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श्रमग सूत्र
समिईए = समिति से
जन = जल्ल, शरीर का मल उच्चार = उच्चार, पुरीष
सिंघाण = नाक का मल पासवण = प्रस्रवण, मूत्र परिटटावणिया = इनको परखने की खेल :- श्लप्म, कफ
समिईए - समिति से
भावाथ ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, श्रादान-भाण्डमात्रनिह पणा समिति, उच्चार-प्रस्रवण-लम-जल्ल-सिंघाण-पारिष्टापनिका समिति-उक्र पाँचों समितियों से अर्थात् समितियों का सम्यक पालन न करने से जो भी अतिचार लगा हो उसका प्रतिक्रमण करता हूँ।
विवेचन विवेक युक्त होकर प्रवृत्ति करना, समिति है। 'सम्-एकीभावेन इतिः प्रवृत्तिः समितिः, शोभनैकाग्रपरिणामचेष्टेत्यर्थः ।' प्राचार्य नमि की उपयुक्त समिति की व्युत्पत्ति ही समिति के वास्तविक स्वरूप को प्रकट कर देती है। हिन्दी भाषा में उक्त संस्कृत व्युत्पत्ति का श्राशय यह है कि-प्राणातिपात अादि पापों से निवृत्त रहने के लिए प्रशस्त एकाग्रता-पूर्वक की जाने वाली यागमोक्त सम्यक् प्रवृत्ति, समिति कहलाती है।
समिति और गुप्ति में यह अन्तर है कि गुप्ति, प्रवृत्ति एवं निवृत्ति उभय रूप है। और समिति केवल प्रवृत्ति रूप ही है। अतएव समिति वाला नियमतः गुप्ति वाला होता है, क्योंकि समिति भी सत् प्रवृत्ति रूप अंशतः गुप्ति ही है । परन्तु जो गुप्ति वाला है, वह विकल्पेन समिति बाला होता है, अर्थात् समिति वाला हो भी, नहीं भी हो । क्योंकि सत्प्रवृत्तिरूप गुप्ति के समय समिति पायी जाती है, पर केवल निवृत्ति रूप गुप्ति के समय समिति नहीं पायी जाती । 'प्रवीचाराप्रवीचाररूपा गुप्तयः । समितयः प्रवीचाररूपा एव ।-श्राचार्य हरिभद्र ईया समिति
युग-परिमाण भूमि को एकाग्र चित्त से देखते हुए, जीवों को बचाते
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