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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " गोचरचर्या सूत्र ६१ यदि श्राचार्यों की परंपरा के अनुसार यहाँ वही अर्थ उचित है, जो हमने शब्दार्थ तथा भावार्थ में प्रकट किया है । विकृत दधि तथा श्रोदन श्रादि भोजन में जो यदा-कदा रसज प्राणी उत्पन्न हो जाते हैं, उनकी विराधना जिस भिक्षा में होती है, वह भिक्षा प्राणभोजना कहलाती है । एक साधारण-सा प्रश्न यहाँ उठ सकता है । वह यह कि मूल शब्द में प्राणी नहीं, प्राण शब्द है, उसका अर्थ प्राणी किस प्रकार किया जा सकता है ? उत्तर में कहना है कि अर्शाद्यच् प्रत्यय के द्वारा 'प्राणा अस्थ सन्तीति प्राण:' इस प्रकार प्राणों वाला प्राणी भी प्राण शब्द वाच्य हो जाता है | पथक आलोचना सूत्र में 'पाणक्कमणे' का अर्थ मी उक्त रीति से प्राणियों पर आक्रमण करना होता है । द्वादशावर्तं वन्दन सूत्र इच्छामि खमासमणों में 'कोहाए' आदि चार शब्द भी अर्शाद्यच् के द्वारा ही सिद्ध होते हैं । 'कोहाए' = 'क्रोधया' का अर्थ होता है'arastr स्तीति क्रोधा, तथा क्रोधवत्या क्रोधानुगतया ।' जो आशातना क्रोध से युक्त हो वह क्रोवा कहलाती है । श्रागम में इस भाँति शव प्रत्यय का प्रयोग विपुल परिमाण में हुआ है । अतएव पाणभोणा में भी पारण = प्राण शब्द प्राणी का वाचक ही माना जाता है। Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अदृष्टाहृता गृहस्थ के घर पर पहुँच कर, साधू को जो भी वस्तु लेनी हो, वह स्वयं जहाँ रक्खी हो, अपनी आँखों से देखकर लेनी चाहिए । यदि कोठे श्रादि में रक्खी हुई वस्तु, विना देखे ही हुई ले ली जाती है तो वह ग्राहृत दोष से ग्राह्य होती है । इस दोषोल्लेख के अन्तर में वस्तु न मालूम किस सचित्त वस्तु पर रक्खी हुई हो ? अतः उसके लेने में जीवविराधना दोष लगता है । पारिष्ठापनिका परिष्ठापन से होने वाली भिक्षा, परिष्ठापनिका कहलाती है। पूज्यश्री For Private And Personal गृहस्थ के दूषित होने यह भाव है द्वारा लाई के कारण कि — देय
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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