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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २०४ श्रमण-सूत्र उपधान कहलाता है। उसे योग भी कहते हैं। अतः योगोद्वहन के, विना सूत्र पढ़ना भी योग हीनता है । विनय हान विनय हीन का अर्थ है, सूत्रों का अध्ययन करते समय वाचनाचार्य अादि की तथा स्वयं सूत्र के प्रति अनादर बुद्धि रखना, उचित विनय न. करना । ज्ञान विनय से ही प्राप्त होता है। विनय जिनशासन का मूल है । जहाँ विनय नहीं, वहाँ कैसा ज्ञान और कैसा चारित्र ? यहाँ कुछ पाठ में व्यत्यय है। किन्हीं प्रतियों में 'विणय-हीणं, 'घोसहीणं' यह क्रम है । अाजकल प्रचलित पाट भी यही है । परन्तु हरिभद्र का क्रम इससे भिन्न है । वह 'विणय हीणं, घोसहीणं, जोगहीणं' ऐसा क्रम सूचित करते हैं । अत्र रहे अावश्यक चूणि कार जिनदास महत्तर । उन्होंने क्रम रक्खा है-'पग्रहीणं, घोसहीणं, जोगहीणं, विणयहीणं ।' हमें श्री जिनदास महत्तर का क्रम अधिक मगत प्रतीत होता है । पद-हीनता ओर घोष हीनता तो उच्चारण सम्बन्धी भूले हैं। योग हीनता और विनय हीनता श्रु त के प्रति अावश्यक रूप में करने योग्य कर्तव्य की भूले हैं । अतः इन सबका पृथक पृथक् रूप में उल्लेग्य करना ही अच्छा रहता है । पदहीनता के बाद विनय हीनता और योगहीनता, तथा उसके पश्चात् अन्त में बोर हीनता का होना, विद्वानों के लिए विचारणीय विषय है। हमारी अल बुद्धि में तो यह क्रमभंग ही प्रतीत होता है । क्यों न हम श्राचार्य जिनदास के क्रम को अपनाने का प्रयत्न करें। घोष-हीन शास्त्र के दो शरीर माने जाते हैं शब्द शरीर और अर्थ शरीर । शास्त्र का पढ़ने वाला जिज्ञासु सर्वप्रथम शब्द-शरीर को ही स्पर्श करता है । अतः उसे उच्चारण के प्रति अधिक लक्ष्य देना चाहिए। स्वर के उतार चढ़ाव के साथ मनोयोगपूर्वक सूत्र पाठ पढ़ने से शीघ्र ही अर्थपतति होती है और ग्रास-पास के वातावरण में मधुर ध्वनि गूंजने For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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