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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir उपस हार-सूत्र २६७ जब तक पापाचार के प्रति घृणा न हो, तब तक मनुष्य उससे बच नहीं सकता । पापाचार के प्रति उत्कट घृणा रखना ही पापों से बचने का एक मात्र अस्खलित मार्ग है । अतः अालोचना, निन्दा, गर्हा और जुगुप्सा के द्वारा किया जाने वाला प्रतिक्रमण ही सच्चा प्रतिक्रमण है। प्राचार्य जिनदास प्रस्तुत उपस हार सूत्र में एवं के बाद 'अहं' का उल्लेख नहीं करते । अोर बालोइय, निन्दिय अादि में क्त्वा प्रत्यय भी नहीं मानते, जिसका अर्थ 'करके' किया जाता है । जैसे आलोचना करके, निन्दा करके इत्यादि । प्राचार्य श्री इन सब पदों को निष्ठान्त मानते हैं, फलतः उनके उल्लेखानुसार अर्थ होता है-मैंने अालोचना की है, निन्दा की है, गर्दी की है इत्यादि । दुगुछा का अर्थ भी स्वतंत्र नहीं करते । अपितु अालोचना, निन्दा और गर्दा को ही दुगुछा कहते हैं । देखिए अावश्यक चूर्णि प्रतिक्रमणाधिकार : "एवमित्ति अनेन प्रकारेण पालोइयं पयासितूणं गुरूणं कहितं, निन्दियं मणेण पच्छातावो । गरहितं वइजोगेण । एवं आलोइयनिंदियगरहियमेव दुगुंछितं । एवं तिवहेण जोगेण पडिक्यतो वंदामि चउव्वीसं ति ।" अन्त में चौबीस तीर्थकरों को नमस्कार मंगलार्थक है । प्रतिक्रमण के द्वारा शुद हुअा साधक अन्त में अपने को तीर्थंकरों की शरण में अर्पण करता है और अनर्जलम के रूप में मानो कहता है कि-"भगवन् ! मैंने श्रापकी आज्ञानुसार प्रतिक्रमण कर लिया है । आपकी साक्षी से विना कुछ छुपाए पूर्ण निष्कपट भाव से पालोचना, निन्दा, गर्दा कर के शुद्ध हो गया हूँ । अब मैं आपके पवित्र चरणों में वन्दन करने का अधिकारी हूँ। आप अन्तर्यामी हैं । घट-घट की जानते हैं । आपसे मेरा कुछ छुपा हुया नहीं है । अब मैं आपकी देख-रेख में भविष्य के लिए पवित्र सयम पथ पर चलने का दृढ़ प्रयत्न करूंगा।' For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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