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श्रमण-सूत्र
करता हुआ भी कभी कभी साधना पथ से इधर-उधर भटक जाता है । प्रस्तुत सूत्र के द्वारा स्वीकृत व्रत की शुद्धि की जाती है, भ्रान्ति-जनित दोषों की आलोचना की जाती है, और अन्त में मिच्छामि दुकडं देकर प्रत्याख्यान में हुए अतिचारों का प्रतिक्रमण किया जाता है । आलोचना • एवं प्रतिक्रमण करने से व्रत शुद्ध हो जाता है।
३ -- श्राचार्य जिनदास ने 'आराधित' के स्थान में 'अनुपालिते' कहा है। अनुपालित का अर्थ किया है— तीर्थंकर देव के वचनों का बार-बार स्मरण करते हुए प्रत्याख्यान का पालन करना । 'अनुपा लिय नाम अनुस्मृत्य अनुस्मृत्य तीर्थकरवचनं प्रत्याख्यानं पालियव्यं ।"
-श्रावश्यक चूर्णि ।
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