका दूसरा नाम नमस्कारिका भी है । अाजकल साधारण बोलचाल में नवकारिसी कहते हैं।
चार आहार इस प्रकार हैं
(१) अशन-इसमें रोटी, चावल आदि सभी प्रकार का भोजन श्रा जाता है।
(२) पान-दूध, द्राक्षारस पानी आदि पीने योग्य सभी प्रकार की .. चीजें पान में आ जाती हैं । परन्तु अाजकल परंपरा के नाते पान से केवल जल ही ग्रहण किया जाता है।
(३) खादिम-बादाम, किसमिस श्रादि मेवा और फल खादिम
१ "नमस्कारेण-पञ्चपरमेष्ठिस्तवेन सहितं प्रत्याख्याति । 'सर्वे धातवः करोत्यर्थेन व्याप्ता' इति भाष्यकारवचनान्नमस्कारसहितं प्रत्याख्यानं करोति ।" यह प्राचार्य सिद्धसेन का कथन है । इसका भावार्थ है कि मुहूर्त पूरा होने पर भी नवकार मंत्र पढ़ने के बाद ही नमस्कारिका का प्रत्याख्यान पूर्ण होता है. पहले नहीं। यदि मुहूर्त से पहले ही नवकार मंत्र पढ़ लिया जाय, तब भी नमस्कारिका पूर्ण नहीं होती है । नमस्कारिका के लिए यह आवश्यक है कि सूर्योदय के बाद एक मुहूर्त का काल भी पूर्ण हो जाय और प्रत्याख्यान-पूर्ति स्वरूप नवकार मंत्र का जप भी कर लिया जाय ! इसी विषय को प्रवचन सारोद्धार की वृत्ति में प्राचार्य सिद्धसेन ने इस प्रकार स्पष्ट किया है.-"स च नमस्कारसहितः पूर्णेऽपि काले नमस्कारपाठमन्तरेण प्रत्याख्यानस्यापूर्यमाणत्वात् , सत्यपि च नमस्कारपाठे मुहूर्ताभ्यन्तरे प्रत्याख्यानभङ्गात् । ततः सिद्धमेतत् मुहूर्तमानकाल नमस्कारसहितं प्रत्यायानमिति ।”-प्रत्याख्यानद्वार। ..
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३.०४
श्रमण-सूत्र
में अन्तर्भूत हैं। कुछ प्राचार्य मिष्टान्न को अशन में ग्रहण करते हैं और कुछ खादिम में, यह ध्यान में रहे ।
(४) स्वादिम-सुपारी, लौंग, इलायची आदि मुखवास स्वादिम माना जाता है। इस आहार में उदरपूर्ति की दृष्टि न होकर मुख्यतया मुख के स्वाद की ही दृष्टि होती है । संयमी साधक प्रस्तुत श्राहार का ग्रहण स्वाद के लिए नहीं, प्रत्युत मुख की स्वच्छता के लिए करता है। ____ संस्कृत का आकार ही प्राकृत भाषा में प्रागार है। प्राकार का अर्थ-अपवाद माना जाता है। अपवाद का अर्थ है कि यदि किसी विशेष स्थिति में त्याग की हुई वस्तु सेवन भी करली जाय तो भी प्रत्याख्यान का भंग नहीं होता। अतएव श्राचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र के तीसरे प्रकाश की वृत्ति में लिखते हैं --'प्राक्रियते विधीयते प्रत्याख्यानभंगपरिहारार्थमित्याकार:'.---'प्रत्याख्यानं च अपवादरूपाकार सहितं कर्तव्यम् , अन्यथा तु भंगः स्यात् ।'
१ श्रा-मर्यादया मर्यादाख्यापनार्थमित्यर्थः क्रियन्ते विधीयन्ते इत्याकाराः'-प्रवचन सारोद्धार वृत्ति । प्रत्याख्यानद्वार ।
'श्राकारोहि नाम प्रत्याख्यानापवादहेतुः ।-हरिभद्रीयः श्रावश्यक सूत्र वृत्ति, प्रत्याख्यान आवश्यक ।
जैन-धर्म विवेक.का धर्म है। अतः यहाँ प्रत्याख्यान आदि करते समय भी विवेक का पूरा ध्यान रखा जाता है। साधक दुर्बल एवं अल्पज्ञ प्राणी है। अतः उसके समक्ष अज्ञानता एवं अशक्तता श्रादि के कारण कभी वह विकट प्रसंग पा सकता है, जो उसकी कल्पना से बाहर हो । यदि पहले से ही उस स्थिति का अपवाद नारकरखा जाय तो व्रत भंग होने की संभावना रहती है। यही कारण है कि प्रस्तुत प्रत्याख्यान सूत्र में पहले से ही उस विशेष स्थिति की छूट 'प्रतिज्ञा-पाठ में रक्खी गई है, ताकि साधक का व्रत-भंगः न होने पाए। यह है पहले से ही भविष्य को ध्यान में रख कर चलने की दूरदर्शितारूप निवेक वृत्ति ।।
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प्रत्याख्यान-सूत्र
३०५
नमस्कारिका में केवल दो ही आकार हैं-अनाभोग, और महसाकार । ( १ ) अनाभोग का अर्थ है अत्यन्त विस्मृति । प्रत्याख्यान लेने की बात सर्वथा भूल जाय और उस समय अनवधानता वशं कुछ खा पी लिया जाय तो वह अनाभोग आगार की मर्यादा में रहता है ।
( २ ) दूसरा आगार सहसाकार है । इसका अर्थ है – मेघ बरसने पर अथवा दही आदि मथते समय अचानक ही जल या छाछ यदि का छींटा मुख में चला जाय ।
भोग और सहसाकार दोनों ही ग्रागारों के सम्बन्ध में यह बात है कि जब तक पता न चले, तबतक तो व्रत भंग नहीं होता । परन्तु पता चल जाने पर भी यदि कोई मुख का ग्रास थूके नहीं, आगे खाना बंद नहीं करे तो व्रत भंग हो जाता है । अस्तु, साधक का कर्तव्य है कि ज्यों ही पता चले, त्यों ही भोजन बंद कर दे और जो कुछ मुख में हो वह सब भी यतना के साथ थूक दे ।
एक प्रश्न है ! मूल पाठ में तो केवल नमस्कार सहित ही शब्द है, काल का कुछ भी उल्लेख नहीं है । फिर यह दो घड़ी की कालमर्यादा किस आधार पर प्रचलित है ?
प्रश्न बहुत सुन्दर है । श्राचार्य सिद्धसेन ने इसका अच्छा उत्तर दिया है । प्रवचन सारोद्धार की वृत्ति में उन्होंने नमस्कारसहित को मुहूर्त का विशेषण मानते हुए कहा है- ' सहित शब्देन मुहूर्तस्य विशेषितत्वात्' । इसका भावार्थ यह है किं नमस्कार से सहित जो मुहूर्त, वह नमस्कार सहित कहलाता है । अर्थात् जिसके अन्त में नमस्कार क उच्चारण किया जाता है, वह मुहूर्त । आप कहेंगे - मूल पाठ में तो कहीं इधर उधर मुहूर्त शब्द है नहीं; फिर विशेष्य के बिना विशेषण कैसा ? उत्तर में निवेदन है कि - नमस्कारिका का पाठ श्रद्धा प्रत्याख्यान में है । श्रतः काल की मर्यादा अवश्य होनी चाहिए । यदि काल की मर्यादा ही न हो तो फिर यह श्रद्धा प्रत्याख्यान कैसा ? नमस्कारसहित का पाठ पौरुपी के पाठ से पहले है; अतः यह स्पष्ट ही है कि उसका काल-मान
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३०६
श्रमण सूत्र
पौरुषी से कम ही होना चाहिए । ग्राप कहेंगे कि पौरुषी के कालमान से कम तो दो मुहूर्त भी हो सकते हैं ? फिर एक मुहूर्त ही क्यों ? उत्तर है कि नमस्कारिका में पौरुषी आदि अन्य प्रत्याख्यानों की अपेक्षा सत्र से कम, अर्थात् दो ही आकार हैं; अतः अल्पाकार होने से इसका कालमान बहुत थोड़ा माना गया है और वह परंपरा से एक मुहूर्त है। श्रद्धाप्रत्याख्यान का काल कम से कम एक मुहूर्त माना जाता है ।
नमस्कारिका, रात्रिभोजन दोष की निवृत्ति के लिए है । अर्थात् प्रातः काल दिनोदय होते ही मनुष्य यदि शीघ्रता में भोजन करने लगे और वस्तुतः सूर्योदय न हुआ हो तो रात्रि भोजन का दोष लग सकता है | यदि दो घड़ी दिन चढ़े तक के लिए श्राहार का त्याग नमस्कारिका के द्वारा कर लिया जाय तो फिर रात्रि भोजन की संभावना नहीं रहती | दूसरी बात यह है कि साधक के लिए तप की साधना करना आवश्यक है; प्रतिदिन कम से कम दो घड़ी का तप तो होना ही चाहिए । नमस्कारिका में यह नित्य प्रति के तपश्चरण का भाव भी अन्तर्निहित है ।
दूसरों को प्रत्याख्यान कराना हो तो मूल पाठ में 'पचखाइ' और 'वोसिरह' कहना चाहिए । यदि स्वयं करना हो, तो उल्लिखित पाठानुसार 'पक्खामि' और 'वोसिरामि' कहना चाहिए । आगे के पाठों में भी यह परिवर्तन ध्यान रखना चाहिए |
यही पाठ सांकेतिक अर्थात् संकेत पूर्वक किए जाने वाले प्रत्याख्यान का भी है । वहाँ केवल 'गंठिसहियं' या 'मुट्ठिसहियं' श्रादि पाठ नमुक्कार सहियं के आगे अधिक बोलना चाहिए । गंठिसहियं और मुट्ठिसहियं का यह भाव है कि जब तक बँधी हुई गाँठ अथवा मुट्ठी आदि न खोलूँ तब तक चारों आहार का त्याग करता हूँ ।
१ - 'गंठिसहियं, मुट्ठिसहियं' आदि सांकेतिक प्रत्याख्यान पाठ में 'महत्तरागारेणं सव्वसमाहिबत्तियागारेणं' ये दो आगार अधिक बोलने चाहिएँ । यह सांकेतिक प्रत्याख्यान अन्य समय में भी किया जा सकता
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प्रख्यान-सूत्र
नमस्कारिका चतुर्विधाहार-त्यागरूप होती है या त्रिविधाहारत्यागरूप ? इस प्रश्न के सम्बन्ध में यह वक्तव्य है कि नमस्कारिका चतुविधाहार त्यागरूप ही होती है । नमस्कारिका का कालमान एक मुहूर्तभर ही होता है, अतः वह अल्पकालिक होने से चतुर्विधाहार त्यागरूप ही है। प्राचीन परंपरा भी ऐसी ही है । 'चतुर्विधाहारस्यैव भवतीति वृद्धसम्प्रदायः----प्रवचन सारोद्धार वृत्ति ।
नमस्कारिका में दो श्रागार माने गए हैं-अनाभोग और सहसाकार। आजकल के कुछ विद्वान, अपने प्रतिक्रमण सूत्र में, नौकारसी के चार या पाँच भागार भी लिखते हैं, परन्तु यह लेख परंपरा-विरुद्ध है। प्राचीन श्राचार्य हेमचन्द्र आदि, दो ही श्रागार बतलाते हैं-'नमस्कारसहिते प्रत्याख्याने द्वौ आकारी भवतः' ----योग शास्त्र, तृतीय प्रकाश वृत्ति । ___ प्राचार्य भद्रबाहु स्वामी ने भी नमस्कारिका के दो ही श्रागार माने हैं-'दो चेव नमोक्कारे । श्रावश्यक नियुक्ति, गाथा १५६६ ।
है, अतः जब कभी अन्य समय में किया जाय, तब 'उग्गए सूरे यह अंश नहीं बोलना चाहिए।
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(२)
पौरुषी-सूत्र उग्गर सूरे पोरिसिं पञ्चमवामि; चउब्धिहं पि आहारअसणं, पाणं, खाइमं, साइमं ।
अन्नत्थ-ऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, सव्यसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि ।
भावाथ पौरुषी का प्रत्याख्यान करता हूँ । सूर्योदय से लेकर प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम चारों ही अाहार का प्रहर दिन चढ़े तक त्याग करता हूँ।
अनाभोग, सहसाकार, प्रच्छन्नकाल, दिशामोह, साधु वचन, सर्वसमाधिप्रत्ययाकार-उक्त छहों श्राकारों के सिवा पूर्णतया चारों पाहार का त्याग करता हूँ।
विवेचन सूर्योदय से लेकर एक पहर दिन चढ़े तक चारों प्रकार के श्राहार का त्याग करना, पौरुषी प्रत्याख्यान है। पौरुषी का शाब्दिक अर्थ है-- 'पुरुष प्रमाण छाया ।' एक पहर दिन चढ़ने पर मनुष्य की छाया
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पौरुपी सूत्र
३०६
घटते घटते अपने शरीर प्रमाण लंत्री रह जाती है । इसी भाव को लेकर पौरुषी शब्द प्रहर परिमित काल विशेष के अर्थ में लक्षणा के द्वारा रूढ़ हो गया है ।
साधक कितना ही सावधान हो; परन्तु ग्राखिर वह एक साधारण छद्मस्थ व्यक्ति है । अतः सावधान होते हुए भी बहुत बार व्रत पालन में भूल हो जाया करती है । प्रत्याख्यान की स्मृति न रहने से अथवा अन्य किसी विशेष कारण से व्रतपालन में बाधा होने की संभावना है । ऐसी स्थिति में व्रत खण्डित न हो, इस बात को ध्यान में रखकर प्रत्येक प्रत्याख्यान में पहले से ही संभावित दोषों का श्रागार, प्रतिज्ञा लेते समय ही रख लिया जाता है । पोरिसी में इस प्रकार के छह ग्रागार हैं :( १ ) अनाभोग - प्रत्याख्यान की विस्मृति हो जाने से भोजन कर
लेना ।
( २ ) सहसाकार - - अकस्मात् जल आदि का मुख में चले जाना । (३) प्रच्छन्नकाल - बादल अथवा बाँधी आदि के कारण सूर्य के ढँक जाने से पोरिसी पूर्ण हो जाने की भ्रान्ति हो जाना ।
( ४ ) दिशा मोह - पूर्व को पश्चिम समझ कर पोरिसी न आने पर भी सूर्य के ऊँचा चढ़ आने की भ्रान्ति से अशनादि सेवन कर लेना ।
(२) साधुवचन - 'पोरिसी या गई' इस प्रकार किसी प्राप्त पुरुष के कहने पर विना पोरिसी आए ही पोरिसी पार लेना ।
( ६ ) सर्व समाधिप्रत्ययाकार - किसी आकस्मिक शूल यादि तीव्र रोग की उपशान्ति के लिए औषधि आदि ग्रहण कर लेना ।
‘सर्व समाधि प्रत्ययाकार' एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण श्रागार है 1 जैन संस्कृति का प्राण स्याद्वाद है और वह प्रस्तुत श्रागार पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है । तप बड़ा है या जीवन ? यह प्रश्न है, जो दार्शनिक क्षेत्र में गंभीर विचार चर्चा का क्षेत्र रहा है। कुछ दार्शनिक तप को महत्त्व देते हैं तो कुछ जीवन को ? परन्तु जैन दर्शन
तप को भी महत्व
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३१०
श्रमण-सूत्र
देता है और जीवन को भी ! कभी ऐसी स्थिति होती है कि जीवन की अपेक्षा तप महत्त्वपूर्ण होता है। कभी क्या, तप सदा ही महत्त्वपूर्ण है ! जीवन किसके लिए है ? तप के लिए ही तो जीवन है। परन्तु कभी ऐसी भी स्थिति हो सकती है कि तप को अपेक्षा जीवनरक्षा अधिक आवश्यक हो जाती है । तप जीवन पर ही तो आश्रित है। जीवन रहेगा तो कभी फिर भी तपः साधना की जा सकेगी। यदि जीवन ही न रहेगा तो, फिर तप कब और कैसे किया जा सकेगा ? "जीवनरो भद्रशतानि पश्येत् ।' ।
सर्वसमाधिप्रत्यय नामक प्रस्तुत प्रागार, इसी उपर्युक्त भावना को लेकर अग्रसर होता है । तपश्चरण करते हुए यदि कभी आकस्मिक विसूचिका या शूल आदि का भयंकर रोग हो जाय, फलतः जीवन संकट में मालूम पड़े तो शीघ्र ही औषधि आदि का सेवन किया जा सकता है। जीवन क्षति के विशेष प्रसंग पर प्रत्याख्यान होते हुए भी औषधि आदि सेवन कर लेने से जैन धर्म प्रत्याख्यान का भंग होना स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार के विकट प्रसंगों के लिए पहले से ही छूट रक्खी जाती है, जिसके लिए जैन-धर्म में श्रागार शब्द व्यवहृत है। जैन धर्म में तप के लिए अत्यन्त श्रादर का स्थान है, परन्तु उसके लिए व्यर्थं का मोह नहीं है। जैन धर्म के क्षेत्र में विवेक का बहुत बड़ा महत्त्व है। तप के हठ में अड़े रहकर औषधि सेवन न करना और व्यर्थ ही अनमोल मानव जीवन का संहार कर देना, जैन धर्म की दृष्टि में कथमपि उचित नहीं है । व्यर्थ का दुराग्रह रखने से आर्त और रौद्र दुर्ध्यान की संभावना है, जिनके कारण कभी कभी साधना का मूल ही नष्ट हो जाता है। अतः श्राचार्य सिद्धसेन की गंभीर वाणी में कहें तो औषधि का सेवन जीवन के लिए नहीं, अपितु प्रार्त रौद्र दुर्ध्यान की निवृत्ति के लिए आवश्यक है।
अपने को भयंकर रोग होने पर ही औषधि सेवन करना, यह बात नहीं है। अपितु किसी अन्य के रोगी होने पर यदि कभी वैद्य आदि को सेवाकार्य एवं सान्त्वना देने के लिए भोजन करना पड़े तो उसका भी प्रत्याख्यान में आगार होता है। जैन धर्म अपने समान ही दूसरे की
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पौरुषी सूत्र
३११ समाधि का भी विशेष ध्यान रखता है । इस सम्बन्ध में प्राचार्य सिद्धसेन का अभिप्राय मनन करने योग्य है :
-"कृतपौरुषीप्रत्या यानस्य सहसा सञ्जाततीव्रशूलादिदुःखतया समुत्पन्नयोरातरौद्रध्यानयोः सर्वधा निरासः सर्वसमाधिः, स एव भाकार:-प्रत्या ज्यानापवादः सर्वसमाविप्रत्यय कारः । पौरुष्याम पूर्णागामप्यकस्मात् शूलादिव्यथायां समुत्पन्नायां तदुपशमनायौषधपथ्यादिके भुञानस्य न प्रत्या' यानभा इति भावः । वैद्यादिर्वा कृतपौरुषीप्रत्याख्यानोऽन्यस्यातुर त्य समाधिनिमित्त यदाऽपूर्णायामपि पौरुष्यां भुक क्ते तदा न भङ्गः । अर्धभुक्ते त्वातुरस्य समाशे मरण वोत्पन्ने सति तथैव भोजनत्यागः ।".--प्रवचनसारोद्धार वृत्ति । ___ अाचार्य जिनदास ने भी आवश्यक चूणि' में ऐसा ही कहा है'समाधी णाम तेण य पोरुसी पच्चक्खाता, श्रासुक्कारियं च दुक्खं उप्पन्नं तस्स अन्नरस वा, ते किंचि कायव्वं तस्स, ताहे परो विज्जे (हवे) जा तस्स वा पसमणणिमित्त पाराविजति प्रोसहं वा दिजति ।
___ यही पाठ अपनी यावश्यक वृत्ति में प्राचार्य हरिभद्र ने उद्धृत किया है।
प्राचार्य तिलक लिखते हैं----'तीव्रशूलादिना विह्वलस्य समाधिनिमित्तमौषधपथ्यादिप्रत्ययः कारण स एव श्राकारः ।'
प्राचार्य नमि भी कहते हैं-'समाधिः स्वास्थ्यं तत्प्रत्ययाकारण, यथा कस्यचित् प्रत्यार यातुरन्यस्य वा किमप्यातुरं दुःखमुत्पन्नं तदुपशमहेतोः पार्यते ।
प्रच्छन्नकाल, दिशामोह अोर साधुवचन उक्त तीनों प्रागारों का यह अभिप्राय है कि-भ्रान्ति के कारण पौरुषी पूर्ण न होने पर भी पूर्ण समझ कर भोजन कर लिया जाय तो कोई दोष नहीं होता। यदि भोजन करते समय यह मालूम हो जाय कि अभी पौरुषी पूर्ण नहीं हुई है तो
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३१२
श्रमण-सूत्र
उसी समय भोजन करना छोड़ देना चाहिए । पौरुषी अपूर्ण जानकर भी भोजन करता रहे तो प्रत्याख्यान भंग का दोष लगता है। ___ पौरुषी के समान ही सार्ध पौरुपी का प्रत्याख्यान भी होता है। इसमें डेढ़ पहर दिन चढ़े तक अाहार का त्याग करना होता है । अस्तु, जब उक्त सार्ध पौरुषी का प्रत्याख्यान करना हो तब 'पोरिसिं' के स्थान पर 'साढ पोरिसिं' पाट कहना चाहिए।
आज कल के कुछ लेखक पौरुषी के पाट में 'महत्तरागारेणं' का पाठ बोलकर छह की जगह सात अागार का उल्लेख करते हैं; यह भ्रान्ति पर अवलम्बित हैं । हरिभद्र श्रादि प्राचार्यों की प्राचीन परंपरा, पौरुषी में केवल छह ही अागार मानने की है । __ साधु सशक्त हो तो उसे पौरुषी आदि चउविहार ही करने चाहिएँ । यदि शक्ति न हो तो तिविहार भी कर सकता है। परन्तु दुविहार पौरुषी कदापि नहीं कर सकता। हाँ, श्रावक दुविहार भी कर सकता है। इसके लिए प्राचार्य देवेन्द्र कृत श्राद्ध प्रतिक्रमण वृत्ति देखनी चाहिए।
यदि पौरुषी तिविहार करनी हो तो 'तिवि हं पि श्राहारं असणं, खाइम, साइमं पाठ बोलना चाहिए । यदि श्रावक दुविहार पौरुषी करे तो 'दुविहंपि माहारं असणं खाइमं ऐसा पाट बोलना चाहिए।
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( ३ )
पूर्वार्ध-सूत्र उग्गए सूरे, पुरिमड्ढे पच्चक्खामि; चउनिहं पि श्राहारं-असणं, पाणं, खाइन, साइमं । ___अन्नत्थ-ऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सबसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि।
भावार्य सूर्योदय से लेकर दिन के पूर्वार्ध तक अर्थात् दो प्रहर तक चारों आहार अशन, पान, खादिम, स्वादिम का प्रत्याख्यान करता हूँ।
अनाभोग, सहसाकार, प्रच्छन्नकाल, दिशामोह, साधुवचन, महत्तराकार और सर्वसमाधिप्रत्ययाकार-उक्त सात श्रागारों के सिवा पूर्णतया श्राहार का त्याग करता हूँ।
विवेचन यह पूर्वार्ध प्रत्याख्यान का सूत्र है। इसमें सूर्योदय से लेकर दिनके पूर्व भाग तक अर्थात् दो पहर दिन चढ़े तक चारों अाहार का त्याग किया जाता है।
प्रस्तुत प्रत्याख्यान में सात प्रागार माने गए हैं । छह तो पूर्वोक्त
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३१४
श्रमण-सूत्र
पौरुषी के ही श्रागार हैं, सातवाँ अागार 'महत्तराकार' है । महत्तराकार का अर्थ है-विशेष निर्जग अादि को ध्यान में रखकर रोगी आदि की सेवा के लिए अथवा श्रमण संघ के किसी अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए गुरुदेव आदि महत्तर पुरुष की अाज्ञा पाकर निश्चित समय के पहले ही प्रत्याख्यान पार लेना । प्राचार्य सिद्धसेन इस सम्बन्ध में कितना सुन्दर स्पष्टीकरण करते हैं-'महत्तरं-प्रत्याख्यानपालनवशाल्लभ्यनिर्जरापेक्षया बृहत्तरनिर्जरालाभहेतु भूतं, पुरुषान्तरेण साधयितुमशक्यं ग्लानचैत्यसंघादि प्रयोजनं, तदेव श्राकारः-प्रत्याख्यानापवादो महतराकारः ।" प्राचार्य नमि भी प्रतिक्रमण-सूत्र वृत्ति में लिखते हैं-"अतिशयेन महान् महत्तर प्राचार्यादिस्तस्य वचनेन मर्यादया करणं महत्तराकारो, यथा केनापि साधुना भक्तं प्रत्याख्यातं, तत कुज-गण-संघादि प्रयोजनमनन्यसाध्यमुत्पनं, तत्र चासौ महत्तरैराचार्याधैर्नियुक्तः, ततर यदि शक्नोति तथैव कर्नु तदा करोति; अथ न, तदा महत्तरका देशेन भुञानस्य न भङ्गः इति ।"
पाठक महत्तराकार के प्रागार पर जरा गंभीरता से विचार करें । इस अागार में कितना अधिक सेवाभाव को महत्त्व दिया गया है ? तपश्चरण करते हुए यदि अचानक ही किसी रोगी अादि की सेवा का महत्त्वपूर्ण कार्य श्रा जाय तो व्रत को बीच में ही समाप्त कर सेवा कार्य करने का विधान है । यदि तपस्वी सशक्त हो, फलतः तप करते हुए भी सेवा कर सके तो बात दूसरी है । परन्तु यदि तपस्वी समर्थ न हो तो उसे तर को बीच में ही छोड़कर, यथावसर भोजन करके सेवा कार्य में संलग्न हो जाना चाहिए । तप के फेर में पड़कर सेवा के प्रति उपेक्षा कर देना, जैनधर्म की दृष्टि में क्षम्य नहीं है । सेवा तप से भी महान् है । अनशन आदि बहिरंग तप है तो सेवा अन्तरंग तप है। बहिरंग की अपेक्षा अन्तरंग तप महत्तर है । 'प्रसिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग ।'
श्राचार्य हरिभद्र ने आवश्यक सूत्र की शिष्यहिता वृत्ति में, प्राचार्य • जिनदास की आवश्यक चूणि के आधार पर लिखा है :
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३१५
पूर्वार्ध-सूत्र --"महत्तरा गारेहि-महल्ल पयोयणेहि, तेण भत्तट्ठो पचक्खातो, ताथे श्रायरिएहिं भएणति-अमुगं गामं गंतव्व । तेण निवेदितं-जथा मम अज अभट्ठोत्त । जति ताव समत्थो करेतु जातु य । न तरति अएणो भराद्वितो अभत्तट्टितो वा जो तरति सो वच्चतु । नत्थि अण्णो तस्स वा कन्जस्स समथो ताथे चेव अभराट्ठियस्स गुरू विसजयन्ति । एरिस्स तं जेमंतस्स प्रणभिलासत्स अभाट्टितणिजरा जा सा से भवति गुरुणिोएण।"
प्राचार्य जिनदास आवश्यक चूर्णिं के प्रत्याख्यानाधिकार में प्रस्तुत महत्तरागार पर लिखते हैं-'एवं किर तस्स तं जेमंतस्स वि अण भिलासस्स श्रभाट्ठियस्स गिजरा जा सच्चेव पता भवति गुरुनिश्रोएणं ।'
दोनों ही प्राचार्यों का यह कथन है कि यदि तपस्वी साधक को किसी विशेष सेवा कार्य के लिए उपवास प्रादि अभक्तार्थ में भी भोजन कर लेना पड़े तो कोई दोष नहीं होता है । अपितु भोजन करते हुए भी उपवास जैसी ही निर्जरा होती है । क्योंकि भोजन करते हुए भी उसकी भोजन में अभिलाषा नहीं है !
महत्तराकार, नमस्कारिका और पौरुषी में नहीं होता है | क्योंकि उनका काल अल्म है, अतः वह पूर्ण करने के बाद भी निर्दिष्ट सेवा कार्य किया जा सकता है। यच्चात्रैव महत्तराऽऽकार ज्याभिधानं न नमस्कारसहितादौ तत्र कालस्याल्पत्वं, अन्यत्र तु महवं कारण मिति वृद्धा व्याचक्षते ।' -प्रवचन सारोद्धार वृत्ति ।
पूर्वार्धं प्रत्याख्यान के समान ही अवार्ध प्रत्याख्यान भी होता है। अपार्द्ध प्रत्याख्यान का अर्थ है-तीन पहर दिन चढ़े तक अाहार ग्रहण न करना । अपार्द्ध प्रत्याख्यान ग्रहण करते समय 'पुरिमड्द' के स्थान में 'अवड्द' पाठ बोलना चाहिए । शेष पाठ दोनों प्रत्याख्यानों का समान है।
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एकाशन-सूत्र एगासणं पच्चक्खामि तिविहं पि आहारं असणं, खाइम, साइमं ।
अन्नत्थ-ऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारियागारेणं, आउंटण पसारणेण, गुरु अब्भुट्ठाणेण, पारिट्ठावणियागारेण', महत्तरागारेण, सव्वसमाहिवत्तियागारेण वोसिरामि।
भाव.थ ___ एकाशन तप स्वीकार करता हूँ; फलतः अशन, खादिम, स्वादिम तीनों आहारों का प्रत्याख्यान करता हूँ।
अनाभोग, सहसाकार, सागारिकाकार, श्राकुञ्चनप्रसारण,गुर्वभ्युत्थान, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार, सव-समाधिप्रत्ययाकार-उक्त पाठ श्रागारों के सिवा पूर्णतया श्राहार का त्याग करता हूँ।
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एकाशन-सूत्र
विवेचन पौरुषी या पूर्वार्द्ध के बाद दिन में एक बार भोजन करना, एकाशन सप होता है । एकाशन का अर्थ है- 'एक + अशन, अर्थात् दिन में एकबार भोजन करना ।' यद्यपि मूल पाठ में यह उल्लेख नहीं है कि--- 'दिन में किस समय भोजन करना ।' फिर भी प्राचीन परंपरा है कि कम से कम एक पहर के बाद ही भोजन करना चाहिए । क्योंकि एकाशन में पौरुषीतप अन्तनिहित है।
प्रत्याख्यान, गृहस्थ तथा श्रावक दोनों के लिए समान ही हैं । अत. एव गृहस्थ तथा साधु दोनों के लिए एकाशन तप में कोई अन्तर नहीं माना जाता है। हाँ गृहस्थ के लिए यह ध्यान में रखने की बात है कि'वह एकाशन में अचित्त अर्थात् प्रासुक आहार पानी ही ग्रहण करे।' साधु को तो यावज्जीवन के लिए अप्रासुक आहार का त्याग ही है । .---'एगासण' प्राकृत-शब्द है, जिसके संस्कृत रूपान्तर दो होते हैं 'एकाशन' और 'एकासन ।' एकाशन का अर्थ है-एक बार भोजन करना, और एकासन का अर्थ है-एक आसन से भोजन करना । 'एगासण' में दोनों ही अर्थ ग्राह्य हैं । 'एक सकृत् अशनं भोजनं एक घा आसनं----पुताचलनतो यत्र प्रत्यायाने तदेकाशनमेकासनं वा, प्राकृते द्वयोरपि एगासणमिति रूपम् ।-प्रवचनसारोद्वार वृत्ति ।
आचार्य हरिभद्र एकासन की व्याख्या करते हैं कि एक बार बैठकर फिर न उठते हुए भोजन करना । 'एकाशनं नाम सकृदुपविष्ट पुता चाल नेन भोजनम् ।' -अावश्यक वृत्ति' । ___ प्राचार्य जिनदास कहते हैं--एगासण में पुत = नितंब भूमि पर लगे रहने चाहिएँ, अर्थात् एक बार बैठकर फिर नहीं उठना चाहिए । हाँ, हाथ और पैर आदि आवश्यकतानुसार श्राकुञ्चन प्रसारण के रूप में हिलाए-डुलाए जा सकते हैं । 'एगासणं नाम पुता भूमीतो न चालिङ्गति, सेसाणि हत्थे पायाणि चालेजावि ।'-श्रावश्यक चूर्णि
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३१८
श्रमण-सूत्र
श्रावक अर्थात् गृहस्थ के लिए पारिट्ठावणियागार' नहीं होता; अतः उसे मूल पाठ बोलते समय 'पारिट्ठावणियागारेणं' नहीं बोलना चाहिए।' ___ एकाशन के समान ही द्विकाशन का भी प्रत्याख्यान होता है । द्विकाशन में दो बार भोजन किया जा सकता है । द्विकाशन करते समय मूल पाठ में 'एगास' के स्थान में 'वियासर्ण' बोलना चाहिए ।
एकाशन और द्विकाशन में भोजन करते समय तो यथेच्छ चारों आहार लिए जा सकते हैं; परन्तु भोजन के बाद शेष काल में भोजन का त्याग होता है। यदि एकाशन तिविहार करना हो तो शेष काल में पानी पिया जा सकता है। यदि चउविहार करना हो तो पानी भी नहीं पिया जा सकता। यदि दुविहार करना हो तो भोजन के बाद पानी तथा स्वादिम = मुखवास लिया जा सकता है। आजकल तिविहार एकाशन की प्रथा ही अधिक प्रचलित है, अतः हमने मूल पाठ में 'तिविहं' पाठ दिया है। यदि चउविहार करना हो तो 'चडविहं पि श्राहारं असणं
१ गृहस्थ के प्रत्याख्यान में 'पारिट्ठावणियागार' का विधान इस लिए नहीं है कि गृहस्थ के घर में तो बहुत अधिक मनुष्यों के लिए भोजन तैयार होता है। इस स्थिति में प्रायः कुछ न कुछ भोजन के बचने की संभावना रहती ही है। अस्तु, गृहस्थ यदि पारिहापणियागार करे तो कहाँ तक करेगा ? और क्या यह उचित भी होगा ?
. दूसरी बात यह है कि गृहस्थ के यहाँ भोजन बच जाता है तो वह रख लिया जाता है, परठा नहीं जाता है। और उसका अन्य समय पर उचित उपयोग कर लिया जाता है । - साधु की स्थिति इससे भिन्न है। वह अवशिष्ट भोजन को, यदि अागे रात्रि आ रही हो तो रख नहीं सकता है, परठता ही है । अतः उस समय तपस्वी मुनि, यदि परिष्ठाप्य भोजन का उपयोग कर ले तो कोई दोष नहीं है।
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एकाशनसूत्र
३१६ पाण खाइमं साइमं बोलना चाहिए। यदि दुविहार करना हो त 'दुविहपि श्राहारं असण खाइम' बोलना चाहिए ।
दुविहार एकाशन की परंपरा प्राचीन काल में थी, परन्तु आज के युग में नहीं है।
एकासनमें अाठ आगार होते हैं । चार श्रागार तो पहले श्रा ही चुके हैं, शेष चार श्रागार नये हैं । उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है:
(१) सागारिकाकार-छागम की भाषा में सागारिक गृहस्थ को कहते हैं। गृहस्थ के अा जाने पर उसके सम्मुख भोजन करना निषिद्ध है । अतः 'सागारिक के आने पर साधु को भोजन करना छोड़कर यदि बीच में ही उठकर, एकान्त में जाकर पुनः दूसरी बार भोजन करना पड़े तो व्रत-भङ्ग का दोष नहीं लगता ।
गृहस्थ के लिए सागारिक का अर्थ है--वह लोभी एवं क्रूर व्यक्ति, जिसके अाने पर भोजन करना उचित न हो। अस्तु क्रूर दृष्टि वाले
१ प्राचार्य जिनदास ने अावश्यक चूर्णि में लिखा है कि आगन्तुक गृहस्थ यदि शीघ्र ही चला जाने वाला हो तो कुछ प्रतीक्षा करनी चाहिए, सहसा उठकर नहीं जाना चाहिए | यदि गृहस्थ बैठने वाला है, शीघ्र ही नहीं जाने वाला है, तब अलग एकान्त में जाकर भोजन से निवृत्त हो लेना चाहिए । व्यर्थ में लम्बी प्रतीक्षा करते रहने में स्वाध्याय आदि की हानि होती है । 'सागारियं श्रद्धसमुदिट्टस्स श्रागतं जदि बोलेति पडिच्छति, अह थिरं ताहे सज्झायवाघातो त्ति उदृत्ता अन्नत्थ गंतूणं समुद्दिसति ।'
सर्प और अग्नि आदि का उपद्रव होने पर भी अन्यत्र जाकर भोजन किया जा सकता है । सागारिक शब्द से सर्पादि का भी ग्रहण है।
२ जैन धर्म छुवाछूत के चक्कर में नहीं है । अतएव 'सागारिका कार' का यह अर्थ नहीं है कि कोई अछूत या नीची जाति का व्यक्ति श्रा जाय तो भोजन छोड़कर भाग खड़ा होना चाहिए । साधु के लिए
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३२०
श्रमण-सूत्र
व्यक्ति के आ जाने पर प्रस्तुत भोजन को बीच में ही छोड़कर एकान्त में जाकर पुनः भोजन करना हो तो कोई दोष नहीं होता । 'गृहस्थस्यापि येन दृष्टं भोजनं न जीर्यति तत्प्रमुखः सागारिको ज्ञातव्यः ।" -प्रवचनसारोद्धार वृत्ति ।
(२) श्राकुञ्चनप्रसारण - भोजन करते समय सुन्न पड़ जाने आदि के कारण से हाथ, पैर आदि अंगों का सिकोड़ना या फैलाना । उपलक्षण से ग्राकुञ्चन प्रसारण में शरीर का आगे-पीछे हिलाना-डुलाना भी आ जाता है ।
(३) गुर्वभ्युत्थान- गुरुजन एवं किसी अतिथि विशेष के श्राने पर उनका विनय सत्कार करने के लिए उठना, खड़े होना ।
प्रस्तुत श्रागार का यह भाव है कि गुरुजन एवं अतिथिजन के आने पर अवश्य ही उठ कर खड़ा हो जाना चाहिए । उस समय यह भ्रान्ति नहीं रखनी चाहिए कि 'एकासन में उठकर खड़े होने का विधान नहीं है । अतः उठने और खड़े होने से व्रतभंग के कारण मुझे दोप लगेगा ।" गुरुजनों के लिए उठने में कोई दोष नहीं है, इस से व्रतभंग नहीं होता, प्रत्युत विनय तपकी श्राराधना होती है । आचार्य सिद्धसेन लिखते हैं गुरूणामभ्युत्थानात्वादवश्यं भुञ्जानेनाऽप्युस्थानं कर्तव्यमिति न तत्र प्रत्याख्यान – भङ्गः । - प्रवचन सारोद्धार वृत्ति ।
जैनधर्म विनय का धर्म है। जैनधर्म का मूल ही विनय है । विश जिणसासणमूर्ल' की भावना जैन धर्म की प्रत्येक छोटी बड़ी साधना में रही हुई है । जैन धर्म की सभ्यता एवं शिष्टाचार सम्बन्धी
I
महत्ता के
उसे
तो ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सभी गृहस्थ एक जैसे हैं, तो किसी के सामने भी भोजन नहीं करना है । अव रहा गृहस्थ, वह भी क्रूर दृष्टि वाले व्यक्ति के आने पर भोजन छोड़कर फिर भले वह क्रूर दृष्टि ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, में जात-पाँत के नाम पर उठकर जाने का विधान नहीं है ।
अन्यत्र जा सकता है,
कोई भी हो । एकाशन
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एकाशन-सूत्र
३२१
लिए प्रस्तुत आगार ही पर्याप्त है। मुनि और गृहस्थ दोनों के लिए ही यह मुभक्ति एवं अतिथि भक्ति का उच्च आदर्श अनुकरणीय है ।
(४) पारिष्ठापनिकाकार जैन मुनि के लिए विधान है कि वह अपनी श्रावश्यक क्षुधापूर्त्यर्थं परिमित मात्रा में ही आहार लाए, अधिक नहीं । तथापि कभी भ्रान्तिवश यदि किसी मुनि के पास आहार अधिक ना जाय और वह परठना डालना पड़े तो उस आहार को गुरुदेव की आज्ञा से तपस्वी मुनि को ग्रहण कर लेना चाहिए । गृहस्थ के यहाँ से आहार लाना और उसे डालना, यह भोजन का अपव्यय है । भोजन समाज र राष्ट्र का जीवन है, अतः भोजन का अपव्यय सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन का अपव्यय है ।
आचार्य सिद्धसेन परिष्ठापन में दोष मानते हैं और उसके ग्रहण कर लेने में गुण | "परिस्थापनं सर्वथा त्यजनं प्रयोजनमस्य पारिष्ठापनिक, तदेव कारस्तस्मादन्यत्र तत्र हि त्यज्यमाने बहुदोषसम्भवरश्रीयमाणे चागमिकन्यायेन गुणसम्भवाद् गुर्वाज्ञया पुनर्भु आनस्थापि व भङ्गः ।" - प्रवचन सारोद्धार वृत्ति |
( ५ )
एकस्थान - सूत्र
एक्कास एगद्वाणं पच्चक्खामि, तिविहं पि आहारयसरी, खाइमं साइमं ।
अन्नत्थ- णाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारियागारेणं, गुरुप्रभुट्टा, पारिट्ठावणियागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेण वोसिरामि ।
महत्तरामारेणं,
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श्रमण-सूत्र
भावार्थ
एकाशनरूप एकस्थान का व्रत ग्रहण करता हूँ; फलतः अशन, स्वादिम और स्वादिम तीनों आहार का प्रत्याख्यान करता हूँ ।
अनाभोग, सहसाकार, सागारिकाकार, गुर्वभ्युत्थान, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार और सर्वसमाधि- प्रत्ययाकार - उक्त सात श्रागारों के सिवा पूर्णतया श्राहार का त्याग करता हूँ ।
विवेचन
यह एकस्थान प्रत्याख्यान का सूत्र है । एक स्थानान्तर्गत 'स्थान' 'शब्द 'स्थिति' का वाचक है । अतः एक स्थान का फलितार्थ है- 'दाहिने हाथ एवं मुख के अतिरिक्त शेष सब अंगों को हिलाए विना दिन में एक ही आसन से और एक ही बार भोजन करना । अर्थात् भोजन प्रारंभ करते समय जो स्थिति हो, जो अंगविन्यास हो, जो ग्रासन हो, उसी स्थिति, अंगविन्यास एवं आसन से बैठे रहना चाहिए ।"
श्राचार्य जिनदास ने आवश्यक चूर्णि में एक स्थान की यही परिभाषा की है - 'एकट्ठाण े जं जथा अंगुवंगं ठवियं तहेव समुदिसितव्वं, आगारे से श्रापसारण नत्थि, सेसा सत्त तहेव ।'
श्राचार्य सिद्धसेन भी प्रवचन सारोद्वार की वृत्ति में ऐसा ही लिखते हैं' एक अद्वितीयं स्थानं-अङ्गविन्यासरूपं यत्र तदेकस्थान प्रत्याख्यानं तद् यथा भोजनकालेऽङ्गोपाङगं स्थापितं तस्मिंस्तथा स्थित एक भोकव्यम् ।' प्रवचन सारोद्धार वृत्ति /
एक स्थान की अन्य सत्र विधि 'एगासरण' के समान है । केवल हाथ, पैर आदि के आकुंचन-प्रसारण का आगार नहीं रहता । इसी लिए प्रस्तुत पाठ में 'उंटण पसारणेणं' का उच्चारण नहीं किया जाता । 'उंटसारण नत्थि, सेसं जहा एक्कासणाए ।' हरिभद्रीय श्राव
श्यक वृत्ति ।
प्रश्न है कि जब एक स्थान प्रत्याख्यान में 'आउट पसारखा' का
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एक स्थान-सूत्र
प्रागार नहीं है, तब हाथ और मुख का चालन भी कैसे हो सकता है ? समाधान है कि एक स्थान में एक बार भोजन करने का विधान है।
और भोजन हाथ तथा मुख की चलन-क्रिया के बिना अशक्य है। अतः अशक्य-परिहार होने से दाहिने हाथ और मुख की चलन क्रिया अप्रतिषिद्ध है। 'मुखस्य हस्तस्य च अशक्यपरिहारत्वाञ्चलनमप्रतिषिद्धमिति ।।
-प्रवचन सारोद्धार वृत्ति । एक स्थान भी चतुर्विधाहार, त्रिविधाहार, एवं द्विविधाहार रूप से अनेक प्रकार का है । वर्तमान परंपरा के अनुसार हमने केवल त्रिविधाहार ही मूल पाठ में रक्खा है। यदि चतुर्विधाहार श्रादि करने हों तो एकाशन के विवेचन में कथित पद्धति के अनुसार पाठ-भेद करके किए जा सकते हैं। ___एक स्थान का महत्त्व तपश्चरण की दृष्टि से तो है ही; परन्तु शरीर की चंचलता हटा कर एकाग्र मनोवृत्ति से भोजन करने का और अधिक महत्त्व है। शरीर को निःस्पन्द-सा बना कर और तो क्या खाज भी न खुजला कर काय गुप्ति के साथ भोजन करना सहज नहीं है। ऐसी स्थिति में भोजन भी कम ही किया जाता है। - 'एक स्थान के प्रत्याख्यान पर से फलित होता है कि साधक को प्रत्येक क्रिया सावधानी के साथ संयम पूर्वक करनी चाहिए । संयम पूर्वक भुजिक्रिया करते हुए भी जीवन शुद्धि का मार्ग प्रशस्त बन सकता है और तप की आराधना हो सकती है।
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श्रमशा-सूत्र
आचाम्ल-सूत्र आयंबिलं पच्चक्खामि, अन्नत्थऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, उक्खित्तविवेगेणं, गिहि-संसट्टणं, पारिठ्ठावणियामारेणं, महत्तरागारेणं, सबसमाहिवत्तियामारणं कोसिरामि।
___ भावार्थ श्राज के दिन आयंबिल अर्थात् प्राचाम्ल तप ग्रहण करता हूँ। अनाभोग, सहसाकार, लेपालेप, उत्क्षिप्त विवेक, गृहस्थसंसृष्ट, प. रिठापनिककार, महत्तराकार, सर्व समाधिप्रत्ययाकार-उक्त पाठ प्राकार अर्थात् अपधादों के अतिरिक्त पानाचाम्ल अहार का त्याग करता हूँ।
विवेचन यह प्राचाम्ल प्रत्याख्यान का सूत्र है। प्राचाम्स व्रत में दिन में एक बर.. रुक्ष, नीरस एवं विकृतिरहित एक आहार ही ग्रहण किया जाता है । दूध, दही, घी, तेल, गुड़, शक्कर, मीठा और पक्वान्न आदि किसी भी प्रकार का स्वादु भोजन, प्राचाम्ल व्रत में ग्रहण नहीं किया जा सकता । अतएव प्राचीन श्राचार ग्रन्थों में चावल, उड़द अथवा सत्तू आदि में से किसी एक के द्वारा ही प्राचाम्ल करने का विधान है।
१-आचार्य हरिभद्र एवं प्रवचनसारोद्वार के वृत्तिकार प्राचार्य सिद्धसेन आदि उपरिनिर्दिष्ट पाठ का ही उल्लेख करते हैं । परन्तु कुछ हस्तलिखित एवं मुद्रित प्रतियों में पच्चक्खामि के आगे चौविहार के रूप में असणं, पाणं, खाइम, साइमं तथा तिविहार के रूप में असणं, खाइम, साइमं पाठ भी लिखा मिलता है ।
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याचाम्ल-सूत्र
३२५
श्राचार्य भद्रबाहु स्वामी ने श्रावश्यक नियुक्ति में लिखा है-- "गोरणं नामं तिविहं, पोषण कुम्मास सत्तुमा चेव "..-गाथा १६०३ ॥
प्राचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत गाथा पर व्याख्या करते हुए आवश्यकवृत्ति में लिखा है-'प्रायामाम्लमिति गोगों नाम । प्राधामः-अचजायनं अम्लं चतुर्थरसः, ताभ्यां नितं श्राबामाम्लम् । इदं योष चिभेदात् विविधं भवति, श्रोदनः, कल्माष.:, सक्तव व . ___ आयंबिल प्राकृत भाषा का शब्द है। प्राचार्य हरिभद्र इसके संस्कृत रूपान्तर अायामाम्ल, प्राचामाम्ल और अाचाम्ल करते हैं । __श्राचार्य सिद्धसेन आचाम्ल और आचामाम्ल रूपों का उल्लेख करते हैं। प्राचामाम्ल की व्याख्या करते हुए श्राप लिखते हैं'प्राचामः-'अचमणं अम्ल चतुर्थो रसः, ताभ्व वित्तमित्यण । एतच्च त्रिविधं उपधिभेदात्, तद्यथा-मोदनं कुल्माषान् सक्चूच अधिकृत्य भवति ।'--प्रवचनसारोद्धार वृत्ति ।।
प्राचार्य देवेन्द्र श्राद्ध प्रतिक्रमण वृत्ति में लिखते हैं.--'मायामोऽधश्राव अम्लं चतुर्थो स्सः, एते व्याने प्रायो यन्त्र भोजने प्रोदन कुल्माषसक्तुप्रभृतिके तदाचाम्लं समयभाषयोच्यते ।
एकाशन और एक स्थान की अपेक्षा प्रायबिल का महत्त्व अधिक है । एकाशन और एक स्थान में तो एक बार के भोजन में यथेच्छ सरस आहार ग्रहण किया जा सकता है; परन्तु प्रायबिल के एक बार भोजन में तो केवल उबले हुए उड़द के बाकले अादि लवणरहित नीरस श्राहार ही ग्रहण किया जाता है। अाजकल भुने हुए चने अादि एक नीरस अन्न को पानी में भिगोकर खाने का भी प्रायग्लि प्रचलित है । किं बहुना, भावार्थ यह है कि प्राचाम्ल तप में रसलोलुपता पर विजय प्राप्त करने का महान् प्रादर्श है। जिह्वन्द्रिय का संग्रम, एक बहुत बड़ा संयम है।
१ अवश्रामण, अवशायन या अवश्रावण 'श्रोसपण' को कहते हैं ।
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३२६
श्रमण-सूत्र
- अपने मन को मारना सहज नहीं है । स्वाने के लिए बैठना और फिर भी मनोऽनुकूल नहीं खाना, कुछ साधारण बात नहीं है।
श्रायंबिल भी साधक की इच्छानुसार चतुविधाहार एवं त्रिविधाहार किया जा सकता है । चतुर्विधाहार करना हो तो 'चउठिवह पि त्राहारं, असएं पाणं, खाइम, साइमं, बोलना चाहिए। यदि त्रिविधाहार करना हो तो 'तिविहं पि आहारं असणं खाइमं साइमं पाठ कहना चाहिए। आयंबिल द्विविधाहार नहीं होता।
आयंबिल में अाठ श्रागार माने गए हैं । पाठ में से पाँच आगार तो पूर्व प्रत्याख्यानों के समान ही हैं। केवल तीन भागार ही ऐसे हैं, जो नवीन हैं । उनका भावार्थ इस प्रकार है:.. (१) लेपालेप-प्राचाम्ल व्रत में ग्रहण न करने योग्य शाक तथा घृत श्रादि विकृति से यदि पात्र अथवा हाथ आदि लिप्त हो. और दातार गृहस्थ यदि उसे पोंछकर उसके द्वारा प्राचाम्ल-योग्य भोजन बहराए. तो ग्रहण कर लेने पर व्रत भंग नहीं होता है।।
लेपालेप' शब्द लेप और अलेप से समस्त होकर बना है । लेप का अर्थ घृतादिसे पहले लिप्त होना है। और अलेप का अर्थ है बाद में उसको पोंछकर अलिप्तकर देना। पोंछ देने पर भी विकृति का कुछ न कुछ अंश लिप्त रहता ही है। अतः आचाम्ल में लेपालेप का श्रागार रक्खा जाता है। लेप अलेपश्च लेपाले तस्मादन्यत्र, भाजने विकृत्याद्यवयवसद्भावेऽपि न भङ्ग इत्यर्थः। ---प्रवचन सारोडार वृत्ति । -- (२) उत्क्षिप्त-विवेक---शुष्क अोदन एवं रोटी आदि पर गुड़ तथा
शक्कर आदि अद्रव - सूखी विकृति पहले से रक्खी हो । प्राचाम्लव्रतधारी मुनि को यदि कोई वह विकृति उठाकर रोटी श्रादि देना चाहे तो ग्रहण की जा सकती है। उत्क्षिप्त का अर्थ उठाना है और विवेक का अर्थ है उठाने के बाद उसका न लगा रहना । भावार्थ यह है कि प्राचाम्ल में ग्राह्य द्रव्य के साथ यदि गुड़ादि विकृति रूप अग्राह्य द्रव्य का स्पर्श भी हो और कुछ नाम मात्र का अंश लगा हुआ भी हो तो व्रत भंग
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श्राचाम्ल-सूत्र
३२७.
नहीं होता । परन्तु यदि विकृति द्रव हो, उठाने की स्थिति में न हो तो वह वस्तु ग्राह्य नहीं है । ऐसी वस्तु का भोजन करने से श्राचाम्ल व्रत का भंग माना जाता है । 'शुष्कौदनादिभक्ते पतितपूर्व स्वाचामाम्लप्रत्याख्यानवतामयोग्यस्य श्रवविकृत्यादिद्रव्यस्य उत्क्षिप्तस्यउधृतस्य विवेको -- निःशेषतया त्यागः उत्चिप्तविवेकस्तस्मादन्यत्र, भोकव्यद्रव्यस्याभोक्रव्यद्रव्य स्पर्शेनाऽपि न भङ्ग इत्यर्थः । यत्तत्क्षेप्तु ं न शक्यते तस्य भोजने भङ्ग एव । " --प्रवचन सारोद्धार वृत्ति ।
•
( ३ ) गृहस्थसंसृष्ट-घृत अथवा तैल यादि विकृति से छोंके हुए कुल्माष ग्रादि लेना, गृहस्थसंसृष्ट ग्रागार है । अथवा गृहस्थ ने अपने लिए जिस सेटी आदि खाद्य वस्तु पर घृतादि लगा रक्खा हो, वह ग्रहण करना भी गृहस्थसंसृष्ट ग्रागार है । उक्त ग्रागार में यह ध्यान में रखने की बात है कि यदि विकृति का अंश स्वल्प हो, तब तो व्रत भंग नहीं होता । परन्तु विकृति यदि अधिक मात्रा में हो तो वह ग्रहण करलेने से व्रत भंग का निमित्त बनती है ।
प्रवचन सारोद्धार वृत्ति के रचयिता श्राचार्य सिद्धसेन, घुतादि विकृति से लिख पात्र के द्वारा आचाम्लयोग्य वस्तु के ग्रहण करने को गृहस्थसंसृष्ट कहते हैं । 'विकृत्या संसृष्टभाजनेन हि दीयमानं भक्रमकल्पनीय द्रव्यमिश्र भवति तद् भुञ्जानत्यापि न भङ्ग इत्यर्थः, यदि अकल्पयद्रव्यरसो बहु न ज्ञायते ।"- -प्रवचन सारोद्धार वृत्ति, प्रत्याख्यान द्वार 1
-----
कुछ आचार्यों की मान्यता है कि लेपाले, उत्क्षिप्तविवेक, गृहस्थऔर पारिठापनिकागार- ये चार आगार साधु के लिए ही हैं, गृहस्थ के लिए नहीं ।
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३२८
श्रमण-सूत्र
( ७ ) अभक्तार्थ उपवास-सूत्र उग्गए सूरे, अभत्तट्ठ पच्चक्खामि, चउव्विहं पि आहार-असणं, पाणं, खाइम, साइमं ।
अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पारिहापणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सब्बसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि ।
भावार्थ सूर्योदय से लेकर अभक्तार्थ = उपवास ग्रहण करता हूँ; फलतः अशन, पान, खदिम और स्वादिम चारों ही श्राहार का त्याग करता हूँ।
अनाभोग, सहसाकार, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार, सर्वसमाधि प्रत्ययाकार-उक्र पाँच श्रागारों के सिवा सब प्रकार के प्राहार का त्याग करता हूँ।
विवेचन अभक्तार्थ, उपवास का ही पर्यायान्तर है। 'भक्त' का अर्थ 'भोजन' है। 'अर्थ' का अर्थ 'प्रयोजन' है । 'अ' का अर्थ 'नहीं' है । तीनों का मिलकर अर्थ होता है-भक्त का प्रयोजन नहीं है जिस व्रत में वह उपवास | 'न विद्यते भक्रार्थो यस्मिन् प्रत्याख्याने सोऽभकार्थः स उपवास:-देवेन्द्र कृत श्राद्ध प्रतिक्रमण वृत्ति ।
उपवास के पहले तथा पिछले दिन एकाशन हो तो उपवास के पाठ में 'वउत्थभत्तं अभत्तटुं दो उपवास में 'छट्ठभत्तं अभत्तट्ट' तीन
१"भवन-भोजनेन अर्थः-प्रयोजनं भकार्थः, न भकार्थोऽ भकार्थः । अथवा न विद्यते भनार्थों यस्मिन् प्रत्याख्यानविशेषे सोऽभकार्थः उपवास इत्यर्थः ।" --प्रवचन सारोद्धार वृत्ति ।
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श्रभक्तार्थ = उपवास सूत्र
इस प्रकार
उपवास में 'अट्टमभतं श्रभत्तट्ठ" पढ़ना चाहिए । उपवासकी संख्या को दूना करके उसमें दो और मिलाने से जो संख्या आए उतने 'भत्त'' कहना चाहिए। जैसे चार उपवास के प्रत्याख्यान में 'दसमभत्त' और पाँच उपवास के प्रत्याख्यान में 'बारहभसं' इत्यादि ।
३२६
अन्तकृद् दशांग आदि सूत्रों में तीस दिन के व्रत को 'सट्टिभत्त' कहा है । इस पर से कुछ विद्वानों को आशंका है कि ये संज्ञाएँ उपर्युक्त कडिका के अर्थ को द्योतित नहीं करतीं ? ये केवल प्राचीन रूढ़ संज्ञाएँ ही हैं । इस लिए श्री गुणविनयगणी धर्मसागरीय उत्सूत्र खण्डन में लिखते हैं- 'प्रथम दिने चतुर्थमिति संज्ञा, द्वितीयेऽह्नि षष्ठं तृतीयेऽह्नि श्रष्टममित्यादि ।'
"
चव्विहाहार और तिविहाहार के रूप में उपवास दो प्रकार का होता है । चव्विहाहार का पाठ ऊपर मूलसूत्र में दिया है । सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय तक चारों श्राहारों का त्याग करना, चउव्विहाहार
भत्त कहलाता है । तिविहाहार उपवास करना हो तो पानी का आगार रखकर शेष तीन आहारों का त्याग करना चाहिए । तिविहाहार उपवास करते समय 'तिविद्धं पि श्राहारं असणं, खाइमं साइमं ।' पाठ कहना चाहिए ।
कितने ही आचार्यों का मत है कि- 'पारिहाणियागारें' का गार तिविहाहार उपवास में ही होता है, चउविहाहार उपवास में नहीं । अतः चउविहाहार उपवास में 'पारिडावणियागारेणं' नहीं बोलना चाहिए |
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अचार्य जिनदास लिखते हैं- 'जति तिविहस्स पञ्चकखाति विगिंचखियं कप्पति, जदि विहस्स पाशगं च नत्थि न वहति ।' - आवश्यक चूर्णि । आचार्य नाम लिखते हैं- 'चतुविधाहार प्रत्याख्याने पारिष्ठापनिका न कल्पते । प्रतिक्रमण सूत्र विवृति |
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श्रमण-सूत्र
पण्डित प्रवर सुखलालजी ने अपने पञ्चप्रतिक्रमण-सूत्र में पारिठा पनिकागार के विषय में लिखा है-'चउठिवहाहार उपवास में पानी, तिविहाहार उपवास में अन्न और पानी, तथा आयंबिल में विगइ, अन्न एवं पानी लिया जा सकता है।' . तिविहाहार अर्थात् त्रिविधाहार उपवास में पानी लिया जाता है । अतः जल सम्बन्धी छः अागार मूल पाठ में 'सव्वसमाहिवत्तियागारेणं' के आगे इस प्रकार बढ़ा कर बोलने चाहिएँ--'पाणस्स लेवाडेण वा, अलेवाडेण वा, अच्छेण वा, बहलेण वा, ससित्थेग्ण वा, असित्येण वा वोसिरामि ।' ___ उक्त छः अागारों का उल्लेख जिनदास महत्तर, हरिभद्र और सिद्धसेन आदि प्रायः सभी प्राचीन प्राचार्यों ने किया है । केवल उपवास में ही नहीं अन्य प्रत्याख्यानों में भी जहाँ त्रिविधाहार करना हो, सर्वत्र उपयुक्त पाठ बोलने का विधान है । यद्यपि प्राचार्य जिनदास प्रादि ने इस का उल्लेख अभक्तार्थ के प्रसंग पर ही किया है।
उक्त जल सम्बन्धी प्रागारों का भावार्थ इस प्रकार है:
(१) लेपकृत-दाल आदि का माँड तथा इमली, खजूर, द्राक्षा आदि का पानी । वह सब पानी जो पात्र में उपले कारक हो, लेपकृत कहलाता है। त्रिविधाहार में इस प्रकार का पानी ग्रहण किया जा सकता है।
(२) अलेपकृत-छाछ श्रादि का निथरा हुया और काँजी आदि का पानी अलेपकृत कहलाता है । अलेपकृत पानी से वह धोवन लेना चाहिए, जिसका पात्र में लेप न लगता हो ।
(३) अच्छ-अच्छ का अर्थ स्वच्छ है । गर्म किया हुआ स्वच्छ पानी ही अच्छ शब्द से ग्राह्य है। हाँ, प्रवचन सारोद्धार की वृत्ति के रचयिता प्राचार्य सिद्धसेन उष्णोदकादि कथन करते हैं। 'अपिच्छलात् उष्णोदकादेः ।' परन्तु आचार्यश्री ने स्पष्टीकरण नहीं किया कि श्रादि से उष्णजल के अतिरिक्त और कौन सा जल ग्राह्य है ? संभव है फल
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अभक्तार्थ-उपवास-सूत्र
ग्रादि का स्वच्छ धोवन ग्राह्य हो । एक गुजराती अर्थकार ने ऐसा लिखा भी है।
(४) बहल-तिल, चावल और जौ श्रादि का चिकना मांड बहल कहलाता है। बहल के स्थान पर कुछ प्राचार्य बहुलेप शब्द का भी प्रयोग करते हैं।
(५) ससिक्थ-पाटा आदि से लिप्त हाथ तथा पात्र आदि का वह धोवन, जिस में सिक्थ अर्थात् अाटा आदि के कण भी हों। इस प्रकार का जल त्रिविधाहार उपवास में लेने से व्रत भंग नहीं होता।
(६) असिक्थ-पाटा आदि से लिप्त हाथ तथा पात्र ग्रादि का वह धोवन, जो छना हुआ हो, फलतः जिस में आटा अादि के कण न हों।
पण्डित सुखलाल जी एक विशेष बात लिखते हैं। उनका कहना है--प्रारंभ से ही चउधिहाहार उपवास करना हो तो 'पारिट्ठावणियागारेणं' बोलना । यदि प्रारंभ में त्रिविधाहार किया हो, परन्तु पानी न लेने के कारण सायंकाल के समय तिविहार से च उबिहाहार उ.वास करना हो तो 'पारिद्वावणियागारेणं' नहीं बोलना चाहिए ।
-
(८)
दिवसचरिम-सूत्र दिवसचरिमं पच्चक्खामि, चउविहं पि आहार-असणं, पाणं, खाइम, साइमं,।
अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्व समाहिवत्तियागारेणं बोसिरामि ।
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३३२
श्रमण-सूत्र
भावार्थ दिवस चरम का व्रत ग्रहण करता हूँ, फलतः अशन, पान, खादिम और स्वादिम चारों आहार का त्याग करता हूँ।
अनाभोग, सहसाकार, महत्तराकार और सर्वसमाधिप्रत्ययाकारउक चार भागारों के सिवा थाहार का त्याग करता हूँ।
विवेचन यह चरम प्रत्याख्यान सूत्र है । 'चरम' का अर्थ 'अन्तिम भाग' है। वह दो प्रकार का है-दिवस का अन्तिम भाग और भव अर्थात् श्रायु का अन्तिम भाग । सूर्य के अस्त होने से पहले ही दूसरे दिन सूर्योदय तक के लिए चारों अथवा तीनों आहारों का त्याग करना, दिवस चरम प्रत्याख्यान है। अर्थात् उक्त प्रत्याख्यान में शेष दिवस और सम्पूर्ण रात्रिभर के लिए चार अथवा तीन श्राहार का त्याग किया जाता है । साधक के लिए आवश्यक है कि वह कम से कम दो घड़ी दिन रहते ही श्राहार पानी से निवृत्त हो जाय और सायंकालीन प्रतिक्रमण के लिए तैयारी करे। ___ भवचरम प्रत्याख्यान का अर्थ है जब साधक को यह निश्चय हो जाय कि श्रायु थोड़ी ही शेष है तो यावजीवन के लिए चारों या तीनों श्राहारों का त्याग करदे और संथारा ग्रहण कर के संयम की अाराधना करे। भवचरम का प्रत्याख्यान, जीवन भर की संयम साधना सम्बन्धी सफलता का उज्ज्वल प्रतीक है।
भवचरम का प्रत्याख्यान करना हो तो 'दिवस चरिमं' के स्थान में 'भव चरिमं बोलना चाहिए । शेष पाठ दिवस चरम के समान ही है ।
दिवस चरम और भवचरम चउविहाहार ीर तिविहाहार दोनों प्रकार से होते हैं । तिविहाहार में पानी ग्रहण किया जा सकता है। साधु के लिए 'दिवसचरम' चउविहाहार ही माना गया है ।
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सक्षिप्त प्रतिक्रमण-सूत्र खण्डित, विराधित _ 'जं खंडियं जं विराहिथं' में जो खण्डित और विराधित शब्द आए हैं, उनका कुछ विद्वान यह अर्थ करते हैं कि-'एकदेशेन खण्डना' होती है
और 'सर्व देशेन विराधना' । परन्तु यह विराधना वाला अर्थ संगत प्रतीत नहीं होता । यदि व्रत का पूर्ण रूपेण सर्वदेशेन नाश ही हो गया तो फिर प्रतिक्रमण के द्वारा शुद्धि किसकी की जाती है ? जब वस्त्र नष्ट ही हो गया तो फिर उसके धोने का क्या प्रयत्न ? वास्तविक अर्थ यह है कि-अल्पशिन खण्डना होती है और अधिकांशेन विराधना । अधिकांश का अर्थ अधिक मात्रा में नाश होना है, सींश में पूर्णतया नाश नहीं। अधिकांश में नाश होने पर भी व्रत की सत्ता बनी रहती है, एकान्ततः अभाव नहीं होता, जहाँ कि-'मूलं नास्ति कुतः शाखा' वाला न्याय लग सके। प्राचार्य हरिभद्र भी इसी विचार से सहमत हैं'विराधितं सुतरां भग्नं, न पुनरेकान्ततोऽभावापादितम् ।
प्रस्तुत सूत्र में 'जं खंडियं जं बिराहियं तस्स तक अतिचारों का क्रियाकाल बतलाया गया है; क्योंकि यहाँ अतिचार किस प्रकार किन व्रतों में हुए-यही बतलाया है, अभी तक उनकी शुद्धि का विधान नहीं किया । आगे चलकर 'मिच्छामि दुक्कडं' में अतिचारों का निष्ठाकाल है। निष्ठा का अर्थ है यहाँ समाप्ति, नाश, अत। हृदय के अन्तस्तल से जब अतिचारों के प्रति पश्चात्ताप कर लिया तो उनका नाश हो जाता है । यह रहस्य ध्यान में रखने योग्य है। __ जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री श्रात्मारामजी महाराज अपने साधु-प्रतिक्रमण में 'तस्स मिच्छामि दुक्कड' से पहले 'जो मे देवसित्रो अइयारो कत्रो' यह अंश और जोड़ते हैं; परन्तु यह अर्थ-संगति में ठीक नहीं बैठता । सूत्र के प्रारंभ में जब 'जो मे देवसिङ्गो अइयारो कत्रो' एक बार आ चुका है, तब व्यर्थ ही दूसरी बार पुनरुक्ति क्यों ? प्राचार्य हरिभद्र आदि भी यह अंश स्वीकार नहीं करते।
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दिवस-चश्मि-सूत्र
दिवसचरम और भवचरम में केवल चार श्रागार ही मान्य हैं। पारिष्ठापनिक आदि श्रागार यहाँ अभीष्ट नहीं हैं। कुछ लेखकों ने पारिष्ठानिका आदि आगारों का उल्लेख किया है, वह अप्रमाण समझना चाहिए।
यह चरमद्वय का प्रत्याख्यान, यदि तिविहाहार करना हो तो 'तिविहं पि आहारं-असणं खाइमं साइम' पाठ बोलना चाहिए । चउविहाहार का पाठ, ऊपर मूल सूत्र में लिखे अनुसार है।
पं० सुखलाल जी ने दिवस चरम में गृहस्थों के लिए दुविहाहार प्रत्याख्यान का भी उल्लेख किया है।
दिवस-चरम एकाशन श्रादि में भी ग्रहण किया जाता है, अतः प्रश्न है कि एकाशन आदि में दिवस चरम ग्रहण करने का क्या लाभ है ? भोजन आदि का त्याग तो एकाशन प्रत्याख्यान के द्वारा ही हो जाता है ? समाधान के लिए कहना है कि एकाशन श्रादि में श्राठ श्रामार होते हैं और इसमें चार । अस्तु, अागारों का संक्षेप होने से एकाशन आदि में भी दिवस चरम का प्रयोजन स्वतः सिद्ध है ।
मुनि के लिए जीवनपर्यन्त त्रिविधं त्रिविधेन रात्रि भोजन का त्याग होता है। अतः उनको दिवस चरम के द्वारा शेष दिन के भोजन का त्याम होता है, और रात्रि भोजन त्याग का अनुवादकत्वेन स्मरण हो जाता है । रात्रि भोजन त्यागी गृहस्थों के लिए भी यही बात है । जिनको रात्रि भोजन का त्याग नहीं है, उनको दिवस चरम के द्वारा शेष दिन और रात्रि के लिए भोजन का त्याग हो जाता है।
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श्रमण-सूत्र
अभिग्रह-सूत्र अभिग्गहं पच्चक्खामि चउव्विहं पि आहारं असणं, पाणं, खाइम, साइमं ।
अन्नत्थऽणा भोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि ।
भावार्थ अभिग्रह का व्रत ग्रहण करता हूँ, फलतः अशन, पान खादिम और स्वादिम चारों ही आहार का (संकल्पित समय तक) त्याग करता हूँ ।
अनाभोग, सहसाकार, महराराकार और सर्वसमाधिप्रत्ययाकारउन चार प्रागारों के सिवा अभिग्रहपूर्ति तक चार पाहार का त्याग करता हूँ।
. विवेचन उपवास आदि तप के बाद अथवा विना उपवास आदि के भी अपने मनमें निश्चित प्रतिज्ञा कर लेना कि अमुक बातों के मिलने पर ही पारणा अर्थात् श्राहार ग्रहण करूँगा, अन्यथा व्रत, बेला, तेला आदि संकल्पित दिनों की अवधि तक पाहार ग्रहण नहीं करूँगा-इस प्रकार की प्रतिज्ञा को अभिग्रह कहते हैं ।
अभिग्रह में जो बातें धारण करनी हों, उन्हें मन में निश्चय कर लेने के बाद ही उपयुक्त पाठ के द्वारा प्रत्याख्यान करना चाहिए । यह न हो कि पहले अभिग्रह का पाठ पढ़ लिया जाय और बाद में धारण किया जाय। यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि अभिग्रह-पूर्ति से पहले अभिग्रह को किसी के श्रागे प्रकट न किया जाय ।।
अभिग्रह की प्रतिज्ञा बड़ी कठिन होती है। अत्यन्त धीर एवं वीर साधक
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५४
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श्रमण-सूत्र
उद्दविया, ठाणाओ ठाणं संकामिया, जोविया ववरोविया,
तस्स
मिच्छामि दुक्कडं ।
शब्दार्थ
इच्छामि = चाहता हूँ । पडिक्कमिउं = प्रतिक्रमण करना, निवृत्त होना
( किस से ? ) इरियावहियाए = ऐर्यापथिकसम्बन्धी विराहणाए = विराधना से हिंसा से ( विराधना किस तरह होती है ? ) गमणागमणे = मार्ग' में जाते, श्राते पाणकमणे = प्राणियों को कुच लने से
वीयक्कमणे = बीजों को कुचलने से हरियक्कमणे = हरित वनस्पति को
कुचलने से
श्रोसा = श्रोस को
उत्तिंग = कीदीनाल या कीढ़ी आदि के बलको
पणग = सेवाल, काई को
दग= सचित्त जल को मट्टी = सचित्त पृथ्वी को
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मक्कडा संताणा = मकड़ी के जालों
को
संकमणे = कुचलने से, मसलने से
जे = जो भी
मे मैने
=
जीवा = जीव विराहिया = विशधित किए हों ( कौन जीव विराधित किए हों ? ) - एगिंदिया = एकेन्द्रिय बेइ दिया = द्वीन्द्रिय तेइ दिया = श्रीन्द्रिय चउरिंदिया = चतुरिन्द्रिय पंचिंदिया = पंचेन्द्रिय
( विराधना के प्रकार ) श्रभिया = सम्मुख धाते हुए
रोके हों
वतिया
धूलि आदि से ढाँपे हों लेसिया = भूमि आदि पर मसले हों
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निर्विकृतिक-सूत्र
१ ३३५
ही अभिग्रह का पालन कर सकते हैं । अतएव साधारण साधकों को प्रतिसाहस के फेर में पड़ने से बचना चाहिए | जैन इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि एक साधु ने सिंहकेसरिया मोदकों का अभिग्रह कर लिया था और जब वह अभिग्रह पूर्ण न हुआ तो पागल होकर दिनरात का कुछ भी विचार न रखकर पात्र लिए घूमने लगा । कल्पसूत्र की टीकाओं में उक्त उदाहरण आता है । अतः श्रभिग्रह करते समय अपनी शक्ति और शक्ति का विचार अवश्य कर लेना चाहिए ।
( १० ) 'निर्विकृतिक-सूत्र
♦
विगइओर पच्चक्खामि, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसा - गारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्थसंसिड, उक्खित्तविवेगेणं, पडुच्चमक्खि एवं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिबत्तियागारेणं, वोसिरामि ।
१ प्राकृत भाषा का मूल शब्द 'निव्विगइयं' है । आचार्य सिद्धसेन ने इसके दो संस्कृतरूपान्तर किए हैं— निर्विकृतिक और निर्विगतिक । श्राचार्य श्री घृतादि को विकृतिहेतुक होने से विकृति और विगतिहेतुक होने से विगति भी कहते हैं । जो प्रत्याख्यान विकृति से रहित हो वह निर्विकृतिक एवं निर्विगतिक कहलाता है । 'तत्र मनसो विकृतिहेतुत्वाद् विगतिहेतुत्वाद् वा विकृतयो विगतयो वा, निर्गता विकृतयो विगतयो ar यत्र तन्निवि कृतिकं निर्विगतिकं वा प्रत्याख्याति । – प्रवचन सारोद्वार वृत्ति प्रत्याख्यान द्वार ।
२ प्रवचन सारोद्धार में 'विगइयो' के स्थान में 'निव्विगइयं ' पाठ है ।
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३६६
श्रमण-सूत्र
भावार्थ विकृतियों का प्रत्यास्या न करता हूँ । अनाभोग, सहसाकार, लेपालेप, गृहस्थसंसृष्ट, उत्क्षिप्तविवेक, प्रतीत्यनक्षित, पारिष्ठापनिक, महत्तराकार, सर्वसमाधिप्रत्ययाकार-उक्त नौ आगारों के सिवा विकृति का परित्याग करता हूँ।
विवेचन __ मन में विकार उत्पन्न करने वाले भोज्य पदार्थों को विकृति कहते हैं । मनसो विकृति हेतुत्वाद् विकृतयः' प्राचार्य हेमचन्द्र कृत योगशास्त्र तृतीय प्रकाश वृत्ति । विकृति में 'दूध, दही, मक्खन, घी, तेल, गुड़, मधु श्रादि भोज्य पदार्थ सम्मिलित हैं।
भोजन, मानव ीवन में एक अतीव महत्त्वपूर्ण वस्तु है । शरीरयात्रा के लिए भोजन तो ग्रहण करना ही होता है। ऊँचे से ऊँचा साधक भी सर्वथा सदाकाल निराहार नहीं रह सकता । अतएव शास्त्रकारों ने बतलाया है कि.-भोजन में सात्त्विकता रखनी चाहिए। ऐसा भोजन न हो, जो अत्यन्त पौष्टिक होने के कारण मन में दूषित वासनात्रों की उत्पत्ति करे। विकारजनक भोजन संयम को दूषित किए विना नहीं रह सकता।
१ विकृतियों के भक्ष्य और अभक्ष्यरूप से दो भेद किए गए हैं। मद्य और मांस तो सर्वथा अभय विकृतियाँ हैं । अतः साधक को इनका त्याग जीवन-पर्यन्त के लिए होता है। मधु और नवनीत = मक्खन भी विशेष स्थिति में ही लिए जा सकते हैं, अन्यथा नहीं । दूध, दही, घी, तेल, गुड़ आदि और अवगाहिम अर्थातू पक्वान्न-ये छः भक्ष्य विकृतियाँ हैं । भक्ष्य विकृतियों का भी यथाशक्ति एक या एक से अधिक के रूप में प्रति दिन त्याग करते रहना चाहिए । यथावसर सभी विकृतियों का त्याग भी किया जाता है।
आवश्यक चूर्णि, प्रवचन सारोद्धार आदि प्राचीन ग्रन्थों में विकृतियों का बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया गया है ।
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निर्विकृतिक-सूत्र
३३७
शरीर के लिए पौष्टिक आहार सर्वथा वर्जित नहीं है। सर्वथा शुष्क श्राहार, कभी-कभी शरीर को क्षीण बना देता है। अतः यदा कदा पौष्टिक आहार लिया जाय तो कोई हानि नहीं है। परन्तु नित्य-प्रति विकृति का सेवन करना, निषिद्ध है । जो साधु नित्य प्रति विकृति का सेवन करता है, उसे शास्त्रकार पापश्रमण बतलाते हैं ।
निर्विकृति के नौ श्रागार हैं । पाठ श्रागारों का वर्णन तो पहले के पाठों में यथास्थान श्राचुका है । प्रतीत्यम्रक्षित 'नामक प्रागार नया है । भोजन बनाते समय जिन रोटी आदि पर सिर्फ़ उँगली से घी आदि चुपड़ा गया हो ऐसी वस्तुओं को ग्रहण करना, प्रतीत्य म्रक्षित' श्रागार कहलाता है। इस श्रागार का यह भाव है कि---घृत आदि विकृति का का त्याग करने वाला साधक धारा के रूप में घृत श्रादि नहीं खा सकता । हाँ घी से साधारण तौर पर चुपड़ी हुई रोटियाँ खा सकता है। "प्रतीत्य सर्वथा रूक्षमण्डकादि, ईषत्सौकुमार्य प्रतिपादनाय यदंगुल्या ईषद् घृतं ग्रहोस्वा म्रक्षितं तदा कल्पते, न तु धारया”
-तिलकाचार्य-कृत, देवेन्द्र प्रतिक्रमण वृत्ति विकृति द्रव और अद्रव के भेद से दो प्रकार की होती हैं । जो घृत, लैल आदि चिकृति द्रव हों, तरल हों, उनके प्रत्याख्यान में उत्क्षिप्तविवेक का श्रागार नहीं रखा जाता । गुड़ और पक्वान्न आदि अद्रव अर्थात् शुष्क विकृतियों के प्रत्याख्यान में ही उक्त आगार होता है।
किसी एक विकृति-विशेष का त्याग करना हो तो उसका नाम लेकर पाठ बोलना चाहिए । जैसे 'दुद्धविगइयं पञ्चक्खामि' 'दधिविंगइयं पच्चक्खामि' इत्यादि।
१ 'म्रक्षित' चुपड़े हुए को कहते हैं । और प्रतीत्य म्रक्षित कहते हैंजो अच्छी तरह चुपड़ा हुआ न हो, किन्तु चुपड़ा हुश्रा जैसा हो, अर्थात् म्रक्षिताभास हो। 'मक्षितमिव यद् वर्तते तत्प्रतीत्यम्रक्षित ब्रक्षिताभासमित्यर्थः । ----प्रवचन सारोद्धार वृत्ति
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श्रभगा-सूत्र
जितने काल के लिए त्याग करना हो, उतना काल त्याग करत समय अपने मन में निश्चित कर लेना चाहिए ।
प्रत्याख्यान पारणा सत्र उग्गए सूरे नमुक्कार सहियं """पञ्चक्खाणं कयं । तं पच्चक्खाणं सम्मं कारण फासियं, पालियं, तीरियं, किट्टियं, सोहियं, श्राराहिअं। जं च न पाराहि, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
भावार्थ सूर्योदय होने पर जो नमस्कार सहित प्रत्याख्यान किया था, वह प्रत्याख्यान ( मन वचन ) शरीर के द्वारा सम्यक रूप से स्पृष्ट, पालित, शोधित, तीरित, कीर्तित एवं पाराधित किया। और जो सम्यक रूप से पाराधित न किया हो, उसका दुष्कृत मेरे लिए मिथ्या हो।
विवेचन यह प्रत्याख्यानपूर्ति का सूत्र है। कोई भी प्रत्याख्यान किया हो उसकी समाप्ति प्रस्तुत सूत्र के द्वारा करनी चाहिए। ऊपर मूल पाठ में 'नमुक्कारसहिय' नमस्का रिका का सूचक सामान्य शब्द है । इसके स्थान में जो प्रत्याख्यान ग्रहण कर रक्खा हो उसका नाम लेना चाहिए। जैसे कि पौरुषी ले रक्खी हो तो 'पोरिसी पञ्चक्खाणं कयं' ऐसा कहना चाहिए।
प्रत्याख्यान पालने के छह अङ्ग बतलाए गए हैं । अस्तु मूल पाठ के अनुसार निम्नोक्त छहों अंगों से प्रत्याख्यान की आराधना करनी चाहिए।
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प्रत्याख्यान पारणा-सूत्र
(1) फासियं ( स्पृष्ट अथवा स्पर्शित ) गुरुदेव से या स्वयं विधिपूर्वक प्रत्याख्यान लेना।'
(२) पालिये ( पालित ) प्रत्याख्यान को बार-बार उपयोग में लाकर सावधानी के साथ उसकी सतत रक्षा करना ।
(३) सोहियं ( शोधित) कोई दूषण लग जाय तो सहसा उसकी शुद्धि करना । अथवा 'सोयिं' का संस्कृत रूप शोभित भी होता है। इस दशा में अर्थ होगा----२गुरुजनों को, साथियों को अथवा अतिथिजनरें को भोजन देकर स्वयं भोजन करना ।
(४) तीरियं ( तीरित ) लिए हुए प्रत्याख्यान का समय पूरा हो जाने पर भी कुछ समय ठहर कर भोजन करना ।
(५) किट्टियं ( कीर्तित ) भोजन प्रारंभ करने से पहले लिए हुए प्रत्याख्यान को विचार कर उत्कीर्तन-पूर्वक कहना कि मैंने अमुक प्रत्याख्यान अमुक रूप से ग्रहण किया था, वह भली भाँति पूर्ण होगया है ।
( ६ ) पाराहियं ( आराधित , सब दोषों से सर्वथा दूर रहते हुए ऊपर कही हुई विधि के अनुसार प्रत्याख्यान की आराधना करना।'
साधारण मनुष्य सर्वथाभ्रान्ति रहित नहीं हो सकता। वह साधना
१-'प्रत्या ज्यान ग्रहणकाले विधिना प्राप्तम् ।'
_ ---प्रवचन सारो-द्धार वृत्ति । प्राचार्य हरिभद्र फासियं का अर्थ 'स्वीकृत प्रत्याख्यान को बीच में खण्डित न करते हुए शुद्ध भावना से पालन करना' करते हैं । 'फासियं नाम जं अंतरा न खंडेति ।' श्रावश्यक चूर्णि २-'शोभितं-गुर्वादि प्रदत्तशेषभोजनाऽऽसे बनेन राजितम् ।'
-प्रवचन सारोद्धार वृत्ति । 'सोभित' नाम जो भत्तपाणं प्राण त्ता पुत्व दाऊण सेसं भुजति दायव्वपरिणामेण वा, जदि पुण एक्कतो भुजति ताहे ण सोहियं भवति।' -प्राचार्य जिनदासकृत अावश्यक चूर्णि
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श्रमण-सूत्र
करता हुआ भी कभी कभी साधना पथ से इधर-उधर भटक जाता है । प्रस्तुत सूत्र के द्वारा स्वीकृत व्रत की शुद्धि की जाती है, भ्रान्ति-जनित दोषों की आलोचना की जाती है, और अन्त में मिच्छामि दुक्कडं देकर प्रत्याख्यान में हुए अतिचारों का प्रतिक्रमण किया जाता है । आलोचना एवं प्रतिक्रमण करने से व्रत शुद्ध हो जाता है।
३-श्राचार्य जिनदास ने 'पाराधित' के स्थान में 'अनुपलिते कहा है। अनुपालित का अर्थ किया है-तीर्थकर देव के वचनों का बार-बार स्मरण करते हुए प्रत्याख्यान का पालन करना । 'अनुपालियं माम अनुस्मृत्य अनुस्मृत्य तीर्थकरवचनं प्रत्याख्यानं पालियव्यं ।'
--श्रावश्यक मूर्णि।
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संस्तार-पौरुषी-सूत्र [जैनधर्म की निवृत्तिप्रधान साधना में 'संथारा।'--'संस्तारक' का बहुत बड़ा महत्त्व है। जीवनभर की अच्छी-बुरी हलचलों का लेखा लगाकर अन्तिम समय समस्त दुष्प्रवृत्तियों का त्याग करना; मन, वाणी
और शरीर को संयम में रखना; ममता से मन को हटाकर उसे प्रभुस्मरण एवं आत्मचिन्तन में लगाना; अाहार पानी तथा अन्य सब उपाधियां का त्याग कर आत्मा को निर्द्वन्द्व एवं निस्पृह बनाना; संथारा का श्रादर्श है । यहाँ मृत्यु के आगे गिड़गिड़ाते रहना, रोते पीटते रहना, बचने के प्रयत्न में ग्रंट-संट पापकारी क्रियाएँ करना, अभिमत नहीं है। जैनधर्म का अादर्श है-जब तक जीनो, विवेक पूर्वक अानन्द से जीयो । और जब मृत्यु या जाए तो विवेकपूर्वक अानन्द से ही मरो । मृत्यु तुम्हें रोते हुओं को घसीट कर ले जाय, यह मानवजीवन का आदर्श नहीं है । मानवजीवन का अादर्श है-संयम की साधना के लिए अधिक से अधिक जीने का यथासाध्य प्रयत्न करो। और जब देखो कि अब जीवन की लालसा में हमें अपने धर्म से ही च्युत होना पड़ रहा है, संयम की साधना से ही लक्ष्य भ्रष्ट होना पड़ रहा है, तो अपने धर्म पर, अपने संयम पर दृढ़ रहो और समाधिमरण के स्वागतार्थं हँसते-हँसते तैयार हो जाओ । जीवन ही कोई बड़ी चीज़ नहीं है। जीवन के बाद मृत्यु भी कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । मृत्यु को किसी तरह टाला तो
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३४२
श्रमण सूत्र
जा नहीं सकता, हाँ, उसे संथारा की साधना के द्वाग सफल अवश्य बनाया जा सकता है।
रात्रि में सोजाना भी एक छोटी सी अल्पकालिक मृत्य है । सोते समय मनुष्य की चेतना शक्ति धुंधली पड़ जाती हैं, शरीर निश्चेष्ट-सा एवं सावधानता से शून्य हो जाता है । और तो क्या, यात्मरक्षा का भी उम समय कुछ प्रयत्न नहीं हो पाता। अतः जैनशास्त्रकार प्रतिदिन रात्रि में सोते समय सागारी संथारा करने का विधान करते हैं, यही संथारा पौरुषी है । सोने के बाद पता नहीं क्या होगा ? प्रातः काल सुवपूर्वक शव्या से उठभी सकेंगे अथवा नहीं ? याजभी लोगों में कहावत है---"जिसके बीच में रात, उमकी क्या बात ? अतएव शास्त्रकार प्रतिदिन सावधान रहने की प्रेरणा करते हैं और कहते हैं कि जीवन के मोह में मृत्यु को न भूल जाओ, उसे प्रतिदिन याद रक्खयो । फलस्वरूप सोते समय भी अपने आपको ममताभाव एवं राग द्वेष से हटाकर संयमभाव में संलग करो, बाह्य जगत् से मुंह मोड़कर अन्तर्जगत् में प्रवेश करो। मोते समय जो भावना बनाई जाती है प्रायः वही स्वप्न में भी रहा करती है। अतः संथारा के रूप में सोते समय यदि विशुद्ध भावना है तो वह स्वप्न में भी गतिशील रहेगी, और तुम्हारे जीवन को अविशुद्ध न होने देगी।]
अणुजाणह परमगुरु !
गुरुगुण-रयणेहिं मंडियसरीरा । बहु पडिपुन्ना पोरिसि,
राइयसंथारए ठामि ॥१॥
[संथारा के लिए प्राज्ञा] हे श्रेा गुणरत्नों से अलंकृत परम गुरु ! श्राप मुझको संथारा करने को प्राज्ञा दीजिए । एक प्रहर परिपूर्ण बीत चुका है, इस लिए मैं रात्रि-संथारा करना चाहता हूँ।
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संस्तार पौरुषी-सूत्र अणुजाणह संथारं,
बाहुवहाणेण वामपासेणं । कुक्कुडि-पायपसारण
अतरंत पमज्जए भूमि ॥ २ ॥ संकोइय संडासा,
उबट्टते अ काय-पडिलेहा । दवाई-उपभोगं,
ऊसासनिरंभणालोए ॥ ३॥
भावार्थ [संथारा करने की विधि ] मुझको संथारा की प्राज्ञा दीजिए। [संथारा की आज्ञा देते हुए गुरु उसकी विधि का उपदेश देते हैं ] मुनि बाई भुजा को तकिया बनाकर बाई करवट से सोवे । और मुर्गी की तरह ऊँचे पाँव करके सोने में यदि असमर्थ हो तो भूमि का प्रमार्जन कर उस पर पाँव रक्खे । ___ दोनों घुटनों को सिकोड़ कर सोवे । करवट बदलते समय शरीर की प्रतिलेखना करे । जागने के लिए ' द्रव्यादि के द्वारा आत्मा का
१-मैं वस्ततुः कौन हूँ और कैसा हूँ ? इस प्रश्न का चिन्तन करना द्रव्य चिन्तन है । तत्त्वतः मेरा क्षेत्र कौनसा है ? यह विचार करना क्षेत्रचिन्तन है । मैं प्रमाद रूप रात्रि में सोया पड़ा हूँ अथवा अप्रमत्त भावरूप दिन में जागृत हूँ ? यह चिन्तन कालचिन्तन है । मुझे इस समय लघुशंका आदि द्रव्य बाधा और रागद्वेष आदि भाववाधा कितनी है ? यह विचार करना भावचिन्तन है।
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श्रमण-सूत्र
चिन्तन करे। इतने पर भी यदि अच्छी तरह निद्रा दूर न हो तो श्वास को रोककर उसे दूर करे और द्वार का अवलोकन करे--अर्थात् दरवाजे की ओर देख ।
चत्तारि मंगलंअरिहंता मंगलं; सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपनत्तो धम्मो मंगलं ॥४॥
भावार्थ
चार मंगल हैं, अरिहन्त भगवान् मंगल हैं, सिद्ध भगवान् मंगल है, पांच महाव्रतधारी साधु मंगल हैं, केवल ज्ञानी का कहा हुआ हिसा श्रादि धर्म मंगल है।
चत्तारि लोगुत्तमाअरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा; साहू. लोगुत्तमा, केवलिपन्नतो धम्मो लोगुत्तमो ना।।
भावार्थ: चार संसार में उत्तम हैं-अरिहन्त भगवान उत्तम हैं, सिद्ध भगवान् उत्तम हैं, साधु मुनिराज उत्तम हैं, केवली का कहा हुआ धर्म उत्तम है।
चत्तारि सरणं पवज्जामिअरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि; साह सरण पवज्जामि, केवलिपनत्तं धम्मसरण पवज्जामि।।६।।
भावार्थ चारों की शरण अंगीकार करता हूँ-अरिहंतों की शरण अंगीकार करता हूँ, सिद्धों की शरण अंगीकार करता हूँ, साधुओं की शरण अंगीकार करता हूँ, केवली-द्वारा प्ररूपित धर्म की शरण स्वीकार करता हूँ।
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संस्तार पौरुषी सूत्र
जइ मे हुज्ज पमाओ,
इमस्स देहस्सिमाइ रयणीए। 'आहार मुवहिदेहं,
सन् तिविहेण वोसिरिअं ॥७॥
भावार्थ [नियमसूत्र ] यदि इस रात्रि में मेरे इस शरीर का प्रमाद हो अर्थात् मेरी मृत्यु हो तो श्राहार, उपधि = उपकरण और देह का मन बचन और काय से त्याग करता हूँ ।
पाणाइवायमलियं,
चोरिक्कं मेहुणं दविणमुच्छं। कोहं, माणं, मायं,
लोह, पिज्जं तहा दोसं ॥८॥ कलहं अभक्खाणं,
पेलुन्नं रइ-अरइ-समाउर्त्त । परपरिवायं माया
मोसं मिच्छत्तसल्लं च ॥॥ वोसिरसु इमाई,
मुक्खमग्गसंसग्गविग्धभूआई। दुग्गइ-निबंधणाई,
अट्ठारस पावठाणाई ॥१०॥ १ सयोवहि-उवगरण पाठ भी है ।
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श्रमण-सूत्र
भावार्य [पाप स्थान का त्याग ] हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध मान, माया, लोभ, राग, द्वष, कलह, अभ्याख्यान = मिथ्या दोषारोपण, पैशुन्य = चुगली, रतिभरति, पर परिवाद, मायामृषावाद, मिथ्यात्वशल्य ।
ये अट्ठारह पाप स्थान मोक्ष के मार्ग में विघ्नरूप हैं, बाधक हैं । इतना ही नहीं, दुर्गति के कारण भी हैं। अतए। सभी पापस्थानों का मन बचन और शरीर से त्याग करता हूँ।
एगोहं नत्थि मे कोइ,
नाहमन्नस्स कस्सइ । एवं अदीणमणसो,
अप्पाणमांसासइ ॥११॥
एगो मे सासरी अप्पा,
नाणदंसण-संजुश्रो । सेसा मे बाहिरा भावा,
सव्वे संजोगलक्खणा ॥१२॥
संजोगमूला जीवेण,
पत्ता दुक्ख-परंपरा । तम्हा संजोग-संबंध,
सव्यं तिविहेण बोसिरिअं ॥१३॥
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३४७
संस्तार पौरुषी सूत्र
भावार्थ [एकत्व और अनित्य भावना ] मुनि प्रसन्न चिच से अपने श्रापको समझाता है कि मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसी दूसरे का नहीं हूँ।
-सम्यग ज्ञान, सम्यग दर्शन, उपलक्षण से सम्यक चारित्र से परिपूर्ण मेरा श्रात्मा ही शाश्वत है, सत्य सनातन है; अात्मा के सिवा अन्य सब पदार्थ संयोगमात्र से मिले हैं।
-जीवात्मा ने श्राज तक जो भी दुःखपरंपरा प्राप्त की है, वह सब पर पार्थों के संयोग से ही प्राप्त हुई है। अतएव मैं संयोगसम्बन्ध का सर्वथा परित्याग करता हूँ। खमिश्र खमावि मइ खमह,
सवह जीव-निकाय । सिद्धह साख आलोयणह,
मुज्झह बइर न भाव ॥१४॥ सव्वे जीवा कम्मवस,
चउदह-राज झमंत । ते मे सव्व खमाविश्रा,
मुज्झ वि तेह खमंत ॥१५॥
भावार्थ [समापना] हे जीवगण ! तुम सब खमण खामणा करके मुझ पर क्षमाभाव करो। सिद्धों को साक्षी रख कर मालोचना करता हूँ किमेरा किसी से भी वैरभाव नहीं है।
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श्रमण-सूत्र
-सभी जीव कर्मवश चौदह राजुप्रमाण लोक में परिभ्रमण करते हैं, उन सब को मैंने खमाया है, अतएव वे सब मुझे भी क्षमा करें। जं जं मणेण बद्धं,
जंजवाएण भासियं पावं । जं जं कारण कयं,
तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥१६॥
भावार्थ [मिच्छा मि दुक्कडं] मैंने जो जो पाप मन से संकल्प द्वारा बाँधे हों, वाणी से पापमूलक वचन बोले हो, और शरीर से पापाचरमा' किया हो, वह सब पाप मेरे लिए मिथ्या हो ।
नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उज्झायाणं
नमो लोए सन्य-साहूणं ! एसो पंच - नमुक्कारो,
सव्व- पाव- प्पणासणो । मंगलाणं च सव्यसि
पदमं हवइ मंगलं ॥
भावार्थ श्री अरिहंतों को नमस्कार हो, श्री सिद्धों को नमस्कार हो,
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संस्तार पोरुपी
श्री श्राचार्यो को नमस्कार हो,
श्री उपाध्यायों को नमस्कार हो,
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लोक में के सब साधुओं को नमस्कार हो ।
यह पाँच पदों को किया हुआा नमस्कार, सब पापों को सर्वथा नाश करने वाला है । और संसार के सभी मंगलों में प्रथम अर्थात् भावरूप मुल्य मंगल है |
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शेष सूत्र
सम्यक्त्व सूत्र अरिहंतो मह देवो,
जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो। जिण-पएणतं तत्तं,
इस सम्मत्तं मर गहियं ॥१॥
शब्दार्थ अरिहंतो-अहन्त भगवान जिरणपण्णत्तं - श्री जिनराज का मह - मेरे
कहा हुआ देवो - देव है
= तत्व है, धर्म है जावज्जीवं - यावज्जीवन, इथ- यह
जीवन पर्यन्त सम्मत्तं% सम्यक्व सुसाहुरगो-श्रेष्ठ साधु
मए - मैंने गुरुणो = गुरू है
गहियं : ग्रहण किया है।
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शेष सूत्र
भावार्थ राग-द्वेष के जीतने वाले श्री अरिहंत भगवान मेरे देव हैं, जीवनपर्यन्त संयम की साधना करने वाले सच्चे साधू मेरे गुरु हैं, श्री जिनेश्वर देव का बताया हुअा अहिंसा सत्य आदि ही मेरा धर्म है यह देव, गुरु धर्म पर श्रद्धा स्वरूप सम्यक्त्व बत मैंने यावजीवन के लिए ग्रहण किया।
गुरु गुणस्मरण सूत्र पंचिंदिय-संवरणो,
तह नवविह-बंभचेर-गुत्ति-धरो। घउविह-कसाय-मुक्को,
इअ अट्ठारस-गुणेहिं संजुत्तो॥१॥ पंच - महब्वय - जुत्तो,
पंचविहायार - पालण - समत्थो। च - समित्रो तिगुत्तो, छत्तीसगुणो गुरू मज्झ ॥२॥
शब्दार्थ पंचिदिय - पांच इन्द्रियों को गुत्तिधरो-गुप्तियों को धारण संवरणो वश में करने वाले
करने वाले . तह तथा
चउविह = चार प्रकार के नव विह बंभधेर = नब प्रकार के कसायमुक्को - कषाय से मुक्त
दहाचर्य की इअ-इन
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श्रमण सूत्र
अट्ठारस गुणेहि = अठारह पालण समत्थो = पालने में समर्थ
गुणों से पंचसमिश्रो पांच समिति-बाले संजुत्तो- संयुक्र, सहित तिगुत्तो-तीन गुप्ति वाले पंच महब्बय जुत्तो पांच महाक्तों छत्तीसगुणो= (इस प्रकार) छत्तीस से युक
गुणों वाले साधु पंच विहायार = पांच प्रकार का मज्झ= मेरे प्राचार
गुरू- गुरु हैं।
भावार्थ पाँच इन्द्रियों के वैषयिक चांचल्य को रोकनेवाले, ब्रह्मचर्य व्रत की नवविध गुप्तियों को-नौ वाड़ों को धारण करने वाले, क्रोध श्रादि चार प्रकार की कक्षयों से मुक, इस प्रकार अट्ठारह गुणों से संयुक्र ।
अहिंसा प्रादि पाँच महाव्रतों से युक्र, पाँच प्राचार के पालन करने में समर्थ, पाँच समिति और तीन गुप्ति के धारण करने वाले, अर्थात् उक छत्तीस गुणों वाले श्रेष्ठ साधु मेरे गुरु हैं ।
गुरुवन्दन सूत्र तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेमि, पदामि, नर्मसामि, सक्कारेमि, सम्माणेमि, कल्लाणं, मंगलं,
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शेम-सूत्र
देवयं, चेइयं, पज्जुवासामि, मत्थएण वंदामि।
शब्दार्थ तिक्खुत्तो - तीन बार
कल्लाणं = श्राप कल्याण रूप हैं अायाहिणं = दाहिनी ओर से मंगलं = मंगलरूप हैं पयाहिणं = प्रदक्षिणा, श्रावर्तन देवयं देवता रूप है करेमि = करता हूँ
चेइयं - ज्ञान रूप हैं वंदामि = स्तुति करता हूँ पज्जुवासामि = (मैं) श्रापकी पयुनमसामि = नमस्कार करता हूँ पासना सेवा भक्रि करता हूँ सक्कारेमि = सत्कार करता हूँ मस्थएएस मस्तक वानी मस्तक सम्माणेमि - सम्मान करता हूँ
मुका कर [श्राप कैसे है ? ] वंदामि वन्दना करता हूँ
भावार्थ
भगवन् ! दाहिनी ओर से प्रारम्भ करके पुनः दाहिनी ओर तक आप की तीन बार प्रदक्षिणा करता हूँ।
वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ, सस्कार करता हूँ, सम्मान करता हूँ।
श्राप कल्याण रूप हैं, मंगल रूप हैं। अप, देखता-सा हैं, चैतन्य स्वरूप = ज्ञानस्वरूप हैं ।
गुरुदेव ! श्रापकी [ मन वचन और शरीर से ] पर्युपासना सेवा भक्ति करता हूँ। विनय-पूर्वक मस्तक झुकाकर आपके चरण कमलों में वन्दना करता हूँ।
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श्रमण सूत्र
आलोचना-सूत्र इच्छाकारेण संदिसह भगव! इरियावहियं, पडिक्कमामि ?
इच्छामि पडिक्कमि, ॥१॥
इरियावहियाए, विराहणाए ॥ २ ॥ गमणागमणे, पाणक्कमणे,
बीयक्कमणे, हरिय-क्कमणे, श्रोसा उत्तिंग-पणग-दग-मट्टी-मक्कडासंताणा-संकमण।४॥
जे मे जीवा विराहिया ॥ ५ ॥ एगिदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरि दिया, पंचिंदिया ॥६॥ अभिहया, वत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया, ठाणाओ ठाणं संकामिया, जीवियाओ ववरोविया, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥७॥
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: ६ :
गोचरचर्या - सूत्र
पडिक मामि
गोयरचरियार, भिक्खायरियाए
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उग्घाड-कवाड-उग्घाडणार, साणा वच्छा-दारासंघट्टणाए, मंडी - पाहुडियाए, बलि- पाहुडियाए, ठवणापाहुडियाए, - संकिए, 'सहसागारे, असणार,
पाणभोयणाए, बीयभोयणार, हरियभोयणाए, पच्छाकम्मिया, पुरेकम्मियाए,
हिडा, दग-संस-हडाए, रय-संसट्ट-हडाए, पारिसाडगियाए, पारिट्ठावणियाए, हासण- भिक्खाए जं उग्गमेणं, उपायणेसणाए - अपरिसुद्ध, परिग्गहियं परिभुत्तं वा जं न परिट्ठवियं,
तस्स मिच्छा मि दुक्कडं !
