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श्रमण सून काय-गुप्ति
.. शारीरिक क्रिया सम्बन्धी सरंभ, समारंभ, प्रारंभ में प्रवृत्ति न करना; उठने बैठने-हलने-चलने-सोने आदि में संयम रखना; अशुभ व्यापारों का परित्याग कर यतना पूर्वक सत्प्रवृत्ति करना; काय-गुप्ति है। संरंभ, समारंभ, आरंभ
हिंसा आदि कार्यों के लिए प्रयत्न करने का संकल्प करना सरंभ है । उसी सकल्प एवं कार्य की पूर्ति के लिए साधन जुटाना समारंभ है
और अन्त में उस सकल्प को कार्य रूप में परिणत कर देना प्रारंभ है । हिंसा आदि कार्य की, संकल्पात्मक सूक्ष्म अवस्था से लेकर उसको प्रकट रूप में पूरा कर देने तक, जो तीन अवस्थाएँ होती हैं, उन्हें ही अनुक्रम से सरंभ, समारंभ, प्रारंभ कहते हैं ।
तत्त्वार्थ सूत्रकार उमास्वातिजी ने 'सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥४इस सूत्र के द्वारा मन, वचन और शरीर के योगों का जो प्रशस्त निग्रह किया जाता है, उसे गुप्ति कहा है। प्रशस्तनिग्रह का अर्थ है--विवेक
और श्रद्धा पूर्वक मन, वचन एवं शरीर को उन्मार्ग से रोकना ओर सन्मार्ग में लगाना । इस पर से फलित होता है कि-हठयोग आदि की प्रक्रियाओं द्वारा किया जाने वाला योगनिग्रह गुप्ति में सम्मिलित नहीं होता। .. एक बात और । यहाँ सूत्र में गुप्तियों से प्रतिक्रमण नहीं किया है, प्रत्युत गुप्तियों से होने वाले दोषों से प्रतिक्रमण किया है। यही कारण है कि 'गुत्तीहिं' में पंचमी न करके . हेत्वर्थ तृतीया विभक्ति की है, जिसका सम्बन्ध गुप्तिहेतुक अति चारों से है। गुति से अतिचार कैसे होते हैं ? गुप्ति का ठीक अाचरण न करना, उसकी श्रद्धा न करना, अथवा गुप्ति के सम्बन्ध में विपरीत प्ररूपणा करना, गुप्तिहेतुक अतिचार होते हैं ।
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