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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वादशावते गुरुवन्दन-सूत्र २६६ यथाजात-मुद्रा . गुरुदेव के चरणों में वन्दन क्रिया करने के लिए शिष्य को यथाजात मुद्रा का अभिनय करना चाहिए । दोनों ही 'खमासमण सूत्र' यथाजात मुद्रा में पढ़ने का विधान है। यथा जात का अर्थ है यथा जन्म अर्थात् जिस मुद्रा में बालक का जन्म होता है, उस जन्मकालीन मुद्रा के समान मुद्रा। जब बालक माता के गर्भ से जन्म लेता है, तब वह नम होता है । उसके दोनों हाथ मस्तक पर लगे हुए होते हैं । संसार का कोई भी बाह्य वासनामय प्रभाव उस पर नहीं पड़ा होता है। वह सरलता, मृदुता, विनम्रता और सहृदयता का जीवित प्रतीक होता है। अस्तु, शिष्य को भी वन्दन के लिए इसी प्रकार सरलता, मृदुता, विनम्रता एवं सहृदयता का जीवित प्रतीक होना चाहिए । बालक अज्ञान में है, अतः वह कोई साधना नहीं है । परन्तु साधक तो ज्ञानी है। वह सरलता आदि गुणों को साधना की दृष्टि से विवेक पूर्वक अपनाता है, जीवन के कण-कण में नम्रता का रस बरसाता है, गुरुदेव के समक्ष एक सद्यःसंजात बालक के समान दयापात्र स्थिति में प्रवेश करता है और इस प्रकार अपने को क्षमा-भिक्षा का योग्य अधिकारी प्रमाणित करता है। यथाजात-मुद्रा में वन्दनार्थी शिष्य सर्वथा नम तो नहीं होता, परन्तु रजोहरण, मुख वस्त्रिका और चोलपट्ट के अतिरिक्त और कोई वस्तु अपने पास नहीं रखता है और इस प्रकार बालक के समान नग्नता का रूपक अपनाता है । भयंकर शीतकाल में भी यह नाम मुद्रा अपनाई जाती है । प्राचीनकाल में यह पद्धति रही है । परन्तु आजकल तो कपाल पर दोनों हाथों को लगाकर प्रणाम-मुद्रा कर लेने में ही यथाजात-मुद्रा की पूर्ति मान ली जाती है। यथाजात का अर्थ 'श्रमण वृत्ति धारण करते समय की मुद्रा' भो किया जाता है। श्रमण होना भी, संसार-गर्भ से निकल कर एक विशुद्ध आध्यात्मिक जन्म ग्रहण करना है । जब साधक श्रमण बनता है, तब For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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