१ – 'सहसागारिए' ऐसा भी कुछ प्रतियों में पाठ है । परन्तु जिनदास महत्तर और हरिभद्र आदि प्राचीन श्राचार्यों ने 'सहसागारे' पाठ का ही उल्लेख किया है ।
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शेष-सूत्र
३५५
शब्दार्थ भगवं=हे भगवन् !
(गुरुजनों की ओर से प्राज्ञा मिल इच्छाकारेण = इच्छापूर्वक जाने पर, या अपने संकल्प से ही संदिसह = प्राज्ञा दीजिए
प्राज्ञा स्वीकार करके अब साधक इरियावहियं = ऐापथिकी (प्राने
कहता है ] जाने की) क्रिया का इच्छं - आपकी प्राज्ञा शिरोधार्य है पडिकमामि = प्रतिक्रमण करूं
भावार्थ भगवन् ! इच्छा के अनुसार आज्ञा दीजिए कि मैं ऐपिथिकी = गमन मार्ग में अथवा स्वीकृत धर्माचरण में होने वाली पापक्रिया का प्रतिक्रमण करू ?....
उत्तरीकरण-सूत्र तस्स उत्तरीकरणेणं, पायच्छित्त-करणे, विसोही-करणेणं, विसल्ली-करणोणं पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए, ठामि काउस्सग्गं ॥१॥ १-शेष पाठ का शब्दार्थ और भावार्थ श्रमण-सूत्र के ५४ व प पर देखिए।
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लस्सन नसकी दूषित मामा की विसल्लीकर येणं शक मे मलिक उत्तरी करमेस्सं शेिष उ र
करने के लिए
पावाणं कम्मरण = पार कमों के पायच्छित्तकरगणेशं प्रायश्चित करने निकायगाए - विनाश के लिए
नि काउसमा कायोत्सर्ग अर्थात् विसोही करणेणं = विशेष निर्मलता शासक की क्रिया का त्याग
के लिए ठामि = करता हूँ
भावार्थ भारत की विशेष, अनिता श्रेषता के लिए, प्रायश्रित के विशेष निर्मलता के लिए, शल्य रहित होने के लिए, पार करें - पूर्णतया विनाश करने के लिए, मैं कायोत्सर्ग करता हूँ, अर्थात् प्रात्मविकास की प्राप्ति के लिए शीरसम्बन्धी समस्त चंचल व्यापारों का त्याग करता हूँ।
आगार-सूत्र अन्नत्थ ऊससिएणं नीससिएणं, खासिएणं, छोएणं, जंभाइएणं, उड्डुए, वायनिसग्गेणं, भमलीए, पित्तमुच्छाए सुहमेहि अंगसंचालेहि,
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३५७
शेष सूत्र सुहमेहि खेलसंचालेहि, सुहुमेहिं दिठ्ठि-संचालेहिं । एवमाइएहिं आगारेहि, अभग्गो, अक्शिहिलो, हज्ज मे काउस्सग्गो। जाव अरिहंताणं भगवंताणं, नमुक्कारेणं, न पारेमि, ताव कार्य ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं, अप्पाणं, वोसिरामि।
शब्दार्थ अन्नत्थ = आगे कहे जाने वाले भमलीए - चक्कर आने से
श्रागारों के सिवाय कायो- पित्तमुच्छाए =पित्तविकार के त्सर्ग में शेष काय-व्या. . कारण मूर्छा श्री पारों का त्याग करता हूँ
जाने से ऊससिएणं - ऊँचा श्वास लेने से सुहु मेहिं = सूक्ष्म, थोड़ा-सा भी नीससिएणं = नीचा श्वास लेने से अंग संचालेहि = अंग के संचार से खासिएणं = खांसी से
सुहुमेहिं = सूक्ष्म, थोड़ा-सा भी छीएणं = छींक से
खेल संचालेहिं = कफ के संचार से जंभाइएणं-जंभाई, उषासी लेने से सुहुमेहिं = सूक्ष्म, थोड़ा सा भी . उड्डुएणं = डकार लेने से दिट्ठिसंचालेहि-दृष्टि, नेत्र के संचार वायनिसग्गेणं = अधोवायु निक
लने से
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३५८
एवमाइएहिं = इत्यादि १ गारेदिं = आगारों से, अपवादों
से
श्रमण-सूत्र
मे - मेरा
काउस्सम्गो = कायोत्सर्ग
अभग्गो = श्रभग्न
श्रविराहिश्रो- श्रविराधित, श्रखंडित हुज्ज होवे
- -
[ कायोत्सर्ग कब तक ]
जाव = जब तक
अरिहंताणं = अरिहंत
भगवंताणं = भगवानों को नमुक्कारेणं = नमस्कार करके,
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यानी प्रकट रूप में 'नमोः अरि
इंताणं' बोल कर
न पारेभि = कायोत्सर्ग न पारू *
ताव = तब तक ( मैं ) ठाणे :
= एक स्थान पर स्थिर
रह कर...
मोसेस = मौन रह कर
झाणेणं = ध्यानस्थ रह कर अपाण = अपने
कार्य = शरीर को
वोसिरामि = बोसराता हूँ, त्यागता हूँ
भावार्थ:
कायोत्सर्ग में काय-व्यापारों का परित्याग करता हूँ, निश्चल होता हूँ, परन्तु जो शारीरिक क्रियाएँ अशक्य परिहार होने के कारण स्वभावतः हरकत में खा जाती हैं, उनको छोड़कर ।
उच्छवास ऊँचा श्वास, निःश्वास = नीचा श्वास, कासित = खांसी, छिar = छौंक, उबासी, डकार, अपान वायु, चक्कर, पित्तविकारजन्य मूर्छा, सूक्ष्म रूप से अंगों का हिलना, सूक्ष्म रूप सेकर्क का निकलना, सूक्ष्म रूप से नेत्रों का हरकत में श्री जाना, इत्यादि श्रागारों से मेरा कायोत्सर्ग अभग्न एवं श्रविराधित हो ।
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-
१- आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने श्रावश्यक नियुक्ति में यदि शब्द का निर्वचन करते हुए लिखा है कि यदि अग्नि का उपद्रव हो, पञ्चेन्द्रिय प्राणी का छेदन-भेदन हो, सर्प श्रादि श्रपने को अथवा किसी दूसरे को काट खाए तो आत्म रक्षा के लिए एवं दूसरों की सहायता करने के लिए ध्यान खोला जा सकता है ।
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शेष सूत्र
३५६
जब तक अरिहंत भगवान् को नमस्कार न कर लूं. अर्थात् 'नमो अरिहंताणं' न पढ़ लू, तब तक एक स्थान पर स्थिर रहकर, मौन रह-कर, धर्म वान' में चित्त की एकाग्रता करके अपने शरीर को पापव्यापारों से बोसिराता हूँ = अलग करता हूँ ।
१
( 19 )
चतुर्विंशतिस्तव - सूत्र
लोगस्स उज्जोय गरे,
अरिहंते कित्तस्सं,
धम्म-तिथयरे जिये ।
उसभमजयं च वंदे,
'चउवीसं पि केवली ॥ १ ॥
पउमप्पहं
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संभवमभिणंदणं च सुमई च । सुपासं, जिगं च चंदप्पहं वंदे ॥ २ ॥
सुविहिं च पुष्पदंतं,
सील - सिज्जंस - त्रासुपुज्जं च ।
विमलमरणंतं च जिणं,
धम्मं संतिं च वंदामि ॥ ३ ॥
कुंथुरं च मल्लि
वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च ।
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श्रमण-सूत्र
वंदामि रिट्ठनेमि,
पासं तह वद्धमाणं च ॥४।। एवं मए अभिथुआ,
विहुय-रयमला, पहीणजरमरणा। चउवीसं पि जिणवरा,
तित्थयरा मे पसीयंतु ॥॥ कित्तिय-वंदिय-महिया,
जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । आरुग्गबोहिलाभ,
समाहिवरमुत्तमं दितु ॥६॥ चंदेसु निम्मलयरा,
आइच्चेसु अहिंयं पयासयरा । सागर-वर-गंभीरा,
सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥७॥
शब्दार्थ लोगस्स - लोक में ... चउवीसंपिचौबीसों ही उज्जोयगरे = ज्ञान का प्रकाश केवली = केवल ज्ञानियों का करने वाले
कित्तइस्संकीत न करूंगा धम्मतित्थयरे = धर्मतीर्थ की उसमें = ऋषभदेव को
स्थापना करने वाले च% और जिणे = रागद्वेष के विजेता अजियं = अजितनाथ को अरिहंते=अरिहत भगवान् वंदे = वन्दना करता हूँ
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शेष-सूत्र
३६१ संभवं = संभव को
वन्दे = वन्दना करता हूँ अभिणंदणं च = और अभिनन्दन रिट्टनेमि =अरिष्टनेमि को " को
पासं = पार्श्वनाथ को सुमई च= और सुमति को तह = तथा पउमप्पहं = पद्मप्रभ को वद्धमाणं = वर्तमान स्वामी को सुपासं = सुपार्श्व को . वंदाभि - वन्दना करता हूँ च % और
एवं इस प्रकार चंदप्यहं = चन्द्रप्रभ
मए मेरे द्वारा जिणं = जिन को
अभिथुया = स्तुति किए गए वंदे = वन्दना करता हूँ विहुवरयमला= कर्मरूपी रज तथा सुविहिं च =और सुविधि, अर्थात्
मल से रहित पुःफदंतं = पुष्पदन्त को
पहीण जरमरणा = जरा और मरण सीअल =शीतल
से मुक्क सिज्जंस = श्रेयांस को वासुपुज्ज च = और वासुपूज्य को चउवीसंपि = ऐसे चौबीसों ही विमलं = विमल को
जिणवरा = जिनवर अणंतं च जिणं = और अनन्त तित्थयरा = तीर्थंकर देव
जिन को मे= मुझ पर धम्म = धर्मनाथ को
पसीयंतु - प्रसन्न होवें संतिं च = और शान्तिनाथ को जे जो वंदामि= वन्दना करता हूँ
ए-ये कुंथु - कुन्थुनाथ को
लोगस्स= लोक में अरं च - और अरनाथ को उत्तमा = उत्तन, मल्लि = मल्लि को
सिद्धा- तीर्थंकर सिद्ध भगवान मुणि सुव्वयं = मुनिसुव्रत को कित्तिय = वचन से कीर्तित, स्तुति च = और
.. किए गए नमिजिणं = नमि जिनको
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३६२
श्रमण सूत्र बंदिय = मस्तक से बन्दित श्राइच्चेसु = सूर्यो से भी महिया प्रभाव से पूजित, अहियं अधिक
रुग्ग-प्रारोग्य, आत्मिक शान्ति पयासयरा = प्रकाश करने वाले बोहिलोभ = सम्यग्दर्शन-रूप सागरवरमहासागर से भी अधिक
बोधि का लाभ गंभीरा = गंभीर, अक्षुब्ध समाहिवरमुत्तमं = उत्तम समाधि सिडा- तीर्थंकर सिद्ध भगवान् दिंतु = देवें
मम - मुझे च देसु = चन्द्रमाओं से
सिद्धि = सिद्धि, कर्मों से मुक्रि निम्मलयरा = निर्मसतर दिसंतु = देवे'
__ भाषार्थ __ अखिल विश्व में धर्म का उद्द्योत = प्रकाश करने वाले, धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले, ( राग-द्वेष के ) जीतने वाले, (अंतरङ्ग काम .. क्रोधादि ) शत्रुओं को नष्ट करने वाले, केवलज्ञानी चौबीस तीर्थंकरों का मैं कीर्तन करूँगा स्तुति करूंगा ॥१॥
श्री ऋषभदेव, श्री अजितनाथ जी को कन्दना करता हूँ। सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पमप्रभ, सुपावं, और राम-द्वष के विजेता चन्द्रप्रभ जिनको नमस्कार करता हूँ ॥२॥
श्री पुष्पदन्त (सुविधिनाथ ), शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमलनाथ, राग द्वेष के विजेता अनन्त, धर्म तथा "श्री शान्ति नाथ भगवान को नमस्कार करता हूँ ॥ ३ ॥
श्री कुन्धुनाथ, बरनाथ, भगवती मल्ली, मुनि सुनत, एवं रागद्वेष के विजेता नमिनाथ जी को वन्दना करता हूँ। इसी प्रकार अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ, ‘अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान (महावीर) “स्वामी को नमस्कार करता हूँ ॥ ४॥
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शैष-सूत्र जिनकी मैंने स्तुति की है, जो कर्म रूप धूल तथा मन से रहित हैं, जो जरा-मरण दोषों से सर्वथा मुक्र हैं, वे अन्तः शत्रुओं पर विजय पाने वाले धर्म प्रवर्तक चौबीस तीर्थकर मुझ पर प्रसन्न हों ॥५॥
जिनकी इन्द्रादि देवों तथा मनुष्यों ने स्तुति की है, वन्दना की है, भाव से पूजा की है, और जो अखिल संसार में सबसे उत्तम हैं, वे सिद्ध = तीर्थकर भगवान् मुझे आरोग्य सिद्धत्व अर्थात् आत्मशान्ति, बोधि- सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय का पूर्ण लाभ, तथा उत्समा समाधि प्रदान करें ।। ६ ॥ ___ जो अनेक कोटा-कोटि चन्द्रमाओं से.भी. विशेष निर्मल हैं, जो सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान हैं, जो स्वयम्भूरमण जैसे महासमुद्र से भी अधिक गम्भीर हैं; वे तीर्थंकर सिद्धः भगवान मुझे सिद्धि प्रदान करें, अर्थात् उनके अालम्बन से मुझे सिद्धि मोक्ष प्रास हो ॥ ७ ॥
प्रणिपात-सूत्र नमोत्थुणे:! अरिहंताणं, भगवंताणं, ॥१॥ श्राइगराणं, 'तिस्थपराणं, सयं-संबुद्धाणं ॥२॥ पुरिसुत्तमाणं, पुरिस-सीहाणं, पुरिसवरपुडरियाणं, पुरिसवरगंधहत्थीणं, ॥३॥ लोमुत्तमाणं, लोगनाहाणं, लोगहियाणं, लोगपईवाणं, लोग-पज्जोयगराणं ॥४॥
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३६४
श्रमण-सूत्र
अभयदयाणं, चक्खुदयाणं, मग्गदयाणं, सरणदयाणं, जीवदयाणं, बोहिदयाणं ॥२॥ धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवरचाउरंत-चक्कवट्टीणं ॥६॥ दीव-ताण-सरण-गइ-पइट्ठाणं, अप्पडिहय-बरनाण-दंसणधराणं, वियदृछउमाणं ॥७॥ जिणाणं, जावयाणं, तिषणाणं, तारयाणं, बुद्धाणं, बोहयाणं, मुत्ताणं, मोयगाणं ॥८॥ सव्व-न्नूणं, सब-दरिसीणं, सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाह,मपुणरावित्ति-सिद्धिगइनामधेयं' ठाणं संपत्ताणं, नमो जिणाणं, जियभयाणं ॥४॥
शब्दार्थ नमोत्थुणं = नमस्कार हो
स्थापना करने वाले अरिहंताणं अरिहन्त
सयंसंबुद्धाणं = अपने श्राप ही भगवंताणं - भगवान् को । - सम्यक बोध को पाने वाले
[भगवान् कैसे हैं ? ] पुरिसुत्तमाणं = पुरुषों में श्रेष्ठ अाइगराणं = धर्म की प्रादि करने पुरिससीहाणं = पुरुषों में सिंह
वाले पुरिसवरपुंडरियाणं = पुरुषों में तित्थयराणं - धर्म तीर्थ की
श्रेष्ठ श्वेतकमल के समान १-अरिहंत स्तुति में 'ठाणं संपत्ताणं' के स्थान पर 'ठाणं संपाविउ कामाणं, कहना चाहिए।
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शेष-सूत्र
शब्दार्थ
पुरिस हमें में
गइ = गति-प्रायरूप वरगंधहत्थीणं- श्रेष्ठ यमबहस्ती पहावंसप्रतिधा-साधाररूप लोगुत्तवाणं = लोक में उत्तम. अप्पडिहय प्रतिहत किसी भी लोगनाहाणं लोक के नाथ रुकावट में नवाने वाले, ऐसे लोगहिया - लोक के हितकारी वर नाराईसाधराणं = श्रेष्ठ ज्ञान लोगपईवाणं = लोक में दीपक
दर्शन के धारक लोगपज्जोयगराणं = लोक में ज्ञान वियट्ट छउमाणं = छद्म-प्रमाद से का प्रकाश करने वाले
रहित अभय दया अभयदान देने वाले जिणाणं = राम-दुष के जीतने चक्खुदयाणं% ज्ञान नेत्र के देने
काले वाले जावयाणं-दूसरों को जिताने वाले मग्गदयाणं = मोक्षमार्ग के दाता विन्नाणं = स्वयं संसार सागर से सरणदयाणं = शरण के दाता जीवदयाणं-संयमजीवन के दाता तारयाणं = दूसरे को तारने वाले बोहित्यासावरकरूप अधिक बुद्धा = स्वयं बोध को प्राश हुए
के दाता. मेहसाणं - इसरों को बोध देवे. धम्मदयाणं = धर्म के दाता
वाले. धम्मदेसयाणं = धर्म के उपदेशक मुत्ताणं = स्वयं कर्मों से मुक्त अपमनायगावं-धर्म के नेता मोयगाणं = दूसरों को मुक्त कराने धाम सारहीसं-धर्मस्म के सारथी
वाले धम्मवर धर्म के सबसे श्रेष्ठ सव्वन्नूर सस सरंत-ससे पति के प्रख- सम्बदरिसीसं = सबद तथा
करने वाले सिवं-शिव, कल्याण रूप चक्कवट्टीणं = (धर्म) चक्रवर्ती प्रयलं : अचल, स्थिर स्वरूप.. दीव= (भवसागर में) द्वीपरूप अरुयं = अरुज, लेग से रहित ताण - रक्षारूप
अणंतं = अनंत, अन्त से रहित अक्खयं = अक्षम, जयः से रहित
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श्रमण-सूत्र
श्रव्वाबाहं% अव्याबाध, बाधा से ठाणं - स्थान, पद को रहित
संपत्ताणं = प्राप्त करने वाले अपुणरावित्ति-अपुनरावृत्ति, पुनरा- नमो नमस्कार हो
मगन से रहित, (ऐसे) जिणाणं = जिन भगवान को सिद्धिगइनामधेयं =सिद्धिगति जियभयाणं भय पर विजय पाने नामक
वालों को
भावार्थ श्री अरिहंत भगवान् को नमस्कार हो। ( अरिहंत भगवान् कैसे हैं ? ) धर्म की प्रादि करने वाले हैं, धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले हैं, अपने आप प्रबुद्ध हुए हैं।
पुरुषों में श्रेष्ठ हैं, पुरुषों में सिंह हैं, पुरुषों में पुण्डरीक कमल हैं, पुरुषों में श्रेष्ठ गन्ध हस्ती हैं । लोक में उत्तम हैं, लोक के नाथ हैं, लोक के हितकर्ता हैं, जोक में दीपक हैं, लोक में उद्योत करने वाले हैं।
अभय देने वाले हैं, ज्ञान रूपी नेत्र के देने वाले हैं, धर्ममार्ग के देने वाले हैं, शरण के देने वाले हैं, धर्म के दाता हैं, धर्म के पदेशक हैं, धर्म के नेता है, धर्म के सारथी-संचालक हैं।
चार गति के अन्त करने वाले श्रेष्ठ धर्म के चक्रवर्ती हैं, अप्रतिहत एवं श्रेष्ठ ज्ञान दर्शन के धारण करने वाले हैं, ज्ञानावरण आदि घातिक कर्म से अथवा प्रमाद से रहित हैं। स्वयं राग-द्वष के जीतने वाले हैं, दूसरों को जिताने वाले हैं, स्वयं संसार सागर से तर गए है, दूसरों को तारने वाले है, स्वयं बोध पा चुके हैं, दूसरों को बोध देने वाले हैं, स्वयं कर्म से मुक हैं, दूसरों को मुक कराने वाले हैं।
सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं। तथा शिव-कल्याणरूप मचल = स्थिर,
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शेष-सूत्र
.. ३६७ अरुज रोग रहित, अनन्त = अन्तरहित, अक्षय = क्षयरहित, अव्याबाध = बाधा पीड़ा रहित, अपुनरावृत्ति= पुनरागमन से रहित अर्थात् जन्म मरण से रहित, सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त कर चुके हैं, भय के जीतने वाले हैं, राग-द्वष के जीतने वाले है -उन जिन भगवानों को मेरा नमस्कार हो।'
१. श्रमण सूत्र के अतिरिक्त जो प्राकृत पाठ हैं, उनका यह शेष सूत्र के नाम से संग्रह कर दिया है । इनका विवेचन लेखक की सामायिकमंत्र नामक पुस्तक में देखिए ।
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संस्कृतच्छायाऽनुवाद
[श्रमण सूत्र ]
नमस्कार सूत्र नमोऽर्हद्भ्यः नमः सिद्धेभ्यः नम आचार्येभ्यः नम उपाध्यायेभ्यः नमो लोके सर्व साधुभ्यः ।
( २ )
सामायिक मूत्र करोमि भदन्त ! 'सामायिकम् । __ सर्व सापद्यम् = समापं-पाप सहितं, योगम्-व्यापारं प्रत्याख्यामि%D प्रत्याचक्षे याजीवया यावजीवनम् , यावत् मम जीवनपरिमाणं तावत्
१--'भयान्त !' इति हरिभद्राः
२-“यावजीवता, तया यावजीवतया । तत्रालाक्षणिकवर्ण लोपात् 'जावजीवाए' इति सिद्धम् । अथवा. प्रत्याख्यानक्रिया अन्यपदार्थ. इति तामभिसमीक्ष्य समासो बहुव्रीहिः, यावजीवो यस्यां सा यावजीवा तया ।"
-हरिभद्रीय आवश्यक वृत्ति
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संस्कृतच्छायाऽनुवाद त्रिविधं त्रिविधेन' मनसा वाचा कायेन न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमपि अन्यं न समनुजानामिनानुमन्येऽहम् तस्य भदन्त । प्रतिक्रमामि= निवर्त्तयामि निन्दामि=स्वसाक्षिकं जुगुप्से गहे. = भवत्साक्षिर्फ जुगुप्से
आत्मानं = अतीतसावद्ययोगकारिणम् व्युत्सृजामि=विविधं विशेषेण वा भृशं त्यजामि !
मङ्गल-सूत्र चत्वारः [पदार्था इतिगम्यते ] मङ्गलम् अर्हन्तो मङ्गलम् सिद्धा मङ्गलम् साधवो मङ्गलम् केवलि-प्रज्ञप्तो धर्मो मङ्गलम् ।
१-तिस्रो विधा यस्य सावय-योगस्य स त्रिविधः, सच प्रत्याख्येयः स्वेन कर्म संपद्यते, कर्मणि च द्वितीया विभक्तिः, अतस्तं त्रिविधं योगमनोवाक्का यव्यापारलक्षणम् ।
२-त्रिविधेनेति करणे तृतीया ।
३-तस्य इत्यधिकृतो योगः संबध्यते। कर्मणि द्वितीया प्रातापि अवयवावयविसम्बन्धलक्षणा षष्ठी।
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भ्रमण-सूत्र
उत्तम-सूत्र चत्वारो लोकोत्तमाः अर्हन्तो लोकोत्तमाः सिद्धा लोकोत्तमाः साधवो लोकोत्तमाः केवलि-प्रज्ञप्तो धर्मों लोकोत्तमः।
शरण-सूत्र चतुरः शरणं प्रपद्ये अर्हतः शरणं प्रपद्ये सिद्धान् शरणं प्रपद्ये साधून शरणं प्रपद्ये. केवलि-प्रज्ञप्तं धर्मं शरणं प्रपद्ये।
(६)
संक्षिप्त प्रतिक्रमण-सूत्र इच्छामि = अभिलषामि, प्रतिक्रमितुम् -निवर्तितुम्, [ कस्य । यो मया देवसिकः= दिवसेन निवृत्तो दिवसपरिमाणो वा दैवसिकः, अतिचारः = अतिचरणं अतिचारः अतिक्रम इत्यर्थः, कृतः= निवर्तितः [ तस्य इति योगः]
[कतिविधः अतिचारः ? ] कायिक:- कायेन शरीरेण निवृत्त १-आश्रयं गच्छामि, भक्तिं करोमीत्यर्थः ।
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. संत्कृतच्छायाऽनुवाद कायिकः . कायकृत इत्यर्थः, वाचिकः = वाक्कृतः, मानसिकःमनःकृतः ।
[ पुनः किं स्वरूपः कायिको वाचिकश्च ? ] उत्सूत्रः= ऊर्ध्व सूत्राद् उत्सूत्रः सूत्रानुक्त इत्यर्थः, उन्मार्गः, अकल्पः (ल्प्यः)= कल्पो विधिः श्राचारः न कल्पः अकल्पः, कल्प्यः-चरणकरणव्यापारः न कल्प्यः अकल्प्यः, अकरणीयः ।
[ मानसिकः किं स्वरूपः ? ] दुातः = दुष्टो ध्यातः दुर्ध्यातः, दुर्विचिन्तितः, अनाचारः,. अनेष्टव्यः = मनागपि मनसाऽपि न प्रार्थनीयः, अश्रमणप्रायोग्यः=न श्रमणप्रायोग्यः श्रमणानुचित इत्यर्थः,
[किं विषयोऽतिचारः ? ] ज्ञाने तथा दर्शने चारित्रे [भेदेन वर्णयति ] श्रुते, सामायिके
[सामायिकातिचारं भेदेनाह ] तिसृणां गुप्तीनां, चतुर्णा कषायाणां, पञ्चानां महाव्रताना, षण्णां जीवनिकायानां, सप्तानां पिण्डैषणानां, अष्टानां प्रवचनमातृणां, नवानां ब्रह्मचर्य गुप्तीनां, दशविधे श्रमण धर्मे श्रमणानां योगानाम् = व्यापाराणाम्
यत्खण्डितं =देशतो भग्नं, यद्विराधितं =सुतरां भग्नम् तस्य मिथ्या मम दुष्कृतम् !
(७)
ऐर्यापथिक-सूत्र इच्छामि प्रतिक्रमितुम् ईर्यापथिकायां चिराधनायाम् [ योऽतिचार इति वाक्यशेषः]
गमनागमने, प्राणाक्रमणे - प्राण्याक्रमणे, बीजाक्रमणे, हरिताक्रमणे,... अवश्यया - उत्तिङ्ग - पनक-दक-मृत्तिका-मर्कट-संतानसंक्रमणे [ सति इति वाक्यशेषः ]
ये मया जीवा विराधिताः-दुःखेन स्थापिताः।
.
२०या
.
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श्रमण-सूत्र
... एकेन्द्रियाः, द्वीन्द्रियाः, त्रीन्द्रियाः, चतुरिन्द्रियाः, पञ्चेन्द्रियाः . अभिहताः- अभिमुखागता हताः, चरणेन घट्टिता, उल्क्षिप्य क्षिप्ता वा, बर्तिताः = पुखीकृता, धूल्या वा स्थगिताः, श्लेषिताः- पिष्टा, भूम्यादिषु बा लगिताः, संघातिता= अन्योन्यं गात्ररेक्कत्र लगिताः, संघट्टिताः=मनाक् स्पृष्टाः, परितापिताः म समन्ततः पीडितार, क्लामिताः% समुद्घातं नीताः, ग्लानिमापादिताः, प्रवद्राविताः उत्त्रासिताः, स्थानात्स्थानान्तर संक्रामिता-स्वस्थानात् परं स्थानंनीताः, जीविताद् व्यपरोपिताः= व्यापादिताः
तस्य - अतिचारस्य, मिथ्या मम दुष्कृतम् ।
शय्या-सूत्र इच्छामि प्रतिक्रमितु प्रकामशास्यया शयनं शय्या प्रकास चातु यामं शयनं प्रकामशय्या तया, दीर्घकालनयनेत्र', निकासशय्यथा कम प्रतिदिक्वं प्रकामशाय्यक निकामशय्या उच्यते तया, उद्वर्तनया = तत्प्रथमतया वामपावेन सुप्तस्य दक्षिणपाइँन वर्तनम् उद्यतनम् , उद्वर्तनमेल उद्वर्तना तया, परिवर्तनया-पुनर्वामपाश्वेनैव परिवर्तनम् तदेव परिवर्तना तया, श्राकुचनया= हस्तपादादीनां सङकोचनया, प्रसारणयाहस्तपादादीनां विक्षेपणया, षट्राविकालंघनया-यूकानां स्पर्शनया
कूजिते - अविभिना अयतनया कासिते सति, कर्करायिते - विषमेयमित्यादि शय्यादोषोच्चारणे, जुते, अविधिना जृम्भिते, थामा का अप्र.
१-बोस्तेऽस्यामिति का शय्या संस्तारकादिलदाणा प्रकामा उत्कटा शय्या प्रकामशय्या-संस्तारोत्तरपट्टकातिरिक्ता प्रावरणामधिकृत्य कल्प त्रयातिरिक्ता वा तया हेतुभूतया ।
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संस्कृतच्छायाऽनुवाद
३७३
सृज्य करण स्पर्शने, सरजस्कामर्षे = पृथिव्यादिरजसा सह यद् बस्तु स्पृष्ट तत्संस्पर्शे सति, -
श्राकुलाकुलया - स्यादिपरिभोगविवाहयुद्धादिसंस्पर्शननामाप्र - कारया, स्वप्न प्रत्ययया स्वप्ननिमित्तया, विराधनया स्त्रीवैपर्यासिक्या = स्त्रिया विपर्यासो ब्रह्मसेवनं तस्मिन् भवा स्त्री वैपर्यासिकी तया, दृष्टिवैपर्यासिक्या स्त्रीदर्शनानुरागतस्तदवलोकनं दृष्टिविपर्यासः तस्मिन् भवा दृष्टिवैपर्यासिकी तथा मनोवैपर्यासिक्या = मन॑सा श्रध्युपपातो मनोविपर्यासः तस्मिन् भवा मनोवैपर्यासिकी तया, पानभोजनवे पर्यासिक्या रात्रौ पानभोजनपरिभोग एव तद् विपर्यासः तस्मिन् भवा पानभोजन पर्यासिकी तया [ विराधनया इति शेषः सर्वत्र ]
यो मया देवसिकः अतिचारः कृतः मिध्या मम दुष्कृतम् !
तस्य
( ह ) गोचरचर्या - सूत्र
प्रतिक्रमामि गोचरचर्यायां गोश्वरण' गोचरः, चरणं चर्या, गोचर इव चर्या गोचरचर्या तस्याम्, भिक्षाचर्यायां = भिक्षार्थं चर्या भिक्षाचर्या तस्याम्,
"
उद्घाटकपाटोद्घाटनया: = उद्घाट श्रदत्तार्गलं ईषत्स्थगितं वा कपाटम् तस्योद्घाटनं तदेव उद्घाटकपाटोद्घाटना तयाः श्ववत्सदारकसंघट्टनया; मेएडी प्राकृतिकयात्रान्तरेऽकूर संस्वा यां प्राभृ तिको भिक्षां ददाति सा मॅरोडीप्राभृतिका तया, बलिप्राभृतिर्कया = चतुर्दिशं वह्नौ वा बलि क्षिप्त्वा ददाति यत्सा बलिप्राभृतिका तया, स्थापनाप्रामृर्तिकया भिक्षाचरार्थे स्थापिता स्थापनाप्रभृतिका तयाशङ्किते = आधा कर्मादिदोषाणामन्यतमेन शङ्किते गृहीते सति, सहसाकारे = झटित्यकल्पनीये गृहीते सति, -
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श्रमए-सूत्र
अनेषणया अनेन प्रकारेण अनेषणया हेतुभूतया; प्राणभोजनया प्राणिनो रसजादयः भोजने दध्योदनादौ विराध्यन्ते यस्यां प्राभृतिकायां सा प्राणिभोजना तया, बीजभोजनया, हरितभोजनया, पश्चात्कर्मिकया पश्चाद्दानानन्तरं कर्म जलोज्झनादि यस्यां सा पश्चात्कर्मिका तया; पुरः कर्मिकया-पुरः पादौ कर्म यस्यां सा पुरः कर्मिका तया; अदृष्टाहृतया अदृष्टोत्क्षेपनिक्षेपमानीतया उदकसमृष्टाहतया जलसम्बद्धानीतया; रजः संस्कृष्टाहतया; पारिशाटनिकया = परिशाटनं उज्झनं तस्मिन् •भवा पारिशाटनिका तया; 'पारिष्ठापनिकया = परिष्ठापनं प्रदानभाजनगतद्रव्यस्याऽन्यस्मिन् पात्रे उज्झनम् तेन निवृत्ता पारिष्ठापनिकी तया; अथवा परि सर्वैः प्रकारैः स्थापन परिस्थापनमपुनर्ग्रहणतया न्यासः, तेन निवृत्ता पारिष्ठापनिकी तया; अधभाषणभिक्षया = अवभाषणेन विशिष्ट द्रव्य-याचनेन लब्धा भिक्षा अवभाषणभिक्षा तया;
यद्-अशनादि उद्गमेन = श्राधाकर्मादिलक्षणेन; उत्पादनया = धान्यादिलक्षणया, एपणया-शकितादिलक्षणया; अपरिशुद्धं परिगृहीतं परिभुक्त वा, यत् न परिष्ठापितम्-कथंचित्परिगृहीतमपि सदोषं भोजनं यन्नोज्झितम्, परिभुक्तमपि च भावतः अपुनः करणादिना प्रकारेण नोज्झितम्,
तस्य मिथ्या मम दुष्कृतम् !
(१०)
काल प्रतिलेखना-सूत्र प्रतिक्रमामि चतुष्कालं = दिवसरात्रि-प्रथमचरमप्रहरेषु, स्वाध्यायस्य - सूत्रपौरुषील क्षणस्य; अकरणतया अनासेवनतया हेतुभूतया [ यो मया देवसिकोऽतिचारः तस्य इति योगः]
उभयकालं प्रथमपश्चिम पौरुषीलक्षणे काले; भाएडोपकरणस्यपात्रवस्त्रादः; अप्रत्युपेक्षणया मूलत एव चक्षुषा अनिरीक्षणया;
प्राचार्य हरिभद्र ‘पारिस्थापनिकया' लिखते हैं ।
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संस्कृतच्छायाऽनुवाद
३७५
दुष्प्रत्युपेक्षरपया = दुर्निरीक्षणलक्षणयाः श्रप्रमार्जनया = मूलत एव रजोहरणादिनाऽस्पर्शनया, दुष्प्रमार्जनया = प्रविधिना प्रमार्जनया,
अतिक्रमे, व्यतिक्रमे, अतिचार, अनाचार,
यो मया दैवसिकः अतिचारः कृतः, तस्य मिथ्या
मम
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दुष्कृतम् !
( ११ ) असंयम सूत्र
प्रतिक्रमामि एकविधे = एकप्रकारे असंयमे [ = श्रविरतिलक्षणे सति श्रप्रतिषिद्धकरणादिना यो मया देवसिकोऽतिचारः कृत इति गम्यते तस्य मिथ्या दुष्कृतमिति सम्बन्धः । एवमन्यत्रापि योजना कार्या ] ( १२ )
बन्धन सूत्र
प्रतिक्रमामि द्वाभ्यां बन्धनाम्याम् = हेतुभूताभ्याम् [ योऽतिचारु कृतस्तस्मात् ]
(१) राग - बन्धनेन, ( २ ) द्वेष - बन्धनेन
!
( १३ )
दण्ड सूत्र
प्रतिक्रमामि त्रिभिः दण्डैः हेतुभूतैर्योऽतिचारस्तस्मात् (१) मनोदण्डेन, (२) बचोदण्डेन (३) कायदण्डेन ।
( १४ )
गुप्ति सूत्र
प्रतिक्रमामि तिसृभिः गुप्तिभिः = सम्यग् अपरिपालिताभिः हेतुभूताभिः ।
(१) मनोगुप्त्या, (२) बचोगुप्त्या, (३) कायगुप्त्या !
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श्रमण-सूत्र
शल्य सूत्र प्रतिक्रमामि त्रिभिः शल्यैः
(१) मायाशल्येन (२) निदानशल्येन (३) मिथ्यादर्शनशल्येन।
गौरव सूत्र प्रतिक्रमामि त्रिभिः गौरवैः,(१) ऋद्धिगौरवेण, (२) रसगौरवेसा, (३)सातगौरवेण।
विराधना सूत्र प्रतिक्रमामि तिसृभिः विराधनाभिः,
(१) ज्ञानविराधनया, (२) दर्शनविराधनया (३) चारित्रविराधनया।
(१८)
कषाय सूत्र प्रतिक्रमामि चतुर्भिः कषायैः,(१) क्रोधकषायेन, (२) मानकषायेन (३.) मायाकष्णयेन, (४) लोभकषायेन ।
संज्ञा स्त्र . प्रतिकमामि चतुर्भि: संज्ञाभिः
(१) आहारसंज्ञया, (२) भयसंज्ञया, । (३) मैथुनसंज्ञया,. ४) परिग्रह-संशया !
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श्रमण-सूत्र
है, पाप पुण्य का पता चलता है, कर्तव्य अकर्तव्य का ज्ञान होता है। स्वाध्याय हमारे अन्धकारपूर्ण जीवन पथ के लिए दीपक के समान है। जिस प्रकार दीपक के द्वारा हमे मार्ग के अच्छे और बुरे पन का पता चलता है और तदनुसार खराब ऊबड़-खाबड़ मार्ग को छोड़ कर अच्छे, साफ़ सुथरे पथ पर चलते हैं, ठीक उसी प्रकार स्वाध्याय के द्वारा हम धर्म और अधर्म का पता लगा लेते हैं और जरा विवेक का आश्रय लें तो अधर्म को छोड़कर धर्म के पथ पर चलकर जीवन यात्रा को प्रशस्त बना सकते हैं।
शास्त्रकारों ने स्वाध्याय को नन्दन वन की उपमा दी है। जिस प्रकार नन्दन वन में प्रत्येक दिशा की ओर भव्य से भव्य दृश्य, मन को श्रानन्दित करने के लिए होते हैं, वहाँ जाकर मनुष्य सब प्रकार की दुःख क्लेश सम्बन्धी झझटे भूल जाता है, उसी प्रकार स्वाध्यायरूप नन्दन वन में भी एक से एक सुन्दर एवं शिक्षा-प्रद दृश्य देखने को मिलते हैं, तथा मन दुनियावी झझटों से मुक्त होकर एक अलौकिक आनन्द-लोक में विचरण करने लगता है । स्वाध्याय करते समय कभी महापुरुषों के जीवन की पवित्र एवं दिव्य झाँकी आँखों के सामने आती है, कभी स्वर्ग
और नरक के दृश्य धर्म तथा अधर्म का परिणाम दिखलाने लगते हैं । कभी महापुरुषों की अमृतवाणी की पुनीत धारा बहती हुई मिलती है, कभी तर्क-वितर्क की हवाई उड़ान बुद्धि को बहुत ऊँचे अनन्त विचाराकाश में उठा ले जाती है। और कभी कभी श्रद्धा, भक्ति एवं सदाचार के ज्योतिमय आदर्श हृदय को गद्गद् कर देते हैं। शास्त्रवाचन हमारे लिए 'यत् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे' का आदर्श उपस्थित करता है । जब कभी आपका हृदय बुझा हुआ हो, मुरझाया हुआ हो, तुम्हें चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार घिरा नजर आता हो, कदम-कदम पर विघ्नबाधाओं के जाल बिछे हुए हों तो आप किसी उच्चकोटि के पवित्र आध्यात्मिक ग्रन्थ का स्वाध्याय कीजिए | आप का हृदय ज्योतिर्मय हो जायगा, चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश बिखरा नजर अायगा, विन्नबाधाएँ चूर-चूर होती
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संस्कृतच्छायाऽनुवाद
( २० )
विकथा सत्र प्रतिक्रमामि चतसृभिः विकथाभिः,(१) स्त्रीकथया (२) भक्तकथया, (३) देशकथया (४) रामकथया !
( २१ )
ध्यान सूत्र प्रतिक्रमामि चतुर्भिः ध्यानैः, [अशुभैः कृतः शुभैश्चाकृतैः] (१) आतेन ध्यानेन, (२) रौद्रण ध्यानेन (३) धर्मेण ध्यानेन, (४) शुक्लेन ध्यानेन ।
(२२)
क्रिया-सूत्र प्रतिक्रमामि पञ्चभिः क्रियाभिः,(१) कायिक्या (२) आधिकरणिया
(३) प्राद्वेषिक्या (४) पारितापनिक्या, (५) प्राणातिपातक्रियया।
(२३)
कामगुण सूत्र प्रतिक्रमामि पञ्चभिः कामगुणैः
(१) शब्देन (२) रूपेण, (३) गन्धेन, (४) रसेण, (५) स्पर्शन ।
(२४)
महाबत सूत्र ... प्रविक्रमामि पञ्चभिः महाव्रतैः = सम्यगपरिपालितः
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३७८
श्रमण-सूत्र
(१) सर्वस्मात् प्राणातिपाताद् विरमणम् (२) सर्वस्माद् मृषावादाद् विरमणम् (३) सर्वस्माद् अदत्तादानाद् विरमणम् (४) सर्वस्माद् मैथुनाद् विरमणम्, (५) सर्वस्मात् परिग्रहाद् विरमणम् !
(२५)
समिति सूत्र प्रतिक्रमामि पञ्चभिः समितिभिः = सम्यगपरिपालिताभिः
(१) ईर्यासमित्या, (२) भाषासमित्या, (३) एषणासमित्या, (४) आदान भाण्डमात्र निक्षेपणा समित्या, (७) उच्चार-प्रस्रवण-खेल-सिङ्घाण-जल्ल पारिष्ठापनिकासमित्या !
(२६)
जीवनिकाय सूत्र प्रतिक्रमामि षडभिः जीवनिकायैः [ कथंचित्पीडितः]
(१) पृथिवी कायेन, (२) अपकायेन, (३) तेजः कायेन, (४) वायुकायेन (५) वनस्पतिकायेन (६) त्रसकायेन !
(२७)
लेश्या सूत्र प्रतिक्रमामि पद्भिः लेश्याभिः = अशुभाभिः कृताभिः, शुभाभिरकृताभिः
(१) कृष्णलेश्यया, (२) नीललेश्यया (३) कापोतलेश्यया; (४) तेजोलेश्यया (५) पद्मलेश्यया (६) शुक्ललेश्यया।
(२८)
भयादि सूत्र सप्तभिः भयस्थानः, अष्टभिः मदस्थानः, नवभिः ब्रह्मचर्य
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संस्कृतच्छायाऽनुवाद
३७६ गुप्तिभिः [ सम्यगपालिताभिः ] दशविधे श्रमण धर्म, एकादशभिः उपासक प्रतिमाभिः [अश्रद्धानवितथप्ररूपणामिः] द्वादशभिः भिक्षुप्रतिमाभिः, त्रयोदशभिः क्रियास्थानः, चतुर्दशभिः भूतग्रामैः [विराधितैः ] ; पञ्चदशभिः परमाधार्मिकैः [ एतेषां पापकर्मानुमोदनाभिः]; षोडशभिः गाथाषोडशः - सूत्रकृताङ्गाद्यश्रु तस्कन्धोध्ययनः [एषामविधिना पठनादिभिः] सप्तदशविधे संयमे; अष्टादशविधेऽब्रह्मचर्ये; एकोनविंशत्या ज्ञाताध्ययनैः; विंशत्या असमाधिस्थानः; एकविंशत्या शबलैः; द्वाविंशत्या परीषहैः [ सम्यगसोढः] त्रयोविंशत्या सूत्रकृताध्ययनैः; चतुर्विंशत्या देवैः; पञ्चविंशत्या भावनाभिः [ अभाविताभिः ]; पविशत्या दशा-कल्प व्यवहाराणामुद्देशनकालैः [अविधिना गृहीतैः ] ; सप्तविंशत्या अनगारगुणैः; अष्टाविंशत्या प्राचार-प्रकल्पैः; एकोनविंशता पापश्रुतप्रसङ्गः [पापकारण तासेवनैः ]; त्रिंशता मोहनीयस्थानः [कृतैः चिकीवितैर्वा एकत्रिंशता सिद्धादिगुणः द्वात्रिंशता योगसंग्रहैः [अननुशीलितैः ]; त्रयस्त्रिंशता आशातनाभिः= अवज्ञाभिः. (१) अर्हतामाशातनया, (२) सिद्धानामाशातनया, (३)
आचार्याणामाशातनया, (४) उपाध्यायानामाशातनया, (५) साधूनामाशातनया, (६) साध्वीनामाशातनया, (७) श्रावकाणामाशातनया, (८) श्राविकाणामाशातनया, (६) देवानामाशातनया, (१०) देवीनामाशातनया, (११) इहलोकस्य आशातनया, (१२) परलोकस्य आशातनया, (१३) केवलिप्रज्ञप्तस्य धमस्य आशातनया, (१४) सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य अाशातनया, (१५) सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्त्वानामाशातनया, (१६) कालस्य अाशातनया, (१७) श्रुतस्य आशातनया, (१८) श्रुतदेवतायाः पाशातनया, (१६) वाचनाचार्यस्य आशातनया, (२०) यद् व्याविद्धम् = विपर्यस्तम् (२१) व्यत्या
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३८०
श्रमण-सूत्र
नंडितम् - द्विस्त्रिरुक्तम् (२२) हीनाक्षरम् - त्यक्ताक्षरम, (२३) श्रत्यज्ञरम - अधिकाक्षरम् , (२४) पदहीनम् (२५) विनयहीनम् (२६) योगहीनम् = योगरहितम् (२७ ) घोषहीनम् , (२८) सुष्ठ दत्तम् , (२६) दुष्ठ प्रतीकिछतम् , (३०) अकाले कृतेः म्वाध्यायः, (३१) काले न कृतः स्वाध्यायः, (३२) अस्था. ध्यायिके स्वाध्यायितम, (३३) स्वाध्यायिके न स्वाध्याथित्तम् ।
थो मया देवसिकः अतिचारः कृतः, तस्य मिथ्या मम दुष्कृतम् !
( २६ )
अन्तिम प्रतिज्ञा-सूत्र नमः, चतुर्विशत्यै तीर्थकरेभ्यः, ऋषभादि-महावीरपर्यवसामेभ्यः। - इदमेव नैर्ग्रन्ध्यं प्रावचमम् = जिनशासनम् सत्य, अनुत्तर, कैवलिक, प्रतिपूर्ण, नैयायिक = मोक्षगमक, संशुद्ध, शल्यकर्तन, सिद्धिमार्गः, मुक्तिमार्गः, निर्याणमार्गः= मोक्षमार्गः, निर्वाणमार्गःश्रात्यन्तिकसुखमार्गः, अवितथं, अविसन्धि = अव्यवच्छिन्न, सर्वदुःखाहीमार्गः। - अत्र स्थिता जीवाः सिद्धयन्ति, बुद्धयन्त, मुच्यन्ते, परिनिर्वान्ति, सर्वदुःखानामन्तं = विनाशं कुर्वन्ति ।
तं धर्म अदधे, प्रतिपद्य, रोचयामि, स्पृशामि, पालथामि, . अनुपालयामि।
तं धर्म श्रद्दधानः, प्रतिपद्यमानः, रोचयन, स्पृशम् , पालयन्, . अनुपालयन् ।
तस्य धर्मस्व अभ्युत्थितोऽस्मि आराधमायां, विरतोऽस्मि विराधनायाम् ।
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संस्कृतच्छायाऽनुवाद
३८१. असंयम परिजानामि, संयममुपसंपद्य । अब्रह्म परिजानामि, ब्रह्म उपसंपद्ये । अकल्पं परिजानामि, कल्पमुपसंपर्छ। अज्ञानं परिजानामि, ज्ञानमुपसंपर्छ । अक्रियां परिजानामि, क्रियामुपसंपद्ये। मिथ्यात्वं परिजानामि, सम्यक्त्वमुपसंपधे । अबोधिं परिजानामि, बोधिमुपसंपर्छ। ममार्ग परिजानामि, मार्गमुपसंपर्छ। ___यत्स्मरामि, यच् च न स्मरामि । यत्प्रतिक्रमामि, यच च न प्रतिक्रमामि । तस्य सर्वस्य देवसिकस्य अतिचारस्य प्रतिक्रमामि ।
श्रमणोऽहम, संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यातपापकर्मा, अनिदानः, दृष्टि-सम्पन्नः, मायामृषाविवर्जितः ।
अर्ध - तृतीयेषु द्वीप-,
समुद्रषु पञ्चदशसु कर्मभूमिषु । यावन्तः केऽषि साधवः,
रजोहरण-गोच्छप्रतिग्रहधराः !!
पञ्चमहाव्रतधराः,
अष्टादश शीलान - सहस्र-धराः ! अक्षताचार-चारित्राः, तान् सर्वान शिरसा मनसा मस्तकेन वन्दे !!
( ३० )
क्षमापना-सूत्र श्राचार्य-उपाध्याये,
शिष्ये साधर्मिके कुल-गणे च । ये मया केऽपि कषायाः,
सर्वान् त्रिविधेन क्षमयामि ।।
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३८२
सर्वस्य
सर्वं
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श्रमण सूत्र
( २ )
श्रमण - सङ घस्य,
भगवतोऽञ्जलिं कृत्वा शीर्षे ।
क्षम यित्वा, क्षाम्यामि सर्वस्य अहकमपि !!
सव
मैत्री मे
वैरं
( ३ )
क्षमयामि सर्वान् जीवान,
जीवाः
मम
सर्वभूतेषु,
न
एवमहमालोच्य,
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क्षाभ्यन्तु मे ।
केनचित् ॥
( ३१ )
उपसंहा सूत्र र
निन्दित्वा गर्हित्वा जुगुप्सित्वा सम्यक् ।
त्रिविधेन प्रतिक्रान्तो,
वन्दे जिनान् चतुर्विंशतिम् ॥ १ ॥
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परिशिष्ट
(१) द्वादशावर्त गुरुवन्दन सूत्र इच्छामि क्षमाश्रमण । वन्दितुम् - नमस्कर्तुम् [ भवन्तम् ] यापनीयया = यथाशक्तियुक्तया, नषेधिक्या प्राणातिपातादिनिवृत्तया तन्वा अर्थात् शरीरेण । [ अतएव ]
अनुजानीत = अनुज्ञा प्रयच्छथ में मितावग्रह - चतुर्दिशम् आत्मप्रमाणं भवेदधिष्ठितप्रदेशम् [ प्रवेटु मिति गम्यते ] . निषेध्य = [ सर्वाशुभव्यापारान् ] अधः कायं भवच्चरणं प्रति कायसंस्पर्शम् = उद्धं वकायेन मस्तकेन संस्पर्शम्, [ करोमि, एतच्च अनुजानीत इति वाक्य शेषः] क्षमणीयः भवद्भिः क्लमः = स्पर्शजन्यदेहग्लानिरूपः।
अल्प-क्लान्तानां - ग्लानिरहितानाम् बहुशुभेन = प्रभूतसुखेन भवतां दिवसो व्यतिक्रान्तः= निर्गतः ?
यात्रा = तपोनियमादिलक्षणा भवतां [ कुशला वर्तते ] ?
यापनीयं - इन्द्रियनोइन्द्रियरबाधितं शरीरं च भवतां [ कुशलं वर्तते ] ? क्षमयामि क्षमाश्रमण ! देवसिकं, व्यतिक्रमम् = अपराधम् !
आवश्यिक्या अवश्य कर्तव्यश्वरणकरण योगैः निवृत्तिा आवश्यिकी क्रिया, तया हेतुभूतया यदसाधु कर्म अनुष्ठितं, तस्मात् प्रतिक्रमामिनिवर्तयामि।
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श्रमण-सूत्र
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क्षमाश्रमणानां देवसिक्या दिवसेन निर्वृत्तिया श्राशातनया, त्रयस्त्रि' शदन्यतरया, यत् किंचनमिध्यया = यत्किंचित्कदालम्बनमाश्रित्य मिथ्यायुक्तेन कृतया ।
मनोदुष्कृतया - मनोजन्यदुष्कृतयुक्तया वचोदुष्कृतया = सा धुवचननिमित्तया, काय दुष्कृतया = श्रासनगमनादिनिमित्तया-क्रोधया = क्रोधवत्या क्रोधयुक्तया, मानया = मानवत्या मानयुक्तया, मायया = मायावत्या मायायुक्तया, लोभया = लोभवत्या लोभयुक्तया [ क्रोधादिभिर्जनितया इत्यर्थः ]
सर्वकालिक्या = इहभवाऽन्यभवाऽतीताऽनागत सर्वकालेन निर्वृत्तया, सर्व मिथ्योपचार या= सर्व मिथ्याक्रियाविशेषयुक्तया, सर्वधर्मातिक्रमणयाश्रष्ट प्रवचनमातृरूप सर्वधर्मलङघनयुक्तया, आशातनया = बाधया-यो मया श्रतिचारः = अपराधः कृतः तस्य क्षमाश्रमण ! प्रतिक्रमामि = पुनः करणतया निवर्तयामि निन्दामि गर्हे आत्मानं - आशा तनाकरण कालवर्तिनं दुष्टकर्मकारिणं अनुमतित्यामेन व्युत्सृजामि= भृशं त्यजामि ।
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संस्कृतच्छायानुवाद
प्रत्याख्यान सूत्र
नमस्कारसहित सूत्र उद्गते सूर्य नमस्कारसहितं प्रत्याख्यामि, चतुर्विधमपि आहारम्-अशनं, पानं, खादिम, स्वादिमम् । अन्यत्र अनाभोगेन,' सहसाकारेण, व्युत्सृजामि ।
पौरुषी सूत्र .. उगते सूर्य पौरुषी प्रत्याख्यामि, चतुर्विधमपि आहारम्अशनं, पानं, खादिम, स्वादिमम् । अन्यत्र अनाभोगेन, सहसाकारेण, प्रच्छन्नकालेन, दिगमोहेन, साधुवचनेन, सर्वसमाधिप्रत्ययाकारण व्युत्सृजामि ।
Ini cili iliji
पूर्वार्द्ध सूत्र उद्गते सूर्ये पूर्वाद्धं प्रत्याख्यामि, चतुर्विधमपि आहारम्अशनं, पानं, खादिम, स्वादिमम् । अन्यत्र अनाभोगेन, सहसाकारेण, प्रच्छन्नकालेन, दिगमोहन, साधुवचनेन, महत्तराकारेण, सर्वसमाधि-प्रत्ययाकारेण व्युत्सृजामि ।
- १. अत्र सर्वेषु आकारेषु पञ्चम्यर्थे तृतीया। अन्यत्र अनाभोगात्, सहसाकाराच्च, एतौ वर्जयित्वा इत्यर्थः ।
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३८६
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श्रमण-सूत्र
( ४ )
एकाशन सूत्र
एकाशनं प्रत्याख्यामि, त्रिविधमपि श्रहारम् अशनं, खादिमं, स्वादिमम् । अन्यत्र अनाभोगेन, सहसाकारेण, सागारिकाकारेण, आकुञ्चन प्रसारणेन, गुर्वभ्युत्थानेन, पारिष्ठापनिकाका रे, सर्वसमाधि - प्रत्ययाकारेण व्युत्सृजामि ।
महत्तराकारेण,
( ५ )
एकस्थान सूत्र
एकानं एकस्थानं प्रत्याख्यामि, त्रिविधमपि श्रहारम् -- अशनं, खादिमं, स्वादिमम् । अन्यत्र अनाभोगेन, सहसा कारण, सागारिकाकारेण, गुर्वभ्युत्थानेन, पारिष्ठापनिकाकारेण, महत्तराकारेण, सर्वसमाधिप्रत्ययाकारेण व्युत्सृजामि ।
( ६ )
श्रचाम्ल सूत्र
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श्राचाम्लं प्रत्याख्यामि, अन्यत्र अनाभोगेन, सहसाकारेण, लेपालेपेन, उत्क्षिप्त विवेकेन, गृहस्थसंसृष्टेन, पारिष्ठापनिकाकारण, महत्तराकारेण, सर्वसमाधिप्रत्ययाकारेण व्युत्सृजामि |
( ७ )
अभक्तार्थ - उपवास सूत्र
उद्गते सूर्ये श्रभक्तार्थं प्रत्याख्यामि, चतुर्विधमपि आहारम् -- श्रशनं, पानं, खादिमं स्वादिमम् । अन्यत्र अनाभोगेन, सहसाकारेण, पारिष्ठापनिका कारण, महत्तराकारेण, सर्वसमाधिप्रत्ययाकारेण व्युत्सृजामि ।
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संस्कृतच्छायानुवाद
( ८ ) दिवसचरिम-सूत्र
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( है ) श्रभिग्रह-सूत्र
दिवसचरिमं प्रत्याख्यामि, चतुर्विधमपि श्रहारम् — अशनं पानं, खादिमं स्वादिमम् । अन्यत्र अनाभोगेन, सहसाकारेण महत्तराकारे, सर्व समाधिप्रत्ययाकारेण व्युत्सृजामि ।
३८०
अभिग्रहं प्रत्याख्यामि, चतुर्विधमपि श्राहारम् - अशनं, पानं, खादिमं, स्वादिमम् । अन्यत्र अनाभोगेन, सहसाकारेण, महत्तराकारेण, सर्वसमाधिप्रत्ययाकारेण व्युत्सृजामि ।
( १० ) निर्विकृति - सूत्र
चिकृतीः प्रत्याख्यामि । अन्यत्र अनाभोगेन, सहसाकारेण, लेपालेपेन, गृहस्थ संसृष्टेन, उत्क्षिप्तविवेकेन, प्रतीत्यम्रक्षितेन, पारिष्ठापनिकाकारेण, महत्तराकारेण, सर्वसमाधिप्रत्ययाका रेख व्युत्सृजामि |
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( ११ ) प्रत्याख्यानपारणा-सूत्र
उद्गते सूर्य नमस्कारसहितं - प्रत्याख्यानं कृतम्, तत्प्रत्यास्यानं सम्यक् कायेन स्पृष्टं, पालितं, तीरितं, कीर्तितं, शोधितं, चाराधितम् । यत् च न आराधितम् । तस्य मिध्या मे दुष्कृतम् ।
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३८
श्रमण-सूत्र
संस्तार-पौरुषी सूत्र अनुजानीत परमगुरवः,
गुरुगुणारत्नमण्डित - शरीराः । बहुप्रतिपूर्णा पौरुषी,
रात्रिके संस्तारके तिष्ठामि ॥ १ ॥ अनुजानीत संस्तारं,
__ बाहफ्धानेन वामपावैन । कुक्कुटी-पादप्रसारणे,
ऽशक्नुवन् प्रमार्जयेद् भूमिम् ॥ २॥ सङ कोच्य संदंशी,
उद्वर्तमानश्च कार्य प्रतिलिखेत् । द्रव्याधुपयोगेन,
उच्छ वासनिरोधेन आलोकं (कुर्यात्) ॥३॥ चत्वारो मङ्गलम्, अर्हन्तो मङ्गलं, सिद्धा मङ्गलं, साधवो मङ्गलं, केवलि-प्रज्ञप्तो धर्मो मङ्गलम् ॥४॥ चत्वारो लोकोत्तमाः, अर्हन्तो लोकोत्तमाः, सिद्धा लोकोत्तमाः, साधवो लोकोत्तमाः, केवलि-प्रज्ञप्तो धर्मों लोकोत्तमः॥५॥ चतुरः शरणं प्रपद्ये, अर्हतः शरणं प्रपद्य, सिद्धान् शरणं प्रपद्य साधून शरणं प्रपद्य, केवलि-प्रज्ञप्तं धर्म शरणं प्रपद्ये ॥६॥
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यदि मे भवेत् प्रमादो
आहारमुपधिदेहं
sta देहस्य अस्यां रजन्याम् ।
"
सर्वं त्रिविधेन व्युत्सृष्टम् ॥ ७ ॥
प्राणातिपातमलीकं,
क्रोधं मानं मायं
चौर्य मैथुनं द्रविणमूर्च्छाम् ।
लोभं प्रेम तथा द्वेषम् ॥ ८ ॥
कलहमभ्याख्यानं,
पैशुन्यं रत्यरतिसमायुक्तम् । पर-परिवाद माया
मृषां मिध्यात्वशल्यं च ॥ ६ ॥
व्युत्सृज इमानि
दुर्गति-निबन्धनानि
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एकोऽहं नास्ति मे कश्चित्,
मोक्षमार्गसंसर्ग - विघ्नभूतानि ।
अष्टादश पाप-स्थानानि ॥ १० ॥
एवमदीन - मना
नाsहमन्यस्य कस्यचित् ।
आत्मानमनुशास्ति ॥११॥
एको मे शाश्वत आत्मा
ज्ञान दर्शन संयुतः ।
शेषा मे बाह्या भावाः, सर्वे संयोग
संयोग - मूला
-
३८६
लक्षणाः ||१२||
जीवेन
प्राप्ता दुःख - परम्परा ।
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. ३६०
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श्रमण-सूत्र
तस्मात् संयोग — सम्बन्धः,
सर्वः त्रिविधेन व्युत्सृष्टः ||१३
क्षमित्वा तामयित्वा मयि क्षमध्वं
यद् यद्
सर्वे. जीव निकायाः ।
सिद्धानां साक्ष्यया श्रालोचया मे,
सर्वे जीवाः
ते मया
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-
मम वैरं न भावः ||१४|| कर्म-वशाः,
चतुर्दश - रज्जौ भ्राम्यन्तः । सर्वे क्षामिताः,
मयि अपि ते क्षाम्यन्तु ||१५||
मनसा बर्द्ध,
यद् यद् वाचा भाषितं पापम् ।
यद् यत् कायेन कृतं,
नमोऽर्हद्भ्यः नमः सिद्धेभ्यः
नम आचार्येभ्यः नम उपाध्यायेभ्यः नमो लोके सर्व-साधुभ्यः !
तस्य मिध्या में दुष्कृतम् ||१६||
एष पञ्च - नमस्कारः
-
सर्व पाप प्रणाशनः ।
मङगलानां च सर्वेषां, प्रथमं भवति मङ्गलम् ॥
-
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अर्हन् मम
जिन
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( ४ ) शेष - सूत्र
( १ )
सम्यक्त्व सूत्र देवः, यावज्जीवं सुसाधवः गुरवः 1
प्रशतं तत्त्वं,
इति सम्यक्त्वं मया गृहीतम् ||१||
( २ ) गुरु-गुण-स्मरण सूत्र
पञ्चेन्द्रिय - संवरणः,
चतुर्विध
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dove
तथा नवविध ब्रह्मचर्यगुप्तिधरः । कषायमुक्तः, इत्यष्टादशगुणैः संयुक्तः ॥ १ ॥
युक्तः, पञ्चविधाचार - पालनसमर्थः । त्रिगुप्तः, षट्त्रिंशद्गुणो गुरुर्मम ॥ २ ॥
( ३ ) गुरुवन्दन सूत्र
पञ्चमहाव्रत
पञ्चसमितः
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त्रिकृत्वः श्रादक्षिणं प्रदक्षिणां करोमि वन्दे, नमस्यामि, सत्करोमि, सम्मानयामि,
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कल्याणं, मङ्गलम, दैवतं, चैत्यम्, पयु पासे मस्तकेन वन्दे ।
ऐयापथिक आलोचना सूत्र इच्छाकारेण -निजेच्छया, न तु बलाभियोगेन संदिशत भगवन् । ईर्यापथिकी प्रतिक्रमामि इच्छामि ००००१
उत्तरीकरण सूत्र तस्यश्रामण्ययोगसंघातस्य कथंचित् प्रमादात् खण्डितस्य-विराधिसस्य वा, उत्तरीकरणेन = पुनः संस्कारद्वारापरिष्करणेन, प्रायश्चित्तकरणन, विशोधीकरणेन = अपराधमलिनस्यात्मनः प्रक्षालनेन, विशल्यीकरणेन,
पापानां कर्मणां निर्घातनार्थाय,
तिष्ठामि = करोमि, कायोत्सर्गम् = व्यापारवतः कायस्य परित्यागम् ॥१॥
आकार सूत्र अन्यत्र उच्चसितेन, निःश्वसितेन, कासितेन, तुतेन, जृम्भितेन, उद्गारितेन, वातनिसर्गेण, भ्रमर्या= भ्रम्या, पित्तमूर्च्छया ॥१॥ १-अग्रतनः पाठः श्रमणसूत्रान्तर्गतसप्तमैर्यापथिकसूत्रवद् ज्ञेयः।
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संस्कृतच्छायानुवाद सूक्ष्मैः अङ्ग-सञ्चारैः, सूक्ष्म : खेल (श्लेष्म ) सञ्चारैः, सूक्ष्मैः दृष्टि-सञ्चारैः ॥२॥ एवमादिभिः आकारैः-अपवादरूपैः, अभन्नः न सर्वथा नाशितः, अधिराधितः = न देशतो नाशित:, भवतु मे कायोत्सर्गः ॥३॥ [कियन्तं कालं यावत् ? ] यावद् अर्हतां भगवतां नमस्कारेण न पारयामि ॥४॥ तावत् [ तावन्तं कालं ] कायं स्थानेन, मौनेन, ध्यानेन, आत्मानं = आत्मीयं, व्युत्सृजामि ॥५॥
चतुर्विशतिस्तव सूत्र लोकस्योद्योतकरान्, धर्मतीर्थकरान् जिनान् । अर्हतः कीर्तयिष्यामि, चतुर्विशतिमपि केवलिनः॥१॥ ऋषभमजितं च वन्दे, संभवमभिनन्दनं च सुमतिं च । पद्मप्रभं सुपावं, जिनं च चन्द्रप्रभं वन्दे ।। २ ।। सुविधिं च पुष्पदन्तं, शीतल-श्रेयांसं वासुपूज्यं च । विमलमनन्तं च जिनं, धर्म शान्ति च वन्दे ॥३॥ कुन्थुमरं च मल्लिं, वन्दे मुनिसुव्रतं नमिजिनं च । वन्दे अरिष्टनेमि, पाव तथा वर्द्धमानं च ॥४॥ एवं मया अभिष्टुता, विधुतरजोमलाः प्रहीणजरामरणाः। चतुर्विशतिरपि जिनवराः, तीर्थकराः मे प्रसीदन्तु ॥५॥ कीर्तित-वन्दित-महिताः, ये एते लोकस्योत्तमाः सिद्धाः। आरोग्य - बोधिलाभ, समाधिवरमुत्तमं ददतु ॥६॥ चन्द्र भ्यो निर्मलतराः, आदित्येभ्योऽधिकं प्रकाशकराः। सागरवरगम्भीराः, सिद्धाः सिद्धिं मम दिशन्तु ॥७॥
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श्रमण-सूत्र
( ८ ) प्रणिपात सूत्र
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नमोऽस्तु अर्हद्भ्यः, भगवद्भ्यः ॥ १ ॥ आदिकरेभ्यः, तीर्थंकरेभ्यः, स्वयंसम्बुद्धेभ्यः ॥ २ ॥ पुरुषोत्तमेभ्यः, पुरुषसिंहेभ्यः, पुरुषवर-पुण्डरीकेभ्यः, पुरुषवर- गन्धहस्तिभ्यः ॥ ३ ॥ लोकोत्तमेभ्यः, लोकना थेभ्यः,
लोकहितेभ्यः, लोक-प्रदीपेभ्यः, लोकप्रद्योतक रेभ्यः ॥। ४ । अभयदयेभ्यः,
चक्षुर्दयेभ्यः, मार्गदयेभ्यः, शरणदयेभ्यः,
जीवदयेभ्यः, बोधिदयभ्यः ॥ ५ ॥ धर्मदयेभ्यः, धर्मदेशकेभ्यः, धर्म नायकेभ्यः, धर्मसारथिभ्यः, धर्मवर-चतुरन्तचक्रवर्तिभ्यः ॥ ६ ॥ द्वीप - त्राण शरण गति प्रतिष्ठारूपेभ्यः, अप्रतिहत-वर-ज्ञान- दर्शनधरेभ्यः,
व्यावृत्त-च्छद्मभ्यः ॥ ७ ॥
जिनेभ्यः, जापकेभ्यः, तीर्णेभ्यः, तारकेभ्यः,
बुद्धभ्यः, बोधकेभ्यः, मुक्तेभ्यः, मोचकेभ्यः ॥ ८ ॥ सर्वज्ञ ेभ्यः, सर्वदर्शिभ्यः, शिवमचलमरुजमनन्तमक्षयमव्याबाधमपुनरावृत्तिसिद्धिगति नामधेयं स्थानं सम्प्राप्तेभ्यः, नमो जिनेभ्यः, जितभयेभ्यः ॥ ६ ॥
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im
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अतिचार-आलोचना
ज्ञान-शुद्धि साधनों के होते भी न ज्ञानाभ्यास किया स्वय,
। दूसरों को भी न यथायोग्यता कराया हो। ज्ञान के नशे में चूर लड़ता-लड़ाता फिरा,
ज्ञानी जनों को न शीष सादर झुकाया हो। सूत्र और अर्थ नष्ट-भ्रष्ट किया घटा - बढ़ा,
तत्त्वशून्य तर्कणा में मस्तक लड़ाया हो । दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें, श्रेष्ठ ज्ञान - रत्न में जो दूषण लगाया हो ॥
दर्शन-शुद्धि वीतराग - वाणी पै न श्रद्धाभाव दृढ़ रक्खा,
फंस के कुतर्कजाल शङ्काभाव लाया हो । नानाविध पाखंडों के मोहक स्वरूप देख,
संसारी सुखों के प्रति चित्त ललचाया हो । धर्माचार - फल के सम्बन्ध में सशंक बना,
मन को पाखंडियों की पूजा में भ्रमाया हो। दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें,
सम्यक्त्व-सुरत्न में जो दूषण लगाया हो ।
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३६६
श्रमण-सूत्र
ईर्या-समिति स्वच्छ, शुद्ध, श्रेष्ठजनगम्य राजमार्ग छोड़,
सूक्ष्म - जन्तु - पूरित कुपथ अपनाया हो । दाएं-बाएँ अच्छे-बुरे दृश्यों को लखाता चला,
नीची दृष्टि से न देख कदम उठाया हो । बातों की बहार में पिमुग्ध शून्य-चित्त बना,
तुच्छकाय कीटों पै गजेन्द्र रूप धाया हो। दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवे, गमनसमिति में जो दूषण लगाया हो ।
__ भाषा-समिति पूज्य आप्त पुरुषों का गाया नहीं गुणगान,
यत्र-तत्र अपना ही कीर्तिगान गाया हो । सर्वजन - हितकारी मीठे नहीं बोले बोल,
हँसी से या चुगली से कलह बढ़ाया हो । दूसरों के दोषों का जगत में दिढोरा पीटा,
वाणी के प्रताप हिंसा-चक्र भी चलाया हो । दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें। __ भाषण-समिति में जो दूषण लगाया हो।
एषणा-समिति उद्गमादि बयालीस भिक्षा - दोष टाले नहीं,
जैसा-तैसा खाद्य भट पात्र में भराया हो । ताक-ताक ऊँचे-ऊँचे महलों में दौड़ा गया,
रक-घर सूखी रोटी देख चकराया हो ॥ जीवनार्थ भोजन का संयम-रहस्य भुला,
भोजनार्थ मात्र साधुजीवन बनाया हो ।
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अतिचार आलोचना
दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें, एषणा समिति में जो दूषण श्रादाननिक्षेप-समिति
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-
वस्त्र पात्र पुस्तकादि पडिले - पूँजे विना, देखे-भाले विना मन आया जहाँ बगाया हो । देह में घुसाया भूत आलस्य विनाशकारी,
प्रतिलेखना का श्रेष्ठ काल बिसराया हो ॥ संयम का शुद्ध मूलतत्व सुविवेक छोड़,
सूक्ष्म जीव जन्तुओं का जीवन नशाया हो । दैनिक 'अमर' सर्व पाप - दोष मिथ्या होवें, आदान समिति में जो लगाया हो ॥
·
दूषण
उत्सर्ग (परिष्ठापना ) समिति
परठने- योग्य कफ मल मूत्र आदि आगमोक्त योग्य भूमि में न
फेंक
लगाया हो ||
३६७
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दिया,
भुक्तशेष अन्न-जल दूर ही से दूर ही से सर्वथा असंयम का पथ अपनाया हो । स्वच्छ, शान्त, स्वास्थ्यकारी स्थानों को बिगाड़ा हन्त,
जैनधर्म एवं साधु-संघ को लजाया हो । दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष उत्सर्ग-समिति में जो
मिथ्या होवें, लगाया हो ॥
दूषण
वस्तु,
परठाया हो ।
मनोगुसि
व्यर्थ के अयोग्य नाना संकल्प-विकल्प जोड़तोड़, चित्त चक्र श्रति चंचल डुलाया हो । किसी से बढ़ाया राग किसी से बढ़ाया द्वेष, परोन्नति देख कभी ईर्ष्या-भाव आया हो ॥
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बोला क्यावा ही में बलम्बी-चौड़ी में
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श्रमण-सूत्र विषय-सुखों की कल्पनाओं में फंसाके खूब, व संयम से दूर दुराचार में रमाया हो । दैनिक 'अमर' सर्व पाप - दोष मिथ्या होवें, श्रेष्ठ मनोगुप्ति में जो दूषण लगाया हो ॥
. वचन-गुप्ति बैठ जन - मण्डली में लम्बी-चौड़ी गप्प हाँक, .. बातों ही में बहुमूल्य समय गँवाया हो । बोला क्या वचन, बस वन-सा ही मार दिया,
दीन दुखियों पै खुला आतंक जमाया हो । राज-देश-भक्त नारी चारों पिकथाएँ कह,
स्व - पर - विकार - वासनाओं को जगाया हो। दैनिक 'अमर' सर्व पाप - दोष मिथ्या होवें, श्रेष्ठ वचोगुप्ति में जो दूषण लगाया हो।
काय-गुप्ति भोगासक्ति रख नानाविध सुख-साधनों की,
. मृदु कष्ट-कातर स्वदेह को बनाया हो । शुद्धता का भाव त्याग शृंगार का भाव धारा,
. सादगी से ध्यान हटा फैशन सजाया हो ॥ अल्हड़पने में आ के यतना को गया भूल,
.. अस्त-व्यस्तता में किसी जीव को सताया हो । दैनिक 'अमर' सर्व पाप - दोष मिथ्या होवें, __ श्रेष्ठ काय-गुप्ति में जो दूषण लगाया हो ।
अहिंसा-महाव्रत सूक्ष्म औ. बादर त्रस-स्थावर समस्त प्राणी
__वर्ग, जिस-किसी भाँति जरा भी सताया हो।
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अतिचार-अालोचना
३६६ सुनते ही कटु-वाक्य अग्नि-ज्यों भभक उठा,
निन्दकों के प्रति घृणा-द्वेष-भाव लाया हो । रोगी, दीन, दुःखी छोटे-बड़े सभी प्राणियों से,
प्रेम-भरा बन्धुता का भाव न रखाया हो । दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें,
आद्य महाव्रत में जो दूषण लगाया हो ।
सत्य-महाव्रत हास्य-वश लम्बी-चौड़ी गढ़ के गढन्त भूठी,
औंधा-सीधा कोई भद्र प्राणी भरमाया हो। राज की, समाज की या प्राणों की विभीषिका से,
भूठ बोल जानते भी सत्य को छुपाया हो । द्वेष-वश मिथ्या दोष लगा बदनाम किया,
सत्य भी अनर्थकारी भूल प्रगटाया. हो । दैनिक 'अमर' सर्व पाप - दोष मिथ्या होवे। सत्य महाव्रत में जो दूषण लगाया हो ।
अचौर्य-महाव्रत अशन, वसन अथ अन्य उपयोगी वस्तु,
मालिक की आज्ञा बिना तृण भी उठाया हो। मानव-समाज की हा ! छाती पै का भार रहा,
विश्व-हित-हेतु स्वकर्तव्य न बजाया हो। वृद्धों की, तपस्वियों की तथा नवदीक्षितों की,
रोगियों की सेवा से हरामी जी चुराया हो। दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें, ...
___ दत्त-महाव्रत में जो दूषण लगाया हो।
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४००
श्रमण-सूत्र
ब्रह्मचर्य-महावत विश्व की समस्त नारी माता भगिनी न जानी,
देखते ही सुन्दरी-सी' युवती लुभाया हो। वाताविद्ध हड़ के समान बना चल-चित्त,
__काम - राग दृष्टिराग स्नेहराग छाया हो। बार-बार पुष्टि-कर सरस आहार भोगा,
शान्त इन्द्रियों में भोगानल दहकाया हो। दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें, ब्रह्म-महाव्रत में जो दूषण लगाया हो।
- अपरिग्रह-महाव्रत विद्यमान वस्तुओं पै मूर्छना, अविद्यमान
वस्तुओं की लालसा में मन को रमाया हो। गच्छ-मोह, शिष्य-मोह, शास्त्र-मोह, स्थान-मोह,
अन्य भी देहादि-मोह जाल में फंसाया हो। आवश्यकताएँ बढ़ा योग्यायोग साधनों से,
व्यर्थ ही अयुक्त वस्तु-संचय जुटाया हो। दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें,
अन्त्य महाव्रत में जो दूषण लगाया हो ।।
अरात्रिभोजन-व्रत अशनादि चारों ही आहार रात्रि-समय में,
जान या अजान स्वयं खाया हो, खिलाया हो। 'औषधी के खाने में तो कुछ भी नहीं है दोष',
प्राणमोही बन मिथ्या मन्तव्य चलाया हो। रसना के चकर में श्रा के सुस्वादु खाद्या
अग्रिम दिनार्थ वासी रक्खा हो, रखाया हो ।
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अतिचार-अालोचना दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें।
निशाऽभुक्ति-व्रत में जो दूषण लगाया हो।
महाव्रत-भावना पंच महाव्रत की न भावना पच्चीस पाली, होकर अति सुखशील आतमा करली काली । संयम की ले ओट खूब ही देह सँभाली, ऊपर ढौंग विचित्र होगया अन्दर खाली ।। गत भूलों पर तीव्रतम,
पुनि-पुनि पश्चात्ताप है। दुश्चरित्र मुनि संघ पर,
एक मात्र अभिशाप है।
पच्चीस मिथ्यात्व अपने मिथ्या मत का भी अति-आग्रह धारा, लड़ा कुतर्के स्पष्ट सत्य पर-मत धिक्कारा । कभी ज्ञान तो कभी क्रिया एकान्त विचारा, लोकाचार-विमूढ मोक्ष का मार्ग बिसारा । पाँच-बीस मिथ्यात्व की,
करू अखिल आलोचना। मनसा वचसा कमणा,
योग-शुद्धि की योजना ।।
गुरुजनों का अविनय पूजनीय गुरुजन की सेवा से मुख मोड़ा, आदर-सत्कारादि भक्ति का बन्धन तोड़ा।
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श्रमण-सूत्र
हित-शिक्षा नहिं ग्रही द्वेष से नाक सिकोड़ा, बना घोर अविनीत 'अहं' से नाता जोड़ा। हा। इस कलुषित कर्म पर,
बार-बार धिक्कार है। गुरु-सेवा ही मोक्ष का
एक मात्र वर द्वार है।
अष्टादश-पाप पाप-पंक अष्टादश प्रतिपल,
आत्मा मलिन बनाते हैं। भीम भयंकर भव-अटवी में,
- भ्रान्त बना भटकाते हैं। पाप-शिरोमणि हिंसा से जग
जीव नित्य भय खाते हैं। मृषावाद से मानव जग में,
निज विश्वास गँवाते हैं। चौर्यवृत्ति अति ही अधमाधम,
निज-पर सब को दहती है। मैथुनरत पुरुषों की बुद्धि,
निशदिन विकृत रहती है । संसृति-मूल परिग्रह भीषण,
ममताऽऽसक्ति बढ़ाता है। आकुल-व्याकुल जीवन रहता,
आखिर नरक पठाता है। क्रोध मान से सजन जन भी,
झटपट बैरी हो जाने।
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अतिचार अालोचना माया-लोभ अतल महासागर,
डूबे पार नहीं पावें। राग, द्वेष, कलह के कारण,
पामर नर-जीवन होता । अभ्याख्यान पिशुनता का विष,
शान्ति-सुधा का रस खोता। पृष्ठ-मांस भक्षण-सी निन्दा,
फैले क्लेश परस्पर में। रति अरति से क्षण-क्षण बहता,
हर्ष-शोक-नद अन्तर में। मायामृषा खड्ग की धारा,
मधु-प्रलिप्त जहरीली है। मिथ्या दर्शन की तो अति ही,
घातक विकट पहेली है। भगवन् ! ये सब पाप पुण्यरिपु,
स्वयं करे करवाए हों। अथवा बन अनुमोदक स्तुति के,
गीत मुदित हो गाए हों। पूर्णरूप से कर आलोचन,
पाप-क्षेत्र से हटता हूँ। अधः पतन के पथ को तज कर,
उन्नत पथ पर बढ़ता हूँ
उपसंहार पंच महाव्रत श्रेष्ठ मूल गुण मंगलकारी, दशविध प्रत्याख्यान गुणोत्तर कलिमल हारी।
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श्रमण-सूत्र लगे अतिक्रम और व्यतिक्रम दूषण भारी आई हो अतिचार अनाचारों की बारी। भूल-चूक जो भी हुई,
बार-बार निन्दा करू । आगे आत्म-विशुद्धि के,
हद प्रयत्न संब आदीं।
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: ७:
परमेष्ठि-वन्दन अरिहंत-वन्दन
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नमोऽत्थु अरिहंताणं, भगवंताणं, सव्वजगजीववच्छलाएं, सव्वजगमंगलारां, मोक्खमग्गदेसगाणं, अप्प हियवरनाणदंसणधराणं जियरागदोसमोहाणं, जिखाणं ।
राग-द्वेष, महामल्ल घोर घनघातिकर्म, नष्ट कर पूर्ण सर्वज्ञ पद पाया है । शान्ति का सुराज्य समोसरण में कैसा सौम्य, सिंहनी ने दुग्ध मृगशिशु को पिलाया है ॥ अज्ञानान्धकार-मन विश्व को दयार्द्र होके, सत्य-धर्म- ज्योति का प्रकाश दिखलाया है । 'अमर' सभक्तिभाव बार बार बन्दनार्थ, अरिहंत चरणों में मस्तक झुकाया है ॥
-
-
सिद्ध-वन्दन
नमोऽत्थुणं सिद्धाणं, बुद्धाणं, संसारसागरपार गयाणं, जन्मजरामरणचक्कविप्प मुक्का, कम्ममलरहियाणं, अव्वाबाद
सुहमुवगयाणं, सिद्धिट्ठाणं संपत्ताणं ।
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४०६
श्रमण-सूत्र
जन्म-जरा-मरण के चक्र से पृथक् भये,
पूर्ण सत्य चिदानन्द शुद्ध रूप पाया है। मनसा अचिन्त्य तथा वचसा अवाच्य सदा,
क्षायक स्वभाव में निजातमा रमाया है । संकल्प-विकल्प - शून्य निरंजन निराकार, .
माया का प्रपंच जड़मूल से नशाया है । 'अमर' सभक्तिभाव बार - बार चन्दनार्थ, पूज्य सिद्ध - चरणों में मस्तक भुकाया है।
आचार्य-वन्दन नमोऽत्थुणं आयरियाण, नाणदंसणचरित्तरयाणं, गच्छमेदिभूयाणं, सागरवरगंभीराणं, सयपरसमयणिच्छियाणं, देस-काल-दक्खाणं। आगमों के भिन्न-भिन्न रहस्यों के ज्ञाता ज्ञानी,
उग्रतम चारित्र का पथ अपनाया है । पक्षपातता से शून्य यथायोग्य न्यायकारी,
पतितों को शुद्ध कर धर्म में लगाया है। सूर्य-सा. प्रचण्ड तेज प्रतिरोधी जावें झंप, .. संघ में अखंड निज शासन चलाया है । 'अमर' सभक्तिभाव बार-बार, वन्दनार्थ,
गच्छाचार्य-चरणों में मस्तक भुकाया है ।।
उपाध्याय-वन्दन नमोऽत्थुणं उवज्झायाणं. अक्खयनाणसायराणं, धम्मसुत्तवायगाणं, जिणधम्मसम्माणसंरक्खणदक्खाणं, नयापमाणनिउणाणं, मिच्छत्तंधयारदिवायराणं ।
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परमेष्ठि-वन्दन मन्द-बुद्धि शिष्यों को भी विद्याका अभ्यास करा,
दिग्गज सिद्धान्तवादी पंडित बनाया है। पाखंडीजनों का गर्व खर्व कर जगत् में,
अनेकान्तता का जय-केतु फहराया है। शंका-समाधान-द्वारा भविकों को बोध दे के,
देश - परदेश ज्ञान - भानु चमकाया है। 'अमर' सभक्तिभाव बार-बार वन्दनार्थ, .. उपाध्याय - चरणों में मस्तक मुकाया है।
साधु-वन्दन नमोऽत्धुणं सब्बसाहूणं, अक्खलियसीलाणं, सव्वालंबणविप्पमुक्काणं, समसत्तुमित्तपक्खाणं, कलिमलमुक्काणं, उझियविसयकसायाणं, भावियजिणवयणमणाणं, तेल्लोक्कसुहावहाणं, पंचमहञ्चयधराएं। शत्र और मित्र तथा मान और अपमान,
सुख और दुःख द्वैत-चिन्तन हटाया है। मैत्री और करुणा समान सब प्राणियों पै,।
क्रोधादि-कषाय-दावानल भी बुझाया है । ज्ञान एवं क्रिया के समान दृढ़ उपासक,
भीषण समर कर्म-चमू से मचाया है । 'अमर' सभक्तिभाव बार-बार वन्दनार्थ, त्यागी-मुनि-चरणों में मस्तक झुकाया है।
धर्मगुरु-वन्दन नमोऽत्थुणं धम्मायरियाणं, धम्मदेसगाणं, संसारसागरतारगाणं, असंकिलिटायारचरित्तापं, सव्वसत्तागुग्गहपरायणाणं, उपग्गहकुस गणं ।
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४०८.
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श्रमण-सूत्र
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भीम-भवन्वन से निकाला बड़ी कोशिशों से,
मोक्ष के विशुद्ध राजमार्ग पैं चलाया है । संकट में धर्म-श्रद्धा ढीली-ढाली होने पर,
समझा-बुझा के दृढ़ साहस बँधाया है । कटुता का नहीं लेश सुधा-सी सरस वाणी, धर्म-प्रवचन नित्य प्रेम से सुनाया है । 'अमर' सभक्तिभाव बार-बार वन्दनार्थ, धर्मगुरु चरणों में मस्तक झुकाया है ॥
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बोल-संग्रह
प्रतिलेखना की विधि (१) उड्ढे उकडू अासन से बैठकर वस्त्र को भूमि से ऊँचा रखते हुए प्रतिलेखना करनी चाहिए ।
(२) थिरं-वस्त्र को दृढ़ता से स्थिर रखना चाहिए ।
(३) अतुरियं-उपयोग शून्य होकर जल्दी जल्दी प्रतिलेखना नहीं करनी चाहिए।
(४) पडिलेहे-वस्त्र के तीन भाग करके उसको दोनों ओर से अच्छी तरह देखना चाहिए ।
(५) पप्फोडे-देखने के बाद यतना से धीरे-धीरे झड़काना चाहिए।
(६) पमजिजा-झड़काने के बाद वस्त्र आदि पर लगे हुए जीव को यतना से प्रमार्जन कर हाथ में लेना तथा एकान्त में यतना से परठना चाहिए ।
[ उत्तराध्ययन २६ वाँ अध्ययन ]
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श्रमण-सूत्र
(२)
अप्रमाद-प्रतिलेखना (१) अनर्तित-प्रतिलेखना करते हुए शरीर और वस्त्र आदि को इधर-उधर नचाना न चाहिए ।
(२) अवलित-प्रतिलेखना करते हुए वस्त्र कहीं से मुड़ा हुआ न होना चाहिए । प्रतिलेखन करने वाले को भी अपने शरीर को विना मोड़े सीधे बैठना चाहिए । अथवा प्रतिलेखना करते हुए वस्त्र और शरीर को चंचल न रखना चाहिए ।
(३) अननुबन्धी-वस्त्र को अयतना से झड़काना नहीं चाहिए ।
(४) अमोसली-धान्यादि कूटते समय ऊपर, नीचे और तिरछा लगने वाले मूसल की तरह प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को ऊपर, नीचे या तिरछा दीवार मादि से न लगाना चाहिए ।
(५) षट् पुरिमनवस्फोटका-(छः पुरिमा नव खोडा)
प्रतिलेखना में छः पुरिम और नव खोड करने चाहिएँ । वस्त्र के दोनों हिस्सों को तीन-तीन बार खंखेरना, छः पुरिम हैं | तथा वस्त्र को तीन-तीन बार पूँज कर उसका तीन बार शोधन करना, नव खोड हैं ।
(६) पाणि-प्राण विशोधन-वस्त्र अादि पर कोई जीव देखने में श्राए तो उसका यतनापूर्वक अपने हाथ से शोधन करना चाहिए ।
[ठाणांग सूत्र (३)
प्रमाद-प्रतिलेखना (१) श्रारभटा-विपरीत रीति से अथवा शीघ्रता से प्रतिलेखना करना । अथवा एक वस्त्र की प्रतिलेखना बीच में अधूरी छोड़कर दूसरे वस्त्र की प्रतिलेखना करने लग जाना, वह अोरभटा प्रतिलेखना है।
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बोल-संग्रह
४११ (२) सम्मा -जिस प्रतिलेखना में वस्त्र के कोने मुड़े ही रहे अर्थात् उसकी सलवट न निकाली जाय, वह सम्मर्दा प्रतिलेखना है । अथवा प्रतिलेखना के उपकरणों पर बैठकर प्रतिलेखना करना, सम्मर्दा प्रतिलेखना है।
(३) मोसली-जैसे धान्य कूटते समय मूसल ऊपर, नीचे और तिरछे लगता है, उसी प्रकार प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को ऊपर, नीचे अथवा तिरछा लगाना, मोसली प्रतिलेखना है ।
(४) प्रस्फोटना-जिस प्रकार धूल से भरा हुअा वस्त्र जोर से झड़काया जाता है, उसी प्रकार प्रतिलेखना के वस्त्र को जोर से झड़काना, प्रस्फोटना प्रतिलेखना है।
(५) विक्षिप्ता-प्रतिलेखना किए हुए वस्त्रों को विना प्रतिलेखना किए हुए वस्त्रों में मिला देना, विक्षिप्ता प्रतिलेखना है । अथवा प्रतिलेखना करते हुए वस्त्र के पल्ले आदि को इधर-उधर फेंकते रहना विक्षिप्ता प्रतिलेखना है।
(६) वेदिका-प्रतिलेखना करते समय घुटनों के ऊपर, नीचे या पसवाड़े हाथ खना, अथवा दोनों घुटनों या एक घुटने को भुजात्रों के बीच रखना, वेदिका प्रतिलेखना है । [ ठाणांग सूत्र]
आहार करने के छह कारण (१) वेदना-क्षुधा वेदना की शान्ति के लिए । (२) वैयावृत्य-सेवा करने के लिए। (३) ईर्यापथ-मार्ग में गमनागमन आदि की शुद्ध प्रवृत्ति के
लिए। (४) संयम-संयम की रक्षा के लिए। (५)प्राणप्रत्ययार्थ प्राणों की रक्षा के लिए। (६) धर्मचिन्ता-शास्त्राध्ययन आदि धर्म चिन्तन के लिए ।
[उत्तराध्ययन २६ वाँ अध्ययन ]
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श्रमण-सूत्र
आहार त्यागने के छह कारण (१) आतङ्क-भयंकर रोग से ग्रस्त होने पर । (२.) उपसर्ग-अाकस्मिक उपसर्ग श्राने पर । (३) ब्रह्मचर्यगुप्ति-ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए । (४) प्राणिदया-जीवों की दया के लिए । (५) तप-तप करने के लिए । (६) संलेखना-अन्तिम समय संथारा करने के लिए।
[ उत्तराध्ययन २६ वाँ अध्ययन ]
शिक्षाभिलाषी के आठ गुण (१)शान्ति-शान्त रहे, हँसी मजाक न करे । (२) इन्द्रियदमन-इन्द्रियों पर नियंत्रण रक्खे । (३) म्वदोषदृष्टि-दूसरों के दोष न देख कर अपने ही दोष
देखे। (४) सदाचार-सदाचार का पालन करे । (५) ब्रह्मचर्य-काम-वासना का त्याग करे (६) अनासक्ति-विषयों में अनासक्त रहे । (७) सत्याग्रह-सत्य-ग्रहण के लिए सन्नद्ध रहे । (८) सहिष्णुता-सहनशील रहे, क्रोध न करे ।
(७) उपदेश देने योग्य आठ बातें (१) शान्ति-अहिंसा एवं दया । (२) विरति-पापाचार से विरक्ति ।
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बोल-संग्रह
(३) उपशम-कषाय विजय । (४) निवृत्ति-निर्वाण, आत्मिक शान्ति । (५) शौच-मानसिक पवित्रता, दोषों का त्याग । (६) श्रार्जव-सरलता, दंभ का त्याग । (७) मार्दव-कोमलता, दुराग्रह का त्याग । (८) लाघव-परिग्रह का त्याग, अनासक्त रहना ।
भिक्षा की नौ कोटियाँ (१) आहारार्थ स्वयं जीवहिंसा न करे। (२) दूसरों के द्वारा हिंसा न कराए । (३) हिंसा करते हुओं का अनुमोदन न करे । (४) आहारादि स्वयं न पकावे । (५) दूसरों से न पकवावे । (६) पकाते हुओं का अनुमोदन न करे । (७) आहार स्वयं न खरीदे । (८) दूसरों से न खरीदवावे । (६) खरीदते हुओं का अनुमोदन न करे ।
उपर्युक्त सभी कोटियाँ मन, वचन और कायरूप तीनों योगों से हैं। इस प्रकार कुल भंग सत्ताईस होते हैं ।
रोग की उत्पत्ति के नौ कारण (१) अत्यासन-अधिक बैठे रहने से । (२)-अहितासन-प्रतिकूल शासन से बैठने पर । ) ३) अतिनिद्रा-अधिक नींद लेने से ।
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४१४
श्रमण सूत्र
(४) अतिजागरित-अधिक जागने से । (५) उच्चारनिरोध-बड़ी नीति की बाधा रोकने से । (६) प्रस्रवणनिरोध- लघुनीति ( पेशाब) रोकने से । (७) अतिगमन-मार्ग में अधिक चलने से । (८) प्रतिकूलभोजन-प्रकृति के प्रतिकूल भोजन करने से । (१) इन्द्रियार्थविकोपन-विषयासक्ति अधिक रखने से ।
समाचारी के दश प्रकार (१) इच्छाकार-यदि आपकी इच्छा हो तो मैं अपना अमुक कार्य करूँ, अथवा श्राप चाहें तो मैं आप का यह कार्य करूँ ? इस प्रकार पूछने को इच्छाकार कहते हैं। एक साधु दूसरे से किसी कार्य के लिए प्रार्थना करे अथवा दूसरा साधु स्वयं उस कार्य को करे तो उसमें इच्छाकार कहना आवश्यक है । इस से किसी भी कार्य में किसी भी प्रकार का बलाभियोग नहीं रहता।
(२) मिथ्याकार-संयम का पालन करते हुए कोई विपरीत अाचरण हो गया हो तो उस पाप के लिए पश्चात्ताप करता हुआ साधु 'मिच्छामि दुक्कडं' कहे, यह मिथ्याकार है।
(३) तथाकार-गुरुदेव की ओर से किसी प्रकार की आज्ञा मिलने पर अथवा उपदेश देने पर तहत्ति (जैसा आप कहते हैं वही ठीक है ) कहना, तथाकार है ।
(४) श्रावश्यिकी-श्रावश्यक कार्य के लिए उपाश्रय से बाहर जाते समय साधु को 'प्रावस्सिया' कहना चाहिए-अर्थात् मैं आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाता हूँ।
(५) नैषेधिकी-बाहर से वापिस श्राकर उपाश्रय में प्रवेश करते समय 'निसीहिया' कहना चाहिए। इसका अर्थ है-अब मुझे बाहर रहने का कोई काम नहीं रहा है ।
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बोल संग्रह
४१५
(६) पृच्छना - किसी कार्य में प्रवृत्ति करनी हो तो पहले गुरुदेव से पूछना चाहिए कि - 'क्या मैं यह कार्य कर लूँ ?' यह पृच्छना है ।
(७) प्रतिप्रच्छना - गुरुदेव ने पहले जिस काम का निषेध कर दिया हो, यदि आवश्यकतावश वही कार्य करना हो तो गुरुदेव से पुनः पूछना चाहिए कि "भगवन् ! आपने पहले इस कार्य का निषेध कर दिया था, परन्तु यह श्रतीव श्रावश्यक कार्य है; अतः आप श्राज्ञा दें तो यह कार्य कर लूँ ?” इस प्रकार पुनः पूछना, प्रतिपृच्छन है । (८) छन्दना - स्वयं लाए हुए आहार के लिए साधुओं को श्रामंत्रण देना कि- 'यह श्राहार लाया हूँ, यदि श्राप भी इसमें से कुछ ग्रहण करें तो मैं धन्य होऊँगा ।"
( ६ ) निमंत्रणा - श्राहार लाने के लिए जाते हुए दूसरे साधुओं को निमंत्रण देना, अथवा यह पूछना कि क्या आपके लिए भी आहार लेता आऊँ ?
(१०) उपसंपदा -ज्ञान आदि प्राप्त करने के लिए अपना गच्छ छोड़कर किसी विशेष ज्ञान वाले गुरु का श्राश्रय लेना, उपसंपदा है । गच्छ मोह में पड़े रह कर ज्ञानादि उपार्जन करने के लिए दूसरे योग्य गच्छ का ग्राश्रय न लेना, उचित नहीं है ।
( भगवती, शत० २५, ३७ )
( ११ )
साधु के योग्य चौदह प्रकार का दान
( १ ) अशन - खाए जाने वाले पदार्थ रोटी आदि । ( २ ) पान - पीने योग्य पदार्थ, जल आदि । (३) खादिम -- मिष्टान्न, मेवा श्रादि सुस्वादु पदार्थ | (४) स्वादिम - मुख की स्वच्छता के लिए, लौंग सुपारी आदि ।
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श्रमण-सूत्र
(५) वस्त्र पहनने योग्य वस्त्र । (६) पात्र-काठ, मिट्टी और तुम्बे के बने हुए पात्र । (७) कम्बल-ऊन श्रादि का बना हुआ कम्बल । (८) पादप्रोञ्छन-रजोहरण, श्रोषा । (१) पीठ-बैठने योग्य चौकी आदि । (१०) फलक-सोने योग्य पट्टा आदि । (११) शय्या-ठहरने के लिए मकान आदि । (१२) संथारा-बिठाने के लिए घास आदि । (१३) औषध-एक ही वस्तु से बनी हुई औषधि । (१४) भेषज-अनेक चीजों के मिश्रण से बनी हुई औषधि ।
ऊपर जो चौदह प्रकार के पदार्थ बताए गए हैं, इन में प्रथम के 'अाठ पदार्थ तो दानदाता से एक बार लेने के बाद फिर वापस नहीं
लौटाए जाते । शेष छह पदार्थ ऐसे हैं, जिन्हें साधु अपने काम में लाकर वापस लौटा भी देते हैं ।
[श्रावश्यक] (१२)
कायोत्सर्ग के उन्नीस दोष घोडग' लया२ य खंभे कुड्ड3 माले य सबरि बहु नियले । लंबुत्तर' घण उड्डी' संजय १ खलिणे२ य वायस कवि? १४ ॥ सीसोकंपिय"५ मूई१६ अंगुलि भमुहा० य वारुणी'८ पेहा । एए काउ सग्गे वंति दोसा इगुणवीसं ॥
(१) घोटक दोष-घोड़े की तरह एक पैर को मोड़कर खड़े होना।
(२) लता दोष-पवन-प्रकंपित लता की तरह काँपना । (३) स्तंभकुड्य दोष-खंभे या दीवाल का सहारा लेना।
(४) माल दोष-माल अर्थात् ऊपर की ओर किसी के सहारे मस्तक लगा कर खड़े होना ।
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बोल - संग्रह
४१७
(५) शबरी दोष - नग्न भिल्लनी के समान दोनों हाथ गुहा
स्थान पर रखकर खड़े होना ।
(६) वधू दोष -कुल-वधू की तरह मस्तक झुकाकर खड़े होना । (७) निगड दोष- बेड़ी पहने हुए पुरुष की तरह दोनों पैर फैला कर अथवा मिलाकर खड़े होना ।
(८) लम्बोत्तर दोष -
अव्यक्त शब्द करना ।
(१७) अंगुलिका
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भ्र
और नीचे घुटने तक लम्बा करके खड़े होना ।
( ६ ) स्तन दोष -मच्छर आदि के भय से अथवा अज्ञानताघश छाती ढक कर कायोत्सर्ग करना ।
(१०) उद्धिका दोष --- एड़ी मिला कर और पंजों को फैलाकर खड़े रहना, अथवा अँगूठे मिलाकर और एड़ी फैलाकर खड़े रहना, उर्दिका दोष है |
(११) संयती दोष -- साध्वी की तरह कपड़े से सारा शरीर ढँक कर कायोत्सर्ग करना ।
(१२) खलीन दोष- लगाम की तरह रजोहरण को आगे रख कर खड़े होना । अथवा लगाम से पीड़ित अश्व के समान मस्तक को कभी ऊपर कभी नीचे हिलाना, खलीन दोष है ।
(१३) वायस दोष - कौवे की तरह चंचल चित्त होकर इधरउधर आँखें घुमाना अथवा दिशाओं की ओर देखना ।
(१४) कपित्थ दोष -- पट्पदिका ( जूँ ) के भय से चोलपट्टे को कपित्थ की तरह गोलाकार बना कर जंघात्रों के बीच दबाकर खड़े होना । अथवा मुट्ठी बाँध कर खड़े रहना, कपित्थ दोष है ।
(१५) शीर्षोत्कम्पित दोष-भूत लगे हुए व्यक्ति की तरह सिर धुनते हुए खड़े रहना ।
(१६) मूक दोष- मूक अर्थात् गूँगे आदमी की तरह 'हूँ हूँ' आदि
विधि से चोलपट्टे को नाभि के ऊपर
दोष - श्रालापकों को अर्थात् पाढ की -
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४१८.
