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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir काल-प्रतिलेखना-सूत्र निष्कर्ष यह है कि-श्रात्मकल्याणकारी श्रेष्ठ पठन-पाठनरूप अध्ययन का नाम ही स्वाध्याय है। स्थानांग-सूत्र के टीकाकार अभयदेव सूरि स्वाध्याय का अर्थ करते हैं-सुष्टु = भलीभाँति श्रा=मर्यादा के साथ अध्ययन करने का नाम स्वाध्याय है । 'सुष्टु पा = मर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः'-स्था० २ ठा० २३० । __ वैदिक विद्वान् स्वाध्याय का अर्थ करते हैं—'स्वयमध्ययनम्'-किसी अन्य की सहायता के बिना स्वयं ही अध्ययन करना, अध्ययन किये हुए का मनन और निदिध्यासन करना। दूसरा अर्थ है-'स्वस्यात्मनोऽध्ययनम्'-अपने पापका अध्ययन करना और देखभाल करते रहना कि अपना जीवन ऊँचा उठ रहा है या नहीं ? जैन शास्त्रकारों ने स्वाध्याय के पाँच भेद बतलाए हैं-वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धमकथा । गुरुमुख से सूत्र पाठ लेकर, सूत्र जैसा हो वैसा ही उच्चारण करना, वाचना है । वाचना के द्वारा सूत्र के शब्द-शरीर की पूर्ण रूप से रक्षा की जाती है। अतएव हीनाक्षर, अत्यक्षर, पदहीन, घोष हीन आदि दोषों से बचने की सावधानी रखनी चाहिए । स्वाध्याय का दूसरा भेद पृच्छना है--सूत्र पर जितना भी अपने से हो सके तर्क-वितर्क, चिन्तन, मनन करना चाहिए और ऐसा करते हुए जहाँ भी शंका हो गुरुदेव से समाधान के लिए पूछना चाहिए । हृदय में उत्पन्न हुई शंका को शंका के रूप में ही रखना ठीक नहीं होता। . सूत्रवाचना विस्मृत न हो जाय, एतदर्थं सूत्र की बार-बार गुणनिका = परिवर्तना करना, परिवर्तना है ! सूत्रवाचना के सम्बन्ध में तात्त्विक चिन्तन करना, अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षा, स्वाध्याय का महत्त्वपूर्ण अंग है। विना अनुप्रेक्षा के ज्ञान चमक ही नहीं सकता। For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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