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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रभक्तार्थ = उपवास सूत्र इस प्रकार उपवास में 'अट्टमभतं श्रभत्तट्ठ" पढ़ना चाहिए । उपवासकी संख्या को दूना करके उसमें दो और मिलाने से जो संख्या आए उतने 'भत्त'' कहना चाहिए। जैसे चार उपवास के प्रत्याख्यान में 'दसमभत्त' और पाँच उपवास के प्रत्याख्यान में 'बारहभसं' इत्यादि । ३२६ अन्तकृद् दशांग आदि सूत्रों में तीस दिन के व्रत को 'सट्टिभत्त' कहा है । इस पर से कुछ विद्वानों को आशंका है कि ये संज्ञाएँ उपर्युक्त कडिका के अर्थ को द्योतित नहीं करतीं ? ये केवल प्राचीन रूढ़ संज्ञाएँ ही हैं । इस लिए श्री गुणविनयगणी धर्मसागरीय उत्सूत्र खण्डन में लिखते हैं- 'प्रथम दिने चतुर्थमिति संज्ञा, द्वितीयेऽह्नि षष्ठं तृतीयेऽह्नि श्रष्टममित्यादि ।' " चव्विहाहार और तिविहाहार के रूप में उपवास दो प्रकार का होता है । चव्विहाहार का पाठ ऊपर मूलसूत्र में दिया है । सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय तक चारों श्राहारों का त्याग करना, चउव्विहाहार भत्त कहलाता है । तिविहाहार उपवास करना हो तो पानी का आगार रखकर शेष तीन आहारों का त्याग करना चाहिए । तिविहाहार उपवास करते समय 'तिविद्धं पि श्राहारं असणं, खाइमं साइमं ।' पाठ कहना चाहिए । कितने ही आचार्यों का मत है कि- 'पारिहाणियागारें' का गार तिविहाहार उपवास में ही होता है, चउविहाहार उपवास में नहीं । अतः चउविहाहार उपवास में 'पारिडावणियागारेणं' नहीं बोलना चाहिए | For Private And Personal अचार्य जिनदास लिखते हैं- 'जति तिविहस्स पञ्चकखाति विगिंचखियं कप्पति, जदि विहस्स पाशगं च नत्थि न वहति ।' - आवश्यक चूर्णि । आचार्य नाम लिखते हैं- 'चतुविधाहार प्रत्याख्याने पारिष्ठापनिका न कल्पते । प्रतिक्रमण सूत्र विवृति |
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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