श्रमण-सूत्र त्तियों को गिनने के लिए अँगुली हिलाना, तथा दूसरे व्यापार के लिए भौंह चला कर संकेत करना ।
(१८) वारुणी दोष-जिस प्रकार तैयार की जाती हुई शराब में से बुड़-बुड़ शब्द निकलता है, उसी प्रकार अव्यक्त शब्द करते हुए खड़े रहना । अथवा शराबी की तरह झूमते हुए खड़े रहना।
(१६) प्रेक्षा दोष-पाठ का चिन्तन करते हुए वानर की तरह श्रोटों को चलाना ।
[प्रवचनसारोद्धार ] ___ योग शास्त्र के तृतीय प्रकाश में श्रीहेमचन्द्राचार्य ने कायोत्सर्ग के इक्कीस दोष बतलाए हैं। उनके मतानुसार स्तंभ दोष, कुड्य दोष, अंगुली दोष और भ्र. दोष चार हैं; जिनका ऊपर स्तम्भकुड्य दोष और अंगुलिकाभ्र, दोष नामक दो दोषों में समावेश किया गया है।
साधु की ३१ उपमार (१) उत्तम एवं स्वच्छ कांस्य पात्र जैसे जल-मुक्त रहता है, उस पर पानी नहीं ठहरता है, उसी प्रकार साधु भी सांसारिक स्नेह से मुक्त होता हैं।
(२) जैसे शंख पर रंग नहीं चढ़ता, उसी प्रकार साधु राग-भाव से रंजित नहीं होता।
(३; जैसे कछुवा चार पैर और एक गर्दन-इन पाँचों अवयवों को संकोच कर, खोपड़ी में छुपाकर सुरक्षित रखता है, उसी प्रकार साधु भी संयम क्षेत्र में पाँचों इन्द्रियों का गोपन करता है, उन्हें विषयों की श्रोर बहिमुख नहीं होने देता।
(४) निर्मल सुवर्ण जैसे प्रशस्त रूपवान् होता है, उसी प्रकार साधु भी रागादि का नाश कर प्रशस्त अात्मस्वरूप वाला होता है।
. (५) जैसे कमल-पत्र जल से निलिप्त रहता है, उसी प्रकार
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बोल संग्रह
४१६
साधु, अनुकूल विषयों में आसक्त न होता हुआ उनसे निर्लिप्त रहता है।
(६) चन्द्र जैसे सौम्य ( शीतल ) होता है, उसी प्रकार साधु स्वभाव से सौम्य होता है। शान्त-परिणामी होने से किसी को क्लेश नीं पहुँचाता।
(७) सूर्य जैसे तेज से दीप्त होता है, उसी प्रकार साधु भी तपके तेज से दीत रहता है ।।
(८) जैसे सुमेरु पर्वत स्थिर है, प्रलयकाल में भी चलित नहीं होता, उसी प्रकार साधु संयम में स्थिर रहता हुअा अनुकूल तथा प्रतिकूल किसी भी परीषह से विचलित नहीं होता। .. (६) जिस प्रकार समुद्र गम्भीर होता है, उसी प्रकार साधु भी गम्भीर होता है, हर्ष और शोक के कारणों से चित्त को चंचल नहीं होने देता।
(१०) जिस प्रकार पृथ्वी सभी बाधा पीड़ाएँ सहती है, उसी प्रकार साधु भी सभी प्रकार के परीषह एवं उपसर्ग सहन करता है ।
(११) राख की झाँई पाने पर भी अग्नि जैसे अन्दर प्रदीप्त रहती है और बाहर से मलिन दिखाई देती है। उसी प्रकार साधु तप से कृश होने के कारण बाहर से म्लान दिखाई देता है, किन्तु अन्तर में शुभ भावना के द्वारा प्रकाशमान रहता है ।
- (१२) घी से सींची हुई अग्नि जैसे तेज से देदीप्यमान होती है, उसी प्रकार साधु ज्ञान एवं तप के तेज से दीप्त रहता है। - (१३) गोशीर्ष चन्दन जैसे शीतल तथा सुगन्धित होता है, उसी प्रकार साधु कषायों के उपशान्त होने से शीतल तथा शील की सुगन्ध से वासित होता है। ___(१४) हवा न चलने पर जैसे जलाशय की सतह सम रहती है, ऊँची-नीची नहीं होती; उसी प्रकार साधु भी समभाव वाला होता है। सम्मान हो अथवा अपमान, उसके विचारों में चढ़ाव-उतार नहीं होता।
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श्रमण-सूत्र
(१५) सम्मार्जित एवं स्वच्छ दर्पण जिस प्रकार प्रतिबिम्ब-ग्राही होता है, उसी प्रकार साधु मायारहित होने के कारण शुद्ध हृदय होता है, शास्त्रों के भावों को पूर्णतया ग्रहण करता है।
(१६) जिस प्रकार हाथी रणाङ्गण में अपना दृढ़ शौर्य , दिग्वाता है, उसी प्रकार साधु भी परीघहरूप सेना के साथ युद्ध में अपूर्व आत्मशौर्य प्रकट करता है एवं विजय प्राप्त करता है।
(१७) वृषभ जैसे धोरी होता है, शकट-भार को पूर्णतया वहन करता है, उसी प्रकार साधु भी ग्रहण किए हुए व्रत नियमों का उत्साहपूर्वक निर्वाह करता है।
(१८) जिस प्रकार सिंह महाशक्तिशाली होता है, फलतः वन के अन्य मृगादि पशु उसे हरा नहीं सकते; उसी प्रकार साधु भी आध्यात्मिक शक्तिशाली होते हैं, परीषह उन्हें पराभूत नहीं कर सकते । . (१६) शरद् ऋतु का जल जैसे निर्मल होता है उसी प्रकार साधु का हृदय भी शुद्ध = रागादि मल से रहित होता है।
(२०) जिस प्रकार भारण्ड पक्षी अहर्निश अत्यन्त सावधान रहता है, तनिक भी प्रमाद नहीं करता; इसी प्रकार साधु भी सदैव संयमानुष्ठान में सावधान रहता है, कभी भी प्रमाद का सेवन नहीं करता ।
(२१) जैसे गैंडे के मस्तक पर एक ही सींग होता है, उसी प्रकार साधु भी राग-द्वेष रहित होने से एकाकी होता है, किसी भी व्यक्ति एवं वस्तु में अासक्ति नहीं रखता।
(२२) जैसे स्थाणु (वृक्ष का हूँठ) निश्चल खड़ा रहता है उसी प्रकार साधु भी कायोत्सर्ग आदि के समय निश्चल एवं निष्प्रकंप खड़ा रहता है।
(२३) सूने घर में जैसे सफाई एवं सजावट आदि के संस्कार नहीं होते, उसी प्रकार साधु भी शरीर का संस्कार नहीं करता। वह बाह्य शोभा एवं शृङ्गार का त्यागी होता है।
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बोल-संग्रह
४२१
(२४) जिस प्रकार निर्वात ( वायु से रहित ) स्थान में रहा हुआ दीपक स्थिर रहता है, कंपित नहीं होता, उसी प्रकार साधु भी एकान्त स्थान में रहा हुया उपसर्ग आने पर भी शुभ ध्यान से चलायमान नहीं होता।
(२५) जैसे उस्तरे के एक ओर ही धार होती है, वैसे ही साधु भी त्याग-रूप एक ही धारा वाला होता है।
(२६) जैसे सर्प एक-दृष्टि होता है अर्थात् लक्ष्य पर एक टक दृष्टि जमाए रहता है, उसी प्रकार साधु भी अपने मोक्ष-रूप ध्येय के प्रति ही ध्यान रखता है, अन्यत्र नहीं ।
(२७) श्राकाश जैसे निरालम्ब= आधार से रहित है, उसी प्रकार साधु भी कुल, ग्राम, नगर, देश आदि के आलम्बन से रहित अनासक्त होता है। . (२८) पक्षी जैसे सब तरह से स्वतंत्र होकर विहार करता है, वैसे ही निष्परिग्रही साधु भी स्वजन आदि तथा नियतवास आदि के बन्धनों से मुक्त होकर स्वतंत्र विहार करता है ।
(२६) जिस प्रकार सर्प स्वयं घर नहीं बनाता, किन्तु चूहे आदि दूसरों के बनाये बिलों में जाकर निवास करता है, उसी प्रकार साधु भी स्वयं मकान नहीं बनाता, किन्तु गृहस्थों के अपने लिए बनाए गए मकानों में उनकी प्रज्ञा प्राप्त कर निवास करता है ।
(३०) वायु की गति जैसे प्रतिबन्ध रहित अव्याहत है, उसी प्रकार साधु भी विना किसी प्रतिबन्ध के स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करता है। __(३१) मृत्यु के बाद परभव में जाते हुए जीव की गति में जैसे कोई रुकावट नहीं होती, उसी प्रकार स्वपर सिद्धान्त का जानकार साधु भी निःशङ्क होकर विरोधी अन्य-तीथिकों के देशों में धर्म प्रचार करता हुअा विचरता है।
- [औषपातिक सूत्र ]
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४२३
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श्रमण-सूत्र
( १४ ) बत्तीस अस्वाध्याय
बत्तीस स्वाध्यायों का वर्णन स्थानाङ्ग सूत्र में है । वह इस प्रकार है -- दश ग्राकाश सम्बन्धी, दश श्रदारिक सम्बन्धी, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदाओं के पूर्व की पूर्णिमाएँ, और चार सन्ध्याएँ । अन्य ग्रन्थों में कुछ मत भेद भी हैं । परन्तु यहाँ स्थानाङ्ग सूत्र के अनुसार ही लिखा जा रहा है ।
( १ ) उल्कापात -- आकाश से रेखा वाले तेजःपुञ्ज का गिरना, अथवा पीछे से रेखा एवं प्रकाश वाले तारे का टूटना, उल्कापात कहलाता है । उल्कापात होने पर एक प्रहर तक सूत्र की अत्वाध्याय रहती है ।
( २ ) दिग्दाह - किसी एक दिशा- विशेष में मानों बड़ा नगर जल रहा हो, इस प्रकार ऊपर की ओर प्रकाश दिखाई देना और नीचे अन्धकार मालूम होना, दिग्दाह है | दिग्दाह के होने पर एक प्रहर तक स्वाध्याय रहती है ।
(३) गर्जित - बादल गर्जने पर दो प्रहर तक शास्त्र की स्वाध्याय नहीं करनी चाहिए |
(४) विद्युत - बिजली चमकने पर एक प्रहर तक शास्त्र की स्वाध्याय करने का निषेध है ।
आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र तक अर्थात् वर्षा ऋतु में गर्जित और विद्युत की स्वाध्याय नहीं होती । क्योंकि वर्षा काल में ये प्रकृतिसिद्धस्वाभाविक होते हैं ।
( ५ ) निर्घात - विना बादल वाले आकाश में व्यन्तरादिकृत गर्जना की प्रचण्ड ध्वनि को निर्घात कहते हैं । निर्घात होने पर एक होरात्रि तक स्वाध्याय रखना चाहिए |
.
(६) यूपक शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीय और तृतीया को सुन्ध्या की प्रभा और चन्द्र की प्रभा का मिल जाना, यूपक है । इन
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बोल-संग्रह
४२३
दिनों में चन्द्र-प्रभा से श्रावृत होने के कारण सन्ध्या का बीतना मालूम नहीं होता । अतः तीनों दिनों में रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करना मना है
(७) यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा-विशेष में बिजली सरीखा, बीचबीच में ठहर कर, जो प्रकाश दिखाई देता है उसे यक्षादीप्त कहते हैं । यज्ञादीप्त होने पर एक प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए ।
(८) धूमिका-कार्तिक से लेकर माघ मास तक का समय मेघों का गर्भमास कहा जाता है। इस काल में जो धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जल रूप धू वर पड़ती है, वह धूमिका कहलाती है । यह धूमिका कभी कभी अन्य मासों में भी पड़ा करती है। धूमिका गिरने के साथ ही सभी को जल-क्लिन कर देती है। अतः यह जब तक गिरती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए ।
(६) महिका-शीत काल में जो श्वेतः वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धू वर पड़ती है, वह महिका है । यह भी जब तक गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय रहता है। . (१०) रजउद्घात-वायु के कारण अाकाश में जो चारों ओर धूल छा जाती है, उसे रजउद्घात कहते हैं। रज उद्घात जब तक रहे, तब तक स्वाध्याय न करना चाहिए ।
ये दश अाकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय हैं ।
(११-१३) अस्थि, मांस और रक्त--पञ्चेन्द्रिय तियञ्च के अस्थि, मांस और रक्त यदि साठ हाथ के अन्दर हों तो संभवकाल से तीन प्रहर तक स्वाध्याय करना मना है। यदि साठ हाथ के अन्दर बिल्ली वगैरह चूहे आदि को मार डालें तो एक दिन-रात अस्वाध्याय रहता है। . इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि, मांस और रक्त का अस्वाध्याय भी समझना चाहिए। अन्तर केवल इतना ही है कि-इनका अत्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है। स्त्रियों के
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४२४
श्रमण सूत्र
मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन का एवं बालक और बालिका के जन्म का क्रमशः सात और अाठ दिन का माना गया है ।
(१४) अशुचि-टट्टी और पेशाब यदि स्वाध्याय स्थान के समीप हों और वे दृष्टिगोचर होते हों अथवा उनकी दुर्गन्ध आती हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए ।
(१५) श्मशान-श्मशान के चारों तरफ़ सौ-सौ हाथ तक स्वाध्याय न करना चाहिए।
(१६) चन्द्र ग्रहण चन्द्र ग्रहण होने पर जघन्य अाठ और उत्कृष्ट बारह प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। यदि उगता हुआ चन्द्र ग्रसित हुआ हो तो चार प्रहर उस रात के एवं चार प्रहर अागामी दिवस के इस प्रकार बाट प्रहर स्वाध्याय न करना चाहिए ।
यदि चन्द्रमा प्रभात के समय ग्रहण-सहित अस्त हुआ हो तो चार प्रहर दिन के, चार प्रहर रात्रि के एवं चार प्रहर दूसरे दिन के इस प्रकार बारह प्रहर तक अस्वाध्याय रखना चाहिए।
पूर्ण ग्रहण होने पर भी बारह प्रहर स्वाध्याय न करना चाहिए । यदि ग्रहण अल्य%= अपूर्ण हो तो आठ प्रहर तक अस्वाध्यायकाल रहता है। ___ (१७) सूर्य ग्रहण-सूर्य ग्रहण होने पर जघन्य बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर तक अस्वाध्याय रखना चाहिए । अपूर्ण ग्रहण होने पर बारह, और पूर्ण तथा पूर्ण के लगभग होने पर सोलह प्रहर का अस्वाध्याय होता है।
सूर्य अस्त होते समय ग्रसित हो तो चार प्रहर रात के, ओर पाठ अागामी अहोरात्रि के इस प्रकार सोलह प्रहर तक अस्वाध्याय रखना चाहिए। यदि उगता हुआ सूर्य ग्रसित हो तो उस दिन रात के आठ एवं आगामी दिन-रात के आठ-इस प्रकार सोलह प्रहर तक स्वाध्याय न करना चाहिए।
(१८) पतन-राजा की मृत्यु होने पर जब तक दूसरा राजा
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बोल-संग्रह
४२५
सिंहासनारूढ़ न हो, तब तक स्वाध्याय करना मना है। नये राजा के हो जाने के बाद भी एक दिन-रात तक स्वाध्याय न करना चाहिए ।
राजा के विद्यमान रहते भी यदि अशान्ति एवं उपद्रव हो जाय तो जब तक अशान्ति रहे तब तक अस्वाध्याय रखना चाहिए । शान्ति एवं व्यवस्था हो जाने के बाद भी एक अहोरात्र के लिए अस्वाध्याय रखा जाता है।
राजमंत्री की, गाँव के मुखिया की, शय्यातर की, तथा उपाश्रय के आस-पास में सात घरों के अन्दर अन्य किसी की मृत्यु हो जाय तो एक दिन-रात के लिए अस्वाध्याय रखना चाहिए।
(१६) राजव्युग्रह-राजाओं के बीच संग्राम हो जाय तो शान्ति होने तक तथा उसके बाद भी एक अहोरात्र तक स्वाध्याय न करना चाहिए।
(२०) औदारिकशरीर-उपाश्रय में पञ्चेन्द्रिय तिर्यच का अथवा मनुष्य का निर्जीव शरीर पड़ा हो तो सौ हाथ के अन्दर स्वाध्याय न करना चाहिए । ___ ये दश औदारिक सम्बन्धी अस्वाध्याय हैं । चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण को श्रौदारिक अस्वाध्याय में इसलिए गिना है कि उनके विमान पृथ्वी के बने होते हैं।
(२१-२८) चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-श्राषाढ़ पूर्णिमा, अाश्विन पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा और चैत्र पूर्णिमा-ये चार महोत्सव हैं । उक्त महापूर्णिमाओं के बाद अाने वाली प्रतिपदा महाप्रतिपदा कहलाती है। चारों महापूर्णिमाओं और चारों महाप्रतिपदाओं में स्वाध्याय न करना चाहिए। .
(२६-३२) प्रातःकाल, दुपहर, सायंकाल और अर्द्ध रात्रि-ये चार सन्ध्याकाल हैं। इन सन्ध्यात्रों में भी दो घड़ी तक स्वाध्याय न करना चाहिए।
[स्थानांग सूत्र ]
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श्रमण-सूत्र
( १५ ) वन्दना के बत्तीस दोष
( १ ) अनाहत - आदरभाव के बिना वन्दना करना ।
(२) स्तब्ध -- अभिमान पूर्वक वन्दना करना अर्थात् दण्डायमान रहना, झुकना नहीं । रोगादि कारण का श्रागार है ।
( ३ ) प्रविद्ध - अनियंत्रित रूप से अस्थिर होकर वन्दना करना । अथवा वन्दना अधूरी ही छोड़ कर चले जाना |
(४) परिपण्डित -- एक स्थान पर रहे हुए प्राचार्य यदि को पृथक्-पृथक् वन्दना न कर एक ही वन्दन से सत्र को वन्दना करना | अथवा जंघा पर हाथ रख कर हाथ पैर बाँधे हुए स्प-उच्चारण- पूर्वक वन्दना करना ।
(५) टोलगति - टिड्ड की तरह आगे पीछे कूद-फाँद कर
वन्दना करना ।
(६) अंकुश - रजोहरण को अंकुश की तरह दोनों हाथों से पकड़ कर वन्दना करना । अथवा हाथी को जिस प्रकार बलात् अंकुश के द्वारा बिठाया जाता है, उसी प्रकार श्राचार्य आदि सोये हुए हों या अन्य किसी कार्य में संलग्न द्दों तो श्रवज्ञापूर्वक हाथ खींच कर वन्दना करना अंकुश दोष है ।
( ७ ) कच्छ परिगत - 'तित्तिसन्नयगए' श्रादि पाठ कहते समय खड़े होकर अथवा 'अहो काय काय' इत्यादि पाठ बोलते समय बैठ कर कछुए की तरह रेंगते अर्थात् आगे-पीछे चलते हुए वन्दना करना ।
(८) मत्स्योदवृत्त -- श्राचार्यादि को वन्दना करने के बाद बैठेबैठे ही मछली की तरह शीघ्र पार्श्व फेर कर पास में बैठे हुए अन्य रत्नाधिक साधुत्रों को वन्दना करना ।
( ६ ) मनसा प्रद्विष्ट - रत्नाधिक गुरुदेव के प्रति श्रसूया पूर्वक वन्दना करना, मनसाप्रद्विष्ट दोष है ।
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बोल-संग्रह
--- ४२७ (१०) वेदिकाबद्ध-~-दोनों घुटनों के ऊपर, नीचे पार्श्व में अथवा गोदी में हाथ रख कर या किसी एक घुटने को दोनों हाथों के बीच में करके वन्दना करना।
(११) भय-प्राचार्य आदि कहीं गच्छ से बाहर न करदें, इस भय से उनको वन्दना करना ।।
(१२) भजमान-प्राचार्य हम से अनुकूल रहते हैं अथवा भविष्य में अनुकूल रहेंगे, इस दृष्टि से वन्दना करना ।
(१३) मैत्री-प्राचार्य श्रादि से मैत्री हो जायगी, इस प्रकार मैत्री के निमित्त से वन्दना करना।
(१४ गौरव-दूसरे साधु यह जान लें कि यह साधु वन्दन-विषयक समाचारी में कुशल है, इस प्रकार गौरव की इच्छा से विधि पूर्वक वन्दना करना।
(१५) कारण-ज्ञान, दर्शन और चारित्र के सिवा अन्य ऐहिक वस्त्र पात्र आदि वस्तुओं के लिए वन्दना करना, कारण दोष है ।
(१६) स्तन्य-दूसरे साधु और श्रावक मुझे वन्दना करते देख न लें, मेरी लघुता प्रकट न हो, इस भाव से चोर की तरह छिपकर वन्दना करना ।
(१७) प्रत्यनीक-गुरुदेव अाहारादि करते हों उस समय वन. ना करना, प्रत्यनीक दोष है । - (१८) रुष्ट-क्रोध से जलते हुए वन्दन करना ।
(१६) तर्जित-गुरुदेव को तर्जना करते हुए वन्दन करना । तर्जना का अर्थ है-'तुम तो काष्ठ मूर्ति हो, तुमको वन्दना करें या न करें, कुछ भी हानि लाभ नहीं ।'
(२०) शठ-विना भाव के सिर्फ दिखाने के लिए बन्दन काना अथवा बीमारी आदि का झूठा बहाना बना कर सम्यक् प्रकार से वन्दन न करना।
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४२८
श्रमण-सूत्र
(२१) हीलित-'अापको वन्दना करने से क्या लाभ ?'-इस प्रकार हँसी करते हुए अवहेलनापूर्वक वन्दना करना ।
(२२) विपरिकुञ्चित-वन्दना अधूरी छोड़ कर देश आदि की इधर-उधर की बातें करने लगना।।
(२३) दृष्टादृष्ट-बहुत से साधु वन्दना कर रहे हों उस समय किसी साधु की आड़ में वन्दना किए विना खड़े रहना अथवा अँधेरी जगह में वन्दना किए बिना ही चुपचाप खड़े रहना, परन्तु श्राचार्य के देख लेने पर वन्दना करने लगना, दृष्टादृष्ट दोष है ।
(२४) शृग-वन्दना करते समय ललाट के बीच दोनों हाथ न लगाकर ललाट की बाँई या दाहिनी तरफ लगाना, शृग दोष है।
(२५) कर-वन्दना को निर्जरा का हेतु न मान कर उसे अरिहन्त भगवान् का कर समझना ।
(२६) मोचन--वन्दना से ही मुक्ति सम्भव है, वन्दना के विना मोक्ष न होगा--यह सोचकर विवशता के साथ वन्दना करना ।
(२७) आश्लिष्ट अनाश्लिष्ट-'अहो काय काय' इत्यादि प्रावर्त देते समय दोनों हाथों से रजोहरण और मस्तक को क्रमशः छूना चाहिए । अथवा गुरुदेव के चरण कमल और निज मस्तक को क्रमशः छूना चा हए । ऐसा न करके किसी एक को छूना, अथवा दोनों को ही न छूना, अाश्लिष्ट अनाश्लिष्ट दोष है।
(२८) ऊन-गवश्यक वचन एवं नमनादि क्रियाओं में से कोई सी क्रिया छोड़ देना। अथवा उत्सुकता के कारण थोड़े समय में ही वन्दन क्रिया समाप्त कर देना ।
(२६) उत्तरचूडा-वन्दना कर लेने के बाद उँचे स्वर से 'मत्थएण वन्दामि' कहना उत्तर चूड़ा दोष है ।
(३०) मूक-पाठ का उच्चारण न करके मूक के समान वन्दना करना।
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बोल-संग्रह
४२६
(३१) टड्डर -- ऊँचे स्वर से अभद्र रूप में वन्दना सूत्र का
उच्चारण करना ।
(३२) चुड्ली - अर्द्धदग्ध अर्थात् अधजले काठ की तरह रजोहरण को सिरे से पकड़ कर उसे घुमाते हुए वन्दन करना ।
[ प्रवचन सारोद्धार, वन्दनाद्वार ]
( १६ ) तेतीस शातनाएँ
( १ ) मार्ग में रत्नाधिक ( दीक्षा में बड़े ) से आगे चलना । ( २ ) मार्ग में रत्नाधिक के बराबर चलना ।
( ३ ) मार्ग में रत्नाधिक के पीछे ड़कर चलना |
( ४ - ६ ) रत्नाधिक के ग्रागे बराबर में तथा पीछे अड़ कर खड़े होना ।
( ७-९ ) रत्नाधिक के आगे, बराबर तथा पीछे अड़कर बैठना । ( १० ) रत्नाधिक और शिष्य विचार-भूमि. ( जंगल में ) गए हों वहाँ रत्नाधिक से पूर्व श्राचमन - शौच करना ।
(११) बाहर से उपाश्रय में लौटने पर रत्नाधिक से पहले पथ की आलोचना करना
(१२) रात्रि में रत्नाधिक की ओर से 'कौन जागता है ?' पूछने जागते हुए भी उत्तर न देना ।
पर
(१३) जिस व्यक्ति से रत्नाधिक को पहले बात-चीत करनी चाहिए, उससे पहले स्वयं ही बात-चीत करना ।
(१४) आहार आदि की आलोचना प्रथम दूसरे साधुओं के श्रागे करने के बाद रत्नाधिक के आगे करना ।
(१५) आहार आदि प्रथम दूसरे साधुत्रों को दिखला कर बाद में रत्नाधिक को दिखलाना ।
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श्रमण-सूत्र
(१६) आहार आदि के लिए प्रथम दूसरे साधुत्रों को निमंत्रित कर बाद में रत्नाधिक को निमंत्रण देना ।
(१७) रत्नाधिक को बिना पूछे दूसरे साधु को उसकी इच्छानुसार प्रचुर प्रहार देना ।
(१८) रत्नाधिक के साथ आहार करते समय सुस्वादु आहार स्वयं खा लेना, अथवा साधारण आहार भी शीघ्रता से अधिक खा लेना । (१६) रत्नाधिक के बुलाये जाने पर सुना अनसुना कर देना । (२०) रत्नाधिक के प्रति या उनके समक्ष कठोर अथवा मर्यादा से अधिक बोलना |
(२१) रत्नाधिक के द्वारा बुलाये जाने पर 'मत्थएण वंदामि' कहना चाहिए। ऐसा न कह इन अभद्र शब्दों में उत्तर देना ।
शिष्य को उत्तर में कर 'क्या कहते हो '
(२२) रत्नाधिक के द्वारा बुलाने पर शिष्य को उनके समीप श्राकर बात सुननी चाहिए। ऐसा न करके आसन पर बैठे ही बैठे बात सुनना और उत्तर देना ।
(२३) गुरुदेव के प्रति 'तू' का प्रयोग करना ।
(२४) गुरुदेव किसी कार्य के लिए आज्ञा देवें तो उसे स्वीकार न करके उल्टा उन्हीं से कहना कि 'आप ही कर लो ।"
(२५) गुरुदेव के धर्मकथा कहने पर ध्यान से न सुनना और अन्य मनस्क रहना, प्रवचन को प्रशंसा न करना ।
(२६) रत्नाधिक धर्मकथा करते हों तो बीच में ही टोकना'आप भूल गए । यह ऐसे नहीं, ऐसे है ' - इत्यादि ।
(२७) रत्नाधिक धर्मकथा कर रहे हों, उस समय किसी उपाय से कथा-भंग करना और स्वयं कथा कहने लगना
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(२८) रत्नाधिक धर्मकथा करते हों उस समय परिषद का भेदन करना और कहना कि कब तक कहोगे, भिक्षा का समय हो गया है ।' (२६) रत्नाधिक धर्म - कथा कर चुके हों और जनता अभी बिखरी
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बोल संग्रह
४३१
न हो तो उस सभा में गुरुदेव – कथित धर्मकथा का ही अन्य व्याख्यान करना और कहना कि 'इसके ये भाव और होते हैं ।'
( ३० ) गुरुदेव के शय्या संस्तारक को पैर से छूकर क्षमा माँगे विना ही चले जाना ।
(३१) गुरुदेव के शय्या - संस्तारक पर खड़े होना, बैठना, और
सोना ।
(३२) गुरुदेव के श्रासन से ऊँचे आसन पर खड़े होना, बैठना और
सोना ।
(३३) गुरुदेव के आसन के बराबर ग्रासन पर खड़े होना, बैठना और सोना ।
ये
शातनाएँ हरिभद्रीय आवश्यक के प्रतिक्रमणाध्ययन के अनुसार दी हैं । समवायांग और दशाश्रु तस्कन्ध सूत्र में भी कुछ क्रम भंग, के सिवा ये ही ग्राशातनाएँ हैं ।
( १७ ) गोचरी के ४७ दोष गवेषणा के १६ उद्गम दोष
हाक मुद्देसिय पूर्वकम्मे य मीसजाए य । वरण पाहुडियाए पाओयर कीय पामिच्चे ॥ १ ॥ परियट्टिए अभिहडे उभिन्न मालोहडे इयः । भोयर य सोलसमे ॥ २ ॥
छज्जे अणिसि ( १ ) आधाकर्म - साधु का उद्देश्य रखकर बनाना । ( २ ) औद्देशिक -सामान्य याचकों का उद्देश्य रखकर बनाना । (३) पूतिकर्म - शुद्ध आहार को श्रधाकर्मादि से मिश्रित करना । ( ४ ) मिश्र जात - अपने और साधु के लिए एक साथ बनाना । (५) स्थापन - साधु के लिए दुग्ध आदि अलग रख देना ।
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श्रमण-सूत्र
(६) प्राभृतिका - साधु को पास के ग्रामादि में श्राया जान कर विशिष्ट आहार बहराने के लिए जीमणवार आदि का दिन आगे पीछे कर देना ।
(७) प्रादुष्करण - अन्धकारयुक्त स्थान में दीपक श्रादि का प्रकाश करके भोजन देना ।
(८) क्रीत - साधु के लिए ख़रीद कर लाना ।
(६) प्रामित्य - साधु के लिए उधार लाना ।
C
(१०) परिवर्तित - साधु के लिए ग्रा-सट्टा करके लाना ।
(११) अभिहृत - साधु के लिए दूर से लाकर देना ।
W
(१२) उद् भिन्न - साधु के लिए लिप्त पात्र का मुख खोल कर घृतादि देना ।
(१३) मालापहृत - ऊपर की मञ्जिल से या छींके वगैरह से सीढ़ी आदि से उतार कर देना ।
(१४) आच्छेद्य - दुर्बल से छीन कर देना ।
(१५) निसृष्ट - साझे की चीज़ दूसरों की आज्ञा के बिना देना । (१६) अध्यव पूरक - साधु को गाँव में श्राया जान कर अपने लिए बनाये जाने वाले भोजन में और बढ़ा देना |
उद्गम दोषों का निमित्त गृहस्थ होता है ।
गवेषणा के १६ उत्पादन दोष
धाई दूई निमित्ते श्राजीव वणीमगे तिमिच्छा य । कोहे माणे माया लोभे य हवंति दस एए ॥ | १ || पुव्विं पच्छासंथव विज्जा मंते य चुण्या जोगे य । उपायगाइ दोसा सोलसमे मूलकम्मे य ॥२॥ ( १ ) धात्री - धाय की तरह गृहस्थ के बालकों को खिला-पिला कर, हँसा - रमाकर श्राहार लेना ।
(२) दूती - दूत के समान संदेशवाहक बनकर आहार लेना ।
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बोल-संग्रह
(३) निमित्त-शुभाशुभ निमित्त बताकर श्राहार लेना । (४) आजीव-पाहार के लिए जाति, कुल श्रादि बताना । (५) वनीपक-गृहस्थ की प्रशंसा करके भिक्षा लेना । (६) चिकित्सा --औषधि आदि बताकर आहार लेना। (७) क्रोध---क्रोध करना या शापादि का भय दिखाना । (८) मान-अपना प्रभुत्व जमाते हुए श्राहार लेना। (६) माया-छल कपट से आहार लेना। (१०) लोभ-सरस भिक्षा के लिए अधिक घूमना ।
(११) पूर्वपश्चात्संस्तव-दान-दाता के माता-पिता अथवा सासससुर आदि से अपना परिचय बताकर भिक्षा लेना ।
(१२) विद्या-जप आदि से सिद्ध होने वाली विद्या का प्रयोग करना।
(१३) मंत्र-मंत्र प्रयोग से आहार लेना। (१४) चूर्ण--चूर्ण श्रादि वशीकरण का प्रयोग करके श्राहार लेना। (१५) योग--सिद्धि आदि योग-विद्या का प्रदर्शन करना । (१६) मूलकर्म-गर्भस्तंभ आदि के प्रयोग बताना ।
उत्पादन के दोष साधु की अोर से लगते हैं। इनका निमित्त साधु ही होता है।
__ ग्रहणेपणा के १० दोष संकिय मक्खिय निक्खित्त,
पिहिय साहरिय दायगुम्मीसे । अपरिणय लित्त छड्डिय,
एसण दोसा दस हवन्ति ॥१॥ (१) शङ्कित-प्राधाकर्मादि दोषों की शंका होने पर भी लेना । (२) प्रक्षित-सचित्त का संघट्टा होने पर आहार लेना । (३) निक्षिप्त-सचित्त पर रक्खा हुआ पाहार लेना ।
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श्रमण-सूत्र
(४) पिहित-सचित्त से ढका हुअा आहार लेना।
(५) संहृत-पात्र में पहले से रक्खे हुए अकल्पनीय पदार्थ को निकाल कर उसी पात्र से देना ।
(६) दायक-शराबी, गर्भिणी आदि अनधिकारी से लेना। (७) उन्मिश्र-सचित्त से मिश्रित आहार लेना। (८) अपरिणत-पूरे तौर पर पके विना शाकादि लेना ।
(१) लिप्त-दही, घृत अादि से लिप्त होनारले पात्र या हाथ से आहार लेना । पहले या पीछे धोने के कारण पुरः कर्म तथा पश्चात्कर्म दोष होता है ।
(१०) छर्दित-छींटे नीचे पड़ रहे हों, ऐसा आहार लेना ।
गृहस्थ तथा साधु दोनों के निमित्त से लगने वाले दोष, ग्रहणेषणा के दोष कहलाते हैं।
ग्रासैषणा के ५ दोष संजोयणाऽपमाणे,
इंगाले धूमऽकारण चैव । (१) संयोजना-रसलोलुपता के कारण दूध शक्कर आदि द्रव्यों को परस्पर मिलाना ।
(२) अप्रमाण-प्रमाण से अधिक भोजन करना ।
(३) अङ्गार-सुस्वादु भोजन को प्रशंसा करते हुए खाना । यह दोष चारित्र को जलाकर कोयलास्वरूप निस्तेज बना देता है, अतः अंगार कहलाता है।
(४) धूम-नीरस अाहार को निन्दा करते हुए खाना ।
(५) अकारण-.-याहार करने के छः कारणों के सिवा बलवृद्धि श्रादि के लिए भोजन करना ।
ये दोष साधु-मण्डली में बैठकर भोजन करते हुए लगते हैं, अतः ग्रासैषणा दोष कहलाते हैं।
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बोल-संग्रह
४३५ उपर्युक्त ४७ दोषों का वर्णन पिण्डनियुक्ति, प्रवचनसार, आवश्यक श्रादि में आता है। प्रत्येक टीकाकार कुछ अर्थ भेद की भी सूचना देते हैं । यहाँ सामान्यतया प्रचलित अर्थों का ही उल्लेख किया गया है।
( १७ )
चरण-सप्तति वय समणधम्म,
संजम वयावचं च बंभगुत्तीयो। नाणाइतियं तवं, कोह-निग्गहाई चरणमेयं ॥
—ोधनियुक्ति-भाष्य पाँच महाव्रत, क्षमा आदि दश श्रमण-धर्म, सतरह प्रकार का संथम, दश वैया वृत्य, नौ ब्रह्मचर्य की गुप्ति, ज्ञान दर्शन-चारित्ररूप तीन रत्न, बारह प्रकार का तप, चार कपायों का निग्रह---यह सत्तर प्रकार का चरण है।
करण-सप्तति पिंड विसोही समिई,
भावण पडिमा य इंदियनिरोहो । पडिलेहण गुत्तीओ, अभिग्गहा चेव करणं तु ।।
-श्रोधनियुक्ति भाष्य श्रशन श्रादि चार प्रकार की पिण्ड विशुद्धि, पाँच प्रकार की समिति, बारह प्रकार की भावना, बारह प्रकार की भिक्षु-प्रतिमा, पाँच प्रकार
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४३६
श्रमण-सूत्र
का इन्द्रियनिरोध, पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना, तीन गुप्तियाँ, पार चार प्रकार का अभिग्रह---यह सत्तर प्रकार का करण है।
जिस का नित्य प्रति निरंतर पाचरण किया जाय, वह हावत श्रादि चरण होता है। और जो प्रयोजन होने पर किया जाय और प्रयोजन न होने पर न किया जाय, वह करण होता है । श्रोधनियुक्ति की टीका में आचार्य द्रोण लिखते हैं-"चरणकरणयोः कः प्रतिविशेषः ? नित्यानुष्ठानं चरणं, यत्तु प्रयोजने आपने क्रियते तत्करणमिति । तथा च व्रतादि सर्वकालमेव चर्यते, न पुन व्रतशून्यः कश्चित्कालः । पिण्डविशुद्धयादि तु प्रयोजने अापने क्रियते इति ।"
(१६ )
चौरासी लाख जीव-योनि चार गति के जितने भी संसारी जीव हैं, उनकी ८४ लाख योनियाँ हैं । योनियों का अर्थ है---जीवों के उत्पन्न होने का स्थान । समस्त जीवों के ८४ लाख उत्पत्ति स्थान हैं । यद्यपि स्थान तो इस से भी अधिक हैं, परन्तु वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान के रूप में जितने भी स्थान परस्पर समान होते हैं, उन सब का मिल कर एक ही स्थान माना जाता है।
पृथ्वी काय के मूल भेद ६५० हैं । पाँच वर्ण से उक्त भेदों को गुणा करने से १७५० भेद होते हैं । पुन: दो गन्ध से गुणा करने पर ३५००, पुनः पाँच रस से गुणा करने पर १७५००, पुनः अाठ स्पर्श से गुणा करने पर १४०००० , पुनः पाँच संस्थान से गुणा करने से कुल सात लाख भेद होते हैं ।
उपर्युक्त पद्धति से ही जल, तेज एवं वायु काय के भी प्रत्येक के मूल भेद ३५० हैं । उनको पाँच वर्ण आदि से गुणन करने पर प्रत्येक की सात-सात लाख योनियाँ हो जाती हैं । प्रत्येक वनस्पति के मूलभेद ५०. हैं । उनको पाँच वर्ण अादि से गुणा करने से कुल दस लाख
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बोल-संग्रह
४३७
योनियाँ हो जाती हैं । कन्दमूल की जाति के मूलभेद ७०० हैं, अतः उनको भी पाँच वर्ण आदि से गुणा करने पर कुल १४००००० योनियाँ होती हैं। __इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय विकलत्रय के प्रत्येक के मूलभेद १०० हैं । उनको पाँच वर्ण श्रादि से गुणा करने पर प्रत्येक की कुल योनियाँ दो-दो लाख हो जाती हैं । तिर्यञ्च पञ्चन्द्रिय, नारकी एवं देवता के मूलभेद २०० हैं। उनको पाँच वर्ण आदि से गुणा करने पर प्रत्येक की कुल चार-चार लाख योनियाँ होती हैं। मनुष्य की जाति के मूलभेद ७०० हैं। अतः पाँच वर्ण श्रादि से गुणा करने से मनुष्य की कुल १४००००० योनियाँ हो जाती हैं।
(२०)
पाँच व्यवहार साधक-जीवन की प्राधार भूमि पाँच व्यवहार हैं । मुमुक्षु साधकों की प्रवृत्ति एवं निवृत्ति को व्यवहार कहते हैं । अशुभ से निवृत्तिं और शुभ में प्रवृत्ति ही व्यवहार है, और यही चारित्र है। प्राचार्य नेमिचन्द्र कहते हैं
'असुहादो विणिवित्ती,
सुहे पचित्ती य जाण चारित्तं ।' साधक की प्रत्येक प्रवृत्ति निवृत्ति ज्ञान मूलक होनी चाहिए। ज्ञान शून्य प्रवृत्ति, प्रवृत्ति नहीं, कुप्रवृत्ति है । और इसी प्रकार निवृत्ति भी निवृत्ति नहीं, कुनिवृत्ति है । चारित्र का अाधार ज्ञान है । अतः जहाँ साधक की प्रवृत्ति निवृत्ति को व्यवहार कहते हैं, वहाँ प्रवृत्ति-निवृत्ति के श्राधार भूत ज्ञान विशेष को भी व्यवहार कहते हैं ।
.१. आराम व्यवहार केवल ज्ञान, मनः पर्याय ज्ञान, अवधिज्ञान, चौदह पूर्व, दश पूर्व और नव पूर्व का ज्ञान आगम कहलाता है । आगम ज्ञान से प्रवर्तित प्रवृत्ति एवं निवृत्ति रूप व्यवहार अागम व्यवहार कहलाता है।
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श्रमगा-सूत्र
२. श्रुत व्यवहार-पाचारांग यादि सूत्रों का ज्ञान श्रुत है । श्रुत ज्ञान से प्रवर्तित व्यवहार श्रुत व्यवहार कहलाता है । यद्यपि नव, दश
और चौदह पूर्व का ज्ञान भी श्रु त रूप ही है, तथापि अतीन्द्रियार्थ-विषयक विशिष्ट ज्ञान का कारण होने से उक्त नव, दश आदि पूर्वो का ज्ञान सातिशय है, अतः अागमरूप माना जाता है । और नव पूर्व से न्यून ज्ञान सातिशय न होने से श्रुत रूप माना जाता है !
३. आज्ञा व्यवहार-दो गीतार्थ साधु एक दूसरे से अलग दूर देश में रहे हुए हों और शरीर-शक्ति के क्षीण हो जाने से विहार करने में असमर्थ हों । उनमें से किसी एक को प्रायश्चित्त आने पर वह मुनि योग्य गीतार्थ शिष्य के अभाव में मति एवं धारणा में अकुराल अगीतार्थ शिष्य को आगम की सांकेतिक गूढ़ भाषा में अपने अतिचार दोष कह कर या लिख कर उसे दूरस्थ गीतार्थ मुनि के पास भेजता है और इस प्रकार अपनी पापालोचना करता है । गूढ़ भाषा में कही हुई अालोचना को सुनकर वे गीतार्थ मुनि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, संहनन, धैर्य, बल आदि का विचार करके स्वयं वहाँ पहुँच कर प्रायश्चित प्रदान करते हैं अथवा योग्य गीतार्थ शिष्य को भेज कर उचित प्रायश्चित की सूचना देते हैं । यदि गीतार्थ शिष्य का योग न हो तो अालो बना के सन्देशवाहक उसी अगीतार्थ शिश्य के द्वारा ही गूढ भाषा में प्रायश्चित की सूचना भिजवाते हैं । यह सब अाज्ञा व्यवहार है । अर्थात् दूर देशान्तरस्थित गीतार्थ की आज्ञा से बालोचना आदि करना, आज्ञा व्यवहार है।
४. धारणा व्यवहार-किसी गीतार्थ मुनि ने द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से जिस अपराध का जो प्रायश्चित दिया है, कालान्तर में उसी धारणा के अनुसार वैसे अपराध का वैसा ही प्रायश्चित देना, धारणा व्यवहार है। ___ वैयावृत्त्य करने आदि के कारण जो साधु गच्छ का विशेष उपकारी हो, वह यदि सम्पूर्ण छेद-सूत्र सिखाने के योग्य न हो तो उसे गुरुदेव
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बोल-संग्रह
४३६
कृपा पूर्वक उचित प्रायश्चित्त विधान की शिक्षा दे देते हैं। और वह शिष्य यथावसर कालान्तर में अपनी उक्त धारणा के अनुसार प्रायश्चित श्रादि का विधान करता है, यह धारणा व्यवहार है ।
५. जीत व्यवहार-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, व्यक्ति विशेष, प्रतिसेवना, संहनन एवं धैर्य आदि की क्षीणता का विचार कर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह जीत व्यवहार है । ___ अथवा किसी गच्छ में कारण विशेष से सूत्र से न्यूनाधिक प्रायश्चित्त की प्रवृत्ति हुई हो और दूसरों ने उसका अनुसरण कर लिया हो तो वह प्रायश्चित जीत व्यवहार कहा जाता है। अर्थात् अपने-अपने गच्छ की परंपरा के अनुसार प्रायश्चित्त आदि का विधान करना, जीत व्यवहार है।
अथवा अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा प्रचारित की हुई मर्यादा का प्रतिपादन करने वाला ग्रन्थ जीत कहलाता है और उसके द्वारा प्रवर्तित व्यवहार जीत व्यवहार है। ___ उक्त पाँच व्यवहारों में यदि व्यवहर्ता के पास अागम हो तो उसे श्रागम से व्यवहार करना चाहिए। श्रागम में भी केवल ज्ञान, मनः पर्याय आदि अनेक भेद हैं। इनमें पहले केवल ज्ञान आदि के होते हुए उन्हीं से व्यवहार चलाया जाना चाहिए, दूसरों से नहीं। आगम के अभाव में श्रुत से, श्रु त के अभाव में प्राज्ञा से, आज्ञा के अभाव में धारणा से, और धारणा के अभाव में जीत व्यवहार से प्रवृत्ति निवृत्तिरूप व्यवहार का प्रयोग करना चाहिए । देश, काल के अनुसार उपयुक्त पद्धति से सम्यक् रूपेण पक्षपातरहित व्यवहारों का प्रयोग करता हुआ साधक भगवान् की आज्ञा का अाराधक होता है।
[स्थानांग सूत्र ५। २ । ४२१]
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जे नो | जे नो । जे नाणु करंति | कारवंति | 'मोयंति
( २१ ) अठारह हजार शीलाङ्ग रथ
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मणसा] वयसा कायसा २.... | २.... | २....
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श्रमण सूत्र
निजिया | निजिया | निजिया | निजिया
जे नो करेंति मणसा, निजियाहारसन्ना सोइंदिए;
पुढवीकायारंभे, खंतिजुश्रा ते मुणी वंदे । हारसन्ना | भयसन्ना महुणसन्ना मन्त्रा ५०० | ५०० | ५०० | ५००
स्पर्शनेश्रोत्रेन्द्रिय
चतुः घाणेन्द्रिय रसनेन्द्रिय १०० र | रिन्द्रिय । १००
न्द्रिय १००
१०० पृथिवी अप ।
| वायु | वनस्पति द्वीन्द्रिय | त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पञ्चन्द्रिय १० : १०
। १० । १० ।
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तेज
१०
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क्षान्ति | मुक्ति | आजव | मार्दव | लाघव | सत्य
संयम
तप | ब्रह्मचर्य | अकिंचन |
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विवेचनादि में प्रयुक्त ग्रंथों की सूची
mkW
१ अजित जिन स्तवन-उपाध्याय देवचन्द्र २ अनुयोग द्वार सूत्र ३ अनुयोगद्वार--टीका ४ अथर्व वेद ५ अमितगति श्रावकाचार ६ अष्टक प्रकरण-प्राचार्य इरिभद्र ७ आवश्यक बृहद् वृत्ति-प्राचार्य हरिभद्र ८ आवश्यक टीका-श्राचार्य मलयगिरि है प्राचारांग सूत्र १० आवश्यक चूर्णि-जिनदास महत्तर ११ श्रावश्यक सूत्र-पूज्य श्री अमोलक ऋषि १२ आवश्यक नियुक्ति प्राचार्य भद्रबाहु १३ उत्तराध्ययन सूत्र १४ उत्तराध्ययन टीका-भाव विजय १५ उत्तराध्ययन टीका-प्राचार्य शान्ति सूरि १६ भोपपातिक सूत्र १७ ऋग्वेद १८ कठोपनिषद् १६ गुरु ग्रन्थ साहब २० छान्दोग्योपनिषद २१ जय धवला २२ तत्वार्थ भाष्य-उमा स्वाति
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४४२
श्रमण-सूत्र
२३ तत्त्वार्थ राजवार्तिक - भट्टाकलंक
२४ तीन गुण व्रत - पूज्य जवाहिराचार्य २५ द्वात्रिंशिका - वाचक यशोविजय २३ धर्म संग्रह —मान विजय
२७
२८ निरुक्क - यास्क
२६ निशीथ चूर्णि - जिनदास गणी महत्तर ३० दशवेकालिक सूत्र
३२ दशवैकालिक सूत्र टीका - आचार्य हरिभद्र
धाम पढ़ – तथागत बुद्ध
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३२ दशाश्रुत स्कन्ध
३३ प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी - श्राचार्य प्रभाचन्द्र ३४ प्रतिक्रमण सूत्र वृत्ति - श्रावार्य नमि ३५. प्रतिक्रमण सूत्र वृत्ति - प्राचार्य तिलक ३६ पञ्च प्रतिक्रमण - पं० सुखलालजी ३७ प्रवचन सार - श्राचार्य कुन्दकुन्द ३८ प्रवचन सारोद्धार - आचार्य नेमिचन्द्र ३६ प्रवचन सारोद्धार वृत्ति
४० बृहत्कल्प भाष्य - संवदास गणी ४१ बोल संग्रह - भैरुदानजी सेठिया
४२ भगवद् गीता
४३ भगवती सूत्र
४४ भगवती सूत्र वृत्ति - आचार्य अभयदेव ४५ भामिनी विलास - परितराज जगन्नाथ
४६ भागवत
४७ महा धवला
४८ महाभारत ४६ मूलाचार - केर
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विवे जनादि में प्रयुक्त ग्रथों की सूची ४४३ ५० मूलाराधना-विजयोदया-श्राचार्य अपराजित ५१ योग दर्शन ५२ योगदर्शन व्यासभाष्य ५३ योगशिखोपनिषद् ५४ योगशास्त्र वृत्ति-प्राचार्य हेमचन्द्र ५५ विशेषावश्यक भाष्य-जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण ५६ वैशेषिक दर्शन ५७ वैराग्य शतक-भर्तृहरि ५८ व्यवहार भाष्य ५. सर्वार्थ सिद्धि-पूज्यपाद ६० सर्वार्थ सिद्धि-कमलशील ६१ साधु प्रतिक्रमण-पूज्य श्री आत्मारामजो ६२ सूत्र कृतांग सूत्र ६३ सूत्र कृतांग टीका ६४ संथारा पइन्ना ६५ सम्यक्त्व पराक्रम-पूज्य जवाहिराचार्य ६६ समवायांग सूत्र ६७ समधायांग सूत्र टीका-प्राचार्य अभयदेव
संग्रहणी गाथा समयसार - प्राचार्य कुन्द कुन्द
समयसार नाटक-बनारसीदासजी ७१ सौन्दरानन्द काव्य-महाकवि अश्वघोष ७२ सौर परिवार ७१ स्थानांग सूत्र ७४ हरिभद्रीय आपश्यक वृत्ति टीप्पणक-मलधार गच्छीय
प्राचार्य हेमचन्द्र
६६ समयस
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सन्मति ज्ञान पीठ के प्रकाशन
सामायिक-सूत्र [ उपाध्याय पं० मुनि श्री अमरचन्द्र जी महाराज ] प्रस्तुत ग्रन्थ उपाध्याय जी ने अपने गम्भीर अध्ययन, गहन चिन्तन और सूक्ष्म अनुवीक्षण के बल पर तैयार किया है। सामायिक सूत्र पर ऐसा सुन्दर विवेचन एवं विश्लेषण किया गया है कि सामायिक का लक्ष्य तथा उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है। भूमिका के रूप में, जैन धर्म एवं जैन संस्कृति के सूक्ष्म तत्त्वों पर अालोचनात्मक एक सुविस्तृत निबन्ध भी श्राप उसमें पढ़ेंगे । ___इस में शुद्ध मूल पाठ, सुन्दर रूप में मूलार्थ और भावार्य, संस्कृत प्रेमियों के लिए छायानुवाद और सामायिक के रहस्य को समझाने के लिए विस्तृत विवेचन किया गया है। मूल्य २।।)
सत्य-हरिश्चन्द्र [ उपाध्याय पं० मुनि श्री अमरचन्द्रजो महाराज] 'सत्य हरिश्चन्द्र' एक प्रबन्ध-काव्य है । राजा हरिश्चन्द्र की जीवनगाथा भारतीय जीवन के अणु-अणु में व्याप्त है। सत्य परिपालन के लिए हरिश्चन्द्र कैसे-कैसे कष्ट उठाता है और उसकी रानी एवं पुत्र रोहित पर क्या क्या अापदाएँ अाती हैं, फिर भी सत्यप्रिय राजा हरिश्चन्द्र सत्यधर्म का पल्ला नहीं छोड़ता, यही तो वह महान् आदर्श है, जो भारतीयसंस्कृति का गौरव समझा जाता है ।
कुशल काव्य-कलाकार कवि ने अपनी साहित्यिक लेखनी से राजा हरिश्चन्द्र, रानी तारा और राजकुमार रोहित का बहुत ही रमणीय चित्र खींचा है । काव्य की भाषा सरल और सुबोध तथा भावाभिव्यक्ति प्रभावशालिनी है। पुस्तक की छपाई सफाई सुन्दर है। सजिल्द पुस्तक का मूल्य ११॥)।
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४४५
सन्नति ज्ञान पीठ के प्रकाशन
जैनत्व की भाँकी [उपाध्याय पं० मुनि श्री अमरचन्द्र जी महाराज ] इस पुस्तक में महाराज श्री जी के निबन्धों का संग्रह किया गया है। उपाध्याय श्री जी एक कुशल कवि और एक सफल समालोचक तो हैं ही ! परन्तु वे हमारी समाज के एक महान् निबन्धकार भी हैं। उनके निबन्धों में स्वाभाविक श्राकर्षण, ललित भाषा और ठोस एवं मौलिक विचार होते हैं। __प्रस्तुत पुस्तक में जैन इतिहास, जैन-धर्म, और जैन-संस्कृति पर लिखित निबन्धों का सर्वाङ्ग सुन्दर संकलन किया गया है । निबन्धों का वर्गीकरण ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक और दार्शनिक रूपों में किया गया है । जैन धर्म क्या है ? उसकी जगत और ईश्वर के सम्बन्ध में क्या मान्यताएँ हैं और जैन-संस्कृति के मौलिक सिद्धान्त कर्मवाद और स्याद्वाद जैसे गम्भीर एवं विशद विषयों पर बड़ी सरलता से प्रकाश डाला गया है । निबन्धों की भाषा सरस एवं सुन्दर है ।
जो सजन जैन-धर्म की जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिए यह पुस्तक बड़ी उपयोगी सिद्ध होगी। हमारी समाज के नवयुवक भी इस पुस्तक को पढ़कर अपने धर्म और संस्कृति पर गर्व कर सकते हैं। पुस्तक सर्व प्रकार से सुन्दर है। राजसंस्करण का मूल्य ११) साधारण संस्करण का मूल्य )।
भक्तामर स्तोत्र [उपाध्याय पं० मुनि श्री अमरचन्द्रजी महाराज ] श्रापको भगवान् ऋषभदेवजी की स्तुति अब तक संस्कृत में ही प्रास थी । उपाध्याय श्री जी ने भक्तों की कठिनाई को दूर करने के लिए सरल एवं सरस अनुवाद और सुन्दर टिप्पणी एवं विवेचन के द्वारा भक्तामरस्तोत्र को बहुत ही सुगम बना दिया है। संस्कृत न जानने वालों के लिए हिन्दी भक्तामर भी जोड़ दिया गया है । मूल्य ।)।
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श्रमण सूत्र
कल्याणमन्दिर-स्तोत्र [ उपाध्याय मुनि श्री अमरचन्द्रजी महाराज ] प्रस्तुत पुस्तक में प्राचार्य सिद्धसेन रचित .भगवान् पार्श्वनाथजी का संस्कृत स्तोत्र है । उपाध्याय श्री जी ने उसका सरल अनुवाद और सुन्दर विवेचन करके और गम्भीर स्थलों पर टिप्पणियाँ देकर साधारण लोगों के लिए भी उसका रसास्वादन सुगम बना दिया है । छपाई-सफाई सुन्दर है । पुस्तक के पीछे हिन्दी-कल्याण-मन्दिर भी है । मूल्य ॥)।
वीर-स्तुति [ उपाध्याय पं० मुनि श्री अमरचन्द्रजी महाराज ] इस पुस्तक में भगवान् महावीर की स्तुति है। इसमें गणधर सुधर्मा स्वामीजी ने भगवान् महावीर के गुणों का बहुत ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया है । मूल-पाठ प्राकृत भाषा में होने से भक्तजनों को बड़ी कठिनाई थी। उपाध्याय श्री जी ने इसका भावानुवाद, पद्यानुवाद और विवेचन द्वारा इसे बहुत ही सुगम बना दया है । साथ ही संस्कृत का महावीराष्टक भी पद्यानुवाद और भावानुवाद सहित देकर पुस्तक को और भी अधिक उपयोगी बना दिया है। मूल्य 1-)।
मंगल-वाणी [पण्डित मुनि श्री अमोलचन्द्रजी महाराज ] प्रस्तुत पुस्तक में तीन विभाग हैं, जिनमें क्रमशः प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी के भावपूर्ण एवं विशुद्ध स्तोत्रों और स्तवनों का सुन्दर संकलन किया गया है । जैन-धर्म के सुप्रसिद्ध और प्रतिदिन पठनीय वीर स्तुति, भक्तामर, कल्याण मन्दिर और मेरी भा पना, पञ्चपदों की वन्दना तथा समाज में प्रचलित हिन्दी के प्रायः सभी स्तवनों का इस पुस्तक में अद्यतन शैली से संकलन किया गया है। सुख-साधन और जैन स्तुति से भी अधिक सुन्दर संग्रह है। सुन्दर छपाई, गुटकाकार और पृष्ठ संख्या ३२५ है। परिशिष्ट में पञ्चकल्याणक एवं स्तोत्रों के कल्प तथा स्तोत्रों के पढ़ने
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सन्मते ज्ञान पीठ के प्रकाशन
के विधि-विधान भी दिए गए हैं। पाठ करने वाले बन्धुत्रों के लिए पुस्तक संग्रहणीय है । मूल्य साधारण संस्करण १ 1 ) राज संस्करण २ ) संगीतिका
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[ सङ्गीत विशारद पण्डित विश्वम्भरनाथ भट्ट एम ए. एल एल. वी. ]
प्रस्तुत पुस्तक में उपाध्याय कवि श्री श्रमरचन्द्रजी महाराज के रचित गीतों का बहुत ही सुन्दर सम्पादन एवं संकलन हुआ है। संगृहीत गीतों का वर्गीकरण भी मनोवैज्ञानिक पद्धति से हुआ है । सब से बड़ी विशेषता तो यह है कि सङ्गीतशास्त्र के उद्भट विद्वान् पण्डित विश्वम्भरनाथजी
सभी गीतों की श्राधुनिक प्रचलित रागों में स्वरलिपि तैयार करके सङ्गीत प्रेमियों का बड़ा उपकार किया है । सङ्गीत सीखने वालों के लिए यह पुस्तक बड़ी ही उपयोगी सिद्ध होगी । पुस्तक में संकलित सभी गीत सभी प्रकार के उत्सवों पर गाए सबसे निराली है । पुस्तक की है | श्रार्ट पेपर पर छपी हुई संस्करण का ३|| ) |
राष्ट्रीय, सामाजिक और धार्मिक हैं । जा सकते हैं । पुस्तक अपने ढङ्ग की छपाई सफाई बहुत ही आकर्षक एवं सुन्दर इस पुस्तक का मूल्य ६ ) और साधारण
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उज्ज्वल-वाणी
[ श्री रत्नकुमार 'रत्नेश' साहित्य रत्न, शास्त्री ]
प्रस्तुत पुस्तक में महासती श्री उज्ज्वलकुमारीजी के श्रोजस्वी एवं क्रान्तिकारी प्रवचनों का बहुत ही सुन्दर संकलन और सम्पादन हुआ है । सतीजी स्थानकवासी समाज की एक परम विदुषी और प्रौढ विचारशीला साध्वी हैं । आपके प्रवचनों में स्वाभाविक वाणी का प्रवाह, सुत-समाज को प्रबुद्ध करने का विलक्षण प्रभाव और उच्च विचार विद्यमान हैं । जीवन को समाजोपयोगी, पवित्र, उन्नत, और सुखी बनाने के लिए यह पुस्तक आपके पथ प्रदर्शन का काम करेगी ।
इस पुस्तक में राष्ट्रीय, समाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक प्रवचनों
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४४८
श्रमण-सूत्र
का संग्रह बहुत ही उपयोगी ढंग से किया गया है। प्रवक्ता, व्याख्यानदाता
और उपदेशकों के लिए यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी। सती उज्ज्वलकुमारीजी ने जैन-संस्कृति और जैनधर्म के सिद्धान्तों को अपने प्रवचनों में अभिनव शैली से समझाने का सफल प्रयास किया है। सभी विद्वानों ने इस पुस्तक की भरसक प्रशंसा की है ।
पुस्तक में आकर्षक गेट अप, सुन्दर छपाई-सफाई और बढ़िया कागज लगाया गया है । पृष्ट संख्या ३७५ और मूल्य ३) ।
जिनेन्द्र-स्तुति [ उपाध्याय पं० मुनि श्री अमरचन्द्रजी महाराज ] इस पुस्तक में भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर तक २४ तीर्थंकरों की स्तुति है | मन्दाक्रान्ता छन्द में, सरस एवं सुन्दर भाषा में स्तुति पठनीय है । पुस्तक सर्वप्रकार से सुन्दर है । मूल्य ।) ।
भारतीय संस्कृति की दो धाराएँ
[पण्डित इन्द्रचन्द्र एम० ए० वेदान्ताचार्य ] प्रस्तुत पुस्तक में विद्वान लेखक ने भारत की दो प्राचीन संस्कृतियों पर अधिकार पूर्वक विचार किया है । वे प्राचीन संस्कृतियाँ हैं-ब्राह्मण संस्कृति और श्रमण संस्कृति । पण्डित इन्द्रचन्द्र जी ने इस सम्बन्ध में जो कुछ भी लिखा है, वह सब ईमानदारी के साथ लिखा है।
विद्वान लेखक ने दोनों ही संस्कृतियों का वास्तविक चित्र खींचा है । पुस्तक सर्व साधारण के अध्ययन योग्य है । विषय गम्भीर होते हुए मी रोचक एवं पठनीय है । भाषा सरस और सुन्दर बन पड़ी है। पुस्तक सर्व प्रकार से संग्रहणीय है । मूल्य ।-)
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भयादि-सूत्र
१७१
दश श्रमण धर्म
(१) शान्ति : क्रोध न करना ।
(२) मार्दव - मृदु भाव रखना, जाति कुल आदि का अहंकार न करना।
(३) श्राव = ऋजुभाव-सरलता रखना, माया न करना। (४) मुकि = निर्लोभता रखना, लोभ न करना । (५) तप=अनशन श्रादि बारह प्रकार का तपश्चरण करना । (६) संयम - हिंसा आदि श्राश्रवों का निरोध करना । (७) सत्य - सत्य भाषण करना, झूट न बोलना ।
(८) शौच =सयम में दूपण न लगाना, संयम के प्रति निरुपले पतापवित्रता रखना।
(६) आकिंचन्य - परिग्रह न रखना। (१०) ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्य का पालन करना ।
यह दशविध श्रमण धर्म, श्राचार्य हरिभद्र के द्वारा उद्धृत चीन संग्रहणी गाथा के अनुसार हैखंती य मद्दवज्जव,
मुत्ती तव संजमे य बोद्धव्वे । सच्चं सोयं आकिंचणं च,
बंभं च जइ - धम्मो ॥ समवायांग सूत्र का उल्लेख इस प्रकार है-खंती, मुत्ती, अजवे, नवे, लाघवे, सच्चे, संजमे, तवे, चियाए, बंभचेरवासे ।' स्थानांग सूत्र में भी ऐसा ही मूल पाट है ।
प्राचार्य हरिभद्र ने 'अन्ये त्वेव वदन्ति' कहकर दशविध श्रमण-धर्म के लिए एक और प्राचीन गाथा मतान्तर के रूप में उद्धृत की है
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१७२
श्रमण-सूत्र
खंती मुत्ती अज्जब,
मध्य तह लाघवे तवे चेव संजम चियागऽकिंचण,
बोद्धव्वे बंभचेरे य । प्राचार्य हरिभद्र लाघव का अप्रतिबद्धता-अनासक्तता और त्याग का संयमी साधकों को वस्त्रादि का दान, ऐसा अर्थ करते हैं । 'लाधव-अप्रतिबद्धता, त्यागः-संयतेभ्यो वस्त्रादिदानम् ।' अावश्यकशिष्यहिता टीका।
आचार्य अभयदेव, समवायांग सूत्र की टीका में लाघव का अर्थ द्रव्य से अल्ल उपधि रखना और भाव से गौरव का त्याग करना, करते हैं---'लाघव द्रव्यतोऽल्पोंपधिता, भावतो गौरव-त्यागः ।'
श्री अभयदेव ने 'चियाए–'त्याग' का अर्थ सब प्रकार के प्रासंगों का त्याग अथवा साधुओं को दान करना, किया है। 'त्यागः सर्वसङ्गाना, संविग्न मनोज्ञसाधुदानं वा ।' ___ स्थानांग सूत्र के दशम स्थान में दशविध श्रमण-धर्म की व्याख्या करते हुए श्री अभयदेव ने 'चियाए' का केवल सामान्यतः दान अर्थ ही किया है 'चियाएत्ति त्यागो दानधर्म इति ।'
प्राचार्य जिनदास, अावश्यक चूणि में श्रमण धर्म का उल्लेख इस प्रकार करते हैं-'उत्तमा खमा, मदव, अजव, मुत्ती, सोयं, सच्चों, संजमो, तवो, अकिंचणत्तणं, बंभचेमिति ।' प्राचार्य ने क्षमा से पूर्व उत्तम शब्द का प्रयोग बहुत सुन्दर किया है। उसका सम्बन्ध प्रत्येक धम से है, जैसे उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम प्रार्जव आदि । क्षमा श्रादि धर्म तभी हो सकते हैं, जब कि वे उत्तम हों, शुद्धभाव से किए गए हों, उनमें किसी प्रकार से प्रवंचना का भाव न हो । प्राचार्य श्री उमास्वाति भी तत्त्वार्थ सूत्र में क्षमा आदि से पूर्व उत्तम विशेषण का उल्ले ख करते हैं ।
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भयादि-सूत्र
१७३
प्राचार्य जिनदास. शौच का अर्थ “धर्मोपकरण में भी अनासक्त भावना' करते हैं । 'सोयं अलुद्धा धम्मोवगरणेसु वि ।' अकिंचनत्व का अर्थं, अपने देहादि में भी निःसगता रखना, किया है । 'नस्थि जस्स किंचण' सो अकिंचणो, तस्स भावो आकिंचणियं।"सदेहादिसु वि निस्संगेण भवितव्य ।' अावश्यक चूणि
दशविध श्रमण धर्म में मूल और उत्तर दोनों ही श्रमण-गुणों का समावेश हो जाता है। संयम = प्राणातिपात विरति, सत्य =मृषावाद विरति, अकिंचनत्व = अदत्तादान और परिग्रह से विरति, ब्रह्मचर्यमैथुन से विरति । ये पंचमहाव्रत रूप मूल गुण हैं। क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, और तप-ये सब उत्तर गुण हैं |
आध्यात्मिक साधना में अहर्निश श्रम करने वाले सर्ववित साधक को श्रमण कहते हैं । श्रमण के धर्म श्रमण-धर्म कहलाते हैं । उक्त दश विध मुनिधर्मों की उचित श्रद्धा, प्ररूपणा तथा आसेवना न की हो तो तजन्य दोपों का प्रतिक्रमण किया जाता है । ग्यारह उपासक प्रतिमा ___ (१) दर्शन प्रतिमा-किसी भी प्रकार का राजाभियोग आदि श्रागार न रखकर शुद्ध, निरतिचार, विधिपूर्वक सम्यग्दर्शन का पालन करना । यह प्रतिमा व्रतरहित दर्शन श्रावक की होती है । इसमें मिथ्यात्व रूप कदाग्रह का त्याग मुख्य है । 'सम्यगदरीनस्य शङ्कादिशल्यरहित स्य अणुव्रतादिगुण विकलस्य योऽभ्युपगमः । सा प्रतिमा प्रथमेति ।' अभयदेव, समवायांग वृति । इस प्रतिमा का पाराधन एक मास तक किया जाता है। .
(२) व्रत प्रतिमा-व्रती श्रावक सम्यक्त्व लाभ के बाद व्रतों की साधना करता है । पाँच अणुव्रत आदि व्रतों की प्रतिज्ञाओं को अच्छी तरह निभाता है, किन्तु सामायिक का यथासमय सम्यक् पालन नहीं कर पाता । यह प्रतिमा दो मास की होती है ।
(३) सामायिक प्रतिमा-इस प्रतिमा में प्रातः और सायंकाल
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भयादि-सूत्र
१७५
. (१०) उद्दिष्ट भक्त त्याग प्रतिमा - इस प्रतिमा में उद्दिष्ट भक्त का भी त्याग होता है । अर्थात् अपने निमित्त बनाया गया भोजन भी ग्रहण नहीं किया जाता । उस्तरे से सर्वथा शिरो मुण्डन करना होता है, या शिखामात्र रखनी होती है। किसी गृह-सम्बन्धी विषयों के पूछे जाने पर यदि जानता है तो जानता हूँ और यदि नहीं जानता है तो नहीं जानता हूँ — इतना मात्र कहे । यह प्रतिमा जघन्य एक रात्रि की, उत्कृष्ट दश मास की होती है ।
( ११ ) श्रमगभूत प्रतिमा - इस प्रतिमा में श्रावक श्रमण तो नहीं किन्तु श्रमण भूत = मुनिसदृश हो जाता है । साधु के समान वेष बनाकर और साधु के योग्य ही भाण्डोपकरण धारण करके विचरता है । शक्ति हो तो लुञ्चन करता है, अन्यथा उस्तरे से शिरोमुण्डन कराता है । साधु के समान ही निर्दोष गोचरी करके भिक्षावृत्ति से जीवन यात्रा चलाता है । इसका कालमान जघन्य एक रात्रि अर्थात् एक दिन रात और उत्कृष्ट ग्यारह मास होता है ।
प्रतिमाओं के कालमान के सम्बन्ध में कुछ मतभेद हैं । आगमों के टीकाकार कुछ श्राचार्य कहते हैं कि सब प्रतिमाओं का जघन्यकाल एक, दो, तीन आदि का होता है और उत्कृष्ट काल क्रमशः एक मास, दो मास यावत् ग्यारहवीं प्रतिमा का ग्यारह मास होता है । उत्तराध्ययन सूत्र की टीका में भावविजयजी लिखते हैं- 'इह या प्रतिमा यावत् संख्या स्यात् सा उत्कर्षतस्तावन्मासमाना यावदेकादशी एकादशमास प्रमाणा । जघन्यतस्तु सर्वाश्रपि एकाहादिमानाः स्युः । उत्तराध्ययन ३१ । ११ ।
दशात स्कन्ध सूत्र में ग्यारह प्रतिमाओं का विस्तार से वर्णन है । परन्तु वहाँ पहली चार प्रतिमाओं के काल का उल्लेख नहीं है । हाँ पाँचवीं से ग्यारहवीं प्रतिमा तक के काल का उल्लेख वही है, जो हमने ऊपर लिखा है । अर्थात् जघन्य एक, दो, तीन दिन आदि और उत्कृष्ट क्रमशः पाँच, छह, सात यावत् ग्यारह मास । परन्तु श्राचार्य श्री आत्मारामजी महाराज अपनी दशाश्रुत स्कन्ध की टीका में वही उल्लेख
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१७६
श्रमण-सूत्र
करते हैं, जो हमने प्रतिमाओं के वर्णन में कालमान के सम्बन्ध में लिखा है । अर्थात् एक मास से लेकर यावत् ग्यारहवीं प्रतिमा के ग्यारह मास । परन्तु इस मास-वृद्धि में वे पूर्व की प्रतिमाओं के काल को मिलाने का उल्लेख करते हैं। वैसे वे प्रत्येक प्रतिमा का काल एक मास ही मानते हैं। उनके कथनानुसार, जैसा कि वे दूसरी प्रतिमा के वर्णन में लिखते हैं,-'इस प्रतिमा के लिए दो मास समय अर्थात एक मास पहली प्रतिमा का और एक मास इस प्रतिमा का निर्धारित किया है।' सत्र प्रतिमाओं का काल ग्यारह मास ही होना चाहिए । परन्तु प्राचार्य श्री उपसंहार में सब प्रतिमानों का पूर्णकाल साढे पाँच वर्ष लिखते हैं । यह जोड़ में भूल कैसे हुई ? पूर्वापर का विरोध संगति चाहता है ।
प्रतिमाधारक श्रावक, प्रतिमा की पूर्ति के बाद सयम ग्रहण कर लेता है। यदि इसी बीच में मृत्यु हो जाय तो स्वर्गारोही बनता है। 'तत्प्रतिपत्त रनन्तरमेकादिभिर्दिनैः संयम प्रतिपल्या जीवितक्षयाद् वा।' भावविजय, उत्तराध्ययन वृत्ति २१ । ११ ।
परन्तु यह नियमेन संयम ग्रहण करने का मत कुछ प्राचार्यों को अभीट नहीं है। कार्तिक सेठ ने सौ वार प्रतिमा ग्रहण की थी, ऐसा उल्लेख भी मिलता है।
पूर्व-पूर्व प्रतिमाओं की चर्या उत्तरोत्तर अर्थात् आगे की प्रतिमाओं में भी चालू रहती है। देखिए, भावविजय जी क्या लिखते हैं ? "प्रथमोक्तं च अनुष्ठानमग्रेतनायां सर्व कार्य यावदेकादश्यां पूर्व प्रतिमादशोकमपि ।' उत्तराध्ययन ३१ । ११
उपासक का अर्थ श्रावक होता है। और प्रतिमा का अर्थ--- प्रतिज्ञा = अभिग्रह है। उपासक की प्रतिमा, उपासक प्रतिमा कहलाती है ।
ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं का साधु के लिए अतिचार यह है कि इन पर श्रद्धा न करना, अथवा इनकी विपरीत प्ररूपणा करना । इसी अश्रद्धा एवं विपरीत प्ररूपणा का यहाँ प्रतिक्रमण है ।
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भयादि-सूत्र
१७७
बारह भिक्षु-प्रतिमा
(१) प्रथम प्रतिमाधारी भिक्षु को एक दत्ति अन्न की और एक दत्ति पानी की लेना कल्पता है । साधु के पात्र में दाता द्वारा दिए जाने वाले अन्न और जल की धारा जब तक अखण्ड बनी रहे, उसका नाम दत्ति है। धारा खण्डित होने पर दत्ति की समाप्ति हो जाती है। जहाँ एक व्यक्ति के लिए भोजन बना हो वहीं से लेना चाहिए. किन्तु जहाँ दो तीन आदि अधिक व्यक्ति पों के लिए भोजन बना हो, वहाँ से नहीं लेना। इसका समय एक महीना है ।
(२-७) दूसरी प्रतिमा भी एक मास की है। दो दत्ति आहार की, दो दत्ति पानी की लेनी । इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठी और सातवी प्रतिमाओं में क्रमशः तीन, चार, पाँच, छह और सात दत्ति अन्न की और उतनी ही पानी की ग्रहण की जाती हैं । प्रत्येक प्रतिमा का समय एक-एक मास है। केवल दत्तियों की वृद्धि के कारण ही ये क्रमशः द्विमासिकी. त्रिमासकी, चतुर्मासिकी, पञ्चमासकी, पण्मासिकी, और सप्तमासिकी कहलाती हैं।
(८) यह अाठवीं प्रतिमा सप्तरः त्रि = सात दिन रात की होती है । इसमें एकान्तर चौविहार उपवास करना होता है। गाँव के बाहर उत्तानासन (अाकाश की ओर मुँह करके सीधा लेटना), पाश्र्वासन ( एक करवट से लेटना) अथवा निपद्यासन (पैरों को बराबर करके बैठना) से ध्यान लगाना चाहिए। उपसर्ग पाए तो शान्त चित्त से सहन करना चाहिए ।
(६) यह प्रतिमा भी सप्तरात्रि की होती है। इसमें चौविहार बेलेबेले पारणा किया जाता है । गाँव के बाहर एकान्त स्थान में दण्डासन, लगुडासन अथवा उत्कटुकासन से ध्यान किया जाता है।
(१०) यह भी सप्तरात्रि की होती है। इसमें चौविहार तेले-तेले पारणा किया जाता है। गाँव के बाहर गोदोहनासन, वीरासन अथवा श्राम्रकुब्जासन से ध्यान किया जाता है ।
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१७८
श्रमण-सूत्र
(११) यह प्रतिमा अहोरात्र की होती है । एक दिन और एक रात अर्थात् पाठ प्रहर तक इसकी साधना की जाती है । चौविहार बेले के द्वारा इसकी आराधना होती है । नगर के बाहर दोनों हाथों को घुटनों की ओर लम्बा करके दण्डायमान रूप में खड़े होकर कायोत्सर्ग किया जाता है।
(१२) यह प्रतिमा एक रात्रि की है । अर्थात् इसका समय केवल एक रात है। इसका अाराधन बेले को बढ़ाकर चौविहार तेला करके किया जाता है । गाँव के बाहर खड़े होकर, मस्तक को थोड़ा-सा झुकाकर, एक पुद्गल पर दृष्टि रखकर, निर्निमेष नेत्रों से निश्चलतापूर्वक कायोत्सर्ग किया जाता है। उपसों के आने पर उन्हें समभाव से सहन किया जाता है ।
भिक्षु प्रतिमाओं के सम्बन्ध में कुछ मान्यताएँ भिन्न-भिन्न धारा पर चल रही हैं । प्रथम से लेकर सात तक प्रतिमानों का काल, कुछ विद्वान् क्रमशः एक-एक मास बढ़ाते हुए सात मास तक मानते हैं । उनकी मान्यता द्विमासिकी अादि यथाश्रु न शब्द के आधार पर है। आठवीं, नौवीं, दशवीं में कुछ प्राचार्य केवल निर्जल चौविहार उपवास ही एकान्तर रूप से मानते हैं । दशाश्रु त स्कन्ध सूत्र, अभयदेवकृत समवायांगटीका, हरिभद्रकृत यावश्यक टीका में भी उक्त तीनों प्रतिमाओं में चौविहार उपवास का ही उल्लेख है। और भी कुछ अन्तर है. किन्तु समयाभाव से तथा साधनाभाव से यहाँ अधिक विस्तार में न जाकर साधारण-मा परिचय मात्र दिया है। कहीं प्रसंग आया तो इस पर विशद स्पष्टीकरण करने की इच्छा है । दशा श्रुत स्कन्ध, भगवती-सूत्र, हरिभद्र सूरि का पंचाशक अादि इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य है।
बारह भिक्षु प्रतिमाओं का यथाशक्ति याचरण न करना, श्रद्धा न करना तथा विपरीत प्ररूपणा करना, अतिचार है। तेरह क्रिया-स्थान
(१) अर्थक्रिया-अपने किसी अर्थ --प्रयोजन के लिए त्रस स्थावर जीवों की हिंसा करना, कराना तथा अनुमोदन करना । 'अर्थाय क्रिया अर्थ क्रिया ।
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भयादि-सूत्र
२७६ (२) अनर्थ किया-विना किसी प्रयोजन के किया जानेवाला पार कम अनर्थ क्रिया कहलाता है । व्यर्थ ही किसी को सताना, पीड़ा देना ।
(३) हिंसा क्रिया--अमुक व्यक्ति मुझे अथवा मेरे स्नेहियों को कष्ट देता है, देगा, अथवा दिया है--यह सोच कर किसी प्राणी की हिंसा करना, हिंसा क्रिया है।
(४) अकस्मात क्रियाशीघ्रतावश विना जाने हो जाने वाला पाप, अकस्मात् क्रिया कहलाता है। बाणादि से अन्य की हत्या करते हुए अचानक ही अन्य किसी की हत्या हो जाना।
(५)दृष्टि विपर्यास क्रिया-मति-भ्रम से होने वाला पाप । चौरादि के भ्रम में साधारण अनपराधी पुरुष को दण्ड दे देना।
(६) मृषा क्रिया--झूठ बोलना । (७) अदत्तादान क्रिया-चोरी करना ।
(८) अध्यात्म क्रिया-बाह्य निमित्त के बिना मन में होने वाला शोक यादि का दुर्भाव ।
(६) मान क्रिया--अपनी प्रशंसा करना, घमण्ड करना । (१०) मित्र क्रिया-प्रियजनों को कठोर दण्ड देना। (११) माया क्रिया-दम्भ करना । (१२) लोभ क्रिया-लोभ करना ।
(१३) ईर्यापथिकी क्रिया-अप्रमत्त विवेकी संयमी को गमनागमन से लगने वाली किया । चौदह भूतग्राम = जीवसमूह ___सूक्ष्म एकेन्द्रिय, आदर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असशी पञ्चन्द्रिय और सजी पञ्चन्द्रिय । इन सातों के पर्याप्त और अपर्याप्त--कुल चौदह भेद होते हैं। इनकी विराधना करना, किसी भी प्रकार की पीड़ा देना, अतिचार है ।
कुछ प्राचार्य भूतग्राम से चौदह गुण स्थानवी जीव समूहों का उल्लेख करते हैं। देखिए-पावश्यक चूण तथा हरिभद्र कृत श्रावश्यक टीका।
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१८०
श्रमण-सूत्र
पंदरह परमाधार्मिक
(१) अम्ब (२) अम्बरीप (३) श्याम ( ४ ) शबल (५) रौद्र (६) उपरौद्र (७) काल (८) महाकाल (६) असिपत्र (१०) धनुः (११) कुम्भ (२२) वालुक (१३) वैतरणि (१४) खरस्वर (१५) महाघोष । ये परम अधार्मिक, पापाचारी, कर एवं निर्दय असुर जाति के देव हैं । नारकीय जीवों को व्यर्थ ही, केवल मनोविनोद के लिए यातना देते हैं । जिन संक्लिष्ट रूप परिणामों से परमाधामिकत्व होता है, उनमें प्रवृत्ति करना अतिचार है। उन अतिचारों का प्रतिक्रमण यहाँ अभीट है। 'एत्थ जेहिं परमाधम्मियत्तण भवति तेसु ठाणेसु जं वट्टितं ।'
---जिनदास मह्त्तर । गाथा षोडशक
(१) स्वसमय पर समय (२) वैतालीय (३) उपसर्ग परिज्ञा (४) स्त्री परिज्ञा (५) नरक विभक्ति (६) वीर स्तुति (७) कुशील
१-गाथा घोडशक का अभिप्राय यह है कि 'गाथा नामक सोलहवाँ अध्ययन है जिनका, वे सूत्रकृतांग-सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययन ।' प्राचार्य अभयदेव समवायांग सूत्र की टीका में उक्त शब्द पर विवेचन करते हुए लिखते हैं ---'गाथाभिधान मध्ययनं षोडशं येषां तानि गाथाषोडशकानि ।' श्री भावविजयजी भी उत्तराध्ययनान्तर्गत चरण विधि अध्ययन की व्याख्या में ऐसा ही अर्थ करते हैं । श्री जिनदास महत्तर भी अावश्यक चूणि' में लिखते हैं -'गाहाए सह सोलस अन्झयणा तेसु, सुत्तगडपढमसुतक्खंध अज्झयण सु इत्यर्थः । ।
परन्तु प्राचार्य श्री आत्मारामजी उत्तराध्ययन-सूत्र में उक्त शब्द का भावार्थं लिखते हैं कि 'गाथा नामक सोलवें अध्ययनमें ।'--उत्तराध्ययन ३१ । १३ । मालूम होता है प्राचार्यजी ने शब्दगत बहुवचन पर ध्यान नहीं दिया है, फलतः उन्हें बहुव्रीहि समास का ध्यान नहीं रहा।
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भयादि-सूत्र
परिभाषा ( ८ ) वीर्य ( ६ ) धर्म (१०) समाधि ( ११ ) मार्ग ( १२ ) समवसरण (१३) याथातथ्य (१४) ग्रन्थ (१५) श्रादानीय (१६) गाथा ।
१८१
ये सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के गाथा षोडशक - सोलह अध्ययन हैं । अध्ययनोक्त श्राचार-विचार का भलीभाँति पालन न करना, अतिचार है ।
सतरह असंयम
(१६) पृथिवीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, और वनस्पतिकाय तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीवों की हिंसा करना, कराना, अनुमोदन करना ।
(१०) अजीव श्रसंयम = जीव होने पर भी जिन वस्तुओंों के द्वारा संयम होता है, उन बहुमूल्य वस्त्रपात्र आदि का ग्रहण करना जीव संयम है ।
(११) प्रक्षा संयम = जीव सहित स्थान में उठना बैठना, सोना यादि ।
(१२) उपेक्षा श्रसंयम - गृहस्थ के पाप कर्मों का अनुमोदन करना । (१३) अपहृत्य श्रसंयम = विधि से परठना । इसे परिष्ठापना संयम भी कहते हैं ।
(१४) प्रमार्जना श्रसंयम = वस्त्रपात्र आदि का प्रमार्जन न करना । (१५) मनः श्रसंयम = मन में दुर्भाव रखना । (१६) वचन असंयम = कुवचन बोलना । (१७) काय असंयम = गमनागमनादि में सावधान रहना । ये सतरह संयम समवायांग सूत्र में कहे गए हैं ।
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असंयम के अन्य भी सत्तरह प्रकार हैं- हिंसा, असत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिग्रह, पाँचों इन्द्रियों की उच्छ ङ्खल प्रवृत्ति, चार कषाय और तीन योगों की अशुभ प्रवृत्ति ।
श्राचार्य हरिभद्र ने आवश्यक में 'असं' जमे' के स्थान में
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१८२
श्रमगा-सूत्र
'सजमे' का उल्लेख किया है । 'सजमे' का अर्थ संयम है । सयम के भी पृथ्वी काय-सयम आदि सतरह भेद हैं । अठारह अब्रह्मचर्य
देव-सम्बन्धी भोगों का मन, वचन और काय से स्वयं सेवन करना, दूसरों से कराना, तथा करते हुए को भला जानना-इस प्रकार नौ भेद वैक्रिय शरीर सम्बन्धी होते हैं। मनुष्य तथा तिर्यश्च सम्बन्धी
औदारिक भोगों के भी इसी तरह नौ भेद समझ लेने चाहिएँ । कुल मिलाकर अठारह भेद होते हैं ।
[समवायांग] ज्ञाता धर्म कथा के १६ अध्ययन _(१ । उत्क्षिप्त अर्थात् मेघकुमार, (२) संघाट ( ३ ) अण्ड (४ । कृर्म (५ ) शैलक (६ ) तुम्ब (७) रोहिणी (८) मल्ली (६) माकन्दी (१०) चन्द्रमा ( ११ ) दावदत्र (१२) उदक ( १३) मण्डूक ( १४ ) तेतलि ( १५) नन्दी फल (१६) अवरकंका ( १७ । पाकीक ( १८) मुसुमादारिका (१६) पुण्डरीक । उक्त उन्नीस उदाहरणों के भावानुसार साधुधम की साधना न करना, अतिचार है। बीस असमाधि
(१) द्रुत द्रुत चारित्व = जल्दी जल्दी चलना । (२) अप्रमृज्य चारित्व = विना पूँ जे रात्रि ग्रादि में चलना । । ३) दुप्रमृज्य चारित्व = विना उपयोग के प्रमार्जन करना । ( ४ ) अतिरिक्र शय्यासनिकत्व = अमर्यादित शय्या और प्रासन
रखना। (५) रानिक पराभव = गुरुजनों का अपमान करना । ( ६ ) स्थविरोपघात = स्थविरों का उपहनन-अवहेलना करना । (७) भूतोपधात= भूत-जीवों का उपहनन (हिंसा ) करना । (८) संज्वलन = प्रतिक्षण यानी बार-बार ऋद्ध होना।
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भयादि-सूत्र
( ३ ) दीर्घ कोप = चिरकाल तक क्रोध रखना | (१०) पृष्ट मौसिकत्व = • पीठ पीछे निन्दा करना ।
१८३
( ११ ) श्रभितणाव भाषण - सशंक होने पर भी निश्चित भाषा
ू
बोलना ।
( १२ ) नवाधिकरण-करण = नित्य नए कलह करना ।
(१३) उपशान्तकलहोदीरण = शान्त कलह को पुनः उत्तेजित
करना ।
( १४ ) कालस्वाध्याय = काल में स्वाध्याय करना ।
( १२ ) सरजस्कप ( शि-भित्ता ग्रहण = सचित्तरज सहित हाथ श्रादि से भिक्षा लेना ।
(१६) शब्दकरण = पहर रात बीते विकाल में जोर से बोलना । ( १७ ) झाकरण - गण-भेदकारी अर्थात् संघ में फूट डालने वाले वचन बोलना । ( १८
कलह करण = श्राक्रोश आदि रूप कलह करना । ( 18 ) सूर्य प्रमाण भोजित्न = दिन भर कुछ न कुछ खाते-पीते रहना । २० ) एत्रणाऽसमितत्व : = एषणा समिति का उचित ध्यान न
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'रखना ।
जिस सत्कार्य के करने से चित्त में शान्ति हो, आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्र मोक्षमार्ग में अवस्थित रहे, उसे समाधि कहते हैं । और जिस कार्य से चित्त में अप्रशस्त एवं अशान्त भाव हो, ज्ञानादि मोक्षमार्ग से ग्रात्मा भ्रष्ट हो उसे समाधि कहते हैं । उपर्युक्त बीस कार्यों के श्राचरण से अपने और दूसरे जीवों को समाधि भाव उत्पन्न होता है, साधक की श्रात्मा दूषित होती है, और उसका चारित्र - मलिन होता है, अतः इन्हें समाधि कहा जाता है ।
'समाधान समात्रिः - चेतसः स्वास्थ्यं, मोक्षमार्गेऽ वस्थितिरित्यर्थः । न समाधिरसमाधिस्तस्य स्थानानि - श्राश्रया भेदाः पर्याया असमाधिस्थानानि ।' प्राचार्य हरिभद्र
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श्रमण-सूत्र
समाधि स्थानों के सेवन से जहाँ कहीं आत्मा संयम-भ्रष्ट पाठ के द्वारा किया जाता है |
हुआ हो, उसका प्रतिक्रमण प्रस्तुत इकोस शबल दोप
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( १ ) हस्तकर्म = हस्त मैथुन करना । ( २ ) मैथुन = स्त्री स्पर्श यादि मैथुन करना ।
भोजन लेना और करना ।
( ३ ) रात्रिभोजन = रात्रि में ( ४ ) श्रधाकर्म = साधु के निमित्त से बनाया गया भोजन लेना । ५ ) सागारिकपिण्ड = शय्यातर
अर्थात्
स्थानदाता का
आहार लेना ।
( ६ ) औदेशिक = साधु के या याचकों के निमित्त बनाया गया, क्रीत= खरीदा हुआ आहार, ग्राहृत = स्थान पर लाकर दिया हुआ, शमित्य = उधार लाया हुआ, आच्छिन्न = छीन कर लाया हुआ आहार लेना ।
( ७ ) प्रत्याख्यान भंग बार-बार प्रत्याख्यान भंग करना । (८) गणपरिवर्तन = छह मास में गण से गणान्तर में जाना । ( ६ ) उदक लेप = एक मास में तीन बार नाभि या जंघा प्रमाण जल में प्रवेश कर नदी आदि पार करना ।
( १० ) मातृ स्थान = एक मास में तीन बार माया स्थान सेवन करना । अर्थात् कृत अपराध छुपा लेना ।
( ११ ) राजपिण्ड - राजपिण्ड ग्रहण करना ।
( १२ ) या हिंसा = जानबूझ कर हिंसा करना ।
( १३ ) श्राकुट्टया मृषा - जानबूझ कर झूठ बोलना । ( १४ ) श्राकुया दादान = जानबूझ कर चोरी करना । (१५) सचिव पृथिवी स्पर्श = जानबूझ कर सचित्त पृथिवी पर बैठना, सोना, खड़े होना ।
(१६) इसी प्रकार सचित्त जल से सस्निग्ध और सचित्त रज वाली पृथिवी, सचित्त शिला अथवा घुणों वाली लकड़ी आदि पर बैठना, सोना, कायोत्सर्ग आदि करना शबल दोप है ।
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भयादि सूत्र
१८५ (१७) जीवों वाले स्थान पर तथा प्राणी, बीज, हरित, कीड़ीनगरा, लीलनफूलन, पानी, कीचड़, और मकड़ी के जालों वाले स्थान पर बैठना, सोना, कायोत्सर्ग श्रादि करना शबल दोप है ।
(१८) जानबूझ कर कन्द, मूल, छाल, प्रवाल, पुष्प, फूल, बीज, तथा हरितकाय का भोजन करना।
(१६) वर्ष के अन्दर दम बार उदक लेप - नदी पार करना । (२०) वर्ष में दस माया स्थानों का सेवन करना ।
(२१) जानबूझ कर सचित्त जल वाले हाथ से तथा सचित्त जल सहित कड़छी आदि से दिया जानेवाला आहार ग्रहण करना ।
उपर्युक्त शबल दोष साधु के लिए सर्वथा त्याज्य हैं। जिन कार्यों के करने से चारित्र की निर्मलता नष्ट हो जाती है, चारित्र मलक्लिन्न होने के कारण कर्बुर हो जाता है, उन्हें शबल दोष कहते हैं । उक्त दोषों के सेवन करने वाले साधु भी शवल कहलाते हैं । 'शबलं-कबुरे चारित्रं यैः क्रियाविशेष भवति ते शबलास्तद्योगात्साघवोऽपि ।'
-अभयदेव समवा० टीका । उत्तरगुणों में अतिक्रमादि चारों दोपों का एवं मूल गुणों में अनाचार के सिवा तीन दोपों का सेवन करने से चारित्र शबल होता है । बाईस परीषह
(१) क्षुधा = भूख (२) पिपासा = प्यास (३) शीत = ठंड (४) उष्ण - गर्मी (५) दंशमशक (६) अचेल = वस्त्राभाव का कट (७) अरति = कटिनाइयों से घबरा कर सयम के प्रति होने वाली उदासीनता (८) स्त्री परीवह (६) चर्या = विहार यात्रा में होने वाला गमनादि कष्ट (१०) नैपोधिकी = स्वाध्याय भूमि आदि में होने वाले उपद्रव (११) शय्या = निवास स्थान की प्रतिकूलता (१२) आक्रोश - दुर्वचन (१३) वध लकड़ी श्रादि की मार सहना (१४) याचना (१५) अलाभ (१६) रोग (१७) तृण स्पर्श (१८) जल्ल-मल का परीषह (१६) सत्कार पुरस्कार = पूजा प्रतिष्ठा (२०) प्रशा - बुद्धि का गर्व (२१)
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१८६
श्रमण सूत्र
अज्ञान = बुद्धिहीनता का दुःग्य (२२) दर्शन परीवह = सम्यक्त्व भ्रष्ट करने वाले मिथ्या मतों का मोहक वातावरण ।
हरिभद्र ग्रादि कितने ही प्राचार्य नैपोधिकी के स्थान में निपद्या परीवह मानते हैं और उसका अर्थ वमति = स्थान करते हैं । इस स्थिति में उनके द्वारा अग्रिम शय्या परीषह का अर्थ-सस्तारक अर्थात् सौंथारा, बिछौना अर्थ किया गया है । स्त्री साधक के लिए पुरुष परीषह् है ।
तुवा ग्रादि किसी भी कारण के द्वारा अापत्ति पाने पर संयम में स्थिर रहने के लिए तथा कर्मों की निर्जरा के लिए जो शारीरिक तथा मानसिक कष्ट, साधु को सहन करने चाहिएँ, उन्हें परीषह कहते हैं । 'परीसहिज्जंते इति परीसहा अहियासिज्जंतितिं वुशं भवति ।'---जिनदास महत्तर । परीत्रहों को भली भाँति शुद्ध भाव से सहन न करना, परीषदसम्बन्धी अतिचार होता है, उसका प्रतिक्रमण प्रस्तुत सूत्र में किया गया है। सूत्रकृताङ्ग सूत्र के २३ अध्ययन
प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययन सोलहवें बोल में बतला पाए हैं। द्वितीय श्रु तस्कन्ध के अध्ययन ये हैं-(१७) पौण्डरीक (१८) क्रिया स्थान (१६) थाहार परिज्ञा (२०) प्रत्याख्यान क्रिया (२१) प्राचारश्रुत (२२) श्राद्रकीय (२३) नालन्दीय । उक्त तेईस अध्ययनों के कथनानुसार संयमी जीवन न होना, अतिचार है । चौबीस देव
असुरकुमार आदि. दश भवनपति, भूत यक्ष प्रादि ग्राट व्यन्तर, सूर्य चन्द्र अादि पाँच ज्योतिष्क, और वैमानिक देव---इस प्रकार कुल चौबीस जाति के देव हैं। संसार में भोगजीवन के ये सब से बड़े प्रतिनिधि हैं । इनकी प्रशंसा करना भोगजीवन की प्रशंसा करना है और निन्दा करना द्वष भाव है, अतः मुमुक्षु को तटस्थ भाव ही रखना चाहिए । यदि कभी तटस्थता का भंग किया हो तो अतिचार है।
उत्तराध्ययन सूत्र के सुप्रसिद्ध टीकाकार आचार्य शान्तिसूरि यहाँ
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भयादि-सूत्र
१८७ देव शब्द से चौवीस तीर्थकर देवों का भी ग्रहण करते हैं । इस अर्थ के मानने पर अतिचार यह होगा कि--उनके प्रति श्रादर, श्रद्धाभाव न रखना; उनकी आज्ञानुसार न चलना, श्रादि आदि । पाँच महाव्रतों की २५ भावनाएँ ____महाव्रतों का शुद्ध पालन करने के लिए, शास्त्रों में प्रत्येक महाव्रत की पाँच भावना बतलाई गयी हैं । भावनाओं का स्वरूप बहुत ही हृदयग्राही एवं जीवनस्पर्शी है । श्रमण-धर्म शुद्ध पालन करने के लिए भावनाओं पर अवश्य ही लक्ष्य देना चाहिए । प्रथम अहिंसा महाव्रत की ५ भावना
(१ ) ईयर्यासमिति - उपयोग पूर्वक गमनागमन करे ( २ ) अालोकित पान भोजन = देख भाल कर प्रकाशयुक्त स्थान में आहार करे (३) अादान निक्षेप समिति = विवेक पूर्वक पात्रादि उठाए तथा रक्खे (४ ' मनोगुप्ति = मन का सौंयम (५) वचनगुति = वाणी का सयम । द्वितीय सत्य महाव्रत की भावना
(१) अनुविचिन्त्य भाषणता = विचार पूर्वक बोलना ( २ ) क्रोधविवेक = क्रोध का त्याग ( ३ ) लोभ-विवेक =लोभ का त्याग (४) भय-विवेक = भय का त्याग (५) हास्य-विवेक =हँसी मजाक का त्याग । तृतीय अस्तेय महाव्रत की ५ भावना
(१) अवबहानुज्ञापना = अवग्रह अर्थात् वसति लेते समय उसके स्वामी को अच्छी तरह जानकर याज्ञा माँगना (२) अवग्रह सीमापरिज्ञानता= अवग्रह के स्थान की सीमा का ज्ञान करना ( ३ ) अवग्रहानुग्रहणता= स्वयं अवग्रह की याचना करना अर्थात् वसतिस्थ तृण, पट
आदि अवग्रह-स्वामी की प्राज्ञा लेकर ग्रहण करना ( ४ ) गुरुजनों तथा अन्य साधमिकों की आज्ञा लेकर ही सबके सयुक्त भोजन में से भोजन करना (५) उपाश्रय में रहे हुए पूर्व साधमिकों की आज्ञा लेकर ही वहाँ रह्ना तथा अन्य प्रवृत्ति करना ।
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श्रमगा-सूत्र
चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत की ५ भावना
(१) अतीव स्निग्ध पौष्टिक आहार नहीं करना ( २ ) पूर्व भुक्त भोगों का स्मरण नहीं करना अथवा शरीर की विभूषा नहीं करना ( ३ ) स्त्रियों के अंग उमांग नहीं देखना (४) स्त्री, पशु और नपुसक वाले स्थान में नहीं ठहरना (५) स्त्री विषयक चर्चा नहीं करना । पंचम अपरिग्रह महाव्रत की ५ भावना
(१-५ ) पाँचों इन्द्रियों के विषय शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श के इन्द्रियगोचर होने पर मनोज्ञ पर रागभाव तथा अमनोज्ञ पर द्वेषभाव न लाकर उदासीन भाव रखना। [ समवायांग ] ___ महाव्रतों की भावनाओं पर विशेष लक्ष्य देने की आवश्यकता है । महाव्रतों की रक्षा उक्त भावनाओं के बिना हो ही नहीं सकती। यदि सयम यात्रा में कहीं भावनाओं के प्रति उपेक्षा भाव रक्खा हो तो अतिचार होता है, तदर्थं यहाँ प्रतिक्रमण का उल्लेख है । दशाश्रत आदि सूत्रत्रयी के २६ उद्देशनकाल
दशाश्रुत स्कन्ध सूत्र के दश उद्देश, बृहत्कल्प के छह उद्देश, श्रोर व्यवहार सूत्र के दश उद्देश--इस प्रकार सूत्रत्रयी के छब्बीस उद्देश होते हैं । जिस श्रु तस्कन्ध या अध्ययन के जितने उद्देश होते हैं उतने ही वहाँ उद्देशनकाल-अर्थात् श्रु तोपचार रूप उशावसर होते हैं । उक्त सूत्रत्रवी में साधुजीवन सम्बन्धी प्राचार की चर्चा है। अतः तदनुसार आचरण न करना अतिचार होता है। सत्ताईस अनगार के गुण
(१-५ ) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच महाव्रतों का सम्यक् पालन करना । (६) रात्रि भोजन का त्याग करना। (७-११ ) पाँचों इन्द्रियों को वश में रखना ( १२ ) भावसत्य = अन्तःकरण की शुद्धि (१३) करणसत्य = वस्त्र पात्र आदि की भली भाँति प्रतिलेखना करना ( १४) क्षमा (१५) विरागता= लोभ निग्रह
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भयादि-सूत्र
१८६
( १६ ) मन की शुभ प्रवृत्ति ( १७ ) वचन की शुभ प्रवृत्ति ( १८ ) काय की शुभ प्रवृत्ति ( १६-२४ ) छह काय के जीवों की रक्षा ( २५ ) संयमयोग-युक्तता ( २६ ) वेदनाऽभिसहना = तितिक्षा अर्थात् शीतादिक सहिष्णुता ( २७ ) मारणान्तिक उपसर्ग को भी समभाव से सहना । उपर्युक्त सत्ताईस गुण, आचार्य हरिभद्र ने अपनी श्रावश्यक सूत्र की शिष्यहिता टीका में, संग्रहणीकार की एक प्राचीन गाथा के अनुसार वर्णन किए हैं । परन्तु समवायांग सूत्र में कुछ भिन्न रूप में अंकित है— पाँच महाव्रत, पाँच चार कपायों का त्याग, भाव सत्य, करण सत्य, विरागता, मनः समाहरणता, वचन समाहरणता, ज्ञान सम्पन्नता, दर्शन-सम्पन्नता, चारित्र सम्पन्नता, मारणान्तिका तिसहनता ।
मुनि के सत्ताईस गुण
इन्द्रियों का निरोध, योग सत्य, क्षमा,
काय समाहरणता,
वेदनातिसहनता,
2
श्राचार्य हरिभद्र ने यहाँ 'सत्तावीसविहे अणगारचरित पाठ का उल्लेख किया है । इसका भावार्थ है -- सत्ताईस प्रकार का अनगारसम्बन्धी चारित्र | परन्तु आचार्य जिनदास यादि 'सत्तावीसाए श्रागार गुणेहिं' पाठ का ही उल्लेख करते हैं । समवायांग- सूत्र में भी अणगारगुण ही है ।
उक्त सत्ताईस अनगार गुणों अर्थात् मुनिगुणों का शास्त्रानुसार भली भाँति पालन न करना, अतिचार है । उसकी शुद्धि के लिए मुनि गुणों का प्रतिक्रमण है, अर्थात् अतिचारों से वापस लौटकर मुनि-गुणों में थाना ।
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अट्ठाईस आचार प्रकल्प
याचार प्रकल्प की व्याख्या के सम्बन्ध में बहुत सी विभिन्न मान्यताएँ हैं । श्राचार्य हरिभद्र कहते हैं- ग्राचार ही ग्राचार प्रकल्प कहलाता है 'श्राचार एव श्राचारप्रकल्पः ।"
आचार्य अभयदेव समवायांग सूत्र की टीका में कहते हैं कि
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१६०
श्रमण-सूत्र
प्राचार का अर्थ प्रथम अंग सूत्र है। उसका प्रकल्प अर्थात् अध्ययनविशेष निशीथ सूत्र याचार प्रकल्प कहलाता है। अथवा ज्ञानादि साधुप्राचार का प्रकल्प अर्थात् व्यवस्थापन आचार-प्रकल्प कहा जाता है। 'प्राचारः प्रथमाङ्ग तस्य प्रकल्पः अध्ययन विषो निशीथमित्यपराभिधानम् । प्राचारस्य वा साध्वाचारस्य ज्ञानादिविषयस्य कल्पो व्यवस्थापनमिति प्राचारप्रकल्पः ।
उत्तराध्ययन-सूत्र के चरण विधि अध्ययन में केवल प्रकल्प शब्द ही पाया है। अतः उक्त सूत्र के टीकाकार आचार्य शान्तिसूरि प्रकल्प का अर्थ करते हैं कि 'प्रकृष्ट = उत्कृष्ट कल्प - मुनि जीवन का प्राचार वर्णित है जिस शास्त्र में वह अाचारांग-सूत्र प्रकल्प कहा जाता है।'
अाचारांग-सूत्र के शस्त्र परिज्ञा प्रादि २५ अध्ययन हैं । और निशीथ सूत्र भी अाचारांग-सूत्र की चूलिकास्वरूप माना जाता है, अतः उसके तीन अध्ययन मिलकर याचागंग-सूत्र के सब अट्ठाईस अध्ययन होते हैं
(१) शस्त्र परिज्ञा ( २) लोक विजय ३) शीतोष्णीय ( ४) सम्यक्त्व ( ५ ) लोकसार ( ६ धूताध्ययन (७) महापरिज्ञा (८) विमोक्ष (६) उपधानश्रुत ( १० ) पिण्डेपणा (११) शय्या ( १२ ) ईर्या (१३ ) भाषा ( १४ ) वस्त्र पणा (१५ ) पात्र पणा ( १६) अवग्रहप्रतिमा (१६ + ७ = २३ ) सप्त स्थानादि सप्तकका ( २४ ) भावना ( २५ ) विमुक्ति (२६) उद्बात (२७ ) अनुद्धात ( २८ ) और अारोपण।
समवायांग-सूत्र में प्राचार प्रकल्प के अट्ठाईस भेद अन्यरूप में हैं।
पूज्य श्री श्रात्मारामजी महाराज, उत्तराध्ययन सूत्र हिंदी पृष्ठ १४०१ पर इस सम्बन्ध में लिखते हैं---
"समवायांग सूत्र में २८ : कार का प्राचारप्रकल्प इस प्रकार से वर्णन किया है । यथा--
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भयादि-सूत्र
१६१
(१) एक भास का प्रायश्चित (२) एक मास पाँच दिन का प्रायश्चित (३) एक मास दश दिन का प्रायश्चित्त । इसी प्रकार पाँच दिन बढ़ाते हुए पाँच मास तक कहना चाहिए । इस प्रकार २५ हुए । (२६ उपघातक अनुमघातक (२७) अारोपण और (२८) कृत्स्न-सम्पूर्ण', अकृत्स्न-अस पूर्ण ।”
पूज्यश्रीजी के उपर्युक्त लेख की समवायांग सूत्र के मूल पाठ से संगति नहीं बैठती। वहाँ मासिक अारोपणा के छह भेद किए हैं । इसी प्रकार द्विमासिकी, त्रिमासिकी एवं चतुर्मासिकी ग्रारोपणा के भी क्रमशः छः छः भेद होते हैं । सब मिलकर ग्रारोपणा के अबतक २४ भेद हुए, हैं, जिन्हें पूज्यश्रीजी २५ लिखते हैं । अब शेष चार भेद भी समचायांग सूत्र के मूल पाठ में ही देख लीजिए, 'उवघाइया आरोवणा, अणुव घाइया प्रारोवणा, कसिणा आरोवणा, अकसिणा आरोवणा ।'उक्त मूल सूत्र के प्राकृत नामों का सस्कृत रूपान्तर है-उपघातिक आरोपणा, अनुपघातिक यारोपणा. कृत्स्न अारोपणा और अकृत्स्न अारोपणा ।
जो कुछ हमने ऊपर लिखा है, इसका समर्थन, समवायांग के मूल पाठ और अभय देव-कृत वृत्ति से स्पष्टतः हो जाता है। अस्तु, हम विचार में हैं कि प्राचार्य श्री जी ने प्रथम के २४ भेदों को २५ कैसे गिन लिया ? और बाद के चार भेदों के तीन ही भेद बना लिए । प्रथम के दो भेदों को मिलाकर एक भेद कर लिया । और आरोपणा, जो कि स्वयं कोई भेद नहीं है, प्रत्युत सब के साथ विशेष्य रूप से व्यवहृत हुआ है, उसको सत्ताईसवे भेद के रूप में स्वतन्त्र भेद मान लिया है । और अन्तिम दो भेदों का फिर अट्ठाईसवे भेद के रूप में एकीकरण कर दिया गया है। इस सम्बन्ध में अधिक न लिखकर सक्षेप में केवल विचार सामग्री उपस्थित की है, ताकि सत्यार्थ के निर्णय के लिए तत्त्वजिज्ञासु कुछ विचार-विमर्श कर सके। __ याचार-प्रकल्प के २८ अध्ययनों में वर्णित साध्वाचार का सम्यकरूप से पाचरण न करना, अतिचार है।
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१६२
श्रमण-सूत्र
पापश्रुत के २६ भेद
(१) भौम = भूमिकंध आदि का फल बताने वाला शास्त्र ।
(२) उत्पात = रुधिर वृष्टि, दिशाओं का लाल होना इत्यादि का शुभाशुभ फल बताने वाला निमित्त शास्त्र ।
( ३ ) स्वप्न-शास्त्र ।
( ४ ) अन्तरिक्ष = आकाश में होने वाले ग्रहबेध ग्रादि का वर्णन करने वाला शास्त्र ।
(५ . अंगशास्त्र = शरीर के स्पन्दन श्रादि का फल कहने वाला शास्त्र ।
(६) स्वर शास्त्र ।
( ७ ) व्यञ्जन शास्त्र = तिल, मष ग्रादि का वर्णन करने वाला शास्त्र ।
