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. श्रावक धर्म
भारम्भट्ठाणे । एस ठाणे पारिए जाव . सव्वदुक्ख-प्पहीणमग्गे एगंतसम्म साहू !'
[सूत्रकृतांग २ । २ । ३६] यह है अनन्तज्ञानी परम वीतराग भगवान् महावीर का निर्णय ! क्या इससे बढ़कर कोई और भी निर्णय प्राप्त करना है ? यदि श्रद्धा का कुछ भी अंश प्राप्त है तो फिर किसी अन्य निर्णय की आवश्यकता नहीं है । यह निर्णय अन्तिम निर्णय है। अब हम व्यर्थ ही चर्चा को लम्बी नहीं करना चाहते। ___ आइए, अब कुछ इस बात पर विचार करें कि गृहस्थ दशा में रहते हुए भी इतनी ऊँची भूमिका कैसे प्राप्त की जा सकती है ?
यह आत्म-देवता अनन्त काल से मिथ्यात्व की अंधकारपूर्ण काल रात्रि में भटकता-भटकता, असत्य की उपासना करता-करता, जब कभी सत्य की विश्वासभूमिका में आता है तो वह उसके लिए स्वर्णप्रभात का सुअवसर होता है । संसाराभिमुख अात्मा जब मोक्षाभिमुख होती है, बहिमुख से अन्तर्मुख होती है, अर्थात् विषयाभिमुख से अात्माभिमुख होती है, तब सर्वप्रथम सम्यक्त्वरूप धर्म की दिव्य ज्योति का प्रकाश प्राप्त होता है। __ सच्ची श्रद्धा का नाम सम्यक्त्व है । यह श्रद्धा अन्ध श्रद्धा नहीं है । अपितु वह प्रकाशमान जीवित श्रद्धा है, जिसके प्रकाश में जड़ को जड़ और चैतन्य को चैतन्य समझा जाता है, संसार को संसार और मोक्ष को मोक्ष समझा जाता है और समझा जाता है. धर्म को धर्म और अधर्म को अधर्म! निश्चय दृष्टि में विवेक बुद्धि का जागृत होना ही सम्यक्त्व है, तत्त्वार्थ-श्रद्धान है। अनन्त काल से हम यात्रा तो करते चले आ रहे थे, परन्तु उस का गन्तव्य लक्ष्य स्थिर नहीं हुआ था। यह लक्ष्य का स्थिरीकरण सम्यक्त्व के द्वारा होता है। सम्यक्त्व के अभाव में कितना ही उग्र क्रिया काण्डी क्यों न हो, वह अन्धा है, सर्व
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