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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४२६ श्रमण-सूत्र वन्दना के बत्तीस दोष (१) अनाहत-आदरभाव के बिना वन्दना करना । (२) स्तब्ध-अभिमान पूर्वक वन्दना करना अर्थात् दण्डायमान रहना, झुकना नहीं । रोगादि कारण का आगार है। (३) प्रविद्धः--अनियंत्रित रूप से अस्थिर होकर वन्दना करना । अथवा वन्दना अधूरी ही छोड़ कर चले जाना । (४) परिपिण्डित--एक स्थान पर रहे हुए प्राचार्य यादि को पृथक्-पृथक् वन्दना न कर एक ही वन्दन से सब को वन्दना करना । अथवा जंघा पर हाथ रख कर हाथ पैर बाँधे हुए अस्पट-उच्चारण-पूर्वक वन्दना करना। (५) टोलगति-टिड्ड की तरह आगे पीछे कूद-फाँद कर वन्दना करना । (६)अंकुश-रजोहरण को अंकुश की तरह दोनों हाथों से पकड़ कर वन्दना करना । अथवा हाथी को जिस प्रकार बलात् अंकुश के द्वारा बिठाया जाता है, उसी प्रकार प्राचार्य आदि सोये हुए हों या अन्य किसी कार्य में संलग्न हों तो अवज्ञापूर्वक हाथ खींच कर वन्दना करना अंकुश दोष है। . (७) कच्छ परिगत–'तित्तिसन्नयराए' श्रादि पाठ कहते समय खड़े होकर अथवा 'अहोकायंकाय' इत्यादि पाठ बोलते समय बैठ कर कछुए की तरह रेंगते अर्थात् आगे-पीछे चलते हुए वन्दना करना । . (८) मत्स्योवृत्त-प्राचार्यादि को वन्दना करने के बाद बैठेबैठे ही मछली की तरह शीघ्र पार्श्व फेर कर पास में बैठे हुए अन्य रत्नाधिक साधुअों को वन्दना करना । (१) मनसा प्रद्विष्ट- रत्नाधिक गुरुदेव के प्रति असूया पूर्वक वन्दना करना, मनसाप्रद्विष्ट दोष है। For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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