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श्रमण-सूत्र
(१६) आहार आदि के लिए प्रथम दूसरे साधुओं को निमंत्रित कर बाद में रत्नाधिक को निमंत्रण देना ।
(१७) रत्नाधिक को बिना पूछे दूसरे साधु को उसकी इच्छानुसार प्रचुर अाहार देना। ___ (१८) रत्नाधिक के साथ आहार करते समय सुस्वादु आहार स्वयं खा लेना, अथवा साधारण श्राहार भी शीव्रता से अधिक खा लेना।
(१६) रत्नाधिक के बुलाये जाने पर सुना अनसुना कर देना ।
(२०) रत्नाधिक के प्रति या उनके समक्ष कठोर अथवा मर्यादा से अधिक बोलना।
(२१) रत्नाधिक के द्वारा बुलाये जाने पर शिष्य को उत्तर में 'मत्थएण वंदामि' कहना चाहिए। ऐसा न कह कर 'क्या कहते हो' इन अभद्र शब्दों में उत्तर देना ।
(२२) रत्नाधिक के द्वारा बुलाने पर शिष्य को उनके समीप पाकर बात सुननी चाहिए | ऐसा न करके आसन पर बैठे-ही-बैठे बात सुनना और उत्तर देना।
(२३) गुरुदेव के प्रति 'तू' का प्रयोग करना।
(२४) गुरुदेव किसी कार्य के लिए आज्ञा देवे तो उसे स्वीकार न करके उल्टा उन्हीं से कहना कि 'आप ही कर लो। ___(२५) गुरुदेव के धर्मकथा कहने पर ध्यान से न सुनना और अन्यमनस्क रहना, प्रवचन को प्रशंसा न करना । .. (२६) रत्नाधिक धर्मकथा करते हों तो बीच में ही टोकना'आप भूल गए । यह ऐसे नहीं, ऐसे है'-इत्यादि ।
(२७) रत्नाधिक धर्मकथा कर रहे हों, उस समय किसी उपाय से कथा-भंग करना और स्वयं कथा कहने लगना।
(२८) रत्नाधिक धर्मकथा करते हों उस समय परिषद का भेदन करना और कहना कि-'कब तक कहोगे, भिक्षा का समय हो गया है ।'
(२६) रत्नाधिक धर्म-कथा कर चुके हों और जनता अभी बिखरी
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