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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भयादि सूत्र १८५ (१७) जीवों वाले स्थान पर तथा प्राणी, बीज, हरित, कीड़ीनगरा, लीलनफूलन, पानी, कीचड़, और मकड़ी के जालों वाले स्थान पर बैठना, सोना, कायोत्सर्ग श्रादि करना शबल दोप है । (१८) जानबूझ कर कन्द, मूल, छाल, प्रवाल, पुष्प, फूल, बीज, तथा हरितकाय का भोजन करना। (१६) वर्ष के अन्दर दम बार उदक लेप - नदी पार करना । (२०) वर्ष में दस माया स्थानों का सेवन करना । (२१) जानबूझ कर सचित्त जल वाले हाथ से तथा सचित्त जल सहित कड़छी आदि से दिया जानेवाला आहार ग्रहण करना । उपर्युक्त शबल दोष साधु के लिए सर्वथा त्याज्य हैं। जिन कार्यों के करने से चारित्र की निर्मलता नष्ट हो जाती है, चारित्र मलक्लिन्न होने के कारण कर्बुर हो जाता है, उन्हें शबल दोष कहते हैं । उक्त दोषों के सेवन करने वाले साधु भी शवल कहलाते हैं । 'शबलं-कबुरे चारित्रं यैः क्रियाविशेष भवति ते शबलास्तद्योगात्साघवोऽपि ।' -अभयदेव समवा० टीका । उत्तरगुणों में अतिक्रमादि चारों दोपों का एवं मूल गुणों में अनाचार के सिवा तीन दोपों का सेवन करने से चारित्र शबल होता है । बाईस परीषह (१) क्षुधा = भूख (२) पिपासा = प्यास (३) शीत = ठंड (४) उष्ण - गर्मी (५) दंशमशक (६) अचेल = वस्त्राभाव का कट (७) अरति = कटिनाइयों से घबरा कर सयम के प्रति होने वाली उदासीनता (८) स्त्री परीवह (६) चर्या = विहार यात्रा में होने वाला गमनादि कष्ट (१०) नैपोधिकी = स्वाध्याय भूमि आदि में होने वाले उपद्रव (११) शय्या = निवास स्थान की प्रतिकूलता (१२) आक्रोश - दुर्वचन (१३) वध लकड़ी श्रादि की मार सहना (१४) याचना (१५) अलाभ (१६) रोग (१७) तृण स्पर्श (१८) जल्ल-मल का परीषह (१६) सत्कार पुरस्कार = पूजा प्रतिष्ठा (२०) प्रशा - बुद्धि का गर्व (२१) For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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