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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir संक्षिप्त प्रतिक्रमण-सूत्र का पवयणमाऊण =प्रवचन माताओं जं-जो खंडियं = खगडना की हो नवण्हं =नी जं जो बंभचेरगुत्तीण = ब्रह्मचर्य गुप्तियोंकी विराहियं = विराधना की हो दसविहे = दश-विध तस्स = उसका समणधम्मे = श्रमणधर्म में के दुक्कडं = पाप समणाण= श्रमण सम्बन्धी मे= मेरे लिए जोगाण= कर्तव्यों की मिच्छा = मिथ्या हो भावार्थ मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ । ज्ञान, दर्शन, चारित्र में अर्थात् श्रुतधर्म और सामायिक धर्म के विषय में, मैंने दिन में जो कायिक, वाचिक तथा मानसिक अतिचार = अपराध किया हो; उसका पाप मेरे लिए निष्फल हो। वह अतिचार सूत्र से विरुद्ध है, मार्ग = परंपरा से विरुद्ध है, कल्प = आचार से विरुद्ध है, नहीं करने योग्य है, दुर्ध्यान · प्रातभ्यान रूप है, दुविचिन्तित = ध्यान रूप है, नहीं प्राचरने योग्य है, नहीं चाहने योग्य है, संक्षेपमें साधु-वृत्ति के सर्वथा विपरीत है-साधु को नहीं करने योग्य है। - तीन गुप्ति, चार कषायों की निवृत्ति, पाँच महावत, छह पृथिवी, जन प्रादि जीवनिकायों की रक्षा, सात पिएषणा, पाठ प्रवचन माता, नौ ब्रह्मचर्य गुप्ति, दशविध श्रमण धर्म के श्रमणसम्बन्धी कर्तव्य, यदि खण्डित हुए हों अथवा विराधित हुए हों तो वह सब पाप. मेरे लिए निष्फल हो। विवेचन मनुष्य देव भी है और राक्षस भी। देव, यों कि यदि वह सदाचार के मार्ग पर चले तो अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है, आसपास के देश, जाति और समाज का कल्याण कर सकता है, यदि और ".. For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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