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श्रमण-सूत्र
के बाद पुनः ग्रहण न करना, पारिठापनिका समिति है । श्रादान-निक्षेप समिति में भी वस्तु का निक्षेप है और पारिष्ठापनिका में भी स्थापना शब्देन निक्षेप ही है । भेद इतना ही है कि आदान-निक्षेप समिति में सदा के लिए वस्तु का त्याग नहीं किया जाता, केवल उचित स्थान में रखा जाता है । परन्तु पारिष्ठापनिका में सदा के लिए त्याग कर दिया जाता है।
पारिष्ठापनिका समिति के पाठ में जल्ल के आगे मल शब्द का भी कुछ लोग प्रयोग करते हैं, वह अयुक्त है । जल्ल का अर्थ ही मल है, फिर व्यर्थ ही द्विरुक्ति क्यों की जाय ? प्राचार्य हरिभद्र आदि किसी भी प्राचीन प्राचार्य ने मल शब्द का उल्लेख नहीं किया है। पूज्यश्री
आत्मारामजी महाराज ने मूल पाठ में तो मल का प्रयोग नहीं किया है, परन्तु अर्थ में 'जल्ल-मल्ल' पाठ बताकर क्रमशः जल, मल अर्थ किया है । 'मल' के लिए 'मल्ल' शब्द किस भाषा में है ? कम से कम हम तो नहीं समझ सके । मल्ल का अर्थ पहलवान तो होता है। और जल्ल का जल अर्थ भी विचित्र ही है!
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