(८) लक्षण शास्त्र - स्त्री पुरुषों के लवणों का शुभाशुभ फल बताने वाला शास्त्र ।
ये आठों ही सूत्र, वृत्ति, और वार्तिक के भेद से चौबीस शास्त्र हो जाते हैं ।
(२५) विकथानुयोग - अर्थ और काम के उपायों को बताने वाले शास्त्र, जैसे वाल्यायनकृत काम सूत्र आदि ।
(२६) विद्यानुयोग = रोहिणी आदि विद्यायों की सिद्धि के उपाय बताने वाले शास्त्र ।
( २७ ) मन्त्रानुयोग = मन्त्र आदि के द्वारा कार्यसिद्धि बताने वाले शास्त्र ।
(२८) योगानु योग : वशीकरण आदि योग बताने वाले शास्त्र ।
(२६) अन्यतीथिकानुयोग = अन्यतीर्थिकों द्वारा प्रवर्तित एवं अभिमत हिंसा प्रधान श्राचार-शास्त्र ।
[ समवायांग ]
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भयादि-सूत्र
१६३ महामोहनीय के ३० स्थान
(१) त्रस जीवों को पानी में डुबा कर मारना । (२) त्रस जीवों को श्वास आदि रोक कर मारना । (३) त्रस जीवों को मकान आदि में बंद कर के धुएँ से घोट
कर मारना। (४) त्रस जीवों को मस्तक पर दण्ड आदि का घातक प्रहार
करके मारना। (५) त्रस जीवों को मस्तक पर गीला चमड़ा आदि बाँध
कर मारना। (६) पथिकों को धोखा देकर लूटना । (७) गुप्तरीति से अनाचार का सेवन करना ।
८) दूसरे पर मिथ्या कलंक लगाना । (६) सभा में जान-बूझ कर मिश्रभाषा= सत्य जैसा प्रतीत होने
वाला झूठ बोलना । (१०) राजा के राज्य का ध्वंस करना । (११) बाल ब्रह्मचारी न होते हुए भी बाल ब्रह्मचारी कहलाना । (१२) ब्रह्मचारी न होते हुए भी ब्रह्मचारी होने का दौंग रचना । (१३) अाश्रयदाता का धन चुराना । (१४) कृत उपकार को न मान कर कृतघ्नता करना । । १५ ) गृहपति अथवा संघपति आदि की हत्या करना । (१६ ) राष्ट्रनेता की हत्या करना। ( १७) समाज के आधारभूत विशिष्ट परोपकारी पुरुष की हत्या
करना। (१८) दीक्षित साधु को सौंयम से भ्रष्ट करना । ( १६ ) केवल ज्ञानी की निन्दा करना । (२०) अहिंसा आदि मोक्षमार्ग की बुराई करना । (२१) प्राचार्य तथा उपाध्याय की निन्दा करना ।
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श्रमण-सूत्र
( २२ ) श्राचार्य तथा उपाध्याय की सेवा न करना :
( २३ ) बहुश्रुत न होते हुए भी बहुश्रुत = पण्डित कहलाना । ( २४ ) तपस्वी न होते हुए भी अपने को तपस्वी कहना |
( २५ ) शक्ति होते हुए भी अपने श्राश्रित वृद्ध, रोगी आदि की सेवा न करना ।
(२६) हिंसा तथा कामोसादक विकथाद्यों का बार-बार प्रयोग करना । (२७) जादू टोना आदि करना ।
( २८ ) कामभोग में अत्यधिक लिप्त रहना, ग्रासक्त रहना । ( २६ ) देवताओं की निन्दा करना ।
( ३० ) देवदर्शन न होते हुए भी प्रतिष्ठा के मोह से देवदर्शन की बात कहना ।
[ दशाश्रुत स्कन्ध ] जैन धर्म में आत्मा को श्रावृत करने वाले आठ कर्म माने गए हैं । सामान्यतः आठों ही कर्मों को मोहनीय कर्म कहा जाता है । परन्तु विशेषतः चतुर्थ कर्म के लिए मोहनीय संज्ञा रूढ़ है । प्रस्तुत सूत्र में इसी से ताल है । श्राचार्य हरिभद्र आवश्यक वृत्ति में लिखते हैं"सामान्येन एकप्रकृति कर्म मोहनीयमुच्यते । उक्तं च अट्ठविहंपि य कम्मं भणियं मोहों तिजं समासेमित्यादि । विशेषेण चतुर्थी प्रकृतिमहनीयमुच्यते तस्य स्थानानि -- निमित्तानि भेदाः पर्याया मोहनीयस्थानानि ।”
मोहनीय कर्मबन्ध के कारणों की कुछ इयत्ता नहीं है । तथापि शास्त्रकारों ने विशेष रूप से मोहनीय कर्मबन्ध के हेतु-भूत कारणों के तीस भेदों का उल्लेख किया है । उल्लिखित कारणों में दुरध्यवसाय की तीव्रता एवं क्रूरता इतनी अधिक होती है कि कभी-कभी महामोहनीय कर्म का बन्ध हो जाता है, जिससे अज्ञानी आत्मा सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागर तक स ंसार में परिभ्रमण करता है, दुःख उठाता है ।
प्रस्तुत सूत्र के मूल पाठ में प्रचलित महामोहनीय शब्द का प्रयोग किया है | परन्तु आचार्य हरिभद्र और जिनदास महत्तर केवल मोहनीय शब्द
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भयादि-सूत्र
१६५ का ही प्रयोग करते हैं । उत्तराध्ययन सूत्र, समवायांग सूत्र और दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में भी केवल मोहनीय स्थान कहा है । परन्तु भेदों का उल्लेख करते हुए अवश्य महामोह शब्द का प्रयोग हुअा है। 'महामोहं पकुव्वइ ।' सिद्धों के ३१ गुण
(१) क्षीण-मतिज्ञानावरण (२) क्षीणश्रु तज्ञानावरण (३) क्षीणअवधिज्ञानावरण (४) क्षीण मनःपर्ययज्ञानावरण (५) क्षीण केवल ज्ञानावरण ।
(६ } क्षीण चतुर्दर्शनावरण (७) क्षीण अचतुर्दर्शनावरण (८) क्षीण अवधिदर्शनावरण (६) क्षीणकेवलदर्शनावरण (१०) क्षीणनिद्रा (११) क्षीण निद्रानिद्रा (१२) क्षीणप्रचला (१३) क्षीणप्रचला प्रचला (१४) क्षीणस्त्यानगृद्धि ।
(१५) क्षीण सातावेदनीय (१६) क्षीण असातावेदनीय । (१७) क्षीण दर्शन मोहनीय (१८) क्षीण चारित्र मोहनीय ।
(१६) क्षीण नैरयिकायु २० क्षीण तिर्यञ्चायु (२१) क्षीण मनुष्यायु (२२) क्षीण देवायु ।
(२३) जीण उच्च गोत्र (२४) क्षीण नीच गोत्र । (२५। क्षीण शुभ नाम (२६) क्षीण अशुभनाम ।
(२७) क्षीण दानान्तराय (२८ क्षीण लाभान्तराय । (२६ क्षीण भोगान्तमय (३० ' क्षीण उपभोगान्तराय (३१। क्षीण वीर्यान्तराय ।
[समवायांग ] सिद्धों के गुणों का एक प्रकार और भी है। पाँच स स्थान, पाँच वण, दो गन्ध, पाँच रस, पाठ स्पर्श, तीन वेद, शरीर, श्रासक्ति और पुनर्जन्म-इन सब इकत्तीस दोपों के क्षय से भी इकत्तीस गुण होते हैं।
[प्राचारांग] आदि गुण का अर्थ है---ये गुण सिद्धों में प्रारम्भ से ही होते हैं, यह नहीं कि कालान्तर में होते हों। क्योंकि सिद्धों की भूमिका क्रमिक विकास की नहीं है। प्राचार्य श्री शान्तिसूरि 'सिद्धाहगुण' का अर्थ
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श्रमण सूत्र
"सिद्धाऽतिगुण' करते हैं। अतिगुण का भाव है-'उत्कृष्ट, अँसाधारण गुण ।' बत्तीस योग-संग्रह
(१) गुरुजनों के पास दोषों की आलोचना करना । २) किसी के दोषों की आलोचना सुनकर और के पास न कहना (३) संकट पड़ने पर भी धर्म में दृढ़ रहना ( ४ ) अासक्ति रहित तप करना (५) सूत्रार्थ ग्रहणरूप ग्रहण-शिक्षा एवं प्रतिलेखना आदि रूप श्रासेवनाआचार शिक्षा का अभ्यास करना (६) शोभा श्रृंगार नहीं करना (७) पूजा प्रतिष्ठा का मोह त्याग कर अज्ञात तप करना ८) लोभ का त्याग (६) तितिक्षा ( १ ) आर्जव - सरलता ( ११) शुचिः संयम एवं सत्य की पवित्रता ( १२ ) सम्यक्त्व शुद्धि ( १३. समाधि - प्रसन्न चित्तता ( १४ ) प्राचार पालन में माया न करना ( १५) विनय (१६) धैर्य (१७) संवेग = सांसारिक भोगों से भय अथवा मोक्षा भिलाषा ( १८) माया न करना ( १६) सदनुष्ठान (२०) सवर = कपाश्रव को रोकना (२१) दोषों की शुद्धि करना ( २२ ) काम भोगों से विरक्ति । २३) मूलगुणों का शुद्ध पालन ( २४.) उत्तरगुणों का शुद्ध पालन २५.) व्युत्सर्म करना ( २६.) प्रमाद न करना (२७) प्रतिक्षण संयम यात्रा में सावधानी रखना ( २८ ) शुभ ध्यानः । २६ ) मारणान्तिक वेदना होने पर भी अधीर न होना ( ३० ) संग का परित्याग करना ( ३१ ) प्रायश्चित्त ग्रहण करना ( ३२ ) अन्त समय में सलेखना करके अाराधक बनना।
समवायांग ] ___प्राचार्य जिनदास बत्तीस योग-स ग्रह का एक दूसरा प्रकार भी लिखते हैं। उनके उल्लेखानुसार धर्म ध्यान के सोलह भेद और इसी प्रकार शुक्ल ध्यान के सोलह भेद, सब मिल कर बत्तीस योगसंग्रह के भेद हो जाते हैं । 'धम्मो सोलसक्छि एवं सुक्कपि ।
मन, वचन और काय के व्यापार को योग कहते हैं। शुभ और अशुभ भेद से योग के दो प्रकार हैं। अशुभ योग से निवृत्ति और शुभ योग में
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भयादि-सूत्र
१६७
प्रवृत्ति ही संयम है । प्रस्तुत सूत्र में शुभ प्रवृत्ति रूप योग ही ग्राह्य है । उसी का संग्रह संयमी जीवन की पवित्रता को अक्षुण्ण बनाए रख सकता है।
- युज्यन्ते इति योगाः मनोवाक्कायव्यापाराः, ते चेह प्रशस्ता एव विवक्षिताः । श्राचार्य श्रभयदेव, समवायांग टीका |
प्रश्न है, बालोचनादि को संग्रह क्यों कहा गया है ? ये तो संग्रह के निमित्त हो सकते हैं, स्वयं संग्रह नहीं । आप ठीक कहते हैं । यहाँ संग्रह शब्द की संग्रह निमित्त में ही लक्षणा है । 'प्रशस्तयोग संग्रहनिमित्तत्वादालोचनादय एव तथोच्यन्ते । श्रभयदेव, समवायांग टीका । योग संग्रह की साधना में जहाँ कहीं भूल हुई हो, उसका प्रतिक्रमण यहाँ भी है ।
तेतीस आशातना अरिहन्त की शातना से लेकर चौदह ज्ञान की आशा तना तक तेतीम श्राशातना, मूल सूत्र में वर्णन की गई हैं । कुछ टीकाकार यहाँ पर भी श्राशातना से गुरुदेव की ही तेतीस श्राशातना लेते हैं । गुरुदेव की तेतीस प्राशातनाओं का वर्णन परिशिष्ट में दिया गया है ।
जैनाचार्यों ने शातना शब्द की निरुक्ति बड़ी ही सुन्दर की है । सम्यग्दर्शन आदि आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति को प्राय कहते हैं और शातना का अर्थ - खण्डन करना है । गुरुदेव आदि पूज्य पुरुषों का अपमान करने से सम्यग्दर्शन आदि सद्गुणों की शातना = खण्डना होती है । 'प्रायः सम्यग्दर्शनाथ वाप्तिलक्षणस्तस्य शातना - खण्डनं निरुक्रादाशातना । ' -- आचार्य श्रभयदेव, समवायांग टीका । 'आसातणा णामं नाणादि आयस्स सातणा । यकारलोपं कृत्वा श्राशातना भवति ।' - श्राचार्य जिनदास, श्रावश्यकचूर्णि ।
अरिहन्तों की आशातना
सूत्रोक्त तेतीस श्राशातनात्रों में पहली श्राशातना अरिहन्तों की है । जैन शासन के केन्द्र अरिहन्त ही हैं, अतः सर्व प्रथम उनका ही उल्लेख
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१६८
श्रमण-सूत्र
याता है । वे जगजीवों के लिए धर्म का उपदेश करते हैं, सन्मार्ग का निरूपण करते हैं और अनन्तकाल से अन्धकार में भटकते हुए जीवों को सत्य का प्रकाश दिखलाते हैं । ग्रतः उपकारी होने से सर्व प्रथम उनकी ही महिमा का उल्लेख है ।
आजकल हमारे यहाँ भारतवर्ष में अरिहन्त विद्यमान नहीं हैं, ग्रतः उनकी शातना कैसे हो सकती है ? समाधान है कि अरिहन्तों की कभी कोई सत्ता ही नहीं रही है, उन्होंने निर्दय होकर सर्वथा अव्यवहार्यं कठोर निवृत्ति प्रधान धर्म का उपदेश दिया है, वीतराग होते हुए भी स्वर्णसिंहासन आदि का उपयोग क्यों करते हैं ? इत्यादि दुर्विकल्प करना अरिहंतों की शातना है ।
सिद्धों की प्रशातना
सिद्ध हैं ही नहीं । जब शरीर ही नहीं है तो फिर उनको सुख किस बात का ? संसार से सर्वथा अलग निश्चे पड़े रहने में क्या आदर्श है ? इत्यादि रूप में अवज्ञा करना, सिद्धों की ग्राशातना है । साध्वियों को अशातना
स्त्री होने के कारण साध्वियों को नीच बताना | उनको कलह श्रौर संघर्ष की जड़ कहना । साधुनों के लिए साध्वियाँ उपद्रव रूप हैं | ऋतुकाल में कितनी मलिनता होती होगी ? इत्यादि रूप से अवहेलना करना, साध्वियों की आशातना है ।
श्राविकाओं की आशातना
जैन धर्म ती उदार और विराट धर्म है । यहाँ केवल अरिहन्त श्रादि महान् श्रात्मानों का ही गौरव नहीं है । ग्रपितु साधारण गृहस्थ होते हुए भी जो स्त्री-पुरुष श्रावक-धर्म का पालन करते हैं, उनका भी यहाँ गौरवपूर्ण स्थान है | श्रावक और श्राविकाओं की अवज्ञा करना भी एक पाप है । प्रत्येक आचार्य, आध्याय और साधु को भी, प्रति दिन प्रातः और सायंकाल प्रतिक्रमण के समय, श्रावक एवं श्राविकाओं के
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भयादि-सूत्र
१६६
प्रति ज्ञात या अज्ञात रूप से की जाने वाली अवज्ञा के लिए, पश्चाताप करना होता है-मिच्छामि दुक्कडं देना होता है।
अन्य धर्मों में प्रायः स्त्री का स्थान बहुत नीचा माना गया है। कुछ धर्मों में तो स्त्री साध्वी भी नहीं बन सकती। वह मोक्ष भी नहीं प्राप्त कर सकती। उसे स्वतन्त्र रूप से यज्ञ, पूजा आदि के अनुष्ठान का भी अधिकार नहीं है । कुछ लोग उसे शूद्र, और कुछ शूद्र से भी निंद्य समझते हैं। उन्हें वेदादि पढ़ने का भी अधिकार नहीं है । परन्तु जैनधर्म में स्त्री को पुरुष के बराबर ही धर्म कार्य का अधिकार है, मोक्ष पाने का अधिकार है। जैन-धर्म किसी विशेष वेष-भेद और स्त्री पुरुष
आदि के लिंग-भेद के कारण किसी को ऊँचा नीचा नहीं समझता, किसी की स्तुति-निंदा नहीं करता। जैन धर्म गुण पूजा का धर्म है । गुण हैं तो स्त्री भी पूज्य है, अन्यथा पुरुष भी नहीं। अतएव गृहस्थ-स्थिति में रहती हुई स्त्री, यदि धर्माराधन करती है-श्रावक-धर्म का पालन - करती है, तो वह स्तुति योग्य है, निन्दनीय नहीं ।
यही कारण है कि प्रस्तुत सूत्र में श्राविका की अवहेलना करने का भी प्रतिक्रमण है । श्राविका गृह कार्य में लगी रहती हैं, प्रारम्भ में ही जीवन गुज़ारती हैं, बाल-बच्चों के मोह में फँसी रहती हैं, उनकी सद्गति कैसे होगी? 'श्रारंभताणं कतो सोग्गती ?' इत्यादि श्राविकाओं की अवहेलना है, जो त्याज्य है। साधक को 'दोष दृष्टिपरं मनः' नहीं होना चाहिए । देव और देवियों को आशातना
देवताओं की अाशातना से यह अभिप्राय है कि देवताओं को कामगर्दभ कहना, उन्हें आलसी और अकिंचित्कर कहना । देवता मांस खाते हैं, मद्य पीते हैं इत्यादि निन्दास्पद सिद्धान्तों का प्रचार करना । __ साधु और श्रावकों के लिए देव-जगत के सम्बन्ध में तटस्थ मनोवृत्ति रखना ही श्रेयस्कर है । देवताओं का अपलाप एवं अवर्णवाद करने से साधारण जनता को, जो उनकी मानने वाली होती है, व्यर्थ ही कष्ट • पहुँचता है, बुद्धि भेद होता है, और साम्प्रदायिक संघर्ष भी बढ़ता है ।
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श्रमण-सूत्र
इहलोक और परलोक की आशातना
इहलोक और परलोक का अभिप्राय समझ लेना आवश्यक है । मनुष्य के लिए मनुष्य इह लोक है और नारक, तिथंच तथा देव परलोक हैं । स्वजाति का प्राणी-वर्ग इह लोक कहा जाता है और विजातीय प्राणी-वर्ग परलोक । इहलोक और परलोक की असत्य प्ररूपणा करना, पुनर्जन्म आदि न मानना, नरकादि चार गतियों के सिद्धान्त पर विश्वाम न रखना, इत्यादि इहलोक और परलोक की पाशातना है । लोक की अशातना ___ लोक, संसार को कहते हैं । उसकी अशातना क्या ? लोक की अाशातना से यह अभिप्राय है कि देवादि-सहित लोक के सम्बन्ध में मिथ्या प्ररूपणा करना, उसे ईश्वर आदि के द्वारा बना हुअा मानना, लोकसम्बन्धी पौराणिक कल्पनाओं पर विश्वास करना; लोक की उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय-सम्बन्धी भ्रान्त धारणाओं का प्रचार करना । प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों की आशातना
प्राण, भूत आदि शब्दों को एकार्थक माना गया है। सब का अर्थ जीव है । आचार्य जिनदास कहते हैं-'एगट्ठिता वा एते ।' परन्तु श्राचार्य जिनदास महत्तर और हरिभद्र आदि ने उक शब्दों के कुछ विशेष अर्थ भी स्वीकार किए हैं । द्वीन्द्रिय अादि जीवों को प्राण ओर पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों को भून कहा जाता है । समस्त मसारी प्राणियों के लिये जीव और ससारी तथा मुक सब अन्तानन्त जीवों के लिए सत्त्व-शब्द का व्यवहार होता है । “प्राणिनः द्वीन्द्रियादयः। भूतानि पृथिव्यादय"। जीवन्ति जीवा-श्रायुः कर्मानुभवयुकाः सर्व एव"। सत्वाः-सांसारिकसंसारातीतमेदाः।"
-अावश्यक शिष्य-हिता टीका । प्राण, भूत आदि शब्दों की व्याख्या का एक ओर प्रकार भी है, जो प्रायः आज भी सर्वमान्य रूप में प्रचलित है और आगम साहित्य के प्राचीन टीकाकारों को भी मान्य है। द्वीन्द्रिय अादि तीन विकलेन्द्रिय
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भयादि सूत्र
२०१ जीवों को प्राण कहते हैं । वृक्षों को भूत, पञ्चन्द्रिय प्राणियों को जीव तथा शेष सब जीवों को सत्त्व कहा गया है। "प्राणा द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिया, भूताश्च तरवो, जीवाश्च पञ्चन्द्रियाः, सत्वाश्च शेषजीवाः ।"
----भाव विजय कृत उत्तराध्ययन सूत्र टीका २६।१६। विश्व के समस्त अनन्तानन्त जीवों की अाशातना का यह सूत्र बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है । जैन धर्म की करुणा का अनन्त प्रवाह केवल परिचित
और स्नेही जीवों तक ही सीमित नहीं है । अपितु समस्त जीवराशि से क्षमा माँगने का महान् अादर्श है। प्राणी निकट हो या दूर हों स्थूल हों या सूक्ष्म हों, ज्ञात हों या अज्ञात हों, शत्रु हों या मित्र हों किसी भी रूप में हों, उनकी अशातना एवं अवहेलना करना साधक के लिए सर्वथा निषिद्ध है। ___यहाँ अाशातना का प्रकार यह है कि अत्मा की सत्ता ही स्वीकार न करना, पृथ्वी ग्रादि दो जड़ मानना, अात्मतत्त्व को क्षणिक कहना, एकेन्द्रिय तथा द्वीन्द्रिय अादि जीवों के जीवन को तुच्छ समझाना, फलतः उन्हें पीड़ा पहुँचाना। काल की आशातना
साधक को समय की गति का अवश्य ध्यान रखना चाहिए। वात्र कैसा काल है ? क्या परिस्थिति है ? इस समय कौन-सा कार्य कतव्य है और कोनसा अकर्तव्य ? एक बार गया हुअा समय फिर लोट कर नहीं आता । समय की क्षति सबसे बड़ी क्षति है | इत्यादि विचार साधक जीवन के लिए बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं । जो लोग आलसी हैं, समय का महत्व नहीं समझते, 'काले कालं समायरे' के स्वर्ण सिद्धान्त पर नहीं चलते, वे साधना-पथ से भ्रष्ट हुए विना नहीं रह सकते।
इसी भावना को ध्यान में रखकर काल की पाशातना न करने का विधान किया है । काल की अवहेलना बहुत बड़ा पाप है । संयम जीवन की अनियमितता ही काल की अाशातना है ।
प्राचार्य जिनदास पर हरिभद्र आदि का कहना है कि काल है ही
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२०२
श्रमण-सूत्र
नहीं, काल ही विश्व का कर्ता हर्ता है, काल देव या ईश्वर है, प्रतिलेखना आदि के अमुक निश्चित काल क्यों माने गए हैं ? इत्यादि विचार काल की अाशातना है। श्रत को आशातना ____ जैन-धर्म में श्रुत ज्ञान को भी धर्म कहा है। विना श्रुत-ज्ञान के चारित्र कैसा ? श्रुत तो साधक के लिए तीसरा नेत्र है, जिमके विना शिव बना ही नहीं जा सकता। इसीलिए प्राचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं 'श्रागम-चक्खू साहू।'
श्रुत की अाशातना साधक के लिए अतीव भयावह है। जो श्रुत की अवहेलना करता है, वह साधना की अवहेलना करता है--धर्म की अवहेलना करता है । श्रुत के लिए अत्यन्त श्रद्धा रखनी चाहिए। उसके लिए किसी प्रकार की भी अवहेलना का भाव रखना घातक है।
प्राचार्य हरिभद्र श्रुत-बाराातना के सम्बन्ध में कहते हैं कि “जैन श्रु त साधारण भाग्य प्राकृत में है, पता नहीं, उसका कोन निर्माता है ? वह केवल कठोर चारित्र धर्म पर ही बल देता है। श्रुत के अध्ययन के लिए काल मर्यादा का बन्धन क्यों है ? इत्यादि विपरीत विचार और वर्तन श्रुत की अाशातना है।" श्रुत-देवता की आशातना
श्रुत-देवता कौन है ? योर उसका क्या स्वरूप है ? यह प्रश्न बड़ा ही विवादास्पद है। स्थानकवामी परंपरा में श्रु त देवता का अर्थ किया जाता है----'श्रुतनिर्माता तीर्थकर तथा गणधर ।' वह श्रुत का मूल अधिष्ठाता है, रचयिता है, अतः वह उसका देवता है। प्राचार्य श्रीआत्मारामजी, भीयाणी हरिलाल जीवराज भाई गुजराती, जीवणलाल छगनलाल संघवी आदि प्रायः सभी लेखक ऐसा ही अर्थ करते हैं । ___परन्तु श्वेताम्बर मूर्ति-पूजक परंपरा में 'श्रुत देवता' एक देवी मानी जाती है, जो श्रु त की अधिष्ठात्री के रूप में उनके यहाँ प्रसिद्ध है। यह मान्यता भी काफी पुरानी है। प्राचार्य जिनदाम भी इसका उल्लेग्य
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भयादि-सूत्र
२०३
करते हैं - 'जीए सुतमधिष्ठितं, तीए श्रासतिणा । नत्थि सा, अकिंचिक्करी वा एवमादि ।' श्रावश्यक चूर्णि ।
वाचनाचार्य की आशातना
आचार्य और उपाध्याय की आशातना का उल्लेख पहले या चुका है | फिर यह वाचनाचार्य कौन है ? श्राचार्य श्री आत्माराम जी महाराज आदि व्यापक तथा उपाध्याय अर्थ करते हैं । परन्तु वह ठीक नहीं मालूम होता । सूत्रकार व्यर्थ ही पुनरुक्ति नहीं कर सकते ।
हाँ तो ग्राइए, जरा विचार करें कि यह वाचनाचार्य कौन है ? किस्वरूप है ? वाचनाचार्य, उपाध्याय के नीचे श्रुतोटा के रूप में एक छोटा पद है । उपाध्यायश्री की आज्ञा से यह पढ़नेवाले शिष्यों को पाठरूप में केवल श्रुत का उद्देश आदि करता है । प्राचार्य जिनदास और हरिभद्र यही करते हैं । 'वायणायरियो नाम जो उवज्झाय-संदिट्ठो उसादि करेति । ग्रावश्यक चूर्णि ।
व्यत्यानं डित
'वच्चामेलियं' का संस्कृत रूप 'व्यत्यास्म्रडित' होता है । इसका अर्थ हमने शब्दार्थ में, दो-तीन बार बोलना किया है । शून्यचित्त होकर नवधानता से शास्त्र पाठों को दुहराते रहना, शास्त्र की अवहेलना है | कुछ श्राचार्य, व्यत्याम्रेडित का अर्थ भिन्न रूप से भी करते हैं । वह अर्थ भी महत्त्वपूर्ण है । 'भिन्न-भिन्न सूत्रों में तथा स्थानों पर आए हुए एक जैसे समानार्थक पदों को एक साथ मिलाकर बोलना' भी व्यत्या म्रडित है।
योग-हीन
योग-हीन का अर्थ मन, वचन और काव योग की चंचलता है | श्रथवा विना उपयोग के पढ़ना भी योग हीनता है ।
श्री हरिभद्र आदि कुछ प्राचीन आचार्य, योग का अर्थ उपधान-तप भी करते हैं। सूत्रों को पढ़ते हुए किया जानेवाला एक विशेष तपश्चरण
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श्रमण-सूत्र
उपधान कहलाता है। उसे योग भी कहते हैं। अतः योगोद्वहन के, विना सूत्र पढ़ना भी योग हीनता है । विनय हान
विनय हीन का अर्थ है, सूत्रों का अध्ययन करते समय वाचनाचार्य अादि की तथा स्वयं सूत्र के प्रति अनादर बुद्धि रखना, उचित विनय न. करना । ज्ञान विनय से ही प्राप्त होता है। विनय जिनशासन का मूल है । जहाँ विनय नहीं, वहाँ कैसा ज्ञान और कैसा चारित्र ?
यहाँ कुछ पाठ में व्यत्यय है। किन्हीं प्रतियों में 'विणय-हीणं, 'घोसहीणं' यह क्रम है । अाजकल प्रचलित पाट भी यही है । परन्तु हरिभद्र का क्रम इससे भिन्न है । वह 'विणय हीणं, घोसहीणं, जोगहीणं' ऐसा क्रम सूचित करते हैं । अत्र रहे अावश्यक चूणि कार जिनदास महत्तर । उन्होंने क्रम रक्खा है-'पग्रहीणं, घोसहीणं, जोगहीणं, विणयहीणं ।' हमें श्री जिनदास महत्तर का क्रम अधिक मगत प्रतीत होता है । पद-हीनता ओर घोष हीनता तो उच्चारण सम्बन्धी भूले हैं। योग हीनता
और विनय हीनता श्रु त के प्रति अावश्यक रूप में करने योग्य कर्तव्य की भूले हैं । अतः इन सबका पृथक पृथक् रूप में उल्लेग्य करना ही अच्छा रहता है । पदहीनता के बाद विनय हीनता और योगहीनता, तथा उसके पश्चात् अन्त में बोर हीनता का होना, विद्वानों के लिए विचारणीय विषय है। हमारी अल बुद्धि में तो यह क्रमभंग ही प्रतीत होता है । क्यों न हम श्राचार्य जिनदास के क्रम को अपनाने का प्रयत्न करें। घोष-हीन
शास्त्र के दो शरीर माने जाते हैं शब्द शरीर और अर्थ शरीर । शास्त्र का पढ़ने वाला जिज्ञासु सर्वप्रथम शब्द-शरीर को ही स्पर्श करता है । अतः उसे उच्चारण के प्रति अधिक लक्ष्य देना चाहिए। स्वर के उतार चढ़ाव के साथ मनोयोगपूर्वक सूत्र पाठ पढ़ने से शीघ्र ही अर्थपतति होती है और ग्रास-पास के वातावरण में मधुर ध्वनि गूंजने
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भैयादि सूत्र
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लैंगती है । अतः उदात्त (ऊँचा स्वर , अनुदात्त ( नीचा स्वर ), और स्वरित ( मध्यम स्वर) का ध्यान न रखते हुए स्वर हीन शास्त्र-पाढ करना, घोषहीन दोष माना गया है। सुष्ठु दत्त
'सुष्टु दत्त' के सम्बन्ध में बहुत-सी विवादास्पद व्याख्याएँ हैं। कुछ विद्वान् ‘सुठुदिन्न दुछु पडिच्छिय' को एक अतिचार मान कर ऐसा अर्थ करते हैं कि 'गुरुदेव ने अच्छी तरह अध्ययन कराया हो परन्तु मैंने दुविनीत भाव से बुरी तरह ग्रहण किया हो तो।' यह अथ संगत नहीं है । ऐसा मानने से ज्ञानातिचार के चौदह भेद न रह कर तेरह भेद ही रह जायेंगे, जो कि प्राचीन परंपरा से सर्वथा विरुद्ध है। अाशातना भी तेतीस से घट कर बत्तीस ही रह जायँगी, जो स्वयं आवश्यक के मूल पाठ से ही विरुद्ध है। अतः दोनो पद, दो भिन्न अतिचारों के सूचक हैं, एक के नहीं।
पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज आदि ऐसा अर्थ करते हैं कि 'मूर्ख, अविनीत तथा कुपात्र शिष्य को अच्छा ज्ञान दिया हो तो।' इस अर्थ में भी तर्क है कि मूर्ख तथा अविनीत शिष्य को अच्छा ज्ञान नहीं देना तो क्या बुरा ज्ञान देना ? ज्ञान को अच्छा विशेषण लगाने की क्या श्रावश्यकता है ? अविनीत तथा कुपात्र तो ज्ञान दान का अधिकारी पात्र ही नहीं है। रहा मूर्ख, सो उसे धीरे-धीरे ज्ञानदान के द्वारा ज्ञानी घनाना, गुरु का परम कर्तव्य है। अस्तु, यह अर्थ भी कुछ सगत प्रतीत नहीं होता।
आगमोद्धारक पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी महाराज का अर्थ तो बहुत ही भ्रान्ति-पूर्ण है । श्रापने लिखा है-'विनीत को ज्ञान दे।' यह वाक्य क्या अभिप्राय रखता है, हम नहीं समझ सके । घिनीत को ज्ञान देना, कोई दोष तो नहीं है ? कहीं भूल से 'न' तो नहीं छुट गया है ? दुछु पडिच्छियं का अर्थ अविनीत को ज्ञान देना किया है। यह भी ठीक नहीं; क्योंकि पडिच्छियं का अर्थ लेना है, देना नहीं ।
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श्रमण सूत्र
कितने ही विद्वानों का एक और अर्थ भी है । वह बहुत विलक्षण है । वे 'सुट्ट्टु दिन्नं' में ' 'सुदिन्न' इस प्रकार दिन्नं से पहले अकार का प्रश्लेप मानते हैं और अर्थ करते हैं कि ग्रालस्यवश या अन्य किसी यदि के कारण से योग्य शिष्य को अच्छी तरह ज्ञानदान न दिया हो ।' अर्थ बहुत सुन्दर मालूम देता है ।
यह
अत्र अन्त में एक महत्वपूर्ण अर्थ की चर्चा की जा रहीं है । इस अर्थ के पीछे एक प्राचीन और विद्वान् ग्राचार्यों की परंपरा है । श्राचार्य हरिभद्र कहते हैं- 'सुष्ठु दत्त गुरुणा दुष्ठु प्रतीच्छितं कलुपान्तर' त्मनेति । ' इस सक्षेोक्ति में दोनों पदों को मिलाकर एक अतिचार मानने का भ्रम होता है । इस भ्रान्ति को दूर करते हुए मलधार गच्छीय श्राचार्य - हेमचन्द्र, अपने हरिभद्रीय आवश्यक टिप्पक में लिखते हैं 'सुष्ठु दत्तं' में सुष्ठु शब्द शोभन वाचक नहीं है, जिसका अर्थ अच्छा किया जाता है । क्योंकि अच्छी तरह ज्ञान देने में कोई प्रतिचार नहीं है । तः यहाँ सुष्ठु शब्द अतिरेकवाचक समझना चाहिए | अल्प श्रुतं के योग्य अल्पबुद्धि शिष्य को अधिक अध्ययन करा देना, उसकी योग्यता का विचार न करना, ज्ञानातिचार है ।
"ननु तथाप्येतानि चतुर्दश पदानि तथा पूर्यन्ते यदा सुष्ठु दत्त दुछु प्रतीच्छित मिति पदद्वयं पृथगाशातना - स्त्ररूपतया गण्यते । नचैतद् युज्यते, सुष्ठु दत्तस्य तद्रूपताऽयोगात् । नहि शोभनविधिना दत्त काचिदाशातना संभवति ?
9
सत्यं स्यादेतद् यदि शोभनत्ववाचकोऽत्र सुष्ठु शब्दः स्यात् । तच्च नास्ति, अतिरेक वाचित्वेन इहास्य विवक्षितत्वाद् । एतदत्र हृदयम्सुष्ठु = अतिरेकेण विवचिताऽल्पश्रुतयोग्यस्य पात्रस्याऽऽधिक्येन यत् श्रुतं दत्तं तस्य मिथ्या दुष्कृतमिति विवक्षितत्वान्न किञ्चिदसङ्गतमिति । ”
प्रत्येक कार्य में योग्यता का ध्यान रखना आवश्यक है । साधारण अल्पबुद्धि शिष्य को मोह या आग्रह के कारण शास्त्रों की विशाल वाचना दे दी जाय तो वह सँभाल नहीं सकता । फलतः ज्ञान के प्रति अरुचि
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'भयादि-सूत्र
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होने के कारण वह थोड़ा सा अपने योग्य ज्ञानाभ्यास भी नहीं कर सकेगा । अतः गुरु का कर्तव्य है कि यथायोग्य थोड़ा-थोड़ा अध्ययन कराए, ताकि धीरे-धीरे शिष्य की ज्ञान के प्रति अभिरुचि एवं जिज्ञासा बलवती होती चली जाय । अकाल में स्वाध्याय
कालिक और उत्कालिक रूप से शास्त्रों के दो विभाग किए हैं । कालिक श्रुत वे हैं जो प्रथम अन्तिम पहर में ही पढ़े जाते हैं, बीच के पहरों में नहीं । उत्कालिक वे हैं, जो चारों ही प्रहरों में पढ़ें जा सकते हैं । वस्तु, जिस शास्त्र का जो काल नहीं है उसमें उस शास्त्र का स्वाध्याय करना ज्ञानातिचार है । इसी प्रकार नियत काल में स्वाध्याय न करना भी प्रतिचार है ।
ज्ञानाभ्यास के लिए काल का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है । बेमौके की रागिनी अच्छी नहीं होती । यदि शास्त्राध्ययन करता हुआ कालादि का ध्यान न रक्खेगा तो कब तो प्रतिलेखना करेगा ? कब गोत्र - चर्या के लिए जायगा ? कब गुरुजनों की सेवा का लाभ लेगा ? कालातीत अध्ययन कुछ दिन ही चलेगा, फिर अन्त में वहाँ भी उत्साह ठंडा पड़ जायगा । शक्ति से अधिक प्रयत्न करना भी दोष है । इसी प्रकार शक्ति के अनुकूल प्रयत्न न करना भी दोष है । स्वाध्याय का समय होते हुए भी आलस्यवश या किसी अन्य अनावश्यक कार्य में लगा रहकर जो साधक स्वाध्याय नहीं करता है, वह ज्ञान का अनादर करता है - अपमान करता है । वह दिव्य ज्ञान-प्रकाश के लिए द्वार बन्द कर ज्ञानान्धकार को निमन्त्रण देता है ।
अस्वाध्यायिक में स्वाध्यायित
कुछ नहीं है | स्वाध्याय को ही को स्वाध्यायिक | कारण में स्वाध्याय और स्वाध्याय के
शीर्षक के शब्द कुछ नवीन से प्रतीत होते हैं । परन्तु नवीनता स्वाध्यायिक कहते हैं और स्वाध्याय कार्य का उपचार हो जाता हैं । श्रतः कारणों को भी क्रमशः स्वाध्यायिक तथा
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श्रमण-सूत्र
श्रस्वाध्यायिक कह सकते हैं। जिस प्रकार 'पानी जीवन है-इस वाक्य में पानी जीवन रूप कार्य का कारण है स्वयं जीवन नहीं है, फिर भी उसे कारण में का योपचार की दृष्टि से जीवन कहा है |
हाँ, तो रक्त, मांस, अस्थि तथा मृत कलेवर श्रादि श्रासपास में हों तो वहाँ स्वाध्याय करना वर्जित है। अतः जहाँ रुधिर श्रादि अस्वाध्यायिक हों अर्थात् अस्वाध्या के कारण विद्यमान हों, फिर भी वहाँ स्वाध्याय करना, ज्ञानातिचार है। इसी प्रकार स्वाध्यायिक में अर्थात् अस्वाध्याय के कारण न हों, फलतः स्वाध्याय के कारण हो, फिर भी स्वाध्याय न करना ; यह भी ज्ञानातिचार है । श्रस्वाध्यायिक शब्द की उक्त व्याख्या के लिए आचार्य हरिभद्र-कृत आवश्यक सूत्र की शिष्यहिता वृत्ति द्रष्टव्य है । "पा अध्ययनमाध्ययनमाध्यायः । शोभन श्राध्यायः स्वाध्यायः । स्वाध्याय एव स्वाध्यायिकम् । न स्वाध्यायिकमस्वाध्यायिकं, तत्कारणमपि च रुधिरादि कारणे कार्योपचारात् श्रास्वाध्यायिकमुच्यते।"
श्रास्वाध्यायिक के मूल में दो भेद हैं-यात्म-समुत्थ और परसमुत्थ । अपने व्रण से होने वाले रुधिरादि अात्म-समुत्थ कहलाते हैं । और पर अर्थात् दूसरों से होने वाले पर समुत्थ कहे जाते हैं। आवश्यक नियुक्ति में इन सत्र का बड़े विस्तार से वर्णन किया गया है। आचार्य जिनदास
और हरिभद्रजी ने भी अपनी अपनी व्याख्यानों में इस सम्बन्ध में काफी लम्बी चर्चा की है। अस्वाध्यायों का वर्णन विस्तार से तो नहीं, हाँ, संक्षेप से हमने भी परिशिष्ट में कर दिया है । जिज्ञासु वहाँ देखकर जानकारी प्राप्त कर सकते हैं । प्रतिक्रमण का विराट रूप
पडिकमामि 'एगविहे असंजमे' से लेकर 'तेत्तीसाए श्रासायणाहिं' तक के सूत्र में एक-विध असयम का ही विराट रूप बतलाया गया है । यह सब अतिचार समूह मूलतः असयम का ही पर्याय-समूह है।
१ अस्वाध्याय के कारणों का न होना ही स्वाध्याय का कारण है।
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भयादि-सूत्र
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'पडिकमामि एगविहे असंजमे' यह असयम का समास प्रतिक्रमण है।
और यही प्रतिक्रमण अागे 'दोहिं बंधणेहिं' आदि से लेकर तेत्तीसाए प्रासायणाहि' तक क्रमशः विराट होता गया है ।
क्या यह प्रतिक्रमण तेतीस बोल तक का ही है ? क्या प्रतिक्रमण का इतना ही विराटरूप है ? नहीं, यह बात नहीं है । यह तो केवल सूचनामात्र है, उपल नण मात्र है । मलधार गच्छीय प्राचार्य हेमचन्द्र के शब्दों में 'दिङ मात्रप्रदर्शनाय' है।
हाँ, तो प्रतिक्रमण के तीन रूप हैं जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । 'पडिकमामि एगविहे असंजमे' यह अत्यन्त सक्षिप्त रूप होने से जघन्य प्रतिक्रमण है। दो से लेकर तीन, चार,'''दशशत" सहस्रलक्ष... कोटि""अबुद " किं बहुना, सख्यात"तथा असख्यात तक मध्यम प्रतिक्रमण है । और पूर्ण अनन्त की स्थिति में उत्कृष्ट प्रतिक्रमण होता है । इस प्रकार प्रतिक्रमण के संख्यात, असख्यात तथा अनन्त स्थान हैं। ___ यह लोकालोक प्रमाण अनन्त विराट सौंसार है । इसमें अनन्त ही असंयमरूप हिंसा, असत्य, आदि हेय स्थान हैं, अनन्त ही सयमरूप अहिंसा, सत्य आदि उपादेय-स्थान हैं, तथा अनन्त ही जीव, पुद्गल आदि शेय-स्थान हैं । साधक को इन सबका प्रतिक्रमण करना होता है । अनन्त सयम स्थानों में से किसी भी सयम स्थान का प्राचरण न किया हो, तो उसका प्रतिक्रमण है। अनन्त असयम स्थानों में से किसी भी असयम स्थान का पाचरण किया हो, तो उसका प्रतिक्रमण है। अनन्त ज्ञेय स्थानों में से किसी भी ज्ञेय स्थान की सम्यक् श्रद्धा तथा प्ररूपणा न की हो, तो उसका प्रतिक्रमण है। सूत्रकार ने एक से लेकर तेतीस तक के बोल सूत्रतः गिना दिए हैं। आखिर एक-एक बोल गिनकर कहाँ तक गिनाते ? कोटि-कोटि वर्षों का जीवन समाप्त हो जाय, तब भी इन सब की गणना नहीं की जा सकती । अतः तेतीस के समान
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श्रमण-सूत्र ही अन्य अनन्त बोल भी अर्थतः सकल्प में रखने चाहिएं, भले ही वे ज्ञात हो या अज्ञात हों। साधक को केवल ज्ञात का ही प्रतिक्रमण नहीं करना है, अपितु अज्ञात का भी प्रतिक्रमण करना है | तभी तो आगे के अन्तिम पाठ में कहा है 'जे संभरामि, जं च न संभरामि ।' अर्थात् जो दोष स्मृति में पा रहे हैं उनका प्रतिक्रमण करता हूँ। और जो दोष इस समय स्मृति में नहीं पा रहे हैं, परन्तु हुए हैं, उन सत्र का भी प्रतिक्रमण करता हूँ।
यह है प्रतिक्रमण का विराट रूप । यहाँ विन्दु में सिन्धु समाना होता है, पिण्ड में ब्रह्माण्ड का दर्शन करना होता है। एक सचित्त रजकरण पर पैर या गया, असख्य जीवों की हिंसा हो गई । एक सचित्त जलबिन्दु का उपघात हो गया, असंख्य जीवों की हिंसा हो गई। कहीं भी निगोद का स्पर्श हुया तो अनन्त जीवों की विराधना हो गई । इस प्रकार असयम स्थान अनन्त रूप ले लेते हैं। एक रजकण का भी यथार्थ श्रद्धान न हुआ तो तद्गत अनन्त परमाणुओं के कारण अश्रद्धा ने अनन्त रूप ले लिया। लोकालोक रूप अनन्त विश्व के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार की मिथ्या प्ररूपणा हुई तो विपरीत प्ररूपणा अनन्त रूप ग्रहण कर लेती है । जब साधक इन सब विपरीत श्रद्धा, विपरीत प्ररूणा एवं विपरीत पासेवना रूप अनन्त असंयम स्थानों से हटकर सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् प्ररूपणा एवं सम्यक् प्रासेवना रूप अनन्त सौंयम स्थानों में वापस लौट कर पाता है, तब क्या प्रतिक्रमण अनन्त रूप नहीं हो जाता है ? अवश्य हो जाता है । तभी तो मलधारगच्छीय प्राचार्य हेमचन्द्र, यावश्यक टीप्पणक में प्रस्तुत प्रसग को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-"अपरस्यापि चतुरिंशदादेरनंतपर्यवसानस्थ प्रतिक्रमण--स्थानस्यार्थतोऽत्र सूचितत्वात् ।”
प्राचार्य जिनदास महत्तर भी अावश्यक चूणि में लिखते हैं-"एवं ता सुत्तनिबंध, अत्थतो तेत्तीसाश्रो चोत्तीसा भवंतीत्ति, चोत्तीसाए बुद्धवयणातिसे सेहिं, पणतीसाए सञ्चवयणातिसे सेहि, छतीसाए उत्तर
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भयादि-सूत्र
२११ यणेहिं, एवं जहा समवाए जाव सतभिसयानक्खत्ते सतगतारे पण्णत्ते । एवं संखेज्जेहिं, असखेज्जेहिं, अणं तेहिं य असंजमट्ठाणेहि य संजमट्ठाणेहि य जं पडिसिद्ध-करणादिना अतियरितं तस्य मिच्छामि दुक्कडं । सव्वो वि य एसो दुगादीओ अतियारगणो एकविहस्स असंजमस्स पजायसमूहो इति । एवं संवेगाद्यर्थ अणेगधा दुक्कडगरिहा कता ।
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१२८८
प्रतिज्ञा-सूत्र
नमो चवीसाए तित्थगराणं उसभादि - महावीर पज्जवसागाणं । इमे निम्गंथं पावय गं,
सच्च, अणुत्तरं, केवलियं, पडिपुराणं, नेउयं, संसुद्ध, सल्लगत्तणं, सिद्धिमग्गं मुत्तिमग्गं, निज्जाणमग्गं, निव्वाणमगं, अवितहमविसंधि, सव्यदुक्खप्यहीणमग्गं । इत्थं ठिया जीवा, सिज्यंति बुज्कंति, मुच्चंति, परिनिव्वायंति सच्चदुक्खाणमंतं करेंति ।
तं धम्मं सदहामि पत्तिभि, रोएभि, फासेमि, पालेमि, पामि ।
तं धम्मं सदहंतो, पत्तितो, अंतो, फासतो, पालंतो" अणुपालतो ।
१ आचार्य जिनदास महत्तर और आचार्य हरिभद्र ने 'पालेमि' और 'पालन्ती' का उल्लेख नहीं किया है !
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प्रतिज्ञा-सूत्र
तस्स धम्मस्स अब्भुट्टिोमि आराहणाए विरोमि विराहणाए। असंजमं परित्राणामि संजमं उवसंपज्जामि, अभं परित्राणामि बंभ उवसंपज्जामि, अकप्पं परिआणामि कपं उपसंपज्जामि, अन्नाणं परित्राणामि नाणं उवसंपज्जामि, अकिरियं' परियाणामि किरियं उपसंपज्जामि, मिच्छत्तं परित्राणामि सम्मत्तं उपसंपज्जामिरे अबोहिं परिणामि बोहि उवसंपज्जामि, अमग्गं परित्राणामि, मग्गं उवसंपज्जामि । जं. संभरामि, जं च न संभरामि, जं पडिक्कमामि, जं च न पडिक्कमामि, तस्स सव्वस्स देवसियस्स अइयारस्स पडिक्कमामि ।
१-प्राचार्य जिनदास महत्तर पहले 'मिच्छत्त परित्राणामि सम्मत्त उपस पजामि' कहते हैं, और बाद में 'अकिरियं परियाणामि किरियं उवस पजामि ।'
२-प्राचार्य जिनदास की अावश्यक चूणि में 'अबोहिं परित्राणामि, बोहिं उवस पजामि । अमग्गं परियाणामि मग्गं उवस पजामि' यह अंश नहीं है।
३---श्रावश्यक चूर्णि में 'जं पडिक्कमामि जं च न पडिक्कमामि' पहले है और बाद में 'जं सभरामि जं च न संभरामि' है ।
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श्रमण-सूत्र
समणोऽहं संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मो, अनियाणो, दिद्विसंपन्नो, माया-मोस-विवज्जियो ।
अड्ढाइज्जेसु दीर
समुद्दे पन्नरसन कम्मभूमी । जावंत के वि साहू,
रयहरण-गुच्छ-पडिग्गह-धारा ।।
पंचमहव्यय-धारा
अड्ढार-सहस्स-सीलंगवारा । अक्खयायारचरित्ता, ते सधे सिरसा मणसा मत्थएण बंदामि ॥
शब्दार्थ नमो = नमस्कार हो
अणुतरं = सर्वोत्तम है च उवीसाए - चौबीस
केलियं = सर्वज्ञ-प्ररूपित अथवा तित्थगराण = तीर्थंकरों को
अद्वितीय है उसमादि = ऋषभ श्रादि पनि पुगा = प्रतिपूर्ण है महावीर =महावीर
नेअाउयं = न्यायावाधित है, मोक्ष पज्जवसाणाण = पर्यन्तों को
... ले जाने वाला है इणमेव = यह ही
मसुद्ध = पूर्ण शुद्ध है निग्गथं = निर्ग्रन्थों का
सल्ल = शल्यों को पावयण = प्रवचन
गत्तण = काटने वाला है .. सच्चं -- सत्य है
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प्रतिज्ञा-सूत्र
मिद्धि मगं - सिद्धि का मार्ग है सदहामि = श्रद्धा करता हूँ मुत्ति मग्गं = मुक्रि का मार्ग है पत्तियामि = प्रतीति करता हूँ निजाणमग्गं = संसार से निकलने रोएमि = रुचि करता हूँ
___ का मार्ग है, मोक्ष फासेमि = स्पर्शना करता हूँ
स्थान का मार्ग है पालेमि=पालना करता हूँ निव्वाण मग्गं = निर्वाण का मार्ग अणु = विशेष रूप से
है, परम शान्ति पालेमि = पालना करता हूँ
का कारण है तं = उस अवितहं = तथ्य है, यथार्थ है धम्म = धर्म की अविसधि = अव्यवच्छिन्न है, सदा सदहंतो= श्रद्धा करता हुश्रा
शाश्वत है पत्तियतो = प्रतीति करता हुआ सब-सब
रोतो= रुचि करता हुआ दुक्ख = दुःखों के
फासतो = स्पर्शना करता हुआ प्पहीगा - क्षय का
पालंता : पालना करता हुश्रा मग्गं = माग है
अणु-विशेष रूप से इत्थं = इसमें
पालंतो-पालना करता हुश्रा ठिया -- स्थित हुए
तस्स = उस जीरा - जीव
धम्मस्स = धर्म की सिझति = सिद्ध होते हैं
याराहणाए = अाराधना में बुज्झति = बुद्ध होते हैं अब्भुठ्ठिोमि-उपस्थित हुअा हूँ मुच्चंति = मुक्क होते हैं विराहणाए = विराधना से परिनिव्वायंति-निर्वाण को प्राप्त होते हैं विरोमि = निवृत्त हुभा हूँ सब्बदुक्खाण = सब दुःखों का असजम = असंयम को अन्तं - अन्त, क्षय
परियाणामि =जानता हूँ एवं करेन्ति = करते हैं
त्यागता हूँ तं = उस
सजम = संयम को बम्न = धर्म की
उस पजामि = स्वीकार करता हूँ
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श्रमण-सूत्र
अभं = अब्रह्मचर्य को
परियागामि = जानता हूँ और परियाणामि = जानता हूँ और
त्यागता हूँ त्यागता हूँ बोहिं - बोधि को बंभं - ब्रह्मचर्य को
उयम पजामि = स्वीकार करता हूँ उवस पजामि = स्वीकार करता हूँ मग्गं = अमाग को अकर्ष = अकल्प = अकृत्य को परियाणामि-जानता हूँ, त्यागता हूँ परियागामि जानता हूँ, त्यागता मग्गं =माग को
उवम पजामि = स्वीकार करता हूँ कप = कल्प = कृत्य को
जं-जो उधमपबामि = स्वीकार करता हूँ
सभरामि = स्मरण करता हूँ
च = और अन्नाण= अज्ञान को परियाणामि = जानता हूँ और
जं = जो त्यागता हूँ
न = नहीं
समरामि = स्मरण करता हूँ नाणं = ज्ञान को
जं - जिसका उपस पजामि = स्वीकार करता हूँ
पडिकमामि = प्रतिक्रमण करता हूँ अकिरियं - अक्रिया को
च - और परियाण मि = जानता हूँ एवं
जं जिसका त्यागता हूँ
न- नहीं किरियं = किया को
__ पडिकमामि : प्रतिक्रमण करता हूँ उवस पजामि = स्वीकार करता हूँ। तस्स - उस मिच्छत्त= मिथ्यात्व को
सव्यत्म-सब पारेप्राणामि = जानता हूँ तथा देवसियस्म = दिवस सम्बन्धी त्यागता हूँ
अइपारस्स = अतिचार का सम्मत्त = सम्यक्त्व को
पडिक्कमामि = प्रतिक्रमण करता हूँ उवस पजामि = स्वीकार करता हूँ समणोई = मैं श्रमण हूँ अबोहि = अबोधि को
सजय - संयमी हूँ .
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नियागो = निदान रहित
दिड्डि =
= सम्यग दृष्टि से
संपन्नो
विरय = विरत हूँ पsिहय = नाश करने वाला हूँ पच्चक्रवाय = त्याग करने वाला हूँ
पावकम्मो = पापकर्मो का
"
युक्र हूँ
माया = माया सहित
मो = मृषावाद से
१
=
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विवजियो = सर्वथा रहित हूँ अड्डाइज्जेसु = अढाई
दीव = द्वीप
समुद्र सु = समुद्रों में
पन्नरससु = पन्दरह
कम्मभूमीसु = कर्म भूमियों में
जावंत = जितने भी
केवि = कोई
साहू
= साधु हैं
स्यहरण = रजोहरण
प्रतिज्ञा-सूत्र
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गुच्छ = गोच्छक पडिग्गह = पात्र के
धारा = धारक हैं पंच : पाँच
महव्यय = महाव्रत के धारा = धारक हैं
ग्रड्ट्ठार = अट्ठारह
सहस्य = हजार सीलिंग
धारा = धारक हैं
अक्खय = अक्षत परिपूर्ण
ग्रायार = ग्राचार रूप चरिता = चारित्र के धारक हैं
= शीलाङ्ग के
ते = उन
सव्वे = सबको
सिरसा = शिर से
मरासा = मन से
मत्थष्ण = मस्तक से
चंदामि = वन्दना करता हूँ
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२१७
भावार्थ
भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकर देवों को नमस्कार करता हूँ |
यह निर्ग्रन्थ प्रवचन श्रथवा प्रावचन ही सत्य है, अनुत्तर = सर्वोत्तम है, केवल = अद्वितीय है अथवा कैलिक = केवल ज्ञानियों से प्ररूपित है, प्रतिपूर्ण = मोक्षप्रापक गुणों से परिपूर्ण है, नैयायिक- मोच पहुँचाने वाला है अथवा न्याय से अबाधित है, पूर्ण शुद्ध अर्थात् सर्वथा निष्कलंक है, शल्यकर्तन = माया आदि शल्यों को नष्ट करने वाला है, सिद्धि
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२१८
श्रमण-सूत्र मार्ग-पूर्ण हितार्थ रूप सिद्धि की प्राप्ति का उपाय है, मुक्ति-मार्ग=अहित कर्म-बन्धन से मुक्रि का साधन है, निर्याण-मार्ग-मोक्ष स्थान का माग है, निर्वाण-माग - पूर्ण शान्ति रूप निर्वाण का मार्ग है । अवितथ%3D मिथ्यात्व रहित है, अविसन्धि - विच्छेद रहित अर्थात् सनातन नित्य है तथा पूर्वा पर विरोध रहित है, सब दुःखों का पूर्णतया क्षय करने का मार्ग है। ___इस निर्ग्रन्थ प्रावचन में स्थित रहने वाले अर्थात् तदनुसार श्राचरण करने वाले भव्य जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध = सर्वज्ञ होते हैं, मुक होते हैं, परिनिर्वाण = पूर्ण आत्म शान्ति को प्राप्ति करते हैं, समस्त दुःखों का सदा काल के लिए अन्त करते हैं । ____ मैं निर्ग्रन्थ प्रावचन स्वरूप धर्म की श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ = सभत्रि स्वीकार करता हूँ, रुचि करता हूँ, स्पर्शना करता हूँ, पालना अर्थात् रक्षा करता हूँ, विशेष रूप से पालना करता हूँ :
मैं प्रस्तुत जिन धर्म की श्रद्धा करता हुश्रा, प्रतीति करता हुआ, रुचि करता हुश्रा, स्पर्शना = अाचरण करता हुआ, पालना = रक्षण करता हुआ, विशेषरूपेण पुनः-पुनः पालना करता हुआः
धर्म की आराधना करने में पूर्ण रूप से अभ्युत्थित अर्थात् सन्नद्ध हूँ, और धर्म की विराधना = खण्डना से पूर्ण तया निवृत्त होता हूँ:
असंयम को जानता और त्यागता हूँ, सयम को स्वीकार करता हूँ, अब्रह्मचर्य को जानता और त्यागता हु, ब्रह्मचर्य को स्वीकार करता हूँ; अकल्प = अकृत्य को जानता और त्यागता हूँ, कल्प = कृत्य को स्वीकार करता हूँ, अज्ञान को जानता और त्यागता हूँ, ज्ञान को स्वीकार करता हूँ, प्रक्रिया - नास्तिवाद को जानता तथा त्यागता हूँ, क्रिया सम्यग्वाद को स्वीकार करता हूँ, मिथ्यात्व-असदाग्रह को जानता तथा त्यागता हूँ, सम्यक्त्व-सदाग्रह को स्वीकार करता हूँ; अबोधि= मिथ्यात्वकाय को जानता हूँ, एवं त्यागता हूँ, बोधि-सम्यक्त्व कार्य को
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२१६
प्रतिज्ञा-सूत्र स्वीकार करता हूँ, अमाग = हिंसा अादि अमार्ग को जानता तथा त्यागता हूँ, मार्ग = अहिंसा ग्रादि मार्ग को स्वीकार करता हूँ:
[ दोष-शुद्धि] जो दोष स्मृतिस्थ हैं-याद हैं और जो स्मृतिस्थ नहीं हैं, जिनका प्रतिक्रमण कर चुका हूँ और जिन का प्रतिक्रमण नहीं कर पाया हूँ, उन सब दिवस-सम्बन्धी अतिचारों = दोषों का प्रतिक्रमण करता है____ मैं श्रम ग है, संयत-संयमी हूँ, विरत = साद्य व्यापारों से एवं संसार से निवृत्त हूँ, पाप कर्मों को प्रतिहत करने वाला हूँ एवं पाप कर्मों का प्रत्याख्यान-त्याग करने वाला हूँ, निदान रहित शल्य से रहित अर्थात् श्रासक्रि से रहित हूँ, दृष्टि सम्पन्न - सम्यग्दर्शन से युक्त हूँ, माया सहित मृयावाद = असत्य का परिहार करने वाला हूँ
ढाई द्वीप और दो समुद्र के परिमाण वाले मानव क्षेत्र में अर्थात् दरह कर्म भूमियों में जो भी रजोहरण, गुच्छक एवं पात्र के धारण करने वाले
तथा पाँच महाव्रत, अठारह हजार शील = सदाचार के अंगों के धारण करने वाले एवं अक्षत श्राचार के पालक त्यागी साधु हैं, उन सबको शिर से, मन से, मस्तक से वन्दना करता हूँ।
विवेचन यह अन्तिम प्रतिज्ञा का सूत्र है । प्रतिक्रमण अावश्यक के उपसंहार में साधक बड़ी ही उदात्त, गंभीर एवं भावनापूर्ण प्रतिज्ञा करता है। प्रतिज्ञा का एक-एक शब्द साधना को स्फूर्ति एवं प्रगति की दिव्य ज्योति से बालोकित करने वाला है । असयम को त्यागता हूँ और सौंयम को स्वीकार करता हूँ, अब्रह्मचर्य को त्यागता हूँ और ब्रह्मचर्य को स्वीकार करता हूँ, अज्ञान को त्यागता हूँ और ज्ञान को स्वीकार करता हूँ, कुमार्ग को त्यागता हूँ, और सन्मार्ग को स्वीकार करता हूँ, इत्यादि कितनी मधुर एवं उत्थान के मकस्मों से परिपूर्ण पतिता है ? ..
जैन साधक निर्वृत्ति मार्ग का पथिक है । उसका मुन्व कैवल्य पद
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२२०
श्रमण सूत्र
की ओर है एवं पीठ संसार की ओर । वासना से उसे घृणा है, है, अत्यन्त घृणा है । उसका आदर्श एक मात्र उच्च जीवन, उच्च विचार और उच्च चार ही है । वह असंयम से संयम की ओर, ब्रह्मचर्य से ब्रह्मचर्यं की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर, मिथ्यात्व से सम्यक्त्त्व की ओर श्रमार्ग से मार्ग की ओर गतिशील रहना चाहता है । यही कारण है कि यदि कभी भूल से कोई दोष हो गया हो, ग्रात्मा संयम से संयम की ओर भटक गया हो तो उसकी प्रतिक्रमण द्वारा शुद्धि की जाती है, पश्चातान के द्वारा पाप कालिमा साफ की जाती है । संयम की जरा सी भी रेखा जीवन पर नहीं रहने दी जाती । प्रतिक्रमण के द्वारा आलोचना कर लेना ही अलं नहीं है, परन्तु पुनः कभी भी यह दोष नहीं किया जायगा -- यह दृढ़ संकल्प भी दुहराया जाता है । प्रस्तुत प्रतिज्ञासूत्र में यही शिव संकल्प है । प्रतिक्रमण श्रावश्यक की समाप्ति पर, साधक, फिर संयम पथ पर कदम न रखने की अपनी धर्म घोषणा करता है ।
1
जैन धर्म का प्रतिक्रमण अपने तक ही केन्द्रित है । वह किसी ईश्वर अथवा परमात्मा के आगे पापों के प्रति क्षमा याचना नहीं है । ईश्वर हमारे पापों को क्षमा कर देगा, फल स्वरूप फिर हमें कुछ भी पाप फल नहीं भोगना पड़ेगा, इस सिद्धान्त में जैनों का ऋणुभर भी विश्वास नहीं है । जो लोग इस सिद्धान्त में विश्वास करते हैं, वे एक और पाप करते हैं एवं दूसरी ओर ईश्वर से प्रतिदिन क्षमा माँगते रहते हैं । उनका लक्ष्य पापों से बचना नहीं है, किन्तु पापों के फल से बचना है । जब कि जैन धर्म मूलतः पापों से बचने का ही आदर्श रखता है । श्रतएव वह कृत पापों के लिए पश्चाताप कर लेना ही पर्याप्त नहीं समता; प्रत्युत फिर कभी पान न होने पाएँ इस बात की भी सावधानी रखता है ।
पूर्व नमस्कार
प्रतिज्ञा करने से पहले संयम पथ के महान् यात्रो श्री ऋषभादि महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर देवों को नमस्कार किया गया है। यह नियम
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प्रतिज्ञा सूत्र
२२१.
है कि जैसी साधना करनी हो उसी साधना के उपासकों का स्मरण किया जाता है । युद्धवीर युद्धवीरों का तो ग्रर्थवीर अर्थवीरों का स्मरण करते हैं । यह धर्म युद्ध है, यतः यहाँ धर्मवीरों का ही स्मरण किया गया है । जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकर धर्म साधना के लिए अनेकानेक भयंकर परीपद सहते रहें हैं एवं ग्रन्त में साधक से सिद्ध पद पर पहुँच कर अजर श्रमर परमात्मा हो गए हैं । अतः उनका पवित्र स्मरण हम साधकों के दुर्बल मन में उत्साह. चल एवं स्वाभिमान की भावना प्रदीप्त करने वाला है । उनकी स्मृति हमारी ग्रात्मशुद्धि को स्थिर करने वाली है । तीर्थकर हमारे लिए कार में प्रकाश स्तंभ हैं ।
भगवान् ऋषभदेव
वर्तमान कालचक्र में चौबीस तीर्थकर हुए हैं, उनमें भगवन् ऋषभदेव सर्व प्रथम हैं । आपके द्वारा ही मानव सभ्यता का श्राविर्भाव हुआ है । ग्राप से पहले मानव जंगलों में रहता, वन फल खाता ए सामाजिक जीवन से शून्य केला घूमा करता था । न उसे धर्म का पता था और न कर्म का ही । भगवान् ऋषभ के प्रवचन ही उसे सामाजिक प्राणी बनाने वाले हैं, एक दूसरे के सुख दुःख की अनुभूति में सम्मिलित करने वाले हैं । दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिए कि उस युग में मानव के पास शरीर तो मानव का था, परन्तु श्रात्मा मानव की न थी । मानव श्रात्मा का स्वरूप-दर्शन, सर्व प्रथम, भगवान ऋषभदेव ने ही कराया ।
भगवान् ऋषभदेव जैन धर्म के आदि प्रवर्तक हैं । जो लोग जैन धर्म को सर्वथा आधुनिक माने बैठे हैं, उन्हें इस ओर लक्ष्य देना चाहिए । भगवान् ऋषभदेव के गुण गान वेदों और पुराणों तक में गाए गए हैं । वे मानव संस्कृति के आदि उद्धारक थे, अतः वे मानव मात्र के पूज्य रहे हैं । आज भले ही वैदिक समाज ने, उनका वह ऋण, भुला दिया हो, परन्तु प्रचीन वैदिक ऋषि उनके महान् उपकारों को
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१२३
श्रमण-सूत्र
नहीं भूले थे; अतएव उन्होंने खुले हृदय से भगवान ऋषभदेव को स्तुति गान किया है।
अनर्वाणं वृषभं मन्द्रजिह्व, बृहस्पतिं वर्धया नव्यमर्के ।
-ऋग्० म० १ सू० १६० म० १ श्रर्थात् मिष्टभाषी, ज्ञानी, स्तुतियोग्य पभ को पूजा-साधक मन्त्रों द्वारा वर्धित करो।
अंहोमुचं वृपों यज्ञियानां,
विराजन्तं प्रथममध्वराणाम् । श्रयां न पातमश्विना हुवे धिय, इन्द्रियेण इन्द्रियं दत्तमोजः ॥
-अथर्ववेद कां० १६ । ४२ ३ ४ अर्थात् सम्पूर्ण पापों से मुक्त तथा अहिंसक व्रतियों के प्रथम राजा, श्रादित्यस्वरूप, श्रीऋषभदेव का मैं आवाहन करता हूँ। वे मुझे बुद्धि एवं इन्द्रियों के साथ बल प्रदान करें।
नाभेरसावृषभ पास सुदेवसू नुर्यो वै चचार समदृग् जडयोगचर्याम् । यत्पारहस्यमृषयः पदमामनन्ति, स्वस्थः प्रशान्तकरणः परिमुक्त-संगः ॥
–श्रीमद्भागवत २ । ७ । १० वेद और भागवत क्या, अन्य भी वायु पुराण, पद्म पुराण आदि में भगवान् ऋषभदेव की स्तुति की गई है। इन प्रमाणों से जाना जाता है कि-भगवान् ऋपभदेव समस्त भारतवर्ष के एक मात्र पूज्य
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प्रतिज्ञा सूत्र देवता रहे हैं । यह तो वैदिक साहित्य का नमूना है। जैनधर्म का साहित्य तो भगवान ऋषभदेव के गुणगान से सर्वथा श्रोत प्रोत है ही। प्रत्येक पाठक इस बात से परिचित है, अतः जैन ग्रन्थों से उद्धरण देकर व्यर्थ ही लेग्व का कलेवर क्यों बढ़ाया जाय ? भगवान् महावीर
अाज भगवान् महावीर को कौन नहीं जानता ? अाज से अढ़ाई हजार वर्ष पहले भारतवर्ष में कितना भयंकर अज्ञान था, कितना तीव्र पाखण्ड था, कितना धर्म के नाम पर अत्याचार था ? इतिहास का प्रत्येक विद्यार्थी उस समय के यज्ञादि में होने वाले भयंकर हिंसा काण्डों से परिचित है । भगवान् महावीर ने ही उस समय अहिंसा धर्म की दुन्दुभि बजाई थीं। कितने कष्ट सहे, कितनी आपत्तियाँ झेली; किन्तु भारत की काया पलट कर ही दी। श्राध्यात्मिक क्रान्ति का सिंहनाद भारत के कोने-कोने में गूंज उठा ! भगवान महावीर का ऋण भारतवर्ष पर अनन्त है, असीम है ! आज हम किसी भी प्रकार से उनका ऋण अदा नहीं कर सकते। प्रभु की सेवा के लिए हमारे पास क्या है ?
और वे हम से चाहते भी तो कुछ नहीं। उनके सेवक किंवा अनुयायी होने के नाते हमारा इतना ही कर्तव्य है कि हम उनके बताए हुए सदाचार के पथ पर चले और श्रद्धा भक्ति के साथ मस्तक झुकाकर उनके श्रीचरणों में वन्दन करें। ___ भगवान महावीर का नाम पूर्णतया अन्धर्थक है । साधक जीवन के लिए आपके नाम से हो बड़ी भारी प्राध्यात्मिक प्रेरणा मिलती है। एक प्राचीन आचार्य भगवान के 'वीर' नाम की व्युत्पत्ति करते हुए बड़ी ही भव्य-कल्पना करते हैं--- विदारयति यत्कर्म,
तपसा च विराजते ।
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श्रमण-सूत्र
तपोवीयण युक्तश्च,
तस्माद्वीर इति स्मृतः ।। ----जो कमों का विदारण करता है, तपस्तेज के द्वारा विराजित सुशोभित होता है, तप एवं वीर्य से युक्त रहता है, वह वीर कहलाता है ।
भगवान् वीर के नाम में उपयुक्त गुणों का प्रकाश सब योर फैला हुआ है। उनका तप, उनका तेज, उनका श्राध्यात्मिक बल, उनका त्याग अद्वितीय है । भगवान् के जीवन की प्रत्येक झाँकी हमारे लिए आध्यात्मिक प्रकाश अर्पण करने वाली है। जिन शासन की महत्ता
तीर्थंकर देवों को नमस्कार करने के बाद जिन-शासन की महिमा का वर्णन किया गया है। अहिंसा प्रधान जिन-शासन के लिए ये विशेषण सर्वथा युक्तियुक्त हैं। वह सत्य है, अद्वितीय है, प्रतिपूर्ण है, तर्कसंगत है, मोक्ष का मार्ग है, दुःखों का नाश करने वाला है। धर्म का मौलिक अर्थ ही यह है कि----वह साधक को ससार के दुःख और परिताप से निकाल कर उत्तम एवं अविचल सुख में स्थिर करे । जिस धर्म से अनन्त, अविनाशी और अक्षय सुख की प्राप्ति न हो वह धर्म ही नहीं । जैनधर्म त्याग, वैराग्य एवं वासना निवृत्ति पर ही केन्द्रित है; अतः वह एक दृष्टि से यात्मधर्म है, श्रात्मा का अपना धर्म है। मानव जीवन की चरम सफलता त्याग में ही रही हुई है, और वह त्याग जैनधर्म की साधना के द्वारा भली भाँति प्राप्त किया जा सकता है।
आइए, अब कुछ मूल शब्द पर विचार कर ले। मूल शब्द है'निग्गंथं पावयण।" 'पावयण' विशेष्य है और 'निग्गंध' विशेषण है। जैन साहित्य में 'निग्गंध' शब्द सर्वतोविश्रुत है । 'निग्गंध' का संस्कृत रूप 'निग्रन्थ' होता है। निम्रन्थ का अर्थ है-~धन, धान्य आदि बाह्यग्रन्थ और मिथ्यात्व, अविरति तथा क्रोध, मान, माया, आदि अाभ्यन्तर
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२२५
अन्य अर्थात् परिग्रह से रहित पूर्ण त्यागी एवं संयमी साधु ।' 'बाद्याभ्यन्तरग्रन्थनिर्गताः साधवः ।
--श्राचार्य हरिभद्र । प्राचार्य हरिभद्र की उपर्युक्त व्युत्पत्ति के समान ही अन्य जैनाचार्यों ने भो निग्रन्थ की यही व्युत्पत्ति की है । परन्तु जहाँ तक विचार की गति है, यह शब्द साधारण साधुओं के लिए उपचार से प्रयुक्त होता है, क्योंकि मुख्य रूप से वाह्याभ्यन्तर परिग्रह के त्यागी पूर्ण निग्रन्थ तो अरिहन्त भगवान ही होते हैं। साधारण निन्थपदवाच्य साधु तो बाह्य परिग्रह का त्यागी होता है, और अान्तर परिग्रह के कुछ अंश को त्याग देता है एवं शेष अंश को त्यागने के लिए साधना करता है । यदि साधारण साधु भी क्रोधादि याभ्यन्तर परिग्रह का पूर्ण त्यागी हो जाय तो फिर वह साधक कैसा ? पूर्ण न हो जाय, कृतकृत्य न हो जाय ? निग्रन्थत्व की विशुद्ध दशा उपशान्तमोह एवं क्षीण मोह गुण स्थानों पर ही प्राप्त होती है, नीचे नहीं। अतएव जो राग द्वष की गाँठ को सर्वथा अलग कर देता है, तोड़ देता है, वह तत्त्वतः निश्चयनय सिद्ध निग्रन्थ है । और जो अभी अपूर्ण है, किन्तु नैन्थ्य अर्थात् निग्रन्थत्व के प्रति यात्रा कर रहा है, भविष्य में निन्थत्व की पूर्ण स्थिति प्राप्त करना चाहता है, वह व्यवहारतः सम्प्रदाय-सिद्ध निग्रन्थ है । देखिए, तत्त्वार्थभाष्य अध्याय ६, सू० ४८ ।
निर्ग्रन्थों-अरिहंतों का प्रवचन, नैन्थ्य प्रावचन है। 'निर्ग्रन्थानामिदं नैर्ग्रन्थ्यं प्रावचनमिति /-आचार्य हरिभद्र । मूल में जो 'निग्गंथं' शब्द है, वह निग्रन्थ-वाचक न होकर नन्थ्य-वाचक है । अत्र रहा 'पावयण' शब्द, उसके दो सस्कृत रूपान्तर हैं प्रवचन और प्रावचन । प्राचार्य जिनदास प्रवचन कहते हैं और हरिभद्र प्रावचन । शब्दभेद होते हुए भी, दोनों प्राचार्य एक ही अर्थ करते हैं--'जिसमें जीवादि पदार्थों का तथा
१-प्राचार्य हरिभद्र भी सामायिकाध्ययन की ७८६ गाथा की टीका में कहते हैं-'निग्रन्थानामिदं नैर्ग्रन्थ्यम्-आर्हतमिति भावना ।'
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श्रमण-सूत्र
ज्ञानादि रत्नत्रय की साधना का यथार्थ रूप से निरूपण किया गया है, वह सामायिक से लेकर बिन्दुसार पूर्व तक का अागम साहित्य ।' आचार्य जिनभद्र, आवश्यक चूणि में लिखते हैं-'पावयणं सामाइयादि बिन्दुसारपजवसाणं, जत्थ नाण-दसणचारित्त-साहणवावारा अणेगधा वरिणज्जंति ।' प्राचार्य हरिभद्र लिखते हैं-'प्रकर्षेण अभिविधिना उच्यन्ते जीवादयो यस्मिन् तत्प्रावचनम् ।'
ऊपर के वर्णन से प्रावचन अथवा प्रवचन का अर्थ 'श्रुत रूप शास्त्र' ध्वनित होता है । परन्तु हमने 'जिन शासन' अर्थ किया है, और जिन शासन का फलितार्थं 'जिन धर्म'। इसके लिए एक तो आगे की वर्णन शैली ही प्रमाण है । मोक्ष का मार्ग ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र रूप जैन धम है, केवल शास्त्र तो नहीं। भगवान महावीर ने निरूपण किया हैनाणं च दंसणं चेव,
चरित्तं च तवो तहा। एस मग्गोत्ति पएणत्तो, जिणेहिं वर - दंसिहि ।।
-उत्तराध्ययन २८ ॥ १॥ -~-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ही मोन का मार्ग है।
प्राचार्य उमास्वाति भी कहते हैं: ---- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः ।
---तत्त्वार्थ सूत्र १ । १ । एक स्थान पर नहीं, सैकड़ों स्थान पर इसी प्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्र को मोन मार्ग कहा है। प्रस्तुत सूत्र के 'इत्थं ठिा जीवा सिमति, बुझति, मुच्चंति' आदि पाट के द्वारा भी यही सिद्ध होता है। धर्म में स्थित होने पर ही तो जीव सिद्ध बुद्ध, मुक्त होते हैं; अन्यथा नहीं। आगे चल कर 'तं धम्म सद्दहामि, पत्तिश्रामि' में स्पष्टतः ही धर्म
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प्रताचा--सूत्र
२२७
का उल्लेख किया है । 'तत्' शब्द भी पूर्व-परामर्शक होने के कारण पूर्व उल्लेख की अोर संकेत करता है । अर्थात् पूर्वोक्त-विशेषण-विशिष्ट प्रावचन को ही धर्म बताता है। प्राचार्य हरिभद्र भी यहाँ ऐसा ही उल्लेख करते हैं-'य एष नैनन्थ्य-प्रावचनलक्षणो धर्म उक्रः, तं धर्म श्रद्ध्महे''
यापनीय संघ के महान् प्राचार्य श्री अपराजित तो निग्रन्थ का अर्थ ही मिथ्यात्व, अज्ञान एवं अविरति रूप ग्रन्थ से निर्गत होने के कारण सम्यग दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यक् चारित्र आदि धर्म करते हैं । योर जिनागम रूप प्रवचन का अभिधेय अर्थात् प्रतिपाद्य विषय होने से धर्म को ही प्रावचन भी कहते हैं । 'प्रावचन' शब्द को देखते हुए, उसका अर्थ, प्रवचन ( शास्त्र ) की अपेक्षा प्रावचन अर्थात् प्रवचनप्रतिपाद्य ही भाषा शास्त्र की दृष्टि से कुछ अधिक संगत प्रतीत होता है ।
-"प्रथ्नन्ति रचयन्ति दीघी कुर्वन्ति संसारमिति ग्रन्थाःमिथ्यादर्शनं, मिथ्याज्ञानं, असंयमः, कषायाः, अशुभयोगत्रयं चेत्यमी परिणामाः । मिथ्यादर्शनान्निष्क्रान्तं किम् ? सम्यग दर्शनम् । मिथ्याज्ञानान्निष्कान्तं सम्यग ज्ञानं, असंयमात् कमायेभ्योऽशुभयोगत्रयाच्च निष्क्रान्तं सुचारित्रं । तेन तत्त्रयमिह निर्ग्रन्थशब्देन भण्यते । प्रावचनं = प्रवचनस्य जिनागमस्य अभिधेयम् ।" ।
( मूलाराधना-विजयोदया १-४३ ) सत्य
धर्म के लिए सबसे पहला विशेषण सत्य है । सत्य ही तो धर्म हो सकता है। जो असत्य है, अविश्वसनीय है, वह धर्म नहीं. अधर्म है। जब भी कोई व्यक्ति किसी से किसी सिद्धान्त के सम्बन्ध में बात करता है तो पूछने वाला सर्व प्रथम यही पूछता है-क्या यह बाल सच है ? इस प्रश्न का उत्तर देना ही होगा। तभी कोई सिद्धान्त अागे प्रगति कर सकता है। अतएव सूत्रकार ने सर्व प्रथम इसी प्रश्न का उत्तर दिया है और कहा है कि रत्नत्रय रूप जैन धर्म सत्य है ।
आचार्य जिनदास सत्य की व्युत्पत्ति करते हुए कहते हैं--'जो
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श्रम गा सूत्र
भव्यात्माओं के लिए हितकर हो तथा सद्भूत हो, वह सत्य होता है ।। 'सद्भ्यो हितं सच्च, सदभूतं वा सच्चं ।'
जैन धर्म वैज्ञानिक धर्म है। उसका सिद्धान्त पदार्थ विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरता है । जड़ और चैतन्य तत्त्व का निरूपण, जिन शासन में इस प्रकार किया गया है कि जो आज भी विद्वानों के लिए चमत्कार की वस्तु है। अहिंसावाद, अनेकान्तवाद और कम वाद आदि इतने ऊँचे और प्रामाणिक सिद्धान्त हैं कि आज तक के इतिहास में कभी मुठलाए नहीं जा सके। झुठलाए जाएँ भी कैसे ? जो सिद्धान्त सत्य की सुदृढ़ नींव पर खड़े किए गए हैं, वे त्रिकालाबाधित सत्य होते हैं, तीन काल में भी मिथ्या नहीं हो सकते । देखिए, विदेशी विद्वान् भी जैन धर्म की सत्यता और महत्ता को किस प्रकार आदर को दृष्टि से स्वीकार करते हैं :
पौर्वात्य दर्शनशास्त्र के सुप्रसिद्ध फ्रांसीसी विद्वान् डाक्टर ए० गिरनाट लिखते हैं-"मनुष्यों की उन्नति के लिए जैन धर्म में चारित्र सम्बन्धी मूल्य बहुत बड़ा है। जैनधर्म एक बहुत प्रामाणिक, स्वतंत्र और नियमरूप धर्म है।"
पूर्व और पश्चिम के दर्शन शास्त्रों के तुलनात्मक अभ्यासी इटालियन विद्वान् डाक्टर एल० पी० टेसीटरी भी जैन धर्म की श्रेष्ठता स्वीकार करते हैं-"जैन धर्म बहुत ही उच्च कोटि का धम है । इसके मुख्य तत्त्व विज्ञान शास्त्र के आधार पर रचे हुए हैं। यह मेरा अनुमान ही नहीं, बल्कि अनुभव मूलक पूर्ण दृढ़ विश्वास है कि ज्यों ज्यों पदार्थ विज्ञान उन्नति करता जायगा, त्यो त्यों जैन धर्म के सिद्धान्त सत्य सिद्ध होते जायँगे।"
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, लोकमान्य तिलक, भारत के सर्वप्रथम भारतीय गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य, सरदार पटेल आदि ने भी जैन-धम की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है और उसके सिद्धांतों की सत्यता के लिए अपनी स्पष्ट सम्मति प्रकट की है। सबके लेखों को
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२२६ यहाँ उद्ध त कर सकें, इतना हमें न अवकाश है और न वह लेख सामग्री ही पास है। केवलियं
मूल में 'केवलियं' शब्द है, जिसके सस्कृत रूपान्तर दो किए जा सकते हैं केवल और कैवलिक । केवल का अर्थ अद्वितीय है । सम्यग दर्शन आदि तत्त्व अद्वितीय हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं । कौन है वह सिद्धान्त, जो इनके समक्ष खड़ा हो सके ? मानवजाति का हित एकमात्र इन्हीं सिद्धान्तों पर चलने में है। पवित्र विचार और पवित्र अाचार ही
आध्यात्मिक सुख समृद्धि एवं शान्ति का मूल मन्त्र है। ___कैवलिक का अर्थ है-'केवल ज्ञानियों द्वारा प्ररूपित अर्थात् प्रतिपादित । छद्मस्थ मनुष्य भूल कर सकता है। अतः उसके बताए हुए सिद्धान्तों पर पूर्ण विश्वास नहीं किया जा सकता। परन्तु जो केवल ज्ञानी हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वद्रष्टा है,-त्रिकालदर्शी है; उनका कथन किसी प्रकार भी असत्य नहीं हो सकता । इसी लिए मंगल सूत्र में कहा गया है कि'केवलि-पन्नत्तो धम्मो मंगलं ।' सम्यग् दर्शन आदि धर्म तत्त्व का निरूपण केवल ज्ञानियों द्वारा हुआ है; अतः वह पूर्ण सत्य है, त्रिकालाबाधित है।
उक्त दोनों ही अर्थों के लिए प्राचार्य जिनदास-कृत आवश्यक चूणि का प्रामाणिक प्राधार है-"केवलियं-केवलं अद्वितीयं एतदेवकहितं, नान्यद् द्वितीयं प्रवचन मस्ति । केवलिणा वा पगणतं केवलिया” प्रतिपूर्ण
जैनधर्म एक प्रतिपूर्ण धर्म है। सम्यग्दर्शन, सम्यग ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही तो जैनधर्म है । और वह अपने आप में सब अोर से पतिपूर्ण है, किसी प्रकार भी खण्डित नहीं है।
प्राचार्य हरिभद्र प्रतिपूर्ण का अर्थ करते हैं—मोक्ष को प्राप्त कराने वाले सद्गुणों से पूर्ण, भरा हुआ । 'अपवर्ग-प्रापकैगुणैभृतमिति ।'
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२३०
श्रमण-सूत्र
नैयायिक
'नेत्राउयं' का संस्कृत रूप नैयायिक होता है। प्राचार्य हरिभद्र, नैयायिक का अर्थ करते हैं .--'जो नयनशील है, ले जाने वाला है, वह नैयायिक है ।' सम्यग दर्शन आदि मोक्ष में ले जाने वाले हैं, अतः नैयायिक कहलाते हैं । 'नयनशीलं नैयायिकं मोक्षगमकमित्यर्थः ।।
श्री भावविजयजी न्याय का अर्थ 'मोक्ष' करते हैं। क्योंकि निश्चित आय = लाभ ही न्याय है, और ऐमा न्याय एक-मात्र मोक्ष ही है। साधक के लिए मोक्ष से बढ़कर और कौन सा लाभ है ? यह न्याय = मोक्ष ही प्रयोजन है जिनका, वे सम्यग दर्शन आदि नैयायिक कहलाते हैं । “निश्चित श्रायो लाभो न्यायो मुकिरित्यर्थः, स प्रयोजनमस्येति नैयायिकः ।"..--उत्तराध्ययनवृत्ति, अध्य० ४ । गा० ५। - श्राचार्य जिनदास नैयायिक का अर्थ न्यायाबाधित करते हैं । 'भ्यायेन चरति नैयायिक, न्यायाबाधितमित्यर्थः, सम्यग दर्शन
आदि जैनधर्म सर्वथा न्यायसंगत हैं । केवल अागमोक्त होने से ही मान्य हैं, यह बात नहीं । यह पूर्ण तसिद्ध धर्म है । यही कारण है कि जैनधर्म तर्क से डरता नहीं है । अपितु तर्क का स्वागत करता है। शुद्ध-बुद्धि से धमतत्त्वों की परीक्षा करनी चाहिए । परीक्षा की कसौटी पर, यदि धर्म सत्य है, तो वह और अधिक कान्तिमान् होगा. प्रकाशमान होगा। वह सत्य ही क्या, जो परीक्षा की भाग में पड़कर म्लान हो जाय ? 'सत्ये नास्ति भयं क्वचित् ।' सत्य को कहीं भी भय नहीं है । ख ग सोना क्या कभी परीक्षा से घबराता है ? अतएव जैनधर्म की परीक्षा के लिए, उत्तराध्ययन सूत्र के केशी गौतम-सौंवाद में गणधर गौतम ने स्पष्टतः कहा है-'पन्ना समिक्खए धम्मं ।' 'तर्कशील बुद्धि ही धर्म की परख करती है।' शल्य-कर्तन श्रागम की भाषा में शल्य का अर्थ है 'माया, निदान और मिथ्यात्व ।।
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२३१ बाहर के शल्य कुछ काल के लिए ही पीड़ा देते हैं, अधिक से अधिक वर्तमान जीवन का संहार कर सकते हैं । परन्तु ये अंदर के शल्य तो बड़े ही भयंकर हैं । अनन्तकाल से अनन्त आत्माएँ, इन शल्यों के द्वारा पीड़ित रही हैं । स्वर्ग में पहुँच कर भी इनसे मुक्ति नहीं मिली। संसार भर का विराट ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि पाकर भी श्रात्मा अन्दर में स्वस्थ नहीं हो सकती, जब तक कि शल्य से मुक्ति न मिले । शल्यों का विस्तृत निरूपण, शल्य सूत्र में कर पाए हैं, अतः पाठक वहाँ देख सकते हैं।
उक्त शल्यों को काटने की शक्ति एकमात्र धर्म में ही है। सम्यग्दर्शन मिथ्यात्व शल्य को काटता है, सरलता माया-शल्य को और निर्लोभता निदान शल्य को । अतएव धर्म को शल्य-कर्तन ठीक ही कहा गया है -"कृन्तीति कर्तनं शल्यानि-मायादीनि, तेषां कर्तनं भव-निबन्धनमायादि शल्यच्छेदकमित्यर्थः ।".-प्राचार्य हरिभद्र । सिद्धि मार्ग __ श्राचार्य हरिभद्र सिद्धि का अर्थ 'हितार्थ-प्राप्ति' करते हैं । 'सेधनं सिद्धिः हितार्थ-प्राप्तिः ।' प्राचार्यकल्प पं० आशाधरजी मूलाराधना की टीका में अपने प्रात्म-स्वरूप की उपलब्धि को ही सिद्धि' कहते हैं। 'सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः ।' अात्मस्वरूप की प्राप्ति के अतिरिक्त और कोई सिद्धि नहीं है । यात्मस्वरूपोपलब्धि ही सबसे महान् हितार्थ है। ___ मार्ग का अर्थ उपाय है। अात्मस्वरूपोपलब्धि का मार्ग = उपाय सम्यग दर्शनादि रत्नत्रय है | यदि साधक सिद्धत्व प्राप्त करना चाहता है, अात्मस्वरूप का दर्शन करना चाहता है, कर्मों के प्रावरण को हटा कर शुद्ध पात्मज्योति का प्रकाश पाना चाहता है, तो इसके लिए शुद्ध भाव से सम्यग दर्शनादि धर्म की साधना ही एकमात्र अमोघ उपाय है। मुक्ति-मार्ग __प्राचार्य जिनदास मुक्ति का अर्थ निमुक्तता अर्थात् निःसगता करते हैं । प्राचार्य हरिभद्र कर्मों की विच्युति को मुक्ति कहते हैं । 'मुक्रिः, अहि
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२३२
श्रमण-सूत्र
तार्थ कर्मविच्युतिः ।' जब प्रात्मा कर्म बन्धन से मुक होता है, तभी वह पूर्ण शुद्ध प्रात्म-स्वरूप की प्राप्ति करता है । निर्याण मार्ग __ श्राचार्य हरिभद्र निर्माण का अर्थ मोक्षपद करते हैं। जहाँ जाया जाता है वह यान होता है। निरुपम यान निर्याण कहलाता है । मोक्ष ही ऐसा पद है, जो सर्व श्रेष्ठ यान = स्थान है, अतः वह जैन श्रागम साहित्य में निर्याणपदवाच्य भी है । "यान्ति तदिति यानं 'कृत्यलुटो बहुलं' (पा० २-३-११३) इति वचनात्कर्मणि ल्युट । निरुपम यानं निर्याण, ईपच्याम्भारात्यं मोक्षपदमित्यर्थः ।"
प्राचार्य जिनदास निर्माण का अर्थ 'ससार से निर्गमन' करते हैं । 'निर्याण संसारात्पलायणं ।' सम्यग् दर्शनादि धम ही अनन्तकाल से भटकते हुए भव्य जीवों को सौंसार से बाहर निकालते हैं । अतः संसार से बाहर निकलने का मार्ग होने से सम्भग दर्शनादि धर्म निर्माण मान कहलाता है। निर्वाण मागे
__ सब कर्मों के क्षय होने पर आत्मा को जो कभी नष्ट न होने वाला श्रात्यन्तिक आध्यात्मिक सुख प्राप्त होता है, वह निर्वाण कहलाता है। प्राचार्य हरिभद्र कहते हैं - 'निति निर्वाण'-सकल कर्मक्षयजमात्यतिक सुखमित्यर्थः ।'
प्राचार्य जिनदास यात्म-स्वास्थ्य को निर्वाण कहते हैं। प्रात्मा कम रोग से मुक्त होकर जब अपने स्वस्वरूप में स्थित होता है, पर परिणति से हटकर सदा के लिए स्वपरिणति में स्थिर होता है, तब वह स्वस्थ कहलाता है । इस अात्मिक स्वास्थ्य को ही निर्वाण कहते है।
देखिए, यावश्यक चूणि प्रतिक्रमणाध्याय--"निव्वाण निव्यत्ती श्रात्म-स्वास्थ्यमित्यर्थः ।" . बौद्ध दर्शन में भी जैन परंपरा के समान ही निर्वाण शब्द का प्रचुर प्रयोग हुआ है। जैन दर्शन की साधना के समान बोद्ध दर्शन की
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२३३
साधना का भी चरम लक्ष्य निर्वाण है । परन्तु जैन धर्म सम्मत निर्वाण और बौद्धाभिमत निर्वाण में आकाश पाताल का अन्तर है। जैन धर्म का निर्वाण उपर्युक्त वर्णन के आधार पर भाववाचक है, अात्मा की अत्यन्त शुद्ध पवित्र अवस्था का सूचक है। हमारे यहाँ निवाण अभाव नहीं, परन्तु निजानन्द की सर्वोत्कृष्ट भूमिका है। निर्वाणपद प्राप्त कर साधक, प्राचार्य जिनदास के शब्दों में 'परम सुहिणो भवति' अर्थात् परम सुखी हो जाते हैं, सब दुःखों से मुक्त होकर सदा एक रस रहने वाले अात्मानन्द में लीन हो जाते हैं । परन्तु बौद्ध दर्शन की यह मान्यता नहीं है । वह निर्वाण को अभाववाचक मानता है। उसके यहाँ निर्वाण का अर्थ है बुझ जाना । जिस प्रकार दीपक जलता जलता बुझ जाए तो वह कहाँ जाता है ? ऊपर आकाश में जाता है या नीचे भूमि में ? पूर्व को जाता है या पश्चिन को ? दक्षिण को जाता है या उत्तर को ? किस दिशा एवं विदिशा में जाता है ? आप कहेंगे-वह तो बुझ गया, नष्ट हो गया। कहीं भी नहीं गया। इसी प्रकार बौद्ध दर्शन भी कहता है कि "निर्वाण का अर्थ यात्म-दीपक का बुझ जाना, नष्ट हो जाना है । निर्वाण होने पर श्रात्मा कहीं नहीं जाता । जाता क्या, वह रहता ही नहीं । उसकी सत्ता ही सदा के लिए नष्ट हो गयी।” उक्त कथन के प्रमाणत्वरूर सुप्रसिद्ध बौद्ध महाकवि अश्वघोष की निर्वाण-सम्बन्धीव्याख्या देखिए । वह कहता है:दीपो यथा नितिमभ्युपेतो,
नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काश्चिद् विदिशं न काश्चित्,
स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।। तथा कृती नितिमभ्युपेतो,
वावनि गच्छति नान्तरिक्षम् ।
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२३४
श्रमण-सूत्र
दिशं नकाश्चिद् विदिशं न काश्चित् , क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम्॥
(सौन्दरानन्द १६, २८-२६) पाठक विचार कर सकते हैं-यह क्या निर्वाण हुया ? क्या अपनी सत्ता को समाप्त करने के लिए ही यह साधना का मार्ग है। क्या अपने संहार के लिए ही इतने विशाल उग्र तपश्चरण किए जाते हैं ? महाकवि अश्वघोष के शब्दों में क्या शान्ति का यही रहस्य है ? बौद्ध धर्म का क्षणिकवाद साधना की मूल भावना को स्पर्श नहीं कर सकता ! साधक के मन का समाधान जैन निर्वाण के द्वारा ही हो सकता है, अन्यत्र नहीं। अवितथ
अवितथ का अर्थ सत्य है । वितथ झूट को कहते हैं, जो वितथ न हो वह अवितथ अर्थात् सत्य होता है। इसीलिए प्राचार्य हरिभद्र ने सीधा ही अर्थ कर दिया है-'पवितथं = सत्यम् ।'
परन्तु प्रश्न है कि जब अवितथ का अर्थ भी सत्य ही है तो फिर पुनरुक्ति क्यों की गयी ? सत्य का उल्लेख तो पहले भी हो चुका है। प्रश्न प्रस गोचित है। परन्तु जरा गभीरता से मनन करेंगे तो प्रश्न के लिए अवकाश न रहेगा।
प्रथम सत्य शब्द, सत्य का विधानात्मक उल्लेग्व करता है। जब कि दूसरा वितथ शब्द, निषेधात्मक पद्धति से सत्य की अोर सकेत करता है । सत्य है, इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि संभव है, कुछ अंश सत्य हो । परन्तु जब यह कहते हैं कि वह अवितथ है, असत्य नहीं है तो असत्य का सर्वथा परिहार हो जाता है, पूर्ण यथार्थ सत्य का स्पष्टीकरण हो जाता है । इस स्थिति में दोनों शब्दों का यदि संयुक्त अर्थ करें तो यह होता है कि 'जिन शासन सत्य है, असत्य नहीं है ।' उत्तर अंश के द्वारा पूर्व अंश का समर्थन होता है, दृढत्व होता है ।
हम तो अभी इतना ही समझे हैं। वास्तविक हिस्य क्या है,
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प्रतिज्ञा सूत्र
२३५ यह तो केवलिगम्य है। हाँ, अभी तक और कोई समाधान हमारे देखने में नहीं आया है। अविसन्धि
अविमधि का अर्थ है-सन्धि से रहित । सन्धि, बीच के अन्तर को कहते हैं । अतः फलितार्थ यह हुया कि जिन शासन अनन्तकाल से निरन्तर अव्यवच्छिन्न चला या रहा है । भरतादि क्षेत्र में, किसी काल विशेष में नहीं भी होता है, परन्तु महा विदेह क्षेत्र में तो सदा सर्वदा अव्यवच्छिन्न बना रहता है । काल की सीमाएँ जैनधर्म की प्रगति को अवरुद्ध नहीं कर सकतीं। वह धर्म ही क्या, जो काल के घेरे में या जाय ! जिन धर्म, निज धम है-अात्मा का धम है । अतः वह तीन काल और तीन लोक में कहीं न कहीं सदा सर्वदा मिलेगा ही। जैनधम ने देवलोक में भी सम्यक्त्व का होना स्वीकार किया है और नरक में भी। पशु-पन्नी तथा पृथ्वी, जल आदि में भी सम्यग दशन का प्रकाश मिल जाता है । अतः किसी क्षेत्रविशेष एवं काल विशेष में जैनधर्म के न होने का जो उल्लेख किया है, वह चारित्ररूप धर्म का है, सम्यक्त्व धर्म का नहीं। सम्यक्त्व धम तो प्रायः सर्वत्र ही अव्यवच्छिन्न रहता है । हाँ चारित्र धम की अव्यवच्छिन्नता भी महाविदेह की दृष्टि से सिद्ध हो जाती है। सर्व दुःख प्रहीण-मार्ग
धम का अन्तिम विशेषण सर्वदुःख प्रहीणमार्ग है । उक्त विशेषण में धम की महिमा का विराट सागर छुपा हुआ है । संसार का प्रत्येक प्राणी दुःख से व्याकुल है, क्लेश से सतप्त है । वह अपने लिए सुख चाहता है, ग्रानन्द चाहता है। प्रानन्द भी वह, जो कभी दुःख से सभिन्न = स्पृष्ट न हो । दुःखास भिन्नत्व ही सुख की विशेषता है । परन्तु सौंसार का कोई भी ऐसा सुख नहीं है, जो दुःख से असं भिन्न हो । यहाँ सुख से पहले दुःख है, सुख के बाद दुःख है, और सुख की विद्यमानता में भी दुःख है । एक दुःख का अन्त होता नहीं है और
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२३६
श्रमण-सूत्र
दूसरा दुःख सामने या उपस्थित होता है। एक इच्छा की पूर्ति होती नहीं है, और दूसरी अनेक इच्छाएं मन में उछल कूद मचाने लगती हैं । सांसारिक सुख इच्छा की पूर्ति में होता है, और सबकी सत्र इच्छाएँ पूण कहाँ होती हैं ? अतः संसार में एक-दो इच्छायों की पूर्ति के सुख की अपेक्षा अनेकानेक इच्छाओं की अपूति का दुःख ही अधिक होता है । दुःखों का सर्वथा अभाव तो तब हो, जब कोई इच्छा ही मन में न हो । अोर यह इच्छाओं का सर्वथा अभाव, फलतः दुःखों का सर्वथा अभाव मोक्ष में ही हो सकता है, अन्यत्र नहीं । और वह मोक्ष, सम्यगदर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म की साधना से ही प्राप्त हो सकता है । इसीलिए श्राचार्य हरिभद्र लिखते हैं—“सर्वदुःख प्रहोणमार्ग-सबदुःख प्रहीणो मोक्षस्त कारणमित्यर्थः ।" सिज्झति
धम की आराधना करने वाले ही सिद्ध होते हैं । सिद्धि है भी क्या वस्तु ? अाराधना अर्थात् साधना की पूर्णाहुति का नाम ही सिद्धि है। जैन धम में श्रात्मा के अनन्त गुणों का पूर्ण विकास हो जाना ही सिद्धत्व माना गया है । 'सिझति-सिद्धा भवन्ति, परिनिष्ठितार्था भवन्ति ।'
-प्राचार्य जिनदास महत्तर । जैन धम में मोक्षके लिए सिद्ध शब्द का प्रयोग अत्यन्त युक्तिसंगत किया है । बोद्ध दार्शनिक, जहाँ मोक्षका अर्थ दीन निर्वाण के समान सर्वथा अभावात्मक स्थिति करते हैं, वहाँ जैन धम सिद्ध शब्द के द्वारा अनन्त-अनन्त श्रात्मगुणों की प्राप्ति को मोक्ष कहता है । हमारे यहाँ सिद्ध का अर्थ ही पूर्ण है । अतः अनात्मवादी बौद्ध दर्शन की मुक्ति का यह सिद्ध शब्द परिहार करता है, और उन दार्शनिकों की मुक्ति का भी परिहार करता है, जो अपूर्ण दशा में ही मोक्ष होना स्वीकार करते हैं । ईश्वर या अन्य किसी महा शक्ति के द्वारा अपूर्ण व्यक्तियों को मोक्ष देने की कथाएँ वैदिक पुराणों में बाहुल्येन वर्णित हैं । परन्तु जैन धम इन बातों पर विश्वास नहीं करता । वह तो अपूर्ण अवस्था को ससार ही कहता है,
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प्रतिज्ञा सूत्र
२३७
मोक्ष नहीं । जब तक ज्ञान अनन्त न हो, दर्शन अनन्त न हो, चारित्र अनन्त न हो, वीर्य अनन्त न हो, सत्य अनन्त न हो, करुणा अनन्त न हो, किं बहुना, प्रत्येक गुण अनन्त न हो, तब तक मोक्ष होना स्वीकार नहीं करता । अनन्त श्रात्म-गुणों के विकास की पूर्ति अनन्तता में ही है, पहले नहीं। और यह पूण ता अपनी साधना के द्वारा ही प्राप्त होती है । किसी की कृपा से नहीं। अतः 'इत्थं ठिा जीवा सिमंति' सर्वथा युक्त ही कहा है। बुज्झति
सिझति' के बाद 'बुज्झति' कहा है । बुज्झति का अर्थ बुद्ध होता है, पूर्ण ज्ञानी होता है। प्रश्न है कि बुद्धत्व तो सिद्ध होने से पहले ही प्राप्त हो जाता है। श्राध्यात्मिक विकास क्रमस्वरूप चौदह गुण स्थानों में; अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन श्रादि गुण तेरहवे गुण स्थान में ही प्राप्त हो जाते हैं, और मोक्ष, चौदहवें गुण स्थान के बाद होती है। अतः 'सिझति' के बाद बुज्झति' कहने का क्या अर्थ है ? विकासक्रम के श्रनुसार तो बुज्झति का प्रयोग सिझति से पहले होना चाहिए था।
यह सत्य है कि केवल ज्ञान तेरहवे गुणस्थान में प्रात हो जाता है, अतः विकास क्रम के अनुसार बुद्ध त्व का नम्बर पहला है। और सिद्धत्व का दूसरा । परन्तु यहाँ सिद्धत्व के बाद जो बुद्धत्व कहा है उसका अभिप्रायः यह है कि सिद्ध हो जाने के बाद भी बुद्धत्व बना रहता है, नष्ट नहीं होता है।
वैशेषिक दर्शन की मान्यता है कि मोन में श्रात्मा का अस्तित्व तो रहता है, किन्तु ज्ञान का सर्वथा अभाव हो जाता है। ज्ञान प्रात्मा का एक विशेष गुण है । और मुक्त अवस्था में कोई भी विशेष गुण रहता नहीं है, नष्ट हो जाता है। अतः मोक्ष में जब अात्मा चैतन्य भी नहीं रहता तब उसके अनन्त ज्ञानी बुद्ध होने का तो कुछ प्रश्न ही नहीं ।
यह सिद्धान्त है वैशेषिक दर्शनकार महर्षि कणाद का । जैनदर्शन इसका सर्वथा विरोधी दर्शन है। जैनधर्म कहता है-“यह भी क्या
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२३८
श्रमण-सूत्र
मन ? यह तो प्रात्मा का सर्वथा बर्बाद हो जाना हुया ! सर्वथा ज्ञानहीन जड़ पत्थर के रूप में हो जाना, कौन से महत्त्व की बात है ? इससे तो संसार ही अच्छा, जहाँ थोड़ा बहुत भान तो बना रहता है । अस्तु, आत्मा अनन्त ज्ञानी होने पर ही निजानन्द की अनुभूति कर सकता है। बुद्धत्त्व के विना सिद्धत्व का कुछ मूल्य ही नहीं रहता। अतः सिद्ध हो जाने के बाद भी बुद्धत्व का रहना अत्यन्त आवश्यक है। ज्ञान, श्रात्मा का निजगुण है, भला वह नष्ट कैसे हो सकता है? ज्ञानस्वरूप ही तो आत्मा है, अतः जब ज्ञान नहीं तो प्रात्ना का ही क्या अस्तित्व ? हाँ, मोक्ष में भी सिद्ध भगवान् सदाकाल अपने अनन्त ज्ञान प्रकाश से जगमगाते रहते हैं, वहाँ एक क्षण के लिए भी कभी अज्ञान अन्धकार प्रवेश नहीं पा सकता।
अब उस प्रश्न का समाधान हो जाता है कि सिद्धत्व से पहले होने वाले बुद्धत्व को पहले न कहकर बाद में क्यों कहा ? बुद्धत्व को बाद में इसलिए कहा कि कहीं वैशेषिकदर्शन की धारणा के अनुसार जिज्ञासुत्रों को यह भ्रम न हो जाय कि 'सिद्ध होने से पहले तो बुद्धत्व भले हो, परन्तु सिद्ध होने के बाद बुद्धत्व रहता है या नहीं ?' अब पहले सिद्ध और बाद में बुद्ध कहने से यह स्पष्ट हो जाता है कि सिद्ध होने के बाद भी श्रात्मा पहले के समान ही बुद्ध बना रहता है, सिद्धत्व की प्राप्ति होने पर बुद्धत्व नष्ट नहीं होता। मुच्चंति
'मुच्चंति' का अर्थ कमों से मुक्त होना है। जब तक एक भी कम परमाणु यात्मा से सम्बन्धित रहता है, तब तक मोक्ष नहीं हो सकती। जैनदर्शन में कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः' ही मोन का स्वरूप है । मोक्ष में न ज्ञानावरणादि कर्म रहते हैं और न कर्म के कारण राग-द्वेष आदि । अर्थात् किसी भी प्रकार का औदायिक भाव मोद में नहीं रहता।
याप प्रश्न करेंगे कि सय कर्मों का क्षय होने पर ही तो सिद्धत्व भाव
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२३६ प्राप्त होता है. मोक्ष होती है। फिर यह 'मुच्चंति के रूप में कर्मों से मुक्ति होने का स्वतंत्र उल्लेख क्यों किया गया ? ____ समाधान है कि कुछ दार्शनिक मोक्ष अवस्था में भी कम की सत्ता मानते हैं । उनके विचार में मोक्ष का अर्थ कर्मों से मुक्ति नहीं, अपितु कृत कर्मों के फल को भोगना मुक्ति है । जब तक शुभ कर्मों का सुख रूप फल का भोग पूर्ण नहीं होता, तबतक आत्मा मोक्ष में रहता है । और ज्यों ही फल-भोग पूर्ण हुअा त्यों ही फिर संसार में लौट आता है।।
जैन दर्शन का कहना है कि यह तो ससारस्थ स्वर्ग का रूपक है, मोक्ष का नहीं । मोक्ष का अर्थ छूट जाना है। यदि मोक्ष में भी कम श्रार कम फल रहे तो फिर छूटा क्या ? मुक्त क्या हुआ ? संसार और मोक्ष में कुछ अन्तर ही न रहा ? मोक्ष भी कहना और वहाँ कर्म भी मानवा, यह तो वदतोव्याघात है । जिस प्रकार 'मैं गूंगा हूँ, बोलूँ कैसे ?' यह कहना अपने आप में असत्य है, उसी प्रकार मोक्ष में भी कर्म बन्धन रहता है, यह कथन भी अपने आप में भ्रान्त एवं असत्य है । मोक्ष में यदि शुभ कमों का अस्तित्व माना जाय तो वह कमजन्य सुख दुःखास भिन्न नहीं हो सकेगा। और यदि मोक्ष में सुख के साथ दुःख भी रहा तो फिर वह मोन ही क्या और मोक्ष का सुख ही क्या ? कम होंगे तो कर्मों से होने वाले जन्म, जरा, मरण भी होंगे ? इस प्रकार एक क्या, अनेकानेक दुःखों की परम्परा चल पड़ती है। अतः जैन धर्म का यह सिद्धान्त सर्वथा सत्य है कि सिद्ध होने पर प्रात्मा सब प्रकार के शुभाशुभ कर्मों से सदा के लिए मुक्त हो जाता है । सिद्धत्व का अर्थ ही मुक्तत्व है। परिनिव्वायंति ____ यह पहले कहा जा चुका है कि जैन दर्शन का निर्वाण बौद्ध निर्वाण के समान अभावात्मक नहीं है। यहाँ आत्मा की सत्ता के नष्ट होने पर दुःखों का नाश नहीं माना है । बौद्ध दर्शन रोगी का अस्तित्व समाप्त होने पर कहता है कि देखो, रोग नहीं रहा । परन्तु जैन दर्शन रोगी का रोग
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श्रमण-सूत्र
नष्ट करता है, स्वयं रोगी को नहीं । रोग के साथ यदि रोगी भी समाप्त हो गया तो रोगी के लिए क्या अानन्द ? कम एक रोग है, अतः उसे नष्ट करना चाहिए । स्वयं प्रात्मा का नष्ट होना मानना, कहाँ का दर्शन है ?
