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बन्धन-सूत्र
'स्नेहाभ्यक्तशरीरस्य,
रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम् । राग-द्वषाक्लिन्नस्य,
कर्म - बन्धो भवत्येवम् ॥ -अर्थात् जिस मनुष्य ने शरीर पर तेल चुपड़ रक्खा हो, उसका शरीर उड़ने वाली धूल से जैसे सन जाता है, वैसे ही राग-द्वेष के भाव से प्राक्लिन्न हुए आत्मा पर कम-रज का बन्ध हो जाता है ।
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