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स्वद
श्रमण-सूत्र
है । सदाचारी गुरुदेव और अपने सदाचार के प्रति किसी भी प्रकार की अवज्ञा एवं अवहेलना, जैनधर्म में स्वयं एक बहुत बड़ा पाप माना गया है, अनुशासन जैनधर्म का प्राण है ।
आइए, अब आशातना के व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ पर विचार करलें । 'ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही वास्तविक आय = लाभ है, उसकी शातना = खण्डना, आशातना है ।' गुरुदेव आदि का विनय ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र रूप आत्मगुणों के लाभ का नाश करने वाला है । देखिए, प्रतिक्रमण सूत्र के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य तिलक का अभिमत | 'आयस्य ज्ञानादिरूपस्य शातना = खण्डना श्राशातना । निरुक्त्या यलोपः ।'
आशातना के भेदों की कोई इयत्ता नहीं है । शातना के स्वरूपपरिचय के लिए दशाश्रु, तस्कन्ध-सूत्र में तेतीस श्राशातनाएँ वर्णन की गई हैं । परिशिष्ट में उन सब का उल्लेख किया गया है, यहाँ संक्षेप में द्रव्यादि चार श्राशातनाओं का निरूपण किया जाता है, श्राचार्य हरिभद्र के उल्लेखानुसार जिनमें तेतीस का ही समावेश हो जाता है । 'तित्तीसं पि चउसु व्वाइस समोयरंति'
द्रव्य शातना का अर्थ है - गुरु आदि रात्रिक के साथ भोजन करते समय स्वयं अच्छा-अच्छा ग्रहण कर लेना और बुरा-बुरा रात्रिक को देना । यही बात वस्त्र, पात्र आदि के सम्बन्ध में भी है ।
क्षेत्र शातना का अर्थ है - अड़कर चलना, अड़कर बैठना इत्यादि ।
काल
के द्वारा बोलने पर भी उत्तर न देना, चुप रहना ।
भाव आशातना का अर्थ है- आचार्य आदि रात्रिकों को 'तू' करके बोलना, उनके प्रति दुर्भाव रखना, इत्यादि ।
मनोदुष्कृता
मनोदुष्कृत का अर्थ है ! मन से दुष्कृत | मन में किसी प्रकार का
शातना का अर्थ है --रात्रि या विकाल के समय रात्रिकों
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