वैशेषिक दर्शन अात्मा का अस्तित्व तो स्वीकार करता है, परन्तु वह मोक्ष में सुख का होना नहीं मानता । वैशेषिक दर्शन कहता है कि 'मोक्ष होने पर आत्मा में न ज्ञान होता है, न सुख होता है, न दुःख होता है । 'नवानामात्म-विशेषगुणानामुच्छेदो मोक्षः ।
जैन दर्शन मोक्ष में दुःखाभाव तो मानता है, परन्तु सुखाभाव नहीं मानता । सुख तो मोक्ष में ससीम से असीम हो जाता है--अनन्त हो जाता है । हाँ पुद्गल सम्बन्धी कमजन्य सांसारिक सुख वहाँ नहीं होता; परन्तु श्रात्मसापेक्ष अनन्त श्राध्यात्मिक सुख का अभाव तो किसी प्रकार भी घटित नहीं होता । वह तो मोक्ष का वैशिष्टय है, महत्त्व है । 'परिनिव्वायंति' के द्वारा यही स्पष्टीकरण किया गया है कि जैन धर्म का निर्वाण न अात्मा का बुझ जाना है और न केवल दुःखाभाव का होना है । वह तो अनन्त सुख स्वरूप है । और वह सुख भी, वह सुख है, जो कभी दुःख से सपृक्त नहीं होता। प्राचार्य जिनदास परिनिध्वायंति की व्याख्या करते हुए कहते हैं 'परिनिव्वुया भवन्ति, परमसुहिणो भवतीत्यर्थः ।' सम्वदुक्खाणमंतं करेंति ___मोक्ष की विशेषताओं को बताते हुए सबके अन्त में कहा गया है कि 'धर्माराधक साधक मोक्ष प्राप्त कर शारीरिक तथा मानसिक सब प्रकार के दुःखों का अन्त कर देता है। प्राचार्य जिनदास कहते हैं, 'सत्वेसिं सारीर-माणसाणं दुक्खाणं अंतकरा भवन्ति, वोच्छिण्ण-सव्वदुक्खा भवन्ति । __प्रस्तुत विशेषण का सारांश पहले के विशेषणों में भी या चुका है। यहाँ स्वतंत्र रूप में इसका उल्लेख, सामान्यतः मोक्षस्वरूप का दिग्दर्शन कराने के लिए है। दर्शन शास्त्र में मोक्ष का स्वरूप सामान्यतः सब दुःखों का प्रहाण अर्थात् प्रात्यन्तिक नाश ही बताया गया है।
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२४१ उक विशेषण का एक और भी अभिप्राय हो सकता है । वह यह कि सांख्य दर्शन प्रादि कुछ दर्शन आत्मा को सर्वथा बन्धनरहित होना मानते हैं। उसके यहाँ न कभी अात्मा को कर्म बन्ध होता है और न तत्फलस्वरूप दुःख ग्रादि ही। दुःख आदि सब प्रकृति के धर्म हैं, पुरुप अर्थात् प्रात्मा के नहीं । जैन दर्शन इस मान्यता का विरोध करता है । वह कहता है कि कर्म बन्ध श्रात्मा को होता है, प्रकृति को नहीं । प्रकृति तो जड़ है, उसको बन्ध क्या और मोक्ष क्या ? यदि कर्म और तजन्य दुःख ग्रादि अात्मा को लगते ही नहीं हैं तो फिर यह संसार की स्थिति किस बात पर है ? अात्माएँ दुःख से हैरान क्यों हैं ? अतः कम बार उसका फल जब तक यात्मा से लगा रहता है, तब तक संसार है । और ज्यों ही कर्म तथा तजन्य दुःखादि का अन्त हुअा, आत्मा मोन प्राप्त कर लेती है, मुक्त हो जाती है। जैन साहित्य में दुःख शब्द स्वयं दुःख के लिए भी प्राता है, और शुभाशुभ कर्मों के लिए भी। इसके लिए भगवती सू । देखना चाहिए । अतः 'सव्व दुक्खाणमंतं करेंति' का जहाँ यह अर्थ होता है कि 'सब दुःखों का अन्त करता है, वहाँ यह अर्थ भी होता है कि 'सत्र शुभाशुभ कर्मों का अन्त करता है। जब कर्म ही न रहे तो फिर सांसारिक सुख, दुःख, जन्म, मरण आदि का द्वन्द्व कैसे रह सकता है ? जब बीज ही नहीं तो वृक्ष कैसा ? जब मूल ही नहीं तो शाखा-शाखा कैसी ? मोक्ष, आत्मा की वह निद्वन्द्व अवस्था है, जिसकी उपमा विश्व की किसी वस्तु से नहीं दी जा सकती। प्रीति और रुचि
धर्म के लिए अपनी हादिक श्रद्धा अभिव्यक्त करते हुए साधक ने कहा है कि 'मैं धर्म की श्रद्धा करता हूँ, प्रीति करता हूँ, और रुचि करता हूँ।' यहाँ प्रीति और रुचि में क्या अन्तर है ? यह प्रश्न अपना समाधान चाहता है।
समाधान यह है कि ऊपर से कोई अन्तर नहीं मालूम देता. परन्तु अन्तरंग में विशेष अन्तर है। प्रीति का अर्थ प्रेम भरा अाकर्षण
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२४२
श्रमण-सूत्र
है और रुचि का अर्थ है अभिरुचि अर्थात् उत्सुकता। प्राचार्य जिनदास के शब्दों में कहें तो रुचि के लिए 'अभिलाषातिरेकेण प्रासेवनाभिमुखता' कह सकते हैं।
एक मनुष्य को दधि प्रादि वस्तु प्रिय तो होती है, परन्तु कमी किसी विशेष ज्वरादि स्थिति में रुचिकर नहीं होती । अतः सामान्य प्रमाकर्षण को प्रीति कहते हैं, और विशेष प्रेमाकर्षण को अभिरुचि । अस्तु, साधक कहता है 'मैं धम की श्रद्धा करता हूँ ।' श्रद्धा ऊपर मन से भी की जा सकती है अतः कहता है कि मैं धम की प्रीति करता हूँ।' प्रीति होते हुए भी कभी विशेष स्थिति में रुचि नहीं रहती, अतः कहता है कि 'मैं धर्म के प्रति सदाकाल रुचि रखता हूँ।' कितने ही संकट हों, आपत्तियाँ हों, परन्तु सच्चे साधक की धम के प्रति कभी-भी अरुचि नहीं होती। वह जितना ही धर्माराधन करता है, उतनी ही उस पोर रुचि बढ़ती जाती है । धर्माराधन के मार्ग में न सुख बाधक बन सकता है और न दुःख ! दिन रात अविराम गति से हृदय में श्रद्धा, प्रीति और रुचि की ज्योति प्रदीत करता हुआ, साधक, अपने धर्म पथ पर अग्रसर होता रहता है । बीच मञ्जिल में कहीं ठहरना, उसका काम नहीं है । उसकी आँखे यात्रा के अन्तिम लक्ष्य पर लगी रहती हैं । वह वहाँ पहुँच कर ही विश्राम लेगा, पहले नहीं। यह है साधक के मन की अमर श्रद्धाज्योति, जो कभी बुझती नहीं । फासेमि, पालेमि, अशुपालेमि
जैनधर्म केवल श्रद्धा, प्रीति और रुचि पर ही शान्त नहीं होता। उसका वास्तविक लीलाक्षेत्र कर्तव्य-भूमि है । वह कहनी के साथ करनी की रागनी भी गाता है । विश्वास के साथ तदनुकूल आचरण भी होना चाहिए । मन, वाणी और शरीर की एकता ही साधना का प्राण है।
१-"प्रीती रुचिश्च भिन्ने एव, यतः क्वचिद् दम्यादी प्रीतिसद्भावेऽपि न सर्वदा रुचिः। ----श्राचार्य हरिभद्र ।
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२४३
यही कारण है कि साधक श्रद्धा, प्रीति और रुचि से आगे बढ़कर कहता है-"मैं धर्म का स्पर्श करता हूँ, उसे अाचरण के रूप में स्वीकार करता हूँ।" "केवल स्पर्श ही नहीं, मैं प्रत्येक स्थिति में धर्म का पालन करता हूँ-स्वीकृत प्राचार की रक्षा करता हूँ।” “एक-दो बार ही पालन करता हूँ, यह बात नहीं । में धर्म का नित्य निरन्तर पालन करता हूँ, बार-बार पालन करता हूँ, जीवन के हर क्षण में पालन करता हूँ "
प्राचार्य जिनदास 'अणुपालेमि' का एक और अर्थ भी करते हैं कि “पूर्वकाल के सत्पुरुषों द्वारा पालित धर्म का मैं भी उसी प्रकार अनुपालन करता हूँ।" इस अर्थ में परम्परा के अनुसार चलने के लिए पूर्ण दृढ़ता अभिव्यक्त होती है। 'अहवा पुठ्य पुरिसेहिं पालितं अहं पि अणुपालेमित्ति ।'-आवश्यक चूर्णि अन्मुट्टिोमि' ___ यह उपर्युक्त शब्द कितना महत्वपूर्ण है ! साधक प्रतिज्ञा करता है कि "मैं धर्म की श्रद्धा, प्रीति, स्पर्शना, पालना तथा अनुपालना करता हुआ धर्म की आराधना में पूर्ण रूप से अभ्युत्थित होता हूँ और धर्म की विराधना से निवृत्त होता हूँ ।” वाणी में कितना गंभीर, अटल, अचल स्वर गूंज रहा है ! एक-एक अक्षर में धर्माराधन के लिए अखंड सत्साहस की ज्वालाएँ जग रही हैं ! 'अभ्युत्थिोऽस्मि, सन्नद्धोऽस्मि' यह कितना साहस भरा प्रण है !
क्या आप धर्म के प्रति श्रद्धा रखते हैं ? क्या आपकी धर्म के प्रति अभिरुचि है ? क्या आप धर्म का पालन करना चाहते हैं ? यदि हाँ, तो फिर निष्क्रिय क्यों बैठते हैं ? कर्तव्य के क्षेत्र में चुप बैठना, ग्रालसी बन कर पड़े रहना, पाप है । कोई भी साधक निष्क्रिय रह कर जीवन का
१ प्रस्तुत पाठ को 'अब्भुडिअोमि' से खड़े होकर पढ़ने की परम्परा . भो है।
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२४४
श्रमण-सूत्र
उत्थान नहीं कर सकता । अतः प्रत्येक साधक को यह ग्रभर घोषणा करनी ही होगी कि 'भुडियोमि' - 'मैं धर्माराधन के क्षेत्र में दृढ़ता के साथ खड़ा होता हूँ ।'
जैनागमरत्नाकर पूज्य श्रीश्रात्मारामजी महाराज अपने आवश्यक सूत्र में 'सदहंतो, पत्तितो, रोयंती' आदि की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि " उस धर्म की अन्य को श्रद्धा करवाता हूँ, प्रतीति करवाता हूँ, रुचि करवाता हूँ.... • निरन्तर पालन करवाता हूँ ।" कोई भी विचारक देख सकता है कि क्या यह अर्थ ठोक है ? यहाँ दूसरों को धर्म की श्रद्धा यदि कराने का प्रसंग ही क्या है ? किसी भी प्राचीन ग्राचार्य ने यह अर्थ नहीं लिखा है। मालूम होता है यहाँ प्राचार्य जी को प्रेरणार्थक जयन्त प्रयोग की भ्रान्ति हो गई है ! परन्तु वह है नहीं । यहाँ तो स्वयं श्रद्धा आदि करते रहने से तात्पर्य है, दूसरों को कराने से नहीं । ज्ञ-परिज्ञा और प्रत्याख्यान- परिज्ञा
श्रागम साहित्य में दो प्रकार की परिज्ञायों का उल्लेख याता है - एक ज्ञ-परिज्ञा तो दूसरी प्रत्याख्यान- परिक्षा । परिशा का अर्थ हे श्राचरण को स्वरूपतः जानना है और प्रत्याख्यान- परिज्ञा का अर्थ, उसका प्रत्याख्यान करना है-उसको छोड़ना है ! असंयम = प्राणातिपात आदि, अब्रह्मचर्यं = मैथुन वृत्ति, अकल्प = प्रकृत्य, अज्ञान = मिथ्याज्ञान, अक्रिया = सक्रिया, मिथ्यात्व = तत्त्वार्थ श्रद्धान इत्यादि श्रात्म-विरोधी प्रतिकूल ग्राचरण को त्याग कर संयम, ब्रह्मचर्य, कृत्य, सम्यग्ज्ञान, सत्क्रिया, सम्यग्दर्शन यादि को स्वीकार करते हुए. यह आवश्यक है कि पहले संयम यादि का स्वरूप परिज्ञान किया जाय | जब तक यह ही नहीं पता चलेगा कि उनका क्या स्वरूप है ? उनके होने से साधक की क्या हानि है ? उन्हें त्यागने में क्या लाभ है ? तब तक उन्हें त्यागा कैसे जायगा ? विवेकपूर्वक किया हुआ प्रत्याख्यान ही सुप्रत्याख्यान होता है । केवल अन्धपरम्परा से शून्यभावेन प्रत्यायान कर लेने को तो शास्त्रकार कुप्रत्या
संयम यादि क्या हैं ?
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रस्थान कहते हैं। अतः प्रत्याख्यान-परिजा से पहले ज्ञ-परिज्ञा अत्यन्त श्रावश्यक है । अज्ञानी माधक कुछ भी हिताहित नहीं जान सकता। 'अन्नाणी कि काही? किंवा नाही सेयपावगं ।'
अतएव 'असंजम परित्राणामि संजमं उव संपजामि' इत्यादि सूत्रपाट में जो 'परित्राणामि' क्रिया है, उसका अर्थ न केवल जानना है
और न केवल छोड़ना । प्रत्युत सम्मिलित अर्थ है, 'जानकर छोड़ना ।' इसी विचार को ध्यान में रख हमने भावार्थ में लिखा है कि 'असयम को जानता हूँ और त्यागता हूँ' इत्यादि । प्राचार्य जिनदास भी यही कहते हैं-'परियाणामित्ति ज्ञपरिगणया जाणामि, पञ्चक्खाणपरिणया 'पञ्चक्खामि ।' प्राचार्य हरिभद्र भी पडिजाणमि' पाट स्वीकार करके 'प्रतिजानामि' सस्कृत रूप बनाते हैं और उसका अर्थ करते हैं..--'ज्ञ-परिज्ञया विज्ञाय प्रत्याख्यान-परिजया प्रत्यायामीत्यर्थः । श्रद्धय पूज्य श्री अात्मारामजी महाराज ने भी दोनों ही परिज्ञाओं का उल्लेख किया है, जो परम्परासिद्ध एवं तर्कमगत है। परन्तु श्रद्ध य पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी केवल 'त्याग' अर्थ का ही उल्लेख करते हैं। संभव है, आपका ज्ञ-परिज्ञा से परिचय न हो ! अकल्प और कल्प
कल्प का अर्थ याचार है । अतः चरण-करण रूप प्राचार-व्यवहार को अागम की भाषा में कल्प कहा जाता है। इसके विपरीत अकल्प होता है। साधक प्रतिज्ञा करता है कि 'मैं अकल्प == अकृत्य को जानता तथा त्यागता हूँ, और कल्प = कृत्य को स्वीकार करता हूँ।१
पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी महाराज 'अकप्पं परित्राणामि कप 'उवसंपजामि' का अर्थ करते हैं-'अकल्पनीक वस्तु का त्याग करता हूँ, कल्पनीक वस्तु को अंगीकार करता हूँ।' पूज्य श्री के अर्थ से कोई भी
'अकल्पोऽकृत्यमारयायते, कल्पस्तु कृत्यमिति ।-प्राचार्य हरिभद्र ।
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श्रमण सूत्र
विचारक सहमत नहीं हो सकता। यहाँ प्रतिक्रमण किया जा रहा है. अयोग्य याचरण की प्रालोचना के बाद सयम पालन के लिए प्रण किया जा रहा है, फलतः कहा जा रहा है कि मैं असयम आदि की परपरिणति से हट कर संयम आदि की स्वपरिगति में प्राता हूँ, औदयिक भाव का त्याग कर क्षायोपशमिक आदि प्रात्मभाव अपनाता हूँ। भला यहाँ अकल्पनीक वस्तु को छोड़ता हूँ और कल्पनीक वस्तु को ग्रहण करता हूँ--इस प्रतिज्ञा की क्या संगति ?
प्राचार्य जिनदास सामान्यतः कहे हुए एक विध असयम के ही विशेष विवज्ञाभेद से दो भेद करते हैं 'मूल गुण असयन और उत्तर गुण अस यम ।' और फिर अब्रह्म शब्द से मूल गुण असयम का तथा अकल्प शब्द से उत्तर गुण असयम का ग्रहण करते हैं। प्राचार्य श्री के कथनानुसार प्रतिज्ञा का रूप यह होता है-''मैं मूल गुण असंयम का विवेक पूर्वक परित्याग करता हूँ और मूल गुण संयम को स्वीकार करता हूँ। इसी प्रकार उत्तर गुण असंयम को त्यागता हूँ और उत्तर गुण सयम को स्वीकार करता हूँ।" "सो य असंजमो विसेसतो दुविहोमूलगुण असंजमो उत्तरतुणप्रसजमो य । अतो सामण्णण भणिऊण संवेगाद्यर्थ विसेसतो चेव भणति-श्रबंभं० प्रबंभग्गहणेण मूलगुणा भरणंति त्ति एवं"श्रकप्पगहणेण उत्तरगुणत्ति "यावश्यक चूणि । श्रक्रिया और क्रिया
प्राचार्य हरिभद्र, अक्रिया को अज्ञान का ही विशेष भेद मानते हैं अोर क्रिया को सम्यग् ज्ञान का। अतः अपनी दार्शनिक भाषा में आप अक्रिया को नास्तिवाद कहते हैं और क्रिया को सम्यगवाद | "प्रक्रिया नास्तिवादः क्रिया सम्यग्वादः ।” नास्तिवाद का अर्थ लोक, परलोक, धर्म, अधर्म आदि पर विश्वास न रखने वाला नास्तिकवाद है। और सम्यगवाद का अर्थ उक्त सब बातों पर विश्वास रखने वाला अास्तिकवाद है।
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प्रतिज्ञा-सूत्र
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श्राचार्य जिनदास अप्रशस्त = अयोग्य क्रिया को प्रक्रिया कहते हैं और प्रशस्त = योग्य क्रिया को किया । “अप्पसत्था किरिया अकिरिया, इतरा किरिया इति ।" अबोधि और बोधि
जैन साहित्य में अयोधि और बोधि शब्द बड़े ही गंभीर एवं महत्त्वपूर्ण हैं । अबोधि और बोधि का उपरितन शब्दस्पर्शी अर्थ होता है'अज्ञान और ज्ञान ।' परन्तु यहाँ यह अर्थ अभीट नहीं है। यहाँ अबोधि से तात्पर्य है मिथ्यात्व का कार्य, और बोधि से तात्पर्य है सम्यक्त्व का कार्य । आचार्य हरिभद्र, अबोधि एवं बोधि को क्रमशः मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व का अंग मानते हुए कहते हैं---"प्रबोधिः-मिथ्यात्वकार्य, बोधिस्तु सम्यक्त्वस्येति ।” ___ असत्य का दुराग्रह रखना, संसार के कामभोगों में आसक्ति रखना, धर्म की निन्दा करना, प्राणियों के प्रति निर्दय भाव रखना, वीतराग अरिहन्त भगवान् का अवर्णवाद बोलना, इत्यादि मिथ्यात्व के कार्य हैं। सत्य का अाग्रह रखना, संसार के काम भोगों में उदासीन रहना, धर्म के प्रति दृढ़ आस्था रखना, प्राणिमात्र पर प्रेम तथा करुणा का भाव रखना, वीतराग देव के प्रति शुद्ध निष्कपट भक्ति रखना, इत्यादि सम्यक्त्व के कार्य हैं । अबोधि को जानना, त्यागना और बोधि को स्वीकार करना, साधक के लिए परमावश्यक है। __ आगमरत्नाकर पूज्य श्री अात्माराम जी महाराज बोधि का अर्थ सुमार्ग करते हैं । पूज्य श्री अमोलक ऋषि जी महाराज अबोधि का अर्थ 'अतत्वज्ञप्ता' करते हैं और बोधि का अर्थ 'बोधिबीज' । अमागे और मागे
प्रथम असयम के रूप में सामान्यतः विपरीत अाचरण का उल्लेख किया गया था । पश्चात् अब्रह्म अादि में उसी का विशेष रूप से निरूपण होता रहा है। अब अन्त में पुनः सामान्य-रूपेण कहा जा रहा है
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कि "मैं मिथ्याल, अविरति प्रमाद और कपयभाव यादि ग्रमार्ग को विवेक पूर्वक त्यागता हूँ और सम्यक्त्व, विरति, श्रश्माद और कवाय भाव यदि मार्ग को ग्रहण करता हूँ ।"
जं संभरामि, जं च न संभरामि
श्रमण-सूत्र
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भयादि सूत्र की दिग्दर्शन कराया है ।
१
व्याख्या में हमने प्रतिक्रमण के विराट रूप का उसका ग्राशय यह है कि यह मानव जीवन चारों र से दोषाच्छन्न है । सावधानी से चलता हुआ साधक भी कहीं न कहीं भ्रान्त हो ही जाता है। जब तक साधक छेदस्थ हैं, 'घातिकमदय से युक्र है, तब तक नाभोगता किसी न किसी रूप में बनी ही रहती है । यतः एक, दो आदि के रूप में दोनों की क्या गणना ? असंख्य तथा अनन्त असंयम स्थानों में से, पता नहीं, कब कौन सा श्रमयम का दोष लग जाय ? कभी उन दोषों की स्मृति रहती है, कभी नहीं भी रहती है । जिन दोषों की स्मृति रहती है, उनका तो नामोल्लेख पूर्वक प्रतिक्रमण किया जाता है । परन्तु जिनकी स्मृति नहीं है उनका भी प्रतिक्रमण कर्तव्य है । इन्हीं भावनाओं को ध्यान में रखकर प्रतिक्रमण सूत्र की समाप्ति पर श्रमण साधक कहता है कि “जिन दोषों की मुझे स्मृति है, उनका प्रतिक्रमण करता हूँ, और जिन दोषों की स्मृति नहीं भी रही है, उनका भी प्रतिक्रमण करता हूँ ।"
जं पडिक्कमामि, जं च न पडिक्कमामि
'जं संभरामि' श्रादि से लेकर 'जं च न पडिक्कमामि' तक के सूत्रांश का सम्बन्ध ' तस्स सव्वरस देवसियत्स अइयारस्स पडिक्कमामि' से है । तः सबका मिलकर अर्थ होता है जिनका स्मरण करता हूँ, जिनका स्मरण नहीं करता हूँ. जिनका प्रतिक्रमण करता हूँ, जिनका प्रतिक्रमण नहीं करता हूँ, उन सब दैवसिक अतिचारोंका प्रतिक्रमण करता हूँ ।
१ 'घातिककर्मोदयतः खलितमासेवितं पडिक्कमामि मिच्छा दुक्कडादिशा । ' - आवश्यक चूर्णि
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प्रतिज्ञा सूत्र
२४६
प्रश्न है कि जिनका प्रतिक्रमण करता हूँ, फिर भी उनका प्रतिक्रमण करता हूँ-इसका क्या अर्थ ? प्रतिक्रमण का भी प्रतिक्रमण करना कुछ समझ में नहीं पाता ?
प्राचार्य जिनदास ऊपर की शंका का बहुत सुन्दर समाधान करते हैं । ग्राम पडिकमामि का अर्थ परिहामि करते हैं और कहते हैं - 'शारीरिक दुर्बलता अादि किसी विशेष परिस्थितिवश यदि मैंने करने योग्य सत्कार्य छोड़ दिया हो-न किया हो, और न करने योग्य कार्य किया हो तो उम सब अति चार का प्रतिक्रमण करता हूँ।' देखिए यावश्यक चूर्णि "संघयणादि दौर्बल्यादिना जं पडिक्कम मि -परिहरामि करणिज्ज, जं च न पडिकमामि अकरणिज्जं ।” आत्म-समुत्कीर्तन
'समणोऽहं संजय-विरय......"माया मोसविवजिनो' यह सूत्रांश यात्म-समुत्कीर्तनपरक है । "मैं श्रमण हूँ, सयत-विरत-प्रतिहतप्रत्याख्यात पापकर्मा हूँ, अनिदान हूँ, दृष्टिमम्पन्न हूँ, और मायामृपाविवर्जित हूँ"-~यह कितना उदात्त, योजस्वी अन्तर्नाद है ! अपने सदाचार के प्रति कितनी स्वाभिमान पूर्ण गम्भीर वाणी है । सम्भव है किसी को इसमें अहंकार की गन्ध याए ! परन्तु यह अहंकार अप्रशस्त नहीं, प्रशस्त है । अात्मिक दुर्बलता का निराकरण करने के लिए साधक को ऐमा स्वाभिमान सदा सर्वदा ग्राह्य है, अादरणीय है । इतनी उच्च संकल्प भूमि पर पहुँचा हुअा साधक ही यह विचार कर सकता है कि ' 'मैं इतना ऊँचा एवं महान् साधक हूँ, फिर भला अकुशल पापकर्म का आचरण कैसे कर सकता हूँ?' यह है वह यात्माभिमान, जो साधक को पापाचरण से बचाता है, अवश्य बचा है ! यह है वह अात्मसमुत्कीर्तन, जो
1 'एरिसो य हों तो कहं पुण अकुपजमायरिस्सं ?' प्राचार्य जिनदास
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२५०
श्रमण-सूत्र
साधक को धर्माचरण के लिए प्रखर स्फूर्ति देता है, और देता है अच चल ज्ञान चेतना।
आइए, अब कुछ विशेष शब्दों पर विचार कर ले । 'श्रमण' शब्द में साधना के प्रति निरन्तर जागरूकता, सावधानता एवं प्रयत्नशीलता का भाव रहा हुअा है । 'मैं श्रमण हूँ' अर्थात् साधना के लिए कठोर श्रम करने वाला हूँ। मुझे जो कुछ पाना है, अपने श्रम अर्थात् पुरुषार्थ के द्वारा ही पाना है। अतः मैं सबम के लिए अतीत में प्रतिक्षण श्रम करता रहा हूँ। वर्तमान में श्रम कर रहा हूँ और भविष्य में भी श्रम करता रहूँगा । यह है वह विराट याध्यात्मिक श्रम-भावना, जो श्रमग शब्द से ध्वनित होती है। ___ संयत का अर्थ है-'सयम में सम्यक् यतन करने वाला ।' अहिंसा, सत्य यादि कर्तव्यों में साधक को सदेव सम्यक प्रयत्न करते रहना चाहिए। यह सयम की साधना का भावात्मक रूप है । "संजतोसम्म जतो, करणीयेसु जोगेषु सम्यक प्रयत्नपर इत्यर्थः ।"-यावश्यक चूर्णि
विरत का अर्थ है-'सब प्रकार के सावध योगों से विरति= निवृत्ति करने वाला ।' जो संबम की साधना करना चाहता है, उसे असदाचरण रूप समस्त सावध प्रयत्नों से निवृत्त होना ही चाहिए । यह नहीं हो सकता कि एक ओर सयम की साधना करते रहें और दूसरी योर सांसारिक सावध पाप कर्मा में भी संलग्न रहें। सयम और प्रासयम में परस्पर विरोध है । इतना विरोध है कि दोनों तीन काल में भी कभी एकत्र नहीं रह सकते । यह साधना का निषेधात्मक रूप है : 'एगो विरई कुजा, एगो य पवत्तण'-उत्तराध्ययन सूत्र के उक्त कथन के अनुसार असयम में निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करने से ही साधना का वास्तविक रूप स्पष्ट होता है।
प्रतिहत-प्रत्याख्यात पापकर्मा का अर्थ है-'भूतकाल में किए गए पाप कर्मों को निन्दा एवं गर्दा के द्वारा प्रतिहत करने वाला और वर्तमान
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२५१
तथा भविष्य में होने वाले पाप कर्मों को अकरणतारूप प्रत्याख्यान के द्वारा प्रत्याख्यात करने वाला ।' यह विशेषण साधक की कालिक जीवन शुद्धि का प्रतीक है। सच्चा साधक वही साधक है, जो अपने जीवन के तीनों कालों में से अर्थात् भूत, भविष्यत्, वर्तमान में से, पाप कालिमा को धोकर साफ कर देता है । वह न वर्तमान में पाप करता है, न भविष्यत में करेगा और न भूतकाल के पायों को ही जीवन के किसी अंग में लगा रहने देगा । उसे पाप कमों से लड़ना है। केवल वर्तमान में ही नहीं, अपितु भूत और भविष्यत् में भी लड़ना है। साधना का अर्थ ही पाप कर्मों पर त्रिकालविजयी होना है ।
तिहत-प्रत्याव्यातपापकर्मा की व्युत्पत्ति करते हुए प्राचार्य जिनदास लिखते हैं--'पडिहतं अतीतं णि दण-गरहणादीहिं, पञ्चक्खातं सेसं प्रकरणतया पावकम्मं पावाचारं येण स तथा।'
अनिदान का अर्थ होता है--निदान से रहित अर्थात् निदान का परिहार करने वाला। निदान का अर्थ ग्रामक्ति है। साधना के लिए किसी प्रकार की भी भोगासक्ति जहरीला कीड़ा है। कितनी ही बड़ी ऊँची साधना हो, यदि भोगासक्ति है तो वह उसे अन्दर ही अन्दर खोखला कर देती है सड़ा-गला देती है। अतः साधक घोषणा करता है कि "मैं श्रमण हूँ, अनिदान हूँ । न मुझे इस लोक की आसक्ति है, और न परलोक की । न मुझे देवताओं का वैभव ललचा सकता है और न किसी चक्रवर्ती सम्राट का विशाल साम्राज्य ही। इस विराट संसार में मेरी कहीं भी कामना नहीं है । न मुझे दुःख से भय है और न सुख से मोह । अतः मेरा मन न काँटों में उलझ सकता है और न फूलों में। मैं साधक हूँ। अस्तु, मेरा एकमात्र लक्ष्य मेरी अपनी साधना है, अन्य कुछ नहीं । मेरा ध्येय बन्धन नहीं, प्रत्युत बन्धन से मुक्ति है।"
जैन सस्कृति का यह श्रादर्श कितना महत्त्वपूर्ण है ! अनिदान शब्द के द्वारा जैन साधना का ध्येय स्पष्ट हो जाता है। जो साधक अपने लिए कोई सांसारिक निदान सम्बन्धी ध्येय निश्चित करते हैं, वे पथ भ्रष्ट हुए
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રપૂર
श्रमगा-सूत्र
विना नहीं रह सकते। अनिदान साधक ही पथ भ्रष्ट होने से बचते हैं
और स्वीकृत साधना पर दृढ़ रहकर कम बन्धनों से अपने को मुक्त करते हैं।
दृष्टिसम्पन्न का अर्थ है-'सम्यगदर्शन रूप शुद्ध दृष्टि बाला ।' साधक के लिए शुद्ध दृष्टि होना आवश्यक है। यदि भम्यग दर्शन न हो, शुद्ध दृष्टि न हो, तो हिताहित का विवेक कैसे होगा ? धर्माधम का स्वरूप-दशन कैसे होगा ? सम्यग दर्शन ही कर निमल दृष्टि है, जिसके द्वारा संसार को ससार के रूप में, मोन को मोक्ष के रूप में, सौंसार के कारणों को सौंमार के कारणों के रूप में, मोन के कारणों को मोक्ष के कारणों के रूप में, अर्थात् धर्म को धम के रू: में और अधर्म को अधम के रूप में देखा जा सकता है। प्राचार्य जिनदास इसी लिए 'दिहि सम्पन्नो' का अर्थ 'सवगुण मूल भूत गुणयुक्रत्व' करते हैं। 'सम्यग्दर्शन' वस्तुतः सब गुणों का मूलभूत गुण है।
जब तक सम्घा दर्शन का प्रकाश विद्यमान है, तब तक साधक को इधर-उधर भटकने एवं पथ भ्रष्ट होने का कोई भय नहीं है । मिथ्यादर्शन ही साधक को नीचे गिराता है, इधर-उधर के प्रलोभनों में उलझाता है। सम्यग्दर्शन का लक्ष्य जहाँ बन्धन से मुक्ति है, वहाँ मिथ्यादशन का लक्ष्य स्वयं बन्धन है | भोगासक्ति है, ससार है। अतएव श्रमण जब यह कहता है कि मैं दृष्टिसम्पन्न हूँ, तब उसका अभिप्राय यह होता है कि "मैं मिथ्यादृष्टि नहीं हूँ, सम्यग् दृष्टि हूँ। मैं सत्य को सत्य और सत्य को असत्य समझता हूँ मेरे समक्ष ससार एवं मोक्ष का रूप लेकर नहीं आ सकता, बन्धन मोक्ष नहीं हो सकता । मेरी विवेक दृष्टि इतनी पैनी है कि मुझे असयम, सयम का बाना पहन कर, अधर्म, धर्म का रूप बनाकर, धोखा नहीं दे सकता । मैं प्रकाश में विचरण करने के लिए हूँ। में अन्धकार में क्यों भटकूँ और दीवारों से क्यों टकराऊँ ? क्या मेरे आँख नहीं है ? अनंत काल से भटकते हुए इस अंधे ने ग्राँग्ख पा ली है । अतः
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२५३ अब यह नहीं भटकेगा। स्वयं तो क्या भटकेगा, दूसरे अधों को भी भटकने से बचाएगा । सम्यग्दर्शन का प्रकाश ही ऐसा है।"
माया-मृा-विवर्जित का अर्थ है-- मायामृग से रहित ।' मायामृषा साधक के लिए बड़ा ही भयंकर पाप है। जैन धर्म में इसे शल्प कहा है । यह साधक के जीवन में यदि एक बार भी प्रवेश कर लेता है तो फिर वह कहीं का नहीं रहता। भूल को छुपाने की वृत्ति पिछले पापों को भी साफ नहीं होने देती पार पागे के लिए अधिकाधिक पापों को निमत्रण देती है । जो साधक झूठ बोल सकता है, झूठ भी वह, जिसके गर्भ में माया रही हुई हो, भला वह क्या साधना करेगा ? माया मृवावादी, साधक नहीं होता, ठग होता है । वह धर्म के नाम पर अधर्म करता है, धर्म का ढोंग रचता है ।
यह प्रतिक्रमण-सूत्र है। अतः प्रतिक्रमणकर्ता साधक कहता है कि "में श्रमण हूँ। मैंने माया यार मृपावाद का मार्ग छोड़ दिया है। मेरे मन में छुपाने जैसी कोई बात नहीं है। मेरी जीवन-पुस्तक का हरएक पृट खुला है, कोई भी उसे पढ़ सकता है। मैंने साधना पथ पर चलते हुए जो भूले की हैं, गलतियाँ की हैं, मैंने उनको छुपाया नहीं है । जो कुछ दोष थे, साफ-साफ कह दिए हैं । भविष्य में भी में ऐसा ही रहूँगा। पाप छुपना चाहता है, में उसे छुपने नहीं दूं गा । पाप सत्य से चुंधियाता है, अतः असत्य का अाश्रय लेता है, माया के अन्धकार में छुपता है । परन्तु मैं इस सम्बन्ध में बड़ा कठोर हूँ, निर्दय हूँ । न मैं पिछले पायों को छुपने दूंगा, ओर न भविष्य के पानी को । पार पाते हैं माया के द्वार से, मृपावाद के द्वार से । श्रार मैंने इन द्वारों को बंद कर दिया है । अब भविष्य में पाप पाएँ तो किधर से पाएँ ? पिछले पाप भी मायामृषा के प्राश्रय में ही रहते हैं । अस्तु ज्यों ही में भगवान् सत्य के आगे खड़ा होकर पापों की अालोचना करता हूँ, त्यों ही बस पापों में भगदड़ मचजाती है। क्या मजाल, जो एक भी खड़ा रह जाय !" यह है वह उदात्त भावना, जो मायामृपा-विवर्जित की पृष्ट भूमि में रही हुई है ।
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श्रमण सूत्र
सहयात्रियों को नमस्कार
प्रस्तुत प्रतिज्ञा सूत्र के प्रारंभ में मोक्षमार्ग के उपदेष्टा धर्म तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया था। उस नमस्कार में गुणों के प्रति बहुमान था, कृतज्ञता की अभिव्यक्ति थी, परिणामविशुद्धि का स्थिरीकरणत्व था, और था सम्यग्दर्शन की शुद्धि का भाव, नवोन अाध्यात्मिक स्फूर्ति एवं चेतना का भाव । अब प्रस्तुत नमस्कार में, उन सहयात्रियों को नमस्कार किया गया है, जो साधु और साध्वी के रूप में साधनाथ पर चल रहे हैं, सयम की नाराधना कर रहे हैं, एवं बन्धनमुक्ति के लिए प्रयत्नशील हैं । यह नमस्कार सुकृतानुमोदन-रूप है, साथियों के प्रति बहुमान का प्रदर्शन है । पूर्व नमस्कार साधक से सिद्ध पर पहुंचे हुओं को था, अतः वह सहज भाव से किया जा सकता है। परन्तु अपने जैसे ही साथी यात्रियों को नमस्कार करना सहज नहीं है । यहाँ अभिमान से मुक्ति प्राप्त हुए. विना नमस्कार नहीं हो सकता ।
जैन धर्म विनय का धर्म है, गुणपक्षपाती धर्म है। यहाँ और कुछ नहीं पूछा जाता, केवल गुण पूछा जाता है । सिद्ध हों अथवा साधक हों, कोई भी हो, गुणों के सामने झुक जायो, बहुमान करो-यह है हमारा चिरन्तन आदर्श ! सयमक्षेत्र के सभी छोटे-बड़े साधक, फिर वे भले ही पुरुष हों-स्त्री हों, सब नमस्करणीय हैं. अादरणीय हैं,यह भाव है प्रस्तुत नमस्कार का । अपने महधर्मियों के प्रति कितना अधिक विनम्र रहना चाहिए, यह अाज के संप्रदायवादी साधुओं को सीखने जैसी चीज है ! आज की साधुता अपने संप्रदाय में है, अपनी बाड़ाबंदी में है । अतः साधुता को किया जाने वाला विराट नमस्कार भी संप्रदायवाद के क्षुद्र घेरे में अवरुद्ध हो जाता है। समस्त मानवक्षेत्र के साधकों को नमस्कार का विधान करने वाला विराट धम, इतना खुद हृदय भी बन सकता है ? आश्चर्य है !
जम्बू द्वीप, धातकी खण्ड और अर्ध पुष्कर द्वीप तथा लवण एवं कालोदधि समुद्र---यह अढाई द्वीपसमुद्र-परिमित मानव क्षेत्र है। श्रमण
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२५५
धर्म की साधना का यही क्षेत्र माना जाता है । अागे के क्षेत्रों में न मनुष्य हैं और न श्रमणधम की साधना है। अस्तु, अन्तिम दो गाथाओं में अधाई द्वीप के मानव क्षेत्र में जो भी साधु-साध्वी हैं, सबको मस्तक झुकाकर वन्दन किया गया है ।
प्रथम गाथा में रजोहरण, गोच्छक एवं प्रतिग्रह = पात्र अादि द्रव्य साधु के चिह्न बताए हैं । और आगे की गाथा में पाँच महाव्रत श्रादि भाव साधु के गुण कहे गए हैं । जो द्रव्य और भाव दोनों दृष्टियों से साधुता की मर्यादा से युक्त हों, वे सब वन्दनीय मुनि हैं । द्रव्य के बाद भाव का उल्लेख, भाव साधुता का महत्त्व बताने के लिए है । द्रव्य साधुता न हो और केवल भावसाधुता हो, तब भी वह वन्दनीय है; परन्तु भाव के बिना केवल द्रव्य-साधुता कथमपि वन्दनीय नहीं हो सकती । अठारह ह्नार शील अंगों की व्याख्या के लिए अवतरणिका उठाते हुए प्राचार्य हरिभद्र यही सूचना करते हैं कि-"एकाङ्ग विकलप्रत्येक बुद्धादिसंग्रहाय अष्टादशशील सहस्रधारिणः, तथाहि केचिद् मगवन्तो रजोहरणादिधारिणो न भवन्त्यपि ।" अट्ठारह हजार-शोल
'शील' का अर्थ 'याचार' है । भेदानुभेद की दृष्टि से याचार के अठारह हजार प्रकार होते हैं। क्षमा, निर्लोभता, सरलता, मृदुता, लाधव, सत्य, सयम, तप, त्याग और ब्रहाचर्य-~~यह दश प्रकार का श्रमण-धर्म है। दशविध श्रमण धर्म के धर्ता मुनि, पाँच स्थावर, चार त्रस और एक अजीव---इस प्रकार दश की विराधना नहीं करते ।
अस्तु, दशविध श्रमण धर्म को पृथ्वी काय आदि दश की अविराधना से गुणन करने पर १०० भेद हो जाते हैं। पांच इन्द्रियों के वश में पड़कर ही मानव पृथिवी काय आदि दश की विराधना करता है; अतः सो को पाँच इन्द्रियों के विजय से गुणन करने पर ५०० भेद होते हैं । पुनः आहार, भय, मैथुन और परिग्रह-उक्त चार सज्ञात्रों के निरोध से पूर्वोक्त पांच सौ भेों को गुण न करने से दो हजार भेद होते हैं। दो हजार
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श्रमण-सूत्र
को ' मन, वचन और काय उक्त तीन दण्डों के निरोध से तीन गुणा करने पर छह हजार भेद होते हैं । पुनः छह हजार को करना, कराना
और अनुमोदन उक्त तीनों से गुणन होने पर कुल अठारह हजार शील के भेद होते हैं । प्राचार्य हरिभद्र इस सम्बन्ध में एक प्राचीन गाथा उद्धृत करते हैं
जो ए करणे सन्ना,
इंदिय भोमाइ समण धम्म य । सीलंग-सहस्साणं,
अड्ढार सगस्स निफत्ती॥ शिरसा, मनसा, मस्तकेन
प्रस्तुत सूत्र में 'सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि' पाट याता है, इसका अर्थ है 'शिर से, मन से और मस्तक से वन्दना करता हूँ।' प्रश्न होता है कि शिर ओर मस्तक तो एक ही हैं, फिर यह पुनरुक्ति क्यों ? उत्तर में निवेदन है कि-शिर, समस्त शरीर में मुख्य है। अतः शिर से वन्दन करने का अभिप्राय है-शरीर से वन्दन करना । मन अन्तः करण है, अतः यह मानसिक वन्दना का द्योतक है। 'मत्थाएण' वंदामि का अर्थ है-'मस्तक झुकाकर वन्दना करता हूँ, यह वाचिक वन्दना का रूप है। अस्तु मानसिक वाचिक और कायिक त्रिविध वन्दना का स्वरूप निर्देश होने से पुनरुक्ति दोष नहीं है । __ प्रस्तुत पाठ के उक्त ग्रंश की अर्थात् 'तेसव्वे सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि' की व्याख्या करते हुए प्राचार्य जिनदास भी यही स्पष्टीकरण करते हैं-"ते इति साधवः, सव्वेत्ति गच्छनिग्गत गच्छवासी
१-श्राचार्य हरिभद्र कृत, कारितादि करण से पहले गुणन करते हैं, और मन वचन आदि योग से बाद में ।
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प्रतिज्ञा-सूत्र
२५७
पत्तेय बुद्धादयो । सिरसा इति कायजोगेण मत्यपुरा वंदामित्ति एस
एव वइजोगो ।"
,
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पाठान्तर
...,
प्रस्तुत पाठ का अन्तिम अंश 'अंडढाइजे सु श्रादि को कुछ आचार्य गाथा के रूप में लिखते हैं और कुछ गद्यरूप में | कुछ जावन्त कहते हैं और कुछ जावन्ति । 'पडिंग्गहं धारा' आदि में प्राचार्य जिनदास सर्वत्र 'धरा' का प्रयोग करते हैं और आचार्य हरिभद्र आदि 'धारा' का । श्राचार्य हरिभद्र 'अड्ढार सहस्स सीलंग धारा' लिखते हैं और श्राचार्य जिनदास 'अट्ठारस सीलंग - सहस्सधरा । कुछ प्रतियों में रथवाचक रह शब्द बढ़ाकर ' अड्डार सहस्स सीलिंग रह धारा' भी लिखा मिलता है । आचार्य जिनदास ने आवश्यक - चूर्ण में अपने समय के कुछ और भी पाठान्तरों का उल्लेख किया है - " केइ पुण समुद्दपदं गोच्छ पडिंग्गहपदं चं न पुढंति, अण्णे पुण श्रड्ढाइजेसु दोसु दीवसमुद्देसु पढंति, एत्थ विभासा कातव्वा ।"
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क्षामणा-सूत्र
आयरिय - उवज्झाए,
सीसे साहम्मिए. कुलगणे अ। जे मे केइ कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि ॥
(२) सव्यस्त समणसंघस्स,
भगवो अंजलि करित्र सीसे। सव्यं खमावइत्ता,
खमामि सव्यस्स अहयं पि॥
खामेमि सव्वजीवे,
सव्वे जीवा खमंतु मे। मेत्ती मे सधभूएसु,'
वरं मझ न केणइ ॥ १ सव्व जीवेसु, इति जिनदास महत्तराः ।
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क्षामणा-सूत्र
२५६ शब्दार्थ
सव्वं = सब अपराध को पायरिय = श्राचार्य पर
खमावइत्ता-क्षमा कराकर उवज्झाए = उपाध्याय पर अयपि = मैं भी सीसे-शिष्य पर
सव्यस्त = (उनके) सब अपराध को साहम्मिए = सार्मिक पर खमामि = क्षमा करता हूँ। कुल-कुल पर गणे = गण पर
सव्व सब मे = मैंने
जीवे =जीवों को जे-जो
खामेमि = क्षमा करता हूँ केह= कोई
सव्वे सब कसाया = कषाय किए हों
जीवा=जीव सव्वे-उन सबको तिविहेण = त्रिविध रूप से खामेमि= खिमाता हूँ।
खमतु-तमा करें
सव्वभूएसु-सब जीवों पर सीसे =शिर पर
मे-मेरी अंजलिं = अञ्जलि
मेत्ती = मित्रता है करित्र करके
केणइ% किसी के साथ भगवनो-पूज्य
मज्झ= मेरा सव्वस्स = सब
वेरं = वैरभाव समण सघस्स-श्रमण संघ से न% नहीं है।
(अपने)
भावार्थ श्राचार्य, उपाध्याय. शिष्य, साधर्मिक कुल और गण, इनके ऊपर मैंने जो कुछ भी कषाय भाव किए हों, उन सब दुराचरणों की मैं मन, वचन और काय से क्षमा चाहता हूँ॥१॥
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२६०.
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श्रमण-सूत्र
अञ्जलिबद्ध दोनों हाथ जोड़कर समस्त पूज्य मुनिसंघ से मैं अपने सब अपराधों की क्षमा चाहता हूँ और मैं भी उनके प्रति क्षमाभाव करता हूँ || २ ||
मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ और वे सब जीव भी मुझे क्षमा करें । मेरी सब जीवों के साथ पूर्ण मैत्री = मित्रता है; किसी के साथ भी मेरा वैर-विरोध नहीं है ॥ ३ ॥
विवेचन
क्षमा, मनुष्य की सब से बड़ी शक्ति है । मनुष्य की मनुष्यता के पूर्ण दर्शन भगवती क्षमा में ही होते हैं । वह मनुष्य क्या, जो जरा-जरासी बात पर उचल पड़ता हो, लड़ाई-झगड़ा ठानता हो, वैर-विरोध करता हो ? उसमें और पशु में एक आकृति के सिवा और कौन-सा अन्तर रह जाता है ? वैर-विरोध की, क्रोध-द्वेष की वह भयंकर अग्नि है, जो अपने और दूसरों के सभी सद्गुणों को भस्म कर डालती है । क्षमाहीन मनुष्य का शरीर एड़ी से चोटी तक प्रचण्ड क्रोधाग्नि से जल उठता है, नेत्र आग्नेय बन जाते हैं, रक्त गर्म पानी की तरह खौलने लगता है ।
C
क्षमा का अर्थ है- - 'सहनशीलता रखना । किसी के किए अपराध को अन्तहृदय से भी भूल जाना, दूसरों के अनुचित व्यवहार की ओर कुछ भी लक्ष्य न देना; प्रत्युत अपराधी पर अनुराग और प्रेम का मधुर भाव रखना, क्षमा धर्म की उत्कृष्ट विशेषता है । क्षमा के विना. मानवता नप ही नहीं सकती ।
हिंसा मूर्ति क्षमावीर न स्वयं किसी का शत्रु है और न कोई उसका शत्रु है; न उससे किसी को भय है और न उसको किसी से भय है " यस्मान्नोद्विजते लोको लोकानोद्विजते च यः ।" वह जहाँ कहीं भी रहेगा, प्रेम और स्नेह की साक्षात् मूर्ति बन कर रहेगा । उसके मधुर हास्य में विलक्षण शक्ति का आभास मिलेगा । श्रीयुत शिवव्रतलाल वर्मन के. शब्दों में---" जैसे सूर्य मण्डल से चारों ओर शुभ्र ज्योति की वर्षा होती रहती
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क्षामणा-सूत्र
२६१
है, वैसे ही उससे, उसके स्वरूप से, उसकी छाया से और उसकी साँस-साँस से दशों दिशाओं में प्रानन्द, मगल और सुख शान्ति की अमृत धाराएँ हर समय प्रवाहित होती रहती हैं एवं संसार को, स्वर्ग-सदृश बनाती रहती हैं।"
जैन-धर्म, आज के धामिक जगत में क्षमा का सबसे बड़ा पक्षपाती है। जैन धर्म को यदि क्षमा-धर्म कहा जाय तो यह सत्य का अधिक स्पष्टीकरण होगा। जैनों का प्रत्येक पर्व = उत्सव क्षमा धर्म से श्रोत प्रोत है । जैन धर्म का कहना है कि तुम अपने विरोधी के प्रति भी उदार, सहृदय, शान्त बनो। भूल हो जाना मनुष्य का प्रमाद-जन्य स्वभाव है; अतः किसी के अपराध को गाँठ बाँध कर हृदय में रखना, धार्मिक मनोवृत्ति, नहीं है । जैन धर्म की साधना में अहोरात्र में दो बार सायंकाल और प्रातः काल- प्रत्येक प्राणी से क्षमा माँगनी होती है। चाहे किसी ने तुम्हारा अपराध किया हो, अथवा तुमने किसी का अपराध किया हो; विशुद्ध हृदय से स्वयं क्षमा करो और दूसरों से क्षमा करायो । न तुम्हारे हृदय में द्वष की ज्वाला रहे और न दूसरे के हृदय में, यह कितना सुन्दर स्नेह पूर्ण जीवन होगा!
क्षमा के विना कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती। उग्र से उग्र क्रिया काण्ड, दीर्घ से दीर्घ तपश्चरण, क्षमा के अभाव में केवल देहदण्ड ही होता है; उससे अात्मकल्याण तनिक भी नहीं हो सकता । ईसामसीह ने भी एक बार कहा था--"तुम अपनी आहुति चढ़ाने देव मन्दिर में जाते हो और वहाँ द्वार पर पहुँच कर यदि तुम्हें याद आ जाय कि तुम्हारा अमुक पड़ौसी से मन मुटाव है तो तुम आहुति वहीं देवमन्दिर के द्वार पर छोड़ो और वापस जाकर अपने पड़ौसी से क्षमा माँगो । पड़ौसी से मैत्री करने के बाद ही देवता को भेट चढ़ानी चाहिए।" कितना ऊँचा एवं भव्य आदर्श है ? जब तक हृदय क्षमा-भाव से कोमल न हो जाय, तब तक उसमें धर्म कल्पतरु का मृदु अंकुर किस प्रकार अंकुरित हो सकता है ?
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श्रम-सूत्र
प्रतिक्रमण की समाति पर प्रस्तुत क्षामणासूत्र पढ़ते समय जब साधक दोनों हाथ जोड़कर क्षमा याचना करने के लिए खड़ा होता है, तब कितना सुन्दर शान्ति का दृश्य होता है ? अपने चारों ओर अवस्थित संसार के समस्त छोटे-बड़े प्राणियों से गद्गद् होकर क्षमा माँगता हुया साधक, वस्तुतः मानवता की सर्वोत्कृष्ट भूमिका पर पहुँच जाता है। कितनी नम्रता है ? गुरु जनों से तो क्षमा माँगता ही है, किन्तु अपने से छोटे शिष्य आदि से भी क्षमायाचना करता है । उस समय उसके हृदय से छोटे-बड़े का भेद विलुप्त हो जाता है और अखिल विश्व मित्र के रूप में आँखों के सामने उपस्थित हो जाता है। इस प्रकार क्षमायाचना की साधना से अपराधों के सस्कार जाते रहते हैं, और मन पापों के भार से सहसा हलका हो जाता है । क्षमा से हमारे अहंभाव का नाश होता है और हृदय में उदार भावना का प्राध्यात्मिक पुष्प खिल उठता है । अपने हृदय को निर्वैर बना लेना ही क्षमापना का उद्देश्य है । हमारी क्षमा में विश्वमैत्री का अादर्श रहा हुआ है। और यह विश्व-मैत्री हा जैन-धर्म का प्राण है।
करुणामूर्ति भगवान् महावीर, क्षमा पर अत्यधिक बल देते हैं । भगवान् की क्षमा का श्रादर्श है कि तुमने दूसरे के हृदय को किसी भी प्रकार की चोट पहुँचाई हो, दूसरे के हृदय में किसी भी प्रकार की कलुषता उत्पन्न की हो, अथवा दूसरे की अोर से अपने हृदय में वैरविरोध एवं कलुषता के भाव पैदा किए हों, तो उक्त वैर-विरोध तथा कलुषता को क्षमा के आदान प्रदान द्वारा तुरन्त धोकर साफ कर दो। वैरविरोध की कालिमा को जरा-सी देर के लिए भी हृदय में न रहने दो। बृहत्कल्पसूत्र में भगवान महावीर का श्रमसंघ के प्रति गंभीर एवं ममस्वी सन्देश है कि-''यदि श्रमणसौंध में किसी से किसी प्रकार का कलह हो जाय तो जब तक परस्पर क्षमा न माँग ले तब तक अाहार पानी लेने नहीं जा सकते, शौच नहीं जा सकते, स्वाध्याय भी नहीं कर सकते।" क्षमा के लिए कितना कठोर अनुशासन है । अाज के कलह-प्रिय साधु,
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क्षामणा-सूत्र
२६३
जरा इस अोर लक्ष्य दे तो श्रमण-संघ का कितना अधिक अभ्युदय एवं श्रात्म-कल्याण हो ।
क्षमा प्रार्थना करते समय अपने आपको इस प्रकार उदात्त एवं मधुर भावना में रखना चाहिए कि-हे विश्व के समस्त त्रस स्थावर जीवो ! हम तुम सब श्रात्म-दृष्टि से एक ही हैं, समान ही हैं । यह जो कुछ भी बाह्य विरोधता है, विषमता है, वह सब कम जन्य है, स्वरूपतः नहीं । बाह्य भेदों को लेकर क्यों हम परस्पर एक दूसरे के प्रति द्वेष, घृणा, अपमान तथा वैर-विरोध करें। हम सब को तो सदा सर्वदा भ्रातृभाव एवं स्नेहभाव ही रखना चाहिए । अनादिकाल से परिभ्रमण करते हुए मैं तुम्हारे सौंसर्ग में अनन्त बार आया हूँ और उस ससर्ग में स्वार्थ से, क्रोध से, अविचार से, अहंकार से, द्वष से, किसी भी प्रकार से किसी भी प्रकार की मानसिक, वाचिक तथा कायिक पीड़ा पहुँचाई हो तो उसके लिए अन्तःकरण से क्षमायाचना करता हूँ। मेरी हृदय से यही भावना हैशिवमस्तु सर्व - जगतः,
पर-हित-निरता भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं,
सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥ प्रश्न है कि 'सव्वे जीवा खमंतु' क्यों कहा जाता है ? सब जीव मुझे क्षमा करे, इसका क्या अभिप्राय है ? वे क्षमा करें या न करें, हमें इससे क्या ? हमें तो अपनी ओर से क्षमा माँग लेनी चाहिए । __समाधान है कि प्रस्तुत पाठ में करुणा का अपार सागर तरंगित हो रहा है। कौन जीव कहाँ है ? कौन क्षमा कर रहा है कौन नहीं ? कुछ पता नहीं । फिर भी अपने हृदय की करुणा भावना है कि मुझे सब जीव क्षमा करदे । क्षमा करदे तो उनकी आत्मा भी क्रोधनिमित्तक कम बन्ध से
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श्रमण-सूत्र
मुक्त हो जाय ! 'मा तेषामपि अशान्तिप्रत्ययः कमबन्धो भवतु, इति करुणयेदमाह'-प्राचार्य हरिभद्र ।
प्राचार्य जिनदास और हरिभद्र ने क्षामणा-सूत्र में केवल एक ही 'खामेमि सव्वजीवे' की गाथा का उल्लेख किया है। परन्तु कुछ हस्तलिखित प्रतियों में प्रारम्भ की दो गाथाएँ अधिक मिलती हैं | गाथाएँ अतीव सुन्दर हैं, अतः हम उन्हें मूल पाठ के रूप में देने का लोभ सवरण नहीं कर सके।
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उपसंहार-सूत्र एवमहं आलोइन,
निदिय गरहिअ दुगुछिसम्म । तिविहण पडिक्कतो, वंदामि जिणे चउब्धीसं ॥
शब्दार्थ एवं इस प्रकार
तिविहेण = तीन प्रकार से अहं = मैं
पडिक्कतो=पाप कर्म से निवृत्त सम्म = अच्छी तरह बालोइअालोचना करके चउव्वीस = चौबीस निंदिय=निन्दा करके
जिणे = जिन देवों को गरहिअ = गर्दा करके
वंदामि= वन्दना करता हूँ दुगुछिउं= जुगुप्सा करके
भावार्थ इस प्रकार मैं सम्यक आलोचना, निन्दा, गर्हा और जुगुप्सा के द्वार। तीन प्रकार से अर्थात् मन, वचन और काय से प्रतिक्रमण कर = पापों से निवृत्त होकर चौबीस तीर्थंकर देवों को वन्दन करता हूँ।
होकर
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२६६
श्रमण सूत्र
विवेचन यह उपस हार-सूत्र है । प्रतिक्रमण के द्वारा जीवन-शुद्धि का माग प्रशस्त हो जाने से प्रात्मा अाध्यात्मिक अभ्युदय के शिखर पर श्रारूढ़ हो जाता है । जब तक हम अपने जीवन का सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण नहीं करेंगे, अपनी भूलों के प्रति पाश्चात्ताप नहीं करेंगे, भविष्य के लिए सदाचार के प्रति अचल संकल्प नहीं करेंगे; तब तक हम मानव जीवन में कदापि आध्यात्मिक उत्थान नहीं कर सकेगे । हमारे पतन के बीज, भूलों के प्रति उपेक्षाभाव रखने में रहे हुए हैं।
भूलों के प्रति पश्चात्ताप का नाम जैन परिभाषा में प्रतिक्रमण है । यह प्रतिक्रमण मन, वचन और शरीर तीनों के द्वारा किया जाता है । मानव के पास तीन ही शक्तियाँ ऐसी हैं जो उसे बन्धन में डालती हैं और बन्धन से मुक्त भी करती हैं। मन, वचन और शरीर से बाँधे गए पार मन, वचन और शरीर के द्वारा ही क्षीण एवं नट भी होते हैं। राग-द्वेष से दूषित मन, वचन और शरीर बन्धन के लिए होते हैं, और ये ही वीतराग परिणति के द्वारा कर्म बन्धनों से सदा के लिए मुक्ति भी प्रदान करते हैं।
अालोचना का भाव अतीव गंभीर है। निशीथ चूर्णिकार जिनदास गणि कहते हैं कि-"जिस प्रकार अपनी भूलों को, अपनी बुराइयों को तुम स्वयं स्पष्टता के साथ जानते हो, उसी प्रकार सष्टतापूर्वक कुछ भी न छुपाते हुए गुरुदेव के समक्ष ज्यों-का त्यों प्रकट कर देना बालोचना है।" यह आलोचना करना, मानापमान की दुनिया में घूमने वाले साधारण मानव का काम नहीं है । जो साधक दृढ़ होगा, आत्मार्थी होगा, जीवन शुद्धि की ही चिन्ता रखता होगा, वही आलोचना के इस दुर्गम पथ पर अग्रसर हो सकता है।
निन्दा का अर्थ है-अात्म साक्षी से अपने मन में अपने पापों की निन्दा करना । गर्दा का अर्थ है-घर की साक्षी से अपने पापों की बुराई करना । जुगु-सा का अर्थ है-~यापों के प्रति पूर्ण घृणा भाव व्यक्त करना ।
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उपस हार-सूत्र
२६७
जब तक पापाचार के प्रति घृणा न हो, तब तक मनुष्य उससे बच नहीं सकता । पापाचार के प्रति उत्कट घृणा रखना ही पापों से बचने का एक मात्र अस्खलित मार्ग है । अतः अालोचना, निन्दा, गर्हा और जुगुप्सा के द्वारा किया जाने वाला प्रतिक्रमण ही सच्चा प्रतिक्रमण है।
प्राचार्य जिनदास प्रस्तुत उपस हार सूत्र में एवं के बाद 'अहं' का उल्लेख नहीं करते । अोर बालोइय, निन्दिय अादि में क्त्वा प्रत्यय भी नहीं मानते, जिसका अर्थ 'करके' किया जाता है । जैसे आलोचना करके, निन्दा करके इत्यादि । प्राचार्य श्री इन सब पदों को निष्ठान्त मानते हैं, फलतः उनके उल्लेखानुसार अर्थ होता है-मैंने अालोचना की है, निन्दा की है, गर्दी की है इत्यादि । दुगुछा का अर्थ भी स्वतंत्र नहीं करते । अपितु अालोचना, निन्दा और गर्दा को ही दुगुछा कहते हैं । देखिए अावश्यक चूर्णि प्रतिक्रमणाधिकार :
"एवमित्ति अनेन प्रकारेण पालोइयं पयासितूणं गुरूणं कहितं, निन्दियं मणेण पच्छातावो । गरहितं वइजोगेण । एवं आलोइयनिंदियगरहियमेव दुगुंछितं । एवं तिवहेण जोगेण पडिक्यतो वंदामि चउव्वीसं ति ।"
अन्त में चौबीस तीर्थकरों को नमस्कार मंगलार्थक है । प्रतिक्रमण के द्वारा शुद हुअा साधक अन्त में अपने को तीर्थंकरों की शरण में अर्पण करता है और अनर्जलम के रूप में मानो कहता है कि-"भगवन् ! मैंने श्रापकी आज्ञानुसार प्रतिक्रमण कर लिया है । आपकी साक्षी से विना कुछ छुपाए पूर्ण निष्कपट भाव से पालोचना, निन्दा, गर्दा कर के शुद्ध हो गया हूँ । अब मैं आपके पवित्र चरणों में वन्दन करने का अधिकारी हूँ। आप अन्तर्यामी हैं । घट-घट की जानते हैं । आपसे मेरा कुछ छुपा हुया नहीं है । अब मैं आपकी देख-रेख में भविष्य के लिए पवित्र सयम पथ पर चलने का दृढ़ प्रयत्न करूंगा।'
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परिशिष्ट
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र इच्छामि खमासमणो ! बंदिउ, जावणिज्जार निसीहियाए । अणुजाणह मे मिउग्गहं । निसीहि, अहोकायं काय-संफासं। खमणिज्जो भे किलामो। अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कतो ? जत्ता भे? जवणिज्जं च भे? खामेमि खमासमणो ! देवसियं वइक्कम । आवस्सिार पडिक्कमामिखमासमणाणं देवसियाए आसायणाएं तित्तीसन्नयराए, जं किंचि मिच्छाए, मणदुक्कडाए, वयदुक्कडाए, कायदुक्कडाए,
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२७१ कोहाए, माणाए, मायाए, लोभाए, सव्वकालियाए, सव्वमिच्छोक्याराए, सव्वधम्माइक्कमणाए, अासायणाएजो मे अइयारो करो, तस्स खमासमणो! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि !
शब्दार्थ [वन्दना की आज्ञा ] अहोकायं = (आपके) चरणों का खमासमणो= हे क्षमाश्रमण ! कायसं फास = अपनी काय से जावणिजाए = यथा शक्रियुक्त
मस्तक से या हाथ निसीहियाए = पाप क्रिया से निवृत्त
से स्पर्श करता हूँ] हुए शरीर से भे= मेरे छूने से) श्रापको वंदिउँ%=(श्रापको) वन्दना करना किलामो= जो बाधा हुई, वह इच्छामि = चाहता हूँ
खमणिजो-चन्तव्य-क्षमा के योग्य है [अवग्रह प्रवेश की श्राज्ञा] [कायिक कुशल की पृच्छा] मे= (अतः) मुझको
अप्पकिलंताणं = अल्प ग्लान वाले मिउग्गह = परिमित अवग्रह की, भे-आपश्री का
अर्थात् अवग्रह में कुछ बहुसुभेण = बहुत श्रानन्द से
सीमा तक प्रवेश करने की दिवसो = श्राज का दिन अणुजाणह = आज्ञा दीजिए वइक्कतो = बीता? [गुरु की अोर से आज्ञा होने पर [सयमयात्रा की पृच्छा ] गुरु के समीप बैठकर
भे= श्रापकी निसीहि = अशुभ क्रिया को रोककर जत्ता = संयमयात्रा (निर्बाध है ?)
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२७२
श्रमण-सूत्र
[यापनीय की पृच्छा ] मण दुक्कडाए = दुष्ट मन से की हुई च - और
वयदुक्कडाए- दुष्ट वचन से की हुई भे= श्रापका शरीर
कायदुक्कडाए = शरीर की दुश्चेष्टाओं जवणिज्जमन तथा इन्द्रियों
से की हुई की पीड़ा से रहित है? कोहाए = क्रोध से की हुई [ गुरु की ओर से एवं कहने पर माणाए =मान से की हुई स्वापराधों की क्षमायाचना] मायाए =माया से की हुई खमासमणो = हे क्षमाश्रमण ! लोभाए = लोभ से की हुई देवसियं=( मैं ) दिवस सम्बन्धी सव्यकालियाए = सब काल में की वइक्कम = अपने अपराध को खामेमि = खिमाता हूँ
सव्वमिच्छोक्याराए-सब प्रकार के आवस्सियाए. = चरण-करण रूप
मिथ्या भावोंसे पूर्ण आवश्यक क्रिया सव्वधम्माइक्कमणाए = सब धर्मों करने में जो भी विप. क्लो उल्लंघन करने वाली रीत अनुष्ठान हुआ पासायणाए = पाशातना से
हो उससे जे-जो भी पडिकमामि = निवृत्त होता हूँ मे= मैंने
[ विशेष स्पष्टीकरण] अइयारो= अतिचार खमासमाणा- श्राप क्षमा श्रमण कयो= किया हो
तस्स = उसका देवसियाए = दिवस सम्बन्धिनी पडिकमामि= प्रतिक्रमण करता हूँ तित्तीसन्नयराए-तेतीस में से किसी निन्दामि = उसकी निन्दा करता हूँ भी
गरिहामि= विशेष निन्दा करता हूँ आसायणाए - अाशातना के द्वारा अप्पाणं-बाशातनाकारी अतीत [अाशातना के प्रकार ]
श्रात्मा का जं किंचि = जिस किसी भी वोसिरामि= पूर्ण रूप से परित्याग मिच्छाए = मिथ्या भाव से की हुई
करता हूँ
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र भावार्थ
[१. इच्छा निवेदन स्थान ]
..हे क्षमाश्रमण गुरुदेव ! मैं पाप प्रवृत्ति से अलग हटाए हुए अपने शरीर के द्वारा यथाशकि आपको वन्दन करना चाहता हूँ ।
[ २. अनुज्ञापना स्थान ]
=
श्रतएव मुझको अवग्रह में आपके चारों ओर के शरीर-प्रमाण क्षेत्र में कुछ परिमित सीमा तक प्रवेश करने की आज्ञा दीजिए ।
२७३
मैं अशुभ व्यापारों को हटाकर अपने मस्तक तथा हाथ से आपके चरण कमलों का सम्यग रूप से स्पर्श करता हूँ ।
-
चरण स्पर्श करते समय मेरे द्वारा आपको जो कुछ भी बाधा = पीड़ा हुई हो, उसके लिए क्षमा कीजिए ।
[ ३. शरीरयात्रा पृच्छा स्थान ]
क्या ग्लानि रहित आपका आज का दिन बहुत आनन्द से व्यतीत हुआ ?
[ ४. संयमयात्रा पृच्छा स्थान ]
क्या आपकी तप एव संयम रूप यात्रा निर्बाध है ?
1
[ ५. संयम मार्ग में बापनीयता = मन, वचन, काय के सामर्थ्य
की पृच्छा का स्थान ]
क्या आपका शरीर मन तथा इन्द्रियों की बाधा से रहित सकुशल एव ं स्वस्थ है ?
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[ ६. अपराध - समापना स्थान ]
हे तमाश्रमण गुरुदेव ! मुझसे दिन में जो व्यतिक्रम=अपराध हुआ हो, उसके लिए क्षमा करने की कृपा करें ।
भगवन् ! आवश्यक क्रिया करते समय मुझसे जो भो विपरीत आचरण हुआ हो, उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ ।
हे क्षमाश्रमण गुरुदेव ! जिस किसी भी मिथ्याभाव से, द्वेष से,
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श्रमण-सूत्र
दुर्भाषण से, शरीर की दुष्ट चेष्टाओं से, क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, सार्वकालिकी = सर्वकाल से सम्बन्धित, सब प्रकार के मिथ्या अर्थात् मायिक व्यवहारों वाली, सब प्रकार के धमों को अतिक्रमण करनेवाली तेतीस आशातनाओं में से दिवस-सम्बन्धी किसी भी अाशातना के द्वारा मैंने जो भी अतिचार = दोष किया हो; उसका प्रतिक्रमण करता हूँ, मन से उसकी निन्दा करता हूँ, आपके समक्ष वचन से उसकी गर्दा करता हूँ; और पाप कर्म करने वाली बहिरात्मभावरूप अतीत श्रात्मा का परित्याग करता हूँ, अर्थात् इस प्रकार के पाप-व्यापारों से प्रात्मा को अलग हटाता हूँ।
- विवेचन श्रावश्यक क्रिया में तीसरे वन्दन आवश्यक का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हितोपदेशी गुरुदेव को विनम्र हृदय से अभिवन्दन करना और उनकी दिन तथा रात्रि सम्बन्धी सुखशान्ति पूछना, शिष्य का परम कर्तव्य है । भारतीय संस्कृति में, विशेषतः जैन सस्कृति में अध्यात्मवाद की महती महिमा है; और आध्यात्मिकता के जीवित चित्र गुरुदेव की महिमा के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या ? अन्धकार में भटकते हुए, ठोकरें खाते हुए मनुष्य के लिए दीपक की जो स्थिति है, ठीक वही स्थिति अज्ञानान्धकार में भटकते हुए शिष्य के प्रति गुरुदेव की है । अतएक जैन संस्कृति में कृतज्ञता प्रदर्शन के नाते पद-पद पर गुरुदेव को वन्दन करने की परंपरा प्रचलित है । अरिहन्तों के नीचे गुरुदेव ही प्राध्यात्मिकसाम्राज्य के अधिपति हैं । उनको वन्दन करना भगवान् को वन्दन करना है । अस्तु, इस महिमाशाली गुरुवन्दन के उद्देश्य को एवं इसकी सुन्दर पद्धति को प्रस्तुत पाठ में बड़े ही मामि क ढंग से प्रदर्शित किया गया है।
अाज का मानय धर्म-परंपराओं से शून्य होता जा रहा है, चारों अोर स्वच्छन्दता की प्रवृत्ति बढ़ रही है, विनय और नम्रता के स्थान में अहंकार जागृत हो रहा है। आज वह पुरानी अादर्श पद्धति कहाँ है कि गुरुदेव के आते ही खड़ा हो जाना, सामने जाना, ग्रासन अर्पण करना
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२७५ और कुशल क्षेम पूछना । गुरुदेव की प्राज्ञा में रहकर अपने जीवन का निर्माण करना, आज के युग में बड़ा कष्टप्रद प्रतीत होता है । वन्दन करते हुए अाज के शिष्य की गर्दन में पीड़ा होती है । वह नहीं जानता कि भारतीय शिष्य का जीवन ही वन्दनमय है । गुरु चरणों का स्पर्श मस्तक पर लगाने से ही भारतीय शिष्यों को ज्ञान की विभूति मिली है। गुरुदेव के प्रति बिनय, भक्ति ही हमारी कल्याण-परंपरायों का मूल स्रोत है । श्राचार्य उमास्वाति की वाणी सुनिए, वह क्या कहते हैं :
विनयफलं शुश्रूषा, गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् ; ज्ञानस्य फलं विरति विरतिफलं चाश्रयनिरोधः । संवरफलं तपोबलमथ तपसो निर्जराफलं दृष्टम् ; तस्मात् क्रियानिवृत्तिः, क्रियानिवृत्तेरयोगित्वम् । योगनिरोधाद् भवसंततिक्षयः संततिक्षयान्मोक्षः ; तस्मात्कल्याणानां, सवषां भाजनं विनयः।
---'गुरुदेव के प्रति विनय का भाव रखने से सेवाभाव की जागृति होती है, गुरुदेव की सेवा से शास्त्रों के गम्भीर ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान का फल पापाचार से निवृत्ति है, और पापाचार की निवृत्ति का फल ग्राश्रवनिरोध है ।'
-'पाश्रवनिरोध - सवर का फल तपश्चरण है, तपश्चरण से कममल की निर्जरा होती है; निर्जरा के द्वारा क्रिया की निवृत्ति और क्रियानिवृित्त से मन वचन तथा काययोग पर विजय प्राप्त होती है।"
-'मन, वचन और शरीर पर विजय पा लेने से जन्ममरण की लम्बी परंपरा का क्षय होता है, जन्ममरण की परम्परा के क्षय से श्रात्मा को मोक्षपद की प्राप्ति होती है। यह कार्यकारणभाव की निश्चित शृंखला हमें सूचित करती है कि समग्र कल्याणों का एकमात्र मूल कारण विनय है ।
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२७६
श्रमण सूत्र
प्राचीन भारत में प्रस्तुत विनय के सिद्धान्त पर अत्यधिक बल दिया गया है । आपके समक्ष गुरुवन्दन का पाठ है, देखिए, कितना भावुकतापूर्ण है ? "विणयो जिणसासणमूलं' की भावना का कितना सुन्दर प्रतिबिम्ब है ? शिष्य के मुख से एक-एक शब्द प्रेम और श्रद्धा के अमृतरस में डूबा निकल रहा है !
वन्दना करने के लिए पास में आने की भी क्षमा माँगना, चरण छूने से पहले अपने सम्बन्ध में 'निसीहियाए' पद के द्वारा सदाचार से पवित्र रहने का गुरुदेव को विश्वास दिलाना, चरण छूने तक के कष्ट की भी क्षमा याचना करना, सार्यकाल में दिन सम्बन्धी ओर प्रातःकाल में रात्रि सम्बन्धी कुशलक्षेम पूछना, संयम यात्रा की अस्खलना भी पूछना, अपने से आवश्यक क्रिया करते हुए जो कुछ भी अाशातना हुई हो तदर्थ क्षमा माँगना, पापाचारमय पूर्वजीवन का परित्याग कर भविष्य में नये सिरे से संयम जीवन के ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करना, कितना भावभरा एवं हृदय के अन्तरतम भाग को छूने वाला बन्दना का क्रम है ! स्थान स्थान पर गुरुदेव के लिए क्षमाश्रमण' सम्बोधन का प्रयोग, क्षमा के लिए, शिष्य की कितनी अधिक आतुरता प्रकट करता है; तथाच गुरुदेव को किस ऊँचे दर्जे का क्षमामूर्ति सत प्रमाणित करता है।
अब आइए, मूल-सूत्र के कुछ विशेष शब्दों पर विचार करले। यद्यपि शब्दार्थ और भावार्थ में काफी स्पष्टीकरण हो चुका है, फिर भी गहराई में उतरे विना पूर्ण स्पष्टता नहीं हो सकती। इच्छामि
जैनधर्म इच्छापघान धम है। यहाँ किसी आतंक या दवाव से कोई काम करना और मन में स्वयं किसी प्रकार का उल्लास न रखना, अभिमत श्रथच अभिहित नहीं है । विना प्रसन्न मनोभावना के की जाने 'वाली धम क्रिया, कितनी ही क्यों न महनीय हो, अन्ततः वह मृत है, निष्प्राण है। इस प्रकार भय के भार से लदी हुई मृत धमः क्रियाएँ
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द्वादशावत गुरुवन्दन-सूत्र
तो साधक के जीवन को कुचल देती हैं, हीन बना देती हैं । विकासोन्मुख साधना स्वतन्त्र इच्छा चाहती हैं, मन की स्वयं कार्य के प्रति होनें वाली अभिरुचि चाहती है । यहीं कारण है कि जैन धर्म की साधना में सर्वत्र 'इच्छामि पडिकामामि इच्छामि खमासमशो' आदि के रूप में सर्वप्रथम 'इच्छामि' का प्रयोग होता है । 'इच्छामि' का अर्थ है मैं स्वयं चाहता हूँ, अर्थात् यह मेरी स्वयं अपने हृदय की स्वतन्त्र भावना है ।
२७७
'इच्छामि' का एक और भी अभिप्राय है । शिष्य गुरुदेव के चरणों में विनम्र भाव से प्रार्थना करता है कि 'भगवन् ! मैं आपको वन्दन करने की इच्छा रखता हूँ । अतः आप उचित समझे तो आज्ञा दीजिए । आपकी आज्ञा का आशीर्वाद पाकर मैं धन्य धन्य हो जाऊँगा ।'
ऊपर की वाक्यावली में शिष्य वन्दन के लिए केवल अपनी श्रोर से इच्छा निवेदन करता है, सदाग्रह करता है, दुराग्रह नहीं । नमस्कार भी नमस्करी की इच्छा के अनुसार होना चाहिए, यह है जैन सांस्कृति के शिष्टाचार का अन्तहृदय | यहाँ नमस्कार में भी इच्छा मुख्य हैं, उद्दण्डतापूर्ण बलाभियोग एवं दुराग्रह नहीं । श्राचार्य जिनदास कहते हैं-- 'एस्थ वंदितुमित्यावेदनेन श्रपच्छंदता परिहरिता ।"
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क्षमाश्रमण
'श्रमु' धातु तप और खेद अर्थ में व्यवहृत होती हैं । अतः जो तपश्चरण करता है, एवं संसार से सर्वथा निर्विण्ण रहता हैं, वह श्रमण कहलाता है | क्षमाप्रधान श्रमण क्षमाश्रमण होता हैं | क्षमाश्रमण में क्षमा से मार्दव आदि दशविध श्रमण धर्म का ग्रहण हो जाता है । अस्तु, जो श्रमण क्षमा, मार्दव आदि महान् आत्मगुणों से सम्पन्न हैं,
पने धर्म-पथ पर दृढ़ता के साथ अग्रसर हैं, वे ही वन्दनीय हैं । यह क्षमाश्रमण शब्द, किसको वन्दन करना चाहिए इस पर बहुत सुन्दर प्रकाश डालता है |
१ ' खमागणे यमवादयो सूझता श्राचार्य जिनदास ।
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२७८
श्रमण-सूत्र
__शिष्य, गुरुदेव को वन्दन करने एवं अपने अपराधों की क्षमा याचना करने के लिए श्राता है, अतः क्षमाश्रमण सम्बोधन के द्वारा प्रथम ही क्षमादान प्राप्त करने की भावना अभिव्यक्त करता है। प्राशय यह है कि 'हे गुरुदेव ! श्राप क्षमाश्रमण हैं, क्षमामूर्ति हैं । अस्तु, मुझ पर कृयाभाव रखिए । मुझसे जो भी भूले हुई हों, उन सब के लिए, क्षमा प्रदान कीजिए।'
यापनीया __ 'या' प्रापणे धातु से ण्यन्त में कर्तरि अनीयच प्रत्यय होने से यापनीया शब्द बनता है। प्राचार्य हरिभद्र कहते हैं-'यापयतीति यापनी या तया ।' यापनीया का भावार्थ हरिभद्रजी यथाशक्तियुक्त तनु अर्थात् शरीर करते हैं। प्राचार्य जिनदास भी कार्यसमर्थ शरीर को यापनीय
कार्यसमर्थ शरीर को यापनीय कहते हैं और असमर्थ शरीर को अयापनीय | 'यावणीया नाम जा केणति पयोगेण कजसमत्था, जा पुण पयोगेण वि न समत्था सा अजावेणीया' .
'यापनीय' कहने का अभिप्राय यह है कि 'मैं अपने पवित्र भाव से वन्दन करता हूँ। मेरा शरीर वन्दन करने की सामर्थ्य रखता है, अतः किसी दबाव से लाचार होकर गिरी पड़ी हालत में वन्दन करने नहीं अाया हूँ, अपितु वन्दना की भावना से उत्फुल्ल एवं रोमाञ्चित हुए सशक्त शरीर से वन्दना के लिए तैयार हुअा हूँ।'
सशक्त एवं समर्थ शरीर ही विधिपूर्वक धर्म क्रिया का अाराधन कर सकता है ! दुर्बल शरीर प्रथम तो धमक्रिया कर नहीं सकता। और यदि किसी के भय से या स्वयं हठाग्रह से करता भी है तो वह अविधि से करता है, जो लाभ की अपेक्षा हानिप्रद अधिक है। धर्म साधना का रंग स्वस्थ एवं सबल शरीर होने पर ही जमता है । यापनीय शब्द की यही ध्वनि है, यदि कोई सुन और समझ सके तो ? 'जावणिजाए निसीहिदाए त्ति अणेण शक्रत्व विधी य दरिसिता ।'-प्राचार्य जिनदास ।
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन सूत्र
२७६ नषेधिकी।
. मूल शब्द 'निसीहिया' है । इसका मस्कृत रूप 'नैपेधिकी' होता है। प्राणातिपातादि पापों से निवृत्त हुए शरीर को नैघोधिकी कहते हैं । देखिए, याचार्य हरिभद्र क्या कहते हैं ? 'निषेधनं निषेधः, निषेधेन निवृत्ता नैवेधिकी, प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाद् वा नैवेषिकेत्युच्यते । ..."नषेधिक्या-प्राणातिपातादिनिवृत्तया तन्वा शरीरेणेत्यर्थः ।' __ प्राचार्य जिनदास नैपोधिकी के शरीर, वसति = स्थान और स्थण्डिल भूमि-इस प्रकार तीन अर्थ करते हैं । मूलतः नैषधिकी शब्द अालय = स्थान का वाचक है। शरीर भी जीव का ग्रालय है, अतः वह भी नैषधिको कहलाता है। इतना ही नहीं, निषिद्ध आचरण से निवृत्त शरीर की क्रिया भी नैपधिकी कहलाती है।
जैन धर्म की पवित्रता स्नान आदि में नहीं है । वह है पापाचार से निवृत्ति में, हिंसादि से विरति में । अतः शिष्य गुरुदेव से कहता है कि "भगवन् ! मैं अपवित्र नहीं हूँ, जो श्रापको वन्दन न कर सकूँ। मैंने हिंसा, असत्य अादि पापों का त्याग किया हुआ है, अहिंसा एवं सत्य
१ निषध का अर्थ त्याग है। मानव शरीर त्याग के लिए ही है, यह जैन धर्म का अन्तहृदय है और इसीलिए वह शरीर को भी नैधिकी कहता है। नैपोधिकी का अर्थ है जीवहिंसादि पापाचरणों का निषेध अर्थात् निवृत्ति करना ही प्रयोजन है जिसका वह शरीर । - नैपोधिकी का जो धापनीया विशेषण है, उसका अर्थ है जिससे कालक्षेप किया जाय, समय बिताया जाय, वह शारीरिक शक्ति यापनीया कहलाती है।
दोनों का मिल कर अर्थ होता है कि "मैं अपनी शक्ति से सहित त्याग प्रधान नैषधिकी शरीर से वन्दन करना चाहता हूँ !"
नैषधिकी और यापनीया का कुछ प्राचार्यों द्वारा किया जाने वाला यह विश्लेषण भी ध्यान में रखना चाहिए। ..
