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भयादि-सूत्र
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'पकिमाम एगविहे असंजमे' यह संयम का समास प्रतिक्रमण है । और यही प्रतिक्रमण श्रागे 'दोहिं बंधणेहिं' आदि से लेकर तेत्तीसाए श्रामायणाहि' तक क्रमशः विराट होता गया है ।
क्या यह प्रतिक्रमण तेतीस बोल तक का ही है ? क्या प्रतिक्रमण का इतना ही विराटरूप है ? नहीं, यह बात नहीं है । यह तो केवल सूचनामात्र है, उपलक्षण मात्र है । मलधार - गच्छीय श्राचार्य हेमचन्द्र के शब्दों में' 'दिङ मात्र प्रदर्शनाय' है ।
हाँ, तो प्रतिक्रमण के तीन रूप हैं जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट | 'usकमा विहे असंजमे' यह अत्यन्त संक्षिप्त रूप होने से जघन्य प्रतिक्रमण है । दो से लेकर तीन, चार, दशशत" सहस्र लक्ष" कोटि बुद्ध" किंबहुना, संख्यात तथा असंख्यात तक मध्यम प्रतिक्रमण है | और पूर्ण अनन्त की स्थिति में उत्कृष्ट प्रतिक्रमण होता है । इस प्रकार प्रतिक्रमण के संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त स्थान हैं ।
यह लोकालोक प्रमाण अनन्त विराट संसार है । इसमें अनन्त ही संयमरू हिंसा, असत्य, आदि हेय स्थान हैं, अनन्त ही संयम रूप अहिंसा, सत्य यादि उपादेय स्थान हैं, तथा अनन्त ही जीव, पुद्गल यदि ज्ञेय स्थान हैं । साधक को इन सबका प्रतिक्रमण करना होता है । अनन्त संयम स्थानों में से किसी भी सयम स्थान का श्राचरण न किया हो, तो उसका प्रतिक्रमण है । अनन्त संयम स्थानों में से किसी भी असंथम स्थान का श्राचरण किया हो, तो उसका प्रतिक्रमण है | अनन्त ज्ञेय स्थानों में से किसी भी ज्ञेय स्थान की सम्यक् श्रद्धा तथा प्ररूपणा न की हो, तो उसका प्रतिक्रमण है । सूत्रकार ने एक से लेकर तेतीस तक के बोल सूत्रतः गिना दिए हैं। आखिर एक-एक बोल गिनकर कहाँ तक गिनाते ? कोटि-कोटि वर्षों का जीवन समाप्त हो जाय, तब भी इन सब की गणना नहीं की जा सकती । अतः तेतीस के समान
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