SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वादशावर्त गुरुवन्दन-सूत्र २८७ --'यात्रा द्विविधा द्रव्यतो भावत। द्रव्यतस्तापसादीनां मिथ्यादृशां स्वक्रियोत्सपणं, भावतः साधूनामिति ।.... यापनापि द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । द्रव्यतः शर्कराद्राक्षादिसदोषधैः कायस्य समाहितत्वं, भावतस्तु इन्द्रियनोइन्द्रियोपशान्तत्वेन शरीरस्य समाहितत्वम् ।' -प्रवचनसारोद्धार वंदनक द्वार । श्रावश्यिकी __ अवश्य करने योग्य चरण-करणरूप श्रमण योग 'आवश्यक' कहे जाते हैं । आवश्यक क्रिया करते समय प्रमादवश जो रत्नत्रय की विराधना हो जाती है वह श्रावश्यिकी कहलाती है । अतः 'श्रावस्सियाए' का अभिप्राय यह है कि 'मुझसे अावश्यक योग की साधना करते समय जो भूल हो गई हो, उस आवश्यिकी भूल का प्रतिक्रमण करता हूँ ।' 'आवस्सियाए' कहते हुए जो अवग्रह से बाहर निकला जाता है, वह इसलिए कि गुरुदेव के चरणों में से कहीं अन्यत्र आवश्यक कार्य के लिए जाना होता है तो गुरु देव को सूचना देने के लिए 'श्रावस्सिया' कहा जाता है, यह आवश्यिकी समाचारी है । अतः यहाँ भी 'श्रावस्तियाए' को श्रावश्यिकी का प्रतीक मानकर शिष्य श्रवग्रह से बाहर होता है । यही कारण है कि दूसरे खमासमणो में 'श्रावस्सियाए' नहीं कहा जाता और न अवग्रह से बाहर ही पाया जाता है । श्राशातना - 'पाशातना' शब्द जैन श्रागम-साहित्य का एक प्राचीन पारिभाषिक शब्द है । जैन .म अनुशासन-प्रधान धर्म है। अतः यहाँ पद-पद पर अरिहन्त, सिद्ध, आचाय, उपाध्याय, साधु, और गुरुदेव का, किंबहुना, ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप धर्म साधना तक का भी सम्मान रक्खा जाता १ अवश्यकर्तव्यश्वरण-करणयोगैर्निवृत्तिा आवश्यकी तया ऽऽसेवनाद्वारेण हेतुभूतया यदसाध्वनुष्ठितं तस्य प्रतिक्रामामि विनिवर्तयामीत्यर्थः ।'-प्राचार्य हरिभद्र । For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy