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श्रमण-सूत्र
ब्रह्मचर्य-महावत विश्व की समस्त नारी माता भगिनी न जानी,
देखते ही सुन्दरी-सी' युवती लुभाया हो। वाताविद्ध हड़ के समान बना चल-चित्त,
__काम - राग दृष्टिराग स्नेहराग छाया हो। बार-बार पुष्टि-कर सरस आहार भोगा,
शान्त इन्द्रियों में भोगानल दहकाया हो। दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें, ब्रह्म-महाव्रत में जो दूषण लगाया हो।
- अपरिग्रह-महाव्रत विद्यमान वस्तुओं पै मूर्छना, अविद्यमान
वस्तुओं की लालसा में मन को रमाया हो। गच्छ-मोह, शिष्य-मोह, शास्त्र-मोह, स्थान-मोह,
अन्य भी देहादि-मोह जाल में फंसाया हो। आवश्यकताएँ बढ़ा योग्यायोग साधनों से,
व्यर्थ ही अयुक्त वस्तु-संचय जुटाया हो। दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें,
अन्त्य महाव्रत में जो दूषण लगाया हो ।।
अरात्रिभोजन-व्रत अशनादि चारों ही आहार रात्रि-समय में,
जान या अजान स्वयं खाया हो, खिलाया हो। 'औषधी के खाने में तो कुछ भी नहीं है दोष',
प्राणमोही बन मिथ्या मन्तव्य चलाया हो। रसना के चकर में श्रा के सुस्वादु खाद्या
अग्रिम दिनार्थ वासी रक्खा हो, रखाया हो ।
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