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श्रमण-सूत्र
का इन्द्रियनिरोध, पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना, तीन गुप्तियाँ, पार चार प्रकार का अभिग्रह---यह सत्तर प्रकार का करण है।
जिस का नित्य प्रति निरंतर अावरण किया जाय, वह हावत श्रादि चरण होता है। और जो प्रयोजन होने पर किया जाय और प्रयोजन न होने पर न किया जाय, वह करण होता है। श्रोधनियुक्ति की टीका में आचार्य द्रोण लिखते हैं-"चरणकरणयोः कः प्रतिविशेषः ? नित्यानुष्ठानं चरणं, यत्तु प्रयोजने आपने क्रियते तत्करणमिति । तथा च व्रतादि सर्वकालमेव चर्यते, न पुन व्रतशून्यः कश्चित्कालः । पिण्डविशुद्धयादि तु प्रयोजने अापने क्रियते इति ।"
(१६)
चौरासी लाख जीव-योनि चार गति के जितने भी संसारी जीव हैं, उनकी ८४ लाख योनियाँ हैं । योनियों का अर्थ है---जीवों के उत्पन्न होने का स्थान । समस्त जीवों के ८४ लाख उत्पत्ति स्थान हैं । यद्यपि स्थान तो इस से भी अधिक हैं, परन्तु वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान के रूप में जितने भी स्थान परस्पर समान होते हैं, उन सब का मिल कर एक ही स्थान माना जाता है।
पृथ्वी काय के मूल भेद ६५० हैं । पाँच वर्ण से उक्त भेदों को गुणा करने से १७५० भेद होते हैं । पुन: दो गन्ध से गुणा करने पर ३५००, पुनः पाँच रस से गुणा करने पर १७५००, पुनः अाठ स्पर्श से गुणा करने पर १४०००० , पुनः पाँच संस्थान से गुणा करने से कुल सात लाख भेद होते हैं ।
उपर्युक्त पद्धति से ही जल, तेज एवं वायु काय के भी प्रत्येक के मूल भेद ३५० हैं । उनको पाँच वर्ण आदि से गुणन करने पर प्रत्येक की सात-सात लाख योनियाँ हो जाती हैं । प्रत्येक वनस्पति के मूलभेद ५०. हैं । उनको पाँच वर्ण अादि से गुणा करने से कुल दस लाख
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