________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
३१०
श्रमण-सूत्र
देता है और जीवन को भी ! कभी ऐसी स्थिति होती है कि जीवन की अपेक्षा तप महत्त्वपूर्ण होता है । कभी क्या, तप सदा ही महत्त्वपूर्ण है ! जीवन किसके लिए है ? तप के लिए ही तो जीवन है। परन्तु कभी ऐसी भी स्थिति हो सकती है कि तप को अपेक्षा जीवनरक्षा अधिक आवश्यक हो जाती है । तप जीवन पर ही तो आश्रित है। जीवन रहेगा तो कभी फिर भी तपः साधना की जा सकेगी। यदि जीवन ही न रहेगा तो, फिर तप कब और कैसे किया जा सकेगा ? “जीवनरो भद्रशतानि पश्येत् ।' ।
सर्वसमाधिप्रत्यय नामक प्रस्तुत प्रागार, इसी उपर्युक्त भावना को लेकर अग्रसर होता है । तपश्चरण करते हुए यदि कभी आकस्मिक विसूचिका या शूल आदि का भयंकर रोग हो जाय, फलतः जीवन संकट में मालूम पड़े तो शीघ्र ही औषधि आदि का सेवन किया जा सकता है। जीवन क्षति के विशेष प्रसंग पर प्रत्याख्यान होते हुए भी औषधि आदि सेवन कर लेने से जैन धर्म प्रत्याख्यान का भंग होना स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार के विकट प्रसंगों के लिए पहले से ही छूट रक्खी जाती है, जिसके लिए जैन-धर्म में श्रागार शब्द व्यवहृत है। जैन धर्म में तप के लिए अत्यन्त श्रादर का स्थान है, परन्तु उसके लिए व्यर्थं का मोह नहीं है। जैन धर्म के क्षेत्र में विवेक का बहुत बड़ा महत्त्व है। तप के हठ में अड़े रहकर औषधि सेवन न करना और व्यर्थ ही अनमोल मानव जीवन का संहार कर देना, जैन धर्म की दृष्टि में कथमपि उचित नहीं है । व्यर्थ का दुराग्रह रखने से आर्त और रौद्र दुर्ध्यान की संभावना है, जिनके कारण कभी कभी साधना का मूल ही नष्ट हो जाता है। अतः श्राचार्य सिद्धसेन की गंभीर वाणी में कहें तो औषधि का सेवन जीवन के लिए नहीं, अपितु प्रार्त रौद्र दुर्ध्यान की निवृत्ति के लिए आवश्यक है।
अपने को भयंकर रोग होने पर ही औषधि सेवन करना, यह बात नहीं है। अपितु किसी अन्य के रोगी होने पर यदि कभी वैद्य आदि को सेवाकार्य एवं सान्त्वना देने के लिए भोजन करना पड़े तो उसका भी प्रत्याख्यान में आगार होता है। जैन धर्म अपने समान ही दूसरे की
For Private And Personal