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श्रमण सूत्र
अज्ञान = बुद्धिहीनता का दुःग्य (२२) दर्शन परीवह = सम्यक्त्व भ्रष्ट करने वाले मिथ्या मतों का मोहक वातावरण ।
हरिभद्र ग्रादि कितने ही प्राचार्य नैपोधिकी के स्थान में निपद्या परीवह मानते हैं और उसका अर्थ वमति = स्थान करते हैं । इस स्थिति में उनके द्वारा अग्रिम शय्या परीषह का अर्थ-सस्तारक अर्थात् सौंथारा, बिछौना अर्थ किया गया है । स्त्री साधक के लिए पुरुष परीषह् है ।
तुवा ग्रादि किसी भी कारण के द्वारा अापत्ति पाने पर संयम में स्थिर रहने के लिए तथा कर्मों की निर्जरा के लिए जो शारीरिक तथा मानसिक कष्ट, साधु को सहन करने चाहिएँ, उन्हें परीषह कहते हैं । 'परीसहिज्जंते इति परीसहा अहियासिज्जंतितिं वुशं भवति ।'---जिनदास महत्तर । परीत्रहों को भली भाँति शुद्ध भाव से सहन न करना, परीषदसम्बन्धी अतिचार होता है, उसका प्रतिक्रमण प्रस्तुत सूत्र में किया गया है। सूत्रकृताङ्ग सूत्र के २३ अध्ययन
प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह अध्ययन सोलहवें बोल में बतला पाए हैं। द्वितीय श्रु तस्कन्ध के अध्ययन ये हैं-(१७) पौण्डरीक (१८) क्रिया स्थान (१६) थाहार परिज्ञा (२०) प्रत्याख्यान क्रिया (२१) प्राचारश्रुत (२२) श्राद्रकीय (२३) नालन्दीय । उक्त तेईस अध्ययनों के कथनानुसार संयमी जीवन न होना, अतिचार है । चौबीस देव
असुरकुमार आदि. दश भवनपति, भूत यक्ष प्रादि ग्राट व्यन्तर, सूर्य चन्द्र अादि पाँच ज्योतिष्क, और वैमानिक देव---इस प्रकार कुल चौबीस जाति के देव हैं। संसार में भोगजीवन के ये सब से बड़े प्रतिनिधि हैं । इनकी प्रशंसा करना भोगजीवन की प्रशंसा करना है और निन्दा करना द्वष भाव है, अतः मुमुक्षु को तटस्थ भाव ही रखना चाहिए । यदि कभी तटस्थता का भंग किया हो तो अतिचार है।
उत्तराध्ययन सूत्र के सुप्रसिद्ध टीकाकार आचार्य शान्तिसूरि यहाँ
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