________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
२२०
श्रमण सूत्र
की ओर है एवं पीठ संसार की ओर । वासना से उसे घृणा है, है, अत्यन्त घृणा है । उसका आदर्श एक मात्र उच्च जीवन, उच्च विचार और उच्च चार ही है । वह असंयम से संयम की ओर, ब्रह्मचर्य से ब्रह्मचर्यं की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर, मिथ्यात्व से सम्यक्त्त्व की ओर श्रमार्ग से मार्ग की ओर गतिशील रहना चाहता है । यही कारण है कि यदि कभी भूल से कोई दोष हो गया हो, ग्रात्मा संयम से संयम की ओर भटक गया हो तो उसकी प्रतिक्रमण द्वारा शुद्धि की जाती है, पश्चातान के द्वारा पाप कालिमा साफ की जाती है । संयम की जरा सी भी रेखा जीवन पर नहीं रहने दी जाती । प्रतिक्रमण के द्वारा आलोचना कर लेना ही अलं नहीं है, परन्तु पुनः कभी भी यह दोष नहीं किया जायगा -- यह दृढ़ संकल्प भी दुहराया जाता है । प्रस्तुत प्रतिज्ञासूत्र में यही शिव संकल्प है । प्रतिक्रमण श्रावश्यक की समाप्ति पर, साधक, फिर संयम पथ पर कदम न रखने की अपनी धर्म घोषणा करता है ।
1
जैन धर्म का प्रतिक्रमण अपने तक ही केन्द्रित है । वह किसी ईश्वर अथवा परमात्मा के आगे पापों के प्रति क्षमा याचना नहीं है । ईश्वर हमारे पापों को क्षमा कर देगा, फल स्वरूप फिर हमें कुछ भी पाप फल नहीं भोगना पड़ेगा, इस सिद्धान्त में जैनों का ऋणुभर भी विश्वास नहीं है । जो लोग इस सिद्धान्त में विश्वास करते हैं, वे एक और पाप करते हैं एवं दूसरी ओर ईश्वर से प्रतिदिन क्षमा माँगते रहते हैं । उनका लक्ष्य पापों से बचना नहीं है, किन्तु पापों के फल से बचना है । जब कि जैन धर्म मूलतः पापों से बचने का ही आदर्श रखता है । श्रतएव वह कृत पापों के लिए पश्चाताप कर लेना ही पर्याप्त नहीं समता; प्रत्युत फिर कभी पान न होने पाएँ इस बात की भी सावधानी रखता है ।
पूर्व नमस्कार
प्रतिज्ञा करने से पहले संयम पथ के महान् यात्रो श्री ऋषभादि महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकर देवों को नमस्कार किया गया है। यह नियम
For Private And Personal