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श्रमण-सूत्र
क्या अभिप्राय है ? यह विचारणीय है ! आचार्य जिनदास काय से हाथ ग्रहण करते हैं । 'अपणो कारण हत्थेहि फुसिस्सामि ।' आचार्य श्री का अभिप्राय यह है कि श्रावर्तन करते समय शिष्य अपने हाथ से गुरु के चरणकमलों को स्पर्श करता है, अतः यहाँ कार्य से हाथ ही अमीर है | कुछ श्राचार्य काय से मस्तक लेते हैं | वंदन करते समय शिष्य गुरुदेव के चरणकमलों में अपना मस्तक लगाकर वंदना करता है, अतः उनकी दृष्टि में काय संस्पर्श से मस्तक - संस्पर्श ग्राह्य है। आचार्य हरिभद्र काय का अर्थ सामान्यतः निज देह ही करते हैं - ' कायेन निज देहेन संस्पर्शः कायसंस्पर्शस्तं करोमि ।'
परन्तु शरीर से स्पर्श करने का क्या अभिप्राय हो सकता है ? यह विचारणीय है । सम्पूर्ण शरीर से तो स्पर्श हो नहीं सकता, वह होगा मात्र हस्त-द्वारेण या मस्तक द्वारेण । अतः प्रश्न है कि सूत्रकार ने विशेषोल्लेख के रूप में हाथ या मस्तक न कह कर सामान्यतः शरीर ही क्यों कहा ? जहाँ तक विचार की गति है, इसका यह समाधान है कि शिष्य गुरुदेव के चरणों में अपना सर्वस्व अर्पण करना चाहता है, सर्वस्व के रूप में शरीर के करण करण से चरणकमलों का स्पर्श करके धन्य धन्य होना चाहता है । प्रत्यक्ष में हाथ या मस्तक का स्पर्श भले हो, परन्तु उसके पीछे शरीर के करण करण से स्पर्श करने की भावना है । अतः सामान्यतः काय-संस्पर्श कहने में श्रद्धा के विराट रूप को श्रमि व्यक्ति रही हुई है ! जब शिष्य गुरुदेव के चरणकमलों में मस्तक झुकाता है, तो उसका होता है गुरु चरणों में अपने मस्तक की भेंट अर्पण करना । शरीर में मस्तक ही तो मुख्य है | अतः जत्र मस्तक अर्पण कर दिया गया तो उसका अर्थ है अपना समस्त शरीर ही गुरुदेव के चरणकमलों में अर्पण कर देना । समस्त शरीर को गुरुदेव के चरणकमलों में अर्पण करने का भाव यह है कि अब मैं अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ आपकी आज्ञा में चलूँगा, आपके चरणों का अनुसरण करूँगा । शिष्य का अपना कुछ नहीं है । जो कुछ भी है, सब गुरुदेव
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