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श्रमण-सूत्र खोलकर अंदर जाय तो अनुचित मालूम दे । यह उत्सर्ग मार्ग है। यदि किसी विशेष कारण के लिए आवश्यक वस्तु लेनी हो और तदर्थ किवाड़ खोलने हों तो यतना के साथ स्वयं खोले अथवा खुलवाये जा सकते हैं, यह अपवादमार्ग है। इस पर से जो लोग यह अर्थ निकालते हैं कि'साधु को किवाड़ खोलने और बंद नहीं करने चाहिएँ वे गलती पर हैं। इसके लिए दशवैकालिक सूत्र के पंचम अध्ययन की १८ वीं गाथा देखनी चाहिए, वहाँ गृहस्थ की प्राज्ञा लेकर किवाड़ खोलने का विधान स्पष्टतया उल्लिखित है। श्वानादि संघट्टन
साधु को बहुत शान्ति और विवेक के साथ आहार ग्रहण करना चाहिए । मार्ग में रहे हुए कुत्तों, बछडों और बच्चों के ऊपर पड़ते हुए भिक्षा लेना, लोकसभ्यता और अागम दोनों ही दृष्टियों से वर्जित है। जीव विराधना का दोष, इस प्रवृत्ति के द्वारा लगता है । मूल में दाग शब्द आता है, जिसका अर्थ स्त्री और बालक दोनों होते हैं, यह ध्यान में रहे । परन्तु टीकाकार बालक ही अर्थ ग्रहण करते हैं । मण्डी प्राभृतिका ___ मण्डी हक्कन को तथा उपलक्षण से अन्य पात्र को कहते हैं । उसमें तैयार किए हुए भोजन के कुछ श्रग्र अंश को पुण्यार्थं निकालकर, जो रख दिया जाता है, वह अग्रपिण्ड कहलाता है । लोक रूढ़ि के कारण श्राधेय अग्रपिण्ड भी आधार अर्थात् मण्डीपद वाच्य ही है। मण्डी की प्राभृतिका = भिक्षा, मण्डी प्राभृतिका कहलाती है। यह पुण्यार्थं होने से साधु के लिए निषिद्ध है । अथवा साधु के आने पर पहले अग्रभोजन दूसरे पात्र में निकाल ले और फिर शेष में से दे तो वह भी मण्डी प्राभृतिका दोष है; क्योंकि इससे प्रवृत्ति दोष लगता है। प्राचार्य श्री
आत्माराम जी महाराज उक्त पद का अभिपिण्ड अर्थ करते हैं, इसका रहस्य क्या है, यह अभी अज्ञात है | हाँ प्राचीन परम्परा में कहीं भी यह अर्थ नहीं देखा गया ।
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