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श्रमण-सूत्र
विवेचन निर्वात स्थान में स्थिर दीपशिखा के समान निश्चल और अन्य विषयों के संकल्प से रहित केवल एक ही विषय का धारावाही चिन्तन, ध्यान कहलाता है । अर्थात् अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थिर अध्यवसान एवं मन की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं । -
जीवस्स एगग्ग-जोगाभिणिवेसो झाणं । अंतोमुहुत्त तीव्रयोगपरिणामस्य अवस्थानमित्यर्थः ।'
___--प्राचार्य जिनदास गणी ध्यान, प्रशस्त और अप्रशस्त रूप से दो प्रकार का होता है। आर्त तथा रौद्र अप्रशस्त ध्यान हैं, अतः हेय त्याज्य हैं। धर्म तथा शुक्ल प्रशस्त ध्यान हैं, अतः उपादेय - आदरणीय हैं । अप्रशस्त ध्यान करना और प्रशस्त ध्यान न करना दोष है, इसी का प्रतिक्रमण प्रस्तुतसूत्र में किया गया है। आर्त ध्यान
अार्ति का अर्थ दुःख, कष्ट एवं पीड़ा होता है । श्राति के निमित्त से जो ध्यान होता है, वह आर्त ध्यान कहलाता है। अनिष्ट वस्तु के संयोग से, इष्ट वस्तु के वियोग से, रोग श्रादि के कारण से तथैव भोगों की लालसा से जो मन में एक प्रकार की विकलता-सी अर्थात् सतत कसकसी होती है, वह बात ध्यान है । रौद्र ध्यान
हिंसा आदि क र विचार रखने वाला व्यक्ति रुद्र कहलाता है। रुद्र व्यक्ति के मनोभावों को गैद्र ध्यान कहा जाता है। हिंसा करने, झूठ बोलने, चोरी करने और प्राप्त विषयभोगों की सरक्षण वृत्ति से ही करता का उद्भव होता है । अतएव हिंसा, असत्य -श्रादि का अर्थात् छेदनभेदन, मारण-ताड़न एवं मिथ्या भाषण, कर्कश भाषण श्रादि कठोर प्रवृत्तियों का सतत चिन्तन करना, रौद्र ध्यान कहलाता है
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