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एकाशन-सूत्र
३२१ लिए प्रस्तुत प्रागार ही पर्याप्त है। मुनि और गृहस्थ दोनों के लिए ही यह मुरुभक्ति एवं अतिथिभक्ति का उच्च श्रादर्श अनुकरणीय है।
(४) पारितापनिकाकार-जैन मुनि के लिए विधान है कि वह अपनी आवश्यक दुधापूर्त्यर्थं परिमित मात्रा में ही आहार लाए, अधिक नहीं । तथापि कभी भ्रान्तिवश यदि किसी मुनि के पास श्राहार अधिक श्रा जाय और वह परठना डालना पड़े तो उस श्राहार को गुरुदेव की अाज्ञा से तपस्वी मुनि को ग्रहण कर लेना चाहिए। गृहस्थ के यहाँ से श्राहार लाना और उसे डालना, यह भोजन का अपव्यय है। भोजन समाज और राष्ट्र का जीवन है, अतः भोजन का अपव्यय सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन का अपव्यय है। ___ श्राचार्य सिद्धसेन परिष्ठापन में दोष मानते हैं और उसके ग्रहण कर लेने में गुण । “परिस्थापन-सर्वथा त्वजनं प्रयोजनमस्य पारिष्ठापनिक, तदेवाकारस्तस्मादन्यत्र, तत्र हि त्यज्यमाने बहुदोषसम्मवाश्रीयमाणे चागमिकन्यायेन गुणसम्भवाद् गुर्वाज्ञया पुनभुजानस्थाऽपि व भा" -प्रवचन सारोद्धार वृत्ति ।
एकस्थान-सूत्र एक्कासणं एगट्ठाणं पच्चक्खामि, तिविहं पि आहारअसणं, खाइम, साइमं ।
अन्नत्थ-ऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारियागारेणं, गुरुअब्भुट्ठाणेणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरामारेणं, सबसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि ।
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