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निर्विकृतिक-सूत्र
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शरीर के लिए पौष्टिक आहार सर्वथा वर्जित नहीं है। सर्वथा शुष्क श्राहार, कभी-कभी शरीर को क्षीण बना देता है। अतः यदा कदा पौष्टिक आहार लिया जाय तो कोई हानि नहीं है। परन्तु नित्य-प्रति विकृति का सेवन करना, निषिद्ध है । जो साधु नित्य प्रति विकृति का सेवन करता है, उसे शास्त्रकार पापश्रमण बतलाते हैं ।
निर्विकृति के नौ श्रागार हैं । पाठ श्रागारों का वर्णन तो पहले के पाठों में यथास्थान श्राचुका है । प्रतीत्यम्रक्षित 'नामक प्रागार नया है । भोजन बनाते समय जिन रोटी आदि पर सिर्फ़ उँगली से घी आदि चुपड़ा गया हो ऐसी वस्तुओं को ग्रहण करना, प्रतीत्य म्रक्षित' श्रागार कहलाता है। इस श्रागार का यह भाव है कि---घृत आदि विकृति का का त्याग करने वाला साधक धारा के रूप में घृत श्रादि नहीं खा सकता । हाँ घी से साधारण तौर पर चुपड़ी हुई रोटियाँ खा सकता है। "प्रतीत्य सर्वथा रूक्षमण्डकादि, ईषत्सौकुमार्य प्रतिपादनाय यदंगुल्या ईषद् घृतं ग्रहोस्वा म्रक्षितं तदा कल्पते, न तु धारया”
-तिलकाचार्य-कृत, देवेन्द्र प्रतिक्रमण वृत्ति विकृति द्रव और अद्रव के भेद से दो प्रकार की होती हैं । जो घृत, लैल आदि चिकृति द्रव हों, तरल हों, उनके प्रत्याख्यान में उत्क्षिप्तविवेक का श्रागार नहीं रखा जाता । गुड़ और पक्वान्न आदि अद्रव अर्थात् शुष्क विकृतियों के प्रत्याख्यान में ही उक्त आगार होता है।
किसी एक विकृति-विशेष का त्याग करना हो तो उसका नाम लेकर पाठ बोलना चाहिए । जैसे 'दुद्धविगइयं पञ्चक्खामि' 'दधिविंगइयं पच्चक्खामि' इत्यादि।
१ 'म्रक्षित' चुपड़े हुए को कहते हैं । और प्रतीत्य म्रक्षित कहते हैंजो अच्छी तरह चुपड़ा हुआ न हो, किन्तु चुपड़ा हुश्रा जैसा हो, अर्थात् म्रक्षिताभास हो। 'मक्षितमिव यद् वर्तते तत्प्रतीत्यम्रक्षित ब्रक्षिताभासमित्यर्थः । ----प्रवचन सारोद्धार वृत्ति
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