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श्रमण-सूत्र
ईर्या-समिति
स्वच्छ, शुद्ध, श्रेष्ठजनगम्य
राजमार्ग
छोड़,
सूक्ष्म जन्तु पूरित कुपथ अपनाया हो । लखाता चला, कदम उठाया हो || शून्य-चित्त बना, गजेन्द्र रूप मिथ्या होवे, दूषण लगाया हो ॥
धाया हो ।
दाएँ-बाएँ अच्छे-बुरे दृश्यों को नीची दृष्टि से न देख बातों की बहार में विमुग्ध तुच्छकाय कीटों पै दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष गमन समिति में जो
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भाषा समिति
गाया हो ।
पूज्य आप्त पुरुषों का गाया नहीं गुणगान, यत्र-तत्र अपना ही कीर्तिगान सर्वजन हितकारी मीठे नहीं बोले बोल, हँसी से या चुगली से कलह बढ़ाया हो ॥ दूसरों के दोषों का जगत में ढिंढोरा पीटा,
वाणी के प्रताप हिंसा-चक्र भी चलाया हो । दैनिक 'अमर' सर्व पाप-दोष मिथ्या होवें,
भाषण समिति में जो दूषण लगाया हो ॥ एषणा - समिति
उद्गमादि बयालीस भिक्षा दोष टाले नहीं,
जैसा तैसा खाद्य फट पात्र में भराया हो । ताक-ताक ऊँचे ऊँचे महलों में दौड़ा गया, रङ्क-घर सूखी रोटी देख चकराया हो ॥ जीवनार्थं भोजन का संयम-रहस्य
भोजनार्थ
मात्र
साधुजीवन
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भुला, बनाया हो ।