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ऐयोपथिक-सूत्र
डालना, एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर बदलना, भयभीत करना, और तो क्या छूना भी हिंसा है। जैनधर्म का अहिंसा-दर्शन कितना सूक्ष्म है ! वह हिंसा और अहिंसा का विचार करते समय केवल ऊपर-ऊपर ही नहीं तैरता, अपितु गहराई में उतरता है। ___ जीव हिंसा का आगमों में, वैसे तो बहुत बड़े विस्तार के साथ वर्णन है । परन्तु इतने विस्तार में जाने का यहाँ प्रसंग नहीं है। संक्षेप में ही अहिंसा के मूल-रूप कितने होते हैं ? केवल यह बता देना ही श्रावश्यक है।
सर्वप्रथम जीव-हिंसा के तीन रूप होते हैं-सरंभ, समारंभ, और प्रारंभ ।
सरंभ-जीवों की हिंसा का संकल्प करना । समारंभ-जीवों की हिंसा के लिए साधन जुटाना, प्रयत्न करना ।
प्रारंभ-जीवों को किसी भी तरह का आघात पहुँचाना, घात कर डालना। __ उक्त तीनों को क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चार कषायों से गुणित करने पर ४ ४ ३% १२ होते हैं । इन बारह भेदों को मन, वचन, काय रूप तीन योगों से गुणन करने पर ३६ भेद होते हैं । इन ३६ भेदों को कृत = करना, कारित = कराना, अनुमोदना = समर्थन करते हुए को अच्छा समझना, इन तीन से गुणन करने पर जीवाधिकरणी हिंसा के १०८ भेद बन जाते हैं । अहिंसा-महाव्रत के साधकों को पूर्ण अहिंसा के लिए इन सब हिंसा के भेदों से बचकर रहने की आवश्यकता है।
मूल पाठ में हिंसा के भेद बताते हुए कहा है कि जीवों को छूना भी हिंसा है, जीवों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर बदलना भी हिंसा है। इस सम्बन्ध में प्रश्न है कि कोई दुर्बल अपंग पीड़ित जीव कहीं धूप या सरदी में पड़ा छटपटा रहा है, मृत्यु के मुख में पहुंच रहा है तो क्या उसे छूना और दुःखप्रद स्थान से सुख प्रद स्थान में
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