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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वादशावत गुरुवन्दन-सूत्र तो साधक के जीवन को कुचल देती हैं, हीन बना देती हैं । विकासोन्मुख साधना स्वतन्त्र इच्छा चाहती हैं, मन की स्वयं कार्य के प्रति होनें वाली अभिरुचि चाहती है । यहीं कारण है कि जैन धर्म की साधना में सर्वत्र 'इच्छामि पडिकामामि इच्छामि खमासमशो' आदि के रूप में सर्वप्रथम 'इच्छामि' का प्रयोग होता है । 'इच्छामि' का अर्थ है मैं स्वयं चाहता हूँ, अर्थात् यह मेरी स्वयं अपने हृदय की स्वतन्त्र भावना है । २७७ 'इच्छामि' का एक और भी अभिप्राय है । शिष्य गुरुदेव के चरणों में विनम्र भाव से प्रार्थना करता है कि 'भगवन् ! मैं आपको वन्दन करने की इच्छा रखता हूँ । अतः आप उचित समझे तो आज्ञा दीजिए । आपकी आज्ञा का आशीर्वाद पाकर मैं धन्य धन्य हो जाऊँगा ।' ऊपर की वाक्यावली में शिष्य वन्दन के लिए केवल अपनी श्रोर से इच्छा निवेदन करता है, सदाग्रह करता है, दुराग्रह नहीं । नमस्कार भी नमस्करी की इच्छा के अनुसार होना चाहिए, यह है जैन सांस्कृति के शिष्टाचार का अन्तहृदय | यहाँ नमस्कार में भी इच्छा मुख्य हैं, उद्दण्डतापूर्ण बलाभियोग एवं दुराग्रह नहीं । श्राचार्य जिनदास कहते हैं-- 'एस्थ वंदितुमित्यावेदनेन श्रपच्छंदता परिहरिता ।" For Private And Personal क्षमाश्रमण 'श्रमु' धातु तप और खेद अर्थ में व्यवहृत होती हैं । अतः जो तपश्चरण करता है, एवं संसार से सर्वथा निर्विण्ण रहता हैं, वह श्रमण कहलाता है | क्षमाप्रधान श्रमण क्षमाश्रमण होता हैं | क्षमाश्रमण में क्षमा से मार्दव आदि दशविध श्रमण धर्म का ग्रहण हो जाता है । अस्तु, जो श्रमण क्षमा, मार्दव आदि महान् आत्मगुणों से सम्पन्न हैं, पने धर्म-पथ पर दृढ़ता के साथ अग्रसर हैं, वे ही वन्दनीय हैं । यह क्षमाश्रमण शब्द, किसको वन्दन करना चाहिए इस पर बहुत सुन्दर प्रकाश डालता है | १ ' खमागणे यमवादयो सूझता श्राचार्य जिनदास ।
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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