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श्रमण-सूत्र
पंदरह परमाधार्मिक
(१) अम्ब (२) अम्बरीप (३) श्याम (४) शबल (५) रौद्र (६) उपरौद्र (७) काल (८) महाकाल (६) असिपत्र (१०) धनुः (११) कुम्भ (२२) वालुक (१३) वैतरणि (१४) खरस्वर (१५) महाघोष । ये परम अधार्मिक, पापाचारी, कर एवं निर्दय असुर जाति के देव हैं । नारकीय जीवों को व्यर्थ ही, केवल मनोविनोद के लिए यातना देते हैं । जिन संक्लिष्ट रूप परिणामों से परमाधामिकत्व होता है, उनमें प्रवृत्ति करना अतिचार है। उन अतिचारों का प्रतिक्रमण यहाँ अभीट है। 'एत्थ जेहिं परमाधम्मियत्तण भवति तेसु ठाणेसु जं वट्टितं ।'
--जिनदास मह्त्तर । गाथा षोडशक
(१) स्वसमय पर समय (२) वैतालीय (३) उपसर्ग परिज्ञा (४) स्त्री परिज्ञा (५) नरक विभक्ति (६) वीर स्तुति (७) कुशील
१-गाथा घोडशक का अभिप्राय यह है कि 'गाथा नामक सोलहवाँ अध्ययन है जिनका, वे सूत्रकृतांग-सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययन ।' प्राचार्य अभयदेव समवायांग सूत्र की टीका में उक्त शब्द पर विवेचन करते हुए लिखते हैं ---'गाथाभिधान मध्ययनं षोडशं येषां तानि गाथाषोडशकानि ।' श्री भावविजयजी भी उत्तराध्ययनान्तर्गत चरण विधि अध्ययन की व्याख्या में ऐसा ही अर्थ करते हैं । श्री जिनदास महत्तर भी अावश्यक चूणि' में लिखते हैं -'गाहाए सह सोलस अन्झयणा तेसु, सुत्तगडपढमसुतक्खंध अज्झयण सु इत्यर्थः । ।
परन्तु प्राचार्य श्री आत्मारामजी उत्तराध्ययन-सूत्र में उक्त शब्द का भावार्थं लिखते हैं कि 'गाथा नामक सोलवें अध्ययनमें ।'--उत्तराध्ययन ३१ । १३ । मालूम होता है प्राचार्यजी ने शब्दगत बहुवचन पर ध्यान नहीं दिया है, फलतः उन्हें बहुव्रीहि समास का ध्यान नहीं रहा।
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