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श्रमण सूत्र बंदिय = मस्तक से वन्दित श्राइच्चेसु = सूर्यो से भी महिया - भाव से पूजित, अहियं अधिक
रुग्ग-प्रारोग्य, श्रोत्मिक शान्ति पयासयरा = प्रकाश करने वाले बोहिलोभ = सम्यग्दर्शन-रूप सागरवरमहासागर से भी अधिक
बोधि का लाभ समाहिवरमुत्तमं = उत्तम समाधि सिडा- तीर्थंकर सिद्ध भगवान् दिनु = देवें
मम :- मुझे च देसु = चन्द्रमाओं से
सिद्धि = सिद्धि, कर्मों से मुक्रि निम्मलयरा = निर्मसतर दिसंतु = देवे'
भाषार्थ __ अखिल विश्व में धर्म का उद्द्योत = प्रकाश करने वाले, धमतीर्थ की स्थापना करने वाले, ( राग-द्वेष के ) जीतने वाले, (अंतरङ्ग काम .. क्रोधादि ) शत्रुओं को नष्ट करने वाले, केवलज्ञानी चौबीस तीर्थंकरों का मैं कीर्तन करूँगा स्तुति करूंगा ॥१॥
श्री ऋषभदेव, श्री अजितनाथ जी को वन्दना करता हूँ। सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पमप्रभ, सुपावं, और राम-द्वष के विजेता चन्द्रप्रभ जिनको नमस्कार करता हूँ ॥२॥
श्री पुष्पदन्त (सुविधिनाथ ), शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमलनाथ, राग द्वेष के विजेता अनन्त, धर्म तथा "श्री शान्ति नाथ भगवान को नमस्कार करता हूँ ॥ ३ ॥
श्री कुन्थुनाथ, बरनाथ, भगवती मल्ली, मुनिसुव्रत, एवं रागद्वेष के विजेता नमिनाथ जी को वन्दना करता हूँ। इसी प्रकार अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ, अन्तिम तीर्थकर वर्द्धमान (महावीर) “स्वामी को नमस्कार करता हूँ ॥ ४ ॥
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