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२८०
श्रमण-सूत्र
का भली भाँति श्राचरण किया है; अतः विश्वास रखिए, मैं पवित्र हूँ, और पवित्र होने के नाते आपके पवित्र चरण कमलों को स्पर्श करने का अधिकारी हूँ ।"
- " निसीहि नाम सरीरगं वसही थंडिलं च भरणति । जतो निसीहिता नाम श्रालयो वसही थंडिलं च । सरीरं जीवस्स श्रालयोत्ति । तथा पडिसिद्धनिसेवरा नियत्तस्स किरिया निसीहिया ताए । विसक्रया तन्वा, कहूं ? विपडिसिद्ध नि सेहकिरियाए य, अप्परोंग मम सरीरं, पडिसि पावकम्मो य होतो तुमं वंदितु ं इच्छामित्ति यावत् । "-- - श्राचार्य जिनदास कृत श्रावश्यक चूि
अवग्रह
जहाँ गुरुदेव विराजमान होते हैं, वहाँ गुरुदेव के चारों ओर चारों दिशाओं में श्रात्म प्रमाण अर्थात् 'शरीर प्रमाण साढ़े तीन हाथ का क्षेत्रावग्रह होता है । इस अवग्रह में गुरुदेव की आज्ञा लिए विना प्रवेश करना निषिद्ध है । गुरुदेव की गौरव मर्यादा के लिए शिष्य को गुरुदेव से साढ़े तीन हाथ दूर अवग्रह से बाहर खड़ा रहना चाहिए । यदि कभी. वन्दना एवं वाचना आदि आवश्यक कार्य के लिए गुरुदेव के समीप तक जाना हो तो प्रथम आज्ञा लेकर पुनः श्रवग्रह में प्रवेश करना चाहिए ।
वग्रह की व्याख्या करते हुए आचार्य हरिभद्र आवश्यक वृत्ति में लिखते हैं- 'चतुर्दिशमिहाचार्यस्य श्रात्म-प्रमाणं क्षेत्रमवग्रहः । तमनुज्ञां विहाय प्रवेष्टुं न कल्पते ।
प्रवचनसारोद्धार के वन्दनक द्वार में आचार्य नेमिचन्द्र भी यही कहते हैं :--
१ साढ़े तीन हाथ परिमाण श्रवग्रह इसलिए है कि गुरुदेव अपनी इच्छानुसार उठ बैठ सकें, स्वाध्याय ध्यान कर सकें, आवश्यकता हो तो शयन भी कर सकें ।
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1
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
श्राय- प्पमाणमित्तो, चउदिसिं होइ उग्गही गुरुणो ।
अणुन्नायस्स संया,
२८१
न कप्पए तत्थ पविसेउ || १२६ ॥
प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति में अवग्रह के छः भेद कहे गए हैं :नामावग्रह = नाम का ग्रहण, स्थापनावग्रह - स्थापना के रूप में किसी वस्तु का वग्रह कर लेना, द्रव्यावग्रह = वस्त्र पात्र श्रादि किसी वस्तु विशेष का ग्रहण, क्षेत्रावग्रह = अपने आस-पास के क्षेत्र विशेष एवं स्थान का ग्रहण, कालावग्रह वर्षा काल में चार मास का अवग्रह और शेष काल में एक मास आदि का भावावग्रह = ज्ञानादि प्रशस्त और क्रोधादि प्रशस्त भाव का ग्रहण |
"
वृत्तिकार ने वंदन प्रसंग में आये श्रवग्रह के लिये क्षेत्रावग्रह और प्रशस्त भावावग्रह माना है ।
भगवती सूत्र आदि श्रागमों में देवेन्द्रावग्रह, राजावग्रह, गृहपतिश्रवग्रह, सागारी ( शय्यादाता) का अवग्रह, और साधर्मिक का अवग्रहइस प्रकार जो आज्ञा ग्रहण करने रूप पाँच अवग्रह कहे गए हैं, वे प्रस्तुत प्रसंग में ग्राह्य नहीं हैं ।
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होकार्य काय-संफासं
'अहो काय' का संस्कृत रूपान्तर अधःकाय है, जिसका अर्थ 'चरण' होता है । धःकाय का मूलार्थ है काय अर्थात् शरीर का सबसे नीचे का भाग । शरीर का सबसे नीचे का भाग चरण ही है, अतः श्रधःकाय का भावार्थ चरण होता है । 'अधः कायः पादलक्षणस्तमधः कार्य प्रति ।" -आचार्य हरिभद्र ।
'काय संफास' का संस्कृत रूपान्तर कायसंस्पर्श होता है । इसका अर्थ है 'कार्य से सम्यक्त्या स्पर्श करना।' यहाँ काय से
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२८२
श्रमण-सूत्र
क्या अभिप्राय है ? यह विचारणीय है ! आचार्य जिनदास काय से हाथ ग्रहण करते हैं । 'अपणो कारण हत्थेहि फुसिस्सामि ।' आचार्य श्री का अभिप्राय यह है कि श्रावर्तन करते समय शिष्य अपने हाथ से गुरु के चरणकमलों को स्पर्श करता है, अतः यहाँ कार्य से हाथ ही अमीर है | कुछ श्राचार्य काय से मस्तक लेते हैं | वंदन करते समय शिष्य गुरुदेव के चरणकमलों में अपना मस्तक लगाकर वंदना करता है, अतः उनकी दृष्टि में काय संस्पर्श से मस्तक - संस्पर्श ग्राह्य है। आचार्य हरिभद्र काय का अर्थ सामान्यतः निज देह ही करते हैं - ' कायेन निज देहेन संस्पर्शः कायसंस्पर्शस्तं करोमि ।'
परन्तु शरीर से स्पर्श करने का क्या अभिप्राय हो सकता है ? यह विचारणीय है । सम्पूर्ण शरीर से तो स्पर्श हो नहीं सकता, वह होगा मात्र हस्त-द्वारेण या मस्तक द्वारेण । अतः प्रश्न है कि सूत्रकार ने विशेषोल्लेख के रूप में हाथ या मस्तक न कह कर सामान्यतः शरीर ही क्यों कहा ? जहाँ तक विचार की गति है, इसका यह समाधान है कि शिष्य गुरुदेव के चरणों में अपना सर्वस्व अर्पण करना चाहता है, सर्वस्व के रूप में शरीर के करण करण से चरणकमलों का स्पर्श करके धन्य धन्य होना चाहता है । प्रत्यक्ष में हाथ या मस्तक का स्पर्श भले हो, परन्तु उसके पीछे शरीर के करण करण से स्पर्श करने की भावना है । अतः सामान्यतः काय-संस्पर्श कहने में श्रद्धा के विराट रूप को श्रमि व्यक्ति रही हुई है ! जब शिष्य गुरुदेव के चरणकमलों में मस्तक झुकाता है, तो उसका होता है गुरु चरणों में अपने मस्तक की भेंट अर्पण करना । शरीर में मस्तक ही तो मुख्य है | अतः जत्र मस्तक अर्पण कर दिया गया तो उसका अर्थ है अपना समस्त शरीर ही गुरुदेव के चरणकमलों में अर्पण कर देना । समस्त शरीर को गुरुदेव के चरणकमलों में अर्पण करने का भाव यह है कि अब मैं अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ आपकी आज्ञा में चलूँगा, आपके चरणों का अनुसरण करूँगा । शिष्य का अपना कुछ नहीं है । जो कुछ भी है, सब गुरुदेव
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२२३ का है। अतः काय के उपलक्षण से मन और वचन का अर्पण भी समझ लेना चाहिए। अल्पक्लान्त
प्रस्तुत सूत्र में 'अप्पकिलंता बहुसुभेण....' अंशगत जो अल्पक्लान्त शब्द है । आचार्य हरिभद्र और नमि ने इसका अर्थ 'अल्पं - स्तोक क्लान्तं = क्रमो येषां ते अल्प क्लान्ताः' कहकर 'अल्प पीड़ा वाला' किया है। वर्तमान कालीन कुछ विद्वान् भी इसी पथ के अनुयायी हैं । परन्तु मुझे यह अर्थ ठीक नहीं अँचता। यहाँ अल्प पीड़ा का, थोड़ी-सी तकलीफ का क्या भाव है ? क्या गुरुदेव को थोड़ी-सी पीड़ा का रहना श्रावश्यक है ? नहीं, यह अर्थ उचित नहीं मालूम होता। अल्म शब्द स्तोक वाचक ही नहीं, अभाव वाचक भी है। उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम विनयाध्ययन में एक गाथा आती है---'अप्पपाणऽप्पबीयम्मि'.... ६५ । इसका अर्थ है-अल्पप्राण और अल्पबीज वाले स्थान में साधु को भोजन करना चाहिए। क्या आप यहाँ भी अल्प-प्राण और अल्पबीज का अर्थ थोड़े प्राणी और थोड़े बीज वाले स्थान में भोजन करना ही करेंगे ? तब तो अर्थ का अनर्थ ही होगा ? अतः यहाँ अल्म का अभाव अर्थ मान कर यह अर्थ किया जाता है कि साधु को प्राणी और बीजों से रहित स्थान में भोजन करना चाहिए । तभी वास्तविक अर्थ-संगति हो सकती है, अन्यथा नहीं। अस्तु, प्रस्तुत पाठ में भी अप्पकिलंता' का 'ग्लानि रहित'-'बाधारहित' अर्थ ही सगत प्रतीत होता है । बहुशुभेन
मूल में 'अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कतो' पाठ है । इसका अर्थ है-'भगवन् ! आपका यह दिन विघ्न-बाधाओं से रहित प्रभूत सुख में अर्थात् अत्यन्त अानन्द में व्यतीत हुया ?' यह सर्व प्रथम शरीर सम्बन्धी कुशल प्रश्न है ? जैन धर्म के सम्बन्ध में यह व्यर्थ ही
१ 'अल्प इति अभावे, स्तोके च'-अावश्यक चूणि ।
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२४
श्रमण-सूत्र
भ्रान्त धारणा है कि वह कठोर संयम-धर्म का अनुयायी है, अतः शरीर के प्रति लापरवाह होकर शीघ्र ही मृत्यु का आह्वान करता है। यह ठीक है कि वह उग्र संयम का आग्रही है। परन्तु सौंयम के अाग्रह में वह शरीर के प्रति व्यर्थ ही उपेक्षा नहीं रखता है। आप यहाँ देख सकते हैं कि पहले शरीर सम्बन्धी कुशल पूछा गया है और बाद में सयम यात्रा सम्बन्धी ! 'अव्वाबाहपुच्छा गता, एवं ता शरीरं पुच्छितं, इदाणि तवसंजम नियम जोगेसु पुच्छति ।-अावश्यक चूणि । यात्रा
शिष्य, गुरुदेव से यात्रा के सम्बन्ध में कुशल क्षेम पूछता है । श्राप यात्रा शब्द देखकर चौंकिए नहीं। जैन संस्कृति में यात्रा के लिए स्थूल कल्पना न होकर एक मधुर आध्यात्मिक सत्य है। यात्रा क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए श्राइए, प्रभु महावीर के चरणों में चले। सोमिल ब्राह्मण भगवान् से प्रश्न करता है कि-'भगवन् ! क्या आप यात्रा भी करते हैं ?? भगवान् ने उत्तर दिया-'हाँ, सोमिल ! मैं यात्रा करता हूँ। सोमिल ने तुरन्त पूछा-'कौनसी यात्रा ?' सोमिल बाह्य जगस में विचर रहा था, भगवान अन्तर्जगत में विचरण कर रहे थे । भगवान् ने उत्तर दिया'सोमिल ! जो मेरी अपने तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान और श्रावश्यक श्रादि योग की साधना में यतना है-प्रवृत्ति है, वही मेरी यात्रा है।' कितनी सुन्दर यात्रा है ? इस यात्रा के द्वारा जीवन निहाल हो सकता है ?
-"सोमिला ! जं मे तव-नियम-संजम-सज्झाय-प्रमाणावसग्गमादिएसु जोएसु जयणा सेतं जत्ती " -भगवती सूत्र १८ । १० ।
यह जैन-धर्म की यात्रा है, श्रात्म-यात्रा। जैन धर्म की यात्रा का पथ जीवन के अंदर में से है, बाहर नहीं। अनन्त-अनन्त साधक इसी
१ 'यात्रा तपोनियमादिलक्षणा क्षायिकमिश्रौपशमिकभावलक्षणा वा।'-प्राचार्य हरिभद्र, अावश्यक वृत्ति ।
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२८५
यात्रा के द्वारा मोक्ष में पहुँचे हैं और पहुँचेगे । संयमी साधक के लिए जीवन की प्रत्येक शुभ प्रवृत्ति यात्रा है, मोक्ष का मार्ग है ।
यापनोय
'यात्रा' के समान 'यापनीय' शब्द भी बहुत महत्त्वपूर्ण है । यापन का अर्थ है मन और इन्द्रिय श्रादि पर अधिकार रखना, अर्थात् उनको अपने वश में - नियंत्रण में रखना । मन और इन्द्रियों का अनुपशान्त रहना, अनियंत्रित रहना अकुशलता है, अयापनीयता है । और इनका उपशान्त हो जाना, नियंत्रित हो जाना ही कुशलता है, यापनीयता है ।
।
कुछ हिन्दी टीकाकारों ने, जिनमें पं० सुखलालजी मी हैं, 'जवणिज्जं च भे ?' की व्याख्या करते हुए लिखा है कि 'आपका शरीर मन तथा इन्द्रियों की पीड़ा से रहित है हमने भी यही अर्थ लिखा है । श्राचार्य हरिभद्र ने भी इस सम्बन्ध में कहा है- 'यापनीयं चेन्द्रियनोइन्द्रियोपशम्मादिना प्रकारेण भवतां ? शरीरमिति गम्यते ।' यहाँ इन्द्रिय से इन्द्रिय और नोइन्द्रिय से मन समझा गया है और ऊपर के अर्थ की कल्पना की गई है ।
परन्तु भगवती सूत्र में यापनीय का निरूपण करते हुए कहा है कि-यापनीय के दो प्रकार हैं इन्द्रिय यापनीय और नोइन्द्रिय यापनीय । पाँचों इन्द्रियों का निरुपहत रूप से अपने वश में होना, इन्द्रिय-यापनीयता है । और क्रोधादि कषायों का उच्छिन्न होना, उदय न होना, उपशान्त हो जाना, नोइन्द्रिय यापनीयता है !
- जवणिज्जे दुविहे पद्मन्त े, तंजा - इंदियजवणिज्जे य नोइन्द्रियजवसज्जे यः ।
से किं तं इंदियजवणिज्जे ? जं मे सोइंदिय-चविखदियघाशिंदिय जिभिदिय - फासिंदियाई निरुवहयाई वसे वह ति, सेत्त' इंदियजवणिज्जं ।
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श्रमण-सूत्र . से किं तं नोइदियजवणिज्जे ? जं मे कोहमाणमायालोभा वोच्छिन्न। नो उदीरेंति सेत्त नो इंदिय जवणिज्जे ।
-भगवती सूत्र १८ । १०।। प्राचार्य अभयदेव, भगवती सूत्र के उपयुक्त पाठ का विवरण करते हुए लिखते हैं-"यापनीयं = मोक्षाध्वनि गच्छतां प्रयोजक इन्द्रियादिवश्यतारूपो धर्मः । "इन्द्रियविषयं यापनीयं = वश्यत्वमिन्द्रिययापनीयं, एवं नो इन्द्रिययापनीयं, नवरं नो शब्दस्य मिश्रवचनत्वादिन्द्रियैमिश्राः सहार्थत्वाद् वा इन्द्रियाणां सहचरिता नोइन्द्रियाः कषायाः।"
भगवती सूत्र में नोइन्द्रिय से मन नहीं, किन्तु कषाय का ग्रहण किया गया है | कषाय चूँ कि इन्द्रिय सहचरित होते हैं, अतः नो इन्द्रिय कहे जाते हैं ।
प्राचार्य जिनदास भी भगवती सूत्र का ही अनुसरण करते हैं'इन्दियजवणिज निरुवहताणि वसे य मे वटंति इंदियाणि, नो खलु कजस्स बाधाए वदतीत्यर्थः । एवं नोइन्दियजवणिज, कोधादीए वि णो भे बाहेति ।-अावश्यक चूर्णि ।
उपर्युक्त विचारों के अनुसार यापनीय प्रश्न का यह भावार्थ है कि 'भगवन् ! अापकी इन्द्रिय-विजय की साधना ठीक-ठीक चल रही है ? इन्द्रियाँ अापकी धमसाधना में बाधक तो नहीं होती ? अनुकूल ही रहती हैं न? और नोइन्द्रिय विजय भी टीक-ठीक चल रही है न ? क्रोधादि कषाय शान्त हैं ? आपकी धर्म यात्रा में कभी बाधा तो नहीं पहुँचाते ?
प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति में प्राचार्य सिद्धसेन यात्रा श्रोर यापना के द्रव्य तथा भाव के रूप में दो-दो भेद करते हैं । मिथ्यादृष्टि तापस आदि की अपनी क्रिया में प्रवृत्ति द्रव्ययात्रा है, और श्रेष्ठ साधुओं की अपना महाप्रतादि रूप साधना में प्रवृत्ति भाव यात्रा है। इसी प्रकार द्राक्षारस
आदि से शरीर को समाहित करना, द्रव्य यापना है, और इन्द्रिय तथा नो इन्द्रिय की उपशान्ति से शरीर का समाहित होना भावयापना है।
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२८७
द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र --'यात्रा द्विविधा द्रव्यतो भावत। द्रव्यतस्तापसादीनां मिथ्यादृशां स्वक्रियोत्सपणं, भावतः साधूनामिति ।.... यापनापि द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । द्रव्यतः शर्कराद्राक्षादिसदोषधैः कायस्य समाहितत्वं, भावतस्तु इन्द्रियनोइन्द्रियोपशान्तत्वेन शरीरस्य समाहितत्वम् ।'
-प्रवचनसारोद्धार वंदनक द्वार । श्रावश्यिकी __ अवश्य करने योग्य चरण-करणरूप श्रमण योग 'आवश्यक' कहे जाते हैं । आवश्यक क्रिया करते समय प्रमादवश जो रत्नत्रय की विराधना हो जाती है वह श्रावश्यिकी कहलाती है । अतः 'पावस्सियाए' का अभिप्राय यह है कि 'मुझसे अावश्यक योग की साधना करते समय जो भूल हो गई हो, उस आवश्यिकी भूल का प्रतिक्रमण करता हूँ।'
'आवस्सियाए' कहते हुए जो अवग्रह से बाहर निकला जाता है, वह इसलिए कि गुरुदेव के चरणों में से कहीं अन्यत्र आवश्यक कार्य के लिए जाना होता है तो गुरुदेव को सूचना देने के लिए 'श्रावस्सिया' कहा जाता है, यह आवश्यिकी समाचारी है । अतः यहाँ भी 'प्रावस्तियाए' को श्रावश्यिकी का प्रतीक मानकर शिष्य श्रवग्रह से बाहर होता है । यही कारण है कि दूसरे खमासमणो में 'श्रावस्सियाए' नहीं कहा जाता और न अवग्रह से बाहर ही पाया जाता है । श्राशातना
- 'पाशातना' शब्द जैन श्रागम-साहित्य का एक प्राचीन पारिभाषिक शब्द है । जैन .म अनुशासन-प्रधान धर्म है। अतः यहाँ पद-पद पर अरिहन्त, सिद्ध, आचाय, उपाध्याय, साधु, और गुरुदेव का, किंबहुना, ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप धर्म साधना तक का भी सम्मान रक्खा जाता
१ अवश्यकर्तव्यश्वरण-करणयोगैर्निवृत्तिा आवश्यकी तया ऽऽसेवनाद्वारेण हेतुभूतया यदसाध्वनुष्ठितं तस्य प्रतिक्रामामि विनिवर्तयामीत्यर्थः ।' आचार्य हरिभद्र ।
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स्वद
श्रमण-सूत्र
है । सदाचारी गुरुदेव और अपने सदाचार के प्रति किसी भी प्रकार की अवज्ञा एवं अवहेलना, जैनधर्म में स्वयं एक बहुत बड़ा पाप माना गया है, अनुशासन जैनधर्म का प्राण है ।
आइए, अब आशातना के व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ पर विचार करलें । 'ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही वास्तविक आय = लाभ है, उसकी शातना = खण्डना, आशातना है ।' गुरुदेव आदि का विनय ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र रूप आत्मगुणों के लाभ का नाश करने वाला है । देखिए, प्रतिक्रमण सूत्र के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य तिलक का अभिमत | 'आयस्य ज्ञानादिरूपस्य शातना = खण्डना श्राशातना । निरुक्त्या यलोपः ।'
आशातना के भेदों की कोई इयत्ता नहीं है । शातना के स्वरूपपरिचय के लिए दशाश्रु, तस्कन्ध-सूत्र में तेतीस श्राशातनाएँ वर्णन की गई हैं । परिशिष्ट में उन सब का उल्लेख किया गया है, यहाँ संक्षेप में द्रव्यादि चार श्राशातनाओं का निरूपण किया जाता है, श्राचार्य हरिभद्र के उल्लेखानुसार जिनमें तेतीस का ही समावेश हो जाता है । 'तित्तीसं पि चउसु व्वाइस समोयरंति'
द्रव्य शातना का अर्थ है - गुरु आदि रात्रिक के साथ भोजन करते समय स्वयं अच्छा-अच्छा ग्रहण कर लेना और बुरा-बुरा रात्रिक को देना । यही बात वस्त्र, पात्र आदि के सम्बन्ध में भी है ।
क्षेत्र शातना का अर्थ है - अड़कर चलना, अड़कर बैठना इत्यादि ।
काल
के द्वारा बोलने पर भी उत्तर न देना, चुप रहना ।
भाव आशातना का अर्थ है- आचार्य आदि रात्रिकों को 'तू' करके बोलना, उनके प्रति दुर्भाव रखना, इत्यादि ।
मनोदुष्कृता
मनोदुष्कृत का अर्थ है ! मन से दुष्कृत | मन में किसी प्रकार का
शातना का अर्थ है --रात्रि या विकाल के समय रात्रिकों
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन सूत्र
२८६ द्वेष, दुर्भाव, घृणा तथा अवज्ञा का होना, मनोदुष्कृता अाशातना है । इसी प्रकार अभद्र वचन आदि से वागदुकृता तथा ग्रासन्न गमनादि के निमित्त से कायदुष्कृता आशातना होती है । क्रोधा ___ मूल में 'कोहा? शब्द है, जिसका तृतीया विभक्ति के रूप में 'कोहाए प्रयोग किया गया है। 'कोहा' का संस्कृत रूपान्तर 'क्रोधा' होता है । क्रोधा का अर्थ क्रोध नहीं, अपितु क्रोधानुगता अर्थात् क्रोधवती अाशातना से है । क्रोध के निमित्त से होने वाली आशातना क्रोधा अर्थात् क्रोधवती कहलाती है।
'क्रोधा' का 'क्रोधवती' अर्थ कैसे होता है ? समाधान है कि अर्शादिगण प्राकृति गण माना जाता है, अतः क्रोधादि को अर्शादिगण में मान कर अच् प्रत्यय होने से क्रोधयुक्त का भी क्रोध रूप ही रहता है। पाशातना स्त्रीलिंग शब्द है, अतः क्रोधा' रूप का प्रयोग किया गया है ।
-'क्रोधयेति क्रोधषयेति प्राप्ते अर्शादेराकृतिगणत्वात् अच् प्रत्ययान्तस्यात् 'क्रोधया' क्रोधानुगतया ।'-प्राचार्य हरिभद्र ।।
'क्रोधया के समान ही मानया, मायया और लोभया का मर्म भी समझ लेना चाहिए । सब में अर्शादि अच् प्रत्यय है, अतः मानवत्या, मायावत्या और लोभवस्या अर्थ ही ग्राह्य है । सार्वकालिकी
आशातना के लिए यह विशेषण बड़ा ही महत्त्वपूर्ण अर्थ रखता है। शिष्य गुरुदेव के चरणों में आशातना का प्रतिक्रमण करता हुआ निवेदन करता है कि 'भगवन् ! मैं दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक अाशातना के लिए क्षमा चाहता हूँ और उसका
प्रतिक्रमण करता हूँ। इतना ही नहीं, अबतक के इस जीवन में जो . अपराध हुआ हो, उसके लिए भी क्षमा याचना है। प्रस्तुत जीवन ही नहीं, पूर्व जीवन और उससे भी पूर्व जीवन, इस प्रकार अनन्तानन्त
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२६०
श्रमण-सूत्र
अतीत जन्मों में जो भूल हुई हो, अवहेलना का भाव रहा हो, उस सबकी क्षमा याचना करता हूँ।' ___मूल में 'सव्वकालिया' शब्द है, जिसका अर्थ है सब काल में होने वाली अाशातना । प्राचार्य जिनदास सर्वकाल से समस्त भूतकाल “ग्रहण करते हैं-'सव्वकाले भवा सव्वकालिगी, पक्खिका, चातुम्मासिया, संवत्सरिया, इह भवे अण्णेसु वा अतीतेसु भवग्गहणेसु सव्वमतीतद्धाकाले। ____ आचार्य हरिभद्र ‘सर्वकाल' से अतीत, अनागत और वर्तमान इस प्रकार त्रिकाल का ग्रहण करते हैं-'अधुनेहभवान्यभवगताऽतीतानागतकालसंग्रहार्थमाह, सर्वकालेन अतीतादिना निवृत्ता सार्वकालिकी तया ।'
यह विनय धर्म का कितना महान् विराट रूप है । जैन संस्कृति की प्रत्येक साधना क्षुद्र से महान होती हुई अन्त में अनन्त का रूप ले लेती है। श्राप देख सकते हैं, गुरुदेव के चरणों में की जानेवाली अपराधक्षामणा भी दैवसिक एवं रात्रिक से महान् होती हुई अन्त में सार्वकालिकी हो जाती है। केवल वर्तमान ही नहीं, किन्तु अनन्त भूत और अनन्त भविष्य काल के लिए भी अपराध-क्षमापना करना, साधक का नित्यप्रति किया जाने वाला आवश्यक कर्तव्य है ।।
अनागत-अाशातना के सम्बन्ध में प्रश्न है कि भविष्यकाल तो अभी आगे आने वाला है, अतः तत्सम्बन्धी आशातना कैसे हो सकती है ? समाधान है कि गुरुदेव के लिए एवं गुरुदेव की आज्ञा के लिए भविष्य में किसी प्रकार की भी अवहेलना का भाव रखना, संकल्प करना, अनागत अाशातना है । भूतकाल की भूलों का पश्चात्ताप करो और भविष्य में भूले न होने देने के लिए सदा कृत-सकल्प रहो, यह है साधक जीवन के लिए अमर सन्देश, जो सार्वकालिको पद के द्वारा अभिव्यंजित है।
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२६१ बारह आधर्त - प्रस्तुत पाठ में आवर्त-क्रिया विशेष ध्यान देने योग्य है । जिस प्रकार वैदिक मंत्रों में स्वर तथा हस्त-सञ्चालन का ध्यान रखा जाता है, उसी प्रकार इस पाठ में भी आवर्त के रूप में स्वर तथा चरण स्पर्श के लिए होने वाली हस्त-संचालन क्रिया के सम्बन्ध में लक्ष्य दिया गया है । स्वर के द्वारा वाणी में एक विशेष प्रकार का प्रोज एवं माधुर्य पैदा हो जाता है, जो अन्तःकरण पर अपना विशेष प्रभाव डालता है। ___ यावर्त के सम्बन्ध में एक बात और है । जिस प्रकार वर और कन्या अग्नि की प्रदक्षिणा करने के बाद पारस्परिक कर्तव्य-निर्वाह के लिए श्राबद्ध हो जाते हैं, उसी प्रकार आवर्त-क्रिया गुरु और शिष्य को एकदूसरे के प्रति कर्तव्य बन्धन में बाँध देती है । आवर्तन करते समय शिष्य गुरुदेव के चरणकमलों का स्पर्श करने के बाद दोनों अंजलिबद्ध हाथों को अपने मस्तक पर लगाता है; इसका हार्द है कि वह गुरुदेव की अाज्ञायों को सदैव मस्तक पर वहन करने के लिए कृतप्रतिज्ञ है।
प्रथम के तीन आवर्त-'अहो'-'कार्य'-'काय'-इस प्रकार दो-दो अक्षरों से पूरे होते हैं। कमलमुद्रा से अंजलिबद्ध दोनों हाथों से गुरुचरणों को स्पर्श करते हुए मन्द स्वर से 'अ' अक्षर कहना, तत्पश्चात् अंजलिबद्ध हाथों को मस्तक पर लगाते हुए उच्च स्वर से 'हो' अक्षर कहना, यह पहला आवर्तन है। इसी प्रकार 'का....यं' और 'का....य' के शेष दो प्रावर्तन भी किए जाते हैं।
अगले तीन आवर्त-'जत्ताभे'-'जवणि'-'जंच भे'-इस प्रकार
१ 'सूत्राभिधानगर्भाः काय-व्यापारविशेषाः'-प्राचार्य हरिभद्र, श्रावश्यक वृत्ति ।
'सूत्र-गर्भा गुरुचरणकमलन्यस्तहस्तशिरः स्थापनरूपाः --प्रवचनसारोद्धार वृत्ति, वन्दनक द्वार ।
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२६२
श्रमण-सूत्र
तीन-तीन अक्षरों के होते हैं । कमल-मुद्रा से अंजलि बाँधे हुए दोनों हाथों से गुरु चरणों को स्पर्श करते हुए अनुदात्त = मन्द स्वर से- 'ज' - अक्षर कहना, पुनः हृदय के पास अञ्जलि लाते हुए स्वरित = मध्यम स्वर से ——'त्ता'- अक्षर कहना, पुनः अपने मस्तक को छूते हुए उदात्त स्वर से – 'भे' - अक्षर कहना; प्रथम श्रावर्त है । इसी पद्धति से - 'ज ....व.... णि' श्रौर - 'ज्जं ....च....भे'ये शेष दो श्रावर्त भी करने चाहिएँ। प्रथम ‘खमासमणो' के छह और इसी भाँति : दूसरे 'खमासमो? के छह, कुल बारह प्रावर्त होते हैं ।
चन्दन - विधि
वन्दन आवश्यक बड़ा ही गंभीर एवं भावपूर्ण है । आज परंपरा की अज्ञानता के कारण इस ओर लक्ष्य नहीं दिया जा रहा है और केवल येन-केन प्रकारेण मुख से पाठ का पढ़ लेना ही वन्दन समझ लिया गया है । परन्तु ध्यान में रखना चाहिए कि विना विधि के क्रिया फलवती नहीं होती अतः पाठकों की जानकारी के लिए स्पष्ट रूप से विधि का वर्णन किया जाता है :
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गुरुदेव के श्रात्मप्रमाण क्षेत्र रूप अवग्रह के बाहर आचार्य तिलक ने क्रमशः दो स्थानों की कल्पना की है, — एक 'इच्छा निवेदन स्थान' और दूसरा 'श्रवग्रह प्रवेशाज्ञायाचना स्थान ।' प्रथम स्थान में वन्दन . करने की इच्छा का निवेदन किया जाता है, फिर जरा आगे अवग्रह के पास जाकर अवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा माँगी जाती है ।
•
वन्दनकर्ता शिष्य श्रवग्रह के बाहर प्रथम इच्छानिवेदन स्थान में यथा जात मुद्रा से दोनों हाथों में रजोहरण लिए हुए श्रर्द्धावनत होकर अर्थात् श्रधा शरीर झुका कर नमन करता है और 'इच्छामि ः खमासमणों से लेकर मिसीहियाए' तक का पाठ पढ़ कर वन्दन करने की इच्छा निवेदन करता है । शिष्य के इस प्रकार निवेदन करने के पश्चात
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन सूत्र
२६३
गुरुदेव यदि अस्वस्थ या किसी कार्य विशेष में व्याक्षिप्त होते हैं तो' 'तिविहेण'-'त्रिविधेन' ऐसा शब्द कहते हैं, जिसका अर्थ होता है'अक्ग्रह से बाहर रह कर ही सक्षिप्त वन्दन - करना। अतः अवग्रह से बाहर रह कर ही तिवखुत्तो के पाठ के द्वारा संक्षिप्त वंदन कर लेना चाहिए । यदि गुरुदेव स्वस्थ एवं अव्याक्षित होते हैं तो 'छंदेणं'छन्दसा' ऐसा शब्द कहते हैं, जिसका अर्थ होता है-'इच्छानुसार वन्दन करने की सम्मति देना।'
गुरुदेव की अोर से उपर्युक्त पद्धति के द्वारा वन्दन करने की अाशा मिल जाने पर, शिष्य, आगे बढ़ कर, अवग्रह क्षेत्र के बाहर, किन्तु पास ही 'अवग्रह प्रवेशाज्ञा याचना' नामक दूसरे स्थान में पुनः अर्द्धावनत होकर नमन करता है और गुरुदेव से 'अणुजाणह मे मिउग्गह'-इस पाठ के द्वारा अवग्रह में प्रवेश करने की प्राज्ञा माँगता है। अाज्ञा मांगने पर गुरुदेव अपनी ओर से 'अणुजाणामि' पद के द्वारा प्राज्ञा प्रदान करते हैं।
अाज्ञा मिलने के बाद यथाजात मुद्रा = जनमते समय बालक की अथवा दीक्षा लेने के समय शिष्य की जैसी मुद्रा होती है वैसी दोनों हाथ अंजलिबद्ध कपाल पर रखने की मुद्रा से 'निसीहि'२ पद कहते हुए
१ 'त्रिविधेन' का अभिप्राय है कि यह समय अवग्रह में प्रवेश कर द्वादशावर्त वन्दन करने का नहीं है । अतः तीन बार तिक्खुत्तो के पाठ के द्वारा, अवग्रह से बाहर रह कर ही संक्षिप्त वन्दन कर लेना चाहिए । 'त्रिविधेन' शब्द मन, वचन, काय योग की एकाग्रता पर भी प्रकाश डालता है । तीन बार वन्दन, अर्थात् मन, वचन एवं काय योग से वन्दन !
२ 'निसीहि' बाहर के कार्यों से निवृत्त होकर गुरु चरणों में उपस्थित होने रूप नैषधिकी समाचारी का प्रतीक है। इसीलिए प्राचार्य हरिभद्र प्रस्तुत प्रसंग पर कहते हैं-'ततः शिष्यो नैवेधिक्या प्रविश्य ।' अर्थात् शिष्य, अवग्रह में 'निसीहि' कहता हुअा प्रवेश करे।
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૨૪
श्रमण-सूत्र
अवग्रह में प्रवेश करना चाहिए। बाद में रजोहरण से भूमि प्रमार्जन कर, गुरुदेव के पास गोदोहिका ( उकडू ) श्रासन से बैठकर, प्रथम के तीन श्रावर्त 'अहो, कार्य, काय' पूर्वोक्त विधि के अनुसार करके 'फार्स' कहते हुए गुरु चरणों में मस्तक लगाना चाहिए ।
तदनन्तर 'खमणिजो भे किलामो' के द्वारा चरण स्पर्श करते समय गुरुदेव को जो बाधा होती है, उसकी क्षमा माँगी जाती है । पश्चात् 'अप्प किलंताणं बहु सुभेण भे दिवसो वइकतो' कहकर दिन सम्बन्धी कुशल क्षेम पूछा जाता है । अनन्तर गुरुदेव भी ' तथा ' कह कर अपने कुशल क्षेम की सूचना देते हैं और फिर उचित शब्दों में शिष्य का कुशल क्षेम भी पूछते हैं ।
तदनन्तर शिष्य 'ज त्ता भे' 'ज व शि' 'ज्जं च भे'- इन तीन श्रावत की क्रिया करे एवं संयम यात्रा तथा इन्द्रिय सम्बन्धी और मनः सम्बन्धी शान्ति पूछे । उत्तर में गुरुदेव भी 'तुभं पि वह' कहकर शिष्य से उसकी यात्रा और यापनीय सम्बन्धी सुख शान्ति पूछें ।
तत्पश्चात् मस्तक से गुरु चरणों का स्पर्श करके 'ख मेमि खमासमणो देवसियं वइक्कमं' कह कर शिष्य विनम्र भाव से दिन- सम्बन्धी अपने अपराधों की क्षमा माँगता है। उत्तर में गुरु भी 'अहमपि क्षमयामि' कह कर शिष्य से स्वकृत भूलों की क्षमा माँगते हैं । क्षामणा करते समय शिष्य और गुरु के साम्य प्रधान सम्मेलन में क्षमा के कारण विनम्र हुए दोनों मस्तक कितने भव्य प्रतीत होते हैं ? ज़रा भावुकता को सक्रिय कीजिए । वन्दन प्रक्रिया में प्रस्तुत शिरोनमन आवश्यक का भद्रबाहु श्रु त केवलो बहुत सुन्दर वर्णन करते हैं ।
इसके बाद 'आवस्सियाए' कहते हुए श्रवग्रह से बाहर याना चाहिए ।
ग्रह से बाहर लौट कर - 'पडिक्कमामि' से लेकर 'अप्पाशं वोसिरानि' तक का सम्पूर्ण पाठ पढ़ कर प्रथम स्वमासमणो पूर्ण करना चाहिए ।
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२६५
दूसरा खमासमणो भी इसी प्रकार पढ़ना चाहिए । केवल इतना अन्तर है कि दूसरी बार 'श्रावस्सियाए' पद नहीं कहा जाता है, और अवग्रह से बाहर न पाकर वहीं संपूर्ण खमासमणो पढ़ा जाता है। तथा अतिचार-चिन्तन एवं श्रमण सूत्र नमो चउवीसाए-पाठान्तर्गत 'तस्स धम्मस्स' तक गुरु चरणों में ही पड़ने के बाद 'अभुट्टिप्रोमि' कहते हुए, उठ कर बाहर पाना चाहिए ।
प्रस्तुत पाठ में जो 'बहुसुमेण भे दिवसो वइक्कतो' के अंश में "दिवसो वइक्कतो' पाठ है, उसके स्थान में रात्रिक प्रतिक्रमण में 'राई वइकंता' पाक्षिक प्रतिक्रमण में 'पक्खो वइक्कतो' चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में 'चडमासी वइक्कंता' तथा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में 'संवच्छरो वइक्कंतो' ऐसा पाठ पढ़ना चाहिए । वन्दन के २५ आवश्यक __श्री समवायांग सूत्र के १२ वे समवाय में वन्दन स्वरूप का निर्णय देते हुए भगवान् महावीर ने वन्दन के २५ अावश्यक बतलाए हैं :
दुओ णयं जहाजायं,
किति-कम्मं बारसावयं । चउसिरं तिगुरां च,
दुपवेसं एग-निक्खमणं । -'दो अवनत, एक यथाजात, बारह आवर्त, चार शिर, तीन गुप्ति, दो प्रवेश और एक निष्क्रमण-इस प्रकार कुल पच्चीस आवश्यक हैं।'
स्पष्टीकरण के लिए नीचे देखिए :दो अवनत
अवग्रह से बाहर रहा हुआ शिष्य सर्व प्रथम पनच चढ़ाए हुए धनुष के समान अर्धावनत होकर 'इच्छामि खमासमणो व दिलं जाव णिजाए निसीहियाए' कहकर गुरुदेव को वन्दन करने की इच्छा का
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२६६
श्रमण-सूत्र
निवेदन करता है । गुरुदेव की ओर से प्राशा मिल जाने के बाद पुनः अर्धावनत काय से 'अणुजाणह मे मिउग्गह' कह कर अवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा माँगता है। यह प्रथम अवनत आवश्यक है।
अवग्रह से बाहर आकर प्रथम खमासमणो पूर्ण कर लेने के बाद जब दूसरा खमासमणो पढ़ा जाता है, तब पुनः इसी प्रकार अर्धावनत होकर वंदन करने के लिए इच्छा निवेदन करना एवं अवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा माँगना, यह दूसरा अवनत आवश्यक है । दो प्रवेश
गुरुदेव की ओर से अवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा मिल जाने के बाद मुख से निसीहि कहता हुआ एवं रजोहरण से श्रागे की भूमि को प्रमार्जन करता हुआ जब शिष्य अवग्रह में प्रवेश करता है, तब प्रथम प्रवेश श्रावश्यक होता है।
इसी प्रकार एक बार अवग्रह से बाहर अाकर दूसरा खमासमणो पढ़ते समय जब पुनः दूसरी बार अवग्रह में प्रवेश करता है, तब दूसरा प्रवेश आवश्यक होता है । बारह आवर्त
गुरुदेव के चरणों के पास उकडू या गोदुह अासन से बैठे, रजोहरण एक अोर बराबर में रख छोड़े । पश्चात् दोनों घुटने टेककर दोनों हाथों को लम्बा करके गुरु चरणों को हाथ की दशों अंगुलियों से स्पर्श करता हुअा 'अ' अक्षर कहे और फिर दशों अँगुलियों से अपने मस्तक का स्पर्श करता हुआ 'हो' अक्षर कहे, यह प्रथम आवर्त है। इसी प्रकार 'कायं' और 'काय' के भी दो आवर्त समझ लेने चाहिएँ ।
इसके बाद कमल मुद्रा में दोनों हाथों को जोड़कर मस्तक पर लगाए और खमाणजो भे से लेकर दिवसों वइक्कतो तक पाठ बोले । अनन्तर दोनों हाथों को लम्बा करके दशों अँगुलियों से गुरुचरणों को
१ कुछ प्राचार्य कमल मुद्रा से कहते हैं ।
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
२६७ स्पर्श करता हुअा 'ज' अक्षर कहे, फिर हाथों को हटाकर हृदय के पास लाता हुअा 'त्ता' अक्षर कहे, और अन्त में दशों अँगुलियों से अपने मस्तक को स्पर्श करता हुअा 'भे' अक्षर कहे । इस प्रकार चौथा प्रावर्त होता है। इसी प्रकार शेष दो आवर्त भी 'ज व णि' और 'जं च भे' के समझ लेने चाहिएँ। ।
ये छह श्रावर्त अावश्यक प्रथम खमासण के हैं। इसी प्रकार दूसरे खमासण के भी छह आवर्त आवश्यक होते हैं । एक निष्क्रमण
बारह आवर्त करने के बाद प्रथम दोनों हाथों से और पश्चात् मस्तक से गुरु चरणों का स्पर्श करे तथा 'खामेमि खमासमणो देवसियं वइक्कम' का पाठ कहे। इसके अनन्तर खड़े होकर रजोहरण से अपने पीछे की भूमि का प्रमार्जन करता हुआ, गुरुदेव के मुखकमल पर दृष्टि लगाए, मुख से 'पावस्सियाए' कहता हुश्रा, उल्टे पैरों वापस लौट कर अवग्रह से बाहर निकले । यह निष्क्रमण आवश्यक है।
अवग्रह से बाहर गुरुदेव की ओर मुख कर के पैरों से जिन-मुद्रा का और हाथों से योग-मुद्रा का अभिनय कर के खड़ा होना चाहिए । पश्चात् पडिक्कमामि से लेकर सपूर्ण खमासमणो पढ़ना चाहिए । तीन गुप्ति
जब शिष्य वन्दन करने के लिए अवग्रह में प्रवेश करता है, तब 'निसीहि' कहता है। उसका भाव यह है कि अब मैं मन, वचन और काय की अन्य सब प्रवृत्तियों का निषेध करता हूँ एवं तीनों योगों को एक मात्र वन्दन-क्रिया में ही नियुक्त करता हूँ। यह एकाग्र भाव की सूचना है, जो तीन गुप्तियों के आवश्यक का निदर्शन है ।
__ मनोगुप्ति आवश्यक यह है कि मन में से अन्य सब सकल्मों को निकाल कर उसमें एकमात्र वंदना का मधुर भाव ही रहना चाहिए । बिखरे मन से वन्दन करने पर कम निर्जरा नहीं होती।
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२६८
श्रमण सूत्र
... वचन गुप्ति आवश्यक यह है कि वन्दन करते समय बीच में और कुछ नहीं बोलना। वचन का व्यापार एकमात्र वन्दन-क्रिया के पाठ में ही लगा रहना चाहिए। और उच्चारण अस्खलित, स्पष्ट एवं सस्वर होना चाहिए।
काय गुप्ति आवश्यक यह है कि शरीर को इधर-उधर आगे-पीछे न हिलाकर पूर्ण रूप से नियंत्रित रखना चाहिए। शरीर का व्यापार वन्दन क्रिया के लिए ही हो, अन्य किसी कार्य के लिए नहीं । वन्दन करते समय शरीर से वन्दनातिरिक्त क्रिया करना निषिद्ध है । चार शिर _ अवग्रह में प्रवेश कर क्षामणा करते हुए शिष्य एवं गुरु के दो शिर परस्पर एक दूसरे के सम्मुख होते हैं, यह प्रथम खमासमणो के दो शिरः सम्बन्धी आवश्यक हैं । इसी प्रकार दूसरे खमासमणो के दो शिरः सम्बन्धी आवश्यक भी समझ लेने चाहिएँ । इस सम्बन्ध में प्राचार्य हरिभद्र आवश्यक नियुक्ति १२०२ वीं गाथा की व्याख्या में स्पष्ट लिखते हैं.---'प्रथम प्रविष्टस्य क्षामणाकाले. शिप्याचार्यशिरोद्वयं, पुनरपि निष्क्रम्य प्रविष्टस्य द्वयमेवेति भावना।' प्राचार्य अभयदेव भी समवायांग सूत्र की वृत्ति में ऐसा ही उल्लेख करते हैं ।
प्रवचन सारोद्धार की टीका में श्री सिद्धसेनजी शिर का शिरोवनमन में लक्षणा मानते हैं और कहते हैं कि जहाँ क्षामणाकाल में 'खामेषि खमासमणो देवसियं वइक्कम' कहता हुआ शिष्य अपना मस्तक गुरु चरणों में झुकाता है, वहाँ गुरुदेव भी 'अहमवि खामेमि तुमे' कहकर अपना शिरोवनमन करते हैं।
श्री सिद्धसेनजी एक और मान्यता उद्धृत करते हैं, जो केवल शिष्य के ही चार शिरोवनमन की है। एक शिरोवनमन 'संफास' कहते हुए
और दूसरा क्षामणा काल में 'खामेमि खमासमणो' कहते हुए । 'अन्यत्र पुनरेव दृश्यते-संफासनमणे एर्ग, खामणानमण सीसस्स बीयं । एवं बीयपसे वि दोन्नि ।'
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द्वादशावते गुरुवन्दन-सूत्र
२६६
यथाजात-मुद्रा .
गुरुदेव के चरणों में वन्दन क्रिया करने के लिए शिष्य को यथाजात मुद्रा का अभिनय करना चाहिए । दोनों ही 'खमासमण सूत्र' यथाजात मुद्रा में पढ़ने का विधान है। यथा जात का अर्थ है यथा जन्म अर्थात् जिस मुद्रा में बालक का जन्म होता है, उस जन्मकालीन मुद्रा के समान मुद्रा।
जब बालक माता के गर्भ से जन्म लेता है, तब वह नम होता है । उसके दोनों हाथ मस्तक पर लगे हुए होते हैं । संसार का कोई भी बाह्य वासनामय प्रभाव उस पर नहीं पड़ा होता है। वह सरलता, मृदुता, विनम्रता और सहृदयता का जीवित प्रतीक होता है। अस्तु, शिष्य को भी वन्दन के लिए इसी प्रकार सरलता, मृदुता, विनम्रता एवं सहृदयता का जीवित प्रतीक होना चाहिए । बालक अज्ञान में है, अतः वह कोई साधना नहीं है । परन्तु साधक तो ज्ञानी है। वह सरलता आदि गुणों को साधना की दृष्टि से विवेक पूर्वक अपनाता है, जीवन के कण-कण में नम्रता का रस बरसाता है, गुरुदेव के समक्ष एक सद्यःसंजात बालक के समान दयापात्र स्थिति में प्रवेश करता है और इस प्रकार अपने को क्षमा-भिक्षा का योग्य अधिकारी प्रमाणित करता है।
यथाजात-मुद्रा में वन्दनार्थी शिष्य सर्वथा नम तो नहीं होता, परन्तु रजोहरण, मुख वस्त्रिका और चोलपट्ट के अतिरिक्त और कोई वस्तु अपने पास नहीं रखता है और इस प्रकार बालक के समान नग्नता का रूपक अपनाता है । भयंकर शीतकाल में भी यह नाम मुद्रा अपनाई जाती है । प्राचीनकाल में यह पद्धति रही है । परन्तु आजकल तो कपाल पर दोनों हाथों को लगाकर प्रणाम-मुद्रा कर लेने में ही यथाजात-मुद्रा की पूर्ति मान ली जाती है।
यथाजात का अर्थ 'श्रमण वृत्ति धारण करते समय की मुद्रा' भो किया जाता है। श्रमण होना भी, संसार-गर्भ से निकल कर एक विशुद्ध आध्यात्मिक जन्म ग्रहण करना है । जब साधक श्रमण बनता है, तब
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श्रमण-सूत्र
रजोहरण, मुखवस्त्रिका और चोलपट्ट के अतिरिक्त और कुछ भी अपने पास नहीं रखता है एवं दोनों हाथों को मस्तक से लगाकर वन्दन करने की मुद्रा में गुरुदेव के समक्ष खड़ा होता है । तः मुनि दीक्षा ग्रहण करने के काल की मुद्रा भी यथाजात मुद्रा कहलाती है ।
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यथाजात - मुद्रा के उपर्युक्त स्वरूप के लिए, आवश्यक सूत्र की वृत्ति और प्रवचन सारोद्वार की वृत्ति दृव्य है | श्रावश्यक सूत्र की अपनी शिष्यहिता वृत्ति में आचार्य हरिभद्र लिखते हैं- 'यथाजातं श्रमणत्वमाश्रित्य योनिनिष्क्रमणं च तत्र रजोहरण-मुखवस्त्रिका चोक्षपट्टमात्रया - श्रमशो जातः, रचितकरपुटस्तु योन्या निर्गतः, एवं भूत एव वन्दते ।'
ન
यह पच्चीस श्रावश्यकों का वर्णन हरिभद्रीय आवश्यक वृत्ति और प्रवचन सारोद्धार वृत्ति के आधार पर किया गया है । इस सम्बन्ध में जैनजगत के महान् ज्योतिर्धर स्व० जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहरलाल जी महाराज के हस्तलिखित पत्र से भी बहुत कुछ जानकारी प्राप्त की गई है; इसके लिए लेखक श्रद्धय जैनाचार्य पूज्य श्री गणेशीलाल जी महाराज का कृतज्ञ है ।
छः स्थानक
प्रस्तुत 'खमासमणो' सूत्र में छः स्थानक माने जाते हैं । " इच्छामि १ खमासमणो ! २ वं' दिउ ३ जाव(जाए४ निसीहियाए" के द्वारा वन्दन करने की इच्छा निवेदन की जाती है, : यह शिष्य की ओर का पंचपद रूप प्रथम 'इच्छा निवेदन' स्थानक है ।
इच्छानिवेदन के उत्तर में गुरुदेव भी 'त्रिविधेन' अथवा 'छंदसा' कहते हैं, यह गुरुदेव की ओर का उत्तर रूप प्रथम स्थानक है ।
इसके बाद शिष्य 'अगुजाराह१ मे २ मिउभाहं३' कह कर श्रवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा माँगता है, यह शिष्य की ओर का त्रिपदात्मक आज्ञा याचना रूप दूसरा स्थानक है ।
१ प्राचीनकाल में इसी मुद्रा में निदीक्षा दी जाती थी ।
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द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र
इसके उत्तर में गुरुदेव भी 'अणुजाणामि' कह कर आज्ञा देते हैं, यह गुरुदेव की अोर का अाशाप्रदान रूप दूसरा स्थानक है । ___"निसीहि३ अहोर कायं३ कायसंफासं४ । खमणिज्जो५ भे६ किलामो७ । अप्पकिलंता बहुसुभेण भे१० दिवसो११ वइक्कतो१२ ?" ---यह शिष्य की अोर का द्वादशपद रूप शरीरकुशलपृच्छा नामक तीसरा स्थानक है।
इसके उत्तर में गुरुदेव 'संथा' कहते हैं | तथा का अर्थ है जैसा तुम कहते हो वैमा ही है, अर्थात् कुशल है। यह गुरुदेव की अोर का तीसरा स्थानक है। ____ इसके अनन्तर "जत्ता १ मे २" कहा जाता है । यह शिष्य की ओर का द्विपदात्मक संयम यात्रा पृच्छा नामक चौथा स्थानक है। उत्तर में गुरुदेव भी 'तुब्भं पि. वट्टइ-युष्माकमपि वर्तते ?' कहते हैं, जिसका अर्थ है-तुम्हारी संयम यात्रा भी निधि चल रही है ? यह गुरुदेव की श्रोर का संयम यात्रा पृच्छा नामक चौथा स्थानक है। ___ इसके बाद " जवणिज च २ मे३' कहा जाता है। यह शिष्य की ओर!का त्रिपदात्मक यापनीय पृन्छा नामक पाँचवाँ स्थानक है ।
उत्तर में गुरुदेव भी 'एव' कहते हैं, जिसका अर्थ है इन्द्रिय-विजय रूप यापना ठीक तरह चल रही है। यह गुरुदेव की ओर का पाँचवाँ स्थानक है।
इसके अनन्तर "खामेमि खमासमणोर. देवसिग्रं३ वहकमं" कहा जाता है। यह शिष्य की. ओर का पदचतुष्टयात्मक-अपराधक्ष्ममणारूप. छठा स्थानक है। __ उत्तर में गुरुदेव भी 'क्षमयामि' कहते हैं, जिसका अर्थं. है मैं भी सारणा वारणा करते समय जो भूलें हुई हों, उसकी क्षमा चाहता हूँ। यह गुरुदेव की अोर का अपराधा क्षामणा रूप छठा स्थानक है ।
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प्रत्याख्यान-सूत्र
नवस्कार सहित सूत्र उग्गर सूरे' नमोक्कारसहियं पञ्चक्खामि चउव्विहं पि आहारं-असणं, पाणं, खाइम, साइमं । - अन्नत्थ-ऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, वोसिरामि ।
. भावार्थ सूर्य उदय होने पर--दो घड़ी दिन चढ़े तक-नमस्कार सहित प्रत्याख्यान ग्रहण करता हूँ, और अशन, पान, खादिम, स्वादिम चारों हो प्रकार के श्राहार का त्याग करता हूँ। - प्रस्तुत प्रत्याख्यान में दो श्रागार = आकार अर्थात् अपवाद हैं-- अनाभोग=अत्यन्त विस्मृति और सहसाकार=शीघ्रता ( अचानक )। इन दो श्राकारों के सिवा चारों श्राहार बोसिराता हूँ-त्याग करता हूँ।
१ 'सूरे उग्गए'-इति हरिभद्राः। 'नमोक्कारं पञ्चक्खाति सूरे उग्गए'--इति जिनदासाः।
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प्रत्याख्यान-सूत्र
३०३ विवेचन यह 'नमस्कार सहित' प्रत्याख्यान का सूत्र है। नमस्कार सहित का अर्थ है- 'सूर्योदय से लेकर दो घड़ी दिन चढ़े तक अर्थात् मुहूर्त भर के लिए, विना नमस्कार मंत्र पढ़े श्राहार ग्रहण नहीं करना । इसका दूसरा नाम नमस्कारिका भी है। आजकल साधारण बोलचाल में नवकारिसी कहते हैं।
चार आहार इस प्रकार हैं
(१) अशन-इसमें रोटी, चावल आदि सभी प्रकार का भोजन श्रा जाता है।
(२) पान-दूध, द्राक्षारस पानी आदि पीने योग्य सभी प्रकार की • चीजें पान में श्रा जाती हैं । परन्तु आजकल परंपरा के नाते पान से केवल जल ही ग्रहण किया जाता है।
(३) खादिम-बादाम, किसमिस श्रादि मेवा और फल खादिम
१ "नमस्कारेण-पञ्चपरमेष्ठिस्तवेन सहितं प्रत्याख्याति । 'सर्वे धातवः करोत्यर्थेन व्याप्ता' इति भाष्यकारवचनान्नमस्कारसहितं प्रत्याख्यानं करोति ।" यह प्राचार्य सिद्धसेन का कथन है । इसका भावार्थ है कि मुहूर्त पूरा होने पर भी नवकार मंत्र पढ़ने के बाद ही नमस्कारिका का प्रत्याख्यान पूर्ण होता है. पहले नहीं। यदि मुहूर्त से पहले ही नवकार मंत्र पढ़ लिया जाय, तब भी नमस्कारिका पूर्ण नहीं होती है । नमस्कारिका के लिए यह आवश्यक है कि सूर्योदय के बाद एक मुहूर्त का काल भी पूर्ण हो जाय और प्रत्याख्यान-पूर्ति स्वरूप नवकार मंत्र का जप भी कर लिया जाय ! इसी विषय को प्रवचन सारोद्धार की वृत्ति में प्राचार्य सिद्धसेन ने इस प्रकार स्पष्ट किया है.-"स च नमस्कारसहितः पूर्णेऽपि काले नमस्कारपाठमन्तरेण प्रत्याख्यानस्यापूर्यमाणत्वात् , सत्यपि च नमस्कारपाठे मुहूर्ताभ्यन्तरे प्रत्याख्यानभङ्गात् । ततः सिद्धमेतत् मुहूर्तमानकाल नमस्कारसहितं प्रत्यायानमिति ।"--प्रत्याख्यानद्वार। ..
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३.०४
श्रमण-सूत्र में अन्तर्भूत हैं। कुछ प्राचार्य मिष्टान्न को अशन में ग्रहण करते हैं और कुछ खादिम में, यह ध्यान में रहे ।
(४) स्वादिम-सुपारी, लौंग, इलायची आदि मुखवास स्वादिम माना जाता है। इस आहार में उदरपूर्ति की दृष्टि न होकर मुख्यतया मुख के स्वाद की ही दृष्टि होती है । संयमी साधक प्रस्तुत श्राहार का ग्रहण स्वाद के लिए नहीं, प्रत्युत मुख की स्वच्छता के लिए करता है। ____संस्कृत का आकार ही प्राकृत भाषा में प्रागार है। प्राकार का अर्थ-अपवाद माना जाता है। अपवाद का अर्थ है कि---यदि किसी विशेष स्थिति में त्याग की हुई वस्तु सेवन भी करली जाय तो भी प्रत्याख्यान का भंग नहीं होता। अतएव श्राचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र के तीसरे प्रकाश की वृत्ति में लिखते हैं --'आक्रियते विधीयते प्रत्याख्यानभंगपरिहारार्थमित्याकार:'.---'प्रत्याख्यानं च अपवादरूपाकार सहितं कर्तव्यम् , अन्यथा तु भंगः स्यात् ।'
१ श्रा-मर्यादया मर्यादाख्यापनार्थमित्यर्थः क्रियन्ते विधीयन्ते इत्याकाराः'-प्रवचन सारोद्धार वृत्ति ।-प्रत्याख्यानद्वार ।
'श्राकारोहित नाम प्रत्याख्यानापवादहेतुः ।-हरिभद्रीयः श्रावश्यक सूत्र वृत्ति, प्रत्याख्यान आवश्यक ।
जैन-धर्म विवेक.का धर्म है। अतः यहाँ प्रत्याख्यान श्रादि करते समय भी विवेक का पूरा ध्यान रखा जाता है। साधक दुर्बल एवं अल्पज्ञ प्राणी है। अतः उसके समक्ष अज्ञानता एवं अशक्तता श्रादि के कारण कभी वह विकट प्रसंग पा सकता है, जो उसकी कल्पना से बाहर हो । यदि पहले से ही उस स्थिति का अपवाद नारकरखा जाय तो व्रत भंग होने की संभावना रहती है। यही कारण है कि प्रस्तुत प्रत्याख्यान सूत्र में पहले से ही उस विशेष स्थिति की छूट 'प्रतिज्ञा-पाठ में रक्खी गई है, ताकि साधक का व्रत-भंगः न होने पाए। यह है पहले से ही भविष्य को ध्यान में रख कर चलने की दूरदर्शितारूप निवेक वृत्ति ।।
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प्रत्याख्यान-सूत्र
३०५
नमस्कारिका में केवल दो ही अाकार हैं-अनाभोग, और महसाकार ।
(१) अनाभोग का अर्थ है-अत्यन्त विस्मृति । प्रत्याख्यान लेने की बात सर्वथा भूल जाय और उस समय अनवधानला वश कुछ खा पी लिया जाय तो वह अनाभोग आगार की मर्यादा में रहता है ।
(२) दूसरा आगार सहसाकार है। इसका अर्थ है-मेघ बरसने पर अथवा दही आदि मथते समय अचानक ही जल या छाछ आदि का छींटा मुख में चला जाय ।
अनाभोग और सहसाकार दोनों ही प्रागारों के सम्बन्ध में यह बात है कि जब तक पता न चले, तबतक तो व्रत भंग नहीं होता। परन्तु पता चल जाने पर भी यदि कोई मुख का ग्रास थूके नहीं, आगे खाना बंद नहीं करे तो व्रत भंग हो जाता है । अस्तु, साधक का कर्तव्य है कि ज्यों ही पता चले, त्यों ही भोजन बंद कर दे और जो कुछ मुख में हो वह सब भी यतना के साथ थूक दे ।
एक प्रश्न है ! मूल पाठ में तो केवल नमस्कार-सहित ही शब्द है, काल का कुछ भी उल्लेख नहीं है। फिर यह दो घड़ी की कालमर्यादा किस आधार पर प्रचलित है ?
प्रश्न बहुत सुन्दर है। प्राचार्य सिद्धसेन ने इसका अच्छा उत्तर दिया है। प्रबचन सारोद्धार की वृत्ति में उन्होंने नमस्कारसहित को मुहूर्त का विशेषण मानते हुए कहा है-'सहित शब्देन मुहूर्तस्य विशेषितत्वात् । इसका भावार्थ यह है कि नमस्कार से सहित जो मुहूर्त, वह नमस्कार सहित कहलाता है। अर्थात् जिसके अंन्त में नमस्कार क उच्चारण किया जाता है, वह मुहूर्त । आप कहेंगे-मूल पाठ में तो कहीं इधर उधर मुहूर्त शब्द है नहीं; फिर विशेष्य के बिना विशेषण कैसा ? उत्तर में निवेदन है कि-नमस्कारिका का पाठं श्रद्धा प्रत्याख्यान में है। अतः काल की मर्यादा अवश्य होनी चाहिए। यदि काल की मर्यादा ही न हो तो फिर यह अद्धा प्रत्याख्यान कैसा ? नमस्कारसहित का पाठ पौरुषी के पाठ से पहले है; अतः यह स्पष्ट ही है कि उसका काल-मान
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श्रमण सूत्र
पौरुषी से कम ही होना चाहिए । श्राप कहेंगे कि पौरुषी के कालमान से कम तो दो मुहूर्त भी हो सकते हैं ? फिर एक मुहूर्त ही क्यों ? उत्तर है कि नमस्कारिका में पौरुषी आदि अन्य प्रत्याख्यानों की अपेक्षा सब से कम, अर्थात् दो ही आकार हैं; अतः अल्पाकार होने से इसका कालमान बहुत थोड़ा माना गया है और वह परंपरा से एक मुहूर्त है । अद्धाप्रत्याख्यान का काल कम से कम एक मुहूर्त माना जाता है।
नमस्कारिका, रात्रिभोजन-दोष की निवृत्ति के लिए है। अर्थात् प्रातः काल दिनोदय होते ही मनुष्य यदि शीघ्रता में भोजन करने लगे
और वस्तुतः सूर्योदय न हुआ हो तो रात्रि भोजन का दोष लग सकता है । यदि दो घड़ी दिन चढ़े तक के लिए श्राहार का त्याग नमस्कारिका के द्वारा कर लिया जाय तो फिर रात्रि-भोजन की संभावना नहीं रहती। दूसरी बात यह है कि साधक के लिए तप की साधना करना आवश्यक है; प्रतिदिन कम से कम दो धड़ी का तप तो होना ही चाहिए । नमस्कारिका में यह नित्य प्रति के तपश्चरण का भाव भी अन्तर्निहित है।।
दूसरों को प्रत्याख्यान कराना हो तो मूल पाठ में 'पञ्चक्खाइ' और 'वोसिरह' कहना चाहिए। यदि स्वयं करना हो, तो उल्लिखित पाठानुसार 'पञ्चक्खामि' और 'वोसिरामि' कहना चाहिए । श्रागे के पाठों में भी यह परिवर्तन ध्यान में रखना चाहिए। ___यही पाठ सांकेतिक अर्थात् संकेत पूर्वक किए जाने वाले प्रत्याख्यान का भी है। वहाँ केवल 'गंठिसहियं' या 'मुट्ठिसहिय' आदि पाठ नमुक्कार सहियं के आगे अधिक बोलना चाहिए। गंठिसहियं और मुट्ठिसहियं का यह भाव है कि जब तक बँधी हुई गाँठ अथवा मुट्ठी आदि न खोलूँ तब तक चारों आहार का त्याग करता हूँ।
१-'गंठिसहियं, मुट्ठिसहियं' आदि सांकेतिक प्रत्याख्यान पाठ में 'महत्तरागारेणं सव्यसमाहिवत्तियागारेणं' ये दो आगार अधिक बोलने चाहिएँ। यह सांकेतिक प्रत्याख्यान अन्य समय में भी किया जा सकता
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प्रख्यान-सूत्र
नमस्कारिका चतुर्विधाहार-त्यागरूप होती है या त्रिविधाहारत्यागरूप ? इस प्रश्न के सम्बन्ध में यह वक्तव्य है कि नमस्कारिका चतुविधाहार त्यागरूप ही होती है । नमस्कारिका का कालमान एक मुहूर्तभर ही होता है, अतः वह अल्पकालिक होने से चतुर्विधाहार त्यागरूप ही है। प्राचीन परंपरा भी ऐसी ही है । 'चतुर्विधाहारस्यैव भवतीति वृद्धसम्प्रदायः। ----प्रवचन सारोद्धार वृत्ति ।
नमस्कारिका में दो श्रागार माने गए हैं-अनाभोग और सहसाकार। आजकल के कुछ विद्वान, अपने प्रतिक्रमण सूत्र में, नौकारसी के चार या पाँच भागार भी लिखते हैं, परन्तु यह लेख परंपरा-विरुद्ध है। प्राचीन श्राचार्य हेमचन्द्र आदि, दो ही श्रागार बतलाते हैं-'नमस्कारसहिते प्रत्याख्याने द्वौ आकारी भवतः'---योग शास्त्र, तृतीय प्रकाश वृत्ति । ___ प्राचार्य भद्रबाहु स्वामी ने भी नमस्कारिका के दो ही श्रागार माने हैं-'दो चेव नमोक्कारे 1-श्रावश्यक नियुक्ति, गाथा १५६६ ।
है, अतः जब कभी अन्य समय में किया जाय, तब 'उग्गए सूरे यह अंश नहीं बोलना चाहिए।
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(२)
पौरुषी-सूत्र उग्गर सूरे पोरिसिं पञ्चमवामि; चउब्धिहं पि आहारंअसणं, पाणं, खाइमं, साइमं ।
अन्नत्थ-ऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, सव्यसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि ।
भावाथ पौरुषी का प्रत्याख्यान करता हूँ । सूर्योदय से लेकर अशन, पान, खादिम और स्वादिम चारों ही अाहार का प्रहर दिन चढ़े तक त्याग करता हूँ।
अनाभोग, सहसाकार, प्रच्छन्नकाल, दिशामोह, साधु वचन, सर्वसमाधिप्रत्ययाकार-उक्त छहों श्राकारों के सिवा पूर्णतया चारों आहार का त्याग करता हूँ।
विवेचन सूर्योदय से लेकर एक पहर दिन चढ़े तक चारों प्रकार के श्राहार का त्याग करना, पौरुषी प्रत्याख्यान है। पौरुषी का शाब्दिक अर्थ है-- 'पुरुष प्रमाण छाया ।' एक पहर दिन चढ़ने पर मनुष्य की छाया
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पौरुषी सूत्र
३०६
घटते-घटते अपने शरीर प्रमाण लंबी रह जाती है। इसी भाव को लेकर पौरुषी शब्द प्रहर परिमित काल विशेष के अर्थ में लक्षणा के द्वारा रूढ़ हो गया है।
साधक कितना ही सावधान हो; परन्तु अाखिर वह एक साधारण छद्मस्थ व्यक्ति है। अतः सावधान होते हुए भी बहुत बार व्रत-पालन में भूल हो जाया करती है। प्रत्याख्यान की स्मृति न रहने से अथवा अन्य किसी विशेष कारण से व्रतपालन में बाधा होने की संभावना है। ऐसी स्थिति में व्रत खण्डित न हो, इस बात को ध्यान में रखकर प्रत्येक प्रत्याख्यान में पहले से ही संभावित दोषों का श्रागार, प्रतिज्ञा लेते समय ही रख लिया जाता है । पोरिसी में इस प्रकार के छह श्रागार हैं :
(.) अनाभोग-प्रत्यारख्यान की विस्मृति हो जाने से भोजन कर लेना।
(२) सहसाकार---अकस्मात् जल आदि का मुख में चले जाना।
(३) प्रच्छन्नकाल-बादल अथवा आँधी आदि के कारण सूर्य के ढंक जाने से पोरिसी पूर्ण हो जाने की भ्रान्ति हो जाना ।
(४) दिशामोह-पूर्व को पश्चिम समझ कर पोरिसी न आने पर भी सूर्य के ऊँचा चढ़ आने की भ्रान्ति से अशनादि सेवन कर लेना ।
(५) साधुवचन-'पोरिसी भा गई' इस प्रकार किसी प्राप्त पुरुष के कहने पर बिना पोरिसी अाए ही पोरिसी पार लेना ।
(६) सर्व समाधिप्रत्ययाकार-किसी अाकस्मिक शूल अादि तीव्र सेग की उपशान्ति के लिए औषधि आदि ग्रहण कर लेना । ___'सर्व समाधि प्रत्ययाकार' एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण श्रागार है । जैन संस्कृति का प्राण स्याद्वाद है और वह प्रस्तुत प्रागार पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है । तप बड़ा है या जीवन ! यह प्रश्न है, जो दार्शनिक क्षेत्र में गंभीर विचार-चर्चा का क्षेत्र रहा है। कुछ दार्शनिक तप को महत्त्व देते हैं तो कुछ जीवन को ? परन्तु जैन दर्शन तप को भी महत्व
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३१०
श्रमण-सूत्र
देता है और जीवन को भी ! कभी ऐसी स्थिति होती है कि जीवन की अपेक्षा तप महत्त्वपूर्ण होता है । कभी क्या, तप सदा ही महत्त्वपूर्ण है ! जीवन किसके लिए है ? तप के लिए ही तो जीवन है। परन्तु कभी ऐसी भी स्थिति हो सकती है कि तप को अपेक्षा जीवनरक्षा अधिक आवश्यक हो जाती है । तप जीवन पर ही तो आश्रित है। जीवन रहेगा तो कभी फिर भी तपः साधना की जा सकेगी। यदि जीवन ही न रहेगा तो, फिर तप कब और कैसे किया जा सकेगा ? “जीवनरो भद्रशतानि पश्येत् ।' ।
सर्वसमाधिप्रत्यय नामक प्रस्तुत प्रागार, इसी उपर्युक्त भावना को लेकर अग्रसर होता है । तपश्चरण करते हुए यदि कभी आकस्मिक विसूचिका या शूल आदि का भयंकर रोग हो जाय, फलतः जीवन संकट में मालूम पड़े तो शीघ्र ही औषधि आदि का सेवन किया जा सकता है। जीवन क्षति के विशेष प्रसंग पर प्रत्याख्यान होते हुए भी औषधि आदि सेवन कर लेने से जैन धर्म प्रत्याख्यान का भंग होना स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार के विकट प्रसंगों के लिए पहले से ही छूट रक्खी जाती है, जिसके लिए जैन-धर्म में श्रागार शब्द व्यवहृत है। जैन धर्म में तप के लिए अत्यन्त श्रादर का स्थान है, परन्तु उसके लिए व्यर्थं का मोह नहीं है। जैन धर्म के क्षेत्र में विवेक का बहुत बड़ा महत्त्व है। तप के हठ में अड़े रहकर औषधि सेवन न करना और व्यर्थ ही अनमोल मानव जीवन का संहार कर देना, जैन धर्म की दृष्टि में कथमपि उचित नहीं है । व्यर्थ का दुराग्रह रखने से आर्त और रौद्र दुर्ध्यान की संभावना है, जिनके कारण कभी कभी साधना का मूल ही नष्ट हो जाता है। अतः श्राचार्य सिद्धसेन की गंभीर वाणी में कहें तो औषधि का सेवन जीवन के लिए नहीं, अपितु प्रार्त रौद्र दुर्ध्यान की निवृत्ति के लिए आवश्यक है।
अपने को भयंकर रोग होने पर ही औषधि सेवन करना, यह बात नहीं है। अपितु किसी अन्य के रोगी होने पर यदि कभी वैद्य आदि को सेवाकार्य एवं सान्त्वना देने के लिए भोजन करना पड़े तो उसका भी प्रत्याख्यान में आगार होता है। जैन धर्म अपने समान ही दूसरे की
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पौरुषी सूत्र
३११ समाधि का भी विशेष ध्यान रखता है । इस सम्बन्ध में प्राचार्य सिद्धसेन का अभिप्राय मनन करने योग्य है :
-"कृतपौरुषीप्रत्या यानस्य सहसा सञ्जाततीव्रशूलादिदुःखतया समुत्पनयोरातरौद्रध्यानयोः सर्वधा निरासः सर्वसमाधिः, स एव भाकारः-प्रत्या ज्यानापवादः सर्वसमाविप्रत्यय कारः । पौरुष्याम पूर्णागामप्यकस्मात् शूलादिव्यथायां समुत्पन्नायां तदुपशमनायौषधपथ्यादि. के भुञानस्य न प्रत्यायानभा इति भावः । वैद्यादिर्वा कृतपौरुषीप्रत्याख्यानोऽन्यस्यातुर त्य समाधिनिमित्त यदाऽपूर्णायामपि पौरुष्यां भुक क्ते तदा न भङ्गः । अर्धभुक्ते त्वातुरस्य समाशे मरण वोत्पन्ने सति तथैव भोजनत्यागः ।".-प्रवचनसारोद्धार वृत्ति । ___ श्राचार्य जिनदास ने भी अावश्यक चूणि' में ऐसा ही कहा है'समाधी णाम तेण य पोरुसी पच्चक्खाता, श्रासुक्कारियं च दुक्खं उप्पन्नं तस्स अन्नरस वा, ते किंचि कायव्वं तस्स, ताहे परो विज्जे (हवे) जा तस्स वा पसमणणिमित्त पाराविजति प्रोसहं वा दिजति ।
___ यही पाठ अपनी आवश्यक वृत्ति में प्राचार्य हरिभद्र ने उद्धृत किया है। ____प्राचार्य तिलक लिखते हैं...-'तीव्रशूलादिना विह्वलस्य समाधिनिमित्तमौषधपथ्यादिप्रत्ययः कारण स एव श्राकारः ।'
प्राचार्य नमि भी कहते हैं-'समाधिः स्वास्थ्यं तत्प्रत्ययाकारण, यथा कस्यचित् प्रत्यार यातुरन्यस्य वा किमप्यातुरं दुःखमुत्पन्नं तदुपशमहेतोः पार्यते ।
प्रच्छन्नकाल, दिशामोह अोर साधुवचन उक्त तीनों प्रागारों का यह अभिप्राय है कि-भ्रान्ति के कारण पौरुषी पूर्ण न होने पर भी पूर्ण समझ कर भोजन कर लिया जाय तो कोई दोष नहीं होता। यदि भोजन करते समय यह मालूम हो जाय कि अभी पौरुषी पूर्ण नहीं हुई है तो
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३१२
श्रमण-सूत्र
उसी समय भोजन करना छोड़ देना चाहिए । पौरुपी पूर्ण जानकर भ भोजन करता रहे तो प्रत्याख्यान भंग का दोष लगता है ।
पौरुषी के समान ही सार्ध पौरुपी का प्रत्याख्यान भी होता है । इसमें डेढ़ पहर दिन चढ़े तक आहार का त्याग करना होता है । अस्तु, जब उक्त सार्धं पौरुषी का प्रत्याख्यान करना हो तब 'पोरिसि' के स्थान पर 'साढ पोरिसिं' पाठ कहना चाहिए ।
आज कल के कुछ लेखक पौरुषी के पाठ में 'महत्तरागारेण' का पाठ बोलकर छह की जगह सात श्रागार का उल्लेख करते हैं; यह भ्रान्ति पर अवलम्बित हैं । हरिभद्र आदि श्राचार्यों की प्राचीन परंपरा, पौरुषी में केवल छह ही ग्रागार मानने की है ।
साधु सशक्त हो तो उसे पौरुषी आदि चउविहार ही करने चाहिएँ । यदि शक्ति न हो तो तिविहार भी कर सकता है । परन्तु दुविहार पौरुषी कदापि नहीं कर सकता । हाँ, श्रावक दुविहार भी कर सकता है। इसके लिए प्राचार्य देवेन्द्र कृत श्राद्ध प्रतिक्रमण वृत्ति देखनी चाहिए |
यदि पौरुषीतिविहार करनी हो तो 'तिवि हं पि श्राहारं असणं, खाइमं साइमं पाठ बोलना चाहिए । यदि श्रावक दुविहार पौरुषी करे
"
तो 'दुविपि श्राहारं असणं खाइम' ऐसा पाठ बोलना चाहिए।
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( ३ )
पूर्वार्ध-सूत्र
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उग्गए सूरे, पुरिमं पच्चक्खामि चउव्विहं पि श्राहारं असणं, पाणं, खाइनं, साइमं ।
अन्नत्थ-ऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नका लेणं, दिसा मोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सव्त्रसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि ।
भावार्थ
सूर्योदय से लेकर दिन के पूर्वार्ध तक प्रर्थात् दो प्रहर तक चारों आहार अशन, पान, खादिम, स्वादिम का प्रत्याख्यान करता हूँ ।
श्राभोग, सहसाकार, प्रच्छन्नकाल, दिशामोह, साधुवचन, महत्तराकार और सर्वसमाधिप्रत्ययाकार—— उक्त सात श्रागारों के सिवा पूर्णतया आहार का त्याग करता हूँ ।
विवेचन
यह पूर्वार्ध प्रत्याख्यान का सूत्र है । इसमें सूर्योदय से लेकर दिनके पूर्व भाग तक अर्थात् दो पहर दिन चढ़े तक चारों आहार का त्याग किया जाता है ।
प्रस्तुत प्रत्याख्यान में सात आगार माने गए हैं। छह तो पूर्वोक्त
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6
३१४
श्रमण-सूत्र
पौरुषी के ही श्रागार हैं, सातवाँ श्रागार 'महत्तराकार' है । महत्तराकार का अर्थ है - विशेष निर्जरा आदि को ध्यान में रखकर रोगी आदि की सेवा के लिए अथवा श्रमण संघ के किसी अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए गुरुदेव आदि महत्तर पुरुष की आज्ञा पाकर निश्चित समय के पहले ही प्रत्याख्यान पार लेना । श्राचार्य सिद्धसेन इस सम्बन्ध में कितना सुन्दर स्पष्टीकरण करते हैं- महत्तरं वशाल्लभ्यनिर्जरापे तया बृहत्तरनिर्जराला हेतुभूतं, पुरुषान्तरे साधयितुमशक्यं ग्लानचैत्यसंघादि प्रयोजनं तदेव श्राकारः --- प्रत्याख्यानापवादो महतराकारः । " आचार्य नमि भी प्रतिक्रमण सूत्र वृत्ति में लिखते हैं- "तिशयेन महान् महत्तर प्राचार्यादिस्तस्य वचनेन मर्यादया करणं महत्तराकारो, यथा केनापि साधुना भक्तं प्रत्याख्यातं, तत कुल-गण-संघादि प्रयोजनमनन्यसाध्यमुत्पन्नं, तत्र चासौ महत्तरैराचार्याचैर्नियुक्रः, तत यदि शक्नोति तथैव कनु तदा करोति; अथ
}
न तदा महत्तरका देशेन भुञ्जानस्य न भङ्गः इति ।"
"
पाठक महत्तराकार के आगार पर जरा गंभीरता से विचार करें । इस आगार में कितना अधिक सेवाभाव को महत्त्व दिया गया है ? तपश्चरण करते हुए यदि अचानक ही किसी रोगी यादि की सेवा का महत्त्वपूर्ण कार्य आ जाय तो व्रत को बीच में ही समाप्त कर सेवा कार्य करने का विधान है । यदि तपस्वी सशक्त हो, फलतः तप करते हुए भी सेवा कर सके तो बात दूसरी है | परन्तु यदि तपस्वी समर्थ न हो तो उसे तप को बीच में ही छोड़कर, यथावसर भोजन करके सेवा कार्य में संलग्न हो जाना चाहिए । तप के फेर में पड़कर सेवा के प्रति उपेक्षा कर देना, जैनधर्म की दृष्टि में क्षम्य नहीं है । सेवा तप से भी महान् है । अनशन आदि बहिरंग तप है तो सेवा अन्तरंग तप है । बहिरंग की अपेक्षा अन्तरंग तप महत्तर है । 'प्रसिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग "
श्राचार्य हरिभद्र ने आवश्यक सूत्र की शिष्यहिता वृत्ति में, श्राचार्य जिनदास की आवश्यक चूर्णि के आधार पर लिखा है :
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- प्रत्यास्यानपालन
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३१५
पूर्वार्ध-सूत्र -"महत्तरा गारेहि-महल्ल पयोयणेहि, तेण भत्तट्ठो पचक्खातो, ताथे श्रायरिएहिं भएणति-अमुगं गामं गंतव्व । तेण निवेदितं-जथा मम अज अभट्ठोत्त । जति ताव समत्थो करेतु जातु य । न तरति अएणो भराद्वितो अभत्तट्टितो वा जो तरति सो वच्चतु । नत्थि अण्णो तस्स वा कन्जस्स समथो ताथे चेव अभराट्टियस्स गुरू विसजयन्ति । एरिस्स तं जेमंतस्स अणभिलासत्स अभाट्टितणि जरा जा सा से भवति गुरुणिोएण।"
प्राचार्य जिनदास आवश्यक चूर्णि के प्रत्याख्यानाधिकार में प्रस्तुत महत्तरागार पर लिखते हैं-'एवं किर तस्स तं जेमंतस्स वि अण भिलासस्स श्रभाट्ठियस्स गिजरा जा सच्चेव पता भवति गुरुनिश्रोएणं ।'
दोनों ही प्राचार्यों का यह कथन है कि यदि तपस्वी साधक को किसी विशेष सेवा कार्य के लिए उपवास श्रादि अभक्तार्थ में भी भोजन कर लेना पड़े तो कोई दोष नहीं होता है । अपितु भोजन करते हुए भी उपवास जैसी ही निर्जरा होती है | क्योंकि भोजन करते हुए भी उसकी भोजन में अभिलाषा नहीं है !
महत्तराकार, नमस्कारिका और पौरुषी में नहीं होता है | क्योंकि उनका काल अल्म है, अतः वह पूर्ण करने के बाद भी निर्दिष्ट सेवा कार्य किया जा सकता है। यच्चात्रैव महत्तराऽऽकार ज्याभिधानं न नमस्कारसहितादौ तत्र कालस्याल्पत्वं, अन्यत्र तु महवं कारण मिति वृद्धा व्याचक्षते ।' -प्रवचन सारोद्धार वृत्ति ।
पूर्वार्धं प्रत्याख्यान के समान ही अपार्थ प्रत्याख्यान भी होता है। अपार्द्ध प्रत्याख्यान का अर्थ है-तीन पहर दिन चढ़े तक अाहार ग्रहण न करना । अपार्द्ध प्रत्याख्यान ग्रहण करते समय 'पुरिमड्द' के स्थान में 'अवड्द' पाठ बोलना चाहिए । शेष पाठ दोनों प्रत्याख्यानों का समान है।
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एकाशन-सूत्र एगासणं पच्चक्खामि तिविहं पि आहारं असणं, खाइम, साइमं ।
अन्नत्थ-ऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारियागारेणं, आउंटण पसारणेण, गुरु अब्भुट्ठाणेण, पारिट्ठावणियागारेण', महत्तरागारेण, सव्वसमाहिवत्तियागारेण वोसिरामि।
भाव.थ ___ एकाशन तप स्वीकार करता हूँ; फलतः अशन, खादिम, स्वादिम तीनों आहारों का प्रत्याख्यान करता हूँ।
अनाभोग, सहसाकार, सागारिकाकार, श्राकुञ्चनप्रसारण,गुर्वभ्युत्थान, पारिठापनिकाकार, महत्तराकार, सव-समाधिप्रत्ययाकार-उक्त पाठ श्रागारों के सिवा पूर्णतया श्राहार का त्याग करता हूँ।
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एकाशन-सूत्र
विवेचन
एकाशन
पौरुपी या पूर्वार्द्ध के बाद दिन में एक बार भोजन करना, सप होता है । एकाशन का अर्थ है- "एक + अशन, अर्थात् दिन में एकबार भोजन करना ।' यद्यपि मूल पाठ में यह उल्लेख नहीं है कि-'दिन में किस समय भोजन करना । फिर भी प्राचीन परंपरा है कि कम से कम एक पहर के बाद ही भोजन करना चाहिए | क्योंकि एकाशन में पौरुषीतप अन्तर्निहित है ।
३१७
प्रत्याख्यान, गृहस्थ तथा श्रावक दोनों के लिए समान ही हैं । त एव गृहस्थ तथा साधु दोनों के लिए एकाशन तब में कोई अन्तर नहीं माना जाता है। हाँ गृहस्थ के लिए यह ध्यान में रखने की बात है कि'वह एकाशन में चित्त अर्थात् प्रासूक आहार पानी ही ग्रहण करे ।' साधु को तो यावज्जीवन के लिए प्रासुक आहार का त्याग ही है ।
-
१ – 'एगासण' प्राकृत शब्द है, जिसके संस्कृत रूपान्तर दो होते हैं 'एकाशन' और 'एकासन ।' एकाशन का अर्थ है - एक बार भोजन करना, और एकासन का अर्थ है— एक आसन से भोजन करना । 'एगास' में दोनों ही अर्थ ग्राह्य हैं । 'एकं सकृत् अशनं भोजनं एकं वा श्रासनं --- पुताचलनतो यत्र प्रत्याख्याने तदेकाशनमेकासनं वा, प्राकृते द्वयोरपि एग समिति रूपम् । - प्रवचनसारोद्वार वृत्ति ।
आचार्य हरिभद्र एकासन की व्याख्या करते हैं कि एक बार बैठकर फिर न उठते हुए भोजन करना । ' एकाशनं नाम सकृदुपविष्ट पुता चालनेन भोजनम् ।' श्रावश्यक वृत्ति '
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आचार्य जिनदास कहते हैं-- एगासग में पुत = नितंब भूमि पर लगे रहने चाहिएँ, अर्थात् एक बार बैठकर फिर नहीं उठना चाहिए । हाँ, हाथ और पैर आदि आवश्यकतानुसार श्राकुञ्चन प्रसारण के रूप में हिलाए - डुलाए जा सकते हैं । 'एगासणं नाम पुता भूमीतो न चालिस 'ति, सेसारि हत्थे पायादि चालेनावि । आवश्यक चूर्णि
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३१८
श्रमण-सूत्र
श्रावक अर्थात् गृहस्थ के लिए पारिट्ठावणियागार' नहीं होता; अतः उसे मूल पाठ बोलते समय 'पारिट्ठावणियागारेणं' नहीं बोलना चाहिए।' ___ एकाशन के समान ही द्विकाशन का भी प्रत्याख्यान होता है । द्विकाशन में दो बार भोजन किया जा सकता है । द्विकाशन करते समय मूल पाठ में 'एगास' के स्थान में 'वियासणे' बोलना चाहिए ।
एकाशन और द्विकाशन में भोजन करते समय तो यथेच्छ चारों आहार लिए जा सकते हैं; परन्तु भोजन के बाद शेष काल में भोजन का त्याग होता है। यदि एकाशन तिविहार करना हो तो शेष काल में पानी पिया जा सकता है। यदि चउविहार करना हो तो पानी भी नहीं पिया जा सकता। यदि दुविहार करना हो तो भोजन के बाद पानी तथा स्वादिम = मुखवास लिया जा सकता है। आजकल तिविहार एकाशन की vथा ही अधिक प्रचलित है, अतः हमने मूल पाठ में 'तिविहं' पाठ दिया है । यदि चउविहार करना हो तो 'चउविहं पि श्राहारं असणं
१ गृहस्थ के प्रत्याख्यान में 'पारिद्वावणियागार' का विधान इस लिए नहीं है कि गृहस्थ के घर में तो बहुत अधिक मनुष्यों के लिए भोजन तैयार होता है। इस स्थिति में प्रायः कुछ न कुछ भोजन के बचने की संभावना रहती ही है। अस्तु, गृहस्थ यदि पारिहापणियागार करे तो कहाँ तक करेगा ? और क्या यह उचित भी होगा ?
