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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २१८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रमण-सूत्र मार्ग=पूर्ण हितार्थ रूप सिद्धि की प्राप्ति का उपाय है, मुक्रि-मार्ग=अहित कर्म - बन्धन से मुक्र का साधन है, निर्याण मार्ग=मोक्ष स्थान का मार्ग है, निर्वाण - मार्ग = पूर्ण शान्ति रूप निर्वाण का मार्ग है । अवितथ= मिथ्यात्व रहित है, श्रविसन्धि विच्छेद रहित अर्थात् सनातन नित्य है तथा पूर्वा पर विरोध रहित है, सब दुःखों का पूर्णतया क्षय करने का मार्ग है । इस निर्ग्रन्थ प्रावचन में स्थित रहने वाले अर्थात् तद्नुसार श्राचरण करने वाले भव्य जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध = सर्वज्ञ होते हैं, मुक्र होते हैं, परिनिर्वाण = पूर्ण आत्म शान्ति को प्राप्ति करते हैं, समस्त दुःखों का सदा काल के लिए अन्त करते हैं । मैं निर्मन्थ प्रावचनस्वरूप धर्म की श्रद्धा करता हूँ, प्रतीति करता हूँ = सभक्ति स्वीकार करता हूँ, रुचि करता हूँ, स्पर्शना करता हूँ, पालना अर्थात् रक्षा करता हूँ, विशेष रूप से पालना करता हूँ मैं प्रस्तुत जिन धर्म की श्रद्धा करता हुआ, प्रतीति करता हुआ, रुचि करता हुआ, स्पर्शना = आचरण करता हुआ, पालना = रक्षण करता हुआ, विशेषरूपेण पुनः पुनः पालना करता हुआ: धर्म की आराधना करने में पूर्ण रूप से अभ्युत्थित अर्थात् सन्नद्ध हूँ, और धर्म की बिना = खण्डना से पूर्ण तया निवृत्त होता हूँ: संयम को जानता और त्यागता हूँ, सत्यम को स्वीकार करता हूँ, ब्रह्मचर्य को जानता और त्यागता हूँ, ब्रह्मचर्य को स्वीकार करता हूँ; प्रकल्प = अकृत्य को जानता और त्यागता हूँ, कल्प = कृत्य को स्वीकार करता हूँ, अज्ञान को जानता और त्यागता हूँ, ज्ञान को स्वीकार करता हूँ, प्रक्रिया = नास्तिवाद को जानता तथा त्यागता हूँ, क्रिया=सम्यग्वाद को स्वीकार करता हूँ, मिथ्यात्व = सदाग्रह को जानता तथा त्यागता हूँ, सम्यक्त्व = सदाग्रह को स्वीकार करता हूँ; प्रबोधि= मिथ्यात्वकाय को जानता हूँ, एवं त्यागता हूँ, बोधि सम्यक्त्व कार्य को For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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