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शेष-सूत्र जिनकी मैंने स्तुति की है, जो कर्म रूप धूल तथा मन से रहित हैं, जो जरा-मरण दोषों से सर्वथा मुक्र हैं, वे अन्तः शत्रुओं पर विजय पाने वाले धर्म प्रवर्तक चौबीस तीर्थकर मुझ पर प्रसन्न हों ॥५॥
जिनकी इन्द्रादि देवों तथा मनुष्यों ने स्तुति की है, वन्दना की है, भाव से पूजा की है, और जो अखिल संसार में सबसे उत्तम हैं, वे सिद्ध = तीर्थकर भगवान् मुझे आरोग्य सिद्धत्व अर्थात् आत्मशान्ति, बोधि- सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय का पूर्ण लाभ, तथा उत्तम समाधि प्रदान करें ।। ६॥ ___ जो अनेक कोटा-कोटि चन्द्रमाओं से.भी. विशेष निर्मल हैं, जो सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान हैं, जो स्वयम्भूरमण जैसे महासमुद्र से भी अधिक गम्भीर हैं; वे तीर्थंकर सिद्धः भगवान मुझे सिद्धि प्रदान करें, अर्थात् उनके अालम्बन से मुझे सिद्धि मोक्ष प्रास हो ॥ ७ ॥
प्रणिपात-सूत्र नमोत्थुणे:! अरिहंताणं, भगवंताणं, ॥१॥ श्राइगराणं, 'तिस्थपराणं, सयं-संबुद्धाणं ॥२॥ पुरिसुत्तमाणं, पुरिस-सीहाणं, पुरिसवरपुडरियाणं, पुरिसवरगंधहत्थीणं, ॥३॥ लोमुत्तमाणं, लोगनाहाणं, लोगहियाणं, लोगपईवाणं, लोग-पज्जोयगराणं ॥४॥
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