- दूसरी बात यह है कि गृहस्थ के यहाँ भोजन बच जाता है तो वह रख लिया जाता है, परठा नहीं जाता है। और उसका अन्य समय पर उचित उपयोग कर लिया जाता है । - साधु की स्थिति इससे भिन्न है। वह अवशिष्ट भोजन को, यदि अागे रात्रि आ रही हो तो रख नहीं सकता है, परठता ही है । अतः उस समय तपस्वी मुनि, यदि परिष्ठाप्य भोजन का उपयोग कर ले तो कोई दोष नहीं है।
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एकाशन सूत्र
३१६
पाण' खाइमं साइमं बोलना चाहिए। यदि दुविहार करना हो तं
'दुविपि श्रहारं असण' खाइमं' बोलना चाहिए ।
दुविहार एकाशन की परंपरा प्राचीन काल में थी, परन्तु आज के युग में नहीं है ।
एकासन में आठ गार होते हैं। चार आगार तो चुके हैं, शेष चार श्रागार नये हैं । उनका स्पष्टीकरण इस
पहले आ ही प्रकार है:
( १ ) सागारिकाकार- कागम की भाषा में सागारिक गृहस्थ को कहते हैं । गृहस्थ के आ जाने पर उसके सम्मुख भोजन करना निषिद्ध है | अतः 'सागारिक के आने पर साधु को भोजन करना छोड़कर यदि बीच में ही उठकर, एकान्त में जाकर पुनः दूसरी बार भोजन करना पड़े तो व्रत भङ्ग का दोष नहीं लगता ।
गृहस्थ के लिए सागारिक का अर्थ है-वह जिसके आने पर भोजन करना उचित न हो ।
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लोभी एवं क्रूर व्यक्ति, अस्तु २ क्रूर दृष्टि वाले
१ आचार्य जिनदास ने श्रावश्यक चूर्णि में लिखा है कि श्रागन्तुक गृहस्थ यदि शीघ्र ही चला जाने वाला हो तो कुछ प्रतीक्षा करनी चाहिए, सहसा उठकर नहीं जाना चाहिए । यदि गृहस्थ बैठने वाला है, शीघ्र ही नहीं जाने वाला है, तब अलग एकान्त में जाकर भोजन से निवृत्त हो लेना चाहिए । व्यर्थ में लम्बी प्रतीक्षा करते रहने में स्वाध्याय आदि की हानि होती है । 'सागारियं श्रद्धसमुद्दिट्ठस्स श्रागतं जदि बोलेति पडिच्छति, ग्रह थिरं ताहे सज्झायवाघातो त्ति उत्ता नत्थ गंतूणं समुद्दिसति ।' सर्प और आदि का उपद्रव होने पर भी अन्यत्र जाकर भोजन किया जा सकता है । सागारिक शब्द से सर्पादि का भी ग्रहण है । २ जैन धर्म छुआछूत के चक्कर में कार' का यह अर्थ नहीं है कि कोई श्रा जाय तो भोजन छोड़कर भाग
नहीं है । अतएव ' सागारिका अछूत या नीची जाति का व्यक्ति खड़ा होना चाहिए । साधु के लिए
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३२०
श्रमण-सूत्र
व्यक्ति के आ जाने पर प्रस्तुत भोजन को बीच में ही छोड़कर एकान्त में जाकर पुनः भोजन करना हो तो कोई दोष नहीं होता । 'गृहस्थस्यापि येन दृष्टं भोजन न जीयति तत्प्रमुखः सागारिको ज्ञातव्यः ।'-~-प्रवचनसारोद्धार वृत्ति ।
(२) श्राकुञ्चनप्रसारण-भोजन करते समय सुन्न पड़ जाने आदि के कारण से हाथ, पैर श्रादि अंगों का सिकोड़ना या फैलाना । उपलक्षण से श्राकुञ्चन प्रसारण में शरीर का आगे-पीछे हिलाना-डुलाना भी पा जाता है।
(३) गुर्वभ्युत्थान--गुरुजन एवं किसी अतिथि विशेष के श्राने पर उनका विनय सत्कार करने के लिए. उठना, खड़े होना ।
प्रस्तुत प्रागार का यह भाव है कि गुरुजन एवं अतिथिजन के आने पर अवश्य ही उठ कर खड़ा हो जाना चाहिए । उस समय यह भ्रान्ति नहीं रखनी चाहिए कि 'एकासन में उठकर खड़े होने का विधान नहीं है । अतः उठने और खड़े होने से व्रतभंग के कारण मुझे दोप लगेगा।' गुरुजनों के लिए उठने में कोई दोष नहीं है, इस से व्रतभंग नहीं होता, प्रत्युत विनय तपकी आराधना होती है। प्राचार्य सिद्धसेन लिखते हैं गुरूणामभ्युस्थानाहत्वादवश्य भुञानेनाऽप्युस्थानं कर्तव्यमिति न तत्र प्रत्याख्यान-भङ्गः ।'-प्रवचन सारोद्ध र वृत्ति । - जैनधर्म विनय का धर्म है । जैनधर्म का मूल ही विनय है । विणको जिणसासणमूल' की भावना जैन धर्म की प्रत्येक छोटी बड़ी साधना में रही हुई है । जैन धर्म की सभ्यता एवं शिष्टाचार सम्बन्धी महत्ता के तो ब्राह्मण, क्षत्रिय श्रादि सभी गृहस्थ एक जैसे हैं, उसे तो किसी के सामने भी भोजन नहीं करना है । अत्र रहा गृहस्थ, वह भी क्रूर दृष्टि वाले व्यक्ति के आने पर भोजन छोड़कर अन्यत्र जा सकता है, फिर भले वह क्रूर दृष्टि ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, कोई भी हो । एकाशन में जात-पाँत के नाम पर उठकर जाने का विधान नहीं है ।
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एकाशन-सूत्र
३२१ लिए प्रस्तुत प्रागार ही पर्याप्त है। मुनि और गृहस्थ दोनों के लिए ही यह मुरुभक्ति एवं अतिथिभक्ति का उच्च श्रादर्श अनुकरणीय है।
(४) पारितापनिकाकार-जैन मुनि के लिए विधान है कि वह अपनी आवश्यक दुधापूर्त्यर्थं परिमित मात्रा में ही आहार लाए, अधिक नहीं । तथापि कभी भ्रान्तिवश यदि किसी मुनि के पास श्राहार अधिक श्रा जाय और वह परठना डालना पड़े तो उस श्राहार को गुरुदेव की अाज्ञा से तपस्वी मुनि को ग्रहण कर लेना चाहिए। गृहस्थ के यहाँ से श्राहार लाना और उसे डालना, यह भोजन का अपव्यय है। भोजन समाज और राष्ट्र का जीवन है, अतः भोजन का अपव्यय सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन का अपव्यय है। ___ श्राचार्य सिद्धसेन परिष्ठापन में दोष मानते हैं और उसके ग्रहण कर लेने में गुण । “परिस्थापन-सर्वथा त्वजनं प्रयोजनमस्य पारिष्ठापनिक, तदेवाकारस्तस्मादन्यत्र, तत्र हि त्यज्यमाने बहुदोषसम्मवाश्रीयमाणे चागमिकन्यायेन गुणसम्भवाद् गुर्वाज्ञया पुनभुजानस्थाऽपि व भा" -प्रवचन सारोद्धार वृत्ति ।
एकस्थान-सूत्र एक्कासणं एगट्ठाणं पच्चक्खामि, तिविहं पि आहारअसणं, खाइम, साइमं ।
अन्नत्थ-ऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारियागारेणं, गुरुअब्भुट्ठाणेणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरामारेणं, सबसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि ।
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श्रमण-सूत्र
भावार्थ एकाशनरूप एकस्थान का व्रत ग्रहण करता हूँ। फलतः अशन, खादिम और स्वादिम तीनों श्राहार का प्रत्याख्यान करता हूँ।
अनाभोग, सहसाकार, सागारिकाकार, गुर्वभ्युत्थान, पारिष्ठापनिका. कार, महत्तराकार और सबसमाधि-प्रत्ययाकार-उक्त सात श्रागारों के सिवा पूर्णतया श्राहार का त्याग करता हूँ।
विवेचन यह एकस्थान प्रत्याख्यान का सूत्र है। एक स्थानान्तर्गत स्थान' शब्द स्थिति' का वाचक है। अतः एक स्थान का फलितार्थ है-'दाहिने हाथ एवं मुख के अतिरिक्त शेष सब अंगों को हिलाए विना दिन में एक ही आसन से और एक ही बार भोजन करना।' अर्थात् भोजन प्रारंभ करते समय जो स्थिति हो, जो अंगविन्यास हो, जो अासन हो, उसी स्थिति, अंगविन्यास एवं आसन से बैठे रहना चाहिए।'
श्राचार्य जिनदास ने आवश्यक चूणिं में एक स्थान की यही परिभाषा की है-'एकट्ठाण जं जथा अंगुवंगं ठवियं तहेव समुद्दिसितव्य, श्रागारे से अाउंटणपसारण नत्थि, सेसा सत्त तहेव ।'
प्राचार्य सिद्धसेन भी प्रवचन सारोद्धार की वृत्ति में ऐसा ही लिखते हैं---'एक-अद्वितीयं स्थानं-अङ्गविभ्यासरूपं यत्र तदेकस्थानप्रत्याख्यानं तद् यथा भोजनकालेऽङ्गोपाङ गं स्थापितं तस्मिंस्तथास्थित एक भोक्रव्यम् ।' -प्रवचन सारोद्धार वृत्ति ।
एक स्थान की अन्य सब विधि 'एगासण' के समान है। केवल हाथ, पैर आदि के आकुंचन-प्रसारण का आगार नहीं रहता। इसी लिए प्रस्तुत पाठ में 'पाउंटण पसारणे' का उच्चारण नहीं किया जाता। 'श्राउंटणपसारणा नत्थि, सेसं जहा एकासणाए ।' -हरिभद्रीय आवश्यक वृत्ति ।
प्रश्न है कि जब एक स्थान प्रत्याख्यान में 'आउटण पसारणा' का
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एक स्थान-सूत्र
प्रागार नहीं है, तब हाथ और मुख का चालन भी कैसे हो सकता है ? समाधान है कि एक स्थान में एक बार भोजन करने का विधान है।
और भोजन हाथ तथा मुख की चलन-क्रिया के बिना अशक्य है। अतः अशक्य-परिहार होने से दाहिने हाथ और मुख की चलन क्रिया अप्रतिषिद्ध है। 'मुखस्य हस्तस्य च अशक्यपरिहारत्वाञ्चलनमप्रतिषिद्धमिति ।।
-प्रवचन सारोद्धार वृत्ति । एक स्थान भी चतुर्विधाहार, त्रिविधाहार, एवं द्विविधाहार रूप से अनेक प्रकार का है । वर्तमान परंपरा के अनुसार हमने केवल त्रिविधाहार ही मूल पाठ में रक्खा है। यदि चतुर्विधाहार श्रादि करने हों तो एकाशन के विवेचन में कथित पद्धति के अनुसार पाठ-भेद करके किए जा सकते हैं। ___एक स्थान का महत्त्व तपश्चरण की दृष्टि से तो है ही; परन्तु शरीर की चंचलता हटा कर एकाग्र मनोवृत्ति से भोजन करने का और अधिक महत्त्व है। शरीर को निःस्पन्द-सा बना कर और तो क्या खाज भी न खुजला कर काय गुप्ति के साथ भोजन करना सहज नहीं है। ऐसी स्थिति में भोजन भी कम ही किया जाता है। - 'एक स्थान के प्रत्याख्यान पर से फलित होता है कि साधर्क को प्रत्येक क्रिया सावधानी के साथ संयम पूर्वक करनी चाहिए । संयम पूर्वक भुजिक्रिया करते हुए भी जीवन शुद्धि का मार्ग प्रशस्त बन सकता है और तप की आराधना हो सकती है।
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श्रमशा-सूत्र
आचाम्ल-सूत्र आयंबिलं पच्चक्खामि,' अन्नत्थऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, उक्खित्तविवेगेणं, गिहि-संसट्टणं, पारिट्ठावणियामारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियामारणं कोसिरामि।
___ भावार्थ श्राज के दिन अायंबिल अर्थात् प्राचाम्ल तप ग्रहण करता हूँ। अनाभोग, सहसाकार, लेपालेप, उत्क्षिप्त विवेक, गृहस्थसंसृष्ट, पारिठापनिककार, महत्तराकार, सर्व समाधिप्रत्ययाकार-उक्त पाठ प्राकार अर्थात् अपवादों के अतिरिक्त पानाचाम्ल हार का त्याग करता हूँ।
विवेचन यह प्राचाम्ल प्रत्याख्यान का सूत्र है। प्राचाम्स व्रत में दिन में एक बार.. रुक्ष, नीरस एवं विकृतिरहित एक आहार ही ग्रहण किया जाता है । दूध, दही, घी, तेल, गुड़, शक्कर, मीठा और पक्वान्न आदि किसी भी प्रकार का स्वादु भोजन, प्राचाम्ल व्रत में ग्रहण नहीं किया जा सकता । अतएव प्राचीन श्राचार ग्रन्थों में चावल, उड़द अथवा सत्तू आदि में से किसी एक के द्वारा ही प्राचाम्ल करने का विधान है।
१-आचार्य हरिभद्र एवं प्रवचनसारोद्वार के वृत्तिकार प्राचार्य सिद्धसेन आदि उपरिनिर्दिष्ट पाठ का ही उल्लेख करते हैं । परन्तु कुछ हस्तलिखित एवं मुद्रित प्रतियों में पच्चक्षामि के आगे चौविहार के रूप में असणं, पाणं, खाइम, साइमं तथा तिविहार के रूप में असणं, खाइम, साइमं पाठ भी लिखा मिलता है ।
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याचाम्ल-सूत्र
३२५
श्राचार्य भद्रबाहु स्वामी ने श्रावश्यक नियुक्ति में लिखा है-- "गोरणं नामं तिविहं, प्रोत्रण कुम्मास सत्तुमा चेव ॥".-गाथा १६०३ ॥
प्राचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत गाथा पर व्याख्या करते हुए अाबश्यकवृत्ति में लिखा है-'श्रायामाम्लमिति गोषणं नाम । प्राधान:-अचजायनं श्राम्लं चतुर्थरसः, ताभ्यां नितं श्राबामाम्लम् । इदं पोष चिभेदात् त्रिविधं भवति, श्रोदनः, कल्माष.:, सक्तवव । ___ आयंबिल प्राकृत भाषा का शब्द है। प्राचार्य हरिभद्र इसके संस्कृत रूपान्तर अायामाम्ल, प्राचामाम्ल और अाचाम्ल करते हैं ।
श्राचार्य सिद्धसेन आचाम्ल और श्राचामाम्ल रूपों का उल्लेख करते हैं। प्राचामाम्ल की व्याख्या करते हुए श्राप लिखते हैं'प्राचामः-'अचमणं अम्ल चतुर्थो रसः, ताभ्व वित्तमित्यण । एतच्च त्रिविधं उपधिभेदात्, तद्यथा-मोदनं कुल्माषान् सक्चूच अधिकृत्य भवति ।'--प्रवचनसारोद्धार वृत्ति ।।
प्राचार्य देवेन्द्र श्राद्ध प्रतिक्रमण वृत्ति में लिखते हैं.---'मायामोऽवश्रावण अग्लं चतुर्थो स्सः, एते व्याने प्रायो यन्त्र भोजने प्रोदन कुल्माषसक्तुप्रभृतिके तदाचाम्लं समयभाषयोच्यते । ___ एकाशन और एक स्थान की अपेक्षा आयंबिल का महत्त्व अधिक है । एकाशन और एक स्थान में तो एक बार के भोजन में यथेच्छ सरस आहार ग्रहण किया जा सकता है; परन्तु प्रायबिल के एक बार भोजन में तो केवल उबले हुए उड़द के बाकले अादि लवणरहित नीरस श्राहार ही ग्रहण किया जाता है। अाजकल भुने हुए चने अादि एक नीरस अन्न को पानी में भिगोकर खाने का भी प्रायग्लि प्रचलित है । किं बहुना, भावार्थ यह है कि प्राचाम्ल तप में रसलोलुपता पर विजय प्राप्त करने का महान् प्रादर्श है। जिह्वन्द्रिय का संग्रम, एक बहुत बड़ा संयम है।
१ अवश्रामण, अवशायन या अवश्रावण 'श्रोस:पण' को कहते हैं ।
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३२६
श्रमण-सूत्र
- अपने मन को मारना सहज नहीं है । स्वाने के लिए बैठना और फिर भी मनोऽनुकूल नहीं खाना, कुछ साधारण बात नहीं है।
श्रायंबिल भी साधक की इच्छानुसार चतुर्विधाहार एवं त्रिविधाहार किया जा सकता है । चतुर्विधाहार करना हो तो 'चउठिवह पि ब्राहारं, असएं पाणं, खाइम, साइमं, बोलना चाहिए। यदि त्रिविधाहार करना हो तो 'तिविहं पि आहारं असणं खाइमं साइमं पाठ कहना चाहिए। आयंबिल द्विविधाहार नहीं होता ।।
आयंबिल में आठ प्रागार माने गए हैं । पाठ में से पाँच आगार तो पूर्व प्रत्याख्यानों के समान ही हैं। केवल तीन भागार ही ऐसे हैं, जो नवीन हैं । उनका भावार्थ इस प्रकार है:.. (१) लेपालेप-प्राचाम्ल व्रत में ग्रहण न करने योग्य शाक तथा घृत श्रादि विकृति से यदि पात्र अथवा हाथ आदि लिप्त हो. और दातार गृहस्थ यदि उसे पोंछकर उसके द्वारा प्राचाम्ल-योग्य भोजन बहराए. तो ग्रहण कर लेने पर व्रत भंग नहीं होता है।
लेपालेप' शब्द लेप और अलेप से समस्त होकर बना है । लेप का अर्थ घृतादिसे पहले लिप्त होना है। और अलेप का अर्थ है बाद में उसको पोंछकर अलिप्तकर देना। पोंछ देने पर भी विकृति का कुछ न कुछ अंश लिप्त रहता ही है। अतः आचाम्ल में लेपालेप का श्रागार रक्खा जाता है। 'लेपत्र अलेपश्च लेपालेपं तस्मादन्यत्र, भाजने विकृत्याद्यवयवसद्भावेऽपि न भङ्ग इत्यर्थः। --प्रवचन सारोडार वृत्ति । -- (२) उत्क्षित-विवेक---शुष्क अोदन एवं रोटी आदि पर गुड़ तथा
शक्कर आदि अद्रव = सूखी विकृति पहले से रक्खी हो । प्राचाम्लव्रतधारी मुनि को यदि कोई वह विकृति उठाकर रोटी श्रादि देना चाहे तो ग्रहण की जा सकती है। उत्क्षिप्त का अर्थ उठाना है और विवेक का अर्थ है उठाने के बाद उसका न लगा रहना । भावार्थ यह है कि प्राचाम्ल में ग्राह्य द्रव्य के साथ यदि गुड़ादि विकृति रूप अग्राह्य द्रव्य का स्पर्श भी हो और कुछ नाम मात्र का अंश लगा हुआ भी हो तो व्रत भंग
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श्राचाम्ल-सूत्र
३२७
नहीं होता। परन्तु यदि विकृति द्रव हो, उठाने की स्थिति में न हो तो वह वस्तु ग्राह्य नहीं है । ऐसी वस्तु का भोजन करने से प्राचाम्ल व्रत का भंग माना जाता है। 'शुष्कौदनादिभक्ते पतितपूर्व स्थाचामाम्लप्रत्याख्यानवतामयोग्यस्य अवविकृत्यादिद्रव्यस्य उत्क्षिप्तस्यउद्धतस्य विवेको-निःशेषतया त्यागः उत्तिप्तविवेकस्तस्मादन्यत्र, भोक्रव्यद्रव्यस्याभोक्रव्यद्रव्य स्पर्शनाऽपि न भङ्ग इत्यर्थः । यत्तत्क्षप्त न शक्यते तस्य भोजने भङ्ग एव ।"-प्रवचन सारोद्धार वृत्ति ।
(३) गृहस्थसंसृष्ट-घृत अथवा तैल श्रादि विकृति से छोंके हुए कुल्माष ग्रादि लेना, गृहस्थसंसृष्ट अागार है । अथवा गृहस्थ ने अपने लिए जिस सेटी आदि खाद्य वस्तु पर घृतादि लगा रक्खा हो, वह ग्रहण करना भी गृहस्थसंसृष्ट अागार है । उक्त प्रागार में यह ध्यान में रखने की बात है कि यदि विकृति का अंश स्वल्प हो, तब तो व्रत भंग नहीं होता। परन्तु विकृति यदि अधिक मात्रा में हो तो वह ग्रहण. करलेने से व्रत भंग का निमित्त बनती है ।
प्रवचन सारोद्धार वृत्ति के रचयिता प्राचार्य सिद्धसेन, घृतादि विकृति से लिस पात्र के द्वारा प्राचाम्लयोग्य वस्तु के ग्रहण करने को गृहस्थसंसृष्ट कहते हैं । 'विकृत्या संसृष्टभाजनेन हि दीयमानं भक्रमकल्पनीयद्रव्यमिश्रं भवति तद् भुञ्जान त्यापि न भङ्ग इत्यर्थः, यदि अकल्प्यद्रव्यरसो बहुन ज्ञायते ।'-प्रवचन सारोद्धार वृत्ति, प्रत्याख्यान द्वार । - कुछ प्राचार्यों की मान्यता है कि लेपालेप, उरिक्षतविवेक, गृहस्थसंसूट और पारिष्ठापनिकागार-~-ये चार भागार साधु के लिए ही हैं, गृहस्थ के लिए नहीं।
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श्रमण-सूत्र
( ७ )
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अभक्तार्थ = उपवास
- सूत्र
उग्गए सूरे, अभत्तदु पच्चक्खामि चउच्विहं पि आहारं असणं, पाणं, खाइमं साइमं ।
अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पारिट्ठाधशियामारेशं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि । भावार्थ
सूर्योदय से लेकर अभक्तार्थ - उपवास ग्रहण करता हूँ; फलतः अशन, पान, खादिम और स्वादिम चारों ही आहार का त्याग करता हूँ ।
अनाभोग, सहसाकार, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार, सव समाधि प्रत्ययाकार -- उन पाँच श्रागारों के सिवा सब प्रकार के आहार का त्याग करता हूँ ।
विवेचन व्यभक्तार्थ, उपवास का ही पर्यायान्तर है । 'भक्त' का अर्थ 'भोजन' है। 'अर्थ' का अर्थ 'प्रयोजन' है। '' का अर्थ 'नहीं' है । तीनों का मिलकर अर्थ होता है-भक्त का प्रयोजन नहीं है जिस व्रत में वह उपवास । 'न विद्यते भक्रार्थो यस्मिन् प्रत्याख्याने सोsभकार्थः स उपवासः - देवेन्द्र कृत श्राद्ध प्रतिक्रमण वृत्ति ।
उपवास के पहले तथा पिछले दिन एकाशन हो तो उपवास के पाठ में ''वउत्थभत्तं प्रभत्तट्ठ' दो उपवास में 'छट्टभत्तं श्रभत्तट्ट' तीन
१' भक्रन - भोजनेन अर्थः- प्रयोजनं भक्रार्थः, न भक्रार्थोऽ भक्रार्थः । अथवा न विद्यते भवार्थो यस्मिन् प्रत्याख्यानविशेषे सोऽभवार्थः उपवास इत्यर्थः ।" -- प्रवचन सारोद्धार वृत्ति ।
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अभक्तार्थ-उपवास-सूत्र
३२६
उपवास में 'अट्टममत्तं अभत्तट्ट' पढ़ना चाहिए। इस प्रकार उपवासकी संख्या को दूना करके उसमें दो और मिलाने से जो संख्या पाए उतने 'भत्त' कहना चाहिए । जैसे चार उपवास के प्रत्याख्यान में 'दसमभत्त' और पाँच उपवास के प्रत्याख्यान में 'बारहमत' इत्यादि ।
अन्तकृद् दशांग आदि सूत्रों में तीस दिन के व्रत को 'सटिभत्त' कहा है। इस पर से कुछ विद्वानों को अाशंका है कि ये संज्ञाएँ उपर्युक्त कण्डिका के अर्थ को घोतित नहीं करतीं ? ये केवल प्राचीन रूढ़ संज्ञाएँ ही हैं । इस लिए श्री गुण विनयगणी धर्मसागरीय उत्सूत्र खण्डन में लिखते हैं-'प्रथमदिने चतुर्थमिति संज्ञा, द्वितीयेऽह्नि षष्ठं, तृतीयेऽह्नि अष्टममित्यादि ।'
चउव्विहाहार और तिविहाहार के रूप में उपवास दो प्रकार का होता है । चउबिहाहार का पाठ ऊपर मूलसूत्र में दिया है । सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय तक चारों प्राहारों का त्याग करना, चउबिहाहार अभत्तट्ठ कहलाता है । तिविहाहार उपवास करना हो तो पानी का आगार रखकर शेष तीन श्राहारों का त्याग करना चाहिए । तिविहाहार उपवास करते समय 'तिविहं पि प्राहारं-असणं, खाइम, साइमं ।' पाठ कहना चाहिए।
कितने ही प्राचार्यों का मत है कि-'पारिद्वावणियागारेणं' का आगार तिविहाहार उपवास में ही होता है, चउविहाहार उपवास में नहीं । अतः चउविहाहार उपवास में 'पारिट्ठावणि यागारेणं' नहीं बोलना चाहिए।
अचार्य जिनदास लिखते हैं—'जति तिविहस्स पश्चक्खाति विगिंचरिणयं कप्पति, जदि चविहस्स पाणगं च नत्थि न वति ।'
-आवश्यक चूर्णि । प्राचार्य नमि लिखते हैं--'चतुर्विधाहार प्रत्याख्याने पारिष्टापनिका न कल्पते ।'--प्रतिक्रमण सूत्र विवृत्ति ।
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३३०
श्रमण-सूत्र
पण्डित प्रवर सुखलालजी ने अपने पञ्चप्रतिक्रमण' सूत्र में पारिष्ठापनिकागार के विषय में लिखा है-'चउठिवहाहार उपवास में पानी, तिविहाहार उपवास में अन्न और पानी, तथा आयंबिल में विगइ, अन्न एवं पानी लिया जा सकता है।' . तिविहाहार अर्थात् त्रिविधाहार उपवास में पानी लिया जाता है । अतः जल सम्बन्धी छः अागार मूल पाठ में 'सव्वसमाहिवत्तियागारेणं' के आगे इस प्रकार बढ़ा कर बोलने चाहिएँ--'पाणस्स लेवाडेण वा, अलेवाडेण वा, अच्छेण वा, बहलेण वा, ससित्थेग्ण वा, असित्येण वा वोसिरामि ।' ___ उक्त छः अागारों का उल्लेख जिनदास महत्तर, हरिभद्र और सिद्धसेन आदि प्रायः सभी प्राचीन प्राचार्यों ने किया है । केवल उपवास में ही नहीं अन्य प्रत्याख्यानों में भी जहाँ त्रिविधाहार करना हो, सर्वत्र उपयुक्त पाठ बोलने का विधान है । यद्यपि प्राचार्य जिनदास प्रादि ने इस का उल्लेख अभक्तार्थ के प्रसंग पर ही किया है।
उक्त जल सम्बन्धी प्रागारों का भावार्थ इस प्रकार है:
(१) लेपकृत-दाल आदि का माँड तथा इमली, खजूर, द्राक्षा आदि का पानी । वह सब पानी जो पात्र में उपले कारक हो, लेपकृत कहलाता है। त्रिविधाहार में इस प्रकार का पानी ग्रहण किया जा सकता है।
(२) अलेपकृत-छाछ आदि का निथरा हुया और काँजी आदि का पानी अलेपकृत कहलाता है । अलेपकृत पानी से वह धोवन लेना चाहिए, जिसका पात्र में लेप न लगता हो ।
(३) अच्छ-अच्छ का अर्थ स्वच्छ है । गर्म किया हुआ स्वच्छ पानी ही अच्छ शब्द से ग्राह्य है। हाँ, प्रवचन सारोद्धार की वृत्ति के रचयिता प्राचार्य सिद्धसेन उष्णोदकादि कथन करते हैं। 'अपिच्छलात् उष्णोदकादेः । परन्तु प्राचार्यश्री ने स्पष्टीकरण नहीं किया कि श्रादि से उष्णजल के अतिरिक्त और कौन सा जल ग्राह्य है ? संभव है फल
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अभक्तार्थ-उपवास-सूत्र
ग्रादि का स्वच्छ धोवन ग्राह्य हो । एक गुजराती अर्थकार ने ऐसा लिखा भी है।
(४) बहल-तिल, चावल और जौ श्रादि का चिकना मांड बहल कहलाता है। बहल के स्थान पर कुछ प्राचार्य बहुलेप शब्द का भी प्रयोग करते हैं।
(५) ससिक्थ-पाटा आदि से लिप्त हाथ तथा पात्र आदि का वह धोवन, जिस में सिक्थ अर्थात् अाटा आदि के कण भी हों। इस प्रकार का जल त्रिविधाहार उपवास में लेने से व्रत भंग नहीं होता।
(६) असिक्थ-पाटा आदि से लिप्त हाथ तथा पात्र ग्रादि का वह धोवन, जो छना हुआ हो, फलतः जिस में आटा अादि के कण न हों।
पण्डित सुखलाल जी एक विशेष बात लिखते हैं। उनका कहना है---प्रारंभ से ही चउबिहाहार उपवास करना हो तो 'पारिट्ठावणियागारेणं' बोलना । यदि प्रारंभ में त्रिविधाहार किया हो, परन्तु पानी न लेने के कारण सायंकाल के समय तिविहार से च उबिहाहार उ.वास करना हो तो 'पारिद्वावणियागारेणं' नहीं बोलना चाहिए ।
(८)
दिवसचरिम-सूत्र दिवसचरिमं पञ्चक्खामि, चउव्विहं पि आहार-असणं, पाणं, खाइम, साइमं,।
अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्व समाहिवत्तियागारेणं बोसिरामि ।
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३३२
श्रमण-सूत्र
भावार्थ दिवस चरम का व्रत ग्रहण करता हूँ, फलतः अशन, पान, खादिम और स्वादिम चारों आहार का त्याग करता हूँ।
अनाभोग, सहसाकार, महत्तराकार और सर्वसमाधिप्रत्ययाकारउक्र चार भागारों के सिवा श्राहार का त्याग करता हूँ।
विवेचन यह चरम प्रत्याख्यान सूत्र है । 'चरम' का अर्थ 'अन्तिम भाग' है। वह दो प्रकार का है-दिवस का अन्तिम भाग और भव अर्थात् श्रायु का अन्तिम भाग । सूर्य के अस्त होने से पहले ही दूसरे दिन सूर्योदय तक के लिए चारों अथवा तीनों आहारों का त्याग करना, दिवस चरम प्रत्याख्यान है। अर्थात् उक्त प्रत्याख्यान में शेष दिवस और सम्पूर्ण रात्रिभर के लिए चार अथवा तीन श्राहार का त्याग किया जाता है । साधक के लिए आवश्यक है कि वह कम से कम दो घड़ी दिन रहते ही श्राहार पानी से निवृत्त हो जाय और सायंकालीन प्रतिक्रमण के लिए तैयारी करे।
__ भवचरम प्रत्याख्यान का अर्थ है जब साधक को यह निश्चय हो जाय कि आयु थोड़ी ही शेष है तो यावजीवन के लिए चारों या तीनों श्राहारों का त्याग करदे और संथारा ग्रहण कर के संयम की अाराधना करे। भवचरम का प्रत्याख्यान, जीवन भर की संयम साधना सम्बन्धी सफलता का उज्ज्वल प्रतीक है।
भवचरम का प्रत्याख्यान करना हो तो 'दिवस चरिमं' के स्थान में 'भव चरिमं बोलना चाहिए । शेष पाठ दिवस चरम के समान ही है ।
दिवस चरम और भवचरम चउविहाहार और तिविहाहार दोनों प्रकार से होते हैं । तिविहाहार में पानी ग्रहण किया जा सकता है। साधु के लिए 'दिवसचरम' चउविहाहार ही माना गया है ।
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दिवस-चश्मि सूत्र
दिवसचरम और भवचरम में केवल चार अागार ही मान्य हैं। पारिष्ठापनिक आदि श्रागार यहाँ अभीष्ट नहीं हैं। कुछ लेखकों ने पारिष्ठानिका आदि आगारों का उल्लेख किया है, वह अप्रमाण समझना चाहिए।
यह चरमद्वय का प्रत्याख्यान, यदि तिविहाहार करना हो तो 'तिविहं पि आहारं-असणं खाइमं साइम' पाठ बोलना चाहिए । चउविहाहार का पाठ, ऊपर मूल सूत्र में लिखे अनुसार है ।
पं० सुखलाल जी ने दिवस चरम में गृहस्थों के लिए दुविहाहार प्रत्याख्यान का भी उल्लेख किया है।
दिवस-चरम एकाशन श्रादि में भी ग्रहण किया जाता है, अतः प्रश्न है कि एकाशन आदि में दिवस चरम ग्रहण करने का क्या लाभ है ? भोजन आदि का त्याग तो एकाशन प्रत्याख्यान के द्वारा ही हो जाता है ? समाधान के लिए कहना है कि एकाशन श्रादि में श्राठ प्रामार होते हैं और इसमें चार । अस्तु, अागारों का संक्षेप होने से एकाशन आदि में भी दिवस चरम का प्रयोजन स्वतः सिद्ध है ।
मुनि के लिए जीवनपर्यन्त त्रिविधं त्रिविधेन रात्रि भोजन का त्याग होता है। अतः उनको दिवस चरम के द्वारा शेष दिन के भोजन का त्याम होता है, और रात्रि भोजन त्याग का अनुवादकत्वेन स्मरण हो जाता है । रात्रि भोजन त्यागी गृहस्थों के लिए भी यही बात है । जिनको रात्रि भोजन का त्याग नहीं है, उनको दिवस चरम के द्वारा शेष दिन और रात्रि के लिए भोजन का त्याग हो जाता है।
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श्रमण-सूत्र
अभिग्रह-सूत्र अभिग्गहं पच्चक्खामि चउव्विहं पि आहारं असणं, पाणं, खाइम, साइमं ।
अन्नत्थऽणा भोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि ।
भावार्थ अभिग्रह का व्रत ग्रहण करता हूँ, फलतः अशन, पान खादिम और स्वादिम चारों ही आहार का (संकल्पित समय तक) त्याग करता हूँ ।
अनाभोग, सहसाकार, महराराकार और सर्वसमाधिप्रत्ययाकारउन चार प्रागारों के सिवा अभिग्रहपूर्ति तक चार पाहार का त्याग करता हूँ।
. विवेचन उपवास आदि तप के बाद अथवा विना उपवास आदि के भी अपने मनमें निश्चित प्रतिज्ञा कर लेना कि अमुक बातों के मिलने पर ही पारणा अर्थात् श्राहार ग्रहण करूँगा, अन्यथा व्रत, बेला, तेला आदि संकल्पित दिनों की अवधि तक पाहार ग्रहण नहीं करूँगा-इस प्रकार की प्रतिज्ञा को अभिग्रह कहते हैं ।
अभिग्रह में जो बातें धारण करनी हों, उन्हें मन में निश्चय कर लेने के बाद ही उपयुक्त पाठ के द्वारा प्रत्याख्यान करना चाहिए । यह न हो कि पहले अभिग्रह का पाठ पढ़ लिया जाय और बाद में धारण किया जाय। यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि अभिग्रह-पूर्ति से पहले अभिग्रह को किसी के श्रागे प्रकट न किया जाय ।।
अभिग्रह की प्रतिज्ञा बड़ी कठिन होती है। अत्यन्त धीर एवं वीर साधक
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निर्विकृतिक-सूत्र
'३३५ ही अभिग्रह का पालन कर सकते हैं । अतएव साधारण साधकों को अतिसाहस के फेर में पड़ने से बचना चाहिए। जैन इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि एक साधु ने सिंहकेसरिया मोदकों का अभिग्रह कर लिया था और जब वह अभिग्रह पूर्ण न हुआ तो पागल होकर दिनरात का कुछ भी विचार न रखकर पात्र लिए घूमने लगा। कल्पसूत्र की टीकात्रों में उक्त उदाहरण प्राता है । अतः अभिग्रह करते समय अपनी शक्ति और अशक्ति का विचार अवश्य कर लेना चाहिए ।
(१०)
'निर्विकृतिक-सूत्र विगइअोर पच्चक्खामि, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्थसंसिट्ठणं, उक्खित्तविवेगेणं, पडुच्चमक्खिएणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि । . १ प्राकृत भाषा का मूल शब्द 'निविगइयं' है । श्राचार्य सिद्धसेन ने इसके दो संस्कृतरूपान्तर किए हैं.निर्विकृतिक और निर्विगतिक । श्राचार्य श्री घृतादि को विकृतिहेतुक होने से विकृति और विगतिहेतुक होने से विगति भी कहते हैं। जो प्रत्याख्यान विकृति से रहित हो वह निर्विकृतिक एवं निर्विगतिक कहलाता है। 'तत्र मनसो विकृतिहेतुत्वाद् विगतिहेतुत्वाद् वा विकृतयो विगतयो वा, निर्गता विकृतयो विगतयो वा यत्र तन्निविकृतिकं निविगतिकं वा प्रत्याख्याति ।'--प्रवचन सारोद्वार वृत्ति प्रत्याख्यान द्वार |
२ प्रवचन सारोद्धार में 'विगइनो' के स्थान में "निठिवगइयं' पाठ है।
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३६६
श्रमण-सूत्र
भावार्थ विकृतियों का प्रत्यास्या न करता हूँ । अनाभोग, सहसाकार, लेपालेप, गृहस्थसंसृष्ट, उत्क्षिप्तविवेक, प्रतीत्यनक्षित, पारिष्ठापनिक, महतराकार, सर्वसमाधिप्रत्ययाकार-उक्त नौ आगारों के सिवा विकृति का परित्याग करता हूँ।
विवेचन __ मन में विकार उत्पन्न करने वाले भोज्य पदार्थों को विकृति कहते हैं । मनसो विकृति हेतुत्वाद् विकृतयः' प्राचार्य हेमचन्द्र कृत योगशास्त्र तृतीय प्रकाश वृत्ति । विकृति में दूध, दही, मक्खन, घी, तेल, गुड़, मधु श्रादि भोज्य पदार्थ सम्मिलित हैं।
भोजन, मानव ीवन में एक अतीव महत्त्वपूर्ण वस्तु है । शरीरयात्रा के लिए भोजन तो ग्रहण करना ही होता है। ऊँचे से ऊँचा साधक भी सर्वथा सदाकाल निराहार नहीं रह सकता । अतएव शास्त्रकारों ने बतलाया है कि.-भोजन में सात्त्विकता रखनी चाहिए। ऐसा भोजन न हो, जो अत्यन्त पौष्टिक होने के कारण मन में दूषित वासनात्रों की उत्पत्ति करे । विकारजनक भोजन संयम को दूषित किए विना नहीं रह सकता।
१ विकृतियों के भक्ष्य और अभक्ष्यरूप से दो भेद किए गए हैं। मद्य और मांस तो सर्वथा अभदय विकृतियाँ हैं। अतः साधक को इनका त्याग जीवन-पर्यन्त के लिए होता है। मधु और नवनीत = मक्खन भी विशेष स्थिति में ही लिए जा सकते हैं, अन्यथा नहीं । दूध, दही, घी, तेल, गुड़ आदि और अवगाहिम अर्थातू पक्वान्न-ये छः भक्ष्य विकृतियाँ हैं । भक्ष्य विकृतियों का भी यथाशक्ति एक या एक से अधिक के रूप में प्रति दिन त्याग करते रहना चाहिए । यथावसर सभी विकृतियों का त्याग भी किया जाता है।
आवश्यक चूर्णि, प्रवचन सारोद्धार आदि प्राचीन ग्रन्थों में विकृतियों का बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया गया है ।
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निर्विकृतिक-सूत्र
बना
'शरीर के लिए पौष्टिक आहार सर्वथा प्रहार, कभी-कभी शरीर को क्षीण पौष्टिक आहार लिया जाय तो कोई हानि नहीं है । परन्तु विकृति का सेवन करना, निषिद्ध है । जो साधु नित्य प्रति सेवन करता है, उसे शास्त्रकार पापश्रमण बतलाते हैं ।
. ३३७
वर्जित नहीं है । सर्वथा शुष्क देता है । अतः यदा कदा
नित्य-प्रति विकृति का
निर्विकृति के नौ आगार हैं । आठ आगारों का वर्णन तो पहले के पाठों में यथास्थान श्राचुका है । प्रतीत्यम्रक्षित नामक ग्रागार नया है । भोजन बनाते समय जिन रोटी यादि पर सिर्फ़ उँगली से घी आदि चुपड़ा गया हो ऐसी वस्तुओं को ग्रहण करना, प्रतीत्य म्रक्षित' आगार कहलाता है। इस श्रागार का यह भाव है कि आदि विकृति का का त्याग करने वाला साधक धारा के रूप में घृत आदि नहीं खा सकता | हाँ घी से साधारण तौर पर चुपड़ी हुई रोटियाँ खा सकता है । "प्रतीत्य सर्वथा रूचमडकादि, ईषत्सौकुमार्य प्रतिपादनाय यद्गुल्या ईषद घृतं गुहीत्वा क्षितं तदा कल्पते, न तु धारया"
- तिलकाचार्य-कृत, देवेन्द्र प्रतिक्रमण वृत्ति विकृति द्रव और द्रव के भेद से दो प्रकार की होती हैं। जो घृत, बैल आदि विकृति द्रव हों, तरल हों, उनके प्रत्याख्यान में उत्क्षिप्तविवेक का आगार नहीं रक्खा जाता । गुड़ और पक्वान्न आदि द्रव अर्थात् शुष्क विकृतियों के प्रत्याख्यान में ही उक्त श्रागार होता है ।
किसी एक विकृति- विशेष का त्याग करना हो तो उसका नाम लेकर पाठ बोलना चाहिए। जैसे 'दुद्धविगइयं पञ्चक्खामि' 'दधिर्विगढ़ यं पच्चक्खामि' इत्यादि ।
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1
१ ' म्रक्षित' चुपड़े हुए को कहते हैं । और प्रतीत्य म्रक्षित कहते है --- जो अच्छी तरह चुपड़ा हुआ न हो, किन्तु चुपड़ा हुआ जैसा हो, अर्थात् म्रक्षिताभास हो । 'श्रक्षितमिव यद् वर्तते तत्प्रतीत्यम्रक्षित चिताभासमित्यर्थः । प्रवचन सारोद्धार वृत्ति
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श्रमण-सूत्र
जितने काल के लिए त्याग करना हो, उतना काल त्याग करत समय अपने मन में निश्चित कर लेना चाहिए ।
(११)
प्रत्याख्यान पारणा सत्र उग्गए सूरे नमुकार सहियं ""पञ्चक्खाणं कयं । 'त पच्चक्खाणं सम्मं कारण फासियं, पालियं, तीरियं, किट्टियं, सोहियं, अाराहिअं। जं च न पाराहि, तस्स मिच्छा मि दुकडं।
भावार्थ सूर्योदय होने पर जो नमस्कार सहित प्रत्याख्यान किया था, वह प्रत्याख्यान ( मन वचन ) शरीर के द्वारा सम्यक रूप से स्पृष्ट, पालित, शोधित, तीरित, कीर्तित एवं पाराधित किया। और जो सम्यक रूप से प्राराधित न किया हो, उसका दुष्कृत मेरे लिए मिथ्या हो।
विवेचन यह प्रत्याख्यानपूर्ति का सूत्र है। कोई भी प्रत्याख्यान किया हो उसकी समाप्ति प्रस्तुत सूत्र के द्वारा करनी चाहिए। ऊपर मूल पाठ में 'नमुक्कारसहिय' नमस्का रिका का सूचक सामान्य शब्द है । इसके स्थान में जो प्रत्याख्यान ग्रहण कर रक्खा हो उसका नाम लेना चाहिए। जैसे कि पौरुषी ले रक्खी हो तो 'पोरिसी पञ्चक्खाणं कयं' ऐसा कहना चाहिए।
प्रत्याख्यान पालने के छह अङ्ग बतलाए गए हैं । अस्तु मूल पाठ के अनुसार निम्नोक्त छहों अंगों से प्रत्याख्यान की आराधना करनी चाहिए।
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प्रत्याख्यान परिणा-सूत्र
३३६
( १ ) फासियं ( स्पृष्ट अथवा स्पर्शित ) गुरुदेव से या स्वयं विधिपूर्व प्रत्याख्यान लेना । "
( २ ) पालियं ( पालित ) प्रत्याख्यान को बार-बार उपयोग में लाकर सावधानी के साथ उसकी सतत रक्षा करना ।
( ३ ) सोहियं ( शोधित) कोई दूषण लग जाय तो सहसा उसकी शुद्धि करना । अथवा 'सोहिय' का संस्कृत रूप शोभित भी होता है । इस दशा में अर्थ होगा--- २ गुरुजनों को, साथियों को अथवा अतिथिजनों को भोजन देकर स्वयं भोजन करना ।
( ४ ) तीरियं ( तीरित) लिए हुए प्रत्याख्यान का समय पूरा हो जाने पर भी कुछ समय ठहर कर भोजन करना |
( १ ) किट्टियं ( कीर्तित ) भोजन प्रारंभ करने से पहले लिए हुए प्रत्याख्यान को विचार कर उत्कीर्तन पूर्वक कहना कि मैंने अमुक प्रत्याख्यान अमुक रूप से ग्रहण किया था, वह भली भाँति पूर्ण होगया है ।
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(६) राहियं ( आराधित सब दोषों से सर्वथा दूर रहते हुए ऊपर कही हुई विधि के अनुसार प्रत्याख्यान की आराधना करना । साधारण मनुष्य सर्वथा भ्रान्ति रहित नहीं हो सकता | वह साधना
1
१ – 'प्रत्या त्यान ग्रहणकाले विधिना प्राप्तम् ।'
- प्रवचन सारोद्धार वृत्ति । आचार्य हरिभद्र फासियं का अर्थ 'स्वीकृत प्रत्याख्यान को बीच में खण्डित न करते हुए शुद्ध भावना से पालन करना' करते हैं । 'फासिय नाम जं अंतरा न खंडेति ।" आवश्यक चूर्णि
२- शोभितं गुर्वादि प्रदत्तशेष भोजन (SSसेवनेन राजितम् ।' - प्रवचन सारोबार वृत्ति । 'सोभितं' नाम जो भत्तपाणं श्रण ेत्ता पुव दाऊण सेसं भुजति दायव्वपरिणामेण वा, जदि पुरा एक्कतो भुजति ताहे ण सोहियं भचति ।' – आचार्य जिनदासकृत आवश्यक चूर्णिं
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३४०
श्रमण-सूत्र
करता हुआ भी कभी कभी साधना पथ से इधर-उधर भटक जाता है । प्रस्तुत सूत्र के द्वारा स्वीकृत व्रत की शुद्धि की जाती है, भ्रान्ति-जनित दोषों की आलोचना की जाती है, और अन्त में मिच्छामि दुकडं देकर प्रत्याख्यान में हुए अतिचारों का प्रतिक्रमण किया जाता है । आलोचना • एवं प्रतिक्रमण करने से व्रत शुद्ध हो जाता है।
३ -- श्राचार्य जिनदास ने 'आराधित' के स्थान में 'अनुपालिते' कहा है। अनुपालित का अर्थ किया है— तीर्थंकर देव के वचनों का बार-बार स्मरण करते हुए प्रत्याख्यान का पालन करना । 'अनुपा लिय नाम अनुस्मृत्य अनुस्मृत्य तीर्थकरवचनं प्रत्याख्यानं पालियव्यं ।"
-श्रावश्यक चूर्णि ।
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: ३ :
संस्तार- पौरुषी-सूत्र
[ जैनधर्म की निवृत्तिप्रधान साधना में 'संथार ' -- 'संस्तारक' का चहुत बड़ा महत्त्व है । जीवनभर की अच्छी-बुरी हलचलों का लेखा लगाकर अन्तिम समय समस्त दुष्प्रवृत्तियों का त्याग करना; मन, वाणी और शरीर को संयम में रखना; ममता से मन को हटाकर उसे प्रभुस्मरण एवं श्रात्मचिन्तन में लगाना; आहार पानी तथा अन्य सब उपाधियां का त्याग कर आत्मा को निर्द्वन्द्व एवं निस्पृह बनाना; संथारा का श्रादर्श है । यहाँ मृत्यु के आगे गिड़गिड़ाते रहना, रोते पीटते रहना, बचने के प्रयत्न में ग्रंट-संट पापकारी क्रियाएँ करना, अभिमत नहीं है । जैनधर्म का आदर्श है --- जब तक जीयो, विवेक पूर्वर्क आनन्द से जीओो । और जब मृत्यु ा जाए तो विवेकपूर्वक आनन्द से ही मरो । मृत्यु तुम्हें रोते हुओं को घसीट कर ले जाय, यह मानवजीवन का आदर्श नहीं है । मानवजीवन का आदर्श है - संयम की साधना के लिए अधिक से अधिक जीने का यथासाध्य प्रयत्न करो | और जब देखो कि जीवन की लालसा में हमें अपने धर्म से ही च्युत होना पड़ रहा है, संयम की साधना से ही लक्ष्य भ्रष्ट होना पड़ रहा है, तो अपने धर्म पर, अपने संयम पर दृढ़ रहो और समाधिमरण के स्वागतार्थं हँसते-हँसते तैयार हो जाओ । जीवन ही कोई बड़ी चीज़ नहीं है । जीवन के बाद मृत्यु भी कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । मृत्यु को किसी तरह टाला तो
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३४२
श्रमण सूत्र
जा नहीं सकता, हाँ, उसे संथारा की साधना के द्वारा सफल अवश्य बनाया जा सकता है ।
रात्रि में सोजाना भी एक छोटी सी अल-कालिक मृत्य है । सोते समय मनुष्य की चेतना शक्ति धुंधली पड़ जाती हैं, शरीर निश्चे-सा एवं सावनता से शून्य हो जाता है । और तो क्या, ग्रात्मरक्षा का भी उम समय कुछ प्रयत्न नहीं हो पाता । अतः जैनशास्त्रकार प्रतिदिन रात्रि में सोते समय सागारी संथारा करने का विधान करते हैं, यही संथारा पौरूषी है | सोने के बाद पता नहीं क्या होगा ? प्रातः काल सुखपूर्वक शय्या से उटभी सकेंगे अथवा नहीं ? श्राजभी लोगों में कहावत है" जिसके बीच में रात, उसकी क्या बात ? ग्रतएव शास्त्रकार प्रतिदिन सावधान रहने की प्रेरणा करते हैं और कहते हैं कि जीवन के मोह में मृत्यु को न भूल जाओ, उसे प्रतिदिन याद रक्खो । फलस्वरूप सोते समय भी अपने आपको ममताभाव एवं राग-द्वेष से हटाकर संयमभाव में संलग्न करो, बाह्यजगत् से मुँह मोड़कर अन्तर्जगत् में प्रवेश करो। सोते समय जो भावना बनाई जाती है प्रायः वही स्वप्न में भी रहा करती है । अतः संधारा के रूप में सोते समय यदि विशुद्ध भावना है तो वह स्वप्न में भी गतिशील रहेगी, और तुम्हारे जीवन को विशुद्ध न होने देगी। ]
अणुजाह परमगुरु !
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गुरुगुण- रयणेहिं मंडियसरोरा ।
बहु पडिपुन्ना पोरिंसि,
राइयसंथार ठामि ॥ १ ॥
[ संधारा के लिए श्राज्ञा ] हे श्रे गुणरत्नों से अलंकृत परम गुरु ! आप मुझको संधारा करने की आज्ञा दीजिए । एक प्रहर परिपूर्ण बीत चुका है, इस लिए मैं रात्रि-संथारा करना चाहता हूँ ।
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संस्तार पौरुषी-सूत्र
जाह संथारं, बाहुबहाणेण वामपासेणं ।
कुक्कुडि-पायपसारण
अतरंत पमज्ज भूमिं ॥ २ ॥
संकोsय संडासा,
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दव्वाई - उपयोगं,
उच्चते काय - पडिलेहा ।
३४३
ऊसासनिरु भणालोए ॥ ३ ॥
भावार्थ
[ संथारा करने की विधि ] मुझको संथारा की आज्ञा दीजिए । [ संथारा की आज्ञा देते हुए गुरु उसकी विधि का उपदेश देते हैं ] मुनि बाईं भुजा को तकिया बनाकर बाईं करवट से सोचे | और मुर्गी की तरह ऊँचे पाँव करके सोने में यदि श्रसमर्थ हो तो भूमि का प्रमार्जन कर उस पर पाँव रक्खे |
दोनों घुटनों को सिकोड़ कर सोचे । करवट बदलते समय शरीर की प्रतिलेखना करे । जागने के लिए ' द्रव्यादि के द्वारा श्रात्मा का
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१ - मैं वस्ततुः कौन हूँ और कैसा हूँ ? इस प्रश्न का चिन्तन करना द्रव्य चिन्तन है | तत्त्वतः मेरा क्षेत्र कौनसा है ? यह विचार करना क्षेत्रचिन्तन है । मैं प्रमाद रूप रात्रि में सोया पड़ा हूँ अथवा अप्रमत्त भावरूप दिन में जागृत हूँ ? यह चिन्तन कालचिन्तन है । मुझे इस समय लघुशंका आदि द्रव्य बाधा और रागद्वेष आदि भाववाधा कितनी है ? यह विचार करना भावचिन्तन है '
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श्रमण-सूत्र
चिन्तन करे। इतने पर भी यदि अच्छी तरह निद्रा दूर न हो तो श्वास को रोककर उसे दूर करे और द्वार का अवलोकन करे--अर्थात् दरवाजे की ओर देख ।
चत्तारि मंगलंअरिहंता मंगलं; सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपनत्तो धम्मो मंगलं ॥४॥
भावार्थ
चार मंगल हैं, अरिहन्त भगवान् मंगल हैं, सिद्ध भगवान् मंगल है, पांच महाव्रतधारी साधु मंगल हैं, केवल ज्ञानी का कहा हुआ हिसा श्रादि धर्म मंगल है।
चत्तारि लोगुत्तमाअरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा; साहू. लोगुत्तमा, केवलिपन्नतो धम्मो लोगुत्तमो ॥३॥
भावार्थ: चार संसार में उत्तम हैं-अरिहन्त भगवान उत्तम हैं, सिद्ध भगवान् उत्तम हैं, साधु मुनिराज उत्तम हैं, केवली का कहा हुआ धर्म उत्तम है।
चत्तारि सरणं पवज्जामिअरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि; साह सरण पवज्जामि, केवलिपनत्तं धम्मसरण पवज्जामि।।६।।
भावार्थ चारों की शरण अंगीकार करता हूँ-अरिहंतों की शरण अंगीकार करता हूँ, सिद्धों की शरण अंगीकार करता हूँ, साधुओं की शरण अंगीकार करता हूँ, केवली-द्वारा प्ररूपित धर्म की शरण स्वीकार करता हूँ।
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संस्तार पौरुषी सूत्र
३४
जइ मे हुज्ज पमानो,
इमस्स देहस्सिमाइ रयणीए। 'आहार मुवहिदेहं,
सन् तिविहेण वोसिरिअं ॥७॥
भावार्थ [नियमसूत्र ] यदि इस रात्रि में मेरे इस शरीर का प्रमाद हो अर्थात् मेरी मृत्यु हो तो श्राहार, उपधि = उपकरण और देह का मन बचन और काय से त्याग करता हूँ ।
पाणाइवायमलियं,
चोरिक्कं मेहुणं दविणमुच्छं। कोहं, माणं, मायं,
लोह, पिज्जं तहा दोसं ॥८॥ कलहं अभक्खाणं,
पेलुन्नं रइ-अरइ-समाउर्त्त । परपरिवायं माया
मोसं मिच्छत्तसल्लं च ॥६॥ वोसिरसु इमाई,
मुक्खमग्गसंसग्गविग्धभूआई। दुग्गइ-निबंधणाई,
अट्ठारस पावठाणाई ॥१०॥ १ सयोवहि-उवगरण पाठ भी है ।
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१४६
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श्रमण-सूत्र
भावार्थ
[ पाप स्थान का त्याग ] हिंसा, सत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, श्रभ्याख्यान = मिथ्या दोषारोपण, पैशुन्य = चुगली, रतिश्ररति पर परिवाद, मायामृषावाद, मिथ्यात्वशल्य |
,
ये अट्ठारह पाप स्थान मोक्ष के मार्ग में विघ्नरूप हैं, बाधक हैं । इतना ही नहीं, दुर्गति के कारण भी हैं । श्रतए सभी पापस्थानों का मन, बचन और शरीर से त्याग करता हूँ ।
एगोहं नत्थि मे कोई, नाहमन्नस्स
एवं दीरमरणसो,
एगो मे सास अप्पा,
पाणमसास ॥११॥
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सेसा मे बाहिरा भावा,
नारदंसण-संजु |
संजोगमूला जीवेण,
पत्ता
कस्सइ ।
सव्वे संजोगलक्खणा ||१२||
तम्हा संजोग --संबंध,
दुक्ख - परंपरा |
सव्यं तिविहेण वोसिरिश्रं ॥ १३॥
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संस्तार पौरुषी सूत्र
भावार्थ [एकत्व और अनित्य भावना ] मुनि प्रसन्न चिच से अपने श्रापको समझाता है कि मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसी दूसरे का नहीं हूँ।
-सम्यग ज्ञान, सम्यग दर्शन, उपलक्षण से सम्यक चारित्र से परिपूर्ण मेरा श्रात्मा ही शाश्वत है, सत्य सनातन है; अात्मा के सिवा अन्य सब पदार्थ संयोगमात्र से मिले हैं।
-जीवात्मा ने श्राज तक जो भी दुःखपरंपरा प्राप्त की है, वह सब पर पार्थों के संयोग से ही प्राप्त हुई है। अतएव मैं संयोगसम्बन्ध का सर्वथा परित्याग करता हूँ। खमिश्र खमावि मइ खमह,
सवह जीव-निकाय । सिद्धह साख आलोयणह,
मुज्झह बइर न भाव ॥१४॥ सव्वे जीवा कम्मवस,
चउदह-राज ममंत । ते मे सव्व खमाविश्रा,
मुज्झ वि तेह खमंत ॥१५॥
भावार्थ [समापना] हे जीवगण ! तुम सब खमण खामणा करके मुझ पर क्षमाभाव करो। सिद्धों को साक्षी रख कर मालोचना करता हूँ किमेरा किसी से भी वैरभाव नहीं है।
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३४८
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श्रमण-सूत्र
-सभी जीव कर्मवश चौदह राजुप्रमाण लोक में परिभ्रमण करते हैं, उन सब को मैंने खमाया है, श्रतएव वे सब मुझे भी क्षमा करें |
जं जं मणेण बद्धं,
जं जं कारण कथं,
जं जं वापस भासियं पानं ।
तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥ १६ ॥ भावार्थ
[ मिच्छा मि दुक्कडं ] मैंने जो जो पाप मन से संकल्प द्वारा ' बाँधे हों, वाणी से पापमूलक वचन बोले हों, और शरीर से पापाचरण-' किया हो, वह सब पाप मेरे लिए मिथ्या हो ।
नमो अरिहंताणं,
नमो सिद्धाणं,
नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं
नमो लोए सव्व - साहूणं !
एसो पंच नमुक्कारो,
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मंगलाणं च सव्वेसि
सव्व - पाव - पणासणो ।
पदमं हवइ मंगलं ॥ भावार्थ
श्री अरिहंतों को नमस्कार हो, श्री सिद्धों को नमस्कार हो,
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संस्तार पोरुपी
श्री प्राचार्यो को नमस्कार हो, श्री उपाध्यायों को नमस्कार हो, लोक में के सव साधुओं को नमस्कार हो।
यह पाँच पदों को किया हुश्रा नमस्कार, सब पापों को सर्वथा नाश करने वाला है। और संसार के सभी मंगलों में प्रथम अर्थात् भावरूप मुख्य मंगल है।
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शेष सूत्र
सम्यक्त्व सूत्र अरिहंतो मह देवो,
जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो। जिण-पएणतं तत्तं,
इस सम्मत्तं मर गहियं ॥१॥
शब्दार्थ अरिहंतो- अर्हन्त भगवान जिरणपण्णत्तं - श्री जिनराज का मह = मेरे
कहा हुआ देवो - देव है
ने तत्व है, धर्म है जावज्जीवं - यावज्जीवन, इथ- यह
जीवन पर्यन्त सम्मत्तं% सम्यक्व सुसाहुणों-श्रेष्ठ साधु
मए - मैंने गुरुणो = गुरू है
गहियं = ग्रहण किया है
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३५१
शेष सूत्र
भावार्थ राग-द्वेष के जीतने वाले श्री अरिहंत भगवान मेरे देव हैं, जीवनपर्यन्त संयम की साधना करने वाले सच्चे साधू मेरे गुरु हैं, श्री जिनेश्वर देव का बताया हुश्रा अहिंसा सत्य आदि ही मेरा धर्म है यह देव, गुरु धर्म पर श्रद्धा स्वरूप सम्यक्त्व बत मैंने यावजीवन के लिए ग्रहण किया।
गुरु गुणस्मरण सूत्र पंचिंदिय-संवरणो,
तह नवविह-बंभचेर-गुत्ति-धरो। घउविह-कसाय-मुक्को,
इअ अट्ठारस-गुणेहिं संजुत्तो॥१॥ पंच - महन्वय - जुत्तो,
पंचविहायार - पालण - समत्थी। च - समित्रो तिगुत्तो, छत्तीसगुणो गुरू मज्झ ॥२॥
शब्दार्थ पंचिदिय - पांच इन्द्रियों को गुत्तिधरो-गुप्तियों को धारण संवरणो वश में करने वाले
करने वाले . सह = तथा
चउविह = चार प्रकार के नव विह बंभधेर = नब प्रकार के कसायमुक्को - कषाय से मुक्त
६. हाचर्य की इअ-इन
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१३५२
श्रङ्कारस गुणेहि = अठारह गुणों से
संजुत्तो = संयुक्र, सहित पंच महलय जुत्तो = पांच महाव्रतों से युक्र
पंच विहायार = पांच प्रकार का
आचार
श्रमण सूत्र
पालण समत्थो = पालने में समर्थ पंचम पांच समिति - वाले
-
'तिगुत्तो = तीन गुप्ति वाले छत्तीसगुणो = (इस प्रकार ) छत्तीस गुणों वाले साधु
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मज्झ = मेरे
गुरू = गुरु हैं
भावार्थ
पाँच इन्द्रियों के वैषयिक चांचरथ को रोकनेवाले, ब्रह्मचर्य व्रत की नवविध गुप्तियों को नौ वाड़ों को धारण करने वाले, क्रोध श्रादि चार प्रकार की कक्षयों से मुक, इस प्रकार अट्ठारह गुण से संयुक ।
हिंसा आदि पाँच महाव्रतों से युक्र, पाँच श्राचार के पालन करने में समर्थ, पाँच समिति और तीन गुप्ति के धारण करने वाले, अर्थात् उक्र छत्तीस गुणों वाले श्रेष्ठ साधु मेरे गुरु हैं ।
( ३ )
गुरुवन्दन सूत्र
तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करोमि, दामि, नर्मसामि, सक्कारेमि, सम्मारोमि, कल्ला, मंगलं,
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देवयं, चेइयं, पज्जुवासामि, मत्थएण वंदामि।
शब्दार्थ तिक्खुत्तो = तीन बार
कल्लाणं = श्राप कल्याण रूप हैं अायाहिणं = दाहिनी ओर से मंगलं = मंगलरूप हैं पयाहिणं = प्रदक्षिणा, श्रावर्तन देवयं देवता रूप है करेमि = करता हूँ
चेइयं - ज्ञान रूप हैं वंदामि = स्तुति करता हूँ पज्जुवासामि = (मैं) श्रापकी पयुनमसामि = नमस्कार करता हूँ पासमा सेवा भक्रि करता हूँ सक्कारेमि = सत्कार करता हूँ मस्थएएस मस्तक कानी मस्तक सम्माणेमि - सम्मान करता हूँ
मुका कर [श्राप कैसे है ? ] वंदामि वन्दना करता हूँ
भावार्थ
भगवन् ! दाहिनी ओर से प्रारम्भ करके पुनः दाहिनी ओर तक आप की तीन बार प्रदक्षिणा करता हूँ।
वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ, सस्कार करता हूँ, सम्मान करता हूँ।
श्राप कल्याण रूप हैं, मंगल रूप हैं। अप, देखता-सा हैं, चैतन्य स्वरूप = ज्ञानस्वरूप हैं ।
गुरुदेव ! श्रापकी [ मन वचन और शरीर से ] पर्युपासना सेवा भक्ति करता हूँ। विनय-पूर्वक मस्तक झुकाकर आपके चरण कमलों में वन्दना करता हूँ।
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३५४
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श्रमण सूत्र
( ४ ) आलोचना- सूत्र
इच्छाकारेण संदिसह भगव !
इरियावहियं, पडिक्कमामि ?
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इच्छं
इच्छामि पडिक्कमिउ ॥१॥ इरियावहियाए, विराहणाए ॥ २ ॥
गमागमणे, पाणक्कमणे, बीक्कमरणे, हरिय क्कमणे,
-
श्रीसा उत्तंग-पराग-द्ग-मट्टी- मक्कडासं तारणा-संकमणे||४||
जे मे जीवा विराहिया ॥ ५ ॥ एगिंदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिं दिया, पंचिंदिया ॥ ६ ॥
अभिया, बत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघट्टिया परियाविया, किलामिया, उद्दविया, ठाणात्र ठाणं संकामिया, जीविया ववरोविया, तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥७॥
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शेष-सूत्र
३५५
शब्दार्थ भगवं= हे भगवन् !
(गुरुजनों की ओर से प्राज्ञा मिल इच्छाकारेण = इच्छापूर्वक जाने पर, या अपने संकल्प से ही संदिसह = अाज्ञा दीजिए
प्राज्ञा स्वीकार करके अब साधक इरियावहियं = ऐापथिकी (श्राने
कहता है] जाने की) क्रिया का इच्छं - आपकी प्राज्ञा शिरोधार्य है पडिकमामि = प्रतिक्रमण करूं
भावार्थ भगवन् ! इच्छा के अनुसार आज्ञा दीजिए कि मैं ऐपिथिकी = गमन मार्ग में अथवा स्वीकृत धर्माचरण में होने वाली पापक्रिया का प्रतिक्रमण करू ?....
उत्तरीकरण-सूत्र तस्स उत्तरीकरणेणं, पायच्छित्त-करणे, विसोही-करणेणं, विसल्ली-करणोणं, पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए, ठामि काउस्सग्गं ॥१॥ १-शेष पाठ का शब्दार्थ और भावार्थ श्रमण-सूत्र के ५४ ३ प पर देखिए ।
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लस्सन नसकी दूषित मामा की विसल्लीकर येणं शक मे मलिक उत्तरी करमेस्सं शेिष उ र
करने के लिए
पावाणं कम्मरण = पार कमों के पायच्छित्तकरगणेशं प्रायश्चित करने निकायगाए - विनाश के लिए
नि काउस्समा कायोत्सर्ग अर्थात् विसोही करणेणं = विशेष निर्मलता शासक की क्रिया का त्याग
के लिए ठामि = करता हूँ
भावार्थ भारत की विशेष, अनिता श्रेषता के लिए, प्रायश्रित के विशेष निर्मलता के लिए, शल्य रहित होने के लिए, पार करें - पूर्णतया विनाश करने के लिए, मैं कायोत्सर्ग करता हूँ, अर्थात् प्रात्मविकास की प्राप्ति के लिए शीरसम्बन्धी समस्त चंचल व्यापारों का त्याग करता हूँ।
आगार-सूत्र अन्नत्थ ऊससिएणं नीससिएणं, खासिएणं, छोएणं, जभाइएणं, उड्डुए, वायनिसग्गेणं, भमलीए, पित्तमुच्छाए सुहमेहि अंगसंचालेहि,
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शेष सूत्र
३५७ सुहमेहि खेलसंचालेहि, सुहुमेहिं दिठ्ठि-संचालेहिं । एवमाइएहिं आगारेहि, अभग्गो, अक्सिहिनो, हज्ज मे काउस्सग्गो। जाव अरिहंताणं भगवंताणं, नमुक्कारेणं, न पारेमि, ताव कार्य ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं, अप्पाणं, वोसिरामि।
शब्दार्थ अन्नत्थ = आगे कहे जाने वाले भमलीए - चक्कर आने से
श्रागारों के सिवाय कायो- पित्तमुच्छाए =पित्तविकार के त्सर्ग में शेष काय-व्या. . कारण मूर्छ श्री पारों का त्याग करता हूँ
जाने से ऊससिएणं -- ऊँचा श्वास लेने से सुहु मेहिं = सूक्ष्म, थोड़ा-सा भी नीससिएणं = नीचा श्वास लेने से अंग संचालेहि = अंग के संचार से खासिएणं = खांसी से
सुहुमेहिं = सूक्ष्म, थोड़ा-सा भी छीएणं = छींक से
खेल संचालेहिं = कफ के संचार से जंभाइएणं-जंभाई, उबासी लेने से सुहुमेहिं = सूक्ष्म, थोड़ा सा भी . उड्डुएणं = डकार लेने से दिट्ठिसंचालेहि-दृष्टि, नेत्र के संचार वायनिसग्गेणं = अधोवायु निक
लने से
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३५८
श्रमण-सूत्र एवमाइएहि = इत्यादि।
यानी प्रकट रूप में अागारे ि= श्रागारों से, अपवादों
'नमो अरि
ताणं बोल कर मे= मेरा
न पारेमि = कायोत्सर्ग न पारू काउस्सगो = कायोत्सर्ग ताव= तब तक (मैं) अभग्गो-अभग्न
ठाणेणं =एक स्थान पर स्थिर अविराहियो-विराधित, अखंडित हुज्ज-होवे
मोणेसं = मौन रह कर [कायोत्सर्ग कब तक झाणेणं = ध्यानस्थ रह कर जाव: जब तक
अप्पाण = अपने अरिहंताणं = अरिहंत
कायं= शरीर को भगवंताणं -भगवानों को वोसिरामि= बोसराता हूँ.. नमुक्कारेणं = नमस्कार करके,
त्यागता हूँ
भावार्थ: - कायोत्सर्ग में काय-व्यापारों का परित्याग करता हूँ, निश्चल होता हूँ, परन्तु जो शारीरिक क्रियाएँ अशक्य परिहार होने के कारण स्वभावत: हरकत में आ जाती हैं, उनको छोड़कर ।
उच्छ वास: ऊँचा श्वास, निःश्वास - नीचा श्वास, कासित% खांसी, छिक्का = छींक, उबासी, डकार, अपान वायु, चक्कर, पित्तविकारजन्य मूर्छा; सूक्ष्म रूप से अंगों का हिलना, सूक्ष्म रूप से कक का निकलना, सूक्ष्म रूप से नेत्रों का हरकत में आ जाना, इत्यादि प्रागारों से मेरा कायोत्सर्ग अभग्न एवं अपिराधित हो ।
१- आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने श्रावश्यक नियुक्ति में आदि शब्द का निर्वचन करते हुए लिखा है कि यदि अग्नि का उपद्रव हो, पञ्चेन्द्रिय प्राणी का छेदन-भेदन हो, सर्प श्रादि अपने को अथवा किसी दूसरे को काट खाए तो अात्म रक्षा के लिए एवं दूसरों की सहायता करने के लिए, ध्यान खोला जा सकता है।
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शेष सूत्र
३५६ जब तक अरिहंत भगवान् को नमस्कार न कर लूँ,. अर्थात् 'नमो अरिहंताणं' न पढ़ लू, तब तक एक स्थान पर स्थिर रहकर, मौन रहकर, धर्म ध्यान में चित्त की एकाग्रता करके अपने शरीर को पापच्यापारों से बोसिराता हूँ = अलग करता हूँ।
चतुर्विशतिस्तव-सूत्र लोगस्स उज्जोयगरे,
धम्म-तिस्थयरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्सं,
चउवीसं "पि केवली ॥१॥ उसभमजियं च वंदे,
संभवमभिणंदणं च सुमई च । 'पउमप्पहं सुपासं,
जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥२॥ सुविहिं च पुष्पदंतं,
सीअल-सिज्जंस-वासुपुज्जच। "विमलमणंतं च जिणं,
धम्म संति च चंदामि ॥ ३॥ कुथु अरं च मल्लि,
वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च ।
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श्रमण-सूत्र
वंदामि रिट्ठनेमि,
पासं तह वद्धमाणं च ॥४॥ एवं मए अभिथुआ,
विहुय-रयमला, पहीणजरमरणा। चउवीसं पि जिणवरा,
तित्थयरा मे पसीयंतु ॥५॥ कित्तिय-वंदिय-महिया,
जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । आरुग्गबोहिलाभ,
समाहिवरमुत्तमं दितु ॥६॥ चंदेसु निम्मलयरा,
आइच्चेसु अहिंयं पयासयरा । सागर-वर-गंभीरा,
सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥७॥
शब्दार्थ लोगस्स - लोक में ... चउवीसपि = चौबीसों ही उज्जोयगरे = ज्ञान का प्रकाश केवली = केवल ज्ञानियों का करने वाले
कित्तइस्संकीत न करूंगा धम्मतित्थयरे = धर्मतीर्थ की उसमें = ऋषभदेव को
स्थापना करने वाले च% और जिणे = रागद्वेष के विजेता अजियं = अजितनाथ को अरिहंते=अरिहत भगवान् वंदे = वन्दना करता हूँ
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शेष-सूत्र
३६१ संभवं = संभव को
वन्दे = वन्दना करता हूँ अभिणंदणं च = और अभिनन्दन रिट्टनेमि =अरिष्टनेमि को - को
पासं = पार्श्वनाथ को सुमई च= और सुमति को तह = तथा पउमप्पहं = पद्मप्रभ को वद्धमाणं = वर्द्धमान स्वामी को सुपासं = सुपार्श्व को . वंदाभि - वन्दना करता हूँ च % और
एवं इस प्रकार चंदप्यहं = चन्द्रप्रभ
मए मेरे द्वारा जिणं = जिन को
अभिथुया= स्तुति किए गए वंदे = वन्दना करता हूँ विहुयरयमला= कर्मरूपी रज तथा सुविहिं च = और सुविधि, अर्थात्
मल से रहित पुःफदंतं = पुष्पदन्त को
पहीण जरमरणा = जरा और मरण सीअल =शीतल
से मुक्क सिज्जंस = श्रेयांस को वासुपुज्ज च = और वासुपूज्य को चउवीसंपि = ऐसे चौबीसों ही विमलं = विमल को
जिणवरा = जिनवर अणंतं च जिणं = और अनन्त तित्थयरा = तीर्थंकर देव
जिन को मे = मुझ पर धम्म = धर्मनाथ को
पसीयंतु - प्रसन्न होवें संतिं च% और शान्तिनाथ को जेजों वंदामि= वन्दना करता हूँ ए-ये कुंथु - कुन्थुनाथ को
लोगस्स= लोक में अरं च - और अरनाथ को उत्तमा = उत्तन, मल्लि = मल्लि को
सिद्धा- तीर्थंकर सिद्ध भगवान मुणि सुव्वयं = मुनिसुव्रत को कित्तिय = वचन से कीर्तित, स्तुति च = और
.
. किए गए । नमिजिणं = नमि जिनको
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३६२
श्रमण सूत्र बंदिय = मस्तक से वन्दित श्राइच्चेसु = सूर्यो से भी महिया - भाव से पूजित, अहियं अधिक
रुग्ग-प्रारोग्य, श्रोत्मिक शान्ति पयासयरा = प्रकाश करने वाले बोहिलोभ = सम्यग्दर्शन-रूप सागरवरमहासागर से भी अधिक
बोधि का लाभ समाहिवरमुत्तमं = उत्तम समाधि सिडा- तीर्थंकर सिद्ध भगवान् दिनु = देवें
मम :- मुझे च देसु = चन्द्रमाओं से
सिद्धि = सिद्धि, कर्मों से मुक्रि निम्मलयरा = निर्मसतर दिसंतु = देवे'
भाषार्थ __ अखिल विश्व में धर्म का उद्द्योत = प्रकाश करने वाले, धमतीर्थ की स्थापना करने वाले, ( राग-द्वेष के ) जीतने वाले, (अंतरङ्ग काम .. क्रोधादि ) शत्रुओं को नष्ट करने वाले, केवलज्ञानी चौबीस तीर्थंकरों का मैं कीर्तन करूँगा स्तुति करूंगा ॥१॥
श्री ऋषभदेव, श्री अजितनाथ जी को वन्दना करता हूँ। सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पमप्रभ, सुपावं, और राम-द्वष के विजेता चन्द्रप्रभ जिनको नमस्कार करता हूँ ॥२॥
श्री पुष्पदन्त (सुविधिनाथ ), शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमलनाथ, राग द्वेष के विजेता अनन्त, धर्म तथा "श्री शान्ति नाथ भगवान को नमस्कार करता हूँ ॥ ३ ॥
श्री कुन्थुनाथ, बरनाथ, भगवती मल्ली, मुनिसुव्रत, एवं रागद्वेष के विजेता नमिनाथ जी को वन्दना करता हूँ। इसी प्रकार अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ, अन्तिम तीर्थकर वर्द्धमान (महावीर) “स्वामी को नमस्कार करता हूँ ॥ ४ ॥
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३६३
शेष-सूत्र जिनकी मैंने स्तुति की है, जो कर्म रूप धूल तथा मन से रहित हैं, जो जरा-मरण दोषों से सर्वथा मुक्र हैं, वे अन्तः शत्रुओं पर विजय पाने वाले धर्म प्रवर्तक चौबीस तीर्थकर मुझ पर प्रसन्न हों ॥५॥
जिनकी इन्द्रादि देवों तथा मनुष्यों ने स्तुति की है, वन्दना की है, भाव से पूजा की है, और जो अखिल संसार में सबसे उत्तम हैं, वे सिद्ध = तीर्थकर भगवान् मुझे आरोग्य सिद्धत्व अर्थात् आत्मशान्ति, बोधि- सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय का पूर्ण लाभ, तथा उत्तम समाधि प्रदान करें ।। ६॥ ___ जो अनेक कोटा-कोटि चन्द्रमाओं से.भी. विशेष निर्मल हैं, जो सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान हैं, जो स्वयम्भूरमण जैसे महासमुद्र से भी अधिक गम्भीर हैं; वे तीर्थंकर सिद्धः भगवान मुझे सिद्धि प्रदान करें, अर्थात् उनके अालम्बन से मुझे सिद्धि मोक्ष प्रास हो ॥ ७ ॥
प्रणिपात-सूत्र नमोत्थुणे:! अरिहंताणं, भगवंताणं, ॥१॥ श्राइगराणं, 'तिस्थपराणं, सयं-संबुद्धाणं ॥२॥ पुरिसुत्तमाणं, पुरिस-सीहाणं, पुरिसवरपुडरियाणं, पुरिसवरगंधहत्थीणं, ॥३॥ लोमुत्तमाणं, लोगनाहाणं, लोगहियाणं, लोगपईवाणं, लोग-पज्जोयगराणं ॥४॥
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श्रमण-सूत्र
अभयदया, चक्खुदया, मग्गदयाणं,
सरणदयार्ण, जीवदयाणं, बोहिदयाणं ॥ ५ ॥ धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवरचाउरंत - चक्कवट्टीणं ॥ ६ ॥ दीव - ताण - सरण - गइ-पइट्ठाणं, अप्पडिहय-वरनाण- दंसणधराणं, वियट्टछउमाणं ॥ ७॥ जिणाणं, जावयाणं, तिखाणं, तारयाणं, बुद्धाणं, बोहयाणं, मुत्ता, मोयगाणं ||८|| सब्वन्नूगं, सव्व-दरिसीणं,
सिवमयल मरुय मणं तमक्खयमव्वाबाह, - मपुरावित्ति - सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं, नमो जिणाणं, जियभयाणं ॥ ६ ॥
१
शब्दार्थ
नमोत्थु = नमस्कार हो अरिहंताणं = अरिहन्त भगवंताणं = भगवान् को
[ भगवान् कैसे हैं ? ] आइगराणं = धर्म की आदि करने वाले
तित्थयराणं = धर्म तीर्थ की
१ - अरिहंत स्तुति में 'ठाणं संवत्ताणं' के स्थान पर 'ठाणं संपाविउ कामारणं, कहना चाहिए ।
स्थापना करने वाले
सयं संबुद्धाणं = अपने श्राप ही सम्यक बोध को पाने वाले पुरिमुत्तमाणं = पुरुषों में श्रेष्ठ पुरिससीहाणं = पुरुषों में सिंह पुरिसवरपु' डरियाणं = पुरुषों में
श्रेष्ठ श्वेतकमल के समान
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शेष-सूत्र
शब्दार्थ
पुरिस हमें में
गइ = गति-प्रायरूप वरगंधहत्थीणं - श्रेष्ठ यमबहस्ती पहावंसप्रतिधा-साधाररूप लोगुत्त बाण लोक में उत्तमः अप्पडिहय अप्रतिहत किसी भी लोमनाहाणं लोक के नाथ _ रुकावट में न श्राने वाले, ऐसे लोगहिया - लोक के हितकारी वर नाराईसाधराणं = श्रेष्ठ ज्ञान लोगपईवाणं = लोक में दीपक
दर्शन के धारक लोगपज्जोयगराणं = लोक में ज्ञान वियट्ट छउमाणं = छद्म-प्रमाद से का प्रकाश करने वाले
रहित अभय दया अभयदान देने वाले जिणाणं = राम-दुष के जीतने चक्खुदयाणं% ज्ञान नेत्र के देने
काले वाले जावयाणं-दूसरों को जिताने वाले मग्गदयाणं = मोक्षमार्ग के दाता विन्नाणं = स्वयं संसार सागर से सरणदयाणं = शरण के दाता जीवदयाणं-संयमजीवन के दाता तारयाणं % दूसरे को तारने वाले बोरियाणं सावत्वरूप अलि बुद्धा = स्वयं बोध को प्राश हुए
के दाता. मेहसाण-इसरों को बोध देने धम्मदयाणं = धर्म के दाता
वाले धम्मदेसयाणं = धर्म के उपदेशक मुत्ताणं = स्वयं कर्मों से मुक्त अपमनायगावं-धर्म के नेता मोयगाणं = दूसरों को मुक्त कराने धाम सारहीसं= धर्मस्म के सारथी
वाले धम्मवर =धर्म के सबसे श्रेष्ठ सव्वन्चूणं सर्वश साजरंत-ससें सक्ति के प्रख- सव्वदरिसीसं = सबंदी तथा
करने वाले सिवं-शिव, कल्याण रूप चक्कवट्टीणं = (धर्म) चक्रवर्ती प्रयलं : अचल, स्थिर स्वरूप.. दीव= (भवसागर में) द्वीपरूप अरुयं = अरुज, लेग से रहित ताण - रक्षारूप
अणंतं = अनंत, अन्त से रहित अक्खयं = अक्षम, जयः से रहित
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३६६
श्रव्वाबाहं = श्रव्याबाध, बाधा से ठाणं = स्थान, पद को
रहित
अपुणरावित्ति= अपुनरावृति, पुनरा
मगन से रहित, (ऐसे )
सिद्धिगइनामधेयं = सिद्विगति
नामक
श्रमण-सूत्र
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संपत्ताणं :
= प्राप्त करने वाले नमो = नमस्कार हो जिणारां = जिन भगवान को जियभयाणं = भय पर विजय पाने बालों को
भावार्थ
श्री अरिहंत भगवान् को नमस्कार हो । ( अरिहंत भगवान् कैसे है ? ) धर्म की आदि करने वाले हैं, धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले हैं, अपने आप प्रबुद्ध हुए हैं ।
पुरुषों में श्रेष्ठ हैं, पुरुषों में सिंह हैं, पुरुषों में पुण्डरीक कमल हैं, पुरुषों में श्रेष्ट गन्ध हस्ती हैं । लोक में उत्तम हैं, लोक के नाथ हैं, लोक के हितकर्ता हैं, लोक में दीपक हैं, लोक में उद्योत करने वाले हैं ।
अभय देने वाले हैं, ज्ञान रूपी नेत्र के देने वाले हैं, धर्ममार्ग के देने वाले हैं, शरण के देने वाले हैं, धर्म के दाता हैं, उपदेशक हैं, धर्म के नेता हैं, धर्म के सारथी-संचालक हैं ।
धर्म के
चार गति के अन्त करने वाले श्रेष्ठ धर्म के चक्रवर्ती हैं, अप्रतिहत एवं श्रेष्ठ ज्ञान दर्शन के धारण करने वाले हैं, ज्ञानावरण आदि घातिक कर्म से अथवा प्रमाद से रहित हैं ।
स्वयं राग-द्वेष के जीतने वाले हैं, दूसरों को जिताने वाले हैं, स्वयं संसार-सागर से तर गए हैं, दूसरों को तारने वाले हैं, स्वयं बोध पा चुके हैं, दूसरों को बोध देने वाले हैं, स्वयं कर्म से मुक्र हैं, दूसरों को मुक कराने वाले हैं ।
सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं। तथा शिवकल्याणरूप
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अचल = स्थिर,
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शेप-सूत्र
३६७
प्ररुज = रोग रहित, अनन्त = अन्तरहित, अक्षय = क्षयरहित, अव्याबाध = बाधा पीड़ा रहित, अपुनरावृत्ति = पुनरागमन से रहित अर्थात् जन्म-मरण से रहित, सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त कर चुके हैं, भय के जीतने वाले हैं, राग-द्वेष के जीतने वाले हैं - उन जिन भगवानों को मेरा नमस्कार हो ।'
१- श्रमण सूत्र के अतिरिक्त जो प्राकृत पाठ है, उनका यह शेषसूत्र के नाम से संग्रह कर दिया है । इनका विवेचन लेखक की सामायिकसूत्र नामक पुस्तक में देखिए ।
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: ५ :
संस्कृतच्छायाऽनुवाद
[ श्रमण सूत्र ] ( १ )
नमस्कार सूत्र
नमोऽर्हद्भ्यः नमः सिद्धभ्यः नम श्राचार्यभ्यः
नम उपाध्यायेभ्यः
नमो लोके सर्व साधुभ्यः ।
( २ )
सामायिक सूत्र
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५
करोमि भदन्त । सामायिकम्
"
सर्वं सापद्यम् = समापं पाप सहितं योगम् = व्यापारं प्रत्याख्यामि = प्रत्याचक्षे 'याज्जीवया = यावज्जीवनम्, यावत् मम जीवनपरिमाणं तावत्
१ - - ' भयान्त !' इति हरिभद्राः
२ - " यावजीवता, तथा यावजीवतया । तत्रालाक्षणिकवर्ण लोपात् 'जावजीवाए' इति सिद्धम् । अथवा प्रत्याख्यानक्रिया अन्यपदार्थ इति तामभिसमीक्ष्य समासो बहुव्रीहिः, यावज्जीवो यस्यां सा यावज्जीवा तथा । " - हरिभद्रीय आवश्यक वृत्ति
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संस्कृतच्छायाऽनुवाद त्रिविधं त्रिविधेन' मनसा वाचा कायेन न करोमि, न कारयामि, कुर्वन्तमपि अन्यं न समनुजानामिनानुमन्येऽहम् तस्य भदन्त । प्रतिक्रमामि= निवर्त्तयामि निन्दामि=स्वसाक्षिकं जुगुप्से गहे. = भवत्साक्षिर्फ जुगुप्से
आत्मानं = अतीतसावद्ययोगकारिणम् व्युत्सृजामि=विविधं विशेषेण वा भृशं त्यजामि !
मङ्गल-सूत्र चत्वारः [पदार्था इतिगम्यते ] मङ्गलम् अर्हन्तो मङ्गलम् सिद्धा मङ्गलम् साधवो मङ्गलम् केवलि-प्रज्ञप्तो धर्मों मङ्गलम् ।
१-तिस्रो विधा यस्य सावय-योगस्य स त्रिविधः, सच प्रत्याख्येयः स्वेन कर्म संपद्यते, कर्मणि च द्वितीया विभक्तिः, अतस्तं त्रिविधं योगमनोवाक्का यव्यापारलक्षणम् ।
२-त्रिविधेनेति करणे तृतीया ।
३-तस्य इत्यधिकृतो योगः संबध्यते । कर्मणि द्वितीया प्रातापि अवयवावयविसम्बन्धलक्षणा षष्ठी।
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T
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चतुरः शरणं प्रपद्ये ' अर्हतः शरणं प्रपद्ये
सिद्धान् शरणं प्रपद्ये
श्रमण सूत्र
( ४ )
उत्तम - सूत्र
चत्वारो लोकोत्तमाः अर्हन्तो लोकोत्तमाः
सिद्धा लोकोत्तमाः
साधवो लोकोत्तमाः
केवलि - प्रज्ञतो धर्मो लोकोत्तमः
!
(*)
शरण- सूत्र
साधून शरणं प्रपद्ये
केवलि - प्रज्ञप्तं धर्मं शरणं प्रपद्ये ।
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( ६ )
संक्षिप्त प्रतिक्रमण - सूत्र
. इच्छामि = श्रभिलषामि, प्रतिक्रमितुम् = निवर्तितुम्, [ कस्य ] यो मया देवसिकः = दिवसेन निर्वृत्तो दिवसपरिमाणो वा दैवसिकः, अतिचारः = अतिचरणं श्रतिश्वारः श्रतिक्रम इत्यर्थः कृतः = निवर्तितः [ तस्य इति योगः ]
[ कतिविधः श्रतिचारः ? ] कायिकः = कायेन शरीरेण निवृत्तः
१ - आश्रयं गच्छामि, भक्तिं करोमीत्यर्थः ।
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. संत्कृतच्छायाऽनुवाद कायिकः . कायकृत इत्यर्थः, वाचिकः = वाक्कृतः, मानसिकःमनःकृतः ।
[ पुनः किं स्वरूपः कायिको वाचिकश्च ? ] उत्सूत्रः= ऊर्ध्व सूत्राद् उत्सूत्रः सूत्रानुक्त इत्यर्थः, उन्मार्गः, अकल्पः (ल्प्यः)= कल्पो विधिः श्राचारः न कल्पः अकल्पः, कल्प्यः-चरणकरणव्यापारः न कल्प्यः अकल्प्यः, अकरणीयः ।
[ मानसिकः किं स्वरूपः ? ] दुातः = दुष्टो ध्यातः दुर्ध्यातः, दुर्विचिन्तितः, अनाचारः,. अनेष्टव्यः = मनागपि मनसाऽपि न प्रार्थनीयः, अश्रमणप्रायोग्यः=न श्रमणप्रायोग्यः श्रमणानुचित इत्यर्थः,
[किं विषयोऽतिचारः ? ] ज्ञाने तथा दर्शने चारित्रे [भेदेन वर्णयति ] श्रुते, सामायिके
[सामायिकातिचारं भेदेनाह ] तिसृणां गुप्तीनां, चतुर्णा कषायाणां, पञ्चानां महाव्रताना, षण्णां जीवनिकायानां, सप्तानां पिण्डैषणानां, अष्टानां प्रवचनमातृणां, नवानां ब्रह्मचर्य गुप्तीनां, दशविधे श्रमण धर्मे श्रमणानां योगानाम् = व्यापाराणाम्
यत्खण्डितं=देशतो भग्न, यद्विराधितं =सुतरां भग्नम् तस्य मिथ्या मम दुष्कृतम् !
(७)
ऐर्यापथिक-सूत्र इच्छामि प्रतिक्रमितुम् ईर्यापथिकायां चिराधनायाम् [ योऽतिचार इति वाक्यशेषः ] .
गमनागमने, प्राणाक्रमणे - प्राण्याक्रमणे, बीजाक्रमणे, हरिताक्रमणे,... अवश्यया - उत्तिङ्ग - पनक-दक-मृत्तिका-मर्कट-संतानसंक्रमणे [ सति इति वाक्यशेषः ]
ये मया जीवा विराधिताः-दुःखेन स्थापिताः।
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श्रमण-सूत्र
.... एकेन्द्रियाः, द्वीन्द्रियाः, त्रीन्द्रियाः, चतुरिन्द्रिया, पञ्चेन्द्रियाः .. अभिहताः- अभिमुखागता हताः, चरणेन घट्टिता, उल्क्षिप्य क्षिप्ता वा, बर्तिताः = पुखीकृता, धूल्या वा स्थगिताः, श्लेषिताः- पिष्टा, भूम्यादिषु बा लगिताः, संघातिता अन्योन्यं गात्ररेक्कत्र लगिताः, संघट्टिताः=मनाक् स्पृष्टाः, परितापिताः म समन्ततः पीडितार, क्लामिताः% समुद्घातं नीताः, ग्लानिमापादिताः, प्रवद्राविताः उत्त्रासिताः, स्थानात्स्थानान्तर संक्रामिता-स्वस्थानात् परं स्थानंनीताः, जीविताद् व्यपरोपिताः= व्यापादिताः
तस्य = अतिचारस्य, मिथ्या मम दुष्कृतम् ।
शय्या-सूत्र इच्छामि प्रतिक्रमितु प्रकामशरयया शयनं भय्या प्रकास चातु र्यामं शयनं प्रकासशय्या तया, दीर्घकालनयनेज', निकासशययया कर ऋतिदिक्वं प्रकामशाय्यक निकामशय्या उच्यते तया, उद्वर्तनया = तत्प्रथमतया वामपावँन सुप्तस्य दक्षिणपाइँन वर्तनम् उद्यतनम् , उवर्तन मेल उद्वर्तना तया, परिवर्तनया-पुनर्वामपाश्वेनैव परिवर्तनम् तदेव परिवर्तना तया, श्राकुचनया= हस्तपादादीनां सङकोचनया, प्रसारणयाहस्तपादादीनां विक्षेपणया, षट्राक्विनखंघनया-यूकानां स्पर्शनया
कूजिते = अविभिना अयतनया कासिते सति, कर्करायिते - विषमेयमित्यादि शय्यादोषोच्चारणे, तुते, अविधिना जृम्भिते, थामा का अप्र.
-बोस्तेऽस्यामिति का शय्या संस्तारकादिलदाणा प्रकामा उत्क्टा शय्या प्रकामशय्या-संस्तारोत्तरपट्टकातिरिक्ता प्रावरणामधिकृत्य कल्प त्रयातिरिक्ता वा तया हेतुभूतया ।
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संस्कृतच्छायाऽनुवाद मृज्य करेण स्पर्शने, सरंजस्काम - पृथिव्यादिरजसा सह यद् बस्तु स्पृष्टं तत्संस्पर्श सति,. श्राकुलाकुलया = त्यादिपरिभोगविवाहयुद्धादिसंस्पर्शननामाप्रकारया, स्वजप्रत्ययया स्वप्ननिमित्तया, विराधनया स्त्रीवैपासिक्या स्त्रिया विपर्यासो अब्रासेवनं तस्मिन् भवा स्त्री वैपर्यासिकी तया, दृष्टिवपर्यासिक्या - स्त्रीदर्शनानुरागतस्तदवलोकनं दृष्टिविपर्यासः तस्मिन् भवा दृष्टिवैपासिकी तया, मनोवैपर्यासिक्या = मनसा श्रध्युपपातो मनोविपर्यासः तस्मिन् भवा मनोवैपर्यासिकी तया, पानभोजनवैपर्यासिक्या = रात्रौ पानभोजनपरिभोग एव तद् विपर्यासः तस्मिन् मवा पानभोजन वपर्यासिकी तया [ विराधनया इति शेषः सर्वत्र ]
यो मया देवसिकः अतिचारः कृतः तस्य मिथ्या मम दुष्कृतम् !
गोचरचर्या-सूत्र प्रतिक्रमामि गोचरचर्यायां गोश्वरण गोचरः, चरणं चर्या, गोचर इव चर्या गोचरचर्या तस्याम, भिक्षाचर्यायां = भिक्षार्थ चर्या भिक्षाचर्या तस्याम्,
उद्घाटकपाटोद्घाटनया = उद्घाटं श्रदत्तार्गलं ईषस्थगितं वा कपाटम् तस्योद्घाटनें, तदेव उद्घाटकपाटोद्घाटना तया; श्व-वत्सदारकसंघट्टनया; मएडी प्राभृतिकया-आत्रान्तरेऽप्रकार कृत्वा यां प्राभृतिको मिनी ददाति सा मण्डीप्राभूतिका तया, बलिप्राकृतिकया% चतुर्दिशं वह्नौ वा अलि सिंवों ददाति यत्सा बलिप्राभूतिका तया, स्थापनाप्राकृतिकया - भिक्षाचरीथै स्थापिता स्थापनापीभृतिका तया
शङ्कित = अाधाकर्मादिदोषाणामन्यतमेन शङ्किते गृहीते संति, संहसाकारे झटित्यकल्पनीये गृहीते सति,
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श्रमण-सूत्र
अनेषणया = श्रनेन प्रकारेण श्रवणया हेतुभूतया; प्राणभोजनया = प्राणिनो रसादयः भोजने दध्योदनादौ विराध्यन्ते यस्यां प्राभृतिकायां सा प्राणिभोजना तया, बीजभोजनया, हरितभोजनया, पश्चात्कर्मिकया = - पश्चाद्दानानन्तरं कर्म जलोज्झनादि यस्यां सा पश्चात्कर्मिका तयाः पुरः कर्मिकया = पुरः श्रादौ कर्म यस्यां सा पुरः कर्मिका तया; अदृष्टाहृतया= श्रदृष्टोत्क्षेपनिक्षेपमानीतया उदकससृष्टाहृतया जलसम्बद्धानीतया; रजः संसृष्टाहृतया; पारिशाटनिकया = परिशाटनं उज्झनं तस्मिन् - भवा पारिशायनिका तया; पारिष्ठापनिकया = परिष्ठापनं प्रदानभाजनगतद्रव्यस्याऽन्यस्मिन् पात्रे उज्झनम् तेन निवृत्ता पारिष्ठापनिकी तया; अथवा परि सर्वैः प्रकारः स्थापन परिस्थापनम पुनर्ग्रहणतया न्यासः, तेन निर्वृत्ता पारिष्ठापनिकी तया; अवभाषण भिक्षया = श्रवभाषणेन विशिष्ट द्रव्य - याचनेन लब्धा भिक्षा श्रवभाषण भिक्षा तया;
यद् =शनादि उद्गमेन = श्राध कर्मादिलक्षणेन; उत्पादनया = धात्र्यादिलक्षण्या, एपण्या = शङ्कितादिलक्षण्या; श्रपरिशुद्धं परिगृहीतं परिभुक्त वा, यत् न परिष्ठापितम् = कथंचित्परिगृहीतमपि सदोषं भोजनं यन्नोज्झितम्, परिभुक्तमपि च भावतः पुनः करणादिना प्रकारेण नोज्झितम्,
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तस्य मिथ्या मम दुष्कृतम् !
( १० ) काल प्रतिलेखना -सूत्र
प्रतिक्रमामि चतुष्कालं = दिवसरात्रि प्रथमचरमप्रहरेपु, स्वाध्यायस्य = सूत्रपौरुषील क्षरणस्य; अकरणतया = अनासेवनतया हेतुभूतया [ यो मया देवसिकोऽतिचारः तस्य इति योगः ]
|उभयकालं = प्रथमपश्चिम पौरुषीलक्षणे काले; भाण्डोपकरणस्य - पात्रवस्त्रादेः; श्रप्रत्युपेक्षख्या = मूलत एवं चक्षुषा अनिरीक्षणया;
१ श्राचार्य हरिभद्र 'पारिस्थापनिकया' लिखते हैं ।
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संस्कृतच्छायाऽनुवाद
३७५
दुष्प्रत्युपेक्षख्या = दुर्निरीक्षणलक्षणयाः श्रप्रमार्जनया = मूलत एव रजोहरणादिनाऽस्पर्शनया, दुष्प्रमार्जनया = प्रविधिना प्रमार्जनया,
अतिक्रमे, व्यतिक्रमे, अतिचार, अनाचार,
यो मया दैवसिकः अतिचारः कृतः, तस्य मिथ्या
मम
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दुष्कृतम् !
( ११ )
संयम सूत्र
प्रतिक्रमामि एकविधे = एकप्रकारे असंयमे [ = श्रविरतिलक्षणे सति श्रप्रतिषिद्धकरणादिना यो मया देवसिकोऽतिचारः कृत इति गम्यते तस्य मिथ्या दुष्कृतमिति सम्बन्धः । एवमन्यत्रापि योजना कार्या ] ( १२ )
बन्धन सूत्र
प्रतिक्रमामि द्वाभ्यां बन्धनाभ्याम् = हेतुभूताभ्याम् [ योऽतिचारु कृतस्तस्मात् ]
(१) राग - बन्धनेन, ( २ ) द्वेष - बन्धनेन
!
( १३ )
दण्ड सूत्र
प्रतिक्रमामि त्रिभिः दण्डैः हेतुभूतैर्योऽतिचारस्तस्मात् (१) मनोदण्डेन, (२) वचोदण्डेन (३) कायदण्डेन ।
( १४ ) गुप्ति सूत्र
प्रतिक्रमामि तिसृभिः गुप्तिभिः = सम्यग् अपरिपालिताभिः हेतुभूताभिः ।
(१) मनोगुप्त्या, (२) बचोगुप्त्या, (३) कायगुप्त्या !
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श्रमण-सूत्र
शल्य सूत्र प्रतिक्रमामि त्रिभिः शल्यैः
(१) मायाशल्येन (२) निदानशल्येन (३) मिथ्यादर्शनशल्येन।
गौरव सूत्र प्रतिक्रमामि त्रिभिः गौरवैः,(१) ऋद्धिगौरवेण, (२) रसगौरवेसा, (३) सातगौरवेण।
विराधना सूत्र प्रतिक्रमामि तिसभिः विराधनाभिः,
(१) ज्ञानविराधनया, (२) दर्शनविराधनया (३) चारित्रविराधनया।
(१८)
कपाय सूत्र प्रतिक्रमामि चतुर्भिः कषायैः,(१) क्रोधकषायेन, (२) मानकषायेन (३.) मायाकष्णयेन, (४) लोभकषायेन ।
. प्रतिकमामि चतुर्भि: संज्ञाभिः
(१) श्राहारसंज्ञया, (२) भयसंज्ञया, । (३) मैथुनसंज्ञया,. (४) परिग्रह-संज्ञया!
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संस्कृतच्छायाऽनुवाद
( २० ) विकथा - सूत्र
( २२ ) क्रिया--सूत्र
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प्रतिक्रमामि चतसृभिः विकथाभिः, - (१) स्त्रीकथया ( २ ) भक्तकथया, ( ३ ) देशकथया ( ४ ) राजकथया !
( २१ )
ध्यान सूत्र
प्रतिक्रमामि चतुर्भिः ध्यानैः [ अशुभः कृतैः शुभैश्चाकृतैः ] ( १ ) आर्तेन ध्यानेन, (२) रौद्र ेण ध्यानेन (३) धर्मेण ध्यानेन, ( ४ ) शुक्लेन ध्यानेन ।
३७७
प्रतिक्रमामि पञ्चभिः क्रियाभिः, - (१) कायिक्या ( २ ) श्रधिकरणच्या
(३) प्राद्वेषिक्या ( ४ ) पारितापनिक्या, (५) प्राणातिपातक्रियया ।
( २३ )
कामगुण सूत्र
प्रतिक्रमामि पञ्चभिः कामगुणैः, -
(१) शब्देन (२) रूपेण, (३) गन्धेन, (४) रसेण, ( ५ ) स्पर्शन ।
( २४ )
महाव्रत सूत्र
प्रतिक्रमामि पञ्चभिः महाव्रतैः = सम्यमपरिपालितैः
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३७८
श्रमण सूत्र
(१) सर्वस्मात् प्राणातिपाताद् विरमणम् (२) सर्वस्माद् मृषावादाद् विरमणम् (३) सर्वस्माद् अदत्तादानाद् विरमणम् (४) सर्वस्माद् मैथुनाद् विरमणम्, (५) सर्वस्मात् परिग्रहाद् विरमणम् !
(२५)
समिति सूत्र प्रतिक्रमामि पञ्चभिः समितिभिः = सम्यगपरिपालिताभिः
(१) ईर्यासमित्या, (२) भाषासमित्या, (३) एषणासमित्या, (४) आदान भाण्डमात्र निक्षेपणा समित्या, (७) उच्चार-प्रस्रवण-खेल-सिङ्घाण-जल्ल पारिष्ठापनिकासमित्या !
(२६)
जीवनिकाय सूत्र प्रतिक्रमामि षडभिः जीवनिकायैः [ कथंचित्पीडितः]
(१) पृथिवी कायेन, (२) श्रपकायेन, (३) तेजः कायेन, (४) वायुकायेन (५) वनस्पतिकायेन (६) त्रसकायेन !
(२७)
लेश्या सूत्र प्रतिक्रमामि पद्भिः लेश्याभिः = अशुभाभिः कृताभिः, शुभाभिरकृताभिः
(१) कृष्णलेश्यया, (२) नीललेश्यया (३) कापोतलेश्यया; (४) तेजोलेश्यया (५) पद्मलेश्यया (६) शुक्ललेश्यया।
(२८)
भयादि सूत्र सप्तभिः भयस्थानः, अष्टभिः मदस्थानः, नवभिः ब्रह्मचर्य
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संस्कृतच्छायाऽनुवाद
३७६ गुप्तिभिः [ सम्यगपालिताभिः ] दशविधे श्रमण धर्म, एकादशभिः उपासक प्रतिमाभिः [अश्रद्धानवितथप्ररूपणामिः] द्वादशभिः भिक्षुप्रतिमाभिः, त्रयोदशभिः क्रियास्थानः, चतुर्दशभिः भूतग्रामैः [विराधितैः ] ; पञ्चदशभिः परमाधार्मिकैः [ एतेषां पापकर्मानुमोदनाभिः]; षोडशभिः गाथाषोडशः - सूत्रकृताङ्गाद्यश्रु तस्कन्धोध्ययनः [एषामविधिना पठनादिभिः] सप्तदशविधे संयमे; अष्टादशविधेऽब्रह्मचर्ये; एकोनविंशत्या ज्ञाताध्ययनैः; विंशत्या असमाधिस्थानः; एकविंशत्या शबलैः; द्वाविंशत्या परीषहैः [ सम्यगसोढः] त्रयोविंशत्या सूत्रकृताध्ययनैः; चतुर्विंशत्या देवैः; पञ्चविंशत्या भावनाभिः [ अभाविताभिः ]; पविशत्या दशा-कल्प व्यवहाराणामुद्देशनकालैः [अविधिना गृहीतैः ] ; सप्तविंशत्या अनगारगुणैः; अष्टाविंशत्या प्राचार-प्रकल्पैः; एकोनविंशता पापश्रुतप्रसङ्गः [पापकारण तासेवनैः ]; त्रिंशता मोहनीयस्थानः [कृतैः चिकीवितैर्वा एकत्रिंशता सिद्धादिगुणः द्वात्रिंशता योगसंग्रहैः [अननुशीलितैः ]; त्रयस्त्रिंशता आशातनाभिः= अवज्ञाभिः. (१) अर्हतामाशातनया, (२) सिद्धानामाशातनया, (३)
आचार्याणामाशातनया, (४) उपाध्यायानामाशातनया, (५) साधूनामाशातनया, (६) साध्वीनामाशातनया, (७) श्रावकाणामाशातनया, (८) श्राविकाणामाशातनया, (६) देवानामाशातनया, (१०) देवीनामाशातनया, (११) इहलोकस्य आशातनया, (१२) परलोकस्य आशातनया, (१३) केवलिप्रज्ञप्तस्य धमस्य आशातनया, (१४) सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य अाशातनया, (१५) सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्त्वानामाशातनया, (१६) कालस्य अाशातनया, (१७) श्रुतस्य आशातनया, (१८) श्रुतदेवतायाः आशातनया, (१६) वाचनाचार्यस्य आशातनया, (२०) यद् व्याविद्धम् = विपर्यस्तम् (२१) व्यत्या
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३८०
श्रमण-सूत्र
नंडितम् - द्विस्त्रिरुक्तम् (२२) हीनाक्षरम् - त्यक्ताक्षरम, (२३) श्रत्यज्ञरम - अधिकाक्षरम् , (२४) पदहीनम् (२५) विनयहीनम् (२६) योगहीनम् = योगरहितम् (२७ ) घोषहीनम् , (२८) सुष्ठ दत्तम् , (२६) दुष्ठ प्रतीकिछतम् , (३०) अकाले कृतेः म्वाध्यायः, (३१) काले न कृतः स्वाध्यायः, (३२) अस्था. ध्यायिके स्वाध्यायितम, (३३) स्वाध्यायिके न स्वाध्याथित्तम् ।
यो मया देवसिकः अतिचारः कृतः, तस्य मिथ्या मम दुष्कृतम् !
( २६ )
अन्तिम प्रतिज्ञा-सूत्र नमः, चतुर्विशत्यै तीर्थकरेभ्यः, ऋषभादि-महावीरपर्यवसामेभ्यः। - इदमेव नैर्ग्रन्ध्यं प्रावचमम् = जिनशासनम् सत्य, अनुत्तर, कैवलिक, प्रतिपूर्ण, नैयायिक = मोक्षगमक, संशुद्ध, शल्यकर्तन, सिद्धिमार्गः, मुक्तिमार्गः, निर्याणमार्गः= मोक्षमार्गः, निर्वाणमार्गःश्रात्यन्तिकसुखमार्गः, अवितथं, अविसन्धि = अव्यवच्छिन्न, सर्वदुःखाहीमार्गः। - अत्र स्थिता जीवाः सिद्धयन्ति, बुद्धयन्त, मुच्यन्ते, परिनिर्वान्ति, सर्वदुःखानामन्तं = विनाशं कुर्वन्ति ।
तं धर्म श्रद्दधे, प्रतिपद्य, रोचयामि, स्पृशामि, पालयामि, . अनुपालयामि।
तं धर्म श्रद्दधानः, प्रतिपद्यमानः, रोचयन, स्पृशम् , पालयन्, अनुपालयन् ।
तस्य धर्मस्व अभ्युत्थितोऽस्मि आराधमायां, विरतोऽस्मि विराधनायाम् ।
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संस्कृतच्छायाऽनुबाद
३८१. असंयम परिजानामि, संयममुपसंपद्य । अब्रह्म परिजानामि, ब्रह्म उपसंपद्ये। अकल्पं परिजानामि, कल्पमुपसंपर्छ। अज्ञानं परिजानामि, ज्ञानमुपसंपर्छ । अक्रियां परिजानामि, क्रियामुपसंपद्ये। मिथ्यात्वं परिजानामि, सम्यक्त्वमुपसंषधे । अबोधि परिजानामि, बोधिमुपसंपर्छ। प्रमार्ग परिजानामि, मार्गमुपसंपधे। ___यत्स्मरामि, यच् च न स्मरामि । यत्प्रतिक्रमामि, यच च न प्रतिक्रमामि । तस्य सर्वस्य देवसिकस्य अतिचारस्य प्रतिक्रमामि ।
श्रमणोऽहम, संयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यातपापकर्मा, अनिदानः, दृष्टि-सम्पन्नः, मायामृषाविवर्जितः ।
अर्ध - तृतीयेषु द्वीप-,
समुद्रषु पश्चदशसु कर्मभूमिषु । यावन्तः केऽषि साधवः, रजोहरण-गोच्छप्रतिग्रहधराः !!
(२) पञ्चमहाव्रतधराः,
अष्टादश शीलान - सहस्र-धराः ! अक्षताचार-चारित्राः, तान् सर्वान शिरसा मनसा मस्तकेन वन्दे !!
( ३० )
क्षमापना-सूत्र प्राचार्य-उपाध्याये,
शिष्ये साधर्मिके कुल-गणे च । ये मया केऽपि कषायाः,
सर्वान् त्रिविधेन क्षमयामि ।।
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३८२
श्रमण-सूत्र
( २ ) सर्वस्य श्रमण - सङ घस्य, ... . भगवतोऽजलिं कृत्वा शीर्ष । सर्व क्षमयित्वा,
क्षाम्यामि सर्वस्य अहकमपि !!
क्षमयामि सर्वान जीवान,
सर्व जीवाः क्षाम्यन्तु मे। मैत्री मे सर्वभूतेषु, वरं मम न केनचित् ।।
(३१)
उपसंहा सूत्र र एवमहमालोच्य,
निन्दित्वा गर्हित्वा जुगुप्सित्वा सम्यक् । त्रिविधेन प्रतिक्रान्तो,
वन्दे जिनान् चतुर्विंशतिम् ॥ १ ॥
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परिशिष्ट
(१) द्वादशावर्त गुरुवन्दन सूत्र इच्छामि क्षमाश्रमण । वन्दितुम् - नमस्कर्तुम् [ भवन्तम् ] यापनीयया = यथाशक्तियुक्तया, नषेधिक्या प्राणातिपातादिनिवृत्तया तन्वा अर्थात् शरीरेण । [ अतएव ]
अनुजानीत = अनुज्ञा प्रयच्छथ में मितावग्रह - चतुर्दिशम् आत्मप्रमाणं भवेदधिष्ठितप्रदेशम् [प्रवेटु मिति गम्यते ] . निषेध्य = [ सर्वाशुभव्यापारान् ] अधः कायं भवच्चरणं प्रति कायसंस्पर्शम् = उद्धं वकायेन मस्तकेन संस्पर्शम्, [ करोमि, एतच्च अनुजानीत इति वाक्य शेषः] क्षमणीयः भवद्भिः क्लमः = स्पर्शजन्यदेहग्लानिरूपः ।
अल्प-क्लान्तानां - ग्लानिरहितानाम् बहुशुभेन % प्रभूतसुखेन भवतां दिवसो व्यतिक्रान्तः= निर्गतः ?
यात्रा = तपोनियमादिलक्षणा भवतां [ कुशला वर्तते ] ?
यापनीयं - इन्द्रियनोइन्द्रियरबाधितं शरीरं च भवतां [ कुशलं वर्तते ] ? क्षमयामि क्षमाश्रमण ! देवसिकं, व्यतिक्रमम् = अपराधम् !
आवश्यिक्या अवश्य कर्तव्यश्वरणकरण योगैः निवृत्तिा आवश्यिकी क्रिया, तया हेतुभूतया यदसाधु कर्म अनुष्ठितं, तस्मात् प्रतिक्रमामिनिवर्तयामि।
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३८४
श्रमण-सूत्र
क्षमाश्रमणानां देवसिक्या = दिवसेन निवृत्तया आशातनया, त्रयस्त्रिंशदन्यतरया, यत् किंचनमिथ्यया = यत्किंचित्कदालम्बनमाश्रित्य मिथ्यायुक्तेन कृतया । ____मनोदुष्कृतया=मनोजन्यदुष्कृतयुक्रया, वचोदुष्कृतया= असाधुवचननिमित्तया, कायदुष्कृतया-श्रासनगमनादिनिमित्तया
क्रोधया = क्रोधवत्या क्रोधयुक्तया, मानया = मानवत्या मानयुक्तया, मायया-मायावत्या मायायुक्तया, लोभया%लोभवत्या लोभयुक्तया [ क्रोधादिभिर्जनितया इत्यर्थः]
सर्वकालिक्या = इहभवाऽन्यमवाऽतीताऽनागत सर्वकालेन नित्तया, सर्वमिथ्योपचारया सर्वमिथ्याक्रियाविशेषयुक्तया, सर्वधर्मातिक्रमणयाश्रष्ट प्रवचनमातृरूप-सर्वधर्मलङ्घनयुक्तया, आशातनया = बाधयायो मया अतिचारः = अपराधः कृतः तस्य क्षमाश्रमण ! प्रतिक्र. मामि = अपुनः करणतया निवर्तयामि, निन्दामि, गहें आत्मानं - आशातनाकरणकालवर्तिनं दुश्कर्मकारिणं अनुमतित्यामेन, व्युत्सृजामिभूसं त्यजामि।
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संस्कृतच्छायानुवाद
( २ )
प्रत्याख्यान सूत्र ( १ ) नमस्कारसहित सूत्र
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उगते सूर्य नमस्कारसहितं प्रत्याख्यामि, चतुर्विधमपि आहारम् - अशनं, पानं, खादिमं स्वादिमम् । अन्यत्र अनाभोगेन,' सहसाकारेण, व्युत्सृजामि ।
( ३ ) पूर्वार्द्ध सूत्र
३८
( २ ) पौरुषी सूत्र
उगते सूर्ये पौरुषीं प्रत्याख्यामि, चतुर्विधमपि आहारम् - अशनं, पानं, खादिमं, स्वादिमम् । अन्यत्र अनाभोगेन, सहसाकारेण, प्रच्छन्नकालेन, दिगमोहेन, साधुवचनेन, सर्वसमाधिप्रत्ययाकारेण व्युत्सृजामि ।
उद्गते सूर्ये पूर्वार्द्ध प्रत्याख्यामि, चतुर्विधमपि श्रहारम्अशनं, पानं, खादिमं, स्वादिमम् । अन्यत्र अनाभोगेन, सहसा - कारे, प्रच्छन्नकालेन, दिग्मोहेन, साधुवचनेन, महत्तराकारेण, सर्वसमाधि- प्रत्ययाकारेण व्युत्सृजामि |
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१. अत्र सर्वेषु श्राकारेषु पञ्चम्यर्थे तृतीया । अन्यत्र अनाभोगात्, सहसाकाराच्च, एतौ वर्जयित्वा इत्यर्थः ।
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३६६
श्रमण-सूत्र
एकाशन सूत्र एकाशनं प्रत्याख्यामि, त्रिविधमपि आहारम्-अशनं, खादिम, स्वादिमम् । अन्यत्र अनाभोगेन, सहसाकारेण, सागारिकाकारण, आकुञ्चन प्रसारणेन, गुर्वभ्युत्थानेन, पारिष्ठापनिकाकारण, महत्तराकारेण, सर्वसमाधि - प्रत्ययाकारण व्युत्सृजामि।
एकस्थान सूत्र एकाशनं एकस्थानं प्रत्याख्यामि, त्रिविधमपि आहारम्-- अशनं, खादिम, स्वादिमम् । अन्यत्र अनाभोगेन, सहसाकारण, सागारिकाकारण, गुर्वभ्युत्थानेन, पारिष्ठापनिकाकारण, महत्तराकारेण, सर्वसमाधिप्रत्ययाकारेण व्युत्सृजामि ।
आचाम्ल सूत्र श्राचाम्लं प्रत्याख्यामि, अन्यत्र अनाभोगेन, सहसाकारण, लेपालेपेन, उत्क्षिप्त विवेकेन, गृहस्थसंसृष्टेन, पारिष्ठापनिकाकारण, महत्तराकारण, सर्वसमाधिप्रत्ययाकारेण व्युत्सृजामि ।
अभक्तार्थ-उपवास सूत्र उद्गते सूर्ये अभक्तार्थं प्रत्याख्यामि, चतुर्विधमपि आहारम्-अशनं, पानं, खादिम, स्वादिमम् । अन्यत्र अनाभोगेन, सहसाकारेण, पारिष्ठापनिकाकारण, महत्तगकारेण, सर्वसमाधिप्रत्ययाकारेण व्युत्सृजामि ।
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संस्कृतच्छायानुवाद
दिवसचरिम-सूत्र दिवसचरिमं प्रत्याख्यामि, चतुर्विधमपि आहारम्-अशनं पानं, खादिम, स्वादिमम् । अन्यत्र अनाभोगेन, सहसाकारण, महत्तयकारेप, सर्व समाधिप्रत्ययाकारेण व्युत्सृजामि ।
अभिग्रह-सूत्र अभिग्रहं प्रत्याख्यामि, चतुर्विधमपि आहारम्-अशनं, पानं, खादिम, स्वादिमम् । अन्यत्र अनाभोगेन, सहसाकारण, महत्तराकारेण, सर्वसमाधिप्रत्ययाकारेण व्युत्सृजामि ।
(१०)
निर्विकृति-सूत्र विकृतीः प्रत्याख्यामि । अन्यत्र अनाभोगेन, सहसाकारण, लेपालेपेन, गृहस्थ संसृष्टेन, उत्क्षिप्तविवेकेन, प्रतीत्यम्रक्षितेन, पारिष्ठापनिकाकारण, महत्तराकारेण, सर्वसमाधिप्रत्ययाकारण व्युत्सृजामि।
(११)
प्रत्याख्यानपारणा-सूत्र - उद्गते सूर्य नमस्कारसहितं-प्रत्याख्यानं कृतम् , तत्प्रत्याख्यानं सम्यक् कायेन स्पृष्टं, पालितं, तीरितं, कीर्तितं, शोधितं, भाराधितम् । यत् च न आराधितम । तस्य मिथ्या मे दुष्कृतम् ।
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३८
श्रमण-सूत्र
संस्तार-पौरुषी सूत्र अनुजानीत परमगुरवः,
गुरुगुणरत्नमण्डित - शरीराः । बहुप्रतिपूर्णा पौरुषी,
रात्रिके संस्तारकेतिष्ठामि ॥ १ ॥ अनुजानीत संस्तारं,
बाहफ्धानेन वामपार्श्वन । कुक्कुटी-पादप्रसारणे,
ऽशक्नुवन् प्रमार्जयेद् भूमिम् ॥ २॥ सङ कोच्य संदंशी,
उद्वर्तमानश्च कार्य प्रतिलिखेत् । द्रव्याधुपयोगेन,
उच्छ वासनिरोधेन आलोकं (कुर्यात्) ॥३॥ चत्वारो मङ्गलम्, अर्हन्तो मङ्गलं, सिद्धा मङ्गलं, साधवो मङ्गलं, केवलि-प्रज्ञप्तो धर्मो मङ्गलम् ॥४॥
चत्वारो लोकोत्तमाः, अर्हन्तो लोकोत्तमाः, सिद्धा लोकोत्तमाः, साधवो लोकोत्तमाः, केवलि-प्रज्ञप्तो धर्मों लोकोत्तमः ॥५॥ चतुरः शरणं प्रपद्ये, अर्हतः शरणं प्रपद्य, सिद्धान् शरणं प्रपद्य साधून शरणं प्रपद्य, केवलि-प्रज्ञप्तं धर्म शरणं प्रपद्ये ॥६॥
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संस्कृतच्छायानुवाद
३ बदि मे भवेत् प्रमादो
ऽस्य देहस्य अस्यां रजन्याम् । आहारमुपधिदेहं,
सर्वं त्रिविधेन व्युत्सृष्टम् ॥ ७ ॥ प्राणातिपातमलीक,
चौर्य मैथुनं द्रविणमूर्छाम् । क्रोधं मानं माय
लोभं प्रेम तथा द्वेषम् ॥८॥ कलहमभ्याख्यानं,
पैशुन्य रत्यरतिसमायुक्तम् । पर-परिवादं माया
मृषां मिथ्यात्वशल्यं च ॥१॥ मुत्सृज इमानि
__ मोक्षमार्गसंसर्ग - विघ्नभूतानि । दुर्गति-निबन्धनानि
अष्टादश पाप-स्थानानि ॥१०॥ एकोऽहं नास्ति मे कश्चित्,
नाऽहमन्यस्य कस्यचित् । एवमदीन-मना
आत्मानमनुशास्ति ॥११॥ एको मे शाश्वत आत्मा
ज्ञान - दर्शन - संयुतः । शेषा मे बाह्या भावाः,
सर्वे संयोग - लक्षणाः ॥१२॥ संयोग-मूला जीवन
प्राप्ता दुःख-परम्परा ।
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श्रमण-सूत्र
तस्मात् संयोग सम्बन्धः,
सर्पः त्रिविधेन व्युत्सृष्टः ॥१३॥ क्षमित्वा क्षामयित्वा मयि क्षमध्वं
सर्वे जीव - निकायाः । सिद्धानां साक्ष्यया आलोचया मि,
मम वैरं न भावः ॥१४॥ सर्वे जीवाः कर्म-वशाः,
चतुर्दश - रज्जौ भ्राम्यन्तः । ते मया सर्वे क्षामिताः,
मयि अपि ते क्षाम्यन्तु ॥१५॥ यद् यद् मनसा बद्धं,
यद् यद् वाचा भाषितं पापम् । यद् यत् कायेन कृतं,
तस्य मिथ्या में दुष्कृतम् ॥१६॥ नमोऽहंदुभ्यः नमः सिद्धेभ्यः नम आचार्यभ्यः नम उपाध्यायेभ्यः नमो लोके सर्व-साधुभ्यः ! एष पञ्च - नमस्कारः
सर्व - पाप - प्रणाशनः । मङ गलानां च सर्वेषां,
प्रथमं भवति मङ्गलम् ॥
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संस्कृतच्छायानुवाद
३६१
शेष-सूत्र
सम्यक्त्व सूत्र अर्हन् मम देवः,
यावज्जीवं सुसाधवः गुरवः। जिन - प्रशप्तं तत्त्वं,
इति सम्यक्त्वं मया गृहीतम् ॥२॥
गुरु-गुण-स्मरण सूत्र पञ्चेन्द्रिय - संवरणः,
तथा नवविध-ब्रह्मचर्यगुप्तिधरः । चतुर्विध - कषायमुक्तः,
इत्यष्टादशगुणैः संयुक्तः ॥१॥ पञ्चमहाव्रत - युक्तः,
पञ्चविधाचार - पालनसमर्थः । पञ्चसमितः त्रिगुप्तः,
षट्त्रिंशद्गुणो गुरुर्मम ॥२॥
गुरुवन्दन सूत्र त्रिकृत्वः आदक्षिणं प्रदक्षिणां करोमि वन्दे, नमस्यामि, सत्करोमि, सम्मानयामि,
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श्रमण-सूत्र
कल्याणं, मङ्गलम, दैवतं, चैत्यम्, पयु पासे मस्तकेन वन्दे ।
ऐयापथिक आलोचना सूत्र इच्छाकारेण -निजेच्छया, न तु बलाभियोगेन संदिशत भगवन् । ईर्यापथिकी प्रतिक्रमामि इच्छामि ०००००
उत्तरीकरण सूत्र तस्य= श्रामण्ययोगसंघातस्य कथंचित् प्रमादात् खण्डितस्य-विराधिसस्य वा, उत्तरीकरणेन = पुनः संस्कारद्वारापरिष्करणेन, प्रायश्चित्तकरणन, विशोधीकरणन= अपराधमलिनस्यात्मनः प्रक्षालनेन, विशल्यीकरणेन,
पापानां कर्मणां निर्घातनार्थाय,
तिष्ठामि =करोमि, कायोत्सर्गम् = व्यापारवतः कायस्य परित्यागम् ॥१॥
आकार सूत्र अन्यत्र उच्चसितेन, निःश्वसितेन, कासितेन, तुतेन, जृम्भितेन, उद्गारितेन, वातनिसर्गेण, भ्रमर्या= भ्रम्या, पित्तमूर्च्छया ॥१॥ १-अग्रतनः पाठः श्रमणसूत्रान्तर्गतसप्तमैर्यापथिकसूत्रवद् ज्ञेयः।
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संस्कृतच्छायानुवाद सूक्ष्मैः अङ्ग-सञ्चारैः, सूक्ष्म : खेल (श्लेष्म ) सञ्चारैः, सूक्ष्मैः दृष्टि-सञ्चारैः ॥२॥ एवमादिभिः आकारैः-अपवादरूपैः, अभन्नः न सर्वथा नाशितः, अधिराधितः = न देशतो नाशित:, भवतु मे कायोत्सर्गः ॥३॥ [कियन्तं कालं यावत् ? ] यावद् अर्हतां भगवतां नमस्कारेण न पारयामि ॥४॥ तावत् [ तावन्तं कालं ] कार्य स्थानेन, मौनेन, ध्यानेन, श्रात्मानं = आत्मीयं, व्युत्सृजामि ॥५॥
चतुर्विशतिस्तव सूत्र लोकस्योद्योतकरान, धर्मतीर्थकरान् जिनान् । अर्हतः कीर्तयिष्यामि, चतुर्विशतिमपि केवलिनः ॥ १॥ ऋषभमजितं च वन्दे, संभवमभिनन्दनं च सुमतिं च । पद्मप्रभं सुपावं, जिनं च चन्द्रप्रभं वन्दे ।।२।। सुविधिं च पुष्पदन्तं, शीतल-श्रेयांसं वासुपूज्यं च । विमलमनन्तं च जिनं, धर्म शान्ति च वन्दे ॥३॥ कुन्थुमरं च मल्लिं, वन्दे मुनिसुव्रतं नमिजिनं च । वन्दे अरिष्टनेमि, पावं तथा वर्द्धमानं च ॥४॥ एवं मया अभिष्टुता, विधुतरजोमलाः प्रहीणजरामरणाः। चतुर्विशतिरपि जिनवराः, तीर्थकराः मे प्रसीदन्तु ॥५॥ कीर्तित-वन्दित-महिताः, ये एते लोकस्योत्तमाः सिद्धाः। आरोग्य - बोधिलाभ, समाधिवरमुत्तमं ददतु ॥६॥ चन्द्र भ्यो निर्मलतराः, आदित्येभ्योऽधिकं प्रकाशकराः। सागरवरगम्भीराः, सिद्धाः सिद्धिं मम दिशन्तु ॥७॥
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श्रमण-सूत्र
( ८ ) प्रणिपात सूत्र
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नमोऽस्तु अर्हद्भ्यः, भगवद्भ्यः ॥ १ ॥ श्रादिकरभ्यः, तीर्थकरेभ्यः, स्वयंसम्बुद्धेभ्यः ॥ २ ॥ पुरुषोत्तमेभ्यः, पुरुषसिंहेभ्यः, पुरुषवर-पुण्डरीकेभ्यः, पुरुषवर- गन्धहस्तिभ्यः ॥ ३ ॥ लोकोत्तमेभ्यः, लोकना थेभ्यः,
लोकहितेभ्यः, लोक-प्रदीपेभ्यः, लोकप्रद्योतक रेभ्यः ॥। ४ । अभयदयेभ्यः,
चक्षुर्दयेभ्यः, मार्गदयेभ्यः, शरणदयेभ्यः, जीवदयेभ्यः, बोधिदयभ्यः ॥ ५ ॥
धर्मदयेभ्यः, धर्मदेशकेभ्यः, धर्म नायकेभ्यः, धर्मसारथिभ्यः, धर्मवर चतुरन्तचक्रवर्तिभ्यः ॥ ६ ॥ द्वीप - त्राण-शरण - गति प्रतिष्ठारूपेभ्यः, अप्रतिहत-वर-ज्ञान- दर्शनधरेभ्यः,
व्यावृत्त-च्छद्मभ्यः ॥ ७ ॥
जिनेभ्यः, जापकेभ्यः, तीर्णेभ्यः, तारकेभ्यः,
बुद्धभ्यः, बोधकेभ्यः, मुक्तेभ्यः, मोचकेभ्यः ॥ ८॥ सर्वज्ञ ेभ्यः, सर्वदर्शिभ्यः, शिवमचलमरुजमनन्तमक्षयमव्याबाधमपुनरावृत्तिसिद्धिगति नामधेयं स्थानं सम्प्राप्तेभ्यः, नमो जिनेभ्यः, जितभयेभ्यः ॥ ६ ॥
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अतिचार-आलोचना
ज्ञान-शुद्धि साधनों के होते भी न ज्ञानाभ्यास किया स्वय,
। दूसरों को भी न यथायोग्यता कराया हो। ज्ञान के नशे में चूर लड़ता-लड़ाता फिरा,
- ज्ञानी जनों को न शीष सादर झुकाया हो। सूत्र और अर्थ नष्ट-भ्रष्ट किया घटा - बढ़ा,
तत्त्वशून्य तर्कणा में मस्तक लड़ाया हो । दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें, श्रेष्ठ ज्ञान - रत्न में जो दूषण लगाया हो ।
दर्शन-शुद्धि वीतराग - वाणी पै न श्रद्धाभाव दृढ़ रक्खा,
फंस के कुतर्कजाल शङ्काभाव लाया हो । नानाविध पाखंडों के मोहक स्वरूप देख, .
