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क्षामणा-सूत्र
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है, वैसे ही उससे, उसके स्वरूप से, उसकी छाया से और उसकी साँस -साँस से दशों दिशाओं में आनन्द, मंगल और सुख शान्ति की अमृत धाराएँ हर समय प्रवाहित होती रहती हैं एवं संसार को, स्वर्ग-सदृश बनाती रहती हैं ।"
जैन-धर्म, आज के धार्मिक जगत में क्षमा का सबसे बड़ा पक्षपाती है । जैन-धर्म को यदि क्षमा-धर्म कहा जाय तो यह सत्य का अधिक स्पीकर होगा | जैनों का प्रत्येक पर्व = उत्सव क्षमा धर्म से श्रोत प्रोत है । जैन धर्म का कहना है कि तुम अपने विरोधी के प्रति भी उदार, सहृदय, शान्त बनो । भूल हो जाना मनुष्य का प्रमाद-जन्य स्वभाव है; अतः किसी के अपराध को गाँठ बाँध कर हृदय में रखना, धार्मिक मनोवृत्ति, नहीं है । जैन धर्म की साधना में अहोरात्र में दो चार सायंकाल और प्रातः काल - प्रत्येक प्राणी से क्षमा माँगनी होती है । चाहे किसी ने तुम्हारा अपराध किया हो, अथवा तुमने किसी का अपराध किया हो; विशुद्ध हृदय से स्वयं क्षमा करो और दूसरों से क्षमा करा । न तुम्हारे हृदय में द्व ेष की ज्वाला रहे और न दूसरे के हृदय में, यह कितना सुन्दर स्नेह पूर्ण जीवन होगा !
क्षमा के विना कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती । उग्र से उग्र क्रिया काण्ड, दीर्घ से दीर्घ तपश्चरण, क्षमा के प्रभाव में केवल देहदण्ड ही होता है; उससे ग्रात्मकल्याण तनिक भी नहीं हो सकता । ईसामसीह ने भी एक बार कहा था - " तुम अपनी आहुति चढ़ाने देव मन्दिर में जाते हो और वहाँ द्वार पर पहुँच कर यदि तुम्हें याद ना जाय कि तुम्हारा श्रमुक पड़ौसी से मनमुटाव है तो तुम आहुति वहीं देवमन्दिर के द्वार पर छोड़ो और वापस जाकर अपने पड़ौसी से क्षमा माँगो । पड़ौसी से मैत्री करने के बाद ही देवता को भेंट चढ़ानी चाहिए ।" कितना ऊँचा एवं भव्य आदर्श है ? जब तक हृदय क्षमा-भाव से कोमल न हो जाय, तब तक उसमें धर्म कल्पतरु का मृदु अंकुर किस प्रकार अंकुरित हो सकता है ?
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