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श्रमण-सूत्र तीन-तीन अक्षरों के होते हैं । कमल-मुद्रा से अंजलि बाँधे हुए दोनों हाथों से गुरु चरणों को स्पर्श करते हुए अनुदात्त= मन्द स्वर से-'ज'अक्षर कहना पुनः हृदय के पास अञ्जलि लाते हुए स्वरित = मध्यम स्वर से- 'त्ता'- अक्षर कहना, पुनः अपने मस्तक को छूते हुएउदात्त स्वर से-'भे'--अक्षर कहना; प्रथम श्रावर्त है । इसी पद्धति से-'ज ....व....णि'-और-ज्ज....च....मे'-ये शेष दो श्रावर्त भी करने चाहिएँ । प्रथम 'खमासमणो' के छह और इसी भाँतिः दूसरे ‘खमासमणो के छह; कुल बारह श्रावर्त होते हैं । वन्दन-विधि ___ वन्दन श्रावश्यक बड़ा ही गंभीर एवं भावपूर्ण है.। अाज परंपरा की अज्ञानता के कारण इस ओर लक्ष्य नहीं दिया जा रहा है और केवल येन-केन प्रकारेण मुख से पाठ का पढ़ लेना ही वन्दन समझ लिया गया है । परन्तु ध्यान में रखना चाहिए कि विना विधि के क्रिया फलवती नहीं होती। अतः पाठकों की जानकारी के लिए स्पष्ट रूप से विधि का वर्णन किया जाता है :
गुरुदेव के श्रात्मप्रमाण क्षेत्र रूप अवग्रह के. बाहर प्राचार्य तिलक ने क्रमशः दो स्थानों की कल्पना की है,-एक 'इच्छा निवेदन स्थान'
और दूसरा 'अवग्रह प्रवेशाज्ञामाचना स्थान ।' प्रथम स्थान में वन्दन करने की इच्छा का निवेदन किया जाता है, फिर जरा आगे अवग्रह के पास जाकर अवग्रह में प्रवेश करने की अाज्ञा माँगी जाती है।
वन्दनकर्ता शिष्य, अवग्रह के बाहर प्रथम इच्छानिवेदन स्थान में यथा जात मुद्रा से दोनों हाथों में रजोहरण लिए हुए अर्धावनत होकर अर्थात् श्राधा शरीर झुका कर नमन करता है और 'इच्छामिःखमासमणों से लेकर मिसीहियाए' तक का पाठ पढ़ कर वन्दन करने की इच्छा निवेदन करता है। शिष्य के इस प्रकार निवेदन करने के पश्चात
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