संसारी सुखों के प्रति चित्त ललचाया हो । धर्माचार • फल के सम्बन्ध में सशंक बना,
मन को पाखंडियों की पूजा में भ्रमाया हो। दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें,
सम्यक्त्व-सुरत्न में जो दूषण लगाया हो ।
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श्रमण-सूत्र
ईर्या-समिति
स्वच्छ, शुद्ध, श्रेष्ठजनगम्य
राजमार्ग
छोड़,
सूक्ष्म जन्तु पूरित कुपथ अपनाया हो । लखाता चला, कदम उठाया हो || शून्य-चित्त बना, गजेन्द्र रूप मिथ्या होवे, दूषण लगाया हो ॥
धाया हो ।
दाएँ-बाएँ अच्छे-बुरे दृश्यों को नीची दृष्टि से न देख बातों की बहार में विमुग्ध तुच्छकाय कीटों पै दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष गमन समिति में जो
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भाषा समिति
गाया हो ।
पूज्य आप्त पुरुषों का गाया नहीं गुणगान, यत्र-तत्र अपना ही कीर्तिगान सर्वजन हितकारी मीठे नहीं बोले बोल, हँसी से या चुगली से कलह बढ़ाया हो ॥ दूसरों के दोषों का जगत में ढिंढोरा पीटा,
वाणी के प्रताप हिंसा-चक्र भी चलाया हो । दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें,
भाषण समिति में जो दूषण लगाया हो ॥ एषणा - समिति
उद्गमादि बयालीस भिक्षा दोष टाले नहीं,
जैसा तैसा खाद्य फट पात्र में भराया हो । ताक-ताक ऊँचे ऊँचे महलों में दौड़ा गया, रङ्क-घर सूखी रोटी देख चकराया हो ॥ जीवनार्थं भोजन का संयम-रहस्य
भोजनार्थ
मात्र
साधुजीवन
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भुला, बनाया हो ।
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३६७
अतिचार-पालोचना दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें, एषणा-समिति में जो दूषण लगाया हो ।
आदाननिक्षेप-समिति वस्त्र - पात्र - पुस्तकादि पडिलेहे-पूजे विना,
देखे-भाले विना मन आया जहाँ बगाया हो। देह में घुसाया भूत आलस्य विनाशकारी,
प्रतिलेखना का श्रेष्ठ काल बिसराया हो । संयम का शुद्ध मूलतत्व सुविवेक छोड़,
सूक्ष्म जीव जन्तुओं का जीवन नशाया हो । दैनिक 'अमर' सर्व पाप - दोष मिथ्या होवें, __ आदान - समिति में जो दूषण लगाया हो ।
उत्सर्ग ( परिष्ठापना ) समिति परठने-योग्य कफ मल मूत्र आदि वस्तु,
आगमोक्त योग्य भूमि में न परठाया हो । भुक्तशेष अन्न-जल दूर ही से फेंक दिया,
सर्वथा असंयम का पथ अपनाया हो। स्वच्छ, शान्त, स्वास्थ्यकारीस्थानों को बिगाड़ा हन्त,
जैनधर्म एवं साधु-संघ को लजाया हो । दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें, उत्सर्ग-समिति में जो दूषण लगाया हो ॥
मनोगुप्ति व्यर्थ के योग्य नाना संकल्प-विकल्प जोड़
तोड़, चित्त-चक्र अति चंचल डुलाया हो । किसी से बढ़ाया राग किसी से बढ़ाया द्वेष,
परोन्नति देख कभी ई-भाव आया हो।
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बोला क्याल ही में बलम्बी-चौड़ी गए
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- श्रमण-सूत्र विषय-सुखों की कल्पनाओं में फंसाके खूब, व संयम से दूर दुराचार में रमाया हो । दैनिक 'अमर' सर्व पाप - दोष मिथ्या होवें, श्रेष्ठ मनोगुप्ति में जो दूषण लगाया हो ।
. वचन-गुप्ति बैठ जन - मण्डली में लम्बी-चौड़ी गप्प हाँक, .. बातों ही में बहुमूल्य समय गँवाया हो । बोला क्या वचन, बस वन-सा ही मार दिया,
दीन दुखियों पै खुला आतंक जमाया हो । राज-देश-भक्त नारी चारों पिकथाएँ कह,
स्व - पर - विकार - वासनाओं को जगाया हो। दैनिक 'अमर' सर्व पाप - दोष मिथ्या होवें, श्रेष्ठ वचोगुप्ति में जो दूषण लगाया हो॥
काय-गुप्ति भोगासक्ति रख नानाविध सुख-साधनों की,
. मृदु कष्ट-कातर स्वदेह को बनाया हो । शुद्धता का भाव त्याग शृंगार का भाव धारा,
सादगी से ध्यान हटा फैशन सजाया हो । अल्हड़पने में आ के यतना को गया भूल,
.. अस्त-व्यस्तता में किसी जीव को सताया हो । दैनिक 'अमर' सर्व पाप - दोष मिथ्या होवें, श्रेष्ठ काय-गुप्ति में जो दूषण लगाया हो ।
. अहिंसा-महाव्रत सूक्ष्म औ. बादर त्रस-स्थावर समस्त प्राणी
__वर्ग, जिस-किसी भाँति जरा भी सताया हो।
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अतिचार-श्रालोचना
३६६
सुनते ही कटु-वाक्य अग्नि-ज्यों भभक उठा,
निन्दकों के प्रति घृणा-द्वेष-भाव लाया हो । रोगी, दीन, दुःखी छोटे-बड़े सभी प्राणियों से,
प्रेम-भरा बन्धुता का भाव न रखाया हो । दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें,
आद्य महाव्रत में जो दूषण लगाया हो ।
सत्य-महाव्रत हास्य-वश लम्बी-चौड़ी गढ़ के गढन्त भूठी,
औंधा-सीधा कोई भद्र प्राणी भरमाया हो। राज की, समाज की या प्राणों की विभीषिका से,
भूठ बोल जानते भी सत्य को छुपाया हो । द्वेष-वश मिथ्या दोष लगा बदनाम किया,
सत्य भी अनर्थकारी भूल प्रगटाया. हो । दैनिक 'अमर' सर्व पाप - दोष मिथ्या होवे। सत्य महाव्रत में जो दूषण लगाया हो ॥
अचौर्य-महाव्रत अशन, वसन अथ अन्य उपयोगी वस्तु,
मालिक की आज्ञा बिना तृण भी उठाया हो। मानव-समाज की हा ! छाती पै का भार रहा,
. विश्व-हित-हेतु स्वकर्तव्य न बजाया हो। वृद्धों की, तपस्वियों की तथा नवदीक्षितों की, ..
रोगियों की सेवा से हरामी जी चुराया हो। दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें, ....
__दत्त-महाव्रत में जो दूषण लगाया हो।
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४००
श्रमण-सूत्र
ब्रह्मचर्य-महाव्रत विश्व की समस्त नारी माता भगिनी न जानी,
देखते ही सुन्दरी-सी' युवती लुभाया हो। वाताविद्ध हड़ के समान बना चल-चित्त,
__काम - राग दृष्टिराग स्नेहराग छाया हो। बार-बार पुष्टि-कर सरस आहार भोगा,
शान्त इन्द्रियों में भोगानल दहकाया हो। दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें, ब्रह्म-महाव्रत में जो दूषण लगाया हो।
- अपरिग्रह-महाव्रत विद्यमान वस्तुओं पै मूर्छना, अविद्यमान
वस्तुओं की लालसा में मन को रमाया हो। गच्छ-मोह, शिष्य-मोह, शास्त्र-मोह, स्थान-मोह,
अन्य भी देहादि-मोह जाल में फंसाया हो। आवश्यकताएँ बढ़ा योग्यायोग साधनों से,
व्यर्थ ही अयुक्त वस्तु-संचय जुटाया हो। दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें,
अन्त्य महाव्रत में जो दूषण लगाया हो ।।
अरात्रिभोजन-व्रत अशनादि चारों ही आहार रात्रि-समय में,
जान या अजान स्वयं खाया हो, खिलाया हो। 'औषधी के खाने में तो कुछ भी नहीं है दोष',
प्राणमोही बन मिथ्या मन्तव्य चलाया हो। रसना के चकर में श्रा के सुस्वादु खाद्या
अग्रिम दिनार्थ वासी रक्खा हो, रखाया हो ।
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श्रतिचार श्रालोचना
दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें, निशाऽभुक्ति व्रत में जो दूषण लगाया हो ॥
महाव्रत- भावना
पंच महाव्रत की न भावना पच्चीस पाली, होकर अति सुखशील आतमा करली काली । संयम की ले प्रोट खूब ही देह सँभाली, ऊपर ढोंग विचित्र होगया अन्दर खाली । गत भूलों पर तीव्रतम,
पुनि-पुनि पश्चात्ताप है । दुश्चरित्र मुनि संघ पर,
एक मात्र अभिशाप है ॥
पच्चीस मिथ्यात्व
अपने मिथ्या मत का भी अति श्राग्रह धारा, लड़ा कुतर्के स्पष्ट सत्य पर मत धिक्कारा । कभी ज्ञान तो कभी क्रिया एकान्त विचारा, लोकाचार-विमूढ मोक्ष का मार्ग बिसारा ।
पाँच-बीस मिथ्यात्व की,
करू अखिल आलोचना । मनसा चचसा कर्मणा,
योग-शुद्धि की योजना ||
गुरुजनों का विनय
पूजनीय गुरुजन की सेवा से मुख मोड़ा, आदर-सत्कारादि भक्ति का बन्धन तोड़ा ।
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४०१
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श्रमण-सूत्र
हित-शिक्षा नहिं ग्रही द्वेष से नाक सिकोड़ा, बना घोर अविनील 'अहं' से नाता जोड़ा। हा ! इस कलुषित कर्म पर,
बार-बार धिक्कार है। गुरु-सेवा ही मोक्ष का,
एक मात्र वर द्वार है।
अष्टादश-पाप पाप-पंक अष्टादश प्रतिपल,
आत्मा मलिन बनाते हैं। भीम भयंकर भव-अटवी में,
- भ्रान्त बना भटकाते हैं। पाप-शिरोमणि हिंसा से जग
जीव नित्य भय खाते हैं। मृषावाद से मानव जग में,
निज विश्वास गवाते हैं। चौर्यवृत्ति अति ही अधमाधम,
निज-पर सब को दहती है। मैथुनरत पुरुषों की बुद्धि,
निशदिन विकृत रहती है । संसृति-मूल परिग्रह भीषण,
ममताऽऽसक्ति बढ़ाता है। आकुल-व्याकुल जीवन रहता,
आखिर नरक पठाता है। क्रोध मान से सजन जन भी,
झटपट बैरी हो जाने।
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अतिचार आलोचना
माया- लोभ प्रतल महासागर, डूबे पार
नहीं
- राग, द्वेष, कलह के कारण, प्रामर नर-जीवन
पावें ।
होता 1
शान्ति सुधा का रस खोता ।
अभ्याख्यान पिशुनता का विष
पृष्ठ-मांस भक्षण-सी निन्दा,
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फैले क्लेश परस्पर में। -रति-अरति से क्षण-क्षण बढ़ता, हर्ष - शोक-नद
अन्तर में ।
मायामृषा खड्ग की धारा,
मधु-प्रलिप्त जहरीली है । मिथ्या दर्शन की तो अति ही,
घातक विकेट पहेली है । भगवन्! ये सब पाप पुण्यरिपु,
स्वयं करे करवाए हों । अथवा बन अनुमोदक स्तुति के,
गीत मुदित हो गए हों ।
पूर्णरूप से कर आलोचन, पाप-क्षेत्र से
अध: पतन के पथ को तज कर,
हटता हूँ।
उन्नत पथ पर बढ़ता हूँ ।
उपसंहार
पंच महाव्रत श्रेष्ठ मूल गुण मंगलकारी, दशविध प्रत्याख्यान गुणोत्तर कलिमल हारी ।
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४०३
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--४०४
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श्रमण-सूत्र
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लगे अतिक्रम और व्यतिक्रम दूषण भारी आई हो अतिचार अनाचारों की बारी । भूल-चूक जो भी हुई,
बार-बार निन्दा करू । आगे श्रात्म-विशुद्धि के,
दृढ़ प्रयत्न संघ आदरूँ ।
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परमेष्ठि-वन्दन
अरिहंत-वन्दन नमोऽत्थुणं अरिहंताणं, भगवंताणं, सव्वजगजीववच्छलाणं, सव्वजगमंगलाणं, मोक्खमम्गदेसगाणं, अप्पडिहयवरनाणदसणधराणं, जियरागदोसमोहाणं, जिणाणं । राग-द्वेष, महामल्ल घोर घनघातिकर्म,
नष्ट कर पूर्ण सर्वज्ञ - पद पाया है । शान्ति का सुराज्य समोसरण में कैसा सौम्य,
सिंहनी ने दुग्ध मृगशिशु को पिलाया है। अज्ञानान्धकार-मम विश्व को दयाद्र होके,
सत्य-धर्म-ज्योति का प्रकाश दिखलाया है। 'अमर' सभक्तिभाव बार - बार वन्दनार्थ, अरिहंत - चरणों में मस्तक झुकाया है ॥
सिद्ध-वन्दन नमोऽत्थुणं सिद्धाणं, बुद्धाणं, संसारसागरपारगयाणं, जम्मजरामरणचक्कविप्पमुक्काणं, कम्ममलरहियाणं, अव्वाबाहसुहमुवगयाणं, सिद्धिट्ठाणं संपत्ताणं ।
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४०६
श्रमण-सूत्र
जन्म-जरा-मरण के चक्र से पृथक् भये,
पूर्ण सत्य चिदानन्द शुद्ध रूप पाया है। मनसा अचिन्त्य तथा वचसा अवाच्य सदा,
क्षायक-स्वभाव में निजातमा रमाया है । संकल्प-विकल्प - शून्य निरंजन निराकार, .
माया का प्रपंच जड़मूल से नशाया है । 'अमर' सभक्तिभाव बार - बार चन्दनाथ, पूज्य सिद्ध - चरणों में मस्तक भुकाया है।
आचार्य-वन्दन नमोऽत्थुणं आयरियाणं, नाणदंसणचरित्तरयाणं, गच्छमेदिभूयाणं, सागरवरगंभीराणं, सयपरसमयणिच्छियाणं, देस-काल-दक्खाणं। आगमों के भिन्न-भिन्न रहस्यों के ज्ञाता ज्ञानी,
उग्रतम चारित्र का पथ अपनाया है । पक्षपातता से शून्य यथायोग्य न्यायकारी,
पतितों को शुद्ध कर धर्म में लगाया है। सूर्य-सा. प्रचण्ड तेज प्रतिरोधी जावें भैप, .. संघ में अखंड निज शासन चलाया है । 'अमर' सभक्तिभाव बार-बार वन्दनार्थ, गच्छाचार्य-चरणों में मस्तक भुकाया है ।।
उपाध्याय-वन्दन नमोऽत्थु उवज्झायाणं. अक्खयनाणसायराणं, धम्मसुत्तवायगाणं, जिणधम्मसम्माणसंरक्खणदक्खाणं, नयापमाणनिउणाणं, मिच्छत्तंधयारदिवायराणं ।
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परमेष्ठि-वन्दन मन्द-बुद्धि शिष्यों को भी विद्या का अभ्यास करा,
दिग्गज सिद्धान्तवादी पंडित बनाया है। पाखंडीजनों का गर्व खर्व कर जगत् में, .
अनेकान्तता का जय-केतु फहराया है। शंका-समाधान-द्वारा भविकों को बोध दे के,
देश - परदेश ज्ञान - भानु चमकाया है। 'अमर' सभक्तिभाव बार-बार वन्दनार्थ, ... उपाध्याय - चरणों में मस्तक मुकाया है।
साधु-वन्दन नमोऽत्धुणं सब्बसाहूणं, अक्खलियसीलाणं, सव्वालंबणविप्पमुक्काणं, समसत्तुमित्तपक्खाणं, कलिमलमुक्काणं, उझियविसयकसायाणं, भावियजिणवयणमणाणं, तेल्लोक्कसुहावहाणं, पंचमहव्वयधराएं। शत्र और मित्र तथा मान और अपमान,
सुख और दुःख द्वैत-चिन्तन हटाया है। मैत्री और करुणा समान सब प्राणियों पै,
क्रोधादि-कषाय-दावानल भी बुझाया है । ज्ञान एवं क्रिया के समान दृढ़ उपासक,
__ भीषण समर कर्म-चमू से मचाया है । 'अमर' सभक्तिभाव बार-बार वन्दनार्थ, त्यागी-मुनि-चरणों में मस्तक मुकाया है।
___ धर्मगुरु-वन्दन नमोऽत्थुणं धम्मायरियाणं, धम्मदेसगाणं, संसारसागरतारगाणं, असंकिलिटायारचरित्ता, सव्वसत्तागुग्गहपरायणाणं, उपग्गहकुसणं ।
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४०८,
श्रमण-सूत्र
भीम-भव-वन से निकाला बड़ी कोशिशों से,. - मोक्ष के विशुद्ध राजमार्ग पै चलाया है । संकट में धर्म-श्रद्धा ढीली ढाली होने पर,
समझा-बुझा के दृढ़ साहस बँधाया है । कटुता का नहीं लेश सुधा-सी सरस वाणी, ___ धर्म-प्रवचन नित्य प्रेम से सुनाया है । 'अमर' सभक्तिभावः बार-बार वन्दनार्थ,
धर्मगुरु-चरणों में मस्तक मुकाया है ॥
-
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बोल-संग्रह
प्रतिलेखना की विधि (१) उड्ढे उकडू आसन से बैठकर वस्त्र को भूमि से ऊँचा रखते हुए प्रतिलेखना करनी चाहिए ।
(२) थिरं-वस्त्र को दृढ़ता से स्थिर रखना चाहिए ।
(३) अतुरियं-उपयोग-शून्य होकर जल्दी-जल्दी प्रतिलेखना नहीं करनी चाहिए।
(४) पडिलेहे-वस्त्र के तीन भाग करके उसको दोनों ओर से अच्छी तरह देखना चाहिए ।
(५) पप्फोडे-देखने के बाद यतना से धीरे-धीरे झड़काना चाहिए।
(६) पमजिजा-झड़काने के बाद वस्त्र आदि पर लगे हुए जीव को यतना से प्रमार्जन कर हाथ में लेना तथा एकान्त में यतना से परठना चाहिए ।
[ उत्तराध्ययन २६ वाँ अध्ययन ]
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४१०
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श्रमण-सूत्र
( २ ) अप्रमाद-प्रतिलेखना
( १ ) नर्तित - प्रतिलेखना करते हुए शरीर और वस्त्र आदि को इधर-उधर नचाना न चाहिए ।
(२) अवलित - प्रतिलेखना करते हुए वस्त्र कहीं से मुड़ा हुआ न होना चाहिए । प्रतिलेखन करने वाले को भी अपने शरीर को विना मोड़े सीधे बैठना चाहिए । अथवा प्रतिलेखना करते हुए वस्त्र और शरीर को चंचल न रखना चाहिए ।
(३) अननुबन्धी- - वस्त्र को अतना से भड़काना नहीं चाहिए । ( ४ ) मोसली - धान्यादि कूटते समय ऊपर, नीचे और तिरछा लगने वाले मूसल की तरह प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को ऊपर, नीचे या तिरछा दीवार आदि से न लगाना चाहिए ।
(५) षट् पुरिमनवस्फोटका - ( छः पुरिमा नव खोडा ) प्रतिलेखना में छः पुरिम और नव खोड करने चाहिएँ । वस्त्र के दोनों हिस्सों को तीन-तीन बार खंखेरना, छः पुरिम हैं । तथा वस्त्र को तीन-तीन बार पूँज कर उसका तीन बार शोधन करना, नव खोड हैं ।
(६) पाणि-प्राण विशोधन-वस्त्र आदि पर कोई जीव देखने में श्राए तो उसका यतनापूर्वक अपने हाथ से शोधन करना चाहिए । [ ठाणांग सूत्र ]
( ३ ) प्रमाद-प्रतिलेखना
( १ ) आरभटा - विपरीत रीति से अथवा शीघ्रता से प्रतिलेखना करना । अथवा एक वस्त्र की प्रतिलेखना बीच में अधूरी छोड़कर दूसरे वस्त्र की प्रतिलेखना करने लग जाना, वह औरभटा प्रतिलेखना है ।
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बोल-संग्रह
४११
( २ ) सम्मर्दा - जिस प्रतिलेखना में वस्त्र के कोने मुड़े ही रहें अर्थात् उसकी सलवट न निकाली जाय, वह सम्मर्दा प्रतिलेखना है । अथवा प्रतिलेखना के उपकरणों पर बैठकर प्रतिलेखना करना, सम्मर्दा प्रतिलेखना है ।
(३) मोसली - जैसे धान्य कूटते समय मूसल ऊपर, नीचे और तिरछे लगता है, उसी प्रकार प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को ऊपर, नीचे अथवा तिरछा लगाना, मोसली प्रतिलेखना है ।
( ४ ) प्रस्फोटना - जिस प्रकार धूल से भरा हुआ वस्त्र जोर से भड़काया जाता है, उसी प्रकार प्रतिलेखना के वस्त्र को जोर से झड़काना, प्रस्फोटना प्रतिलेखना है ।
(५) विक्षिप्ता - प्रतिलेखना किए हुए वस्त्रों को विना प्रति' लेखना किए हुए वस्त्रों में मिला देना, विक्षिप्ता प्रतिलेखना है । अथवा प्रतिलेखना करते हुए वस्त्र के पल्ले आदि को इधर-उधर फेंकते रहना विक्षिप्ता प्रतिलेखना है ।
(६) वेदिका - प्रतिलेखना करते समय घुटनों के ऊपर, नीचे या पसवाड़े हाथ रखना, अथवा दोनों घुटनों या एक घुटने को भुजाओं के बीच रखना, वेदिका प्रतिलेखना है । [ ठाणांग सूत्र ]
( ४ )
आहार करने के छह कारण
( १ ) वेदना - क्षुधा वेदना की शान्ति के लिए । ( २ ) वैयावृत्य - सेवा करने के लिए ।
( ३ ) ईर्यापथ - मार्ग में गमनागमन आदि की शुद्ध प्रवृत्ति के
लिए ।
( ४ ) संयम - संयम की रक्षा के लिए ।
(५) प्राणप्रत्ययार्थ - प्राणों की रक्षा के लिए ।
(६) धर्म चिन्ता - शास्त्राध्ययन आदि धर्मं चिन्तन के लिए |
[ उत्तराध्ययन २६ वाँ अध्ययन ]
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श्रमण-सूत्र
आहार त्यागने के छह कारण (१) आतङ्क-भयंकर रोग से ग्रस्त होने पर । (२.) उपसर्ग-अाकस्मिक उपसर्ग श्राने पर । (३) ब्रह्मचर्यगुप्ति-ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए । (४) प्राणिदया-जीवों की दया के लिए । (५) तप-तप करने के लिए। (६) संलेखना-अन्तिम समय संथारा करने के लिए।
[उत्तराध्ययन २६ वाँ अध्ययन ]
शिक्षाभिलाषी के आठ गुण (१)शान्ति-शान्त रहे, हँसी मजाक न करे । (२) इन्द्रियदमन-इन्द्रियों पर नियंत्रण रक्खे । (३) म्वदोषदृष्टि-दूसरों के दोष न देख कर अपने ही दोष
देखे। (४) सदाचार-सदाचार का पालन करे । (५) ब्रह्मचर्य-काम-वासना का त्याग करे (६) अनासक्ति-विषयों में अनासक्त रहे । (७) सत्याग्रह-सत्य-ग्रहण के लिए सन्नद्ध रहे । (८) सहिष्णुता-सहनशील रहे, क्रोध न करे ।
उपदेश देने योग्य आठ बातें (१) शान्ति-अहिंसा एवं दया । (२) विरति-पापाचार से विरक्ति ।
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बोल-संग्रह
(३) उपशम-कषाय विजय । (४) निवृत्ति-निर्वाण, आत्मिक शान्ति । (५) शौच-मानसिक पवित्रता, दोषों का त्याग । (६) श्रार्जव-सरलता, दंभ का त्याग । (७) मार्दव-कोमलता, दुराग्रह का त्याग । (८) लाघव-परिग्रह का त्याग, अनासक्त रहना ।
भिक्षा की नौ कोटियाँ (१) आहारार्थ स्वयं जीवहिंसा न करे। (२) दूसरों के द्वारा हिंसा न कराए । (३) हिंसा करते हुओं का अनुमोदन न करे । (४) आहारादि स्वयं न पकावे । (५) दूसरों से न पकवावे । (६) पकाते हुओं का अनुमोदन न करे । (७) आहार स्वयं न खरीदे । (८) दूसरों से न खरीदवावे । (६) खरीदते हुओं का अनुमोदन न करे ।
उपर्युक्त सभी कोटियाँ मन, वचन और कायरूप तीनों योगों से हैं। इस प्रकार कुल भंग सत्ताईस होते हैं ।
रोग की उत्पत्ति के नौ कारण (१) अत्यासन-अधिक बैठे रहने से । (२)-अहितासन-प्रतिकूल शासन से बैठने पर । ) ३) अतिनिद्रा-अधिक नींद लेने से ।
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श्रमण सूत्र
( ४ ) श्रतिजागरित - अधिक जागने से ।
(५) उच्चार निरोध—बड़ी नीति की बाधा रोकने से । (६) प्रस्रवणनिरोध - लघुनीति (पेशाब) रोकने से । (७) श्रतिगमन-मार्ग में अधिक चलने से । (८) प्रतिकूल भोजन - प्रकृति के प्रतिकूल भोजन करने से । ( १ ) इन्द्रियार्थविकोपन --- विषयासक्ति अधिक रखने से ।
( १० ) समाचारी के दश प्रकार
( १ ) इच्छाकार - यदि आपकी इच्छा हो तो मैं अपना मुक कार्य करूँ, अथवा आप चाहें तो मैं आप का यह कार्य करूँ ? इस प्रकार पूछने को इच्छाकार कहते हैं । एक साधु दूसरे से किसी कार्य के लिए प्रार्थना करे अथवा दूसरा साधु स्वयं उस कार्य को करे तो उसमें इच्छाकार कहना श्रावश्यक है । इस से किसी भी कार्य में किसी भी प्रकार का बलाभियोग नहीं रहता ।
(२) मिथ्याकार - संयम का पालन करते हुए कोई विपरीत श्राचरण हो गया हो तो उस पाप के लिए पश्चात्ताप करता हुआ साधु 'मिच्छामि दुक्कडं' कहे, यह मिथ्याकार है ।
( ३ ) तथाकार - गुरुदेव की ओर से किसी प्रकार की आज्ञा मिलने पर अथवा उपदेश देने पर तहत्ति ( जैसा आप कहते हैं वही ठीक है ) कहना, तथाकार है ।
( ४ ) श्रवश्यिकी - आवश्यक कार्य के लिए उपाश्रय से बाहर जाते समय साधु को 'आवस्सिया' कहना चाहिए -- अर्थात् मैं आवश्यक कार्य के लिए बाहर जाता हूँ ।
(५) नैषेधिकी बाहर से वापिस श्राकर उपाश्रय में प्रवेश करते समय 'निसीहिया' कहना चाहिए । इसका अर्थ है- अब मुझे बाहर रहने का कोई काम नहीं रहा है ।
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बोल संग्रह
४१५ (६) आपृच्छना-किसी कार्य में प्रवृत्ति करनी हो तो पहले गुरुदेव से पूछना चाहिए कि-'क्या मैं यह कार्य कर लूँ ?' यह प्रापृच्छना है।
(७) प्रतिपृच्छना-गुरुदेव ने पहले जिस काम का निषेध कर दिया हो, यदि आवश्यकतावश वही कार्य करना हो तो गुरुदेव से पुनः पूछना चाहिए कि “भगवन् ! आपने पहले इस कार्य का निषेध कर दिया था, परन्तु यह अतीव अावश्यक कार्य है; अतः आप अाज्ञा दें तो यह कार्य कर लूँ ?” इस प्रकार पुनः पूछना, प्रतिपृच्छन है ।
(८) छन्दना-स्वयं लाए हुए आहार के लिए साधुओं को आमंत्रण देना कि 'यह श्राहार लाया हूँ, यदि आप भी इसमें से कुछ ग्रहण करें तो मैं धन्य होऊँगा ।'
(६) निमंत्रणा-याहार लाने के लिए जाते हुए दूसरे साधुओं को निमंत्रण देना, अथवा यह पूछना कि क्या आपके लिए भी श्राहार लेता पाऊँ ?
(१०) उपसंपदा-ज्ञान आदि प्राप्त करने के लिए अपना गच्छ छोड़कर किसी विशेष ज्ञान वाले गुरु का श्राश्रय लेना, उपसंपदा है । गच्छ-मोह में पड़े रह कर ज्ञानादि उपार्जन करने के लिए दूसरे योग्य गच्छ का ग्राश्रय न लेना, उचित नहीं है।
( भगवती, शत० २५., ३ ७)
(११) साधु के योग्य चौदह प्रकार का दान (१) अशन-खाए जाने वाले पदार्थ रोटी आदि । (२) पान-पीने योग्य पदार्थ, जल आदि ।
माया . (३) खादिम--मिष्टान्न, मेवा श्रादि सुस्वादु पदार्थ । (४) स्वादिम–मुख की स्वच्छता के लिए, लौंग सुपारी श्रादि ।
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श्रमण-सूत्र
(५) वस्त्र-पहनने योग्य वस्त्र । (६) पात्र-काठ, मिट्टी और तुम्बे के बने हुए पात्र । (७) कम्बल-ऊन श्रादि का बना हुआ कम्बल । (८) पादप्रोञ्छन-रजोहरण, श्रोघा । (१) पीठ-बैठने योग्य चौकी आदि । (१०) फलक-सोने योग्य पट्टा आदि । (११) शय्या-ठहरने के लिए मकान आदि । (१२) संथारा-बिठाने के लिए घास आदि । (१३) औषध-एक ही वस्तु से बनी हुई औषधि । (१४) भेषज-अनेक चीजों के मिश्रण से बनी हुई औषधि ।
ऊपर जो चौदह प्रकार के पदार्थ बताए गए हैं, इन में प्रथम के 'अाठ पदार्थ तो दानदाता से एक बार लेने के बाद फिर वापस नहीं
लौटाए जाते । शेष छह पदार्थ ऐसे हैं, जिन्हें साधु अपने काम में लाकर वापस लौटा भी देते हैं ।
[श्रावश्यक ] (१२)
कायोत्सर्ग के उन्नीस दोष घोडग' लया२ य खंभे कुड्डु माले ४ य सबरि' बहु नियले । लंबुत्तर' घण उड्डी' संजय १ खलिणे २ य वायस कवि? १४ ।। सीसोकंपिय"५ मूई१६ अंगुलि भमुहा० य वारुणी'८ पेहा । एए काउ सग्गे वंति दोसा इगुणवीसं ॥
(१) घोटक दोष-घोड़े की तरह एक पैर को मोड़कर खड़े होना।
(२) लता दोष-पवन-प्रकंपित लता की तरह काँपना । (३) स्तंभकुड्य दोष-खंभे या दीवाल का सहारा लेना।
(४) माल दोष-माल अर्थात् ऊपर की ओर किसी के सहारे मस्तक लगा कर खड़े होना ।
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बोल-संग्रह
(५) शबरी दोष-नग्न भिल्लनी के समान दोनों हाथ गुह्यस्थान पर रखकर खड़े होना ।
(६)वधू दोष-कुल-वधू की तरह मस्तक झुकाकर खड़े होना ।
(७) निगड दोष-बेड़ी पहने हुए पुरुष की तरह दोनों पैर फैला कर अथवा मिलाकर खड़े होना ।
(८) लम्बोत्तर दोष-अविधि से चोलपट्टे को नाभि के ऊपर और नीचे घुटने तक लम्बा करके खड़े होना।
(2) स्तन दोष-मच्छर आदि के भय से अथवा अज्ञानताघश छाती ढक कर कायोत्सर्ग करना ।
(१०) उद्धिका दोष--एड़ी मिला कर और पंजों को फैलाकर खड़े रहना, अथवा अँगूठे मिलाकर और एड़ी फैलाकर खड़े रहना, उर्द्धिका दोष है।
(११) संयती दोष-साध्वी की तरह कपड़े से सारा शरीर बैंक कर कायोत्सर्ग करना।
(१२) खलीन दोष-लगाम की तरह रजोहरण को श्रागे रख कर खड़े होना । अथवा लगाम से पीड़ित अश्व के समान मस्तक को कभी ऊपर कभी नीचे हिलाना, खलीन दोष है।
(१३) चायस दोष-कौवे की तरह चंचल चित्त होकर इधरउधर आँखें घुमाना अथवा दिशाओं की ओर देखना ।
(१४) कपित्थ दोष-पटपदिका ( ) के भय से चोलपट्टे को कपित्थ की तरह गोलाकार बना कर जंघात्रों के बीच दबाकर खड़े होना । अथवा मुट्ठी बाँध कर खड़े रहना, कपित्थ दोष है ।
(१५) शीर्षोत्कम्पित दोष-भूत लगे हुए व्यक्ति की तरह सिर धुनते हुए खड़े रहना।
(१६) मूक दोष-मूक अर्थात् गूंगे आदमी की तरह हूँ हूँ आदि अव्यक्त शब्द करना।
(१७) अंगुलिका भ्र. दोष-पालापकों को अर्थात् पाढ की भाव
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४१८.
त्तियों को गिनने के लिए अँगुली हिलाना, तथा दूसरे व्यापार के लिए भौंह चला कर संकेत करना ।
श्रमण-सूत्र
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(१८) वारुणी दोष - जिस प्रकार तैयार की जाती हुई शराब में से बुड़बुड़ शब्द निकलता है, उसी प्रकार अव्यक्त शब्द करते हुए खड़े रहना । अथवा शराबी की तरह झूमते हुए खड़े रहना ।
(१६) प्रेक्षा दोष-पाठ का चिन्तन करते हुए वानर की तरह प्रोटों को चलाना | [ प्रवचनसारोद्धार ] योग शास्त्र के तृतीय प्रकाश में श्रीहेमचन्द्राचार्य ने कायोत्सर्ग के इक्कीस दोष बतलाए हैं। उनके मतानुसार स्तंभ दोष, कुड्य दोष, गुली दोष और दोष चार हैं; जिनका ऊपर स्तम्भकुड्य दोष और गुलिक दोष नामक दो दोषों में समावेश किया गया है।
G
( १३ ) साधु की ३१ उपमाएँ
१ ) उत्तम एवं स्वच्छ कांस्य पात्र जैसे जल-मुक्त रहता है, उस पर पानी नहीं ठहरता है, उसी प्रकार साधु भी सांसारिक स्नेह से मुक्त होता हैं ।
( २ ) जैसे शंख पर रंग नहीं चढ़ता, उसी प्रकार साधु राग-भाव: से रंजित नहीं होता ।
(३) जैसे कछुवा चार पैर और एक गर्दन - इन पाँचों अवयवों
को संकोच कर, खोपड़ी में छुपाकर सुरक्षित भी संयम क्षेत्र में पाँचों इन्द्रियों का गोपन र बहमुत्र नहीं होने देता ।
रखता है, उसी प्रकार साधु करता है, उन्हें विषयों की
( ४ ) निर्मल सुवर्ण जैसे प्रशस्त रूपवान् होता है, उसी प्रकार साधु भी रागादि का नाश कर प्रशस्त श्रात्मस्वरूप वाला होता है । ( ५ ) जैसे कमल - पत्र जल से निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार
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बोल संग्रह
४१६
साधु, अनुकूल विषयों में आसक्त न होता हुआ उनसे निर्लिप्त रहता है।
(६) चन्द्र जैसे सौम्य ( शीतल ) होता है, उसी प्रकार साधु स्वभाव से सौम्य होता है। शान्त-परिणामी होने से किसी को क्लेश नीं पहुँचाता।
(७) सूर्य जैसे तेज से दीप्त होता है, उसी प्रकार साधु भी तप के तेज से दीन्त रहता है ।।
(८) जैसे सुमेरु पर्वत स्थिर है, प्रलयकाल में भी चलित नहीं होता, उसी प्रकार साधु संयम में स्थिर रहता हुअा अनुकूल तथा प्रतिकूल किसी भी परीषह से विचलित नहीं होता। .. (६) जिस प्रकार समुद्र गम्भीर होता है, उसी प्रकार साधु भी गम्भीर होता है, हर्ष और शोक के कारणों से चित्त को चंचल नहीं होने देता।
(१०) जिस प्रकार पृथ्वी सभी बाधा पीड़ाएँ सहती है, उसी प्रकार साधु भी सभी प्रकार के परीषह एवं उपसर्ग सहन करता है ।
(११) राख की झाँई पाने पर भी अग्नि जैसे अन्दर प्रदीप्त रहती है और बाहर से मलिन दिखाई देती है। उसी प्रकार साधु तप से कृश होने के कारण बाहर से म्लान दिखाई देता है, किन्तु अन्तर में शुभ भावना के द्वारा प्रकाशमान रहता है ।
(१२) घी से सींची हुई अग्नि जैसे तेज से देदीप्यमान होती है, उसी प्रकार साधु ज्ञान एवं तप के तेज से दीप्त रहता है। - (१३) गोशीर्ष चन्दन जैसे शीतल तथा सुगन्धित होता है, उसी प्रकार साधु कषायों के उपशान्त होने से शीतल तथा शील की सुगन्ध से वासित होता है।
(१४) हवा न चलने पर जैसे जलाशय की सतह सम रहती है, ऊँची-नीची नहीं होती; उसी प्रकार साधु भी समभाव वाला होता है। सम्मान हो अथवा अपमान, उसके विचारों में चढ़ाव-उतार नहीं होता।
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४२०
श्रमण-सूत्र
(१५) सम्मार्जित एवं स्वच्छ दर्पण जिस प्रकार प्रतिबिम्ब-ग्राही होता है, उसी प्रकार साधु मायारहित होने के कारण शुद्ध हृदय होता है, शास्त्रों के भावों को पूर्णतया ग्रहण करता है।
(१६) जिस प्रकार हाथी रणाङ्गण में अपना दृढ़ शौर्य दिखाता है, उसी प्रकार साधु भी परीघहरूप सेना के साथ युद्ध में अपूर्व आत्मशौर्य प्रकट करता है एवं विजय प्राप्त करता है।
(१७) वृषभ जैसे धोरी होता है, शकट-मार को पूर्णतया वहन करता है, उसी प्रकार साधु भी ग्रहण किए हुए व्रत नियमों का उत्साहपूर्वक निर्वाह करता है।
(१८) जिस प्रकार सिंह महाशक्तिशाली होता है, फलतः वन के अन्य मृगादि पशु उसे हरा नहीं सकते; उसी प्रकार साधु भी श्राध्यात्मिक शक्तिशाली होते हैं, परीषह उन्हें पराभूत नहीं कर सकते ।
(१६) शरद् ऋतु का जल जैसे निर्मल होता है उसी प्रकार साधु का हृदय भी शुद्ध = रागादि मल से रहित होता है।
(२०) जिस प्रकार भारण्ड पक्षी अहर्निश अत्यन्त सावधान रहता है, तनिक भी प्रमाद नहीं करता; इसी प्रकार साधु भी सदैव संयमानुष्ठान में सावधान रहता है, कभी भी प्रमाद का सेवन नहीं करता ।
(२१) जैसे गैंडे के मस्तक पर एक ही सींग होता है, उसी प्रकार साधु भी राग-द्वेष रहित होने से एकाकी होता है, किसी भी व्यक्ति एवं वस्तु में आसक्ति नहीं रखता।
(२२) जैसे स्थाणु (वृक्ष का हूँठ) निश्चल खड़ा रहता है उसी प्रकार साधु भी कायोत्सर्ग आदि के समय निश्चल एवं निष्प्रकंप खड़ा रहता है।
(२३) सूने घर में जैसे सफाई एवं सजावट आदि के संस्कार नहीं होते, उसी प्रकार साधु भी शरीर का संस्कार नहीं करता । वह बाह्य शोभा एवं शृङ्गार का त्यागी होता है।
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बोल-संग्रह
४२१ (२४) जिस प्रकार निर्वात ( वायु से रहित ) स्थान में रहा हुआ दीपक स्थिर रहता है, कंपित नहीं होता, उसी प्रकार साधु भी एकान्त स्थान में रहा हुया उपसर्ग आने पर भी शुभ ध्यान से चलायमान नहीं होता।
(२५) जैसे उस्तरे के एक ओर ही धार होती है, वैसे ही साधु भी त्याग-रूप एक ही धारा वाला होता है।
(२६) जैसे सर्प एक-दृष्टि होता है अर्थात् लक्ष्य पर एक टक दृष्टि जमाए रहता है, उसी प्रकार साधु भी अपने मोक्ष-रूप ध्येय के प्रति ही ध्यान रखता है, अन्यत्र नहीं ।
(२७) श्राकाश जैसे निरालम्ब= आधार से रहित है, उसी प्रकार साधु भी कुल, ग्राम, नगर, देश आदि के आलम्बन से रहित अनासक्त होता है। . (२८) पक्षी जैसे सब तरह से स्वतंत्र होकर विहार करता है, वैसे ही निष्परिग्रही साधु भी स्वजन आदि तथा नियतवास आदि के बन्धनों से मुक्त होकर स्वतंत्र विहार करता है ।
(२६) जिस प्रकार सर्प स्वयं घर नहीं बनाता, किन्तु चूहे आदि दूसरों के बनाये बिलों में जाकर निवास करता है, उसी प्रकार साधु भी स्वयं मकान नहीं बनाता, किन्तु गृहस्थों के अपने लिए बनाए गए मकानों में उनकी प्रज्ञा प्राप्त कर निवास करता है ।
(३०) वायु की गति जैसे प्रतिबन्ध रहित अव्याहत है, उसी प्रकार साधु भी विना किसी प्रतिबन्ध के स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करता है। __(३१) मृत्यु के बाद परभव में जाते हुए जीव की गति में जैसे कोई रुकावट नहीं होती, उसी प्रकार स्वपर सिद्धान्त का जानकार साधु भी निःशङ्क होकर विरोधी अन्य-तीथिकों के देशों में धर्म प्रचार करता हुअा विचरता है।
- [औषपातिक सूत्र ]
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૪૨
.. श्रमण-सूत्र
बत्तीस अस्वाध्याय बत्तीस अस्वाध्यायों का वर्णन स्थानाङ्ग सूत्र में है । वह इस प्रकार है--दश अाकाश सम्बन्धी, दश औदारिक सम्बन्धी, चार महाप्रतिपदा, : चार महाप्रतिपदाओं के पूर्व की पूर्णिमाएँ, और चार सन्ध्याएँ ।
अन्य ग्रन्थों में कुछ मत भेद भी हैं । परन्तु यहाँ स्थानाङ्ग सूत्र के अनुसार ही लिखा जा रहा है। ..
(१) उल्कापात--आकाश से रेखा वाले तेजःपुञ्ज का गिरना, अथवा पीछे से रेखा एवं प्रकाश वाले तारे का टूटना, उल्कापात कहलाता है । उल्कापात होने पर एक प्रहर तक सूत्र की अत्वाध्याय रहती है । -- : (२) दिग्दाह-किसी एक दिशा-विशेष में मानों बड़ा नगर जल रहा हो, इस प्रकार ऊपर की ओर प्रकाश दिखाई देना और नीचे अन्धकार मालूम होना, दिग्दाह है। दिग्दाह के होने पर एक प्रहर तक अस्वाध्याय रहती है।
(३) गर्जित-बादल गर्जने पर दो प्रहर तक शास्त्र की स्वाध्याय नहीं करनी चाहिए। . (४) विद्युत-बिजली चमकने पर एक प्रहर तक शास्त्र की स्वाध्याय करने का निषेध है ।
पार्द्रा से स्वाति नक्षत्र तक अर्थात् वर्षा ऋतु में गर्जित और विद्युत की अस्वाध्याय नहीं होती । क्योंकि वर्षा काल में ये प्रकृतिसिद्धस्वाभाविक होते हैं ।
(५) निर्घात-विना बादल वाले आकाश में व्यन्तरादिकृत गर्जना की प्रचण्ड धनि को निर्घात कहते हैं । निर्घात होने पर एक अहोरात्रि तक अस्वाध्याय रखना चाहिए ।
(६) यूपक-शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया और तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्र की प्रभा का मिल जाना, यूपक है । इन
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बोल-संग्रह
४२३
दिनों में चन्द्र-प्रभा से ग्रावृत होने के कारण सन्ध्या का बीतना मालूम नहीं होता । अतः तीनों दिनों में रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करना मना है
(७) यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा-विशेष में बिजली सरीखा, बीचबीच में ठहर कर, जो प्रकाश दिखाई देता है उसे यक्षादीप्त कहते हैं । यक्षादीप्त होने पर एक प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए ।
(८) धूमिका-कार्तिक से लेकर माघ मास तक का समय मेघों का गर्भमास कहा जाता है। इस काल में जो धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जल रूप धू वर पड़ती है, वह धूमिका कहलाती है । यह धूमिका कभी कभी अन्य मासों में भी पड़ा करती है। धूमिका गिरने के साथ ही सभी को जल-क्लिन कर देती है। अतः यह जब तक गिरती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए ।
(६) महिका-शीत काल में जो श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरूप यूँ चर पड़ती है, वह महिका है । यह भी जब तक गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय रहता है। ..(१०) रजउद्घात-वायु के कारण अाकाश में जो चारों ओर धूल छा जाती है, उसे रजउद्घात कहते हैं। रज उद्घात जब तक रहे, तब तक स्वाध्याय न करना चाहिए।
ये दश अाकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय हैं ।
(११-१३) अस्थि, मांस और रक्त--पञ्चेन्द्रिय तियञ्च के अस्थि, मांस और रक्त यदि साठ हाथ के अन्दर हों तो संभवकाल से तीन प्रहर तक स्वाध्याय करना मना है। यदि साठ हाथ के अन्दर बिल्ली वगैरह चूहे आदि को मार डालें तो एक दिन-रात अस्वाध्याय रहता है। . इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि, मांस और रक्त का अस्वाध्याय भी समझना चाहिए। अन्तर केवल इतना ही है कि-इनका अत्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है। स्त्रियों के
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४२४
श्रमण सूत्र
मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन का एवं बालक और बालिका के जन्म का क्रमशः सात और अाठ दिन का माना गया है ।
(१४) अशुचि-टट्टी और पेशाब यदि स्वाध्याय स्थान के समीप हों और वे दृष्टिगोचर होते हों अथवा उनकी दुर्गन्ध आती हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए ।
(१५) श्मशान-श्मशान के चारों तरफ़ सौ-सौ हाथ तक स्वाध्याय न करना चाहिए।
(१६) चन्द्र ग्रहण चन्द्र ग्रहण होने पर जघन्य अाठ और उत्कृष्ट बारह प्रहर तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। यदि उगता हुआ चन्द्र ग्रसित हुआ हो तो चार प्रहर उस रात के एवं चार प्रहर अागामी दिवस के इस प्रकार पाठ प्रहर स्वाध्याय न करना चाहिए ।
यदि चन्द्रमा प्रभात के समय ग्रहण-सहित अस्त हुआ हो तो चार प्रहर दिन के, चार प्रहर रात्रि के एवं चार प्रहर दूसरे दिन के इस प्रकार बारह प्रहर तक अस्वाध्याय रखना चाहिए।
पूर्ण ग्रहण होने पर भी बारह प्रहर स्वाध्याय न करना चाहिए । यदि ग्रहण अल्य%= अपूर्ण हो तो आठ प्रहर तक अस्वाध्यायकाल रहता है। ___ (१७) सूर्य ग्रहण-सूर्य ग्रहण होने पर जघन्य बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर तक अस्वाध्याय रखना चाहिए । अपूर्ण ग्रहण होने पर बारह, और पूर्ण तथा पूर्ण के लगभग होने पर सोलह प्रहर का अस्वाध्याय होता है। ___सूर्य अस्त होते समय ग्रसित हो तो चार प्रहर रात के, ओर पाठ अागामी अहोरात्रि के इस प्रकार सोलह प्रहर तक अस्वाध्याय रखना चाहिए। यदि उगता हुआ सूर्य ग्रसित हो तो उस दिन रात के आठ एवं आगामी दिन-रात के आठ-इस प्रकार सोलह प्रहर तक स्वाध्याय न करना चाहिए।
(१८) पतन-राजा की मृत्यु होने पर जब तक दूसरा राजा
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बोल-संग्रह
४२५
सिंहासनारूढ़ न हो, तब तक स्वाध्याय करना मना है। नये राजा के हो जाने के बाद भी एक दिन-रात तक स्वाध्याय न करना चाहिए ।
राजा के विद्यमान रहते भी यदि अशान्ति एवं उपद्रव हो जाय तो जब तक अशान्ति रहे तब तक अस्वाध्याय रखना चाहिए । शान्ति एवं व्यवस्था हो जाने के बाद भी एक अहोरात्र के लिए अस्वाध्याय रखा जाता है।
राजमंत्री की, गाँव के मुखिया की, शय्यातर की, तथा उपाश्रय के आस-पास में सात घरों के अन्दर अन्य किसी की मृत्यु हो जाय तो एक दिन-रात के लिए अस्वाध्याय रखना चाहिए ।
(१६) राजव्युग्रह-राजाओं के बीच संग्राम हो जाय तो शान्ति होने तक तथा उसके बाद भी एक अहोरात्र तक स्वाध्याय न करना चाहिए।
(२०) औदारिकशरीर-उपाश्रय में पञ्चेन्द्रिय तिर्यच का अथवा मनुष्य का निर्जीव शरीर पड़ा हो तो सौ हाथ के अन्दर स्वाध्याय न करना चाहिए । ___ ये दश औदारिक सम्बन्धी अस्वाध्याय हैं । चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण को श्रौदारिक अस्वाध्याय में इसलिए गिना है कि उनके विमान पृथ्वी के बने होते हैं।
(२१-२८) चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-श्राषाढ़ पूर्णिमा, श्राश्विन पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा और चैत्र पूर्णिमा-ये चार महोत्सव हैं । उक्त महापूर्णिमाओं के बाद अाने वाली प्रतिपदा महाप्रतिपदा कहलाती है। चारों महापूर्णिमाओं और चारों महाप्रतिपदानों में स्वाध्याय न करना चाहिए। .
(२६-३२) प्रातःकाल, दुपहर, सायंकाल और अर्द्ध रात्रि-ये चार सन्ध्याकाल हैं। इन सन्ध्यात्रों में भी दो घड़ी तक स्वाध्याय न करना चाहिए।
[स्थानांग सूत्र ]
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४२६
श्रमण-सूत्र
वन्दना के बत्तीस दोष (१) अनाहत-आदरभाव के बिना वन्दना करना ।
(२) स्तब्ध-अभिमान पूर्वक वन्दना करना अर्थात् दण्डायमान रहना, झुकना नहीं । रोगादि कारण का आगार है।
(३) प्रविद्धः--अनियंत्रित रूप से अस्थिर होकर वन्दना करना । अथवा वन्दना अधूरी ही छोड़ कर चले जाना ।
(४) परिपिण्डित--एक स्थान पर रहे हुए प्राचार्य यादि को पृथक्-पृथक् वन्दना न कर एक ही वन्दन से सब को वन्दना करना । अथवा जंघा पर हाथ रख कर हाथ पैर बाँधे हुए अस्पट-उच्चारण-पूर्वक वन्दना करना।
(५) टोलगति-टिड्ड की तरह आगे पीछे कूद-फाँद कर वन्दना करना ।
(६)अंकुश-रजोहरण को अंकुश की तरह दोनों हाथों से पकड़ कर वन्दना करना । अथवा हाथी को जिस प्रकार बलात् अंकुश के द्वारा बिठाया जाता है, उसी प्रकार प्राचार्य आदि सोये हुए हों या अन्य किसी कार्य में संलग्न हों तो अवज्ञापूर्वक हाथ खींच कर वन्दना करना अंकुश दोष है। . (७) कच्छ परिगत–'तित्तिसन्नयराए' श्रादि पाठ कहते समय खड़े होकर अथवा 'अहोकायंकाय' इत्यादि पाठ बोलते समय बैठ कर कछुए की तरह रेंगते अर्थात् आगे-पीछे चलते हुए वन्दना करना । . (८) मत्स्योवृत्त-प्राचार्यादि को वन्दना करने के बाद बैठेबैठे ही मछली की तरह शीघ्र पार्श्व फेर कर पास में बैठे हुए अन्य रत्नाधिक साधुअों को वन्दना करना ।
(१) मनसा प्रद्विष्ट- रत्नाधिक गुरुदेव के प्रति असूया पूर्वक वन्दना करना, मनसाप्रद्विष्ट दोष है।
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बोल-संग्रह
--- ४२७ (१०) वेदिकाबद्ध-~-दोनों घुटनों के ऊपर, नीचे पार्श्व में अथवा गोदी में हाथ रख कर या किसी एक घुटने को दोनों हाथों के बीच में करके वन्दना करना।
(११) भय-प्राचार्य आदि कहीं गच्छ से बाहर न करदें, इस भय से उनको वन्दना करना ।
(१२) भजमान-श्राचार्य हम से अनुकूल रहते हैं अथवा भविष्य में अनुकूल रहेंगे, इस दृष्टि से वन्दना करना ।
(१३) मैत्री प्राचार्य श्रादि से मैत्री हो जायगी, इस प्रकार मैत्री के निमित्त से वन्दना करना।
(१४ गौरव-दूसरे साधु यह जान लें कि यह साधु वन्दन-विषयक समाचारी में कुशल है, इस प्रकार गौरव की इच्छा से विधि पूर्वक वन्दना करना।
(१५) कारण-ज्ञान, दर्शन और चारित्र के सिवा अन्य ऐहिक वस्त्र पात्र आदि वस्तुओं के लिए वन्दना करना, कारण दोष है ।
(१६) स्तन्य-दूसरे साधु और श्रावक मुझे वन्दना करते देख न लें, मेरी लघुता प्रकट न हो, इस भाव से चोर की तरह छिपकर वन्दना करना ।
(१७) प्रत्यनीक-गुरुदेव अाहारादि करते हों उस समय वन. ना करना, प्रत्यनीक दोष है । - (१८) रुष्ट-क्रोध से जलते हुए वन्दन करना । __(१६) तर्जित-गुरुदेव को तर्जना करते हुए वन्दन करना । तर्जना का अर्थ है-'तुम तो काष्ठ मूर्ति हो, तुमको वन्दना करें या न करें, कुछ भी हानि लाभ नहीं ।'
(२०) शठ-विना भाव के सिर्फ दिखाने के लिए बन्दन काना अथवा बीमारी आदि का झूठा बहाना बना कर सम्यक् प्रकार से वन्दन न करना।
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श्रमण-सूत्र
(२१) हीलित - 'आपको वन्दना करने से क्या लाभ ?' - इस प्रकार हँसी करते हुए अवहेलनापूर्वक बन्दना करना |
(२२) विपरिकुञ्चित - वन्दना अधूरी छोड़ कर देश आदि की इधर-उधर की बातें करने लगना ।
(२३) दृष्टादृष्ट - बहुत से साधु वन्दना कर रहे हों उस समय किसी साधु की आड़ में वन्दना किए बिना खड़े रहना अथवा अँधेरी जगह में वन्दना किए बिना ही चुपचाप खड़े रहना, परन्तु श्राचार्य के देख लेने पर वन्दना करने लगना, दृष्टादृष्ट दोष है ।
(२४) श्रृंग - वन्दना करते समय ललाट के बीच दोनों हाथ न लगाकर ललाट की बाँई या दाहिनी तरफ लगाना, श्रृंग दोष है ।
(२५) कर - वन्दना को निर्जरा का हेतु न मान कर उसे अरिहन्त भगवान् का कर समझना ।
(२६) मोचन - - वन्दना से ही मुक्ति सम्भव है, वन्दना के विना मोद न होगा - यह सोचकर विवशता के साथ वन्दना करना ।
(२७) आश्लिष्ट अनाश्लिष्ट - 'अहो काय काय' इत्यादि श्रावर्त देते समय दोनों हाथों से रजोहरण और मस्तक को क्रमशः छूना चाहिए । अथवा गुरुदेव के चरण कमल और निज मस्तक को क्रमशः छूना चाहिए । ऐसा न करके किसी एक को छूना, अथवा दोनों को ही न छूना, श्राश्लिष्ट अनाश्लिष्ट दोष है ।
(२८) उन आवश्यक वचन एवं नमनादि क्रियात्रों में से कोई सी क्रिया छोड़ देना । अथवा उत्सुकता के कारण थोड़े समय में ही वन्दन क्रिया समाप्त कर देना ।
---
(२६) उत्तरचूडा - वन्दना कर लेने के बाद उँचे स्वर से 'मत्थएण वन्दामि' कहना उत्तर चूड़ा दोष है ।
(३०) मूक -- पाठ का उच्चारण न करके मूक के समान वन्दना
करना ।
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बोल-संग्रह
४२६
(३१) टड्डर -- ऊँचे स्वर से अभद्र रूप में वन्दना सूत्र का
उच्चारण करना ।
M
(३२) चुड्ली - अर्द्धदग्ध अर्थात् अधजले काष्ठ की तरह रजोहरण को सिरे से पकड़ कर उसे घुमाते हुए वन्दन करना ।
[ प्रवचन सारोद्धार, वन्दनाद्वार ]
( १६ ) तेतीस शातनाएँ
( १ ) मार्ग में रत्नाधिक ( दीक्षा में बड़े ) से आगे चलना । ( २ ) मार्ग में रत्नाधिक के बराबर चलना ।
( ३ ) मार्ग में रत्नाधिक के पीछे ड़कर चलना |
( ४-६ ) रत्नाधिक के ग्रागे बराबर में तथा पीछे अड़ कर खड़े होना ।
( ७-९ ) रत्नाधिक के आगे, बराबर तथा पीछे अड़कर बैठना । ( १० ) रत्नाधिक और शिष्य विचार-भूमि. ( जंगल में ) गए हों वहाँ रत्नाधिक से पूर्व श्राचमन - शौच करना ।
(११) बाहर से उपाश्रय में लौटने पर रत्नाधिक से पहले पथ की आलोचना करना
(१२) रात्रि में रत्नाधिक की ओर से 'कौन जागता है ?' पूछने जागते हुए भी उत्तर न देना ।
पर
(१३) जिस व्यक्ति से रत्नाधिक को पहले बात-चीत करनी चाहिए, उससे पहले स्वयं ही बात-चीत करना ।
(१४) आहार आदि की आलोचना प्रथम दूसरे साधुओं के श्रागे करने के बाद रत्नाधिक के आगे करना ।
(१५) आहार आदि प्रथम दूसरे साधुत्रों को दिखला कर बाद में रत्नाधिक को दिखलाना ।
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४३०
श्रमण-सूत्र
(१६) आहार आदि के लिए प्रथम दूसरे साधुओं को निमंत्रित कर बाद में रत्नाधिक को निमंत्रण देना ।
(१७) रत्नाधिक को बिना पूछे दूसरे साधु को उसकी इच्छानुसार प्रचुर अाहार देना। ___ (१८) रत्नाधिक के साथ आहार करते समय सुस्वादु आहार स्वयं खा लेना, अथवा साधारण श्राहार भी शीव्रता से अधिक खा लेना।
(१६) रत्नाधिक के बुलाये जाने पर सुना अनसुना कर देना ।
(२०) रत्नाधिक के प्रति या उनके समक्ष कठोर अथवा मर्यादा से अधिक बोलना।
(२१) रत्नाधिक के द्वारा बुलाये जाने पर शिष्य को उत्तर में 'मत्थएण वंदामि' कहना चाहिए। ऐसा न कह कर 'क्या कहते हो' इन अभद्र शब्दों में उत्तर देना ।
(२२) रत्नाधिक के द्वारा बुलाने पर शिष्य को उनके समीप पाकर बात सुननी चाहिए | ऐसा न करके आसन पर बैठे-ही-बैठे बात सुनना और उत्तर देना।
(२३) गुरुदेव के प्रति 'तू' का प्रयोग करना।
(२४) गुरुदेव किसी कार्य के लिए आज्ञा देवे तो उसे स्वीकार न करके उल्टा उन्हीं से कहना कि 'आप ही कर लो। ___(२५) गुरुदेव के धर्मकथा कहने पर ध्यान से न सुनना और अन्यमनस्क रहना, प्रवचन को प्रशंसा न करना । .. (२६) रत्नाधिक धर्मकथा करते हों तो बीच में ही टोकना'आप भूल गए । यह ऐसे नहीं, ऐसे है'-इत्यादि ।
(२७) रत्नाधिक धर्मकथा कर रहे हों, उस समय किसी उपाय से कथा-भंग करना और स्वयं कथा कहने लगना।
(२८) रत्नाधिक धर्मकथा करते हों उस समय परिषद का भेदन करना और कहना कि-'कब तक कहोगे, भिक्षा का समय हो गया है ।'
(२६) रत्नाधिक धर्म-कथा कर चुके हों और जनता अभी बिखरी
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बोल संग्रह न हो तो उस सभा में गुरुदेव-कथित धर्मकथा का ही अन्य व्याख्यान करना और कहना कि 'इसके ये भाव और होते हैं ।'
(३० ) गुरुवदेव के शय्या-संस्तारक को पैर से छूकर क्षमा माँगे विना ही चले जाना।
(३१) गुरुदेव के शय्या-संस्तारक पर खड़े होना, बैठना, और सोना।
(३२) गुरुदेव के अासन से ऊँचे आसन पर खड़े होना, बैठना और सोना ।
(३३) गुरुदेव के आसन के बराबर ग्रासन पर खड़े होना, बैठना और सोना ।
ये अाशातनाएँ हरिभद्रीय आवश्यक के प्रतिक्रमणाध्ययन के अनुसार दी हैं । समवायांग और दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र में भी कुछ क्रमभंग के सिवा ये ही अाशातनाएँ हैं ।
( १७ ) गोचरी के ४७ दोष
गवेषणा के १६ उद्गम दोष आहाकम्भुइसिय पूईकम्मे य मीसजाए य । व्वणा पाहुडियाए पाओयर कीय पामिच्चे ।। १ ।। परियट्टिए अभिहडे उभिन्न मालोहडे इय।
अच्छिज्जे अणिसिटू अझोयरए य सोलसमे ॥ २ ॥ (१) आधाकर्म-साधु का उद्देश्य रखकर बनाना । (२) औद्देशिक-सामान्य याचकों का उद्देश्य रखकर बनाना । (३) पूतिकम-शुद्ध आहार को अाधाकर्मादि से मिश्रित करना । (४) मिश्रजात-अपने और साधु के लिए एक साथ बनाना । (५)स्थापन-साधु के लिए दुग्ध आदि अलग रख देना ।
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४३२
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श्रमण-सूत्र
(६) प्राभृतिका - साधु को पास के ग्रामादि में श्राया जान कर विशिष्ट आहार बहराने के लिए जीमणवार आदि का दिन आगे पीछे कर देना ।
(७) प्रादुष्करण - अन्धकारयुक्त स्थान में दीपक आदि का प्रकाश करके भोजन देना ।
(८) क्रीत - साधु के लिए ख़रीद कर लाना ।
(६) प्रामित्य - साधु के लिए उधार लाना ।
(१०) परिवर्तित - साधु के लिए ग्रहा-सहा करके लाना ।
(११) अभिहृत - साधु के लिए दूर से लाकर देना ।
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(१२) उद् भिन्न - साधु के लिए लिप्त पात्र का मुख खोल कर घृतादि देना ।
(१३) मालापहृत - ऊपर की मञ्जिल से या छींके वगैरह से सीढ़ी आदि से उतार कर देना ।
(१४) आच्छेद्य - दुर्बल से छीन कर देना ।
(१५) अनिसृष्ट - साझे की चीज़ दूसरों की आज्ञा के बिना देना । (१६) अध्यव पूरक - साधु को गाँव में श्राया जान कर अपने लिए बनाये जाने वाले भोजन में और बढ़ा देना |
उद्गम दोषों का निमित्त गृहस्थ होता है ।
गवेषणा के १६ उत्पादन दोष
धाई दूई निमित्ते श्राजीव वणीमगे तिमिच्छा य । कोहे माणे माया लोभे य हवंति दस एए ॥ | १ || पुव्विं पच्छासंथव विज्जा मंते य चुण्या जोगे य । उपायगाइ दोसा सोलसमे मूलकम्मे य ॥२॥ ( १ ) धात्री - धाय की तरह गृहस्थ के बालकों को खिला-पिला कर, हँसा - रमाकर श्राहार लेना ।
(२) दूती - दूत के समान संदेशवाहक बनकर आहार लेना ।
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बोल - संग्रह
४३.३
(३) निमित्त - शुभाशुभ निमित्त बताकर श्राहार लेना । (४) आजीव - श्राहार के लिए जाति, कुल आदि बताना । ( ५ ) वनीपक - गृहस्थ की प्रशंसा करके भिक्षा लेना । ( ६ ) चिकित्सा -- औषधि आदि बताकर आहार लेना । (७) क्रोध -- क्रोध करना या शापादि का भय दिखाना । ८) मान-अपना प्रभुत्व जमाते हुए श्राहार लेना । (६) माया - छल कपट से आहार लेना । (१०) लोभ - सरस भिक्षा के लिए अधिक घूमना । (११) पूर्वपश्चात्संस्तव - दान-दाता के माता-पिता अथवा सासससुर आदि से अपना परिचय बताकर भिक्षा लेना ।
(१२) विद्या --जप आदि से सिद्ध होने वाली विद्या का प्रयोग
करना ।
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(१३) मंत्र - मंत्र - प्रयोग से आहार लेना ।
(१४) चूर्ण - चूर्ण श्रादि वशीकरण का प्रयोग करके श्राहार लेना ।
(१५) योग - सिद्धि आदि योग-विद्या का प्रदर्शन करना ।
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(१६) मूल कर्म - गर्भस्तंभ आदि के प्रयोग बताना |
उत्पादन के दोष साधु की ओर से लगते हैं । इनका निमित्त साधु ही होता है ।
ग्रहण के १० दोष
संकिय मक्खिय निक्खित्त,
अपरिणय लित्त छड़िय,
पिहिय साहरिय दायगुम्मीसे ।
एसा दोसा दस हवन्ति ||१||
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( १ ) शङ्कित - श्रधाकर्मादि दोषों की शंका होने पर भी लेना । (२) प्रक्षित -- सचित्त का संघट्टा होने पर आहार लेना । (३) निक्षिप्त- सचित्त पर रक्खा हुआ आहार लेना ।
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૪૪
श्रमण-सूत्र
( ४ ) पिहित - सचित्त से ढका हुआ आहार लेना ।
( ५ ) संहृत - पात्र में पहले से रक्खे हुए अकल्पनीय पदार्थ को निकाल कर उसी पात्र से देना ।
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(६) दायक - शराबी, गर्भिणी आदि अधिकारी से लेना । (७) उन्मिश्र - सचित्त से मिश्रित आहार लेना । (८) परिणत - पूरे तौर पर पके बिना शाकादि लेना ।
( ६ ) लिप्त - दही, घृत आदि से लिप्त होनोवले पात्र या हाथ से आहार लेना । पहले या पीछे धोने के कारण पुरः कर्म तथा पश्चात्कर्म दोष होता है ।
(१०) छर्दित - छींटे नीचे पड़ रहे हों, ऐसा आहार लेना । गृहस्थ तथा साधु दोनों के निमित्त से लगने वाले दोष, ग्रहणेपणा के दोष कहलाते हैं ।
ग्रासपणा के ५ दोष
संजोयापमाणे,
इंगाले धूमऽकारणे चैव ।
( १ ) संयोजना - रसलोलुपता के कारण दूध शक्कर आदि द्रव्यों को परस्पर मिलाना ।
( २ ) प्रमाण - प्रमाण से अधिक भोजन करना ।
( ३ ) अङ्गार - सुस्वादु भोजन को प्रशंसा करते हुए खाना । यह दोष चारित्र को जलाकर कोयलास्वरूप निस्तेज बना देता है, श्रतः अंगार कहलाता है ।
( ४ ) धूम - नीरस आहार को निन्दा करते हुए खाना ।
(५) अकारण - - आहार करने के छः कारणों के सिवा बलवृद्धि श्रादि के लिए भोजन करना ।
ये दोष साधु-मण्डली में बैठकर भोजन करते हुए लगते हैं, अतः ग्रासपणा दोष कहलाते हैं ।
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बोल-संग्रह
४३५
उपर्युक्त ४७ दोषों का वर्णन पिण्ड नियुक्ति, प्रवचनसार, आवश्यक आदि में आता है । प्रत्येक टीकाकार कुछ अर्थभेद की भी सूचना देते हैं । यहाँ सामान्यतया प्रचलित ग्रंथों का ही उल्लेख किया गया है ।
( १७ ) चरण - सप्तति
चय समणधम्म,
संजम व्यावच्चं च बंभगुती ओ ।
नाणाइतियं तवं कोह - निगहाई
( १८ ) करण-सप्तति
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पिंड विसोही समिई,
पाँच महाव्रत, क्षमा आदि दश श्रमण-धर्म, सतरह प्रकार का संयम, दश वैयावृत्य, नौ ब्रह्मचर्यं की गुप्ति, रत्न, बारह प्रकार का तप, चार कपायों का चरण है।
ज्ञान दर्शन - चारित्ररूप तीन निग्रह - - यह सत्तर प्रकार का
चरणमेयं ॥
पडिले हरण गुत्ती,
—श्रोघनियुक्ति-भाष्य
भाव पडमाय इंदियनिरोहो ।
अभिग्गहा चैव करणं तु ॥
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—श्रोघनियुक्ति भाष्य
प्रशन आदि चार प्रकार की पिण्ड विशुद्धि, पाँच प्रकार की समिति, चारह प्रकार की भावना, बारह प्रकार की भिक्षु-प्रतिमा, पाँच प्रकार
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४३६
श्रमण-सूत्र
का इन्द्रियनिरोध, पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना, तीन गुप्तियाँ, पार चार प्रकार का अभिग्रह---यह सत्तर प्रकार का करण है।
जिस का नित्य प्रति निरंतर अावरण किया जाय, वह हावत श्रादि चरण होता है। और जो प्रयोजन होने पर किया जाय और प्रयोजन न होने पर न किया जाय, वह करण होता है। श्रोधनियुक्ति की टीका में आचार्य द्रोण लिखते हैं-"चरणकरणयोः कः प्रतिविशेषः ? नित्यानुष्ठानं चरणं, यत्तु प्रयोजने आपने क्रियते तत्करणमिति । तथा च व्रतादि सर्वकालमेव चर्यते, न पुन व्रतशून्यः कश्चित्कालः । पिण्डविशुद्धयादि तु प्रयोजने अापने क्रियते इति ।"
(१६)
चौरासी लाख जीव-योनि चार गति के जितने भी संसारी जीव हैं, उनकी ८४ लाख योनियाँ हैं । योनियों का अर्थ है---जीवों के उत्पन्न होने का स्थान । समस्त जीवों के ८४ लाख उत्पत्ति स्थान हैं । यद्यपि स्थान तो इस से भी अधिक हैं, परन्तु वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान के रूप में जितने भी स्थान परस्पर समान होते हैं, उन सब का मिल कर एक ही स्थान माना जाता है।
पृथ्वी काय के मूल भेद ६५० हैं । पाँच वर्ण से उक्त भेदों को गुणा करने से १७५० भेद होते हैं । पुन: दो गन्ध से गुणा करने पर ३५००, पुनः पाँच रस से गुणा करने पर १७५००, पुनः अाठ स्पर्श से गुणा करने पर १४०००० , पुनः पाँच संस्थान से गुणा करने से कुल सात लाख भेद होते हैं ।
उपर्युक्त पद्धति से ही जल, तेज एवं वायु काय के भी प्रत्येक के मूल भेद ३५० हैं । उनको पाँच वर्ण आदि से गुणन करने पर प्रत्येक की सात-सात लाख योनियाँ हो जाती हैं । प्रत्येक वनस्पति के मूलभेद ५०. हैं । उनको पाँच वर्ण अादि से गुणा करने से कुल दस लाख
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बोल-संग्रह
योनियाँ हो जाती हैं । कन्दमूल की जाति के मूलभेद ७०० हैं, अतः उनको भी पाँच वर्ण आदि से गुणा करने पर कुल १४००००० योनियाँ होती हैं ।
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इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय विकलत्रय के प्रत्येक के मूलभेद १०० हैं । उनको पाँच वर्ण आदि से गुणा करने पर प्रत्येक की कुल योनियाँ दो-दो लाख हो जाती हैं । तिर्यञ्च पञ्च ेन्द्रिय, नारकी एवं देवता के मूलभेद २०० हैं । उनको पाँच वर्ण आदि से गुणा करने पर प्रत्येक की कुल चार-चार लाख योनियाँ होती हैं । मनुष्य की जाति के मूलभेद ७०० हैं । ग्रतः पाँच वर्णं श्रादि से गुणा करने से मनुष्य की कुल १४००००० योनियाँ हो जाती हैं ।
( २० ) पाँच व्यवहार
साधक जीवन की आधार भूमि पाँच व्यवहार हैं । मुमुक्षु साधकों की प्रवृत्ति एवं निवृत्ति को व्यवहार कहते हैं । ग्रशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति ही व्यवहार है, और यही चारित्र है । आचार्य नेमिचन्द्र कहते हैं'अहादो विणिवित्ती,
सुहे पवित्तीय जाण चारितं ।'
साधक की प्रत्येक प्रवृत्ति निवृत्ति ज्ञान मूलक होनी चाहिए । ज्ञान शून्य प्रवृत्ति, प्रवृत्ति नहीं, कुप्रवृत्ति है । और इसी प्रकार निवृत्ति भी निवृत्ति नहीं, कुनिवृत्ति है | चारित्र का आधार ज्ञान है । अतः जहाँ साधक की प्रवृत्ति निवृत्ति को व्यवहार कहते हैं, वहाँ प्रवृत्ति निवृत्ति के श्राधार भूत ज्ञान विशेष को भी व्यवहार कहते हैं ।
१. आग़म व्यवहार — केवल ज्ञान, मनः पर्याय ज्ञान, प्रवधिज्ञान, चौदह पूर्व, दश पूर्व और नव पूर्व का ज्ञान श्रागम कहलाता है । श्रागम ज्ञान से प्रवर्तित प्रवृत्ति एवं निवृत्ति रूप व्यवहार आगम व्यवहार कहलाता है ।
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४३८
श्रमण-सूत्र
२. श्रुत व्यवहार-आचारांग यादि सूत्रों का ज्ञान श्रुत है । श्रुत ज्ञान से प्रवर्तित व्यवहार श्रुत व्यवहार कहलाता है । यद्यपि नव, दश
और चौदह पूर्व का ज्ञान भी श्रु त रूप ही है, तथापि अतीन्द्रियार्थ-विषयक विशिष्ट ज्ञान का कारण होने से उक्त नव, दश आदि पूर्वो का ज्ञान सातिशय है, अतः अागमरूप माना जाता है । और नव पूर्व से न्यून ज्ञान सातिशय न होने से श्रुत रूप माना जाता है !
३. आज्ञा व्यवहार-दो गीतार्थ साधु एक दूसरे से अलग दूर देश में रहे हुए हों और शरीर-शक्ति के क्षीण हो जाने से विहार करने में असमर्थ हों । उनमें से किसी एक को प्रायश्चित्त आने पर वह मुनि योग्य गीतार्थ शिष्य के अभाव में मति एवं धारणा में अकुराल अगीतार्थ शिष्य को आगम की सांकेतिक गूढ़ भाषा में अपने अतिचार दोष कह कर या लिख कर उसे दूरस्थ गीतार्थ मुनि के पास भेजता है और इस प्रकार अपनी पापालोचना करता है । गूढ़ भाषा में कही हुई अालोचना को सुनकर वे गीतार्थ मुनि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, संहनन, धैर्य, बल आदि का विचार करके स्वयं वहाँ पहुँच कर प्रायश्चित प्रदान करते हैं अथवा योग्य गीतार्थ शिष्य को भेज कर उचित प्रायश्चित की सूचना देते हैं । यदि गीतार्थ शिष्य का योग न हो तो अालो बना के सन्देशवाहक उसी अगीतार्थ शिश्य के द्वारा ही गूढ भाषा में प्रायश्चित की सूचना भिजवाते हैं । यह सब अाज्ञा व्यवहार है । अर्थात् दूर देशान्तरस्थित गीतार्थ की आज्ञा से अालोचना आदि करना, अाज्ञा व्यवहार है।
४. धारणा व्यवहार-किसी गीतार्थ मुनि ने द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से जिस अपराध का जो प्रायश्चित दिया है, कालान्तर में उसी धारणा के अनुसार वैसे अपराध का वैसा ही प्रायश्चित देना, धारणा व्यवहार है। ___ वैयावृत्त्य करने आदि के कारण जो साधु गच्छ का विशेष उपकारी हो, वह यदि सम्पूर्ण छेद-सूत्र सिखाने के योग्य न हो तो उसे गुरुदेव
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बोल-संग्रह
४३६ कृमा पूर्वक उचित प्रायश्चित्त विधान की शिक्षा दे देते हैं। और वह शिष्य यथावसर कालान्तर में अपनी उक्त धारणा के अनुसार प्रायश्चित श्रादि का विधान करता है, यह धारणा व्यवहार है ।
५. जीत व्यवहार-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, व्यक्ति विशेष, प्रतिसेवना, संहनन एवं धैर्य आदि की क्षीणता का विचार कर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह जीत व्यवहार है । ___ अथवा किसी गच्छ में कारण-विशेष से सूत्र से न्यूनाधिक प्रायश्चित्त की प्रवृत्ति हुई हो और दूसरों ने उसका अनुसरण कर लिया हो तो वह प्रायश्चित जीत व्यवहार कहा जाता है। अर्थात् अपने-अपने गच्छ की परंपरा के अनुसार प्रायश्चित्त आदि का विधान करना, जीत व्यवहार है।
अथवा अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा प्रचारित की हुई मर्यादा का प्रतिदिन करने वाला ग्रन्थ जीत कहलाता है और उसके द्वारा प्रवर्तित व्यवहार जीत व्यवहार है। ___ उक्त पाँच व्यवहारों में यदि व्यवहर्ता के पास अागम हो तो उसे श्रागम से व्यवहार करना चाहिए। श्रागम में भी केवल ज्ञान, मनः पर्याय आदि अनेक भेद हैं। इनमें पहले केवल ज्ञान आदि के होते हुए उन्हीं से व्यवहार चलाया जाना चाहिए, दूसरों से नहीं। आगम के अभाव में श्रुत से, श्रु त के अभाव में प्राज्ञा से, आज्ञा के अभाव में धारणा से, और धारणा के अभाव में जीत व्यवहार से प्रवृत्ति निवृत्तिरूप व्यवहार का प्रयोग करना चाहिए । देश, काल के अनुसार उपयुक्त पद्धति से सम्यक् रूपेण पक्षपातरहित व्यवहारों का प्रयोग करता हुआ साधक भगवान् की आज्ञा का अाराधक होता है।
[स्थानांग सूत्र ५। २ । ४२१]
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जे नो | जे नो । जे नाणु करति कारवंति मोयंति
( २१ ) अठारह हजार शीलाङ्ग रथ
।
६.....
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मणसा] वयसा कायसा २.... | २.... | २....
निजिया | निजिया | निजिया | निजिया
जे नो करेंति मणसा, निजियाहारसन्ना सोइंदिए; पुढवीकायारंभे, खंतिजुश्रा ते मुणी वंदे ।
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हारसन्ना | भयसन्ना महुणसन्ना मन्त्रा ५००
| ५०० | ५०० | ५००
श्रमण सूत्र
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श्रोत्रेन्द्रिय
चन्तु घाणेन्द्रिय रसनेन्द्रिय १०० र
| रिन्द्रिय | १००
१००
स्पर्शनेन्द्रिय १००
पृथिवी
अप
।
तेज
| वायु | वनस्पति द्वीन्द्रिय | त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पञ्चन्द्रिय
१०
१० । १०
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क्षान्ति | मुक्ति | आजव | मार्दव | लाघव | सत्य
संयम
तप | ब्रह्मचर्य अकिंचन |
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विवेचनादि में प्रयुक्त ग्रंथों की सूची
१ अजित जिन स्तवन-उपाध्याय देवचन्द्र २ अनुयोग द्वार सूत्र ३ अनुयोगद्वार--टीका ४ अथर्व वेद ५ अमितगति श्रावकाचार ६ अष्टक प्रकरण-आचार्य इरिभद्र ७ आवश्यक बृहद् वृत्ति-प्राचार्य हरिभद्र ८ आवश्यक टीका-श्राचार्य मलयगिरि ६ श्राचारांग सूत्र १० आवश्यक चूर्णि-जिनदास महत्तर ११ श्रावश्यक सूत्र-पूज्य श्री अमोलक ऋषि १२ आवश्यक नियुक्ति प्राचार्य भद्रबाहु १३ उत्तराध्ययन सूत्र १४ उत्तराध्ययन टीका-भाव विजय १५ उत्तराध्ययन टीका-प्राचार्य शान्ति सूरि १६ भोपपातिक सूत्र १७ ऋग्वेद १८ कठोपनिषद् १६ गुरु ग्रन्थ साहब २० छान्दोग्योपनिषद २१ जय धवला २२ तत्वार्थ भाष्य-उमा स्वाति
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४४२
श्रमण-सूत्र
२३ तत्त्वार्थ राजवार्तिक- भट्टाकलंक
२४ तीन गुण व्रत - पूज्य जवाहिराचार्य २५ द्वात्रिंशिका - वाचक यशोविजय २६ धर्म संग्रह —मान विजय
२७
२८ निरुक्क - यास्क
२६ निशीथ चूर्णि - जिनदास गणी महत्तर ३० दशवेकालिक सूत्र
३२ दशवैकालिक सूत्र टीका - आचार्य हरिभद्र
धाम पढ़ – तथागत बुद्ध
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३२ दशाश्रुत स्कन्ध
३३ प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी - श्राचार्य प्रभाचन्द्र ३४ प्रतिक्रमण सूत्र वृत्ति - श्रावार्य नमि ३५. प्रतिक्रमण सूत्र वृत्ति - प्राचार्य तिलक ३६ पञ्च प्रतिक्रमण - पं० सुखलालजी
O
३७ प्रवचन सार - श्राचार्य कुन्द कुन्द ३८ प्रपचन सारोद्धार - आचार्य नेमिचन्द्र ३६ प्रवचन सारोद्धार वृत्ति
४०
बृहत्कल्प भाष्य - संवदास गणी ४१ बोल संग्रह - भैरुदानजी सेठिया ४२ भगवद् गीता
४३ भगवती सूत्र
४४ भगवती सूत्र वृत्ति - आचार्य अभयदेव ४५ भामिनी विलास - परितराज जगन्नाथ
४६ भागवत
४७ महा धवला
४८ महाभारत ४६ मूलाचार - केर
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विवे जनादि में प्रयुक्त ग्रथों की सूची ४४३ ५० मूलाराधना-विजयोदया-श्राचार्य अपराजित ५१ योग दर्शन ५२ योगदर्शन व्यासभाष्य ५३ योगशिखोपनिषद् ५४ योगशास्त्र वृत्ति-प्राचार्य हेमचन्द्र ५५ विशेषावश्यक भाष्य-जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण ५६ वैशेषिक दर्शन ५७ वैराग्य शतक-भर्तृहरि ५८ व्यवहार भाष्य ५. सर्वार्थ सिद्धि-पूज्यपाद ६० सर्वार्थ सिद्धि-कमलशील ६१ साधु प्रतिक्रमण-पूज्य श्री आत्मारामजो ६२ सूत्र कृतांग सूत्र ६३ सूत्र कृतांग टीका ६४ संथारा पइन्ना ६५ सम्यक्त्व पराक्रम-पूज्य जवाहिराचार्य ६६ समवायांग सूत्र ६७ समधायांग सूत्र टीका-प्राचार्य अभयदेव
संग्रहणी गाथा समयसार - प्राचार्य कुन्द कुन्द
समयसार नाटक-बनारसीदासजी ७१ सौन्दरानन्द काव्य-महाकवि अश्वघोष ७२ सौर परिवार ७१ स्थानांग सूत्र ७४ हरिभद्रीय आपश्यक वृत्ति टीप्पणक-मलधार गच्छीय
प्राचार्य हेमचन्द्र
६६ समयस
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सन्मति ज्ञान पीठ के प्रकाशन सामायिक सूत्र
[ उपाध्याय पं० मुनि श्री अमरचन्द्र जी महाराज ]
प्रस्तुत ग्रन्थ उपाध्याय जी ने अपने गम्भीर अध्ययन, गहन चिन्तन और सूक्ष्म अनुवीक्षण के बल पर तैयार किया है । सामायिक सूत्र पर ऐसा सुन्दर विवेचन एवं विश्लेषण किया गया है कि सामायिक का लक्ष्य तथा उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है । भूमिका के रूप में, जैन धर्म एवं जैन संस्कृति के सूक्ष्म तत्त्वों पर आलोचनात्मक एक सुविस्तृत निबन्ध भी आप उसमें पढ़ेंगे ।
इस में शुद्ध मूल पाठ, सुन्दर रूप में मूलार्थ और भावार्य, संस्कृत प्रेमियों के लिए छायानुवाद और सामायिक के रहस्य को समझाने के लिए विस्तृत विवेचन किया गया है। मूल्य २(1)
सत्य- हरिश्चन्द्र
[ उपाध्याय पं० मुनि श्री अमरचन्द्रजी महाराज ]
'सत्य हरिश्चन्द्र' एक प्रबन्ध-काव्य है | राजा हरिश्चन्द्र की जीवनगाथा भारतीय जीवन के अणु अणु में व्याप्त है । सत्य परिपालन के लिए हरिश्चन्द्र कैसे-कैसे कष्ट उठाता है और उसकी रानी एवं पुत्र रोहित पर क्या क्या पदाएँ ग्राती हैं, फिर भी सत्यप्रिय राजा हरिश्रन्द्र सत्यधर्म का पल्ला नहीं छोड़ता, यही तो वह महान् आदर्श है, जो भारतीयसंस्कृति का गौरव समझा जाता है ।
कुशल काव्य-कलाकार कवि ने अपनी साहित्यिक लेखनी से राजा हरिश्चन्द्र, रानी तारा और राजकुमार रोहित का बहुत ही रमणीय चित्र खींचा है । काव्य की भाषा सरल और सुबोध तथा भावाभिव्यक्ति प्रभावशालिनी है । पुस्तक की छपाई सफाई सुन्दर है । सजिल्द पुस्तक का मूल्य १ || ) |
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सन्मति ज्ञान पीठ के प्रकाशन
जैनत्व की झाँकी
[ उपाध्याय पं० मुनि श्री अमरचन्द्र जी महाराज ]
इस पुस्तक में महाराज श्री जी के निबन्धों का संग्रह किया गया है । उपाध्याय श्री जी एक कुशल कवि और एक सफल समालोचक तो हैं ही ! परन्तु वे हमारी समाज के एक महान् निबन्धकार भी हैं । उनके निबन्धों में स्वाभाविक श्राकर्षण, ललित भाषा और ठोस एवं मौलिक विचार होते हैं।
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प्रस्तुत पुस्तक में जैन इतिहास, जैन-धर्म, और जैन-संस्कृति पर लिखित निबन्धों का सर्वाङ्ग सुन्दर संकलन किया गया है । निबन्धों का वर्गीकरण ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक और दार्शनिक रूपों में किया गया है। जैन धर्म क्या है ? उसकी जगत और ईश्वर के सम्बन्ध में क्या मान्यताएँ हैं और जैन-संस्कृति के मौलिक सिद्धान्त कर्मवाद और स्याद्वाद जैसे गम्भीर एवं विशद विषयों पर बड़ी सरलता से प्रकाश डाला गया है । निबन्धों की भाषा सरस एवं सुन्दर है ।
जो सज्जन जैन-धर्म की जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिए यह पुस्तक बड़ी उपयोगी सिद्ध होगी । हमारी समाज के नवयुवक भी इस पुस्तक को पढ़कर अपने धर्म और संस्कृति पर गर्व कर सकते हैं । पुस्तक सर्वप्रकार से सुन्दर है । राजसंस्करण का मूल्य १ | ) साधारण संस्करण का मूल्य || | ) |
भक्तामर स्तोत्र
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तक संस्कृत में ही प्राप्त
[ उपाध्याय पं० मुनि श्री श्रमरचन्द्रजी महाराज ] आपको भगवान् ऋषभदेवजी की स्तुति थी । उपाध्याय श्री जी ने भक्तों की कठिनाई को दूर करने के लिए सरल एवं सरस अनुवाद और सुन्दर टिप्पणी एवं विवेचन के द्वारा भक्तामर - स्तोत्र को बहुत ही सुगम बना दिया है। संस्कृत न जानने वालों के लिए हिन्दी भक्तामर भी जोड़ दिया गया है । मूल्य । ) ।
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श्रमण सूत्र
कल्याणमन्दिर-स्तोत्र [ उपाध्याय मुनि श्री अमरचन्द्रजी महाराज ] प्रस्तुत पुस्तक में प्राचार्य सिद्धसेन रचित भगवान् पाश्र्वनाथजी का संस्कृत स्तोत्र है । उपाध्याय श्री जी ने उसका सरल अनुवाद और सुन्दर विवेचन करके और गम्भीर स्थलों पर टिप्पणियाँ देकर साधारण लोगों के लिए, भी उसका रसास्वादन सुगम बना दिया है । छपाई-सफाई सुन्दर है । पुस्तक के पीछे हिन्दी-कल्याण-मन्दिर भी है । मूल्य ॥)।
वीर-स्तुति [ उपाध्याय पं० मुनि श्री अमरचन्द्रजी महाराज ] इस पुस्तक में भगवान् महावीर की स्तुति है। इसमें गणधर सुधर्मा स्वामीजी ने भगवान् महावीर के गुणों का बहुत ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया है । मूल-पाठ प्राकृत भाषा में होने से भक्तजनों को बड़ी कठिनाई थी। उपाध्याय श्री जी ने इसका भावानुवाद, पद्यानुवाद और विवेचन द्वारा इसे बहुत ही सुगम बना दया है । साथ ही संस्कृत का महावीराष्टक भी पद्यानुवाद और भावानुवाद सहित देकर पुस्तक को और भी अधिक उपयोगी बना दिया है। मूल्य ।।)।
___ मंगल-वाणी [पण्डित मुनि श्री अमोलचन्द्रजी महाराज ] प्रस्तुत पुस्तक में तीन विभाग हैं, जिनमें क्रमशः प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी के भावपूर्ण एवं विशुद्ध स्तोत्रों और स्तवनों का सुन्दर संकलन किया गया है । जैन-धर्म के सुप्रसिद्ध और प्रतिदिन पठनीय वीर स्तुति, भक्तामर, कल्याण मन्दिर और मेरी मापना, पञ्चपदों की वन्दना तथा समाज में प्रचलित हिन्दी के प्रायः सभी स्तवनों का इस पुस्तक में अद्यतन शैली से संकलन किया गया है। सुख-साधन और जैन स्तुति से भी अधिक सुन्दर संग्रह है। सुन्दर छपाई, गुटकाकार और पृष्ठ संख्या ३२५ है। परिशिष्ट में पञ्चकल्याणक एवं स्तोत्रों के कल्प तथा स्तोत्रों के पढ़ने
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सन्म ते ज्ञान पीट के प्रकाशन
के विधि-विधान भी दिए गए हैं। पाठ करने वाले बन्धुत्रों के लिए पुस्तक संग्रहणीय है । मूल्य साधारण संस्करण ११) राज संस्करण २)
संगीतिका [ सङ्गीत-विशारद पण्डित विश्वम्भरनाथ भट्ट एम ए. एल एल. वी.]
प्रस्तुत पुस्तक में उपाध्याय कवि श्री अमरचन्द्रजी महाराज के रचित गीतों का बहुत ही सुन्दर सम्मादन एवं संकलन हुआ है। संगृहीत गीतों का वर्गीकरण भी मनोवैज्ञानिक पद्धति से हुआ है । सब से बड़ी विशेषता तो यह है कि सङ्गीतशास्त्र के उद्भट विद्वान् पण्डित विश्वम्भरनाथजी ने सभी गीतों की श्राधुनिक प्रचलित रागों में स्वरलिपि तैयार करके सङ्गीत प्रेमियों का बड़ा उपकार किया है। सङ्गीत सीखने वालों के लिए यह पुस्तक बड़ी ही उपयोगी सिद्ध होगी।
पुस्तक में संकलित सभी गीत राष्ट्रीय, सामाजिक और धार्मिक हैं । सभी प्रकार के उत्सवों पर गाए जा सकते हैं । पुस्तक अपने ढङ्ग की सबसे निराली है । पुस्तक की छपाई-सफाई बहुत ही आकर्षक एवं सुन्दर है । पार्ट पेपर पर छपी हुई इस पुस्तक का मूल्य ६) और साधारण संस्करण का ३॥)।
उज्ज्वल-वाणी [ श्री रत्नकुमार 'रत्नेश' साहित्य रत्न, शास्त्री ] प्रस्तुत पुस्तक में महासती श्री उज्ज्वलकुमारीजी के प्रोजस्वी एवं क्रान्तिकारी प्रवचनों का बहुत ही सुन्दर संकलन और सम्पादन हुआ है । सतीजी स्थानकवासी समाज की एक परम विदुषी और प्रौढ विचारशीला साध्वी हैं । आपके प्रवचनों में स्वाभाविक वाणी का प्रवाह, सुप्त-समाज को प्रबुद्ध करने का विलक्षण प्रभाव और उच्च विचार विद्यमान हैं । जीवन को समाजोपयोगी, पवित्र, उन्नत, और सुखी बनाने के लिए यह पुस्तक अापके पथ प्रदर्शन का काम करेगी।
इस पुस्तक में राष्ट्रीय, समाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक प्रवचनों
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श्रमण-सूत्र
का संग्रह बहुत ही उपयोगी ढंग से किया गया है। प्रवक्ता, व्याख्यानदाता
और उपदेशकों के लिए यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी। सती उज्ज्वलकुमारीजी ने जैन-संस्कृति और जैनधर्म के सिद्धान्तों को अपने प्रवचनों में अभिनव शैली से समझाने का सफल प्रयास किया है। सभी विद्वानों ने इस पुस्तक की भरसक प्रशंसा की है ।
पुस्तक में आकर्षक गेट अप, सुन्दर छपाई-सफाई और बढ़िया कागज लगाया गया है । पृष्ट संख्या ३७५ और मूल्य ३) ।
जिनेन्द्र-स्तुति [उपाध्याय पं० मुनि श्री अमरचन्द्रजी महाराज ] इस पुस्तक में भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर तक २४ तीर्थंकरों की स्तुति है | मन्दाक्रान्ता छन्द में, सरस एवं सुन्दर भाषा में स्तुति पठनीय है । पुस्तक सर्वप्रकार से सुन्दर है । मूल्य ।) ।
भारतीय संस्कृति की दो धाराएँ
[पण्डित इन्द्रचन्द्र एम० ए० वेदान्ताचार्य ] प्रस्तुत पुस्तक में विद्वान लेखक ने भारत की दो प्राचीन संस्कृतियों पर अधिकार पूर्वक विचार किया है । वे प्राचीन संस्कृतियाँ हैं-ब्राह्मण संस्कृति और श्रमण संस्कृति । पण्डित इन्द्रचन्द्र जी ने इस सम्बन्ध में जो कुछ भी लिखा है, वह सब ईमानदारी के साथ लिखा है।
विद्वान लेखक ने दोनों ही संस्कृतियों का वास्तविक चित्र खींचा है । पुस्तक सर्व साधारण के अध्ययन योग्य है । विषय गम्भीर होते हुए मी रोचक एवं पठनीय है । भाषा सरस और सुन्दर बन पड़ी है। पुस्तक सर्व प्रकार से संग्रहणीय है । मूल्य ।-)
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