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प्रतिज्ञा-सूत्र
२३३
साधना का भी चरम लक्ष्य निर्वाण है । परन्तु जैन धर्म सम्मत निर्वाण और बौद्धाभिमत निर्वाण में आकाश पाताल का अन्तर है। जैन धर्म का निर्वाण उपर्युक्त वर्णन के आधार पर भाववाचक है, अात्मा की अत्यन्त शुद्ध पवित्र अवस्था का सूचक है। हमारे यहाँ निवाण अभाव नहीं, परन्तु निजानन्द की सर्वोत्कृष्ट भूमिका है। निर्वाणपद प्राप्त कर साधक, प्राचार्य जिनदास के शब्दों में 'परम सुहिणो भवति' अर्थात् परम सुखी हो जाते हैं, सब दुःखों से मुक्त होकर सदा एक रस रहने वाले अात्मानन्द में लीन हो जाते हैं । परन्तु बौद्ध दर्शन की यह मान्यता नहीं है । वह निर्वाण को अभाववाचक मानता है। उसके यहाँ निर्वाण का अर्थ है बुझ जाना । जिस प्रकार दीपक जलता जलता बुझ जाए तो वह कहाँ जाता है ? ऊपर आकाश में जाता है या नीचे भूमि में ? पूर्व को जाता है या पश्चिन को ? दक्षिण को जाता है या उत्तर को ? किस दिशा एवं विदिशा में जाता है ? आप कहेंगे-वह तो बुझ गया, नष्ट हो गया। कहीं भी नहीं गया। इसी प्रकार बौद्ध दर्शन भी कहता है कि "निर्वाण का अर्थ यात्म-दीपक का बुझ जाना, नष्ट हो जाना है । निर्वाण होने पर श्रात्मा कहीं नहीं जाता । जाता क्या, वह रहता ही नहीं । उसकी सत्ता ही सदा के लिए नष्ट हो गयी।” उक्त कथन के प्रमाणत्वरूर सुप्रसिद्ध बौद्ध महाकवि अश्वघोष की निर्वाण-सम्बन्धीव्याख्या देखिए । वह कहता है:दीपो यथा नितिमभ्युपेतो,
नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काश्चिद् विदिशं न काश्चित्,
स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।। तथा कृती नितिमभ्युपेतो,
वावनि गच्छति नान्तरिक्षम् ।
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