Book Title: Shraman Sutra
Author(s): Amarchand Maharaj
Publisher: Sanmati Gyanpith

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Page 729
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४२८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रमण-सूत्र (२१) हीलित - 'आपको वन्दना करने से क्या लाभ ?' - इस प्रकार हँसी करते हुए अवहेलनापूर्वक बन्दना करना | (२२) विपरिकुञ्चित - वन्दना अधूरी छोड़ कर देश आदि की इधर-उधर की बातें करने लगना । (२३) दृष्टादृष्ट - बहुत से साधु वन्दना कर रहे हों उस समय किसी साधु की आड़ में वन्दना किए बिना खड़े रहना अथवा अँधेरी जगह में वन्दना किए बिना ही चुपचाप खड़े रहना, परन्तु श्राचार्य के देख लेने पर वन्दना करने लगना, दृष्टादृष्ट दोष है । (२४) श्रृंग - वन्दना करते समय ललाट के बीच दोनों हाथ न लगाकर ललाट की बाँई या दाहिनी तरफ लगाना, श्रृंग दोष है । (२५) कर - वन्दना को निर्जरा का हेतु न मान कर उसे अरिहन्त भगवान् का कर समझना । (२६) मोचन - - वन्दना से ही मुक्ति सम्भव है, वन्दना के विना मोद न होगा - यह सोचकर विवशता के साथ वन्दना करना । (२७) आश्लिष्ट अनाश्लिष्ट - 'अहो काय काय' इत्यादि श्रावर्त देते समय दोनों हाथों से रजोहरण और मस्तक को क्रमशः छूना चाहिए । अथवा गुरुदेव के चरण कमल और निज मस्तक को क्रमशः छूना चाहिए । ऐसा न करके किसी एक को छूना, अथवा दोनों को ही न छूना, श्राश्लिष्ट अनाश्लिष्ट दोष है । (२८) उन आवश्यक वचन एवं नमनादि क्रियात्रों में से कोई सी क्रिया छोड़ देना । अथवा उत्सुकता के कारण थोड़े समय में ही वन्दन क्रिया समाप्त कर देना । --- (२६) उत्तरचूडा - वन्दना कर लेने के बाद उँचे स्वर से 'मत्थएण वन्दामि' कहना उत्तर चूड़ा दोष है । (३०) मूक -- पाठ का उच्चारण न करके मूक के समान वन्दना करना । For Private And Personal

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